श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 31 ☆ फितरत ☆
यह मेरी फितरत है,
जिससे धोखा खाता हूं भरोसा फिर भी उसी पर करता हूँ ||
मेरा नसीब कुछ ऐसा है,
रोज जहां ठोकर खाता हूँ खुद को फिर वहीं पाता हूँ ||
दिल की अजीब दास्ताँ है,
जो दिल तोड़ता है फिर भी उसे ही पाना चाहता हूँ ||
अपनों से बेतहाशा मोहब्बत है,
चाहे कोई नफरत करे फिर भी उन पर भरोसा रखता हूँ ||
अपनों का भरोसा नहीं तोड़ता,
चाहे अपने भरोसा तोड़ दे फिर भी अपनों पर विश्वास करता हूँ||
अपनों पर से कभी विश्वास ना उठे,
इसलिए सब कुछ जानते हुए भी अपनों पर यकीन रखता हूँ ||
ड़र है अजनबियों की भीड़ में कहीं,
अपनों को खो ना दूँ इसीलिए अपनों पर एतबार करता हूँ ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर