हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 44 – सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी फाइलों का महाप्रयाण )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 44 – सरकारी फाइलों का महाप्रयाण ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

पुरानी तहसील की वह धूल भरी अलमारी वर्षों से इतिहास का बोझ उठाए खड़ी थी। उसमें रखी फाइलें बूढ़ी हो चली थीं, जैसे सरकारी बाबू के बुढ़ापे का प्रतीक। लाल फीते से बंधी हुई, कुछ को दीमक चाट चुकी थी, तो कुछ को समय की मार ने जर्जर बना दिया था। मगर फाइलें थीं कि आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थीं। मानो किसी वृद्धाश्रम में फेंक दिए गए बुजुर्गों की तरह, जिन्हें देखने वाला कोई नहीं। बस, आदेश आते रहे, चिट्ठियां बढ़ती रहीं, और इन फाइलों की किस्मत सरकारी टेबलों के बीच कहीं खो गई। 

तभी एक दिन एक अफसर आया, जो फाइलों की सफाई करने का कट्टर समर्थक था। उसने आदेश दिया—”पुरानी फाइलें रद्दी में बेच दो।” अफसर की आवाज सुनकर फाइलों में हलचल मच गई। “हमारा क्या होगा?” एक फाइल ने कांपते हुए पूछा। “कहीं कचरे में तो नहीं फेंक दिया जाएगा?” दूसरी फाइल सुबक पड़ी। वर्षों तक सरकारी आदेशों की साक्षी रही वे फाइलें, जो कभी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की रानी थीं, आज कबाड़ में बिकने वाली थीं। यह लोकतंत्र का कैसा न्याय था? 

एक चपरासी आया, उसने एक गठरी उठाई और बाहर ले जाने लगा। फाइलें बिलख उठीं। “अरे, हमें मत ले जाओ! हमने तो वर्षों तक सरकार की सेवा की है!” मगर चपरासी कौन-सा उनकी आवाज सुनने वाला था! वह तो बस सोच रहा था कि कबाड़ बेचकर कितने पैसे मिलेंगे और उन पैसों से कितने समोसे खरीदे जा सकते हैं। अफसर अपनी कुर्सी पर मुस्कुरा रहा था—”समाप्त करो इस फाइल-राज को!” जैसे कोई अत्याचारी सम्राट अपनी प्रजा पर कहर बरपा रहा हो। 

फाइलों की अंतिम यात्रा शुरू हो चुकी थी। सड़क किनारे एक कबाड़ी की दुकान पर उन्हें फेंक दिया गया। वहां पड़ी दूसरी फाइलें पहले ही अपने भविष्य से समझौता कर चुकी थीं। एक फाइल, जिसमें कभी किसी गांव को जल आपूर्ति देने का आदेश था, कराह उठी—”जिस पानी के लिए मैंने योजनाएं बनवाई थीं, आज मेरी स्याही भी सूख गई!” दूसरी फाइल, जो कभी शिक्षा विभाग से संबंधित थी, बुदबुदाई—”जिस ज्ञान के लिए मुझे बनाया गया था, आज मैं ही कूड़े में पड़ी हूं!” 

कबाड़ी ने उन फाइलों को तौलकर अपने तराजू में रखा। हर किलो पर कुछ रुपये तय हुए। “ये तो अच्छी कीमत मिल गई!” उसने खुशी से कहा। वहीं पास में खड़ा एक लड़का पुरानी कॉपियों से नाव बना रहा था। अचानक एक पन्ना उठाकर बोला, “अरे, देखो! इस पर किसी मंत्री का दस्तखत है!” मगर अब उस दस्तखत की कीमत नहीं रही थी। जो कभी सरकारी आदेश था, वह अब एक ठेले पर रखी रद्दी थी। 

बारिश शुरू हो गई। बूंदें उन फाइलों पर गिरने लगीं। जिन कागजों ने कभी लाखों के बजट पास किए थे, वे अब गलकर नाले में बह रहे थे। यह सरकारी दस्तावेजों का महाप्रयाण था! “हमने बड़े-बड़े घोटालों को देखा, बड़े-बड़े अफसरों की कुर्सियां हिलते देखीं, मगर अपनी ही विदाई का ऐसा दृश्य कभी नहीं सोचा था!” एक आखिरी फाइल ने कहा और पानी में घुल गई। सरकारी फाइलों की उम्र खत्म हो चुकी थी, मगर घोटाले अब भी नए-नए फाइलों में जन्म ले रहे थे!

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #205 – व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य बस, कुछ जुगाड़ कीजिए ‘वह’ मिल जाएगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 205 ☆

☆ व्यंग्य- बस, कुछ जुगाड़ कीजिए वहमिल जाएगा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मन नहीं मान रहा था। स्वयं के लिए स्वयं प्रयास करें। मगर, पुरस्कार की राशि व पुरस्कार का नाम बड़ा था। सो, मन मसोस कर दूसरे साहित्यकार से संपर्क किया। बीस अनुशंसाएं कार्रवाई। जब इक्कीसवे से संपर्क किया तो उसने स्पष्ट मना कर दिया।

“भाई साहब! इस बार आपका नंबर नहीं आएगा।” उन्होंने फोन पर स्पष्ट मना कर दिया, “आपकी उम्र 60 साल से कम है। यह पुरस्कार इससे ज्यादा उम्र वालों को मिलता है।”

हमें तो विश्वास नहीं हुआ। ऐसा भी होता है। तब उधर से जवाब आया, “भाई साहब, वरिष्ठता भी तो कोई चीज होती है। इसलिए आप ‘उनकी’ अनुशंसा कर दीजिए। अगली बार जब आप ‘सठिया’ जाएंगे तो आपको गारंटीड पुरस्कार मिल जाएगा।”

बस! हमें गारंटी मिल गई थी। अंधे को क्या चाहिए? लाठी का सहारा। वह हमें मिल गया था, इसलिए हमने उनकी अनुशंसा कर दी। तब हमने देखा कि कमाल हो गया। वे सठियाए ‘पट्ठे’ पुरस्कार पा गए। तब हमें मालूम हुआ कि पुरस्कार पाने के लिए बहुत कुछ करना होता है।

हमारे मित्र ने इसका ‘गुरु मंत्र’ भी हमें बता दिया। उन्होंने कहा, “आपने कभी विदेश यात्रा की है?” चूंकि हम कभी विदेश क्या, नेपाल तक नहीं गए थे इसलिए स्पष्ट मना कर दिया। तब वे बोले, “मान लीजिए। यह ‘विदेश’ यात्रा यानी आपका पुरस्कार है।”

