हिन्दी साहित्य – कविता ☆ स्नेह का टच… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

श्री अ. ल. देशपांडे

☆ कविता ☆ स्नेह का टच… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

(आजकल सोशल मीडिया पर प्रतिदिन बेहद खूबसूरत और विचारणीय सुप्रभात संदेश आते हैं जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। प्रस्तुत है श्री अ. ल. देशपांडे जी  की एक ऐसे ही सुप्रभात संदेश की काव्यात्मक प्रतिक्रिया।)

सुप्रभात संदेश:- 

अंगुलिया ही निभा रही है

रिश्ते आजकल

जुबां से निभाने का वक्त कहां है

सब टच में बिजी है

पर टच में कोई नही है

सुप्रभात 🙏🏻🙏🏻

काव्यात्मक प्रतिक्रिया :- 

 

विकास की आपाधापी में

रिश्ते हुए है दर किनार ,

 

अपने ही कुनबे में बंद है

नर ओर नार.

 

निभाने दो अंगुलियों को अपना धरम,

जेहन में पालो रिश्तों का करम.

 

ना दिखाओ केवल अंगूठा 👍🏻 अपनों को,

समझो अपनों की भावनाओं को.

 

वक्त से करो दोस्ती,

समय होता है बलवान

अपनों से रहो करीब

कहलाओगे सदा भाग्यवान.

 

यही होगा स्नेह का टच

पारिवारिक बंधन का यही होगा सच.

 

© श्री अ. ल. देशपांडे

अमरावती

मो. 92257 05884

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहनाववतु ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – सहनाववतु ? ?

इतना चल चुके

शिखर अब भी

पहुँच से दूर क्यों है..?

मैं मापता रहा

अपने साथ अपनों,

कुछ कम अपनों के

हिस्से की भी दूरी,

सहनाववतु सहनौभुनक्तु

सहवीर्यं करवावहै

की परंपरा को जीना चाहता हूँ,

पहाड़ की साझा चोटियों की

एक कड़ी भर होना चाहता हूँ,

लम्बाई-ऊँचाई के पैमानों में

कोई रस नहीं

निपट एकाकी शिखर होना

मेरा लक्ष्य नहीं।

?

© संजय भारद्वाज  

(गुरुवार, 6 सितंबर 2018,.प्रातः 7:35 बजे।)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

🕉️ प्रतिदिन श्रीरामरक्षास्तोत्रम्, श्रीराम स्तुति, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना कर साधना सम्पन्न करें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # २ – सती उर्मिला ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # २ ☆

