श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उखड़े हुए लोग।)

?अभी अभी # 318 ⇒ उखड़े हुए लोग? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कभी मैं भी इसी जमीन से जुड़ा था, इसी मिट्टी में पला बढ़ा था।  आज जहां चिकने टाइल्स का फर्श है, कल वहां गोबर से लिपा हुआ आंगन था।  एक नहीं, तीन तीन दरख़्त थे।  कल कहां यहां सोफ़ा, कुर्सी, कूलर और ए सी थे, बस फकत एक कुआं और ओटला था।  

सर्दी में धूप और गर्मी में नीम की ठंडी ठंडी छांव थी, बारिश में पतरे की छत टपकती थी, आसमान में बादल गरजते थे, बिजली चमकती थी।  तब दीपक राग से चिमनी, कंदील नहीं जलती थी, केरोसीन के तेल से ही स्टोव्ह भी जलता था।।  

घरों में लकड़ी का चूल्हा तो था, पर गैस नहीं थी।  सिगड़ी भी कच्चे पक्के कोयले की होती थी, सीटी वाले कुकर की जगह तपेली और देगची में दाल चावल पकते थे।  बिना घी के ही चूल्हे पर फूले हुए फुल्कों की खुशबू भूख को और बढ़ा देती थी।  तब कहां नमक में आयोडीन और टूथपेस्ट में नमक होता था।  

मौसम के आंधी तूफ़ान को तो हमने आसानी से झेल लिया लेकिन वक्त के तूफ़ान से कौन बच पाया है।  पहले मिट्टी के खिलौने हमसे दूर हुए, फिर धीरे धीरे मिट्टी भी हमसे जुदा होती चली गई।  वक्त की आंधी में सबसे पहले घर के बड़े बूढ़े हमसे बिछड़े और उनके साथ ही पुराने दरख़्त भी धराशाई होते चले गए। ।  

इच्छाएं बढ़ती चली गई, भूख मरती चली गई।  

सब्जियों ने स्वाद छोड़ा, हवा ने खुशबू।  रिश्तों की महक को स्वार्थ और खुदगर्जी खा गई, अतिथि भी फोन करके, रिटर्न टिकट के साथ ही आने लगे।  दूर दराज के रिश्तेदारों के पढ़ने आए बच्चे घरों में नहीं, हॉस्टल और किराए के कमरों में रहने लगे।  

सब पुराने कुएं बावड़ी और ट्यूबवेल सूख गए, घर घर, बाथरूम में कमोड, शॉवर और वॉश बेसिन लग गए।  पानी का पता नहीं, गर्मी में चारों तरफ टैंकर दौड़ने लग गए।  सौंदर्यीकरण और विकास की राह में कितने पेड़ उखाड़े, कितने गरीबों के घर उजाड़े, कोई हिसाब नहीं।।  

पहले जड़ से उखड़े, फिर मिट्टी से दूर हुए, पुराने घर नेस्तनाबूद हुए, बहुमंजिला अपार्टमेंट की तादाद बढ़ने लगी।  अपनी जड़ें जमाने के लिए हमें अपनी मिट्टी से

जुदा होना पड़ा, संस्कार, विरासत और परिवेश, सभी से तो समझौता करना पड़ा।  कितने घर उजड़े होंगे तब जाकर कुछ लोगों को मंजिलें मिली होंगी।  अपनी मंजिल तक अब आपको लिफ्ट ले जाएगी।  इसी धरा पर, फिर भी अधर में, क्या कहें, उजड़े हुए, उखड़े हुए अथवा लटके हुए ;

न तू ज़मीं के लिए है,

न आसमां के लिए।  

तेरा वजूद है अब

सिर्फ दास्तां के लिए।।  

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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