हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #2 – सुख-दुख के आँसू……☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही लघुकथा  “सुख-दुख  के आँसू”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #2  ☆

 

☆ सुख-दुख के आँसू…… ☆

 

अपने सर्वसुविधायुक्त कमरे में सुख के समस्त संसाधनों पर नजर डालते हुए वृध्द रामदीन को पूर्व के अपने अभावग्रस्त दिनों की स्मृतियों ने घेर लिया। अपने माता-पिता के संघर्षपूर्ण जीवन के कष्टों के स्मरण के साथ ही बरबस आंखों ने अश्रुजल बहाना शुरू कर दिया।

उसी समय, “चलिए पिताजी- खाना खा लीजिए” कहते हुए बहू ने कमरे में प्रवेश किया।

अरे–आप तो रो रहे हैं! क्या हुआ पिताजी, तबीयत तो ठीक है न?

हाँ बेटी, कुछ नहीं हुआ तबीयत को। ये तो आँखों मे दवाई डालने से आंसू निकल रहे हैं, रो थोड़े ही रहा हूँ मैं ।

तो ठीक है पिताजी, चलिए मैं थाली लगा रही हूँ ।

दूसरे दिन सुबह चाय पीते हुए बेटे ने पूछा–

कल आप रो क्यों रहे थे, क्या हुआ पिताजी, बताइये हमें?

कुछ नहीं बेटे, बहु से कहा तो था मैंने कि, दवाई के कारण आंखों से आंसू निकल रहे हैं।

पर आंख की दवाई तो आप के कमरे में थी ही नहीं, वह तो परसों से मेरे पास है,

बताइए न पिताजी क्या परेशानी है आपको, कोई गलती या चूक तो नहीं हो रही है हमसे?

ऐसी कोई बात नहीं है बेटे, सच बात यह है कि, तुम सब बच्चों के द्वारा आत्मीय भाव से की जा रही मेरी सेवा-सुश्रुषा व देखभाल से द्रवित मन से ईश्वर से तुम्हारी सुख समृध्दि की मंगल कामना करते हुए अनायास ही खूशी के आंसू बहने लगे थे, बस यही बात है।

किन्तु, एक और सच बात यह भी थी कि इस खुशी के साथ जुड़ी हुई  थी पुरानी स्मृतियाँ। रामदीन अपने माता-पिता के लिए उस समय की परिस्थितियों के चलते  ये सब नहीं कर पाया था, जो आज उसके बच्चे पूरी निष्ठा से उसके लिए कर रहे हैं।

सुख-दुख के यही आँसू यदा-कदा प्रकट हो रामदीन के एकाकी मन को ठंडक प्रदान करते रहते हैं।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – ☆ मौत का खेल ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

 

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं। आज प्रस्तुत है  बाल मनोविज्ञान एवं माता पिता की मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक कथा  “मौत का खेल”।  आज सोशल मीडिया पर ऐसे विडियो गेम्स आ गए हैं जो बच्चों की मनोवृत्ति को किस तरह अपने कब्जे में कर लेते हैं इसकी जानकारी माता पिता को होना अत्यंत आवश्यक है। यह एक दुखांत किन्तु शिक्षाप्रद कहानी है जिसे प्रत्येक अभिभावक को अवश्य पढ़नी चाहिए। ऐसे विषयों पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी  बधाई के पात्र हैं।) 

☆ मौत का खेल ☆

“मम्मी, मैं खेलने जा रहा हूँ, ओके बाय!” अंकुर ने दूध का गिलास सिंक में फेंकते हुए कहा और दरवाज़ा खोल कर बिना अपनी माँ के उत्तर की प्रतीक्षा किये घर से बाहर भाग गया।

“अरे! अपने पापा के घर आने से पहले ज़रूर आ जाना, वरना वे बहुत गुस्सा होंगे!” अंदर से सुमन ने बाहर भागते अपने पुत्र को लगभग चिल्लाते हुए हिदायत दी। परन्तु सुमन की आवाज़ जैसे अंकुर ने सुनी ही नहीं। वह तो अपने मित्रों की ओर भागा जा रहा था। वह सोच रहा था कि आज भी उसके साथी उसका मज़ाक बनाएंगे कि वह तो लड़कियों की तरह घर में ही घुसा रहता है। वह हाँफता हुआ कॉलोनी के पार्क में पहुँच गया। उसे यह देख कर अपार खुशी हुई कि आज वह अपने साथियों में सबसे पहले पहुँचा था। वह उनकी प्रतीक्षा करने लगा । तभी उसे सामने से आता हुआ गौरव दिखाई दिया। आज अंकुर की बारी थी।

उसने ऊँची आवाज़ में गौरव को लक्ष्य करके कहा,

“अबे यार, मैं कब से तुम लोगों का वेट कर रहा हूँ और वह गोलू कहाँ है?”

“अच्छा बेटा, आज जल्दी आ गया तो इतना इतरा रहा है! अभी तो चार भी नहीं बजे। यह देख गोलू भी आ गया।” गौरव ने नज़दीक पहुँचते हुए उत्तर दिया।

“अबे, आज तो ढीलू भी टाइम पर आ गया”, दूर से ही गोलू ने हँसते हुए चुटकी ली।

दरअसल अंकुर को उसके साथी इसी नाम से पुकारते थे।  कारण यह था कि वह समय पर कभी नहीं पहुँचता था।  जब उसके पापा घर पर होते थे, तब तो उसका घर से निकलना ही नहीं हो पाता था।  यदि वे उसे बुलाने जाते तो अंकुर के पापा शर्मा जी, उन्हें ही डाँट कर भगा दिया करते थे। कुछ ही देर में वे सारे इकट्ठे हो गये  और क्रिकेट खेलने लगे।  गोलू बल्लेबाजी कर रहा था और सुमित गेंदबाजी।  अंकुर बाउन्ड्री बचाने के लिए सीमा रेखा पर तैनात था।

