डॉ सत्येंद्र सिंह
(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “बाबू रामदयाल… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 18 ☆
लघुकथा – बाबू रामदयाल… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
बाबू रामदयाल आज बहुत दुखी हैं। मौत के तांडव की खबरों ने उन्हें हिला कर रख दिया है। उनके शहर में भी दो परिवार निराश्रित हो गए हैं। उन परिवारों के मुखिया एक दूसरे के मित्र थे और एक जघन्य घटना में दोनों एक साथ यमलोक सिधार गए। दोनों की पत्नियां शून्य में घूर रही हैं कि अब क्या होगा। उनके पति घूमने फिरने गए थे मृत्यु को गले लगाने नहीं। इस हादसे का जिम्मेदार कौन है, इसका उत्तर उन्हें कोई नहीं दे रहा।
शहर में गमगीन वातावरण बना रहा पूरे दिन। उनकी मौत की खबरें अखबारों में छपी उनके सामने रखी हैं । जगह जगह शोक सभाओं के बारे में सुन रहे हैं। दोषियों को सबक सिखाए जाने की कस्में खाई जा रही, ऐसी खबर भी हैं। लोग दांत किटकिटा रहे हैं वाट्सएप फेसबुक पर।
बाबू रामदयाल की हिम्मत नहीं हो रही कि मृतकों के घर की ओर एक चक्कर मार आएं। न अखबार पढ़ पा रहे न टीवी रेडियो सुन पा रहे। बस एकटक शून्य में दृष्टि गढाए हुए हैं जैसे अपनी खुली आंखों से अपना जनाजा देख रहे हों। पता नहीं क्यों उनके अंदर एक भय समा रहा है कि कोई उनके घर आकर उन्हें गोली मारकर मौत की नींद सुला जाए तो उनकी पत्नी का क्या होगा। बिना पढी लिखी अधेड़ अवस्था में कैसे जीवन यापन करेगी। उनके बैंक खाते में भी इतने पैसे जमा नहीं हैं कि उसकी जिंदगी उनसे कट जाए। वे जो कमा कर लाते हैं उसीसे हम दोनों का पेट भरता है। और न जाने कितने प्रश्न उनकी आंखों में समाए हुए हैं जो उन्हें सोने भी नहीं दे रहे।
वे शांत मुद्रा में अपने घर के बाहर बैठे हैं। तभी उनके एक पड़ोसी सामने से गुजरते हुए हाथ उठा कर कहते हैं, कैसे हैं रामदयाल जी । बाबू रामदयाल उनकी ओर देखते हैं और पाते हैं कि पड़ोसी के चेहरे पर तो एक शिकन भी नहीं है। रामदयाल हक्के बक्के से अपने पड़ोसी को जाते हुए देखते रहते हैं। सोचते हैं कि वातावरण में पसरे सन्नाटे की क्या इन्हें भनक तक नहीं।
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© डॉ सत्येंद्र सिंह
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“आपके द्वारा लिखा गया लेख उन लोगों के दर्द को बहुत सुंदरता से दर्शाता है जो इस हमले में पीड़ित हुए हैं, और उनके लिए कई प्रश्न अब भी अनुत्तरित हैं, जो शायद कभी सुलझाए भी नहीं जा सकेंगे।”