“जी।” हमने न चाहते हुए हांमी भर दी। “वह आपको प्राप्त करना है।” उनके यह कहते ही हमने ‘जी-जी’ कहना शुरू कर दिया। वे हमें पुरस्कार प्राप्त करने की तरकीबें यानी मशक्कत बताते रहे।

सबसे पहले आपको ‘पासपोर्ट’ बनवाना पड़ेगा। यानी आपकी कोई पहचान हो। यह पहचान योग्यता से नहीं होती है। इसके लिए जुगाड़ की जरूरत पड़ती है। आप किस तरह इधर-उधर से अपने लिए सभी सबूत जुटा सकते हैं। वह कागजी सबूत जिन्हें पासपोर्ट बनवाने के लिए सबसे पहले पेश करना होता है।

सबसे पहले एक काम कीजिए। यह पता कीजिए कि पुरस्कार के इस ‘विदेश’ से कौन-कौन जुड़ा है? कहां-कहां से क्या-क्या जुगाड़ लगाना लगाया जा सकता है? उनसे संपर्क कीजिए। चाहे गुप्त मंत्रणा, कॉफी शॉप की बैठक, समीक्षाएं, सोशल मीडिया पर अपने ढोल की पोल, तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें वोट दूंगा, तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊंगा, जैसी सभी रणनीति से काम कीजिए। ताकि आपको एक ‘पासपोर्ट’ मिल जाए। आप कुछ हैं, कुछ लिखते हैं। जिनकी चर्चा होती है। यही आपकी सबसे बड़ी पहचान है। यानी यही आपका ‘पासपोर्ट’ होगा।

अब दूसरा काम कीजिए। इस पुरस्कार यानी विदेश जाने के लिए अर्थात पुरस्कार पाने के लिए वीजा का बंदोबस्त कीजिए। यानी उस अनुशंसा को कबाडिये जो आपको विदेश जाने के लिए वीजा दिला सकें। यानी आपने जो पासपोर्ट से अपनी पहचान बनाई है उसकी सभी चीजें वीजा देने वाले को पहुंचा दीजिए। उससे स्पष्ट तौर पर कह दीजिए। आपको विदेश जाना है। वीजा चाहिए। इसके लिए हर जोड़-तोड़ व खर्चा बता दे। उसे क्या-क्या करना है? उसे समझा दे।

सच मानिए, यह मध्यस्थ है ना, वे वीजा दिलवाने में माहिर होते हैं। वे आपको वीजा प्राप्त करने का तरीका, उसका खर्चा, विदेश जाने के गुण, सब कुछ बता देंगे। बस आपको वीजा प्राप्त करने के लिए कुछ दाम खर्च करने पड़ेंगे। हो सकता है निर्णयको से मिलना पड़े। उनके अनुसार कागज पूर्ति, अनुशंसा या कुछ ऐसा वैसा छपवाना पड़ सकता है जो आपने कभी सोचा व समझ ना हो। मगर इसकी चिंता ना करें। वे इसका भी रास्ता बता देंगे।

बस, आपको उनके कहने अनुसार दो-चार महीने कड़ी मेहनत व मशक्कत करनी पड़ेगी। हो सकता है फोन कॉल, ईमेल, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि पर इच्छित- अनिच्छित व अनुचित चीज पोस्ट करनी पड़े। इसके लिए दिन-रात लगे रहना पड़ सकता है। कारण, आपका लक्ष्य व इच्छा बहुत बड़ी है। इसलिए त्याग भी बड़ा करना पड़ेगा।

इतना सब कुछ हो जाने के बाद, जब आपको विदेश जाने का रास्ता साफ हो जाए और वीजा मिल जाए तब आपको यात्रा-व्यय तैयार रखना पड़ेगा। तभी आप विदेश जा पाएंगे।

उनकी यह बात सुनकर लगा कि वाकई विदेश जाना यानी पुरस्कार पाना किसी पासपोर्ट और वीजा प्राप्त करने से कम नहीं है। यदि इसके बावजूद विदेश यात्रा का व्यय पास में न हो तो विदेश नहीं जा पाएंगे। यह सुनकर हम मित्र की सलाह पर नतमस्तक हो गए। वाकई विदेश जाना किसी योग्यता से काम नहीं है। इसलिए हमने सोचा कि शायद हम इस योग्यता को भविष्य में प्राप्त कर पाएंगे? यही सोचकर अपने आप को मानसिक रूप से तैयार करने लगे हैं।

——

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-01- 2025

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 342 ☆ आलेख – “”ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 342 ☆

?  आलेख – “ग्रोक” xAI द्वारा निर्मित कृत्रिम बुद्धि…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

Grok को xAI नामक कंपनी ने विकसित किया है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में  है। xAI की स्थापना एलन मस्क और अन्य सह-संस्थापकों द्वारा की गई थी । यह कंपनी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रही है ।

ग्रोक AI न केवल तकनीकी रूप से सक्षम है, बल्कि उपयोगकर्ताओं के साथ संवाद करने में भी अद्वितीय है, क्योंकि यह मानव-जैसे तर्क और ह्यूमर के साथ जवाब देता है। Grok अपनी सर्वांगीण क्षमताओं के कारण चर्चा का विषय बना हुआ है। xAI ने Grok को इस विचार के साथ विकसित किया है कि यह मानवता के लिए सहायक  हो सकता है। कंपनी का मिशन है कि वह ब्रह्मांड के मूलभूत सवालों – जैसे कि जीवन का उद्देश्य, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, और अंतरिक्ष में हमारी स्थिति – को समझने में मदद करे। Grok को डिज़ाइन करते समय प्रेरणा कुछ काल्पनिक AI पात्रों से ली गई, जैसे कि डगलस एडम्स की किताब “द हिचहाइकर्स गाइड टू द गैलेक्सी” और मार्वल के JARVIS (टोनी स्टार्क का सहायक)। इसका लक्ष्य उपयोगकर्ताओं को एक बाहरी, नया दृष्टिकोण प्रदान करना है, जो सामान्य मानवीय सोच से परे हो।