गोलू ने सुमित की एक ढीली गेंद को उछाल दिया।  अंकुर ने हवा में डाईव लगाते हुए गेंद को लपकना चाहा, किंतु वह गेंद तक नहीं पहुँच सका और पार्क की रेलिंग पर जा गिरा।  रेलिंग की नुकीली सलाखों ने उसके शरीर को लहुलुहान कर दिया।  सभी लोग इकट्ठे हो गये।  बच्चे अंकुर की छाती और गर्दन से रक्त बहता देख कर घबरा गये।  तभी कुछ सज्जन पुरुष जो पार्क में मौजूद थे, वहाँ पहुँच गये और तत्काल अंकुर को उठा कर अस्पताल ले गये और अंकुर के घर खबर भिजवा दी। शर्मा जी भी अपने दफ्तर से तुरंत अस्पताल पहुँच गये और घर से सुमन भी।

अंकुर की मरहम-पट्टी करके दवाइयाँ लिख दी गयीं और उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी।  उसे पूरी तरह ठीक होने में एक सप्ताह लग गया। लेकिन शर्मा जी ने पुत्र तथा पत्नी सुमन को सख्त हिदायत दी कि अब से अंकुर का बाहर जाना बिल्कुल बंद है। हालाँकि सुमन ने पति को बहुत समझाया कि खेलकूद में बच्चों को चोट तो लगती ही रहती है, पर शर्मा जी पर सुमन के समझाने का कोई असर न हुआ, उलटे सुमन को ही चार बातें सुननी पड़ीं।

अगले दिन शर्मा जी पुत्र के लिए लैपटॉप तथा महंगा मोबाइल ले आए।

उन्होंने उसे ये उपकरण देते हुए कहा,  “ले, मैंने तेरे लिए घर में ही खेलने का प्रबन्ध कर दिया है, अब से बाहर जा कर उन आवारा लड़कों के साथ खेलने की ज़रूरत नहीं है, समझे!”

अंकुर पहले पहल उपकरणों को देखकर चहक उठा था, लेकिन पापा की शर्त सुनकर उसका दिल बुझ गया। खुले गगन में उन्मुक्त उड़ान भरने वाले पंछी को सोने के पिंजरे में कैद कर दिया गया था। आखिरकार अंकुर को हालात से समझौता करना पड़ा। उसे भी अब मोबाइल तथा लैपटॉप पर गेम खेलने में आनंद आने लगा। कुछ दिन तक उसे बहुत छटपटाहट महसूस हुई, किंतु कुछ दिन बाद उसकी दुनिया ही इंटरनेट हो गयी।

अब वह विद्यालय से आते ही गेम खेलने बैठ जाता और फिर उठने का नाम न लेता। उसे इतना भी होश न रहता कि गृहकार्य भी करना है। विद्यालय से अब उसकी शिकायतें आने लगीं थीं। अभी तक प्रत्येक विषय में वह अव्वल आया करता था, लेकिन अब उससे सभी अध्यापक परेशान रहने लगे थे। लगभग प्रतिदिन ही विद्यालय के किसी-न-किसी अध्यापक का सुमन के पास फोन आया करता। उसके पश्चात् सुमन विद्यालय जाती और अध्यापकों तथा प्रधानाचार्य की डाँट खाकर लौट आती। वह करती भी क्या, अंकुर को वह समझा-समझा कर थक चुकी थी, परन्तु उस पर अब कहने का कोई असर होता ही नहीं था। वह सुमन की बात एक कान से सुनता और दूसरी से निकाल देता। उसके पास उसकी बात सुनने का समय ही कहाँ था।

वह तो हर समय मोबाइल अथवा लैपटॉप पर लगा रहता। कानों में इयरफोन ठुसा रहता और आँखों के सामने स्क्रीन। उसके इंटरनेट गेम की दीवानगी का आलम ये हो गया कि वह खाना-पीना सब कुछ गेम खेलते हुए ही करता। सुमन शर्मा जी से उसकी शिकायत करती तो वह यह कह कर टाल जाते कि बच्चे ऐसा करते ही रहते हैं। कुछ दिनों बाद हालत यह हो गयी कि उसे पेशाब आ रहा होता, पर वह न उठता और उसके कपड़े गीले हो जाते। सुमन बहुत चिंतित थी अपने पुत्र की इस दशा को देख कर, पर वह बेचारी क्या करती, शर्मा जी उसकी एक न सुनते थे। उसने चोरी-छुपे एक-दो बार मनोचिकित्सकों से भी सम्पर्क किया, जिन्होंने अंकुर की हालत बहुत चिंताजनक बतायी।

जब सुमन ने पति को इस विषय में शीघ्र कुछ करने के लिए कहा तो वे उस पर बहुत बिगड़े। कहने लगे, “सुमन, मुझे लगता है कि तुम मुझे समाज में उठने-बैठने लायक भी नहीं छोड़ोगी। क्या तुम जानती नहीं कि मेरी समाज में क्या पोज़ीशन है? यदि अंकुर को मनोचिकित्सक के पास दिखाने ले गये तो लोग क्या कहेंगे? वे समझेंगे कि शर्मा जी का बेटा पागल है। क्या तुम चाहती हो कि हमारे बेटे को लोग पागल कहें? तुम ने तो तिल का ताड़ बना डाला। वह मेरा बेटा है, एकदम स्वस्थ और तन्दुरुस्त समझी! अब से इस तरह की ऊट-पटांग बातें मेरे सामने कभी मत करना, वरना मुझ से बुरा कोई नहीं होगा।”

एक दिन की बात है। अंकुर विद्यालय से घर आ गया था। उसने माँ द्वारा दिया भोजन गेम खेलते हुए ही किया। उसके पश्चात् सुमन सब्जियाँ लेने के लिए बाजार चली गयी। लेकिन जब लौटी तो उसकी आँखें फटी रह गयीं। वह दहाड़ें मार कर रो पड़ी। उसकी चीखों ने घर ही नहीं पूरे मोहल्ले को हिला कर रख दिया।

पल भर में ही आसपास के महिला-पुरुषों से घर भर गया। अंकुर ने स्वयं को फाँसी लगा ली थी और मोबाइल पर एक गेम की विन्डो खुली हुई थी, जिस पर लिखा था,

“कॉंग्रेचुलेशन अंकुर! आज तुम्हारी बारी है। जाओ और खुद को फाँसी लगा कर खत्म कर दो!”

अंकुर ने उत्तर में लिखा था,

 “ओके गाइज्, आई ऐम गोइंग टू डाई। गुडबाय!”

