(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “लघुकथा – कारण”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 84 ☆
☆ लघुकथा – कारण ☆
“लाइए मैडम ! और क्या करना है ?” सीमा ने ऑनलाइन पढ़ाई का शिक्षा रजिस्टर पूरा करते हुए पूछा तो अनीता ने कहा, “अब घर चलते हैं । आज का काम हो गया है।”
इस पर सीमा मुँह बना कर बोली, ” घर! वहाँ चल कर क्या करेंगे? यही स्कूल में बैठते हैं दो-तीन घंटे।”
“मगर, कोरोना की वजह से स्कूल बंद है !” अनीता ने कहा, ” यहां बैठ कर भी क्या करेंगे ?”
“दुखसुख की बातें करेंगे। और क्या ?” सीमा बोली, ” बच्चों को कुछ सिखाना होगा तो वह सिखाएंगे। मोबाइल पर कुछ देखेंगे।”
“मगर मुझे तो घर पर बहुत काम है,” अनीता ने कहा, ” वैसे भी ‘हमारा घर हमारा विद्यालय’ का आज का सारा काम हो चुका है। मगर सीमा तैयार नहीं हुई, ” नहीं यार। मैं पांच बजे तक ही यही रुकूँगी।”
अनीता को गाड़ी चलाना नहीं आता था। मजबूरी में उसे गांव के स्कूल में रुकना पड़ा। तब उसने कुरेद कुरेद कर सीमा से पूछा, ” तुम्हें घर जाने की इच्छा क्यों नहीं होती ? जब कि तुम बहुत अच्छा काम करती हो ?” अनीता ने कहा।
उस की प्यार भरी बातें सुनकर सीमा की आंख से आंसू निकल गए, ” घर जा कर सास की जलीकटी बातें सुनने से अच्छा है यहां सुकून के दो-चार घंटे बिता लिए जाए,” कह कर सीमा ने प्रसन्नता की लम्बी साँस खींची और मोबाइल देखने लगी।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – रामबाण
( 5 जून से आरम्भ पर्यावरण विमर्श की रचनाओं में आज पाँचवी रचना।)
बावड़ी को जाने वाले रास्ते पर खड़े विशाल पीपल में भूत बसता है। गाँव के लोग दोपहर के समय और शाम के बाद उस तरफ जाते ही नहीं। उसकी डालियाँ तोड़ना तो दूर, पत्तियाँ तक छूना वर्जित था। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में भय समान रूप से व्याप्त था। पीपल सदा हरा रहा, पत्तियों से सदा भरा रहा।…यह पिछली सदी की बात है।
सदी ने करवट बदली। मनुष्य ने अनुसंधान किया कि पीपल सबसे ज्यादा ऑक्सीजन देता है। फिर भौतिकता की आंधी चली। पेड़, पौधे, पर्यावरण, परंपरा सब उखड़ने लगे। बावड़ियाँ पाट दी गईं, पीपल काट दिये गए। ऑक्सीजन की हत्या कर साँस लेने का सपना पालनेवाला नया शेखचिल्ली पैदा हो चुका था।..शेखचिल्ली जिस डाली पर बैठता, उसे ही काट देता। शनैः- शनैः न जंगल बचे, न पीपल। शेखचिल्ली की देह भी लगभग मुरझा चली।
एकाएक पता चला कि सुदूर आदिवासी क्षेत्र में पीपल-वन है। पीपल ही पीपल। सघन पीपल, हरे पीपल, भरे पीपल। अनुसंधानकर्ता ने एक आदिवासी से पूछा- वहाँ ले चलोगे? आदिवासी ने साफ मना कर दिया। अधिक कुरेदने पर बोला- जाना तो दूर हम उस तरफ देखते भी नहीं।….क्यों?….वो भूतों की नगरी है। हर पीपल पर कई- कई भूत बसते हैं।
अनुसंधानकर्ता ने अनुसंधानपत्र में लिखा, ‘रामबाण टोटके कालजयी होते हैं।’
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
( सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर. प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं में भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह “Sahyadri Echoes” सहित और कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद कहानी – आँख खुल गयी। )
आँख खुल गयी ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”