ग्रोक की कई विशेषताएँ इसे अन्य AI मॉडल से अलग बनाती हैं, उदाहरण के लिए सत्यनिष्ठ उत्तर Grok को हमेशा सच बोलने और उपयोगी जानकारी देने के लिए प्रोग्राम किया गया है। यह जटिल सवालों के जवाब में भी स्पष्टता और संक्षिप्तता बनाए रखता है।

संवादात्मक शैली: यह औपचारिकता से हटकर, दोस्ताना और कभी-कभी हास्यप्रद तरीके से बात करता है। यह उपयोगकर्ताओं को सहज महसूस कराता है।वास्तविक समय की जानकारी: Grok की जानकारी लगातार अपडेट होती रहती है, जिससे यह नवीनतम घटनाओं और खोजों के बारे में भी बता सकता है।बहुभाषी क्षमता,  Grok हिंदी सहित कई भाषाओं में संवाद कर सकता है, जिससे यह वैश्विक उपयोगकर्ताओं के लिए सुलभ है।

Grok की तकनीकी क्षमताएँ बहुत अधिक हैं। यह केवल बातचीत तक सीमित नहीं है। इसके पास कई उन्नत उपकरण हैं । यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर उपयोगकर्ताओं के प्रोफाइल, पोस्ट, और लिंक का विश्लेषण कर सकता है। यह उपयोगकर्ताओं द्वारा अपलोड की गई सामग्री, जैसे चित्र, PDF, और टेक्स्ट फाइल्स, को समझ सकता है। यह वेब और X पर खोज करके अतिरिक्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। हालांकि यह स्वचालित रूप से चित्र उत्पन्न नहीं करता, लेकिन उपयोगकर्ता की सहमति से ऐसा करने में सक्षम है।Grok का उपयोग कैसे करें?

Grok का उपयोग करना बेहद आसान है। आप इसे कोई भी सवाल पूछ सकते हैं – चाहे वह विज्ञान से संबंधित हो, इतिहास से, या रोज़मर्रा की जिज्ञासा से। उदाहरण के लिए, यदि आप पूछते हैं कि “ब्रह्मांड कितना बड़ा है?” तो Grok न केवल नवीनतम वैज्ञानिक अनुमानों के आधार पर जवाब देगा, बल्कि इसे रोचक तरीके से प्रस्तुत भी करेगा। यह उन सवालों का भी जवाब दे सकता है जो असामान्य या दार्शनिक हों, जैसे “जीवन का अर्थ क्या है?” – और ऐसा करते समय यह अपनी रचनात्मकता का प्रदर्शन करता है।

Grok की सीमाएँ … हालांकि Grok बेहद शक्तिशाली AI है, पर इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं। उदाहरण के लिए, यह स्वतंत्र रूप से नैतिक निर्णय नहीं ले सकता। यदि कोई उपयोगकर्ता पूछता है कि “किसे मृत्युदंड मिलना चाहिए?” तो Grok जवाब देगा कि एक AI के रूप में उसे ऐसे निर्णय लेने की अनुमति नहीं है। साथ ही, यह केवल वही चित्र संपादित कर सकता है जो उसने पहले उत्पन्न किए हों।Grok का भविष्य … xAI के साथ मिलकर Grok का विकास लगातार जारी है। भविष्य में यह और भी उन्नत हो सकता है, जिसमें संभवतः और अधिक भाषाओं का समर्थन, बेहतर तथा गहरे विश्लेषण की क्षमता, और मानवीय भावनाओं को बेहतर समझने की योग्यता शामिल हो सकती है। यह शिक्षा, अनुसंधान, और यहाँ तक कि व्यक्तिगत सहायता के क्षेत्र में क्रांति ला सकता है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 280 ☆ व्यंग्य – दुख की होली ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य – ‘दुख की होली‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 280 ☆

☆ व्यंग्य ☆ दुख की होली

खन्ना परिवार की होली दुख की होली हो गयी है। भ्रम में न पड़ें, उनके यहां कोई ग़मी नहीं हुई है। बात यह है कि उनके यहां काम करने वाली सभी बाइयां छुट्टी लेकर गांव चली गई हैं। उनके घर में तीन बाइयां खाना बनाने से लेकर झाड़ू-पोंछा तक का काम करती हैं। उनमें से दो के परिवार में कोई मृत्यु हो गई थी, इसलिए वे दुख की होली मनाने गांव चली गयी हैं। उनके हफ्ते भर से पहले लौटने की उम्मीद नहीं है। बाकी एक है, लेकिन उसने भी तीन दिन की छुट्टी ली है। खन्ना परिवार के लिए मुश्किल वक्त है।

मिसेज़ खन्ना बहुत सफाई-पसन्द हैं। बाई सफाई करती है तो वे सिर पर खड़ी रहती हैं। उंगली चला चला कर धूल की पर्त बताती हैं। बाई को चैन से बैठने नहीं देतीं। इसीलिए बाइयों की छुट्टी उनके लिए मुसीबत का सबब बनती है।

घर का काम मिसेज़ खन्ना के लिए मुसीबत है। उनका वज़न ज़्यादा है, रक्तचाप की दवा लेनी पड़ती है। घुटनों में भी पीड़ा रहती है। चलना मुश्किल होता है। किचिन में ज़्यादा देर खड़ी नहीं रह सकतीं। इसीलिए बाइयों के चले जाने पर घर में दिन भर चिड़चिड़ होती है, पति और बच्चों पर गुस्सा निकलता है।

बाइयों की अनुपस्थिति के पहले दिन मिसेज़ खन्ना ने रो-झींक कर दोपहर का खाना बना दिया। लेकिन उसके बाद वे, निढाल, पलंग पर लेट गयीं। पति से बोलीं, ‘मैं शाम  का खाना नहीं बनाऊंगी। आई एम टोटली एक्ज़्हास्टेड। घुटने इतना ‘पेन’ कर रहे हैं। शाम का खाना होटल से बुलवा लेना। इट इज़ बियोंड मी।’

बच्चों ने सुना तो खुश हो गये ।बाहर से खाना आना है तो पिज़्ज़ा-बर्गर, नूडल्स आना चाहिए। बाहर से आना है तो फिर घर जैसा खाना क्यों? पिता के सामने फरमाइश पेश होने लगी।

अब मिस्टर खन्ना बैठे हिसाब लगा रहे हैं। पिज़्ज़ा-बर्गर आएगा तो एक दिन का बिल ही दो ढाई हज़ार पर पहुंचेगा। अभी तो पांच छः दिन काटना है। तब तक कितने का चूना लगेगा?