☆ कविता ☆ ~ सती उर्मिला ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

माँ सिय तेरे चरित को, कोटि कोटि प्रणाम |

धन्य जानकी मातु जूँ, प्रिय तेरो प्रभु राम ||

*

पति के संग वन गमन कर, दिया नेक संदेश |

तुमको था जाना नहीं, था प्रभु को आदेश ||

*

पति संग रहने का लिया, एक महा संकल्प |

पतिव्रता के रूप में, नाम विदित बहु कल्प ||

*

माता तेरे चरित को, करता पुत्र प्रणाम |

मेरे हिय में राजते, युगल मूर्ति सिय राम ||

*

नाम और भी एक है, जिसका अति सम्मान |

लखनप्रिया उर्मिला का, मन में आया ध्यान ||

*

एक त्याग कर महल को, गई पिया के संग |

एक विरह में जल रही, हुआ अधूरा अंग ||

*

जीवन को वन, बना कर, करती उसमें वास |

वन सा ही था बन गया कोशल राज प्रसाद ||

*

राजमहल में बैठकर, करती थी नित ध्यान |

रामानुज थे ह्रदय में, ज्यों शरीर में प्राण ||

*

चौदह वर्षों का कठिन, लिया सती ने व्रत |

लखनलाल तत् समय थे, रघुवर सेवा रत ||

*

मौन व्रती थी उर्मिला, वीर लखन भी मौन |

मानस के ये श्रेष्ठ जन, नहीं जानता कौन ||

*

त्याग दिया रस -राग को, पिय में था अनुराग |

लखन हृदय थीं उर्मिला, रहते निश दिन जाग ||

*

बीते जब कुछ वर्ष तो, समय हुआ विपरीत |

संकट के बादल घिरे, बदली सारी रीति ||

*

शांत वनस्थल बन गया, रणस्थल अशांत |

सिया हरण मारण मरण, था माहौल अक्रांत ||

*

वानर दल को साथ ले, प्रभु ने किया पयान |

सेना साजी विविध रंग, योद्धा थे हनुमान ||

*

सागर ने की धृष्टता, मन में आया अभिमान |

रघुवर क्रोधित हो गए, उठा लिया सन्धान ||

*

युद्ध भयंकर छिड़ा तब, लंका हुई शमशान |

मेघनाद मारा गया, लछिमन का था बाण ||

*

सुलोचना पतिव्रता थी, इंद्रजीत की नारी |

दो सतित्व का समर था, किया बात स्वीकार ||

*

सुलोचना – उर्मिला के, पतिव्रत का था जंग |

रण जीती सती उर्मिला, थी लक्ष्मण बामांग ||

*

हारी नही सुलोचना, हारा उसका भाग्य |

सीता के संताप ने, मिटा दिया सौभाग्य ||

*

पति का पक्ष कुपक्ष था, कारण थी कमजोर |

उर्मि तेरी साधना, शांत प्रात की भोर ||

*

विदित उर्मिला नाथ का, जग में विदित प्रताप |

सूर्य उर्मिला नाथ हैं, उर्मि उसकी ताप ||

*

उर्मि का तप बन गया, पावन रक्षा सूत्र |

धैर्य – धर्म श्रृंगार शुभ, लज्जा मंगल सूत्र ||

*

श्रेयस शब्दों से नही, कर सकता गुणगान |

राम लखन सिय उर्मिला, चारो परम महान ||

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 03-04-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 154 ☆ मुक्तक – ।। जीत के लिए सीने में अगन, मन में लगन चाहिए ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 154 ☆

☆ मुक्तक – ।। जीत के लिए सीने में अगन, मन में लगन चाहिए ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

=1=

हालात कितने भी खराब हों, पर रोया नहीं करते।

कभी जोश और होश को, यूँ ही खोया नहीं करते।।

ईश्वर भी सहयोग करते हैं, कर्मशील व्यक्ति को।

अवसर दरवाजा खटखटाए तब सोया नहीं करते।।

=2=

होना है सफल तो व्यक्ति में, बस लगन होनी चाहिए।

दिल दिमाग आत्मा भी, काम में मगन होनी चाहिए।।

बढ़ने की आग हो खूब, मन मस्तिष्क में भरी हुई।

चेहरे आँखों में बस जीत, की चमक होनी चाहिए।।

=3=

कामयाबी का सफर मुश्किल, बहुत धूप होती है।

होती नहीं छाँव राह में दुश्वारी की बहुत दूब होती है।।

वो होते सफल जिन्हें बिखरकर, निखारना आता।

जो हारते नहीं मन से, तो जीत भी बहुत खूब होती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #219 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – कामना… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – कामना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 219

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कामना…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

चाह नहीं मेरी कि मुझको मिले कहीं भी बड़ा इनाम

इच्छा है हो सादा जीवन पर आऊँ जन-जन के काम ॥

निर्भय मन से करूँ सदा कर्त्तव्य सभी रह निरभिमान

सेवाभाव बनाये रक्खे मन में नित मेरे भगवान ॥

*

रहूँ जगत् के तीन-पाँच से दूर मगर नित कर्म-निरत

भाव कर्म औ’ मन से जग में करता रहूँ सभी का हित ॥

मन में कभी विकार न उपजे, देश प्रेम हो सदा प्रधान

स‌द्विचार का रहूँ पुजारी, बुद्धि सदा यह दें भगवान ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #43 – नवगीत – बावरे मंजुल नयन भी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम नवगीत – बावरे मंजुल नयन भी

? रचना संसार # 43 – नवगीत – बावरे मंजुल नयन भी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

शब्द कुंठित हैं सभी अब,

नैन आँसू से भरे।

काँपती काया बहुत ये,

शांत स्वर मेरे डरे।।

 

