☆ व्यंग्य- कथा – सन्मानचिन्ह☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆
इतवार की छुट्टी थी। यूँ ही घूमने के लिये बाहर निकल पड़ा । रास्ते में शरद मिला। बहूत दिन के बाद भेट हुई थी। शरद मेरा जिगरी दोस्त है। स्कूल, कॉलेज में हम दोनों की पढ़ाई एक साथ हुई थी। आज-कल घर-गृहस्थी की व्यस्तता और रोजी-रोटी के चक्कर में बार बार मिलना नही होता था।
शरद ने कहा, ‘बहुत दिन के बाद मिल रहा है यार… चलो। घर चलेंगे। चाय की चुस्कियाँ लेते लेते बातें करेंगे।‘ मुझे कुछ खास काम नहीं था, सो उस के साथ चल पड़ा।
शरद हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहता है। आज-कल, एक अच्छे लेखक के रूप में उसका अच्छा नाम था। नवाजा जा रहा था।
शरद के ड्रॉईंग रूम में जैसे ही कदम रखा, सामने की दीवार पर लगी हुई शो केस पर नज़र टिकी। उस में आठ-दस सन्मानचिन्ह सजा कर रखे थे। मैं ने नज़दीक जाकर देखा, ‘अक्षर साहित्य संस्था’, ‘अमर साहित्य संस्था’, ‘चिरंजीव साहित्य संस्था’ ऐसे ही विभिन्न संस्था द्वारा दिए हुए सन्मानचिन्ह थे। मैंने शरद से गुस्से से कहा, ‘तुम्हारे इतने सन्मान समारोह हुए, एक बार भी मुझे नहीं बुलाया। मैं आता न तालियाँ बजाने के लिए। सामने बैठकर खूब तालियाँ पीटता।‘
उस नें कहा, ‘समारोह हुआ ही नहीं।‘
‘फिर? उन्होँ नें आपको ये सन्मानचिन्ह बाय पोस्ट भेजे? या फिर कुरियरद्वारा या बाय हॅन्ड?’ हैरान हो कर मैंने पूछा।
‘नहीं… वैसा नहीं है…’
‘फिर?…’
‘संस्था की इच्छानुसार मैं नें ये स्वयं ही बना लिये ?’
बात कोई मेरे पल्ले नहीं पड़ी। ‘ वो कैसे ?’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी।
शरद ने वहां रखे हुए टेबुल के खाने से एक फाईल निकाली। उसमें से एक कागज निकाल कर मेरे हाथ में थमा दिया और एक सन्मानचिन्ह की ओर निर्देशित करते हुए कहा, ‘अक्षर साहित्य संस्थ्या’ का यह सन्मानचिन्ह और यह उन का पत्र।‘
मैंनें पत्र पढ़ना शुरू किया। उस में लिखा था, ‘आपकी साहित्य सेवा के लिए हम आप को सन्मानित करते हुए, आप को, संस्था के वर्धापन दिन के अवसर पर पुरस्कार देना चाहते है। पुरस्कार में आप को शाल, श्रीफल, सन्मानचिन्ह और नगद ५००० रुपये की राशि दी जाएगी। कृपया अपनी स्वीकृती के बारे में तुरंत लिखे।’
‘फिर?’ मैं नें बेसब्री से पूछा।
‘मैं नें अपना स्वीकृति पत्र तुरंत भेजा।‘
‘फिर?’ मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी।
‘रात को संस्था के अध्यक्ष महोदय जी का फोन आया, ‘आप बीस हजार का चेक भेज कर संस्था के संरक्षक सदस्य बन जाए, तभी हम आप को पुरस्कृत कर सकते है।‘
‘सोचा, इतने सारे पैसे कहां से लाये? किन्तु संस्था की इच्छा है मुझे सन्मानित करने की, तो क्यौं न उन की इच्छा का आदर किया जाय? और मैंने उन के नाम का यह सन्मानचिन्ह बना लिया।‘
वह कहता जा रहा था, ‘ ये देख और निवेदन पत्र… विभिन्न साहित्य संस्थाओं द्वारा मिले हुए।
फर्क इतना ही है की हर संस्था नें अलग अलग कीमत की राशि मंगवाई है और वह अलग अलग पद देना चाहती है, जैसे संस्था का आजीवन सदस्यत्व, कही संस्था का अध्यक्षपद, कही विश्वस्त…. जब इस तरह का निवेदन पत्र आता है, तब मैं उस संस्था के नाम से सन्मानचिन्ह बनवा लेता हूँ। उन का निवेदन पत्र इन सन्मानचिन्हों का आधार है और यह काम उन की अपेक्षा से बहुत ही कम खर्चे में होता है।‘
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “अधूरे हिसाब”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 63 – अधूरे हिसाब ☆
मोबाइल की गैलरी से सारे चित्र तो एक झटके में रिमूव हो जाते हैं, किंतु क्या मानस पटल पर अंकित चित्रों से हम दूर हो सकते हैं। इसी उधेड़बुन में दो घण्टे बीत गए। दरसल कोरोना का टीका तो लगवा लिया पर उसकी फोटो नहीं खिंचवा पाए थे। अब सारे डिजिटल फ्रैंड हैशटैग कर अपनी-अपनी फोटो मेरी वाल पर चस्पा किए जा रहे हैं और एक मैं इस सुख से अछूती ही रह गयी।
मेरी पक्की सहेली ने समझाया कोई बात नहीं ऐसा करो कि डिजिटल सर्टिफिकेट ही पोस्ट कर दो, अपने नाम वाला, उससे भी काम चल जायेगा। मन को तसल्ली देने के लिए मैंने मैसेज खंगालना शुरू किया तो वहाँ भी मेरा नाम नदारत था। कोई प्रूफ ही नही टीकाकारण का ,अब तो मानो मेरे पैरो तले जमीन ही खिसक गई हो। खैर बुझे मन से स्वयं को समझाते हुए 6 हफ्ते बीत जाने की राह ताकने लगी, पर कहते हैं कि जब भाग्य रूठता है तो कोई साथ नहीं देता, सो जिस दिन बयालीस दिन पूरे हुए उसी दिन ये खबर मिली कि अब तीन महीनें बाद टीका लगेगा। डॉक्टरों की टीम ने नई रिसर्च के बाद कहा कोविशिल्ड वैक्सीन के दूसरे डोज में जितनी देरी होगी उतना ज्यादा लाभ होगा।
लाभ और हानि के बारे में तो इतना ही पता है कि कोई डिजिटल प्रमाण न होने से टीके की फोटो पोस्ट नहीं हो पाई ,चिंता इस बात की है कि जब दोनों प्रमाणपत्र एक साथ पोस्ट करूँगी तो मेरा क्या होगा? मैंने तो सबकी दो पोस्टों पर लाइक करूँगी पर मेरी तो एक ही पोस्ट पर होगा।
आजकल अखबारों में मोटिवेशनल कॉलम की धूम है और मैं तो पूर्णतया सकारात्मक विचारों को ही आत्मसात करती हूँ, तो सोचा चलो टीकाकरण केंद्र में जाकर ही पता करते हैं। झटपट गाड़ी उठाई और पहुँची तो पता चला ये केंद्र बंद हो चुका है। अब आप दूसरी जगह जाइए। उम्मीद का दामन थामें दूसरे केंद्र में पहुँची। वहाँ पर पूछताछ की तो उन्होंने कहा अभी बहुत भीड़ है, कुछ देर बाद बतायेंगे। पर अब तो 18 प्लस का जलवा चल रहा था तो वे लोग धड़ाधड़ आकर टीका लगवाते जा रहे थे और हाँ सेल्फी लेना भी नहीं भूलते। ये सब देखकर जितनी पीड़ा हो रही थी उतनी तो पहला टीका लगवाने के बाद भी नहीं हुई थी। शाम चार बजे जाकर मेरा नंबर आया तब कंप्यूटर ऑपरेटर ने सर्च किया और माथे पर हाथ फेरते हुए बोला अभी सर्वर डाउन है, कुछ पता नहीं चल पा रहा है, आप कल सुबह 9 बजे आइए तब कुछ करते हैं।
उदास मन से अपना मुँह लिए, मंद गति से गाड़ी चलाते हुए, चालान से बचने की कोशिश कर रही थी। घर पहुँचने ही वाली थी तभी , बहन जी गाड़ी रोकिए की आवाज कानों में पड़ी। किनारे गाड़ी लगाकर खड़ी की तब तक लेडी पुलिस आ गयी।
कहाँ घूम रहीं हैं , लॉक डाउन है पता नहीं है क्या ?
जी, मैं तो टीका लगवाने का प्रमाणपत्र लेने गयी थी।
अच्छा कोई और बहाना नहीं मिला।
मेम, मुझे दो महीने पहले ही टीका लग चुका है, पर कोई प्रूफ नहीं था, सो उसे ही लेने के लिए टीका केंद्र गयी थी।
कहाँ है दिखाओ ?
वहाँ सर्वर डाउन था इसलिए नहीं मिला।
कोई बात नहीं चलो 500 रुपये निकालो, चालान कटेगा , तब आपके पास प्रूफ होगा।
मैंने बुझे मन से 500 दिए और तेजी से गाड़ी भगाते हुए घर पहुँची।
बच्चे गेट पर ही इंतजार कर रहे थे।उतरा हुआ चेहरा देखकर बच्चों ने पूछा क्या हुआ ?
चालान की पर्ची दिखाते हुए मैंने कहा, काम तो हुआ नहीं, 500 की चपत ऊपर से लग गई।
तभी मेरी बिटिया ने तपाक से कहा कोई बात नहीं मम्मी, आप इसी की फोटो खींच कर पोस्ट कर दो, कम से कम एक प्रूफ तो मिला कि आप दूसरी डोज वैक्सीन की लगवाने के लिए कितनी जागरूक है।
तभी मेरे दिमाग़ की बत्ती जल उठी कि सही कह रही है, अब मैं फेसबुक व इंस्टा पर यही पर्ची पोस्ट कर लाइक व कमेंट के अधूरे हिसाब पूरे करूँगी।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक समसामयिक एवं विचारणीय व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 104☆
व्यंग्य – प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग
जमाना दो मिनट में मैगी तैयार, वाला है. बच्चे को भूख लगने पर दो मिनट में मैगी बनाकर माँ फटाफट खिला देती हैं. घर पर मैगी न हो तो मोबाईल पर जोमैटो, स्विगी या डोमिनोज का एप तो है न, इधर आर्डर प्लेस हुआ और टाईम लिमिट में डिलीवरी पक्की है.
दादी का जमाना था जब चूल्हे की आग कभी बुझाई ही नहीं जाती थी, राख में अंगारे छोड़ दिये जाते थे. जाने कब वक्त बेवक्त कोई पाहुना आ जाये. मुडेंर पर कौये की कांव कांव होती ही रहती थी, जब तब अतिथि पधारते ही रहते थे. नाश्ते के समय कोई खास आ जाये तो तुरत फुरत गरम भजिये तले जाते थे, और यदि भोजन के समय मेहमान आ जायें तो गरमागरम पूड़ियां और आलू की सब्जी, पापड़ का मीनू लगफभग तय होता था. रेडी मेड मेहमान नवाजी के लिये दादी के कनस्तर में पपड़ियां, खुरमें, शक्कर पाग, नमकीन वगैरह भरे ही रहा करते थे. मतलब वह युग पूर्व तैयारी का था. दादा जी की समय पूर्व तैयारी का आलम यह था कि ट्रेन आने के आधा घण्टे पहले से प्लेटफार्म पर पहुंच कर इंतजार किया जाता था. किसी आयोजन में पहुंचना हो तो निर्धारित समय से बहुत पहले से आयोजन स्थल पर पहुंच मुख्य अतिथि की प्रतीक्षा किये जाने की परम्परा थी.
पर अब सब बदल चुका है. अब कुएं का महत्व संस्कृति की रक्षा में विवाह एवं जन्म संस्कार के समय पूजन तक सिमट कर रह गया है. धार्मिक अनुष्ठान के समय कुंआ ढ़ूंढ़ने की नौबत आने लगी है, क्योंकि अब पेय जल नल से सीधे किचन में चला आता है. कुंये के अभाव में महिलाएं, नल का पूजन कर सांकेतिक रूप से संस्कारो को बचाये हुये हैं. सर पर मटकी पर मटकी चढ़ायें पनहारिनें खोजे नही मिलती, इससे रचनाकारों को साहित्य हेतु नये विषय ढ़ूंढ़ने पड़ रहे हैं. सच पूछा जाये तो मुहावरों की भाषा में अब हमने प्यास लगे तभी कुंआ खोदने का युग निर्मित कर लिया है. प्यास लगते ही बाटल बंद कुंआ खरीद कर शुद्ध मिनरल वाटर पी लिया जाता है. प्यास के लिये पानी की सुराही लिये चलने का युग आउट आफ डेट हो चुका अब तो वाटर बाटल लटकाये घूमना भी बोझ प्रतीत होता है.
इन परिस्थितियों में बच्चे के जन्मोत्सव पर प्रकृति प्रदत्त आक्सीजन का कर्ज चुकाने के लिये वृक्षारोपण मेरे जैसे दकियानूसी कथित आदर्शवादी बुद्धिजीवीयों का शगल मात्र बन कर रह गया है, जो ये सोचते हैं कि जब हम बाप दादा के लगाये वृक्षो के फल खाते हैं तो आने वाली पढ़ीयों के लिये फलदार वृक्ष लगाना हमारा कर्तव्य है. इस चट मंगनी पट ब्याह और फट बच्चा और झट तलाक वाली पीढ़ी को कर्तव्यो पर नही अधिकारो पर भरोसा है. कोरोना सांसो से सांसो तक पहुंचता है, सबको पता है, पर कुंभ की ठसाठस भीड़ पर सवाल उठाओ तो मौलाना साहब की मैयत की भीड़ दिखा दी जाती है. चुनाव की रैली पर रोक लगाना चाहो तो पहले खेलों का खेला रोकने को कहा जाता है. खेल रोकना चाहो तो राजनीती रोकने नहीं देती. राजनीति विज्ञापन पर भरोसा करती है. राजनीति को मालूम है कि दुनियां ग्लोबल है, जरूरत पड़ेगी तो आक्सीजन, वैक्सीन, दवायें सब आ ही जायेंगी, खरीद कर, सहानुभूति में या मजबूरी में ही सही. और तब तक लाख दो लाख काल कवलित हो भी गये तो क्या हुआ संवेदना व्यक्त करने के काम आयेंगे. चिताओ की आग दुनियां के दूसरे छोर के अखबारों की हेड लाइन्स बनेंगी तो क्या हुआ विपक्षियो पर लांछन लगाने के लिये इतना तो जरूरी है. राजकोष का अकूत धन आखिर होता किसलिये है. राजा की तरह दोनो हाथों से बेतरतीब लुटाकर जहां जिसको जैसा मन में आया, संवेदनाओ के सौदे कर लिये जायेंगे.
आपदा की पूर्व नियोजित तैयारी का युग आउट डेटेड है, भला कोई कैसे अनुमान लगा सकता है कि कब, कहाँ, कितना, कैसा संकट आयेगा, इसलिये जिसे जो करना है करने दो, हम प्रजातंत्र हैं. हमें पूर्ण स्वतंत्रता होनी ही चाहिये. खुद जो मन आये करो, नेतृत्व को बोल्ड होना ही चाहिये. जब प्यास लगेगी, कुंआ खोद ही लेंगें. बहुत ताकतवर, संसाधन संपन्न, ग्लोबल हो चुके हैं हम. कुंआ खोदने में जो समय लगेगा उसके लिये न्यायालय की चेतावनी चलेगी, हम लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं, और न्यायालयों का बड़ा सम्मान होता है जनतंत्र में. इसलिये अस्पतालों की अव्यवस्था, आक्सीजन की कमी, दवाओ की अफरा तफरी, कोरोना की दहशत पर क्षोभ उचित नही है. आपदा में अवसर तलाशने वाले कालाबाजारियों, जमाखोरों, नक्कालो से पूरी हमदर्दी रखिये जिन्होंने अनाप शनाप कीमत पर ही सही जिंदगियों को चंद सांसे तो दीं ही हैं.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘अपनी किताब पढ़वाने का हुनर‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 97 ☆
☆ व्यंग्य – अपनी किताब पढ़वाने का हुनर ☆
सुबह आठ बजे दरवाज़े की घंटी बजी। आश्चर्य हुआ सुबह सुबह कौन आ गया। दरवाज़ा खोला तो सामने बल्लू था। चेहरे से खुशी फूटी पड़ रही थी। सारे दाँत बाहर थे। हाथ पीछे किये था, जैसे कुछ छिपा रहा हो।
दरवाज़ा खुलते ही बोला, ‘बूझो तो, मैं क्या लाया हूँ?’
मैने कहा, ‘मिठाई का डिब्बा लाया है क्या? प्रोमोशन हुआ है?’
वह मुँह बनाकर बोला, ‘तू सब दिन भोजन-भट्ट ही बना रहेगा। खाने-पीने के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ है।’
मैं झेंपा। वह हाथ सामने लाकर बोला, ‘यह देखो।’
मैंने देखा उसके हाथ में किताब थी। कवर पर बड़े अक्षरों में छपा था ‘बेवफा सनम’, और उसके नीचे लेखक का नाम ‘बलराम वर्मा’।
मैंने झूठी खुशी ज़ाहिर की। कहा, ‘अरे वाह, तेरी किताब है?ग़ज़ब है। तू तो अब बुद्धिजीवियों की जमात में शामिल हो गया।’
वह गर्व से बोला, ‘उपन्यास है। यह तुम्हारी कापी है। पढ़ कर बताना है। ढाई सौ पेज का है। रोज पचास पेज पढ़ोगे तो आराम से चार- छः दिन में खतम हो जाएगा। वैसे हो सकता है कि तुम्हें इतना पसन्द आये कि एक रात में ही खतम हो जाए।’
मैंने झूठा उत्साह दिखाते हुए कहा, ‘ज़रूर ज़रूर, तेरी किताब नहीं पढ़ूँगा तो किसकी पढ़ूँगा?दोस्ती किस दिन के लिए है?’
वह किताब पकड़ाकर चला गया। अगले दिन रात को नौ बजे उसका फोन आ गया। बोला, ‘वह जो उपन्यास की भूमिका में ‘घायल’ जी ने मेरी किताब को सदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में से एक बताया है,वह तूने पढ़ा है?’
मैंने घबराकर झूठ बोला, ‘बस पढ़ ही रहा हूँ, गुरू। तकिये की बगल में रखी है।’
वह व्यंग्य से बोला, ‘मुझे पता था तूने अभी किताब खोली भी नहीं होगी।’
मैंने कहा, ‘बस शुरू कर रहा हूँ तो खतम करके ही छोड़ूँगा।’
किताब की भूमिका पढ़ी। उसमें ‘घायल’ जी ने बल्लू को चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। फिर पहला चैप्टर पढ़ा। उसमें घटनाओं और भाषा का उलझाव ऐसा था कि पढ़ते पढ़ते दिमाग सुन्न हो गया। पता नहीं कब नींद आ गयी।
दो दिन बाद फिर उसका फोन आया। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर को थप्पड़ मारती है वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’
मैंने घबराकर पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर में है गुरू?’
वह व्यंग्य से हँसकर बोला, ‘तीसरे चैप्टर में। मुझे मालूम था तू अभी पहले चैप्टर में ही अटका होगा। मेरी किताब को छोड़कर तुझे बाकी बहुत सारे काम हैं।’
मैंने शर्मिन्दा होकर कहा, ‘बस स्पीड बढ़ा रहा हूँ, गुरू। जल्दी पढ़ डालूँगा।’
दो दिन बाद फिर उसका फोन। बोला, ‘वह जो लवली अपने लवर से झगड़ा करके सहेली के घर चली जाती है,वह तुझे ठीक लगा या नहीं?’
मैं फिर घबराया, पूछा, ‘यह कौन सा चैप्टर है गुरू?’
वह फिर व्यंग्य से हँसा,बोला, ‘छठवाँ। मुझे पता था कि तू कछुए की रफ्तार से चल रहा है। बेकार ही तुझे किताब दी।’
मैंने फिर उसे भरोसा दिलाया, कहा, ‘बस दौड़ लगा रहा हूँ,भैया। दो तीन दिन में पार हो जाऊँगा।’
अगले दिन फिर उसका फोन— ‘वो जो लवली अपने पुराने प्रेमी के पास पहुँच जाती है वह सही लगा?’
मैंने कातर स्वर में पूछा, ‘यह कौन से चैप्टर की बात कर रहा है?
वह बोला, ‘नवाँ। उसके बाद तीन चैप्टर और बाकी हैं। तू इसी तरह घसिटता रहेगा तो महीने भर में भी पूरा नहीं होगा।’
दो दिन बाद फिर उसका फोन आ गया। उसके कुछ बोलने से पहले ही मैंने कहा, ‘मैंने तुम्हारी किताब पूरी पढ़ ली है, भैया, लेकिन अभी तीन चार दिन उसकी बात मत करना। अभी तबियत ठीक नहीं है। दिमाग काम नहीं कर रहा है। तबियत ठीक होने पर मैं खुद बात करूँगा।’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “सोचकर देखिए”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 62 – सोचकर देखिए ☆
क्या जिसने पौधा लगाया वही उसका स्वामी होगा , वही वृक्ष के सारे फलों का उपयोग करेगा? जब ऐसा नहीं होता तो हम ये अपेक्षा क्यों करते हैं कि ये कार्य मैंने किया अब इस पर मेरा ही अधिकार है। वास्तविकता तो यही है कि जब तक आप सजग होकर कार्य करते रहेंगे तभी तक आपका मूल्य है जैसे ही कोई और सक्रिय व्यक्ति आपकी जगह लेगा तब उसका अधिकारी वो कहलायेगा।
प्रकृति के सभी क्रियाकलापों को देखें तो पाते हैं कि सूर्य , चन्द्रमा, धरती, ग्रह नक्षत्र, जीव -जंतु, नदी, सागर,पर्वत, वृक्ष ये सब हमेशा कुछ न कुछ देते रहते हैं और बदले में कुछ भी नहीं चाहते तो हम मनुष्य ही क्यों केवल अपेक्षाओं का पुतला बन हमेशा माँगते ही रहते हैं यहाँ तक कि परमशक्ति के आगे भी निःस्वार्थ भाव से शीश नहीं झुका पाते वहाँ भी भगवान ये दे दो वो दे दो की ही माला जपते रहते हैं।
हर गलती का ठीकरा दूसरों पर फोड़ देना बहुत सरल होता है पर अपना मूल्यांकन करना जरा दुश्कर होने लगता है।
कामयाबी को शब्दों में बाँधना बहुत कठिन है। केवल आर्थिक रूप से शीर्ष पर स्थापित होने से नाम और पहचान सहजता से मिलती है किंतु लोगों के हृदय में सम्मान बनाने हेतु निःस्वार्थ भाव से कार्य करना पड़ता है।
जब आप मैं से दूर हो समाज के लिए उपयोगी हो जाते हैं तभी अंतरात्मा प्रसन्न हो मनोवांछित फल देने लग जाती है। तब ये खुशी चेहरे की आभा बन जनमानस के लिए एक मार्गदर्शक व्यक्तित्व का निर्माण करती है।
हार्दिक बधाई, स्वागत है। ये लिखते- लिखते मानों साँसों की डोरी थम सी गयी हो। अपने क्रियाकलापों का अवलोकन करते हुए स्वतः विचार अवश्य करना चाहिए। समय के साथ जोड़ना – घटाना चलता ही रहेगा किन्तु अपना सफर कहाँ से कहाँ तक तय किया गया उसे याद कर आज कहाँ तक जा पहुँचे हैं ये भी सोचकर जिन्होंने देखा वो कामयाबी की माला पहने नज़र आए।
पतझड़ तो सबके जीवन में आते हैं, शाख से टूटे हुए पत्तों को कोई जोड़ नहीं सकता। नई कोंपले निकलेंगी वे ही वृक्ष की रौनक बढ़ाते हुए उसे पुष्पित और पल्लवित करेंगी। अब समय है कि इन बदलावों को सहजता से स्वीकार कर अपने साथ- साथ लोगों को भी बढ़ाएँ।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘सीनियारिटी की फाँस‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 96 ☆
☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस ☆
उस दफ्तर में एक काम से गया था। बरामदे में से गुज़रते हुए किशोर बाबू टकरा गये। मेरे परिचित थे। वे बरामदे की पट्टी पर कुहनियाँ टेके,शून्य में ताकते, आँखें झपका रहे थे। सलाम- दुआ हुई।
मैंने पूछा, ‘आप इसी दफ्तर में हैं?’
वे बोले, ‘हाँ जी। तीस साल हो गये।’
मैं समझ गया कि फाइलें खंगालते खंगालते वे मछली की तरह थोड़ी ऑक्सीजन लेने के लिए बाहर आ गये हैं।
उनसे बात करते करते खिड़की में से मेरी नज़र एक और परिचित बृजबिहारी बाबू पर पड़ी। वे अन्दर एक मेज़ पर झुके थे।
मैंने किशोर बाबू से पूछा, ‘बृजबिहारी जी भी आपके ऑफिस में हैं?’
वे सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ जी, वे भी यहीं हैं।’
बृजबिहारी बाबू के बालों की सफेदी को ध्यान में रखते हुए मैंने पूछा, ‘आप उनके अंडर में होंगे?’
सुनते ही किशोर बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर कई रंग आये और गये। लगा जैसे मेरी बात से उनको ज़बरदस्त धक्का लगा।
एक क्षण मौन रहकर उत्तेजित स्वर में बोले, ‘क्या कह रहे हैं! बृजबिहारी जी मेरे अंडर में हैं। आई एम हिज़ सीनियर।’
मैंने सहज भाव से कहा, ‘अच्छा, अच्छा! मुझे मालूम नहीं था। उनकी उम्र देखकर मैंने उन्हें सीनियर समझा।’
वे आहत स्वर में बोले, ‘उम्र से क्या होता है?मैंने सन इक्यासी में ज्वाइन किया और वे पचासी में आये। चार साल की सीनियारिटी का फर्क है।’
मैं ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर लगा कोई पीछे से आवाज़ दे रहा है। देखा तो किशोर बाबू झपटते आ रहे थे। मैं रुक गया। उनके माथे पर बल दिख रहे थे,लगता था किसी बात को लेकर परेशान हैं। पास आकर बोले, ‘आपने मुझे बहुत डिस्टर्ब कर दिया। सीनियारिटी बड़ी तपस्या के बाद मिलती है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है। आपने बिना सोचे समझे कह दिया कि बृजबिहारी बाबू मुझसे सीनियर हैं। थोड़ा मुझसे पूछ तो लेते।’
मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। मुझे मालूम नहीं था।’
वे बोले, ‘आप मुझे अपना मोबाइल नंबर दीजिए। मैं आपको डिटेल में समझाऊँगा कि मैंने किस किस के अंडर में काम किया और कैसे सीनियर हुआ। आई एम वन ऑफ द सीनियरमोस्ट परसंस इन द डिपार्टमेंट।’
मैंने ‘बताइएगा’ कह कर उनसे पीछा छुड़ाया।
उस दिन उनका फोन नहीं आया। मैंने समझा बात उनके मन से उतर गयी। रात को खा-पी कर गहरी नींद में डूब गया। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। नींद में कुछ समझ में नहीं आया। बिना चश्मे के मोबाइल भी नहीं पढ़ पाया। दीवार पर घड़ी देखी तो डेढ़ बजे का वक्त दिखा। उस तरफ किशोर बाबू थे। बुझे बुझे स्वर में बोले, ‘इस वक्त जगाने के लिए माफ कीजिएगा। बात यह है कि आपने आज मेरे पूरे दिन का सत्यानाश कर दिया। आपसे मिलने के बाद अभी तक टेंशन में हूँ। नींद नहीं आ रही है, इसलिए आपको फोन करना पड़ा। आप सीनियारिटी का मतलब नहीं समझते। उसे मामूली चीज़ समझते हैं। मैं आपको समझाता हूँ कि सीनियारिटी कैसे मिलती है और उसकी क्या अहमियत है।’ फिर वे बिना साँस लिये बताते रहे कि उन्होंने किन किन महान अधिकारियों के मार्गदर्शन में काम किया और कैसे सीनियारिटी नाम का दुर्लभ रत्न प्राप्त किया।
दस मिनट तक उनकी सफाई सुनने के बाद मैंने मोबाइल दूर रख दिया और उनके शब्दों की भनभनाहट चलती रही। जाने कब मुझे नींद आ गयी। सबेरे जब आँख खुली तो मोबाइल और किशोर बाबू,दोनों ही शान्त थे।
उस दिन से डर रहा हूँ कि किसी दिन फिर किशोर बाबू फोन करके सीनियारिटी की अहमियत न समझाने लगें।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘मेरी दूकान’ का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 95 ☆
☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा ☆
उनसे मेरा रिश्ता वैसा ही था जैसे शहर के आम रिश्ते होते हैं।कभी वे मुझे देखकर रस्म-अदायगी में हाथ लहरा देते, कभी मैं उनके बगल से गुज़रते,दाँत चमका देता।कभी वे मुझे देखकर अनदेखा कर देते और कभी मैं उन्हें देखकर पीठ फेर लेता।वे एक किराने की दूकान के मालिक थे और उन्होंने अपना नाम शायद गोलू शाह बताया था।वे एक दो बार मुझसे दरख़्वास्त कर चुके थे कि मैं सामान उन्हीं की दूकान से ख़रीदूँ क्योंकि सामान बढ़िया और वाजिब दाम पर मिलेगा।लेकिन मैं उसी दूकान से सामान ले सकता था जो उधार दे सके और तकाज़ा न करे।इसलिए मैं उनके प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका।
ऐसे ही एक दूसरे के बगल से गुज़रते गुज़रते वे एक दिन घूम कर मेरी बगल में आ गये।बोले, ‘एक मिनट रुकेंगे?’
मैंने स्कूटर रोक लिया।वे भारी विनम्रता से बोले, ‘कैसे हैं?’
मैंने ज़बान पर चढ़ा जवाब दे दिया, ‘अच्छा हूँ।’
वे बोले, ‘बच्चे कैसे हैं?’
मैंने फिर कहा, ‘अच्छे हैं।’
वे बोले, ‘बच्चे तो अभी छोटे हैं न?’
मैंने कहा, ‘हाँ,बेटी सात साल की है और बेटा पाँच साल का।’
वे प्रसन्न होकर बोले, ‘दरअसल मैंने सदर बाज़ार में खिलौनों की दूकान खोली है।एक से एक बढ़िया खिलौने हैं।बच्चों को लेकर पधारिए।बच्चे बहुत खुश होंगे।’
मैंने टालने के लिए कहा, ‘ज़रूर आऊँगा।जल्दी ही आऊँगा।’
वे इसरार करते हुए बोले, ‘ज़रूर आइएगा।मैं आपका इन्तज़ार करूँगा।’
मैं ख़ुश हुआ।लगा कि अभी भी बाज़ार में मेरे जैसे ख़स्ताहालों की कुछ इज़्ज़त बाकी है।
एक दिन परिवार के साथ बाज़ार निकला तो मन हुआ कि बाल-बच्चों को बताया जाए कि बाज़ार में उनके बाप की कितनी साख है।उनके बाप का रूप सिर्फ दूध वाले और किराने वाले से आँख चुराने वाले का ही नहीं है।कहीं उनके बाप की पूछ-गाछ भी है।
मैंने स्कूटर सदर बाज़ार की तरफ मोड़ दिया।पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ चल रहे हैं?’ मैं चुप्पी साधे रहा।
गोलू शाह की दूकान में मैं इस तरह अकड़ कर घुसा जैसे दूकान में पहुँच कर मैं शाह जी पर अहसान कर रहा हूँ।गोलू मुझे देखकर ऐसे गद्गद हुए जैसे भक्त के घर भगवान अवतरित हुए हों।मैंने गर्व से पत्नी की तरफ देखा।
गोलू शाह हाथ जोड़कर बोले, ‘खिलौने दिखाऊँ?’
मैंने थोड़ा सिर हिलाकर स्वीकृति प्रदान की।वे बोले, ‘आइए।’
उन्होंने एक एक कर खिलौनों को निकालना शुरू किया।बच्चों की आँखों में चमक आ गयी।लगा उनके सामने कारूँ का ख़ज़ाना फैल गया हो।कभी इस खिलौने को बगल में दबा लेते, कभी उस को।उनकी मंशा ज़्यादा से ज़्यादा खिलौनों को समेट लेने की थी।
मैंने बच्चों से पूछा, ‘कौन सा पसन्द आया?’
उन्होंने सात आठ खिलौनों की तरफ उँगली उठा दी।ज़ाहिर था कि उन्हें सब खिलौने पसन्द आ रहे थे।गोलू शाह थोड़ी दूर पर प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे।
थोड़ी देर में उन्होंने आगे बढ़कर एक डिब्बा खोलकर एक विशालकाय भालू निकाला और उसे बच्चों के सामने रखकर हाथ बाँधकर फिर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गये।बच्चे अपने खिलौनों को छोड़कर भालू की तरफ लपके।
बच्चे जब भालू में उलझे थे तभी उन्होंने एक बड़े बड़े बालों वाला प्यारा सुन्दर कुत्ता पेश कर दिया।बच्चे भालू को छोड़कर उस तरफ दौड़े।
खिलौनों के आकार-प्रकार को देखकर मेरे मन में उनके मूल्य को लेकर कुशंकाएँ उठने लगी थीं।ऊपर से अपनी अकड़ को बरकरार रखते हुए मैंने गोलू शाह से पूछा, ‘इस भालू की कीमत क्या होगी?’
गोलू शाह बत्तीसी निकालकर बोले, ‘कीमत की क्या बात करते हैं।बच्चों को देखने तो दीजिए।’
मैंने मन में उठते डर को ढकेलते हुए कहा, ‘फिर भी।बताइए तो।’
गोलू शाह आँखें बन्द करके मुस्कराते हुए बोले, ‘आपके लिए सिर्फ पाँच सौ रुपये।’
मैंने कातर आँखों से गोलू शाह की तरफ देखकर पूछा, ‘पाँच सौ?’
गोलू शाह ने फिर आँखें बन्द कर दुहराया, ‘सिर्फ आपके लिए।’
मैंने सूखे गले से पूछा, ‘और कुत्ता कितने का है?’
गोलू शाह एक बार फिर आँखें बन्द कर बोले, ‘आपके लिए सिर्फ छः सौ का।’
मुझे लगा गोलू शाह इसलिए आँखें बन्द कर लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कीमत सुनकर ग्राहक की सूरत बिगड़ जाएगी।उनका जवाब सुनकर मैं बच्चों के हाथ से खिलौने छीनकर उन्हें पीछे खींचने लगा।बच्चे खिलौनों को छोड़ नहीं रहे थे और मैं उन्हें वहाँ से खींच निकालने पर तुला हुआ था।
मेरी सारी कोशिशों के बावजूद ढाई हज़ार के खिलौने खरीद लिये गये।लघुशंका के बहाने सड़क के एक अंधेरे कोने में जाकर मैंने पर्स के नोट गिने।सिर्फ डेढ़ हज़ार थे।इनमें से गोलू शाह को दे देता तो महीने का हिसाब गड़बड़ा जाता।
मैंने गोलू शाह से झूठी शान से कहा, ‘आज तो ऐसे ही घूमते हुए आ गये थे।एक दो दिन में पेमेंट हो जाएगा।’
गोलू शाह हाथ जोड़कर झुक गये, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं! आपकी दूकान है।पैसे कहाँ भागे जाते हैं।फिर आइएगा।’
मैं ऊपर से चुस्त और भीतर से पस्त, दूकान से बाहर आ गया।घर आकर बच्चों पर खूब झल्लाया, लेकिन वे मेरी बातों को अनसुना कर खिलौनों से खेलने में मगन रहे।
अगले माह तनख्वाह मिलने पर बजट में कटौती करके गोलू शाह को एक हज़ार रुपये दे आया।कहा, ‘बाकी तीन चार दिन में दे दूँगा।’.
गोलू फिर हाथ जोड़कर झुके, बोले, ‘क्यों शर्मिन्दा करते हैं बाउजी!आपकी दूकान है।’
उसके बाद दो माह बजट में खिलौनों के भुगतान का प्रावधान नहीं हो पाया।मैंने गोलू शाह की सड़क से निकलना बन्द कर दिया।
एक दिन उनका फोन आ गया—‘कैसे हैं जी?’
मैंने जवाब दिया, ‘आपकी दुआ से ठीक हूँ।’
‘और?’
‘ठीक है।’
‘और?’
‘बिलकुल ठीक है।’
गोलू शाह गला साफ करके बोले, ‘बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए।मैंने सोचा फोन कर लूँ।’
मैंने कहा, ‘अच्छा किया।’
थोड़ी देर सन्नाटा।
गोलू शाह फिर गला साफ करके बोले, ‘आपके नाम कुछ पेमेंट निकलता है।सोचा याद दिला दूँ।’
मैंने कहा, ‘मुझे याद है।एक दो दिन में आता हूँ।’
वे तुरन्त बोले, ‘कोई बात नहीं।आपकी दूकान है।कई दिनों से दर्शन नहीं हुए थे, इसलिए फोन किया।कोई खयाल मत कीजिएगा।’
फिर एक महीना निकल गया।उन्हें दर्शन देने लायक स्थिति नहीं बनी।
फिर एक दिन उनका फोन आया।बोले, ‘बाउजी, आप आये नहीं।हम आपका इन्तजार कर रहे हैं।’
मैंने कहा, ‘हाँ भाई साब, निकल नहीं पाया।’
वे बोले, ‘पेमेंट कर देते, बाउजी।तीन चार महीने हो गये।’
मैंने कहा, ‘बस तीन चार तारीख तक आता हूँ।’
वे शंका के स्वर में बोले, ‘जरूर आ जाना बाउजी।काफी टाइम हो गया।’
अगले माह फिर बजट को खींच तान कर उन्हें एक हज़ार दे आया।इस बार उनके चेहरे पर पहले जैसी मुहब्बत नहीं थी।विदा लेते वक्त निहायत ठंडी आवाज़ में बोले, ‘बाकी जल्दी दे जाइएगा।मार्जिन बहुत कम है।बहुत परेशानी है।’
दो तीन माह बाद किसी तरह उनके ऋण से मुक्त हुआ।आखिरी मुलाकात में वे ऐसी बेरुखी से पेश आये जैसे हमसे कभी मुहब्बत ही न रही हो।मुझे ‘फ़ैज़’ साहब की मशहूर नज़्म का उनवान याद आया—‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग।’
कुछ दिन बाद फिर बच्चों ने धक्का देकर उनकी दूकान में पहुँचा दिया।इस बार वे मुझे देखकर कुर्सी से भी नहीं उठे।कलम से सिर खुजाते हुए नितान्त अपरिचय के स्वर में बोले, ‘हाँ जी, क्या खिदमत करूँ?’
मैंने कहा, ‘बच्चों को कुछ खिलौने देखने हैं।’
वे एक आँख मींजते हुए बोले, ‘बात यह है बाउजी कि आपके लायक खिलौने हैं नहीं।नया स्टाक जल्दी आएगा।तब तशरीफ लाइएगा।’
मैंने कहा, ‘फिक्र न करें।आज उधार नहीं करूँगा।’
वे कुछ शर्मा कर बोले, ‘वो मतलब नहीं है बाउजी।कुछ खिलौने हैं।आइए,दिखा देता हूँ।’
उनके पीछे चलते हुए मैंने कहा, ‘मैंने सोचा कि बहुत दिन से आपसे भेंट नहीं हुई।आखिर अपनी दूकान है।आना जाना चलते रहना चाहिए।’
वे धीरे धीरे चलते हुए ठंडे स्वर में बोले, ‘सच तो यह है बाउजी, कि दूकान जनता की है।अब इसे कोई अपनी समझ ले तो हम क्या कर सकते हैं।’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जुगाड़ की संस्कृति”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 61 – जुगाड़ की संस्कृति ☆
भागने और भगाने का खेल करते- करते सोहमलाल जी अपने सारे कार्य पूरे करवा ही लेते हैं। हर बार एक नए बहाने के साथ उनका भाषण सुनने को मिल जाता है। अच्छी- अच्छी सोच, समझदारी भरी बातें किसी को भी आसानी से अपने जाल में फसाने के लिए काफी होती हैं। बस एक खूबी है, जिससे वो आज तक अपना परचम फहरा रहे हैं कि सब को साथ लेकर चलना है। जो जिस लायक हो उससे वैसा कार्य करवाना, साथ ही साथ सीखना और सिखाना।
खैर ये दुनिया तो किसी के लिए नहीं रुकती है , बस चलते रहो तो एक न एक दिन अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाओगे। इसी मंत्र को लेकर संभावना जी लगातार प्रचार – प्रसार में लगी हुई हैं। किसी भी तरह से पोस्टर की रौनक बनना है। शहर की लगभग सभी होर्डिंग उनकी तस्वीर के बिना पूरी होती ही नहीं है। इस सब के जुगाड़ में वो दिन- रात बस चरैवेति- चरैवेति की धुन को अलापते हुए बढ़ती जा रही हैं। जो कोशिश करेगा वो तो जीतेगा ही। उच्च पद पर विराजित सोहमलाल जी व संभावना जी दोनों में यही समानता है कि वे एक पल के लिए भी मोबाइल अपने से दूर नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके सारे कार्यों का हमराज यही स्मार्टफोन ही तो है। उनके दिमाग मे क्या चल रहा है , ये उनसे पहले ही जान जाता है। दरसल दोनों लोग अपने दिमाग़ से नहीं किसी और के सपनों को पूरा करने के लिए दूसरे के अनुसार कार्य करते हैं।
अच्छा यही कारण है कि पल में तोला पल में मासा उनके व्यवहार से झलकता है। वे लोग अपने कहे हुए कथनों में अडिग नहीं रह पाते हैं। जैसे ही उनको नया संदेश मिला तो तुरंत पुरानी बातों को बदलते हुए नए सुर को पकड़ लेते हैं। सुर और साज का तो पुराना नाता है। राग और वैराग्य दोनों को एक साथ सम्हाल के चलना बिल्कुल ऐसे ही, जैसे रस्सी पर सधा हुआ व्यक्ति चल कर दिखाता। ऐसे कुशल लोगों को तालियाँ तो खूब मिलती हैं किंतु जब बात पैसों की हो तो वहाँ चमक- दमक ही आगे विराजित होकर सम्मानित होती हुई नज़र आती है। सम्मान के बारे में जितना कहा जाए वो कम होगा क्योंकि इसे तो उनकी ही गोद पसंद होती है जो हरे भरे नोटों से सजी रहती हो। पैसा आते ही जहाँ एक तरफ चेहरे की रौनक बढ़ती है तो दूसरी तरफ बोलने का अंदाज भी आसमान छूने लगता है।
कहते हैं कि आजकल तो वस्तुओं के भाव ही इसकी बराबरी कर सकते हैं। करें भी क्यों न? दोनों जगह लक्ष्मी की ही पूजा जो होती है। भाव व प्रभाव का गहरा नाता है। प्रभाव बढ़ते ही भाव का बढ़ना लाजिमी होता है। छोटी- छोटी बातों को तूल देते हुए झगड़ पड़ना संभावना जी की आदतों में शुमार है। एक छोर इधर से और दूसरा उधर से इसे जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हुए सोहमलाल जी अक्सर अपना आपा खोने लगते हैं। जुगाड़ की संस्कृति न जाने कितने घरों को बर्बाद कर चुकी है। ऐसे व्यक्ति न तो घर के न ही देश के सगे होते हैं ये तो बस येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने पर ही विश्वास रखते हैं। बस समय पास करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको बलगराते रहते हैं।
वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।
कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।
खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।
आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री कैलाश मंडलेकर जी का खुद से खुद का साक्षात्कार.
– जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)
☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #3 – व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है….. श्री कैलाश मंडलेकर☆
श्री कैलाश मंडलेकर
परिचय
हरदा मध्यप्रदेश में जन्म
सागर विश्व विद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर ।
धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, हंस, नया ज्ञानोदय , कथादेश, अहा जिंदगी, लमही, कादम्बिनी, नवनीत, सहित सभी पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन ।
विगत तीन वर्षों से भोपाल के प्रमुख दैनिक “सुबह सवेरे ” में लिखा जा रहा व्यंग्य कॉलम ” तिरफेंक” बेहद चर्चित ।
अब तक व्यंग्य की पांच कृतियाँ प्रकाशित ।
भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कृति ” एक अधूरी प्रेम कहानी का दुखांत ” मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ।
अखिल भारतीय टेपा सम्मेलन उज्जैन का पहला “रामेंद्र द्विवेदी ” सम्मान ।
पहला ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार ।
अभिनव कला परिषद का “शब्द शिल्पी ” सम्मान सहित अनेक पुरस्कार ।
हिंदी रंगमंच में सक्रिय भागीदारी। दुलारी बा , बाप रे बाप आदि नाटकों में जीवंत अभिनय ।
व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है…..
खुद से खुद के साक्षात्कार की यह श्रृंखला दिलचस्प है। एक दम सैंया भये कोतवाल टाइप। जब सामने कोई पूछने ही वाला न हो तो डर काहे का। जो मन मे आये पूछ डालो। यह सुविधा का साक्षात्कार है। आजकल व्यंग्य की दुनिया मे ऐसी मारामारी मची है कि किसी को इंटरव्यू लेने की फुर्सत नही है। पर व्यंग्यकार स्वावलंबी होता है। वह साक्षात्कार के लिए दूसरों पर निर्भर नही रह सकता। खुद ही निपटा लेता है। इस श्रंखला के प्रणेता श्री जयप्रकाश पांडेय हैं, वे खुद भी व्यंग्यकार हैं उनका आभार व्यक्त करते हुए अपना इंटरव्यू पेश ए खिदमत है।
सवाल – आप लेखक कैसे बने, यानी किसकी प्रेरणा से, और लेखन में भी व्यंग्य को ही क्यों चुना ?
जवाब – देखिए, लेखक बनने के कोई गुण या दुर्गुण मुझ में नही थे। बचपन एक ऐसे गांव में बीता जहां अभाव और गर्दिशों की भरमार थी। वहां नीम और इमली के कुछ दरख़्त थे जो इतने घने थे कि कई बार अनजान आदमी को यह अंदाज लगाना मुश्किल होता था कि यहां कोई बसीगत भी है या निरा जंगल है। लेकिन वहां बसीगत थी क्योंकि हम उसी जंगल मे रहते थे। रात में गांव वाले अपने घरों में घासलेट की चिमनियां जलाते थे जो फ़क़त इतना उजाला करती थी कि बच्चे अपनी परछाइयों को देख कर मनोरंजन कर सकें। तब बच्चों के मन बहलाव के और कोई साधन नही थे। घासलेट तेल की राशनिंग थी इसलिए रात भर बत्ती जलाने की अय्याशी नही की जा सकती थी।जबकि अंधेरे में कई लोगों को सांप डस लिया करते थे।और हैरत की बात यह कि लोग फिर भी नही मरते थे, ज्यादातर मामलों में सांप को ही मरना पड़ता था। रात में लोग दिया बत्ती बुझा देते थे और सारा गांव एक ख़ौफ़नाक अंधेरे के मुंह मे समा जाता था।अंधेरा सिर्फ रात की ही वजह से नही होता था, उसकी और भी वजहें थीं, और भी रंग थे। अंधेरे की उपस्थिति जब अटल हो जाती है तब लोग उससे प्यार करने लगते हैं अंधेरा बाज दफे सुरक्षा के अभेद्य किले की तरह होता है हम लोग अंधेरे के आगोश में महफूज रहना सीख गए थे। घासलेट की बत्तियों से उजाला नही होता, वे सिर्फ उजाले का भरम पैदा करती थीं। ऐसी मुश्किलातों में रह कर या तो चोर बना जा सकता है या लेखक, बन्दे ने लेखन का रास्ता चुना। व्यंग्य लिखना यों सीखा कि गांव से निकलकर जब कॉलेज पढ़ने शहर में आये तो लाइब्रेरी में परसाई जी को पढ़ने का मौका हाथ लगा।उन्हें पढ़कर लगा कि असली लेखन यही है। फिर धीरे धीरे खुद भी लिखने की कोशिश की। नई दुनिया मे अधबीच में व्यंग्य छपने लगे। छपी हुई रचनाओं की कटिंग्स परसाई जी को भेजते रहे। कुछ दिनों बाद उनसे मिलने भी गए। उन्होंने कहा लिखो, अच्छा लिखते हो। बाद में अजातशत्रु का साथ मिला तो हिम्मत बढ़ती गई। धीरे धीरे किताबें छपने लगी। एक संग्रह ज्ञानपीठ ने छापा। हिंदी के मूर्धन्य आलोचक डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय ने एक इंटरव्यू में कहा कि मध्यप्रदेश के कैलाश मण्डलेकर बहुत अच्छा व्यंग्य लिखते हैं। डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने कई जगह खाकसार के व्यंग्य लेखन की सराहना की। बस यही सब बातें हैं जिन्होंने व्यंग्यकार बना दिया। अब स्थिति यह है कि व्यंग्य ही लिखते बनता है और कुछ नही।हालांकि कहानियां भी लिखी पर उनमें भी व्यंग्य की ही अंतर्धारा है। इधर व्यंग्य आलोचना पर भी काम कर रहा हूँ। व्यंग्य आलोचना पर एक किताब जल्दी ही आने वाली है।
सवाल – आपके व्यंग्य की अपनी अलग शैली है, आपको पढ़कर अलग से पहचाना जा सकता है।इसे आपने कैसे साधा ?
जवाब – यह अच्छी बात है कि मेरे व्यंग्य अलग से पहचाने जाते हैं और अब मैं अपनी मौलिकता के साथ हूँ।जहां तक साधने की बात है तो निवेदन है कि यह मामला मशीनी नही है धीरे धीरे होता है।भाषा तो बनते बनते बनती है।मेरे व्यंग्य लेखन की विशिष्टता, जैसे कि कुछ लोग कहते हैं विशुद्ध निबंधात्मक नही होते उनमें कथा तत्व भी झांकता है। मुझे लगता है कुछ बातें यदि कथा में पिरोकर किसी पात्र के मार्फ़त कही जाए तो वह ज्यादा सटीक और सार्थक ढंग से पहुंचती है।
सवाल – आपके व्यंग्य में जो पात्र होते हैं वे आसपास के ही होते हैं एकदम साधारण, आप इन्हें कैसे खोजते हैं ?
जवाब – मुझे लगता है व्यंग्य हो या कार्टून बहुत गहरे में कॉमन मेंन का ही बयान होता है। तथा सारा लेखन उसी के पक्ष में होता है। व्यवस्था या नोकरशाही का शिकार भी प्रायः आम आदमी ही होता है। ऐसे में हमारे आसपास जो साधारण लोग हैं, खेतिहर हैं गांव में रहते हैं, लाइन में खड़े होकर वोट देते हैं और बाद में तकलीफ उठाते हैं, रोते हैं, गिड़गिड़ाते हैं। ऐसे लोगों से किसी भी कवि का कथाकार का या व्यंग्यकार का जुड़ाव स्वाभाविक है। इन्हें खोजना नही पड़ता ये कलम की नोक पर हमेशा मौजूद रहते हैं। इन्हें जरा सा छू लो तो फफोले की तरह फुट पड़ते हैं। मुश्किल यह है कि व्यवस्था की तंग नजरी इन्हें देख नही पाती। इन्हें हर बार किसी टाउन हॉल या जंतर मंतर पर खड़े होकर चिल्लाना पड़ता है। ऐसे में हर संवेदनशील शील लेखक चाहे या अनचाहे इन्ही की बात करेगा।
सवाल – आप किस तरह की किताबें पढ़ते हैं,आपके पसंदीदा लेखक कौन हैं ?
जवाब – देखिए किसी एक लेखक का नाम लेना मुश्किल है।हाँ व्यंग्य मुझे सर्वाधिक पसंद हैं।परसाई, शरद जोशी श्रीलाल शुक्ल त्यागी ज्ञान चतुर्वेदी अजातशत्रु सबको पढ़ता हूँ।चेखव और बर्नाड शा को भी खूब पढा है।टालस्टाय की अन्ना कैरेनिना और दास्तोवासकी की अपराध और दंड मेरी पसंदीदा किताबें हैं।चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा जिसे सूरज प्रकाश ने अनुदित की है बहुत अच्छी लगी स्टीफेन स्वाइग की कालजयी कहानियां अद्भुत है। आत्मकथाएं और संस्मरण खूब पढ़ता हूँ।विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा लिखित आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी व्योमकेश दरवेश पिछले दिनों ही पढ़ी। भगवान सिंह की भारतीय सभ्यता की निर्मिति बहुत पसंद है। एमिली ब्रांटे की वुडरिंग हाइट और ऑरवेल का एनिमल फार्म, ला जवाब है।सरवेन्टिन का डॉन क्विकजोट भी कई बार पढा और मार्खेज का एकांत के सौ वर्ष भी।अलावे इसके हिंदी और उर्दू के जितने व्यंग्यकार हैं सबको पढ़ता हूँ।
सवाल – आपका प्रतिनिधि व्यंग्य कौन सा है, उसकी क्या विशेषताएं हैं
जवाब- लेखक के लिए यह बताना बहुत मुश्किल होता है कि वह अपनी किस रचना को प्रतिनिधि माने।वह तो हर रचना को प्रतिनिधि मानकर ही लिखता है।यह सवाल तो पढ़ने वालों से पूछा जाना चाहिए कि वे किस रचना को श्रेष्ठ मानते हैं। हालांकि उसमे भी टंटा है, क्योंकि हर पाठक का अपना टेस्ट और टेम्परामेंट होता है।
सवाल –वर्तमान साहित्यिक परिवेश को आप कैसे देखते हैं ? क्या महसूस करते हैं
जवाब – अच्छा है। बहुत निराशाजनक नही कहा जा सकता। छापे की तकनीक सुगम हो गई है, किताबें आसानी से छप जाती हैं। इधर साइबर संसार भी विस्तृत हुआ है लिहाजा हर कोई अपनी भावनाओं को व्यक्त कर लेता है। फिर वह परम्परागत अर्थों में साहित्य हो न हो। अनुभव तो उसमें भी होते हैं।यहां संपादक का डर नही है कि वह वापस भेज देगा। नेट पर कई बार अच्छी और दुर्लभ सामग्री भी उपलब्ध हो जाती है जो अन्यथा पढ़ने को नही मिलती। पत्रिकाएं तो अमूमन सभी नेट पर हैं। अच्छे या बुरे साहित्य का आकलन तो हमेशा की तरह समय के हवाले किया जाना चाहिए। अनुभव की गहराई से लिखा गया साहित्य सार्वकालिक होता है। साहित्य का सारा मामला गहरे पानी पैठ वाला है।
सवाल – आज व्यंग्य आत्यंतिक रूप से लिखा जा रहा है। प्रतिस्पर्धा बढ़ गई है। आप क्या सोचते हैं
जवाब – प्रतिस्पर्धा में बुराई नही है। प्रतिस्पर्धा स्वस्थ होनी चाहिए। आज व्यंग्य ज्यादा इसलिए लिखा जा रहा है कि आदमी व्यवस्था से त्रस्त है।सामाजिक और राजनीतिक छद्म बढ़ते जा रहा है। व्यंग्य लेखन कहीं न कहीं आदमी को आश्वस्त करता है कि विसंगतियों पर उसकी नजर है और उनसे लड़ने की तैयारी भी है। इसलिए व्यंग्य की प्रतिष्ठा ज्यादा है।यह अलग बात है कि व्यंग्य से भी आमूलचूल बदलाव सम्भव नही है। दरअसल व्यंग्य हो या कोई भी विधा हो, साहित्य से चमत्कारिक बदलाव नही होते, यह एक कारगर लेकिन धीमी प्रक्रिया है। हाँ व्यंग्य व्यवस्था के खिलाफ बगावती तेवर जरूर तैयार करता है।सोए हुओं को जगाता है। यही व्यंग्य लेखन की सार्थकता भी है।
आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)
संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002 मोबाइल 9977318765
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य “एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर…..”। इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 22 ☆
☆ व्यंग्य – एवरगिवन इन स्वेज़ ऑफ इंदौर ….. ☆
स्वेजनहर में फंसे एवरगिवन जहाज़ के चालक दल के सभी पच्चीस सदस्य भारतीय अवश्य थे मगर वे इंदौरी नहीं थे. होते तो जाम लगने की वजह भी खुद बनते और खुद ही निकाल भी ले जाते. अपन के शहर में ये ट्रेनिंग अलग से नहीं देना पड़ती, आदमी दो-चार बार खजूरी बाज़ार से गुजर भर जाये, बस. एक इंदौरियन विकट जाम में कैसा भी वाहन निकाल सकता है. डिवाईडरों की दो फीट दीवारों पर से एक्टिवा तो वो यूं निकाल जाता है जैसे मौत के कुएँ में करतब दिखा रहा हो. वो ओटलों, दुकानों में से होता हुआ तिरि-भिन्नाट जा सकता है. जब एक्सिलरेटर दबाता है तब जाम में उसके आगे फंसे वाहनों की दीवार ताश के पत्तों सी भरभरा कर ढह जाती हैं. इस वाले काउंट पे जेंडर इक्वलिटी है, मैडम भी स्कूटी ऐसे ई निकाल लेती है.
आईये आपको घुमाकर लाते हैं. ये देखिये, ये अपन की एवरगिवन है, मारुति सियाज़ और ये है अपन की स्वेज़ नहर, खजूरी बाजार इंदौर. इत्ती पतली नहर और इत्ता चौड़ा एवरगिवन!! निकल जाएगी भिया – सीधी आन दो, डिरेवर तरफ काट के, भोत जगा है, सीधी आन दो. अपन की स्वेज़ नहर में अपन की एवरगिवन डेढ़ इंच भी टेढ़ा होना अफोर्ड नहीं कर पाती. हो जाये तो जो जाम लग जाता है उसमें अपन की वाली को टगबोट लगाकर सीधा नहीं करना पड़ता. वो आसपास से गुजरनेवाली आंटियों की गुस्से भरी नज़र से ही सीधी हो जाती है. गुस्सा क्यों न करें श्रीमान ? एक तो चिलचिलाती धूप में एक हाथ मोबाइल कान पर रखने में इंगेज़ है, दूसरे में मटकेवाली कुल्फी का एक टुकड़ा पिघलकर गिरा गिरा जा रहा है, उपर से जेम्स बॉन्ड का नाती हॉर्न पर हॉर्न बजाये जा रहा है. एक टुकड़ा कुल्फी ही तो सुख है – उड़ती धूल, जहरीला धुआँ, कानफोडू हॉर्न, डीजल और पेट्रोल की बदबू के बीच. ‘सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है’ – शहरयार साहब अब इस दुनिया में रहे नहीं वरना अपने इस सवाल का जवाब उन्हें यहीं मिल जाता.
कहते हैं ताईवान के एवरगिवन के नीचे से रेत निकाली गयी तब जाकर वह हिला. अपन के इधर नीचे गड्ढ़े में रेत भरनी पड़ती है तब जाकर एवरगिवन बाहर आ पाती है. मिस्र देश की नहर में दिक्कत ये है कि पानी गहरा होने के कारण दुकान का काउंटर साढ़े छह फीट आगे तक नहीं निकाला नहीं जा सकता. इधर की स्वेज़ में ये सुविधा है. सुविधाएं और भी हैं – सड़क पे ई होता वेल्डिंग, पंक्चर पकाने की सुविधा, भजिये के ठेले और सांड की टहलकदमी, जुगाड़ के वाहन, बच्चों से लदा-फदा स्कूल-ऑटो, एम्बुलेंस, सूट-टाई में गर्दन पर पैंतीस हारों का बोझ लादे शाकिरमियां की घोड़ी पर पसीने से तरबतर बन्ना और राजकमल बैंड के ‘दिल ले गई कुडी पंजाब दी’ पर झूमते बाराती. बताईये पानी वाली नहर में कहाँ ये सुख है.
चलिये अच्छा उधर देखिये, मैजिक पूरा भरे जाने के लिये बीचोंबीच खड़ा है, इस बीच सामने से आता हुआ दूसरा मैजिक रुक गया है, सवारी को अपने घर के सामने ही उतरना है, वो उतर भी गयी है मगर नाराज़ है. उसका मकान पांच मकान पीछे था, मैजिकवाले ने बिरेक देर से मारा. अब पीछे की ओर ज्यादा चलना पड़ेगा अगले को, पूरे तेरह कदम.
आपके यहाँ गाड़ियों के लिये अलग अलग लेन नहीं होती ? नहीं जनाब, ट्रैफिक के मामले में हम शुरू से ही बे-लेन रेते हेंगे. हम लोग जाम से शिकायत नहीं रखते उसे एंजॉय करते हैं. किवाम-चटनी के मीठेपत्ते का मजा ही कनछेदी की दुकान के सामने बाईक आड़ी टिका के चबाने-थूकने में है, अब जाम लगे तो लगे. मेरिन पुलिस टाइप भी कुछ है नहीं यहाँ. जाम से असंपृक्त वो जो दो पुलिसवाले खड़े हैं रात आठ बजे बाद के जाम का इंतज़ाम मुकम्मल कर रहे हैं. एक के हाथ में रसीद कट्टा है और दूसरे के डंडा. जुगलबंदी कारगर.
ऐसे घनघोर माहौल में कोई इंदौरियन ही वाहन सनन निकाल सकता है, फिर वो स्वेज़ में फंसा एवरगिवन ही क्यों न हो, विकट भिया.