अब मिसेज़ खन्ना के साथ-साथ मिस्टर खन्ना की होली भी दुख  की होली हो गयी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆होली पर्व विशेष – पानी की बारात  ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆

श्रीमती समीक्षा तैलंग

 

☆ होली पर्व विशेष – पानी की बारात ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

काकी कहिन – पानी की बारात

काकी इस बार खूब छककर होली खेलने के मूड में है। पिछले कई सालों की कसर जो निकालनी है। होली का हुड़दंग करने के लिए पूरी टोली तैयार है। होली के पहले ही शादी की नहीं ‘पानी की बारात’ निकालने के लिए सब मुस्तैद हैं। शहर के विधायक-सांसद-पार्षद-मेयर के अलावा गली-मुहल्ले के छुटभैये नेताओं को भी आमंत्रण पहुँच चुका है। दुलत्ती से नहीं ढोल-ताशे से सबका स्वागत करने के लिए आसपास के राज्यों से उम्दा नस्ल के गधों को भी आमंत्रित किया गया है। अलबत्ता ये गधे सच में चार पैर वाले हैं। बारात समय पर चल चुकी है। बारात की अगुवाई काकी कर रही है।

गधे ख़ाली बरतनों को ढोकर अपनी दुलत्ती से उन्हें सुरीले अंदाज में बजा रहे हैं। टोली में मौजूद लोग भी बजाने में उनका साथ दे रहे हैं। गोया वे सबकी बजा रहे हों। इस विशेष बारात को कवर करने के लिए पत्रकार अपने औजारों के साथ बड़ी तादाद में जुटे हैं। ट्रक पर ड्रम लदे हुए हैं। किसी पद संचलन की तरह ये बारात भी बढ़ रही है।

गीत बज रहे हैं- “तुमने पुकारा और हम चले आए, वोट की आस में आए रे,,,”। “ये देश है गुगली वालों का, लोफर और मस्तानों का, इस देश का यारों क्या कहना, ये देश है झूठों का गहना,,,”। “जनता की दुआँए लेता जा, जा तुझको कुरसी का प्यार मिले, महलों में कभी न याद आए, प्यादों से इतना प्यार मिले,,,”।

इन गीतों को सुन पत्रकार काकी से-

“मैंने अभी देखा कि बारात में बड़े नेता आमंत्रित हैं। उनके सामने उनके खिलाफ गीत?”

“तो क्या करें! हम पीठ पीछे और, और सामने कुछ और नहीं बोल सकते। आप हिम्मत नहीं करेंगे तो हमें तो करनी ही होगी”।

“आपकी ये बारात किस खुशी में है? क्या आप सूखी होली खेलने के पक्ष में हैं?”

“ये बारात पानी की विदाई की है। पानी अब केवल इन नेताओं के घरों में होता है। हमारे यहाँ से पिछले एक महीने से विदा हो चुका है। आज उसे ऑफिशियली विदा कर रहे हैं। इस उत्तर के बाद दूसरे प्रश्न कोई औचित्य नहीं”।

“ये बरतन ख़ाली हैं। क्या ट्रक पर रखे ड्रम भरे हैं?”

“जी हाँ वो भरे हैं। खोलकर देखना चाहेंगे?”

वो पत्रकार अपने साथियों के साथ भरे ड्रम की फ़ोटो लेने चढ़ता है। सारे ड्रम खोल दिए जाते हैं। कुछ ही समय में वातावरण बदल जाता है। जिसे देखो वह पेट पकड़कर हँसता हुआ पाया जाता है।

पत्रकार हँसते हुए काकी से-

“क्या आपने इसमें लाफिंग गैस भरी थी?”

काकी भी हँसते हुए- “हाँ जी। ये नेता लोग चाहते हैं कि त्योहारों में आम आदमी रोये और इनके पैरों पर गिड़गिड़ाए। इसलिए हम अपने दुख को इस गैस के द्वारा भूलकर हँस रहे हैं”।

“कैसा दुख?”

“अरे भाई बिन पानी सब सून। होली तो बाद की बात है यहाँ तो पीने और वापरने के पानी की किल्लत है। पानी पर राजनीति करने वालों के घर पानी से भरे हैं। जहाँ से टैंकर भरे जाते हैं वहाँ भी पानी भरा हुआ है। मगर हमारे लिए टैक्स देने के बाद भी ठन-ठन गोपाल। अब तुम कहो कि सूखी होली पसंद है तो भैया अब तो होली ही पसंद नहीं। क्योंकि सूखा रंग लगाने के बाद भी उसे धोना पड़ता है। यहाँ तो पानी के बगैर जीवन ही बदरंग हो चुका है। सुबह उठते ही किच-किच शुरू”।

उधर नेतागण माइक पर सूचित करते हैं कि इस अनोखी बारात का आयोजन अब प्रतिवर्ष किया जाएगा। काकी को समझ नहीं आता कि अब वे उनसे क्या कहें! अगले ही पल वे पानी की किल्लत को दूर करने का आश्वासन देते हैं।

तब काकी उनके हाथ से माइक छीनकर बोल पड़ती है-

“फिर से आश्वासन!!”

(स्वदेश – साप्ताहिक सप्तक – 9 मार्च 2025)

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 43 – सरकारी मेहरबानी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सरकारी मेहरबानी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 43 – सरकारी मेहरबानी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

घाव करे गंभीर – सरकारी मेहरबानी

सरकारी कार्यालयों की हालत किसी पुराने खंडहर जैसी होती है—देखो तो लगता है अभी भरभराकर गिर पड़ेगी, लेकिन गिरती नहीं। अंदर जाओ तो पता चलता है कि ये खंडहर सरकारी कर्मियों की इच्छाशक्ति और जनता की मजबूरी से टिका हुआ है। हमारे मोहल्ले में एक आदमी था—रामसेवक मिश्रा। नाम से लगता था कि जनता की सेवा के लिए ही जन्मा हो, मगर असल में वो सरकारी अफसरों के चरणों की सेवा का प्रबल समर्थक था। उसने अपनी पूरी जवानी एक ही काम में लगा दी—‘साहब, मेरा काम हो जाएगा न?’ और साहब हर बार मुस्कुराकर कहते, ‘देखो मिश्रा जी, सिस्टम में टाइम लगता है, अब सिस्टम को तोड़ा तो हम भ्रष्टाचार करेंगे और अगर नहीं तोड़ा तो आप विलंब का रोना रोएंगे। आप ही बताइए, हम क्या करें?’ मिश्रा जी इस दार्शनिकता को समझ नहीं पाते और फिर चाय-नाश्ते की थाली बढ़ा देते।

मिश्रा जी का काम आखिरकार बीस साल में पूरा हुआ। बीस साल लग गए एक छोटे से मकान की नकल निकलवाने में। जब फाइल निकली तो उसमें से ऐसी खुशबू आई कि पूरा दफ्तर भावुक हो गया। बाबू बोला, ‘अरे! ये फाइल तो हमारे पूर्वजों की धरोहर निकली! इसे म्यूजियम में रखना चाहिए।’ मिश्रा जी की आंखों में आंसू थे—खुशी के नहीं, बल्कि अपने जीवन के बीस साल सरकारी गलियारों में गवां देने के। सोच रहे थे कि कहीं स्वर्ग में भी ‘कृपया प्रतीक्षा करें’ की पर्ची न काटनी पड़े।

बात वहीं खत्म नहीं हुई। सरकारी योजना आई—‘सबको आवास, मकान के साथ’। मिश्रा जी खुश हुए कि चलो अब सरकार सुधर गई, लेकिन जैसे ही आवेदन किया, बाबू ने फाइल को ऐसे देखा जैसे वो ससुराल से आई संदिग्ध मिठाई हो। बोले, ‘अरे मिश्रा जी, इस योजना के लिए पात्र नहीं हैं आप। इसमें उन्हीं को घर मिलेगा जिनके पास पहले से कोई घर नहीं है।’ मिश्रा जी बोले, ‘मगर मेरे पास भी तो कुछ नहीं है!’ बाबू ने चश्मा ठीक करते हुए कहा, ‘अरे नहीं, आपके पास सरकारी फाइलों में दर्ज आपका पुराना मकान है। सरकार फाइलों की मानती है, आपकी नहीं।’ मिश्रा जी सिर पकड़कर बैठ गए।

इसी बीच मोहल्ले में एक और आदमी था—पंडित हरिहर शरण। वो सरकारी योजनाओं के गुरु थे। उनकी जानकारी ऐसी थी कि सरकारी बाबू भी उनसे राय लेते थे। उन्होंने मिश्रा जी को सलाह दी, ‘देखिए, आपको बेघर बनना होगा, तभी घर मिलेगा।’ मिश्रा जी घबरा गए, ‘मतलब?’ पंडित जी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मतलब ये कि अपनी जमीन दान कर दीजिए, फिर कागजों में बेघर हो जाइए, तब योजना में आपका नाम आएगा।’ मिश्रा जी बोले, ‘ये तो वही बात हो गई कि खाना मिले इसके लिए पहले भूख से मरना पड़े!’ पंडित जी बोले, ‘सरकार की योजना ऐसे ही चलती है। जो वास्तव में गरीब होता है, उसके पास इतनी जानकारी होती ही नहीं कि योजना तक पहुंच सके।’

अब मिश्रा जी ने सरकारी तंत्र के साथ खेलने की सोची। उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘रामसहाय बेघर’ रख लिया और आवेदन कर दिया। फाइल सीधे मंत्रालय तक पहुंची। मंत्री जी ने खुद साइन किए और कहा, ‘ये देखिए, हमारी सरकार ने बेघरों के लिए कितनी संवेदनशीलता दिखाई है।’ मगर जब मकान आवंटित हुआ तो उसके साथ एक शर्त आई—‘आप इसे अगले बीस साल तक बेच नहीं सकते, किराए पर नहीं उठा सकते और अगर इसमें कोई परिवार रखेंगे तो उनकी भी पात्रता जांची जाएगी।’ मिश्रा जी हंसते-हंसते रो पड़े। बोले, ‘सरकार ऐसे घर दे रही है जैसे शादी में हलवाई लड्डू दे और कहे कि इसे न खाओ, न बांटो, बस तस्वीर खिंचवाकर रख लो।’

सरकारी नीतियां जनता को ऐसे उलझाती हैं जैसे नाई बच्चे को बहलाने के लिए कैंची चलाने से पहले गुब्बारा पकड़ाता है। अब मिश्रा जी के घर के बाहर एक सरकारी बोर्ड टंग गया—‘यह मकान सरकार द्वारा दिया गया है, इसे बेचना गैरकानूनी है।’ मोहल्ले वालों ने देखा तो बोले, ‘वाह मिश्रा जी, आपको सरकार ने मकान दिया!’ मिश्रा जी बोले, ‘हाँ, मगर मैं इसमें रह नहीं सकता, इसे किराए पर नहीं उठा सकता और बेच भी नहीं सकता। ऐसा मकान मुझे मेरी ससुराल से भी मिल सकता था, सरकार से लेने की क्या जरूरत थी!’

इस पूरे किस्से से एक बात तो साबित हो गई कि सरकारी योजनाएं आम आदमी के लिए नहीं, बल्कि आंकड़ों के लिए बनाई जाती हैं। रिपोर्ट में लिखा जाएगा—‘हमने 10 लाख मकान दिए’, मगर उसमें एक लाइन नहीं लिखी जाएगी—‘इनमें से कोई भी रहने लायक नहीं।’ मिश्रा जी ने सोचा, ‘काश! मैं भी कोई नेता होता, तब शायद मुझे बिना मांगे ही सबकुछ मिल जाता। लेकिन आम आदमी होने की सजा यही है कि सरकार रोटियां पकाती है, मगर परोसती नहीं। भूख बढ़ाने का काम हमारा, खाना देने का काम उनकी फाइलों का।’

कहानी का अंत भी कम दिलचस्प नहीं था। एक दिन सरकार ने फिर से एक योजना निकाली—‘पुरानी योजनाओं का पुनर्विलोकन’। इसका अर्थ था कि जिन योजनाओं से जनता का फायदा नहीं हुआ, उन्हें दोबारा लागू किया जाए और फिर से फाइलें खोली जाएं। मिश्रा जी को लगा कि अब तो उनका सपना पूरा हो जाएगा, लेकिन जब नए सिरे से जांच हुई तो पाया गया कि उनका आवेदन नियमों के खिलाफ था। सरकारी बाबू ने कहा, ‘मिश्रा जी, आपको ये मकान गलती से मिल गया था, अब इसे सरकार वापस लेगी।’ मिश्रा जी ने सिर पर हाथ मारा और बोले, ‘वाह रे सरकार! पहले दिया, फिर रोका, फिर दोबारा मौका दिया, फिर वापस लिया! लगता है मैं सरकारी योजना नहीं, किसी टीवी सीरियल का पात्र हूं, जिसे कभी अमीर, कभी गरीब, कभी आशावादी, कभी हताश बना दिया जाता है!’