 

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #3 सेव पापड़ी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  पौराणिक कथा पात्रों पर आधारित  शिक्षाप्रद लघुकथा  “सेव पापड़ी ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीया श्रीमती सिद्धेश्वरी जी ने  राजन वेलफेयर एवं डेवलपमेंट संस्थान, जोधपुर एवं लघुकथा मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान  प्राप्त किया है। ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारी सम्माननीय  लेखिका श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ  ‘शीलु’ जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 3 ☆

 

☆ सेव पापड़ी ☆

 

गरीब परिवार की सुंदर सी बिटिया नाम था ‘सेवती’। दुबली पतली सी मगर नाक नक्श बहुत ही सुंदर। पिताजी गंभीर बीमारी से दुनिया से जा चुके थे। मां पडोस में बरतन चौका का काम कर अपना और अपनी बच्ची गुजारा करती थी। बिटिया की सुंदरता और चंचलता सभी मुहल्ले वालो को बहुत भाती थी। सब का कुछ न कुछ काम करती रहती। बदले में उसको खाना और पहनने तथा पढने का सामान मिल जाया करता था।

पास में ही लाला हलवाई की दुकान थी। हलवाई दादा उसे बहुत प्यार करते थे। उसकी कद काठी के कारण सेवती की जगह वे उसे सेव पापड़ी कह कर बुलाते थे। अब तो सब के लिये सेव पापड़ी हो गई थी। अपना नाम जैसे वह भूल ही गई थी। धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। पढ़ाई में भी बहुत तेज थी और मन लगा कर पढ़ाई करती थीं। मां अच्छे घरों में काम करती थी सभी सलाह देते कि बिटिया को पढ़ाना। हमेशा गरीबी का अहसास कर कहती मैं इसे ज्यादा नहीं पढा सकुगीं। पर हलवाई दादा हर तरफ से मदद कर रहे थे। कभी कहते नहीं पर सभी आवश्यकताओं को पूरा करते जाते थे।

सेव पापड़ी भी उन्हें अपने पिता तुल्य मानती थी। उनके घर का आना जाना लगा रहता था। धीरे-धीरे वह बारहवीं कक्षा पास कर ली। अब तो मां को और ज्यादा चिंता होने लगी थी। पर हलवाई दादा कहते इतनी जल्दी भी क्या है। मां बेचारी बडों का कहना मान चुप हो जाती थी।। कालेज में दाखिला हो गया और आगे की पढ़ाई कर सेवती स्कूल अध्यापिका बन गई। मां अब तो और भी परेशान होने लगी ब्याह के लिए।

हलवाई दादा ने कहा अब तुम विवाह की तैयारी करो लड़का हमने देख लिया है। मुहल्ले में सभी तरफ खुशी खुशी सेव पापड़ी की शादी की बातें फैल गई। बिटिया की मां दादा को कुछ न बोल सकी। काडॅ छप गये* सेव पापड़ी संग रसगुल्ला *। ये कैसा काडॅ छपवाया दादा ने। बात करने पर कहते मै तुम्हारा कभी गलत नहीं करूंगा। तुम्हें बहुत अच्छा जीवन साथी मिलेगा। घर सज चुका था सारी तैयारियाँ हो चुकी। मुहल्ले वाले सभी अपनी सेव पापड़ी बिटिया के लिए उत्साहित थे कि दुल्हा कहा का और कौन हैं। सेव पापड़ी भी बहुत परेशान थीं। पर बडों की आज्ञा और कुछ अपने भाग्य पर छोड़ शादी के लिए तैयार होने लगी। बारात ले दुल्हा बाजे और बारातियों के साथ चला आ रहा था।

सेहरा बंधा था और कुछ जान बुझ कर दूल्हे ने अपना चेहरा छुपा रखा था। द्वार चार पूजा पाठ और फिर वरमाला। सेव पापड़ी की धडकन बढते जा रही थीं। पर ज्यो ही दुल्हे ने वरमाला पर अपना सेहरा हटाया सब की निगाहें खुली की खुली रह गई। दुल्हे राजा कोई और नहीं हलवाई दादा का अपना बेटा रमेश जो बाहर इंजीनियर बन नौकरी कर रहा था। सबने खुब ताली बजाकर उनका स्वागत किया। दादा सेवपापडी के लिये अपने ही बेटे जो मन ही मन सेवती को बहुत प्यार करता था और सारा खेल उसी ने बनाया था। अब सेव पापड़ी सदा सदा के लिए (मिठाई) दुल्हन बन हलवाई दादा के घर चली गई। सारे घराती बरातियों को आज सेवपापडीऔर रसगुल्ला बहुत अच्छा लग रहा था। सभी चाव से खाते नजर आ रहे थे। और हलवाई दादा के आंखों में खुशी के आंसू। मां भी इतनी खुश कुछ बोल न सकी पर हाथ जोड़कर हलवाई दादा के सामने खड़ी रही। सेवती (सेवपापडी) अपने रमेश (रसगुल्ला) की दुल्हन बन शरमाते हुये बहुत खुश दिखने लगी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #3 – जूते ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य   एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं । अब हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “जूते” जो निश्चित ही  आपको जीवन के  कटु सत्य एवं कटु अनुभवों से रूबरू कराएगी।  ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 3 ☆
☆ जूते  ☆

हम नर्मदा-यात्रा पर थे। आदिवासी फगनू सिंह हमारे मार्गदर्शक थे। साथ मदद के लिए छोटू भी था। फिर भी सामान ढोने के लिए हमें रोज़ अपने पड़ाव से दो आदमी लेने पड़ते थे जिन्हें हम अगले पड़ाव पर छोड़ देते थे। गाँवों में निर्धनता ऐसी कि मज़दूरी के नाम से तत्काल लोग हाज़िर हो जाते। जितने चाहिए हों, उठा लो।

मंडला तक के आखिरी चरण में हमारे साथ दो आदिवासी किशोर थे। चुस्त, फुर्तीले, लेकिन पाँव में जूता-चप्पल कुछ नहीं।  कंधे पर बोझ धरे, पथरीली ज़मीन और तपती चट्टानों पर वे नंगे पाँव ऐसे चलते जैसे हम शीतल, साफ ज़मीन पर चलते हैं।  हम में से कुछ लोग हज़ार दो हज़ार वाले जूते धारण किये थे।  दिल्ली से आये डा. मिश्र उन लड़कों की तरफ से आँखें फेरकर चलते थे।  कहते थे, ‘इन्हें चलते देख मेरी रीढ़ में फुरफुरी दौड़ती है। देखा नहीं जाता।  हम तो ऐसे दो कदम नहीं चल सकते।’

मंडला में यात्रा की समाप्ति पर डा. मिश्र इस दल को सीधे जूते की दूकान में ले गये।  बोले, ‘सबसे पहले इन लड़कों के लिए चप्पल ख़रीदना है।  उसके बाद दूसरा काम।’

जूते की दूकान वाले ने पूरे सेवाभाव से उन लड़कों को रबर की चप्पलें पहना दीं।  लड़कों ने तटस्थ भाव से चप्पलें पाँव में डाल लीं।  हमारा अपराध-बोध कुछ कम हुआ।  जूते की दूकान से हम कपड़े की दूकान पर गये जहाँ फगनू सिंह को अपने लिए गमछा ख़रीदना था।  सब ने अपने जूते दूकान के बाहर उतार दिये।  ख़रीदारी ख़त्म करके हम सड़क पर आ गये। आदिवासी लड़के हमारे आगे चल रहे थे। गर्मी में सड़क दहक रही थी।

एकाएक डा. मिश्र चिल्लाये, ‘अरे,ये लड़के अपनी चप्पलें दूकान में ही छोड़ आये।’ लड़कों को बुलाकर चप्पलें पहनने के लिए वापस भेजा गया।

हमारे दल के लीडर वेगड़ जी ताली मारकर हँसे, बोले, ‘प्रकृति को मालूम था कि हमारा समाज इन लड़कों को पहनने के लिए जूते नहीं देगा, इसलिए उसने अपनी तरफ से इंतजाम कर दिया है। ये लड़के हमारी दया के मोहताज नहीं हैं।’

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 – छोले चावल ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश “स्मृतियाँ/Memories”।  आज के  साप्ताहिक स्तम्भ  में प्रस्तुत है एक और संस्मरण “छोले चावल”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/MEMORIES – #3 ☆

☆ छोले चावल ☆

 

सितम्बर 2005 से लेकर फरवरी 2006 तक मैने दिल्ली से C-DAC का कोर्स किया था जिसमे उच्च (advanced) कप्म्यूटर की तकनीक पढ़ाई जाती है । हमारा केंद्र दिल्ली के लाजपत नगर 4 मे था, अमर कॉलोनी में । हमारे अध्यन केंद्र से मेरे किराये का कमरा बस 150 – 200 मीटर दूर था । हमारे केंद्र मे सुबह 8 से रात्रि 6 बजे तक क्लास और लैब होती थी उन दिनों हम रात में लगभग 2-3 बजे तक जाग कर पढ़ाई करते थे । हमारा अध्यन केंद्र और मेरा किराये का कमरा बीच बाज़ार में थे ।

मेरे साथ मेरे तीन दोस्त और रहते थे क्योकि हमारा कमरा बीच बाज़ार में था तो वहाँ खाने और पीने की चीजों की दुकानों और होटलो की कोई कमी ना थी । जिस इमारत में तीसरी मंजिल पर हमारा कमरा था उस ही मंजिल में भूतल (ground floor) पर एक चाय वाले की दुकान थी चाय वाले का नाम राजेंद्र था उसके साथ एक और लड़का भी काम करता था जिसका नाम राजू था । उस पूरे क्षेत्र में केवल वो ही एक चाय की दुकान थी तो राजेंद्र चाय वाले के यहाँ सुबह 7 से लेकर रात 11 बजे तक काफी भीड़ रहती थी । राजेंद्र की चाय औसत ही थी इस लिए कभी कभी हम थोड़ा दूर जा कर भी किसी और टपरी पर चाय पी लिया करते थे और अगर कभी देर रात को चाय पीनी हो तब भी हम टहलते टहलते दूर कहीं चाय पीने चले जाते थे ।

धीरे धीरे समय के साथ राजेंद्र की दुकान पर भीड़ बढ़ने लगी । उसकी दुकान पर हमेशा लोगो का ताँता लगा रहता था । राजेंद्र की दुकान पर सब ही तरह के लोग आते थे कुछ वो भी जो लोगो को डराने धमकाने का काम करते थे कुछ हमारे जैसे पढ़ने वाले छात्र एवं कुछ पुलिस वाले भी । धीरे धीरे राजेंद्र की चाय की गुणवत्ता घटने लगी । मैं और मेरे मित्र चाय के लिए कोई और विकल्प ढूंढ़ने लगे । हम राजेंद्र की चाय से ऊब गए थे । अचानक एक दिन जब मैं अपने केंद्र पर जा रहा था मैने देखा की राजेंद्र की चाय की दुकान की बायीं और की सड़क पर एक 23-24 साल का लड़का कुछ सामान लगा रहा था वो लड़का देखने में बहुत सुन्दर और हटा कट्ठा था एवं बहुत अच्छे घर का लग रहा था । शाम को जब मैं अपने अध्ययन केंद्र से वापस आ रहा था तो मैने देखा की राजेंद्र की दुकान के बायीं ओर  सुबह जहाँ एक लड़का कुछ सामान लगा रहा था वहाँ पर एक नयी चाय की दुकान खुल चुकी थी उस चाय की दुकान को देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । उस चाय की दुकान पर कोई भी ग्राहक ना था जैसे ही मैने चाय वाले की तरफ देखा उस चाय वाले के मुस्कुराते हुए चेहरे ने मेरी तरफ देख कर बोला ‘भईया चाय पियोगे ?’