अब विकल विटपी -विटप भी

बोझ जीवन ढो रहे।

कंटकों से है भरा पथ,

बीज कैसे बो रहे।।

नित्य पलकें भीग जातीं,

अब विपद भी क्या कहें।

मृदु कली कहती गगन से,

क्यों जगत में विष बहे।।

पीर कानन क्या बताएं,

वृक्ष सूखे हैं हरे।

 

स्वर्ण मृग को ढूँढता हैं,

अब मनुज बौरा गया।

ये धरा करती रुदन है,

कर ठगी भौंरा गया।।

मुख चमक फीकी हुई है,

अस्थि -पंजर हो रहे।

मूक भी  कोयल हुई है,

और पंछी सो रहे।।

सब मुखौटे में खड़े हैं,

आदमी चारा चरे।

 

बावरे मंजुल नयन भी,

देखिए घबरा मिले।

मन कबीरा क्या लिखेगा,

मोंगरा कैसे खिले ।।

घोर छाया है तिमिर का

शाम सुख की है ढली।

चाल चलते हैं उजाले,

लक्ष्य भी भूला गली।।

आस की है डोर टूटी,

बोल हम कहते खरे।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनवरत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनवरत ? ?

प्रतीक्षा दोनों ने की,

प्रतीक्षा की अवधि भी

दोनों के लिए समान रही,

फिर भी ज़रा बूझो तो सही,

प्रतीक्षा किसकी लम्बी रही?

?

© संजय भारद्वाज  

मध्यरात्रि, 29 मार्च 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 15 मार्च से आपदां अपहर्तारं साधना आरम्भ हो चुकी है 💥  

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #270 ☆ भावना के दोहे – नवरात्रि ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे – नवरात्रि)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 271 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – नवरात्रि  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चरणों में श्री मातु के, शुभ जीवन साकार।

भाव दया का रख रही, होकर सिंह सवार।।

*

अम्बे माँ गौरी सदा, करती जग कल्याण।

शक्ति स्वरूपा देविका, सौम्य रूप स्वीकार।।

*

कुष्मांडा शुभकारिणी, इसके रूप अनेक।

पूजा सब निशिदिन करें, बन जाते हैं नेक।।

*

क्रोधित इसकी अग्नि का, किसने पाया पार।

अगणित लाशें दी बिछा, माने यह संसार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #252 ☆ अब तो छोड़ो तुम नादानी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता अब तो छोड़ो तुम नादानी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 252 ☆

☆ अब तो छोड़ो तुम नादानी… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

अब तो छोड़ो तुम नादानी

सर से ऊपर निकला पानी

*

कब तक शांत रहोगे भाई

समय ले  रहा है  अँगड़ाई

परशुराम फिर बनना होगा

याद दिला दो तुम भी नानी

अब तो छोड़ो तुम नादानी

*

मातृभारती    है     पुकारती

आओ मिल सब करें आरती

माँ का अब अपमान सहो मत

बनना  होगा  अब  बलिदानी

अब  तो  छोड़ो  तुम  नादानी

*

अपनी संस्कृति को पहचानो

धर्म सनातन को  तुम  जानो

आँच न आए इस  पर  कोई

सार्थक  होगी  तभी  जवानी

अब  तो  छोड़ो  तुम  नादानी

*

छोड़ो   अब   सारी  मजबूरी

नहीं    चलेगी   ये    मगरूरी

आर-पार   की  लड़ो  लड़ाई

नहीं  बनो  तुम  अब  अज्ञानी

अब  तो  छोड़ो   तुम  नादानी

*

जाति-पाँति  अब  भूलो भाई

है   एकता    में   ही   भलाई

तब  ‘संतोष’  मिलेगा  तुमको 

जब   होंगे   बस    हिंदुस्तानी

अब   तो   छोड़ो  तुम नादानी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अबाध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अबाध ? ?

एक क्षण में मनुष्य,

वर्तमान से

अतीत हो जाता है,

फिर स्मृतियाँ,

अतीत को

वर्तमान बनाए रखने का

निरंतर यत्न करती हैं,

साकार में अतीत,

निराकार में वर्तमान,

समय की गति अबाध बहती है,

अक्षुण्ण कालचक्र की बारम्बारता,

मनुष्य की अबाध स्मृतिरेखा के आगे

हर बार बौनी सिद्ध होती है..!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 6:36 बजे, 1 अप्रैल 2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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