हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ मुक्तिका ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘मुक्तिका’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 46 ☆ 

☆ मुक्तिका ☆ 

 

अर्णव-अरुण का सम्मिलन

जिस पल हुआ वह खास है

 

श्री वास्तव में है वहीं

जहँ हर हृदय में हुलास है

 

श्रद्धा जगत जननी उमा

शंकारि शिव विश्वास है

 

सद्भाव सलिला है सुखद

मालिन्य बस संत्रास है

 

मिल गैर से गंभीर रह

अपनत्व में परिहास है

 

मिथिलेश तन नृप हो भले

मन जनक तो वनवास है

 

मीरा मनन राधा जतन

कान्हा सुकर्म प्रयास है

***

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२६-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 78 – मैं श्रमिक हूँ ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावपूर्ण रचना  “मैं श्रमिक हूँ । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 78 ☆ मैं श्रमिक हूँ ☆

मैं श्रमिक हूं इस धरा पर, कर्म ही पूजा है मेरी।

श्रम की‌ मै करता इबादत, श्रम से है पहचान मेरी।

 

श्रमेव जयते इस धरा पर, लिख‌ रहा मै नित कहानी

तोड़ता पत्थर का सीना, दौड़ता नहरों में पानी।

काट करके पत्थरों को‌,  राह बीहड़ में बनाता।

स्वश्रम की साधना कर, दशरथ मांझी मैं कहाता ।। मैं श्रमिक हूं।।1।।

 

श्रम के बल पे बाग में, पुष्प भी मैं ‌ही‌ खिलाता ।

श्रम के बल पे खेत में, फल अन्न भी मैं ‌उगाता।

सड़क भी मैं ‌ही‌ बनाता,‌बांध भी मैं ही बनाता ।

रत निरंतर कार्य में, मन की‌ सुख शांति मैं पाता।। मैं श्रमिक हूं।।2।।

 

पेट भरता दूसरों का, मैं सदा भूखा रहा।

छांव दे दी दूसरों को, धूप में जलता रहा।

करके सेवा ‌दूसरों की, फूल सा खिलता  रहा।

देखता संतुष्टि सबकी, पुलक मन होता रहा ।। मै श्रमिक हूं।।3।।

 

श्रम अथक मैंने किया, मोल मैं पाया नहीं ।

रात दिन मेहनत किया, किन्तु पछताया नहीं।

झोपड़ों में दिन बिताता, गरीबी में पलता रहा।

होता रहा शोषण निरंतर, दिल मेरा जलता रहा।

पर जमाने की नजर ना जाने, क्यूं मुझे लग गई।

लुट गई मेरी श्रम की पूंजी, हाथ मैं मलता रहा।। मैं श्रमिक हूं।।4।।

 

अब बेबसी दुश्वारियां, पहचान मेरी बन गई।

हाथ के खाली कटोरे, मेरी कहानी कह रहे।

बेबसी लाचारी है,  भूख है बीमारी है।

मेरी विवशता देख कर, हंसती दुनिया सारी है।

अशिक्षा अज्ञानता की, पांव में बेड़ी पड़ी है।

कोसता हूँ भाग्य को मैं, आज दुर्दिन घड़ी है ।। मैं श्रमिक हूं।।5।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.१२॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.१२॥ ☆

 

मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद वसन्तं

प्रायश चापं न वहति भयान मन्मथः षट्पदज्यम

सभ्रूभङ्गप्रहितनयनैः कामिलक्ष्येष्व अमोघैस

तस्यारम्भश चतुरवनिताविभ्रमैर एव सिद्धः॥२.१२॥

 

गये सूज होंगे विरह में मेरे नित्य

अविकल रुदन से नयन उस प्रिया के

होंगे अधर श्याम , जलते हृदय की

व्यथित श्वांस गति की उष्णता से

कर से हटाते हुये श्याम अलकें

प्रलंबित गिरीं घिरीं अपने वदन से

दिखेगी मेरी प्रियतमा , मेघ तुमको

वहाँ ज्यों मलिन इंदु तव आवरण से

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 33 ☆ आदमी आदमी को करे प्यार जो ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “आदमी आदमी को करे प्यार जो“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 33 ☆

☆ आदमी आदमी को करे प्यार जो 

आदमी आदमी को करे प्यार जो, तो धरा स्वर्ग हो मनुज भगवान हो

घुल रहा पर हवा में जहर इस तरह, भूल बैठा मनुज धर्म ईमान को

राह पर चल सके विश्व यह इसलिये, दृष्टि को दीप्ति दो प्रीति को प्राण दो

 

रोज दुनियां बदलती चली जा रही,  और बदलता चला जा रहा आदमी

आदमी तो बढ़े जा रहे सब तरफ, किन्तु होती चली आदमियत कीकमी

आदमी आदमी बन सके इसलिये, ज्ञान के दीप को नेह का दान दो

 

हर जगह भर रही गंध बारूद की, नाच हिंसा का चलता खुला हर गली

देती बढ़ती सुनाई बमो की धमक, सीधी दुनियां बिगड़ हो रही मनचली

द्वार विश्वास के खुल सकें इसलिये, मन को सद्भाव दो सच की पहचान दो

 

फैलती दिख रही नई चमक और दमक, फूटती सी दिखती सुनहरी किरण

बढ़ रहा साथ ही किंतु भटकाव भी, प्रदूषण घुटन से भरा सारा वातावरण

जिन्दगी जिन्दगी जी सके इसलिये स्वार्थ को त्याग दो नीति को मान दो

 

प्यास इतनी बढ़ी है अचानक कि सब चाहते सारी गंगा पे अधिकार हो

भूख ऐसी कि मन चाहता है यही हिमालय से बड़ा खुद का भण्डार हो

जी सकें साथ हिल मिल सभी इसलिये मन को संतोष दो त्रस्त हो त्राण दो

 

देश है ये महावीर का बुद्ध का, त्याग तप का जहां पै रहा मान है

बाह्य भौतिक सुखो से अधिक आंतरिक शांति आनंद का नित रहा ध्यान है

रह सकें चैन से सब सदा इसलिये त्याग अभिमान दो त्याग अज्ञान दो

 

आदमी के ही हाथों में दुनियां है ये आदमी के ही हाथो में है उसका कल

जैसा चाहे बने औ बनाये इसे स्वर्ग सा सुख सदन या नरक सा विकल

आने वालो और कल की खुशी के लिये युग को मुस्कान का मधुर वरदान दो

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संग्रह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – संग्रह ?

संग्रह दोनों ने किया,

उसका संग्रह,

भीड़ जुटाकर भी

उसे अकेला करता गया,

मेरे संग्रह ने

एकाकीपन

पास फटकने न दिया,

अंतर तो रहा यारो!

उसने धनसंग्रह किया

मैंने जनसंग्रह किया!

 

©  संजय भारद्वाज

रविवार 16 अप्रैल 2017, प्रातः 8:16 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जीवन की रीत ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की  एक भावप्रवण रचना जीवन की रीत । 

 ☆ कविता ☆ जीवन की रीत ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव ☆ 

जो किया तुमने ठीक किया

मुस्कुराता जीवन तुम्हारा

तुमसे गिला नहीं है हमारा

दुख नहीं मुझे तुमसे मिले हादसों से

क्योंकि जीवन की रीत

अभी-अभी ही देखी है

मुस्कुराता चेहरा ठीक तुम्हारी तरह

उसकी अभी एक तस्वीर और देखी है

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.११॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.११॥ ☆

 

अक्षय्यान्तर्भवननिधयः प्रत्यहं रक्तकण्ठैर

उद्गायद्भिर धनपतियशः किंनरैर यत्र सार्धम

वैभ्राजाख्यं विबुधवनितावारमुख्यसहाया

बद्धालापा बहिरुपवनं कामिनो निर्विशन्ति॥२.११॥

सहचर बिना एक उसे चक्रवाकी

सदृश अल्पभाषी विरह वासिनी को

समझना मेरा ही हृदय दूसरा है

पड़ी दूर मुझसे प्रिया कामिनी को

प्रलंबित विरह के दिनो को बिताती

विकल वेदना से भरी यामिनी जो

मुझे भास होता है कि वह म्लान होगी

शिशिर से मथित ज्यो पद्यनी हो

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समानता ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – समानता ?

यह अनपढ़,

वह कथित लिखी पढ़ी,

यह निरक्षर,

वह अक्षरों की समझवाली,

यह नीचे जमीन पर,

वह बैठी कुर्सी पर,

यह एक स्त्री,

वह एक स्त्री,

इसकी आँखों से

शराबी पति से मिली पिटाई

नदिया-सी प्रवाहित होती,

उसकी आँखों में

‘एटिकेटेड’ पति की

अपमानस्पद झिड़की,

की बूंद बूंद एकत्रित होती,

दोनों ने एक दूसरे को देखा,

संवेदना को

एक ही धरातल पर अनुभव किया,

बीज-सा पनपा मौन का अनुवाद

और अब, उनके बीच वटवृक्ष-सा

फैला पड़ा था मुख्य संवाद!

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 85 ☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 85 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

पिया मिलन की राह में,

रोज करें  शृंगार।

अब तक वो आया नहीं,

ना चिट्ठी ना तार ।।

 

उसको अब लगने लगा,

अब जीना  दुश्वार।

तुझ बिन अब जीवन नहीं,

करना है अभिसार।।

 

छबि बसंत की दिख रही,

आया है त्यौहार।

फूलों से अब सज रहा,

हर घर बंदनवार।।

 

प्रभु अब तो तुम जान लो,

नहीं सहेंगे पीर।

धीरज अब मुझमें नहीं,

बदलो अब तकदीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 75 ☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष रचना  “सारे रिश्तों की धुरी। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 75 ☆

☆ अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – सारे रिश्तों की धुरी ☆

नारी से दुनिया बनी, नारी जग का मूल

हर घर की वो लक्ष्मी, दें आदर अनुकूल

 

चले सभी को साथ ले, सहज सरल स्वभाव

रखती कभी न बे-बजह, कोई भी दुर्भाव

 

सीता, दुर्गा, कालका, नारी रूप अनूप

राधा, मीरा, द्रोपदी, अलग-अलग बहु रूप

 

नारी बिन संभव नहीं, उन्नत सकल समाज

समझें मत अबला कभी, करती सारे काज

 

सारे रिश्तों की धुरी, उसका हृदय विशाल

माँ-बेटी भाभी बहन, बन पत्नी ससुराल

 

प्रेम, त्याग, ममता, दया, करुणा करे अपार

धीरज,-धरम न छोड़ती, उसकी जय-जय कार

 

रिश्तों की ताकत वही, रखती दिल में प्यार

जीवन में “संतोष” रख, आँचल चाँद-सितार

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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