हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 97 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 97 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

शिव का पूजन कर रही,

  मने तीज त्योहार।

लंबी उम्र का मांगती,

   पति रूपी उपहार।।

 

गौरा अब ये कह रही,

 क्या है मेरे भाग।

अब तो मुझको दीजिए,

मेरा अमर सुहाग।।

 

गोरी मुझसे कह रही,

करु सोलह श्रृंगार।

प्यार समर्पण शक्ति से,

मने तीज त्योहार।।

 

गौरी शिव की वंदना,

   करती है हर बार।

ईप्सा अटल सुहाग की,

  करे सुहागन नार।।

 

  झोली में सुहागन की

    देना प्रिय का प्यार।

उनके है आशीष से ,

 मिले खुशियां अपार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 87 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 87 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कवच, राहत, उड़ान, व्यवसाय, ललित)

अपने बच्चों के लिए, कवच बनें माँ बाप

आता संकट जब कभी, साथ खड़े हों आप

 

निशि-दिन देखो बढ़ रही, मॅहगाई की मार

राहत जाने कब मिले, खर्चे बढ़े अपार

 

भारत भी भरने लगा, नई विकास उड़ान

ध्वज लहराया चाँद पर, खूब मिला सम्मान

 

कोरोना के काल में, बन्द हुए व्यवसाय 

खत्म हुए धंधे कई, होती कैसे आय

 

दिया प्रकृति ने है हमें, ललित कला का कोष

फिर भी हैं देते सदा, हम उसको ही दोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (31-35)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (31-35) ॥ ☆

 

आग्नेय अस्त्रों की पाई शिक्षा रघु ने रूकचर्म – वसन पहिनकर

पिता से, जो सिर्फ नहीं थे राजा वरन थे विख्यात प्रखर धनुर्धर ॥ 31॥

 

समय के सँग रघु हुये यवा नव गोवंत्स ज्यों एक वृषभ मनोरम

या जैसे गज शिशु तरूण परम पुष्ट, गंभीर सुन्दर किसी से न कम ॥ 32॥

 

केशांत के बाद तरूण रघु का किया गया व्यांह कुमारियों से

प्रतापी पति पा, थी वे भी हर्षित, ज्यों राहणियाँ थी खुश – चंद्रमा से ॥ 33॥

 

विशाल ग्रीवी कपाट वक्षी प्रलंब भुज रघु हुये सुशोभित

पिता से ज्यादा विनय में केवल दिलीप फिर भी थे चिर असीमित ॥ 34॥

 

दिलीप ने लख विनीत रघु को स्वभाव, शिक्षा से योग्य पाकर

युवराज पद से किया अलकृंत स्वतः का बोझा तनिक घटाकर ॥ 35॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महासागर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – महासागर ?

लहरें उठतीं,

लहरें उफनतीं,

मुझ तक पहुँचती,

मैं मौन सुनता

उनकी अंतर्व्यथाएँ,

वे तिरोहित हो जातीं,

उनके आँसू का खारापन

मुझमें संचित होने लगा,

शनै:-शनै: एक महासागर

मुझमें जन्म लेने लगा।

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 75 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्दश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  चतुर्दश अध्याय

पुस्तक इस फ्लिपकार्ट लिंक पर उपलब्ध है =>> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 75 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – चतुर्दश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए चौदहवाँ अध्याय। आनन्द उठाइए। ??

– डॉ राकेश चक्र 

प्रकृति के तीन गुण

श्रीभगवान ने इस अध्याय में मानव जीवन के लिए सर्वश्रेष्ठ ज्ञान एवं प्रकृति तीन गुणों के बारे में समझाया है—

 

सर्वश्रेष्ठ सब ज्ञान में , कहूँ प्रिय यह ज्ञान।

सिद्धि प्राप्त कर मुनीगण, पाए मोक्ष महान।। 1

 

दिव्य प्रकृति पाएँ मनुज, सुस्थिर होकर ज्ञान।

सृष्टि-प्रलय से छूटता, हो शाश्वत कल्यान।। 2

 

सकल भौतिकी वस्तुएँ, मूल ब्रह्म का स्रोत।

ब्रह्म करूँ गर्भस्थ में, व्यत्पत्ति का पोत।। 3

 

बीज प्रदाता पिता हूँ, जीव योनियाँ सार।

सम्भव भौतिक प्रकृति से, नवजीवन उपहार।। 4

 

तीन गुणों की प्रकृति है,सतो-रजो-तम सार।

जीव बँधा माया तले, ढोता जीवन भार।। 5

 

सतगुण दिव्य प्रकाश है, करे पाप से मुक्त।

ज्ञान, सुखों से बद्ध हो, रहे शांत संतृप्त।। 6

 

आकांक्षा, तृष्णा भरें, रजोगुणी उत्पत्ति।

बँधता माया मोह से, मन करता आसक्ति।। 7

 

तमोगुणी अज्ञान में, करता आलस मोह।

रहे प्रमादी नींद में, कर जीवन से द्रोह।। 8

 