पापा की पोस्टिंग रेलवे की नौकरी की वजह से बदलती रहती थी और हमारा स्कूल भी। जब तक हम दोनों भाई बहन छोटे थे तब तक कोई समस्या नहीं थी पर जैसे-जैसे हम बड़े होने लगे हमे स्कूल बदलने में परेशानी होने लगी। हर बार नयी जगह नया सिलेबस, नए अध्यापक, नए दोस्त। ये सब हमे चिड़चिड़ा करने लगा. मेरा तो स्कूल में रिजल्ट भी गिरने लगा। मम्मी और पापा इस से चिंता में आ गए। स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग के दौरान अध्यपक ने भी उनको स्कूल बार-बार चेंज नहीं करने की सलाह दी। आखिरकार ये तय हुआ की हम दिल्ली में ही रह कर अपनी पढ़ाई पूरी करेंगे और पापा अकेले ही अपनी पोस्टिंग के अनुसार अलग रहेंगे। पापा अपनी छुट्टियों के हिसाब से हमसे मिलने आया जाया करते थे। बढ़ती उम्र ने हमे आत्मनिर्भर बना दिया था और उसका मतलब हमारे लिए था “अपने फैसले खुद लेना और अपने हिसाब से ज़िंदगी जीना”। मम्मी भी ज्यादा रोक-टोक नहीं करती थी। पापा जब भी आते वो हमारी बेढंगी दिनचर्या नोटिस करते थे, पर कुछ बोलने पर मम्मी उन्हें ये कह कर चुप करा देती थी कि “बच्चे अब समझदार हो गए है नए ज़माने के है ज्यादा रोक-टोक अच्छी नहीं”।
उन्हें हमारी दिनचर्या बिलकुल पसंद नहीं आती थी वो पुराने ख्याल के जो थे और हमें उनका टोकना पसंद नहीं आता था। हम दोनों ही पक्ष “जनरेशन गैप” को कोस कर अपने-अपने विचार लिए आगे बढ़ जाते. शायद हमे धीरे-धीरे उनके बिना रहने की आदत होती जा रही थी। फिर वो वक़्त आया जब पापा की आखिरी पोस्टिंग दिल्ली में ही हो गयी। अब तो बस रोज़ की टोका-टाकी तय थी। छोटी मोटी चिक-चिक तो रोज़ की दिनचर्या हो गयी थी। एक दिन इसी बात को लेकर मैं और मेरी बहन बात कर रहे थे ” रोज़ की टोका-टोकी मुझे पसंद नहीं आती, आखिर हम भी बड़े हो गए है हमे भी सब समझता है। इस से तो पापा बाहर ही अच्छे थे कम से कम शान्ति तो थी ” तभी मेरी बहन का रंग उड़ा चेहरा देख कर मैं पीछे पलटा और देखा पापा और मम्मी ठीक मेरे पीछे खड़े थे। मेरा चेहरा शर्म से पीला पड़ गया। पापा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चले गए। मैं भी सर झुकाये अपने कमरे में चला गया। अब रोज़ पापा बिना कुछ कहे सीधे ऑफिस चले जाते और आने के बाद भी बात नहीं करते। उनकी खामोशी मुझे अच्छी नहीं लग रही थी, पर अब शान्ति देख मैं कही न कहीं चैन की सांस भी ले रहा था।
एक दिन अचानक मैं जब घर लौटा तो सभी टीवी चैनल पर न्यूज़ देख रहे थे, जिस पर कोरोना की वजह से बंद की खबर दिखाई जा रही थी। अब सबको बंद की वजह से घर में ही रहना पड़ रहा था. मुझे तो ये काला-पानी की सजा लग रही थी। रोज़ की खबरों ने दिमाग ख़राब कर रखा था और धीरे-धीरे ये डर में तब्दील होने लगा, जब अचानक मुझे एक दिन लगा की मुझे गले में खराश महसूस हो रही है और हल्का बुखार भी। मैं अंदर ही अंदर बहुत डर गया और मुझे रोना आ गया। मेरे रोने की आवाज़ सुनकर पापा जो की रात को पानी पीने रसोई में आये थे मेरे कमरे में आ गए। मुझे घबराया हुआ देख उन्होंने पूछा “क्या हुआ बेटा” उन शब्दों ने जैसे मेरे अंदर एक सुकून की लहर दौड़ा दी। पापा ने जब हाथ सर पर रखा तो मानो मुझे लगा कि मैं अब ठीक हूँ और कोई है जो मुझे संभाल लेगा। पापा ने टेम्प्रेचर चेक किया मुझे कोई बुखार नहीं था, रोज़ की खबर सुन-सुन कर मेरे दिमाग में वहम ने घर कर लिया था। पापा ने मुझे गरम दूध में हल्दी मिला कर पिलाया और सुला दिया। सुबह जब मेरी आँख खुली तो मैंने देखा पापा वहीँ कुर्सी पर ही सो गए। मुझे ये देख कर खुद पर बहुत शर्म आ रही थी।
मुझे समझ आ गया अपनों का साथ और बड़ो का हाथ हमारे सर पर कितना जरुरी होता है। उनकी हमारी बिगड़ी हुई दिनचर्या पर टोका-टाकी हमारे भले के लिए थी। जो दिनचर्या हम लॉकडाउन में मज़बूरी में निभा रहे थे वही तो पापा हमे हमेशा से समझाते थे , टाइम पे उठना , टाइम पे सोना , घर का खाना , जल्दी उठकर व्यायाम करना कुल मिला कर अपने पुराने तौर तरीको से स्वस्थ्पूर्ण। जीवन जीना, जो हमे बंदिश लगता था। पर अब इस बंद के दौर ने संयुक्त परिवार और हमारे देश के प्रति हमारे कर्तव्य और उनके महत्व को अच्छी तरह से समझा दिया था। अब हम सब वो चीज़ें करने लगे थे जो हमारी ही देश की धरोहर है, और हमे स्वस्थ और खुशहाल जीवन जीना सिखाती है।
आज हम मॉडर्न बनाने के चक्कर में अपनों से दूर हो रहे है, गलत दिनचर्या अपना रहे हैं ऊपर से खुश रहने के लिए अंदर से खोखले होते जा रहे है। ये हम सब के लिए आँखे खोलने का वक़्त है हमे अपनी संस्कृति चाहे वो संयुक्त परिवार में रहना हो या हमारी देसी दिनचर्या इन सब को अपनाना चाहिए। ये मूल-मन्त्र ही हमें हर समस्या से निकालने में मदद कर सकता है।
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे। )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे☆ श्री सुरेश पटवा ☆
एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”
इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं।
मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।
मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।
उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”
मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की ताकत खो रही है।
उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”
उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #52 गुरु दक्षिणा श्री आशीष कुमार☆
एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जी, कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है, कुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं। इनमें कौन सही है?’
गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्र, जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैं, मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।’
यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट न था। गुरु जी को इसका आभास हो गया।वे कहने लगे- ‘लो, तुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ। ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे।’
उन्होंने जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी-
एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिए। गुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिए, ला सकोगे?’
वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगे। सूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- “जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा।’’
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहूंच चुके थे।लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं, उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दिया।वे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे दे। अब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था। अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सके। वहाँ पहूंच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही, कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थी। पर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थी।।अब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गये।
गुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा- ‘पुत्रो, ले आये गुरुदक्षिणा?’