मैं थका हुआ था मैने कुछ देर सोचा उसकी तरफ देखा और बोला ‘हाँ भईया एक स्पेशल चाय बना दो केवल दूध की’ पांच मिनट के अंदर उसने चाय का गिलास मेरी तरफ बढ़ाया चाय काफी अच्छी बनी थी मैने चाय पीते पीते कहा ‘भईया चाय अच्छी बनी  है’ उसने कहा ‘धन्यवाद सर’ फिर मैने पूछा की उसका नाम क्या है और वो कहाँ का रहनेवाला है तो उसने अपना नाम चींकल बताया और वो पंजाब के किसी छोटे से शहर का था । धीरे धीरे मैने और मेरे तीन साथियो ने राजेंद्र की जगह चींकल की टपरी से चाय पीना शुरू कर दिया । चींकल केवल 1 कप चाय या 1 ऑमलेट भी तीसरी मंजिल तक ऊपर आ कर दे देता था वह बहुत ही जिन्दा दिल लड़का था बड़ा हंसमुख सब को खुश रखने वाला । धीरे धीरे चींकल, चाय वाले से ज्यादा हमारा दोस्त बन गया था । 1 महीने के अंदर ही अंदर राजेंद्र चाय वाले के ग्राहक कम होने लगे और चींकल के बढ़ने लगे ।

क्योंकि हम लोगो को काफी पढ़ाई करनी होती थी तो हम चींकल की दुकान पर कम ही जाते थे और जो कुछ चाहिए होता था वो तीसरी मंजिल के छज्जे से आवाज़ लगा कर बोल देते थे और चींकल ले आता था । कई बार मैने उससे पूछने की कोशिश की कि वो तो अच्छे घर का लगता है फिर ये चाय बेचने का काम क्यों करता है ? पर वो हर बार टाल जाता था । एक दिन जब करीब सुबह के 11 बजे मैं अपने केंद्र जा रहा था तो चींकल ने आवाज़ लगायी और बोला ‘भईया मेरी बीवी ने आज छोले चावल बनाये है आ जाओ थोड़े थोड़े खा लेते है’ मैने काफी मना किया पर वो नहीं माना और टिफिन के ढक्कन में मेरे लिए भी थोड़े से छोले चावल कर दिए मैने खा लिए । छोले चावल बहुत ही स्वादिष्ट बने थे ।

उस दिन मैं बहुत थक गया था हमारे कंप्यूटर केंद्र में मैं नयी तकनीक में प्रोग्रामिंग सीख रहा था जो मेरी समझ में नहीं आ रहा थी तो शाम के करीब 6 बजे जब मैं निराश और थक कर कमरे पर वापस जा रहा था तो मैंने देखा की चींकल की दुकान के पास कुछ लोग खड़े है तीन चार लोग उसे पीटते जा रहे थे और दो लड़के उसकी चाय की टपरी का सामान तोड़ रहे थे । पास ही में राजेंद्र चाय वाला खड़ा हुआ हंस रहा था मैं समझ गया की ये सब राजेंद्र चाय वाला ही करवा रहा था । मैं कुछ बोलने वाला ही था कि  राजेंद्र चाय वाले ने मेरी तरफ घूर कर देखा और मैं डर गया । चींकल ने मुझे आवाज़ भी लगायी ‘आशीष भईया’ पर मैं अनसुना कर के आगे निकल गया और अपने कमरे में जाने के लिए इमारत में घुस गया । पता नहीं क्यों मैं डरपोक बन गया था अगली सुबह वहाँ जहाँ पर चींकल की चाय की दुकान हुआ करती थी उसके कुछ अवशेष पड़े थे मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे । चींकल द्वारा खिलाये हुए घर के बने छोले चावल शायद मैं आज भी नहीं पचा पाया हूँ ।

रस : करुण

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ मनुष्य होने का धर्म ☆ – श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

श्री गोपाल सिंह सिसोदिया ‘निसार’

(श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार ‘ जी एक प्रसिद्ध कवि, कहानीकार तथा अनेक पुस्तकों के रचियता हैं। इसके अतिरिक्त आपकी विशेष उपलब्धि ‘प्रणेता संस्थान’ है जिसके आप संस्थापक हैं।  आज प्रस्तुत है एक किन्नर पात्र द्वारा मानवीय संवेदनाओं को उकेरती भावुक लघुकथा “मनुष्य होने का धर्म”। इस विषय पर साहित्यिक रचना के लिए श्री सिसोदिया जी  बधाई के पात्र हैं।) 

 

☆ मनुष्य होने का धर्म☆

 

अंजना दूर से देखते ही पहचान गयी कि सड़क की दूसरी ओर पटरी पर कौन बेहोश पड़ा है। उसका मन उसे देखते ही घृणा से भर गया और उसने उसकी ओर से मुँह फेर लिया। परन्तु तुरंत ही उसे अपने इस अमानवीय व्यवहार पर पछतावा हुआ और वह लगभग भागती हुई उसके पास पहुंची। उसने उसे छूकर देखा, श्वाँस चल रही थी। उसके मुँह से अनायास निकला, “भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है।”

उसने बिना और अधिक विलम्ब किये पास की पानी की रेड़ी से बोतल में दो गिलास पानी डलवाया और बुढ़िया के चेहरे पर छिड़कने लगी। शीतल जल के छींटों ने अपना असर दिखाया और बुढ़िया ने आँखें खोल दीं। सामने खड़ी अंजना को पहचानने का असफल प्रयास करने लगी।

“ले माई, पानी पी ले, क्यों बेकार में खोपड़ी पर ज़ोर डाल रही है।” अंजना ने पानी की बोतल उसके हाथ में देते हुए कहा।

बुढ़िया ने कोहनी ज़मीन पर टिकाई और बैठने का उपक्रम करने लगी। अंजना ने उसे सहारा देकर बिठा दिया। बुढ़िया ने दो घूँट पानी पीकर उसे घुटी-घुटी आवाज़ में दुआएं दीं और फिर से उसे पहचानने का प्रयास करने लगी।

एक क्षण रुककर उसने पूछा,

“कहीं तू अंजी तो नहीं है?”

इस बार अंजना से नहीं रहा गया और क्रोध भरी वाणी में बोली,  “हाँ माई, मैं वही अभागी हूँ, जिसे तूने अपनी कोख से जन्म देकर घर से ही नहीं, अपनी जिंदगी से भी निकाल फेंका था।

अंजना की बात सुनते ही उसे सब कुछ स्मरण हो आया। उसने अपनी पूरी ताकत लगाई और आगे बढ़कर अंजना के पैर दोनों बाँहों में भर लिये और पश्चाताप के आंसू बहाने लगी।

अंजना अपने पाँव छुड़ाने की भरपूर कोशिश करती रही, परन्तु विफल रही।

बुढ़िया के पछतावे के आंसुओ ने अंजना के अंतर में नफ़रत की धधकती आग पर शीतल जल का-सा असर किया। वह भी बुढ़िया के साथ-साथ रोने लगी। जब दोनों के अंदर जमी काई छँट गयी तो अंजना ने भर्राई आवाज़ में पूछा, “क्या हुआ माई, तूने अपना यह क्या हाल बना रखा है? वैसे तू जा कहाँ रही थी?”

अंजना की बात सुनकर बुढ़िया पुनः गंगा-यमुना बहाने लगी और रोते हुए बोली, “पिछले साल तेरा बापू मेरा संग छोड़ गया। उसके मरते ही दिनेश ने मेरे साथ एक बड़ा धोखा किया और मेरी सारी जमा पूँजी लूट ली। उसे इतने से ही संतोष नहीं हुआ। उसने घर भी बेच दिया। मुझसे कहकर गया था कि माई, हम पहले सामान पहुँचा दें, तब तुझे ले जाएंगे, परन्तु वह लौटकर न आया। मैं भूखी-प्यासी बंद मकान के सामने पड़ी रही। परन्तु वहाँ भी कब तक पड़ी रहती? इसलिए आज सुबह खुद ही उसका मकान ढूँढ़ने निकल पड़ी। मैं नहीं जानती कि चलते-चलते कब बेहोश होकर गिर पड़ी। मैं अपने पापों की सज़ा भुगत रही हूँ। मुझे माफ़ कर दे अंजी!”

“माई, मैं तो स्वयं न जाने किस जन्म के पापों की गठरी उठाए फिर रही हूँ। मैं तुझे क्या माफ़ करूंगी। अब मुझे यह बता कि क्या तू इस हिजड़ी के साथ रह सकेगी? यदि हाँ तो चल मेरे संग।” उसने अपने आँसू पोंछते हुए कहा।

तू ऐसा कहकर मुझे और शर्मिंदा मत कर, मुझे पहले ही अपने किये पर आत्मग्लानि हो रही है।” बुढ़िया ने कहा।

“चल माई, जैसी मुझसे बन पड़ेगी तेरी सेवा करूंगी। तेरी संतान होने के साथ-साथ यह मेरा मनुष्य होने का धर्म भी है।” अंजना ने बुढ़िया को सहारा देकर उठाया और अपने फ्लैट की ओर लेकर चल दी।

© श्री गोपाल सिंह सिसोदिया  ‘निसार’ 

दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆ प्रतिबिंब ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। श्री ओमप्रकाश  जी  के साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  समाज को आईना दिखाती हृदयस्पर्शी लघुकथा “प्रतिबिंब ”। )

 

हमें यह सूचित करते हुए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि आदरणीय श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ जी को हिंदीभाषा डॉट कॉम द्वारा लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है। साथ ही आलेख वर्ग में दिल्ली के डॉ शशि सिंघल  जी एवं कविता वर्ग में मुंबई की नताशा गिरी जी को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ है।  ई-अभिव्यक्ति की ओर से हमारे सम्माननीय लेखक श्री ओमप्रकाश जी को हार्दिक बधाई। 

 

☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #2 ☆

 

☆ प्रतिबिंब ☆

चाय का कप हाथ में देते हुए सास ने कहा, “ ब्याणजी ! बुरा मत मानना. आप से एक बात कहनी थी.”

“कहिए!”

“आप की लड़की को एक बात समझा दीजिएगा. यह सुबह जल्दी उठा करे. ताकि सुबह आठ बजे जब इस का पति ऑफिस जाए तब अपने साथ घर के बने खाने का टिफिन भी लेता जाए.” सास ने अपनी व्यथा ब्याणजी से कहीं.

“यह तो इसे समझना चाहिए.” ब्याणजी ने अपनी बेटी की ओर देख कर कहा, “पति की सेवा करना, उस का ध्यान रखना, इस का फर्ज है.”

बेटी को मां से ऐसी आशा नहीं थी. उस की भौंहे तन गई. माँ हो कर उस की बुराई करें. यह वह कैसे बरदाश्त कर सकती थी. इसलिए वह तुनक गई.

“माँ ! आप को शर्म नहीं आती. मेरी बुराई करती हो”  वह बिफरते हुए्र बोली, “यदि आप ने मुझे यह लक्षण सिखाये होते तो आज यह दिन नहीं देखना पड़ते. आखिर मैं आप का ही तो प्रतिबिंब हूं.”

बेटी के मुंह से यह बात सुन कर माँ सन्न रह गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #1 रात का चौकीदार ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(मैं अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का हृदय से आभारी हूँ,  जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ” के लिए मेरे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक बुधवार को डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “रात का चौकीदार”।)

 

डॉ.  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

विधा : गीत, नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि

प्रकाशन :                    

  • प्यासो पघनट (निमाड़ी काव्य संग्रह- 1980), आरोह-अवरोह (हिंदी गीत काव्य संग्रह – 2011), अक्षर दीप जलाएं (बाल कविता संग्रह- 2012), साझा गीत अष्टक-10, गीत-भोपाल (2013),
  • संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर साहित्य परामर्शक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी तथा लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, भोपाल एवं जबलपुर की अनेक साहित्यिक सामाजिक संस्थाओं से संबद्ध।

विशेष : महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा “रात का चौकीदार” सम्मिलित।

सम्मान :

  • विभागीय राजभाषा गौरव सम्मान 2003, प्रज्ञा रत्न सम्मान 2010, सरस्वती प्रभा सम्मान 2011, पद्यकृति पवैया सम्मान 2012, शब्द प्रवाह सम्मान, कादम्बिनी साहित्य सम्मान भोपाल, लघुकथा यश अर्चन सम्मान, साहित्य प्रभाकर सम्मान, निमाड़ी लोकसाहित्य सम्मान- महेश्वर, साहित्य भूषण, विद्यावाचस्पति, वर्तिका राष्ट्रीय साहित्य शिरोमणि सम्मान, साहित्य संगम मार्गदर्शक सम्मान 2018- इंदौर, दोहा रत्न अलंकरण 2018- जबलपुर सहित अन्य विविध सम्मान

संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवानिवृत

 

☆  तन्मय साहित्य – #1 ☆

☆ रात का चौकीदार ☆

(यह लघुकथा महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित है।)

दिसंबर जनवरी की हाड़ कंपाती ठंड हो, झमाझम बरसती वर्षा या उमस भरी रातें, हर मौसम में रात बारह बजे के बाद चौकीदार नाम का यह गिरीह प्राणी सड़क पर लाठी ठोंकते, सीटी बजाते हमें सचेत करते हुए कॉलोनी में रातभर चक्कर लगाते रोज सुनाई पड़ता है. हर महीने की तरह पहली तारीख को हल्के से गेट बजाकर खड़ा हो जाता है. साबजी, पैसे?

कितने पैसे, वह पूछता है उससे?

साबजी- एक रुपए रोज के हिसाब से महीने के तीस रुपए. आपको तो मालूम ही है.

अच्छा एक बात बताओ बहादुर- कितने घरों से पैसे मिल जाते हैं तुम्हें महीने में?

साबजी- यह पक्का नहीं है, कभी साठ घर से कभी पचास से. तीज त्योहार पर बाकी घरों से भी कभी कुछ मिल जाता है. इतने में ठीक-ठाक गुजारा हो जाता है हमारा.

पर कॉलोनी में तो सौ सवा सौ से अधिक घर हैं फिर इतने कम क्यों?

साबजी, कुछ लोग पैसे नहीं देते हैं, कहते है। हमें जरूरत नहीं है तुम्हारी.

तो फिर तुम उनके घर के सामने सीटी बजाकर चौकसी रखते हो कि नहीं? उसने पूछा

हां साबजी, उनकी चौकसी रखना तो और जरूरी हो जाता है. भगवान नहीं करे, यदि उनके घर चोरी-वोरी की घटना हो जाय तो पुलिस तो फिर भी हमसे ही पूछेगी ना. और वे भी हम पर झूठा आरोप लगा सकते हैं कि पैसे नहीं देते, इसलिए चौकीदार ने ही चोरी करवा दी. ऐसा पहले मेरे साथ हो चुका है साबजी.

अच्छा ये बताओ रात में अकेले घूमते तुम्हें डर नहीं लगता?

डर क्यों नहीं लगता साबजी, दुनिया में जितने जिन्दे जीव हैं सबको किसी न किसी से डर लगता है. बड़े से बड़े आदमी को डर लगता है तो फिर हम तो बहुत छोटे आदमी हैं. कई बार नशे-पत्ते वाले और गुंडे बदमाशों से मारपीट भी हो जाती है. शरीफ दिखने वाले लोगों से झिड़कियां, दुत्कार और धौंस मिलना तो रोज की बात है.

अच्छा बहादुर सोते कब हो तुम? फिर प्रश्न करता वह.

साबजी, रोज सुबह आठ-नौ बजे एक बार और कॉलोनी में चक्कर लगाकर तसल्ली कर लेता हूं कि, सबकुछ ठीक है ना, फिर कल की नींद पूरी करने और आज रात में फिर जागने के लिए आराम से अपनी नींद पूरी करता हूं. अच्छा साबजी, अब आप पैसे दे दें तो मैं अगले घर जाऊं.

अरे भाई, अभी तुमने ही कहा कि, जो पैसे नहीं देते उनका ध्यान तुम्हें ज्यादा रखना पड़ता है. तो अब से मेरे घर की चौकसी भी तुम्हें बिना पैसे के करना होगी, समझे?

जैसी आपकी इच्छा साबजी, और चौकीदार अगले घर की ओर बढ़ गया.

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #2 पाहुना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक लघुकथा  “पाहुना”। लघुकथा पढ़ कर सहज ही लगता है कि यह  कथा/घटना  कहीं हमारे आस पास की ही है। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 2 ☆

 

☆ पाहुना ☆

 

गाँव में जब कोई अतिथि आ जाता था उसे सभी पाहुना कहते थे। वर्तमान में पाहुना से अतिथि, मेहमान, और अब गेस्ट का नाम प्रचालित हो गया है। ऐसे ही छोटा सा गांव जहा एक वकील बाबू रहते थे, गांव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे। लोग उनकी काफी इज्जत करते थे। कभी कोई परेशानी हो सभी उन्ही के पास जा बैठते थे। घर भी उनका बड़ा, बाहर दालान और फिर बड़े बड़े पत्थरों के चबूतरे जिनमे कोई ना कोई बैठा ही रहता था। उनका रूतबा भी बड़ा था। शरीर भी उनका गठा बदन, काली घनी मूंछ, बड़ी बड़ी आँखे और लंबाई भी सामान्य से अधिक। जब अपने पहनावे  काले कोट में निकलते थे तो सब दूर से ही हाथ जोड़ लेते थे। पर कहते हैं कहीं ना कहीं सब किसी ना किसी कारण से दुखी रहते हैं।

पांच बच्चों के पिता थे। धर्मपत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी। छोटे छोटे बच्चों का लालन पालन उनकी सासू माँ के द्वारा हो रहा था। जो अपनी बेटी के पास रहती थी क्यूँकि बेटी के अलावा कोई और नहीं था। पति को गुजरे एक दशक हो गया था। बूढ़ी सासू माँ अपने तरीके से बच्चों की निगरानी करती थी। दो बड़े बेटे कुछ समझदार होने लगे थे। अचानक ही वकील साहब की पत्नी का देहांत हो गया। सभी परेशान हो गए।

समझ नहीं आया पर कब तक घर बैठते। काम काज के सिलसिले में उनको बनारस जाना पड़ा। वहा उनकी जान पहचान फूल वाली से हो गयी जो निहायत ही सुंदर और नवयौवना थी। लगातार आने जाने के कारण उनमे घनिष्ठता बढ़ गयी। एक दिन वो कानून उसे पत्नी बना घर ले आए और सामने वाले दूसरे घर में रहने दिया।

सभी पूछते कि ये कौन है? उनका उत्तर होता – ” पाहुना आई है कुछ दिनो के लिए”। बूढ़ी माँ को सब समझ में आ गया। बच्चों में उसने जहर का बीज बो दिया। कभी भी वो उसके पास नहीं गए। पिताजी कहते थे कि इन्हे अपनी माँ की तरह मानो। पर बच्चों ने कभी स्वीकार नहीं किया। पाहुना के भी तीन संतान, दो बेटी और एक बेटा हुआ। परन्तु कभी कोई आपस में नहीं मिले। आमने सामने रहने के बाद भी भाई बहन एक दूसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करते थे।

धीरे धीरे समय सरकता गया सभी कामों मे निपुण पाहुना अपनी गृहस्थी संभाल रही थी परन्तु बच्चों का तिरस्कार उसको सहन नहीं हो पा रहा था। हमेशा वकील बाबू से कहती कि कुछ ऐसा हो जाए कि हमारे बच्चों को मैं एक साथ रहते देख सकूँ। उसके मन में सभी बच्चों के लिए एक सी भावना थी। बस बच्चों का दिल जीतना चाहती थी।

सासू माँ का देहांत हो गया परंतु हालत वैसे का वैसा ही रहा। धीरे धीरे तिरस्कार उसके मन में बीमारी का गांठ बनाने लगी और वह असमय ही बिस्तर पकड़ ली। उसकी अपनी बड़ी बिटिया सारा काम करके हमेशा माँ को समझाती परंतु वह दिन रात रोती ही रहती। वकील बाबू को बच्चों को पास लाने की जिद करती रहती। परंतु नव जवान होते बच्चे अपने दूसरी माँ को देखना भी पसंद नहीं करते थे।

एक दिन पाहुना का अंतिम समय आ गया। सभी बच्चों को बुला कर वकील साहब ने कहा कि बेटे पाहुना के जाने का दिन आ गया है, वो अब जा रही है सदा के लिए। तुम सब एक बार उनसे मिल लो। बस फिर क्या था सबने यही कहा – पिताजी पाहुना को जाने नहीं देना आप अकेले हो जाएंगे। माँ आपको छोड़ कर पहले ही चली गई है आप पाहुना को जाने नहीं देना। इतना सुनना था कि वकील बाबू का मुंह खुला का खुला ही रह गया। उनको समझते देर ना लगी कि सब पाहुना से उतना ही प्यार करते थे सिर्फ जताते नहीं थे। परंतु बहुत देर हो चुकी थी। सभी बच्चे खड़े अपनी माँ के अंतिम क्षण में व्याकुल थे। परंतु पाहुना अपनी जीत पर मुस्कुराते हुए आज बहुत खुश हो रही थी और मुस्कुराते हुए ही उसने अपनी आंख बंद कर ली।

सदा सदा के लिए पाहुना उस घर से जा चुकी थी। सभी ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। आज पाहुना बहुत खुश थी क्यूँकि उसे उसका अपना घर मिल गया था जिस घर में वो पाहुना(मेहमान) आई थी। आज सब कुछ उसका अपना था। अब वो पाहुना नहीं थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – #2 – भलाई ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य e-abhivyakti के माध्यम से काफी पढ़ा एवं सराहा जाता रहा है। अब आप समय-समय पर उनकी रचनाओं को पढ़ते रहेंगे । इसके अतिरिक्त हम प्रति रविवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक से उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा – “भलाई” जो निश्चित ही  आपको  है  जीवन में घट रही घटनाओं के विश्लेषण के लिए विचार करने हेतु  बाध्य करेगी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 2 ☆

☆ भलाई ☆

बैंक का काउंटर। गहमागहमी। पैसा निकालते, जमा करते, बेंचों पर अपनी बारी का इंतज़ार करते लोग। दरवाज़े पर बंदूकधारी दरबान।

कैश काउंटर पर पैसा निकालकर उसे गिनते हुए एक व्यापारी। नोटों की मोटी मोटी गड्डियाँ। बगल में दबा हुआ चमड़े का बैग।

तभी बगल में खड़ा एक सामान्य वस्त्रों वाला लड़का बोला, ‘देखिए, आपका नोट गिर गया।’

व्यापारी ने गिनना रोककर घूरकर पहले लड़के को देखा, फिर पैरों के पास पड़े दस के नोट की तरफ। फिर उसने बिना गिने ही नोटों को बैग में ठूँसना शुरू कर दिया। सब गड्डियाँ ठूँस देने के बाद उसने बैग कैशियर की तरफ बढ़ा दिया। कहा, ‘ज़रा रखना।’

फिर उसने घूमकर लड़के का कालर पकड़ लिया। घूँसे ही घूँसे। लड़के की नाक से रक्त बहने लगा। दौड़-भाग मच गयी। कर्मचारी भी दौड़े। बाहर से दरबान भागता आया। ‘क्या बात है? क्या हुआ?’

व्यापारी लड़के का कालर पकड़े, हाँफते हाँफते बोला, ‘साला ठग है। नीचे पड़ा हुआ नोट दिखाकर मेरा पैसा पार करना चाहता था।मैं बेवकूफ नहीं हूँ।’

लड़का हतप्रभ और दर्द से बेहाल। तभी बेंच पर से गोल टोपी लगाये एक वृद्ध उठे। लड़के की हालत देखकर मर्माहत होकर बोले, ‘अरे यह क्या? इसे क्यों मारा?’

एक क्लर्क भी बोला, ‘यह शेवड़े जी का लड़का है। महाराष्ट्र स्कूल में पढ़ता है। यह ऐसा काम नहीं करेगा।’

लड़का अपनी साँस वापस पाकर आँखों में आँसू लिये बोला, ‘नोट आपके कुर्ते की जेब से गिरा था। ज़रा देखिए।’ उसने कुर्ते की जेब की तरफ इशारा किया।

व्यापारी ने देखा, एक और दस का नोट कुर्ते की जेब से सटकने के चक्कर में बाहर झाँक रहा है।

व्यापारी सिकुड़ गया। जेब से रूमाल निकालकर लड़के का खून पोंछा। वृद्ध से हाथ जोड़कर बोला, ‘साहब, बहुत गलती हो गयी। मैं क्या करूँ?आजकल लोग इसी तरह ठगते हैं। लड़के ने तो अच्छे मतलब से कहा था, लेकिन मुझे भरोसा नहीं हुआ।’

मामला ठंडा हो गया। जल्दी ही सब कुछ सामान्य हो गया और दरबान फिर दरवाज़े पर मुस्तैद हो गया। लेकिन अति-सावधानी का कीड़ा जो पहले व्यापारी के दिमाग़ में कुलबुलाता था, अब उड़ कर लड़के के दिमाग़ में कुलबुल करने लगा।

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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