सतोगुणी सुख से बँधें, रजगुण कर्म सकाम।

तमगुण ढकता ज्ञान को, करें विवादी काम।। 9

 

कभी सतोगुण जीतता, रज-तम हुआ परास्त।

विजित रजोगुण हो कभी, सत-तम होत परास्त।। 10

कभी तमोगुण जीतता, सत-रज हो परास्त।

चले निरन्तर स्पर्धा, श्रेष्ठ होयँ अपदास्थ।। 10

 

सतगुण की अभिव्यक्ति का, तब ही अनुभव होय।

तन के द्वारों में सभी, जले प्रकाशी लोय।। 11

 

रजगुण की जब वृद्धि हो, अति की हो आसक्ति।

बढ़ें अपेक्षा , लालसा, सकाम कर्म अनुरक्ति।। 12

 

तमगुण में जब वृद्धि हो, बढ़ जाए तम- मोह।

जड़ता, प्रमता घेरती, विरथा जीवन खोह।। 13

 

सतोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।

चले लोक सर्वोच्च में, हों महर्षि भी पास।। 14

 

रजोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।

गृहस्थ घरों में जन्म लें, जाते परिजन पास।। 15

तमोगुणी जब मन रहे, आए अंतिम श्वास।

पशुयोनी में जन्म लें, सहे आयु भर त्रास।। 15

 

पुण्य कर्म का फल सदा, होता सात्विक मित्र।

रजोगुणी के कर्म तो, देते दुख के चित्र।। 16

तमोगुणी के कर्म तो, हों मूर्खतापूर्ण।

प्रतिफल मिलता शीघ्र ही, गर्व होयँ सब चूर्ण।। 16

 

असल ज्ञान उत्पन्न हो, सतोगुणों से मित्र।

देय रजोगुण लोभ को, तामस गुणी  चरित्र।। 17

 

सतोगुणी हर दशा में, जाते उच्चों लोक।

रजोगुणी भूलोक में, तमोगुणी यमलोक।। 18

 

हैं प्रकृति के तीन गुण, जानें जगे विवेक।

कर्ता कोई है नहीं, ईश दिव्य आलोक।। 19

 

तीन गुणों को लाँघता, वही बने नर श्रेष्ठ।

जन्म, मृत्यु छूटे जरा, जीवन बनता श्रेष्ठ।। 20

 

अर्जुन ने कहा——

 

तीन गुणों से जो परे, क्या वह लक्षण होय।

सुह्रद शील-व्यवहार हो, लाँघे तीनों जोय।। 21

 

श्रीभगवान ने कहा—–

 

तीन गुणों से जो परे, करता सबसे प्यार।

मोह और आसक्ति का, नहीं हो सके वार।। 22

 

सुख-दुख में वह सम रहे, करे न इच्छा कोय।

निश्चल, अविचल भाव रख, कभी न रोना रोय।। 23

 

भेदभाव रखता नहीं, रहता दिव्य विरक्त।

स्थित रहता स्वयं मैं, सदा रहे वह तृप्त।। 24

 

मान और अपमान में, रहे सदा वह एक।

सदा रहे प्रभु भक्ति में, करे कार्य सब नेक।। 25

 

सकल हाल में धैर्य रख, करता पूरी भक्ति।

तीनों गुण वह लाँघता, बने ब्रह्म अनुरक्त।। 26

 

आश्रय कर लो ब्रह्म पर, निराकार जग सार।

अविनाशी सच्चा प्रभो, देता चिर सुख- प्यार।। 27

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” प्रकृति के तीन गुण ब्रह्मयोग ” चौदहवाँ अध्याय समाप्त।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (26-30) ॥ ☆

 

ले पुत्र को गोद पा स्पर्श सुख नव, लगी कि अमृत सिंची हो छाया

आनंद में डूब नयन को कर बंद, दिलीप फूला नही समाया ॥ 26॥

 

सुपुत्र रघु से स्ववंश की कीर्ति को नृप ने त्योंही सुरक्ष्य मानी

कि जैसे ब्रह्या ने विष्णु के रूपों के हाथ पृथ्वी है रक्ष्य जानी ॥ 27॥

 

चूड़ाकरण बाद समान वय के अमात्य पुत्रों के साथ पढ़ते

क्रमेश सरिता सरणि से आगे दिखे महोदधि दिशा पकड़ते ॥ 28॥

 

विभिन्न शास्त्रों कों सीख गुरूओं से उसने सब में कुशलता पाई

सुपात्र पा ही सफल हुआ धरती है कभी भी कोई पढ़ाई ॥ 29॥

 

प्रबुद्ध रघु ने स्व बुद्धि – गुण से ग्रहण की जल्दी चतस्र विद्या

उसी तरह जैसे सूर्य अश्वों के बल लांघते दिन में ही चतुर्दिशा ॥ 30॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 49 ☆ आसूं छलकने का इंतजार ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘आसूं छलकने का इंतजार। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 49 ☆

☆ आसूं छलकने का इंतजार

जीवन भर दूसरों में गलतियां ढूंढता रहा,

गलतियों में रिश्तों को धुंधला होते देखता रहा ||

जिंदगी रोजाना घटती गयी,

मगर मन हठीला था सब चुपचाप देखता रहा ||

जो गलतियां दूसरों में देखीं,

उनसे ज्यादा खुद में पायी मगर दिल नजरअंदाज करता रहा||

कुछ वो गलत तो कुछ मैं गलत था,

फिर भी अपनी गलतियों को सबसे छुपाता रहा ||

जानता हूँ आपस में प्यार बहुत है,

मगर मजबूरी की जंजीर टूटने का इंतजार करता रहा ||

अफसोस कोई बर्फ नहीं पिघली,

इधर मैं तो उधर वो आसूं छलकने का इंतजार करते रहे ||

पश्चाताप की आग में सब जलते रहे,

मगर आंसू बहाने को मौत तक इंतजार करते रहे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (21-25) ॥ ☆

 

अध्ययन में शास्त्रों औं रण में अरि को पछाड़ देने को ध्यान में रख

विचार शब्दार्थ अबाध गति का ‘रघु ‘ नाम उसका रखा या सार्थक ॥ 21॥

 

सभी गुणों युक्त पिता से पोषित हुआ सुविकसित सुपुष्ट नित वह

उसी तरह जैसे रविकिरण का विधसता जाता है चंद्र रह रह ॥ 22॥

 

ज्यों पार्वती – शिव ने कार्तिकेय श्शची – सुरेश्वर ने पा जयन्त

त्योंही सुदक्षिणा – दिलीप ‘रघु’ पा, प्रसन्नता पा गये अनन्त ॥ 23॥

 

पा पुत्र रघु सा उस दम्पती का चकोर सा प्रेम घटा न कुछ भी

विरूद्ध घटने के, पुत्र को पा, अतीत का प्रेम दिखा बढ़ा ही ॥ 24॥

 

सुन धाय माँ से मधुर – वचन रघु जब तोतलाता था कुछ नकल में

पकड़ के ऊँगली उठाता डग था, सभी को हर्षाता था महल में ॥ 25॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 87 ☆ जब मैं हताश होती हूँ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “जब मैं हताश होती हूँ। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 87 ☆

☆ जब मैं हताश होती हूँ ☆

आज जब सैर करने को अपने बाग़ में निकली

तो दिखाई दिया एक मधुमक्खी का छत्ता

जो कि पड़ा था अकेला, टूटा, हताश, बेबस और उदास…

कहाँ चली गयी थीं सारी मधुमक्खियाँ?

 

कहाँ जा रहे हैं यह सारे इंसान?

 

दिल्ली से एक दोस्त के मरने की खबर आयी है…

उधर छत्तीसगढ़ से एक और दोस्त जा चुका है…

दो प्रयागराज में, एक तेलंगाना में…

क्यों अचानक चले जा रहे हैं सब?

 

क्या होगा उस छत्तीस साल के युवक का

जिसकी पत्नी नौकरी भी नहीं करती थी

और जिसके बच्चे अभी बहुत छोटे हैं?

क्या होगा उस पैंतीस साल की युवती का

जिसके तीन छोटे बच्चे रो-रो कर बिलख रहे हैं?

 

यूँ तो मैं टेलीविज़न बरसों से नहीं देखती…

पर यह सारे दृश्य मन के पटल पर

चले ही जा रहे हैं…

यूँ लग रहा है जैसे शज़र पर से सारी पत्तियाँ

बिना पीले हुए ही गिर जायेंगी!

कल कहा था मैंने कि मैं शमां बनकर राह दिखाऊँगी…

क्या राह दिखाऊँ?

कैसे आस बाँधूँ किसी की?

 

मैं भी गिर जाती हूँ औंधी होकर अपने बिस्तर पर

अकेली, टूटी, हताश, बेबस और उदास…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 3 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #3 (16-20) ॥ ☆

 

सुना जो – रानी ने पुत्र जाया, दिलीप का हर्ष सँभल न पाया

तो छत्र – चवरों को छोड़ उसने दिया सभी कुछ जो हाथ आया ॥ 16॥

ज्यों चंद्र को देख महोदधि की तरंगो का अति कठिन है लेखा

उसी तरह एक एक हर्ष से भर दिलीप ने पुत्र के मुख को देखा ॥ 17॥

आधे तपोवन से तब राजगुरू ने शिशु – जन्म – संस्कार सभी कराये

जिससे खनिज रत्न सम पा नवलरूप बालक ने नव प्रभा संस्कार पाये ॥ 18॥

सुखदायी शहनाई प्रमोद नृत्यों की ध्वनि न गूंजी महल में केवल

वरन वही देवता लोक में भी जहाँ पै बसतें हैं देवता – दल ॥ 19॥

था नियत शासन न कैद था कोई जो इस सुअवसर में मुक्ति पाता

स्वयं ही राजा पिता के ऋण से हा मुक्त मंगल रहा मनाता ॥ 20॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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