तीनों ने सर झुका लिया।
गुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेव, हम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाये। हमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं।”
गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते हो? प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो।’
तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये।
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा था, अचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जी,अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैं।आप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है न कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक-सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है।’
गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ, पुत्र, मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके। दूसरे, यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेप, स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें।’
“यदि हम मन, वचन और कर्म- इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगी। सब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती है। वस्तुतः, हमारे जीवन का सबसे बड़ा ‘उत्सव’ पुरुषार्थ ही होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है। एक विषय पर अनेक लघुकथाएं लिखकर। इस श्रृंखला में नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की लघुकथा न -नारियल का। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #6 – न – नारियल का ☆
बच्चे का पेट चल गया था। माँ उसे न – नारियल का पढ़ा रही थी।
बेटे का मन पढ़ाई में कैसे लगता भला?
बोला – ‘वैदय जी ने नारियल पीनी पिलाने के लिए बोला था और तू मुझे न – नारियल का पढ़ा रही है। तू बिल्कुल अच्छी माँ नहीं है।’
माँ क्या बताती कि उसका शराबी पिता उसके सारे पैसे छीन ले गया है। उसके पास न – नारियल का पढ़ाने के सिवाय कोई चारा नहीं रह गया है।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है। एक विषय पर अनेक लघुकथाएं लिखकर। इस श्रृंखला में नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की लघुकथा ये तो नारियल है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #5 – ये तो नारियल है ☆
गंगा घाट पर श्रद्धालुओं की भीड़ जयकारे लगा रही थी – जय गंगा मैया, जय हो पाप नासनी।
भीड़ गंगा में साबुत नारियल फेंक रही थी।
खूब नारियल बिक रहे थे।दूकानदार मौज में गा रहा था- ‘ये तो नारियल है रे__ये तो नारियल है ये।’
श्रद्धालु साबूत नारियल गंगा में फेंक रहे थे।
लोग बहती गंगा से बटोरकर दूकानदार को आधे में नारियल बेच रहे थे।
दुकानदार उन्हें फिर पूरी कीमत में बेच रहा था। मुनाफा ही मुनाफा।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है “लघुकथा – नियति”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 83 ☆
☆ लघुकथा – नियति ☆
“सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,” बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।
“हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथपैर सही हो जाए।”
बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में…..”
“हां हां, जानता हूं अंकल,” कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा! तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”
यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”
“वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,” कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।
(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम साहित्यकारों की पीढ़ी ने उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं।
आपने लघु कथा को लेकर एक प्रयोग किया है। एक विषय पर अनेक लघुकथाएं लिखकर। इस श्रृंखला में नारियल विषय पर हम प्रतिदिन आपकी एक लघुकथा धारावाहिक स्वरुप में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे । आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की लघुकथा घूसखोर। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह एवं प्रतिसाद प्राप्त होगा। )
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – नारियल #4 – घूसखोर ☆
‘भगवान जी यदि मैं पास हो गया तो पूरे ग्यारह नारियल चढ़ाऊंगा।’
एक लड़का भगवान को प्रलोभन दे रहा था।
दूसरा कोई- ‘प्रभु तुम अंतर्यामी हो, मेरी उस लड़की से दोस्ती करा दो, पूरे इंकयावन नारियल चढ़ाऊंगा।’
एक तीसरा भी आ गया- ‘नौकरी लग गयी तो भगवान जी आपकी बल्ले बल्ले हो जाएगी, पूरे एक सो एक नारियल का जुगाड़ है मेरे पास।’
भगवान तो भगवान है, हँसकर भक्तों की भेंट कबूल करते हैं। वे क्या जाने कि आदमी ने उन्हें भी घूसखोर बना दिया है।’
॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’॥
☆ “श्री रघुवंशम् ” हिन्दी पद्यानुवाद # ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆
(प्रिय प्रबुद्ध पाठक गण – अभिवादन! आपने अब तक प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के सत्साहित्य श्रीमद्भगवतगीता एवं महाकवि कालिदास रचित मेघदूतम का पद्यानुवाद आत्मसात किया। आज से हम आपके साथ महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य रघुवंशम का पद्यानुवाद साझा करेंगे। आशा है हमें आपका ऐसा ही अप्रतिम स्नेह एवं प्रतिसाद मिला रहेगा।)
कथासार… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
रघुवंश महाकाव्य कवि कुल गुरू कालिदास की एक प्रमुख तथा प्रौढ़ रचना है . मेघदूत महाकवि की कल्पना की उड़ान का दर्शन कराता है । अभिज्ञान शाकुंतलम् अप्रतिम नाटक है किन्तु रघुवंश और कुमारसंभव उनके वर्णन प्रधान महाकाव्य हैं । जिनमें कल्पना के साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन , मनुष्य के विभिन्न मनोभावों का चित्रण , आदर्श स्थापना और उसके पाने के मानवीय प्रयासों के साथ ही सामाजिक परिवेश में स्वाभाविक कमजोरियों का भी दर्शन होता है । रघुवंश में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में आश्रमों का महत्व , गौ – भक्ति , राजा का अभीष्ट आचरण , दानशीलता , शूरवीरता , जन्मोत्सव , स्वयंवर समारोह , दाम्पत्य प्रेम , युद्ध क्षेत्र का वर्णन , वनस्थलों की शोभा , सरल हृदय ऋषि कन्याओं की वृक्षों और मृग छौनों से सहज आत्मीयता और मृत्यु के दारूण दुख पर संसार की असारता का बोध और स्वजन के वियोग में करूण रूदन आदि जीवन की अनेकानेक मनोदशाओं का सुंदर मधुर भाषा में चित्रण है ।
अपने नाम के अनुकूल ही संपूर्ण ग्रंथ इक्क्षाशु वंश के राजा रघु के वंश का वर्णन है । इसमें विभिन्न राजाओं के जीवन काल की घटनाओं का क्रमिक उल्लेख है । रघुवंश में कुल 19 सर्ग हैं । संक्षेप में प्रत्येक सर्ग का कथ्य इस प्रकार है ।
सर्ग 1 – राजा दिलीप पुत्रहीन होने के कारण दुखी हैं । पुत्र कामना से वे अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित कुल गुरू वशिष्ठ के आश्रम को प्रस्थान करते हैं । पुत्र प्राप्ति हेतु गुरुवर , कामधेनु की पुत्री नंदिनी , जो उनके आश्रम में धेनु है , की सेवा करने का परामर्श देते हैं ।
सर्ग 2 – राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भक्ति भाव से श्रद्धापूर्वक गुरु की गौ , नंदिनी की सेवा में रत हो जाते हैं । नंदिनी को वनचारण के लिए प्रतिदिन ले जाते हैं और निरंतर सुश्रुषा करते हैं । नंदिनी उनकी परीक्षा लेती है जिसमें वे ह्रदय से सेवाभाव रखने के कारण सफल होते हैं । नंदिनी प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देती है और अपना क्षीरपान करने को कहती है । राजा और रानी वरदान प्राप्त कर गुरू आज्ञा ले राजधानी लौटते हैं ।
सर्ग 3 – उन्हें कालांतर में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । जिसका नामकरण रघु किया जाता है । रघु बड़ा होता है । अश्वमेघ यज्ञ किया जाता है जिसमें युवा रघु अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हैं । राजा दिलीप रघु को राज्य प्रदान कर पत्नी सहित वन गमन करते हैं एवं वानप्रस्थ धारण करते हैं ।
सर्ग 4 – पराक्रमी राजा रघु दिग्विजय करते हैं ।
सर्ग 5 – इस सर्ग में राजा रघु की अद्वितीय दानशीलता का वर्णन है । राजा रघु अपना सर्वस्व दान में न्यौछावार कर चुके होते हैं , तब ब्रह्मचारी कौत्स अपने गुरू को दक्षिणा प्रदान करने हेतु राजा से धनराशि की याचना करने उनके समीप पहुंचते हैं । रघु उसे चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राएँ देने हेतु कुबेर पर आक्रमण की तैयारी करते हैं किन्तु कुबेर स्वयं ही स्वर्ण वर्षा कर दान देने हेतु राजा रघु को पर्याप्त धन दे देते हैं । कौत्स को राजा सारा स्वर्ण दे देना चाहते हैं किन्तु कौत्स केवल अपनी आवश्यकता का ही धन लेकर रघु को यशस्वी एवं उनके समान ही सुयोग्य पुत्र पाने का आशीष देकर के बिदा हो जाते हैं । कालांतर में रघु को अज के रूप में सुयोग्य पुत्र प्राप्त होता है ।
सर्ग 6 – इस सर्ग में अज युवावस्था को प्राप्त करते हैं और विदर्भ- राज की पुत्री इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित किये जाते हैं । इंदुमती उन्हें अपना वर चुनती है । विवाह हर्षपूर्वक सम्पन्न होता है ।
सर्ग 7 – इंदुमती स्वयंवर में विफल राजागण विवाहोपरान्त विदाई में लौटते हुए अज – इंदुमती के ऊपर अचानक आक्रमण कर देते हैं । जिससे कि भीषण युद्ध होता है । अज की विजय होती है । राजा अज इंदुमती सहित राजधानी में प्रवेश करते हैं ।
सर्ग 8 – राजा अज के पुत्र दशरथ का जन्म होता है । रानी इंदुमती का पुष्पमाल के आघात से आकस्मिक निधन हो जाता है ।
सर्ग 9 से 15 – दशरथ के पुत्र राम और उनके तीन भाईयों का जन्म होता है । इन सर्गों में संक्षेप में समस्त रामायण की ही कथा कही गई है ।
सर्ग 16 – राम के पुत्र कुश का जन्म व तत्पश्चात् उनका नागकन्या कुमुद्वती से विावह व जलविहार का वर्णन है ।
सर्ग 17 – इस सर्ग में कुश के पुत्र अतिथि के जन्म और उनकी जीवन गाथा का सुन्दर वर्णन है ।
सर्ग 18 – राजा अतिथि के बाद की पीढ़ियों का वर्णन है । इसमें कुल 21 राजाओं की जीवन गाथा सोपानों में चित्रित हैं ।
सर्ग 19 – इसमें राजा सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण की विलासिता वर्णित हैं व उनकी दुःखद मृत्यु का हृदय विदारक चित्रण है । राजा अग्निवर्ण के वर्णन के साथ ही ” रघुवंश ” महाकाव्य की समाप्ति है ।
महाकवि कालिदास , महाकाव्य रघुवंश के माध्यम से राजा रघु की वंशावली का वर्णन करते हैं एवं राजाओं हेतु प्रजावत्सलता , दानशीलता , शूरवीरता और प्रजा के सदाचार व सद्भावना के कल्याणकारी संदेश देते हैं । आचार्यों ने रघुवंश में वर्णित विषय विविधता को ही ध्यान में रखकर महाकाव्य के लक्षणों का निर्धारण स्थापित किया है एवं महाकाव्य की परिभाषा व्यक्त की है । महाकवि कालिदास की लेखनी से लगभग 1600 वर्षों से अधिक समय पूर्व जो काव्य निःसृत हुआ वह आज भी उतना ही रसमय एवं नवीनता लिये हुए है ।
शताब्दियों से संपूर्ण विश्व के विद्वानों ने महाकाव्य रघुवंश की भूरि – भूरि प्रशंसा की है । अनेकों विद्वानों ने काजलयी कृति रघुवंश के रसास्वादन के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन किया । महाकवि कालिदास अद्वितीय थे और आज भी अद्वितीय ही हैं ।