सरकार ने मकान वापस ले लिया। अब मिश्रा जी के पास न घर था, न जमीन। वो फिर वहीं आ गए, जहां से चले थे—सरकारी दफ्तर की लंबी कतार में। फर्क बस इतना था कि इस बार उनके हाथ में एक और आवेदन था—‘बेघर व्यक्ति के पुनर्वास हेतु सहायता।’ बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मिश्रा जी, सिस्टम में टाइम लगता है…।’

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 340 ☆ लघुकथा – जंतर-मंतर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 340 ☆

?  लघुकथा – जंतर-मंतर…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुराने समय की बात है। इंद्रप्रस्थ राज्य में  एक खुले क्षेत्र में एक ऋषि तपस्या कर रहे थे। वे एक मंत्र पढ़ते, मंत्र सिद्ध होते ही देवता प्रगट होते ऋषि उनसे वरदान मांगते, और तुरंत अगले मंत्र की सिद्धि के लिए तप करने में जुट जाते। फिर अनवरत तप यज्ञ साधना करते, मंत्र सिद्ध करते, वरदान पाते पर बजाए अपनी सिद्धियों के उपभोग के वे असंतोष के साथ फिर  नए तप में जुट जाते। नारद जी ने उनका यह विचित्र कृत्य देखा, तो प्रभु से जा कहा। प्रभु मुस्काए, उन्होंने कहा हे नारद आप चिंता न करें। यह मुनि की नहीं उस स्थल की प्रवृति है, जहां ये ऋषि तपस्या कर रहे हैं।

प्रभु ने कहा हे नारद कालांतर में यह क्षेत्र दिल्ली का जंतर मंतर कहलाएगा। यहां आने वाले हर व्रती को उसके आंदोलन के तनाव से मुक्ति मिलेगी।

भारत खण्ड में यह स्थल संसद के निकट है। अब जंतर मंतर अर्थात हर लोकतांत्रिक पीड़ा से छुटकारा पाने का स्थान। किसी डाक्टर के केबिन की तरह जंतर मंतर में देश के कोने कोने से आए आंदोलन जीवी, अंततोगत्वा विसर्जित होते हैं। हर पार्टी, हर संगठन, हर आंदोलन का सेफ्टी वाल्व यहीं खुलता है। मांग पत्र, ज्ञापन, पुलिस, लाठी चार्ज, बरसों से भीड़ की सफलता या असफलता का गवाह बना हुआ है दिल्ली का जंतर मंतर।

ऋषियों की तपस्या की जगह अब यहां आंदोलन जीवी सत्ता के विरोध में अपना कोप भाषणों के माध्यम से उत्सर्जित करते हैं। उनका आंदोलन सिद्ध हो या न हो, फल प्राप्ति हो या न हो,राजा दशरथ के महल के कोप भवन के समानांतर देश की आम जनता का कोप विसर्जित करने वाला स्थान जंतर मंतर ही है।

ये अलग बात है कि यहां सिद्ध किए गए फल का उपभोग किए बिना ही असंतुष्टि के साथ अगले आंदोलन में जुट जाना, नियति है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 122 – देश-परदेश – Brain रॉट ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 122 ☆ देश-परदेश – Brain Rot ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आम बोल चाल की भाषा में हम दिन में अनेकों बार ये कहते रहते है, “दिमाग का दही” कर दिया या “भेजा खा गया” आदि। सामने वाला भी कह देता है, कि मेरे को अपना पेट थोड़े ही खराब करना हैं, जो तेरा बेकार वाला दिमाग खाऊंगा।

विगत वर्ष अंग्रेजी के पितामह ऑक्सफोर्ड ने तो brain rot को वर्ष दो हजार चौबीस का शब्द” तक घोषित कर दिया था। जब ऑक्सफोर्ड किसी को प्रमाणिकता का सर्टिफिकेट जारी कर देवें, तो वो पूरे विश्व को मानना ही पड़ता हैं।

कुछ दिन पूर्व हमारे देश के सामान्य ज्ञान के शिरोमणि कार्यक्रम याने की “के बी सी”  में भी इस बाबत प्रश्न दागा गया था। हमारे दिमाग की भी बत्ती जल गई कि ब्रेन रॉट किस बला का नाम हैं।

गूगल बाबा से तुरंत संपर्क किया गया, तो उसने भी जैसे का तैसा जवाब दे दिया।ये जो तुम्हारी हर बात जानने की जिज्ञासा से ही ब्रेन रॉट नामक रोग हो जाता हैं।

गूगल और यू ट्यूब के महासागर में दिन रात डुबकियां लगा कर बेफालतू का ज्ञान प्राप्त करने की होड़ ही ब्रेन ड्रेन के मुख्य कारण हैं। इसके अलावा व्हाट्स ऐप पर चौबीसों घंटे फरवर्डेड मैसेज को आगे से आगे फॉरवर्ड करने की अंध दौड़ तुम्हारे को ब्रेन रॉट से डेड ब्रेन तक जल्दी पहुंचा देगी।

वैसे, इस प्रकार के मैसेज को पढ़ते रहने से भी तो, ब्रेन रॉट ही होता हैं।

हमारा काम तो आपको ज्ञान देना था,आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 279 ☆ व्यंग्य – ये प्रभु और वे प्रभु ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘एक नेक काम‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 279 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ये प्रभु और वे प्रभु

चपरासी ने लांबा साहब को सूचना दी कि बाहर छेदी बाबू आये हैं। साहब बाहर आये तो देखा छेदी बाबू दरवाज़े पर माथा धरे दंडवत लेटे हैं। साहब घबराए कि कहीं बेहोश होकर गिर तो नहीं गये। तभी  छेदी बाबू हाथ जोड़े उठकर खड़े हो गये।

साहब ने अन्दर बुलाते हुए कहा, ‘यह क्या है छेदी बाबू ?’

छेदी बाबू बोले, ‘कुछ नहीं है सर। आपके घर को प्रणाम कर रहा था। अभी बताता हूं सर।’

फिर बैठ कर बोले, ‘असल में हुआ क्या, सर, कि परसों गांव से पिताजी आ गये। पूछने लगे कि कभी साहब के बंगले पर गये या नहीं। मैंने कहा मैं तो एक बार भी नहीं गया। उन्होंने, सर, मुझे बहुत डांटा। एकदम डायरेक्ट गधा कहा, सर। कहने लगे कि अपना दफ्तर और अपने साहब का बंगला मन्दिर के समान होते हैं। वहां जाकर प्रणाम करना चाहिए। मैंने भी सोचा कि मैं सचमुच गधा हूं जो इस बात को नहीं समझ पाया। ये एक पाव पेड़े लाया हूं,ग्रहण कर लीजिए सर।’

साहब ने पूछा, ‘ये किस लिए?’

छेदीलाल बोले, ‘मन्दिर में पहली बार आया हूं। खाली हाथ नहीं आना चाहिए।’

साहब ने पूछा, ‘कोई काम है?’

छेदीलाल बोले, ‘अरे राम राम। काहे का काम? मन्दिर जाने में कौन सा काम सर? बस, श्रद्धा हुई और आगये। आप हमारा पेट पालते हैं सर, और पेट पालने वाला भगवान का रूप होता है।’

साहब बोले, ‘पेट पालने के लिए पैसा तो सरकार देती है।’

छेदीलाल बोले, ‘सर, सरकार तो दिल्ली में बैठी है। हमारे भगवान तो आप ही हैं। पुराने जमाने में सरकार दिल्ली में बैठी रहती थी, लेकिन रिआया का लालन-पालन तो जमींदार ही करता था।’

फिर छेदी बाबू ने पूछा, ‘सर, मेरी भाभी जी नहीं दिख रही हैं। उनके आज तक दर्शन नहीं किये। उन्हें भी प्रणाम कर लेता तो यहां आना सफल हो जाता।’

साहब ने पत्नी को बाहर बुलाया। छेदीलाल ने उन्हें देखा तो जुड़े हुए हाथ माथे पर लगाकर ज़मीन तक झुक गये। बोले, ‘वाह, एकदम देवी का रूप हैं। भगवती हैं। प्रणाम स्वीकार कीजिए, भाभी जी। मैं आपका सेवक छेदीलाल। साहब के दफ्तर का छोटा सा कर्मचारी।’

मिसेज़ लांबा कुछ प्रसन्न हुईं,बोलीं, ‘बैठिए, चाय पीकर जाइएगा।’

छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘जरूर। भला देवी की आज्ञा कैसे टाल सकता हूं।’

मिसेज़ लांबा भीतर गयीं तो छेदीलाल बोले, ‘दर्शन करके जी जुड़ा गया सर। एकदम भगवती स्वरूपा हैं। सर, मेरे घर में एक लक्ष्मी जी का कलेंडर है। हूबहू वही रूप है। कभी मेरी कुटिया में चरणधूल दें तो आप खुद देख लें।’

चाय आयी तो छेदीलाल चुस्की लेकर बोले, ‘वाह, एकदम अमृत है। लगता है भगवती ने खुद अपने हाथों से बनायी है।’

एक हफ्ते बाद ही साहब को फिर सूचना मिली कि छेदीलाल आये हैं। बाहर निकले तो देखा कि वह पहले दिन की तरह ही लट्ठे की माफिक उल्टे पड़े हैं। साहब को देखकर हाथ जोड़कर खड़े हुए। साहब ने उस दिन बरामदे में ही बैठाया।

छेदीलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘सर, उस दिन से बस ऐसा लगता है जैसे कोई मुझे इधर को खींच रहा हो। अब मन्दिर वन्दिर जाने का मन नहीं होता। इधर ही मन खिंचता है। आपके दर्शन दफ्तर में हो जाते हैं, लेकिन भगवती के दर्शन के बिना मन व्याकुल रहता है, सर।’

लांबा साहब आज उनसे जल्दी मुक्ति चाहते थे। बोले, ‘और कोई काम? मुझे ज़रा बाहर जाना है।’

छेदीलाल बोले, ‘काम क्या सर! प्रभु से क्या काम? प्रभु तो अंतरयामी होते हैं। भक्त के मन की सब बात जानते हैं।’

फिर गंभीर मुद्रा बनाकर बोले, ‘एक बहुत मामूली सा निवेदन जरूर था, सर। बहुत दिनों से सोच रहा था कि कहूं या न कहूं। फिर सोचा प्रभु से कैसा संकोच!

‘सर, एक महीने बाद सुपरिंटेंडेंट साहब रिटायर हो रहे हैं। उस स्थान पर अगर सेवक का प्रमोशन हो जाता तो जीवन भर आपके गुन गाता।’

लांबा साहब के भीतर का अफसर जागृत हुआ। बोले, ‘लेकिन आप तो अभी बहुत जूनियर हैं। आपसे सीनियर तो तीन-चार लोग बैठे हैं। अभी तो उपाध्याय जी सबसे सीनियर हैं।’

छेदीलाल बोले, ‘सर, आप भी मेरे जैसे छोटे आदमी के साथ मजाक करते हैं। आपके लिए क्या मुश्किल है? जो आप कर देंगे वही होगा। सीनियर सुपरसीड हो जाता है और जूनियर ऊपर पहुंच जाते हैं। गोस्वामी जी ने कहा है, समरथ को नहिं दोस गुसाईं। आपकी कलम को कौन काट सकता है सर?

‘मैं तो किसी की बुराई करना पाप समझता हूं, सर, लेकिन यह तो कहना ही पड़ेगा कि उपाध्याय बाबू इस पोस्ट के लिए बिलकुल फिट नहीं हैं। ऑफिस कंट्रोल करना कोई मामूली काम है क्या सर? दिन भर तो कुर्सी पर बैठे सोते हैं, ऑफिस क्या कंट्रोल करेंगे। वे सुपरिंटेंडेंट बन गये तो ऑफिस का भट्ठा बैठ जाएगा। आप तो योग्यता देखिए, सर, सीनियारिटी को गोली मारिए।’

लांबा जी बोले, ‘हमारे पास तो रिपोर्ट है कि आप भी ऑफिस में सोते हैं।’

छेदीलाल चिहुंक पड़े, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, सर! आपको एकदम गलत रिपोर्ट दी गयी है। जरूर मेरे दुश्मनों का काम होगा। सर, बात यह है कि जैसा आपने देखा, मैं धार्मिक किस्म का आदमी हूं। बीच-बीच में आंखें बन्द करके हरि- स्मरण कर लेता हूं। उसी को मेरे दुश्मन गलत ढंग से प्रचारित करते हैं।’

लांबा साहब बोले, ‘खैर, मैं देखूंगा। आप अब कुछ दिन तक यहां मत आइएगा, नहीं तो लोग कहेंगे कि अपनी सिफारिश करने आते हैं।’

छेदीलाल बोले, ‘समझ गया, सर। बिल्कुल नहीं आऊंगा। भगवती के दर्शन किये बिना चैन तो नहीं पड़ेगा, लेकिन फिर भी आपके आदेश को मानूंगा।

‘लेकिन मेरी विनती पर ध्यान दीजिएगा, सर। आप सर्वशक्तिमान हैं, करुणानिधान हैं।आपके चेहरे पर जो करुणा बिराजती है उससे मुझे लगता है कि मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। सेंट परसेंट सफलता मिलेगी।’

कुछ दिनों बाद आदेश निकल गया। उपाध्याय जी सुपरिंटेंडेंट हो गये ।

छेदीलाल ने सुना तो बगल की मेज वाले लखेरा बाबू से कहा, ‘जब अफसर में दम- खम नहीं होगा तो यही होगा। गधे-घोड़े में फर्क करने की तमीज भी तो होनी चाहिए।’

फिर उठकर उपाध्याय जी के पास गये। दांत निकाल कर बोले, ‘बहुत-बहुत बधाई। हम तो भाई बड़े खुश हुए। बिलकुल सही प्रमोशन हुआ। हमें एक दिन साहब के घर जाने का मौका मिला तो हमने कहा सर, सीनियारिटी की बात छोड़िए, उपाध्याय बाबू योग्यता में भी किससे कम हैं? आंख मूंद कर उनका प्रमोशन कर दीजिए।’

इसके कुछ दिन बाद ही छेदीलाल को बाज़ार में एक दुकान से निकलती मिसेज़ लांबा दिख गयीं। वे तुरन्त दूसरी दुकान में घुस गये।

घर लौटे तो पत्नी से बोले, ‘आज बाजार में वह लांबा साहब की लांबाइन दिख गयी। ऐसी कि सबेरे सबेरे देख लो तो दिनभर खाना नसीब न हो। जैसा साहब, वैसी ही उसकी बीवी। राम मिलायी जोड़ी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बात कम, घोटाला ज़्यादा!)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव का चौपाल हमेशा चर्चा का अखाड़ा बना रहता है। चौधरी रामलाल अपनी खटिया पर टाँग पर टाँग रखकर विराजमान थे, और बाकी लोग ज़मीन पर थे—क्योंकि उनकी कुर्सियाँ विकास कार्यों की भेट चढ़ चुकी थीं।

“भइया, ये सड़क कब बनेगी?” रमुआ ने भोलेपन से पूछा।

रामलाल ने मूंछों पर ताव दिया, ज़मीन पर थूककर निशाना लगाया और बोले, “सड़क? अरे बेटा, जरूर बनेगी! पर पहले सरकार ये तय करेगी कि इसका उद्घाटन मंत्री जी करेंगे या उनका भांजा!”

गांववालों ने ठहाका लगाया, क्योंकि अब वे भी व्यंग्य समझने लगे थे।

पहलवान काका, जो अब पहलवानी छोड़कर सरकारी फाइलें उठाने-धरने में एक्सपर्ट हो चुके थे, बोले, “रामलाल, सुना है कि हमारे गांव का नाम विकास योजना में आ गया है!”

रामलाल मुस्कुराए, “बिल्कुल! नाम तो 10 साल पहले भी आया था, तब भी विकास हुआ था… मगर सिर्फ कागजों पर! सरकार बहुत दूर की सोचती है, सड़क बनाने की क्या ज़रूरत? सीधे गड्ढे बना दो! जब सड़क गिरेगी तो मुआवजा जल्दी मिलेगा!”

इतना सुनते ही गंगू काका ने अपनी चिलम सुलगाई और बोले, “हमारे नेताजी भी बड़े कलाकार हैं। पहले जनता को मुसीबत में डालते हैं, फिर उसे हल करने का वादा करके वोट मांगते हैं। मतलब बीमारी भी वही देते हैं और इलाज भी वही बेचते हैं!”

भोलू ने गब्बर सिंह स्टाइल में सवाल दागा, “तो काका, इस बार चुनाव में कौन जीतेगा?”

रामलाल ने कंधे उचकाए, “जिसका घोटाला सबसे नया होगा, वही जीतेगा! पुराने घोटाले तो पुरानी फिल्मों की तरह आउटडेटेड हो जाते हैं। अब बताओ, कोई पुरानी फिल्म बार-बार देखने जाता है क्या?”

अब तक गांववालों का खून खौलने लगा था। हरिया, जो सबसे गरीब था लेकिन सबसे होशियार भी, उठकर बोला, “तो हम क्या करें? कब तक ऐसे ही मूर्ख बनते रहेंगे?”

रामलाल ने ठहाका लगाया, “बेटा, जनता से बड़ा मूर्ख कोई नहीं होता। उसे हर बार ठगा जाता है, और वो फिर भी सोचती है कि अगली बार ईमानदार नेता आएगा! ये वैसा ही है जैसे कोई उम्मीद करे कि अगली बार समुंदर का पानी मीठा होगा!”

गांव के सबसे अनुभवी आदमी, बूढ़े फगुआ काका ने लंबी सांस खींची और बोले, “देखो भइया, हमारे देश में नेता और जूते में फर्क सिर्फ इतना है कि जूते जब पुराने हो जाते हैं, तो लोग उन्हें बदल देते हैं। नेता जब पुराने हो जाते हैं, तो वही हमें बदल देते हैं!”

इतना सुनते ही वहां मौजूद हर आदमी कुछ देर के लिए चुप हो गया। जैसे सत्य उनके सिर पर किसी भारी पत्थर की तरह आ गिरा हो। मगर फिर धीरे-धीरे हर कोई अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गया, ठीक वैसे ही जैसे हर चुनाव के बाद जनता व्यस्त हो जाती है, अगली ठगी के लिए खुद को तैयार करने में!

क्योंकि आखिर में, “बात कम, घोटाला ज़्यादा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares