हिन्दी साहित्य- आलेख – ☆ सुविधाओं में सिमटते रिश्ते ☆ सुश्री मालती मिश्रा ‘मयन्ती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

☆ सुविधाओं में सिमटते रिश्ते ☆

 

विधा- रेखाचित्र

आज जिंदगी चलती नहीं दौड़ती है, लोग  बोलते नहीं बकते हैं, आज के दौर में मानव जितनी तेजी से आगे बढ़ता जा रहा है, उतनी ही तेजी से अपना बहुत कुछ पीछे छोड़ता जा रहा है और विडंबना यह है कि उसे इसका आभास तक नहीं। जब सुविधाएँ कम थीं तब आपसी मेलजोल अधिक था, जैसे-जैसे सुविधाएँ बढ़ती गईं वैसे-वैसे मनुष्य अपने आप में सिमटता गया। पहले चाहे आवश्यकताओं के कारण ही सही पर एक-दूसरे से मेल-जोल, आपसी सौहार्द बना रहता था।

आज जब घर-घर में रंगीन टेलीविजन देखती हूँ, जिसपर सैकड़ों चैनल आते हैं, न जाने कितने सीरियल, रियलिटी शो, कॉमेडी शो और न जाने क्या-क्या आता है, तब वो समय याद आ जाता है जब टेलीविजन रखना सिर्फ संपन्न परिवारों की पहचान हुआ करती थी। बल्कि उस समय अधिकतर लोगों की यह सोच थी कि टेलीविजन रखना तो पैसे वालों के ही बस की बात है और उस समय श्वेत-श्याम टेलीविजन में दूरदर्शन चैनल आया करता था जिस पर कुछ ही गिने-चुने सीरियल और सप्ताह में दो दिन फिल्में वो भी देर रात ग्यारह बजे आती थीं। मुझे याद है हम तब फिल्में देखने के लिए कितने व्यग्र हुआ करते थे। देर रात को आने वाली फिल्म के लिए भी जागते रहते थे। रविवार को छुट्टी होने के बावजूद जल्दी इसलिए जाग जाते थे क्योंकि सुबह सात बजे से फिल्मी गीतों का कार्यक्रम ‘रंगोली’ आता था। उस समय हमारे घर में टी. वी. नहीं था तो हम पड़ोस के चाचा जी के घर टी. वी. देखा करते थे और दिन हो या रात सुबह हो या शाम, सभी कार्यक्रम वैसे ही देखते जैसे आजकल अपने घर में। उनके टी. वी. खरीदने का किस्सा मुझे अब भी याद है, एक दिन चाची ने कहा- “मालती मेरे पास कुछ पैसे हैं, जिसे मैंने सोने की चेन खरीदने के लिए जोड़े हैं, पर कभी सोचती हूँ कि टी. वी. खरीद लूँ, तुम्हारे चाचा तो चेन खरीदने को ही कह रहे हैं, पर तुम बताओ क्या खरीदना चाहिए?”

फिर क्या था! टी. वी. का नाम सुन मेरी तो बाँछें खिल गईं और मैं इतनी समझदार तो थी ही कि उनकी इच्छा क्या है ये समझ सकती। मैंने बड़े बुज़ुर्ग की तरह उन्हें समझाना शुरू किया। मैंने कहा-

“चाची चेन मँगवा कर किसे खुश करोगी? सिर्फ खुद को, हमेशा पहनोगी भी नहीं, बक्से में पड़ी रहेगी, सिर्फ मन ही मन में सोचकर खुश हो लोगी कि मेरे पास तो सोने की चेन है। न लोग जानेंगे न घर के किसी सदस्य को कोई संतुष्टि मिलने वाली है, जबकि टी. वी. लाओगी तो खुद भी खुश होगी, चाचा भी, आपके बच्चे भी खुश होंगे और हम लोग भी खुश होंगे, साथ-साथ स्टेटस भी बढ़ेगा वो अलग, तो खुद सोचो कि किस चीज़ की उपयोगिता अधिक है?” मेरा साथ उनके बच्चों ने भी दिया हाँ मम्मी.. हाँ मम्मी करके।

“तो अपने बाबूजी से क्यों नहीं कहती कि एक टेलीविजन ले लें? तुम्हारा भी स्टेटस बढ़ जाएगा, पैसे तो हैं ही उनके पास।” उन्होंने ने कहा।

“आप जानती हो बाबूजी से कहने की हिम्मत हम लोगों की नहीं है, नहीं तो आपसे न कहते।” मैंने कहा।

फिर क्या था! मेरी बात उनकी समझ में आ गई और उनके घर एक ब्लैक एंड व्हाइट टी.वी. आ गया।

अब जो भी कार्यक्रम हमें भाता हम जाकर टी. वी. चलाकर अपने आप देखते। उस समय रामानंद सागर द्वारा प्रस्तुत धारावाहिक ‘रामायण’ समाप्त हो चुका था पर उसका नशा लोगों के मस्तिष्क पर से अभी उतरा नहीं था, इसलिए नया पौराणिक धारावाहिक शुरू हुआ ‘महाभारत’। उस समय चाची का खपरैल की छत और मिट्टी की दीवारों वाला तीन कमरों और बड़े से आँगन और कच्ची लेकिन एक कमरे जितनी बड़ी रसोईघर वाला घर हुआ करता था। उनके कमरे के सामने की दीवार पर अन्य देवी-देवताओं के साथ सीता राम बने अरुण गोविल और दीपिका की फोटो भी उतनी ही श्रद्धा व भक्ति भाव से टँगी थी जितनी अन्य। उस समय लोग टेलीविजन या फिल्मों में जिसे भगवान के रूप में देखते थे उसे ही भगवान की तरह पूजने लगते थे। ऐसा भी नहीं है कि उन्हें सत्य ज्ञात न हो, पर सब कुछ जानते हुए भी वो पत्थर में भी भगवान को मान कर पूजने वाली भावना के वशीभूत थे। कहते हैं न! मानों तो देव नहीं तो पत्थर, इसीलिए वे उन कलाकारों को ही भगवान मान लेते थे।

अब रामायण की लोकप्रियता के बाद महाभारत का दौर चला। हम बच्चे सुबह चाय-नाश्ता, नहाने-धोने आदि के कार्यों से निवृत्त होकर ठीक नौ बजने से दो-चार मिनट पहले ही चाची के घर में टी.वी. के सामने आलथी-पालथी मारकर बैठ जाते। मुझे याद है इससे पहले रामायण देखने मैं लगभग आधा किलोमीटर से थोड़ी ही कम दूरी होगी, हमारे जान-पहचान के एक ठाकुर जी का परिवार था, उनके घर जाया करती थी। पहले टी.वी. जैसी चीज कम घरों में होती थी पर वो घर सभी के लिए खुले होते थे। न ही कोई मना करता था और न ही नाक-भौं चढ़ाते थे, दरअसल पहले रिश्ते और आपसी व्यवहार भौतिक वस्तुओं से अधिक मूल्यवान समझे जाते थे।

उस समय इन धार्मिक सीरियल के प्रति लोग भावनात्मक रूप से जुड़ चुके थे, इसीलिए लोगों के विरोध के भय से KESA विभाग ने भी चाहे चौबीस घंटे बिजली काट रखी हो पर महाभारत के समय बिजली जरूर आती, फिर चाहे महाभारत खत्म होते ही चली जाती। हमने अप्रैल के अंत तक तो निर्बाध रूप से महाभारत देखा परंतु ग्रीष्मावकाश में हम हर वर्ष की भाँति  गाँव चले गए। अब हमारा महाभारत सीरियल छूट जाएगा, इस बात की चिंता होने लगी थी।

गाँव में मेरा पहला रविवार था, सुबह से रह-रहकर मन उदास हो जाता कि आज महाभारत नहीं देख पाएँगे और आज ही क्यों कम से कम जुलाई के आधे माह तक तो हमारा पूरा परिवार गाँव में ही रहते थे, जब धान की रोपाई खत्म हो जाती थी तब बाबूजी हमें लेकर कानपुर वापस जाते थे। वैसे तो हर बार की तरह सबकुछ अच्छा था बस एक टी.वी. और होता तो मजा आ जाता। हम भाई-बहन आने से पहले भी यही चर्चा कर रहे थे और अब सचमुच इस एक कमी ने सारा मजा किरकिरा कर दिया था। लगभग साढ़े आठ बज चुके थे कमबख्त दिमाग था कि कितना भी इधर-उधर के कामों में मन लगाने की कोशिश करती पर घूम-फिर कर बार-बार सोच की सुई महाभारत पर ही जाकर अटक जाती। गाँव की ही एक महिला आईं जिन्हें मैं दादी कहती थी, मुझे पुकार कर बोलीं- “महाभारत देखने चलोगी?” मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, पर अम्मा बोलीं- “हाँ ले जाओ, ये भी मन ही मन महाभारत देखने के लिए बेचैन हो रही है।”

“क्या सचमुच गाँव में किसी के घर टी.वी. है?” मैं आश्चर्यचकित होकर बोली।

“नहीं गाँव में नहीं है, बेलपोखरी स्कूल में है, सब वहीं जाते हैं देखने।” अम्मा बोलीं।

“पर बाबूजी? वो जाने देंगे? मैंने अपना डर व्यक्त किया।

“वो कुछ नहीं कहेंगे, अगर तुम जाना चाहती हो तो जाओ।” अम्मा बोलीं।

ये वही स्कूल है जहाँ मैंने कक्षा तीसरी और चौथी की पढ़ाई की थी, उसके बाद मैं फिर कानपुर चली गई थी। मैं खुशी-खुशी तैयार हो गई, मेरे साथ मेरी दादी और छोटी दादी (बाबू जी की चाची) भी गईं। वह स्कूल हमारे घर से कोई पंद्रह-बीस मिनट की दूरी पर था पर जब कई लोग एक साथ होते हैं तो चलने की गति स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है। लिहाज़ा हम लोग लगभग २५-३० मिनट में पहुँचे। पर स्कूल अब वहाँ बगीचे में नहीं था, जहाँ पहले हुआ करता था, वहाँ तो उसकी कच्ची दीवारों के खंडहर ही थे। मुझे बड़ी हैरानी हुई वहाँ की बोलती खामोशी को देखकर। हम यहाँ महाभारत देखने आए हैं और यहाँ तो शांति की की भी आवाज सुनाई दे रही है। टूटी-फूटी दीवारें कुछ अलग ही महाभारत की कहानी बयाँ कर रही हैं। मैं हतप्रभ थी, मैंने दादी से पूछा कि “ये सब क्या है? स्कूल कहाँ है? यहाँ तो कुछ भी नहीं है।” तब दादी ने बताया कि स्कूल अब गाँव में चला गया है, मैं भी उन सभी का अनुसरण करते हुए बेलपोखरी गाँव तक गई, जो इस बगीचे से मात्र ५ मिनट का रास्ता था। गाँव के बाहर ही स्कूल था भीड़ इतनी थी कि किसी फिल्म हॉल में भी क्या होगी। जगह-जगह लोग बैठे थे कुछ लोग पुआल के ऊँचे ढेरों पर चढ़कर बैठे थे तो जितने आ सकते थे उतने वहाँ खड़े ट्रैक्टर और ट्रॉली पर चढ़कर बैठे थे, कितने ही लोग जगह-जगह खाट डालकर उनपर बैठे थे। टी.वी. स्कूल के बरामदे में ऊँचाई पर इस तरह रखी हुई थी कि दूर-दूर तक बैठे लोगों को दिखाई पड़ सके। नीचे कम से कम सौ-सवा सौ के आस-पास महिलाएँ और बच्चे अपने घरों से लाई बोरियाँ बिछाकर बैठे थे। महाभारत शुरू हो चुका था “मैं समय हूँ…” चल रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कहाँ बैठूँ…जगह ही नहीं थी, दादी लोग तो भीड़ में घुसकर वहीं मिट्टी में जहाँ जगह मिली बैठने लगीं, मुझे भी कहा “यहीं कहीं जगह बनाकर बैठ जाओ” पर मैं उस जगह पर अपने आप को गँवार महसूस कर रही थी और खड़ी होकर इधर उधर जगह देखने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी मेरे आगे से आवाज आई, “अरे मालती तुम यहाँ! आओ..आओ..यहाँ बैठो।” और मैं हतप्रभ हो अपनी जगह से हिले बिना उस लड़की को देखने लगी जिसने पलक झपकते ही अपने आस-पास की लड़कियों को खिसका कर मेरे लिए अपनी ही बोरी पर जगह बना दिया था। “क्या हुआ, तुम पहचानी नहीं हमको? हम लोग तुम्हारे साथ ही तो इसी स्कूल में पढ़ते थे, आओ पहले बैठो।” उसने हाथ से अपने बराबर में खाली की गई जगह पर हथेली मारते हुए संकेत करते हुए कहा। मैं अपने दिमाग पर जोर डालती हुई महिलाओं के बीच से जगह बनाती हुई उस लड़की के पास जाकर बैठ गई। उसने अपने साथ बैठी कुछ लड़कियों का और अपना नाम बताकर खुद का परिचय करवाया और दूसरी अन्य मेरे गाँव की लड़कियों के बारे में पूछा तो मैंने बता दिया कि मैं यहाँ नहीं कानपुर में रहती हूँ, इसलिए किसी के विषय में पता नहीं। छोटे से औपचारिक परिचय के बाद हम चुपचाप महाभारत देखने में खो गए। महाभारत के खत्म होते ही भीड़ रूपी ग्रामीण पुरुष महिलाएँ बच्चे सभी अपनी-अपनी जगह से खड़े हुए और अपने-अपने रास्ते चल दिए। मैं भी जाने को उद्यत हुई तब उस लड़की ने मुझे हर सप्ताह वहीं आकर महाभारत देखने का आमंत्रण देते हुए मेरे लिए जगह सुरक्षित रखने का वादा किया। मैंने भी पुन: आने का वादा किया। भीड़ को देखकर मुझे कानपुर के उस सिनेमा हॉल की याद आ गई जो मिलिट्री कैंट में था और संध्या समय फिल्म खत्म होते ही लोग अपने-अपने घरों के लिए जाते हुए ऐसे प्रतीत होते थे जैसे गाँव में गोधूलि के समय खेतों और चारागाह से घरों की ओर लौटते हुए पशु झुंड के झुंड किंतु एक सीधी कतार में चलते थे’ वैसे ही धनुषाकार  पगडंडी पर चलते हुए लोग दिखाई दे रहे थे मानों दूर तक एक धनुषाकार रेखा सी खिंच गई हो।

अब तो गाँव में भी मेरा मन लग गया क्योंकि अपना प्रिय सीरियल अब छोड़ना नहीं पड़ेगा बल्कि लाइट का भी कोई समस्या नहीं थी क्योंकि टी.वी. जनरेटर से चलती है, और तो और दूर से जाने के कारण बैठने की जगह नहीं मिलेगी यह सोच भी खत्म, अब न सिर्फ जगह मिलेगी बल्कि धूल मिट्टी में भी नहीं बैठना पड़ेगा बल्कि बोरी या चटाई बिछी-बिछाई मिलेगी। दादी लोग भी मेरी उस अंजान सहेली की चर्चा कर रही थीं कि किस प्रकार उसने मेरे लिए जगह बनाई। उनकी बातें सुनकर एक ओर तो मुझे गर्वानुभूति हो रही थी तो दूसरी ओर मस्तिष्क में उहा-पोह मची हुई थी कि आखिर वो लड़की कौन थी? उसने मुझे पहचान लिया पर मुझे वो क्यों याद नहीं आ रही थी? मुझे उस समय अपनी कक्षा की सिर्फ वे लड़कियाँ याद आ रही थीं जो हमारे ही गाँव के दूसरे पुरवा से आती थीं। बेलपोखरी से भी लड़कियाँ पढ़ती थीं पर मुझे उनमें से कोई भी याद नहीं और ये लड़की भी उन्हीं में से थी। मैं हतप्रभ हो रही थी कि लगभग चार-पाँच सालों के बाद भी मैं उन लोगों को अच्छी तरह से याद थी पर अफसोस कि लाख कोशिशों के बाद भी मैं आज तक उन लड़कियों को पहचान नहीं पाई। मैं जब भी सोचती हूँ मन ही मन उन लड़कियों की याददाश्त, उनकी सहृदयता और स्नेह  के प्रति नतमस्तक हो जाती हूँ साथ ही आज भी ग्लानि का अनुभव होता है कि मुझपर शहर में रहने का इतना प्रभाव पड़ा कि मैं हृदयहीन हो अपने साथ पढ़ने वाली उन सहपाठिनों को पहचान भी न सकी।

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #9 – बहू की नौकरी ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज  नौवीं कड़ी में प्रस्तुत है “बहू की नौकरी ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 9 ☆

 

☆ बहू की नौकरी ☆

 

विवाह के बाद बहू को नौकरी करना चाहिये या नही यह वर्तमान युवा पीढ़ी की एक बड़ी समस्या है. बहू नौकरी करेगी या नहीं, निश्चित ही यह बहू को स्वयं ही तय करना चाहिये. प्रश्न है,विचारणीय मुद्दे क्या हों ? इन दिनो समाज में लड़कियों की शिक्षा का एक पूरी तरह गलत उद्देश्य धनोपार्जन ही लगाया जाने लगा है, विवाह के बाद यदि घर की सुढ़ृड़ आर्थिक स्थिति के चलते ससुराल के लोग बहू को नौकरी न करने की सलाह देते हैं तो स्वयं बहू और उसके परिवार के लोग इसे दकियानूसी मानते है व बहू की आत्मनिर्भरता पर कुठाराघात समझते हैं, यह सोच पूरी तरह सही नही है.

शिक्षा का उद्देश्य केवल अर्थोपार्जन नही होता. शिक्षा संस्कार देती है. विशेष रूप से लड़कियो की शिक्षा से समूची आगामी पीढ़ी संस्कारवान बनती है. बहू की शिक्षा उसे आत्मनिर्भरता की क्षमता देती है, पर इसका उपयोग उसे तभी करना चाहिये जब परिवार को उसकी जरूरत हो. अन्यथा बहुओ की नौकरी से स्वयं वे ही प्रकृति प्रदत्त अपने प्रेम, वात्सल्य, नारी सुलभ गुणो से समझौते कर व्यर्थ ही थोड़ा सा अर्थोपार्जन करती हैं. साथ ही इस तरह अनजाने में ही वे किसी एक पुरुष की नौकरी पर कब्जा कर उसे नौकरी से वंचित कर देती हैं. इसके समाज में दीर्घगामी दुष्परिणाम हो रहे हैं, रोजगार की समस्या उनमें से एक है दम्पतियो की नौकरी से परिवारो का बिखराव, पति पत्नी में ईगो क्लैश, विवाहेतर संबंध जैसी कठिनाईयां पनप रही हैं. नौकरी के साथ साथ पत्नी पर घर की ज्यादातर जिम्मेवारी, जो एक गृहणी की होती है, वह भी महिला को उठानी ही पड़ती है इससे परिवार में तनाव, बच्चो पर पूरा ध्यान न दे पाने की समस्या, दोहरी मेहनत से स्त्री की सेहत पर बुरा असर आदि मुश्किलो से नई पीढ़ी गुजर रही है. अतः बहुओ की नौकरी के मामले में मायके व ससुराल दोनो पक्षों के बड़े बुजुर्गो को व पति को सही सलाह देना चाहिये व किसी तरह की जोर जबरदस्ती नही की जानी चाहिये पर निर्णय स्वयं बहू को बहुत सोच समझ कर लेना चाहिये.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #6 – पड़ाव के बाद का मौन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की  चौथी  कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 6 ☆

 

☆ पड़ाव के बाद का मौन ☆

 

एक परिचित के घर बैठा हूँ। उनकी नन्हीं पोती रो रही है। उसे भूख लगी है, पेटदर्द है, घर से बाहर जाना चाहती है या कुछ और कहना चाह रही है, इसे समझने के प्रयास चल रहे हैं।

अद्भुत है मनुष्य का जीवन। गर्भ से निकलते ही रोना सीख जाता है। बोलना, डेढ़ से दो वर्ष में आरंभ होता है। शब्द से परिचित होने और तुतलाने से आरंभ कर सही उच्चारण तक पहुँचने में कई बार जीवन ही कम पड़ जाता है।

महत्वपूर्ण है अवस्था का चक्र, महत्वपूर्ण है अवस्था का मौन..। मौन से संकेत, संकेतों से कुछ शब्द, भाषा से परिचित होते जाना और आगे की यात्रा।

मौन से आरंभ जीवन, मौन की पूर्णाहुति तक पहुँचता है। नवजात की भाँति ही बुजुर्ग भी मौन रहना अधिक पसंद करता है। दिखने में दोनों समान पर दर्शन में जमीन-आसमान।

शिशु अवस्था के मौन को समझने के लिए माता-पिता, दादी-दादा, नानी,-नाना, चाचा-चाची, मौसी, बुआ, मामा-मामी, तमाम रिश्तेदार, परिचित और अपरिचित भी प्रयास करते हैं। वृद्धावस्था के मौन को कोई समझना नहीं चाहता। कुछ थोड़ा-बहुत समझते भी हैं तो सुनी-अनसुनी कर देते हैं।

एक तार्किक पक्ष यह भी है कि जो मौन, एक निश्चित पड़ाव के बाद जीवन के अनुभव से उपजा है, उसे सुनने के लिए लगभग उतने ही पड़ाव तय करने पड़ते हैं। क्या अच्छा हो कि अपने-अपने सामर्थ्य में उस मौन को सुनने का प्रयास समाज का हर घटक करने लगे। यदि ऐसा हो सका तो ख़ासतौर पर बुजुर्गों के जीवन में आनंद का उजियारा फैल सकेगा।

इस संभावित उजियारे की एक किरण आपके हाथ में है। इस रश्मि के प्रकाश में क्या आप सुनेंगे और पढ़ेंगे बुजुर्गों का मौन..?

 

(माँ सरस्वती की अनुकम्पा से 19.7.19 को प्रातः 9.45 पर प्रस्फुटित।)

आज सुनें और पढ़ें किसी बुजुर्ग का मौन।

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©  संजय भारद्वाज , पुणे

[email protected]

विशेष: श्री संजय भारद्वाज जी के व्हाट्सएप पर भेजी गई 19 जुलाई 2019 की  पोस्ट को स्वयं तक सीमित न रख कर अक्षरशः आपसे साझा कर रहा हूँ।  संभवतः आप भी पढ़ सकें किसी बुजुर्ग का मौन? आपके आसपास अथवा अपने घर के ही सही!

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रस्तुत है प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का हिन्दी साहित्य में व्यंग्य विधा पर एक सार्थक आलेख  वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्यकल आपने इस आलेख का प्रथम भाग पढ़ा। आज के अंक में प्रस्तुत कर रहे हैं एवं इसकी अंतिम कड़ी । )

 

☆ वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में व्यंग्य – भाग 2  (अंतिम भाग) ☆

 

कल के अंक से आगे ….

ओम व्यास सफल मंचीय कवि थे. ओम व्यास की रचना

“मज़ा ही कुछ और है”…….
दांतों से नाखून काटने का
छोटों को जबरदस्ती डांटने का
पैसे वालों को गाली बकने का
मूंगफली के ठेले से मूंगफली चखने का
कुर्सी पे बैठ कर कान में पैन डालने का
और डीटीसी की बस की सीट में से स्पंज निकालने का
मज़ा ही कुछ और है
एक ही खूंटी पर ढेर सारे कपड़े टांगने का
नये साल पर दुकानदार से कलैंडर मांगने का
चलती ट्रेन पर चढ़ने का
दूसरे की चिट्ठी पढ़ने का
मांगे हुए स्कूटर को तेज भगाने का
और नींद न आने पर पत्नी को जगाने का
मज़ा ही कुछ और है
चोरी से फल फूल तोड़ने का
खराब ट्यूब लाइट और मटके फोड़ने का
पड़ोसिन को घूर घूर कर देखने का
अपना कचरा दूसरों के घर के सामने फेंकने का
बथरूम में बेसुरा गाने का
और थूक से टिकट चिपकाने का
मज़ा ही कुछ और है
आफिस से देर से आने का
फाइल को जबरदस्ती दबाने का
चाट वाले से फोकट में चटनी डलवाने का
बारात में प्रैस किये हुए कपड़ों को फिर से प्रैस करवाने का
ससुराल में साले से पान मंगवाने का
और साली की पीठ पर धौल जमाने का
मज़ा ही कुछ और है

बलबीर सिंग कुरुक्षेत्र से हैं उनकी एक हास्य रचना…

परीक्षा-हाल में अक्सर मेरा, अंतर्रात्मा से मिलन होता है ।
पेपर तो छात्र देते हैं, परन्तु मूल्यांकन हमारा भी होता है ।
एक दिन गणित के पेपर में, डयूटी मेरी आन लगी थी
समय जैसे ही शुरु हुआ, घण्टी मोबाईल की बोलने लगी थी
मोबाईल को देख सिर मेरा चकराया, क्योंकि फोन था अर्धांगिनी ने लगाया
दहाड़ती हुई शेरनी सी बोली, दूध खत्म हो गया है
जल्दी से घर आ जाओ, मुन्ना भूखा ही सो गया है

काका हाथरसी छंद बद्ध हास्य रचनाओ के सुस्थापित नाम हैं उनकी किताबें काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि,  खिलखिलाहट,  काका तरंग,जय बोलो बेईमान की, यार सप्तक, काका के व्यंग्य बाण आदि सभी किताबें मूलतः हास्य से भरपूर रचनायें हैं. प्रायः काका हाथरसी की कुण्डलियां बहुत चर्चित रही हैं.

कभी मस्तिष्क में उठते प्रश्न विचित्र।
पानदान में पान है, इत्रदान में इत्र।।
इत्रदान में इत्र सुनें भाषा विज्ञानी।
चूहों के पिंजड़े को, कहते चूहेदानी।
कह ‘काका’ इनसान रात-भर सोते रहते।
उस परदे को मच्छरदानी क्योकर कहते।।
‍‍‍‍…….
कुत्ता बैठा कार में, मानव मांगे भीख।
मिस्टर दुर्जन दे रहे, सज्जनमल को सीख।।
सज्जनमल को सीख, दिल्लगी अच्छी खासी।
बगुला के बंगले पर, हंसराज चपरासी।।
हिंदी को प्रोत्साहन दे, किसका बलबुत्ता।
भौंक रहा इंगलिश में, मन्त्री जी का कुत्ता।।

हुल्लड़ मुरादाबादी देश के विभाजन पर पाकिस्तान से विस्थापित होकर मुरादाबाद आये. उनका मूल नाम  सुशील कुमार चड्ढा है. उनके लिए हास्य व्यंग्य की यह  कला बड़ी सहज है. भाषा ऐसी है कि हिन्दी उर्दू में भेदभाव नहीं,  भाव ऐसा है कि हृदय को छू जाए.  समय के साथ हुये तकनीकी परिवर्तनो को हास्य रचनाकारो द्वारा बड़ी सहजता से अपनाया गया. हुल्लड़ जी ने किताबें या मंचीय प्रस्तुतियां ही नही एच एम वी के माध्यम से ई पी, एल पी, कैसेट के माध्यम से भी उनकी हास्य रचनायें प्रस्तुत की और देश के सुदूर ग्रामीण अंचलो तक सुने व सराहे गये.  हुल्लड़ जी  पहले हास्य कवि हैं जिनका (L.P) रेकार्ड एच.एम.वी.कम्पनी ने तैयार किया.

एच.एम.वी.द्वारा रिलीज किए गए हुल्लड़ जी के रिकार्ड हँसी का खजाना,  हुल्लड़ का हंगामा,  कहकहे आदि फेमस हैं.

स्वयं काका हाथरसी के कैसेट के साथ सुरेन्द्र शर्मा के चार लाइणा कैसेट में भी प्रथम स्वर हुल्लड़ जी का ही है।

श्रोताओं को हँसाते खुद रहते गंभीर
कैसेट इनका बज रहा, वहाँ लग रही भीड़
वहाँ लग रही भीड़, खींचते ऐसे खाके
सम्मेलन हिल जाए, इस कदर लगे ठहाके

हुल्लड़ की एक रचना है

चार बच्चों को बुलाते तो दुआएँ मिलतीं,
साँप को दूध पिलाने की जरूरत क्या थी ?

कविता का मूल उद्देश्य केवल हँसी या मनोरंजन ही नहीं होना चाहिए। यदि श्रोता या पाठक को हँसी के अतिरिक्त कुछ संदेश नहीं मिलता तो वह कविता बेमानी है.

अल्‍हड़ बीकानेरी भी उनके समकालीन हास्य व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं. छंद, गीत, गजल और ढ़ेरों पैरोडियों के रचयिता अल्‍हड़ जी ऐसे अनूठे कवि थे, जिन्‍होंने हास्‍य को गेय बनाने की परंपरा की भी शुरुआत की. अल्हड़ जी एक ऐसे छंद शिल्पी थे, जिन्हें छंद शास्त्र का व्यापक ज्ञान था। अपनी पुस्‍तक ‘घाट-घाट घूमे’ में अल्‍हड़ जी लिखते हैं, ”नई कविता के इस युग में भी छंद का मोह मैं नहीं छोड़ पाया हूं, छंद के बिना कविता की गति, मेरे विचार से ऐसी ही है, जैसे घुंघरुओं के बिना किसी नृत्‍यांगना का नृत्‍य….. ” वे अपनी हर कविता को छंद में लिखते थे और कवि सम्‍मेलनों के मंचों पर उसे गाकर प्रस्‍तुत करते थे. यही नहीं गज़ल लिखने वाले कवियों और शायरों के लिए उन्‍होंने गज़ल का पिंगल शास्‍त्र भी लिखा, जो उनकी पुस्‍तक ‘ठाठ गज़ल के’ में प्रकाशित हुआ।

अल्‍हड़ जी की प्रतिभा और लगन का ही करिश्‍मा था कि सन् 1970 आते-आते वे देश में एक लोकप्रिय हास्‍य कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। काव्‍य गुरू श्री गोपाल प्रसाद व्‍यास जी के मार्गदर्शन में अल्‍हड़ जी ने अनूठी हास्‍य कवितायें लिख कर उनकी अपेक्षाओं पर अपने को खरा साबित किया। अल्‍हड़ जी ने हिन्‍दी हास्‍य कविता के क्षेत्र में जो विशिष्‍ट उपलब्धियां प्राप्‍त कीं, उनमें ‘साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान’ के सम्‍पादक श्री मनोहर श्‍याम जोशी, ‘धर्मयुग’ के सम्‍पादक श्री धर्मवीर भारती और ‘कादम्बिनी’ के संपादक श्री राजेन्‍द्र अवस्‍थी की विशेष भूमिका रही। अल्‍हड़ जी अपनी हास्‍य कविताओं में सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तीखा प्रहार किया। अपनी बात को कविता के माध्‍यम से वे बहुत ही सहज रूप से अभिव्‍यक्‍त करते थे।  अल्‍हड़ बीकानेरी ने हास्‍य- व्‍यंग्‍य कवितायें न सिर्फ हिन्‍दी बल्कि ऊर्दू, हरियाणवी संस्कृत भाषाओं में भी लिखीं और ये रचनायें कवि-सम्‍मेलनों में अत्‍यंत लोकप्रिय हुईं। उनके पास कमाल का बिंब विधान था। राजनीतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में उनकी यह टिप्‍पणी देखिए :

”उल्‍लू ने बढ़ के हंस की थामी नकेल है
कुदरत का है कमाल मुकद़्दर का खेल है”

इसी तरह महंगाई पर पौराणिक संदर्भों का सहारा लेकर वे खूबसूरती से अपनी बात कहते हैं:

”बूढ़े विश्‍वामित्रों की हो सफल तपस्‍या कैसे
चपल मेनका-सी महंगाई फिरे फुदकती ऐसे

माणिक वर्मा का जन्म मध्यप्रदेश के खंडवा में हुआ था। वे हास्य व्यंग्य की गद्य कविता के लिए जाने जाते हैं।

सब्जी वाला हमें मास्टर समझता है
चाहे जब ताने कसता है

‘आप और खरीदोगे सब्जियां!
अपनी औकात देखी है मियां!

ओम प्रकाश आदित्य की गजल है….

छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएंगे।
शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएंगे।

शैल चतुर्वेदी की अनेक किताबें छपीं. वे अपने डील डौल से ही मंचो पर हास्य का माहौल बना देते हैं.  उनकी एक रचना

जिन दिनों हम पढ़ते थे
एक लड़की हमारे कॉलेज में थी
खूबसूरत थी, इसलिए
सबकी नॉलेज में थी
मराठी में मुस्कुराती थी
उर्दू में शर्माती थी
हिन्दी में गाती थी
और दोस्ती के नाम पर
अंग्रेज़ी में अँगूठा दिखाती थी

इसी तरह प्रदीप चौबे की एक रचना

हर तरफ गोलमाल है साहब
आपका क्या खयाल है साहब
लोग मरते रहें तो अच्छा है
अपनी लकड़ी की टाल है साहब
आपसे भी अधिक फले फूले
देश की क्या मजाल है साहब
मुल्क मरता नहीं तो क्या करता
आपकी देखभाल है साहब
रिश्वतें खाके जी रहे हैं लोग
रोटियों का अकाल है साहब

प्रदीप चौबे की यह रचना हिन्दी  गजल या हजल के सांचे में है.

हास्य कविता की धार को व्यंग्य से  पैना करने वाले, शब्दों के खिलाड़ी  अशोक चक्रधर की  एक कविता

नदी में डूबते आदमी ने
पुल पर चलते आदमी को
आवाज लगाई- ‘बचाओ!’
पुल पर चलते आदमी ने
रस्सी नीचे गिराई
और कहा- ‘आओ!’
नीचे वाला आदमी
रस्सी पकड़ नहीं पा रहा था
और रह-रह कर चिल्ला रहा था-
‘मैं मरना नहीं चाहता
बड़ी महंगी ये जिंदगी है
कल ही तो एबीसी कंपनी में
मेरी नौकरी लगी है।’
इतना सुनते ही
पुल वाले आदमी ने
रस्सी ऊपर खींच ली
और उसे मरता देख
अपनी आंखें मींच ली
दौड़ता-दौड़ता
एबीसी कंपनी पहुंचा
और हांफते-हांफते बोला-
‘अभी-अभी आपका एक आदमी
डूब के मर गया है
इस तरह वो
आपकी कंपनी में
एक जगह खाली कर गया है
ये मेरी डिग्रियां संभालें
बेरोजगार हूं
उसकी जगह मुझे लगा लें।’
ऑफिसर ने हंसते हुए कहा-
‘भाई, तुमने आने में
तनिक देर कर दी
ये जगह तो हमने
अभी दस मिनिट पहले ही
भर दी
और इस जगह पर हमने
उस आदमी को लगाया है
जो उसे धक्का देकर
तुमसे दस मिनिट पहले
यहां आया है।’

बेरोजगारी पर यह तंज जहाँ हंसाता है वहीं झकझोरता भी है. अशोक चक्रधर की हास्य कवितायें कई फ्रेम में कसी गई हैं, पर अधिकांश मुक्त छंद ही हैं.

पद्मश्री  सुरेंद्र शर्मा हिंदी की मंचीय कविता में स्वनाम धन्य हैं, वे हरियाणवी बोली में चार लाईणा सुनाकर और अधिकांशतः अपनी पत्नी को व्यंग्य का माध्यम बनाकर कविता करते हैं.

हमने अपनी पत्नी से कहा-
‘तुलसीदास जी ने कहा है-
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी
ये सब ताड़न के अधिकारी
-इसका अर्थ समझती हो
या समझाएं?’
पत्नी बोली-
‘इसका अर्थ तो बिल्कुल ही साफ है
इसमें एक जगह मैं हूं
चार जगह आप हैं।’

मण्डला के प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध जी की पहचान मूलतः संस्कृत ग्रंथो के हिन्दी काव्यअनुवाद तथा समसामयिक विषयो पर देश प्रेम की भावना वाली कविताओ को लेकर है, उनकी एक संदेश पूर्ण व्यंग्य कविता है…

हो रहा आचरण का निरंतर पतन,राम जाने कि क्यो राम आते नहीं
हैं जहां भी कहीं हैं दुखी साधुजन देके उनको शरण क्यों बचाते नहीं

मेरे हास्य व्यंग्य सारे देश के अखबारो में संपादकीय पृष्ठ पर छप रहे हैं. व्यंग्य लेखो व व्यंग्य नाटको की मेरी कई  किताबें छप चुकी हैं. मेरी व्यंग्य कविता की ये पंक्तियां उद्धृत हैं…

फील गुड
सड़क हो न हो मंजिलें तो हैं फील गुड
अपराधी को सजा मिले न मिले
अदालत है, पोलिस भी है सो फील गुड
उद्घाटन हो पाये न हो पाये
शिलान्यास तो हो रहे हैं लो फील गुड

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है.  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देखने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा  की दिल को  चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.

आज के एक स्थापित व्यंग्यकार स्व सुशील सिद्धार्थ  एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर  नियति को उन्हें  अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके  अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे. उन्होने व्यंग्यकारो के बचपन के संस्मरण किताब के रूप में सहेजे.

आज पत्रिकाओ की आम पाठक तक पहुंच कम हो गई है, अखबार ही पाठक की साहित्यिक भूख शांत करने की जबाबदारी उठा रहे हैं, दूसरा पक्ष यह भी है कि पत्रिका में व्यंग्य छपने में समय लगता है, तब तक समसामयिक रचना पुरानी हो जाती है, इसके विपरीत अखबार फटाफट रचना प्रकाशित कर देते हैं. प्रकाशन की सुविधायें बढ़ी हैं, परिणामतः शाश्वत रचनाओ के अभाव में भी व्यंग्य लेखो की पुस्तकें लगातार बड़ी संख्या में छप रही हैं. सोशल मीडीया पर व्यंग्यकार फेसबुक, व्हाट्सअप ग्रुप बनाकर जुड़े हुये हैं, जुगलबंदी के जरिये  व्यंग्य लेखन को प्रोत्साहन मिल रहा है.  अपनी तमाम साहित्यिक, समाज की व्यापारिक सीमाओ के बाद भी व्यंग्य विधा और जागरूक व्यंग्यकार अपने साहित्यिक सामाजिक दायित्व निभाने में जुटे हुये हैं.   वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में यह व्यंग्य का सकारात्मक पहलू है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 1 – स्वयं की खोज में ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   स्वयं की खोज में।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – #1  ☆

 

☆ स्वयं की खोज में  

 

दीवाली या दीपावली शब्द में, ‘दीप’ का अर्थ है प्रकाश और ‘अवली’ का अर्थ है पंक्ति ।तो दिवाली/दीपावली का अर्थ है रोशनी की पंक्ति । दिवाली हिन्दुओं का सबसे प्रमुखएवं बड़ा, रोशनी का त्यौहार है । यह त्यौहार भारत और अन्य देशों में जहाँ भी हिंदू रहते हैं हर साल शरद ऋतु, अक्टूबर या नवंबर माह में मनाया जाता है । आध्यात्मिक रूप से दिवाली त्यौहार अंधेरे पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई, अज्ञानता पर ज्ञान, जुनून पर शांति, और निराशा पर आशा की जीत को दर्शाता है । लोग दिवाली की रात्रि सभी जगहों, बाहरी दरवाजे और खिड़कियों, मंदिरों के आसपास, इमारतों आदि में मिटटी  के दीपक जला कर जश्न मनाते  है। दिवाली की रात्रि चारो ओर चमकीले लाखों रोशनी के पुंज बहुत भव्य दिखाई देते हैं ।

इस त्यौहार की तैयारी और अनुष्ठान आम तौर पर पाँच दिनों तक होते हैं (कुछ स्थानों जैसे महाराष्ट्र में छह दिनों तक) । लेकिन दिवाली की मुख्य उत्सव रात्रि हिंदू चंद्र सौर माह ‘कार्तिक’ की सबसे अंधेरी, अमावस्या (नई चंद्रमा की रात्रि ) को होती है । दीवाली रात्रि  मध्य अक्टूबर और मध्य नवंबर के बीच होती है ।

दिवाली की रात्रि से पहले, लोग अपने घरों और कार्यालयों को कई अलग-अलग तरीकों से साफ, पुनर्निर्मित और सजाते हैं । दिवाली की रात्रि  को, लोग नए कपड़े पहनते हैं, अपने घर के अंदर और बाहर प्रकाश के लिए दीये (मिट्टी का दीपक) और मोमबत्तियां जलाते हैं, परिवार के साथ देवी लक्ष्मी जी (प्रजनन क्षमता और समृद्धि की देवी) एवं गणेश जी की पूजा (प्रार्थना) में भाग लेते हैं । पूजा के बाद, बच्चे और बड़े मिलकर आतिशबाजी चलाते हैं, फिर सब मिलकर मिठाई और कई अन्य स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों को परिवार के सदस्यों के साथ खाते हैं और करीबी दोस्तों एवं रिश्तेदारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान होता है । दीपावली के आसपास का समय एक प्रमुख खरीदारी अवधि को भी चिह्नित करता है । भारत के क्षेत्र के आधार पर उत्सव के दिनों के साथ-साथ दिवाली के कुछ महत्वपूर्ण अनुष्ठान हिंदुओं के बीच कुछ भिन्न भिन्न रूप से होते हैं । भारत के कई हिस्सों में, दिवाली उत्सव गोवत्स द्वादशी से शुरू होते हैं, इस दिन गायों और बछड़ों की पूजा की जाती है । अगले दिन भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग  में धनतेरस होती है। (अधिकतर लोग धनतेरस से दिवाली उत्सव शुरू करते हैं और दिवाली उत्सव की प्रार्थना का पहला दिन गोवत्स द्वादशी को नहीं मानते हैं बल्कि धनतेरस को ही पहला दिन मानते हैं) उससे अगला तीसरा दिन नर्क चतुर्दशी के नाम से मनाया जाता है चौथा दिन दिवाली के रूप में मनाया जाता है पाँचवा दिन गोवर्धन या गोबर्धन पूजा (गोबार अर्थात गाय का गोबर, क्योंकि पुराने समय में गांवों में लोग गाय के गोबर का प्रयोग बहुत से कार्यो में करते थे और उसमे कई औषधिय गुण भी होते हैं और उस समय में और कई जगह आज भी गाय के गोबर को भी एक प्रकार का धन ही माना जाता है) के नाम से मनाया जाता है जो की पति एवं पत्नी के रिश्ते को समर्पित है ।

छठे दिन भाई दूज, जो बहन-भाई के संबंध को समर्पित है, के साथ उत्सव समाप्त होता है । धनतेरस आमतौर पर दशहरा के अठारह दिन बाद आता है । जिस रात्रि हिन्दू दिवाली मनाते हैं उसी रात्रि, जैन भी भगवान महावीर द्वारा मोक्ष की प्राप्ति को चिन्हित करने के लिए दिवाली नामक त्यौहार मनाते हैं एवं दिवाली के दिन ही सिख लोग मुगल साम्राज्य की जेल से गुरु हरगोबिंद जी की मुक्तई को चिन्हित करने के लिए ‘बंधी छोड़ दिवस’ मनाते हैं ।

दिवाली हिंदू कैलेंडर महीने कार्तिक में ग्रीष्मकालीन फसल कटने के बाद त्यौहार के रूप में भारत में प्राचीन काल से मनाया जाता है । दिवाली त्यौहार का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों जैसे पद्म पुराण और स्कंद पुराण में किया गया है- दोनों ग्रन्थ सहस्राब्दी ईस्वी के दूसरे छमाही में पूरा हुए थे, लेकिन माना जाता है कि इन ग्रंथो का पहले के युग के मुख्य लेखन से विस्तार किया गया था।  स्कन्द पुराण में दीया (मिट्टी का दीपक) का उल्लेख प्रतीकात्मक रूप से सूरज के कुछ हिस्सों को दर्शाता है- जो सभी के जीवन के लिए प्रकाश और ऊर्जा का ब्रह्मांडीय दाता हैं, एवं अंधेरे के डर को दूर करने के लिए हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में मौसमी रूप से संक्रमण करता है । भारत के कुछ क्षेत्रों में हिंदू कार्तिक अमावस्या (दिवाली रात्रि) पर यम और नचिकेता (ज्ञान की अग्नि) की किंवदंती के साथ दिवाली को जोड़ते हैं ।कठ उपनिषद में नचिकेता की कहानी, सही बनाम गलत, वास्तविक धन बनाम क्षणिक धन, और अज्ञान बनाम ज्ञान, के वास्तविक अंतर के रूप में दर्ज की गई है । दुनिया भर के सबसे ज्यादा हिंदू भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण के 14 साल वन में रहने के बाद भगवान राम के द्वारा राक्षस राजा रावण को पराजित करने के बाद भगवान राम, उनकी पत्नी देवी सीता और उनके भाई लक्ष्मण की अयोध्या वापसी के सम्मान में दिवाली मनाते हैं । लंका से भगवान राम, देवी सीता और लक्ष्मण की वापसी का सम्मान करने के लिए, और अपने मार्ग को उजागर करने के लिए, ग्रामीणों ने बुराई पर भलाई की जीत का जश्न मनाने के लिए सबसे पहले मिट्टी के दीये जलाये और तब ही से दिवाली मनाने का चलन शुरू माना जाता है । कुछ लोगों के लिए महाभारत के अनुसार, दीवाली को पांडवों के बारह वर्षों के वनवास (निर्वासन) और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद की वापसी के जश्न के रूप में मनाते हैं ।इसके अतरिक्त, दीपावली को देवी लक्ष्मी के उत्सव से जोड़ा जाता है, जिनकी हिन्दुओं में धन और समृद्धि की देवी के रूप में पूजा की जाती है, और जो भगवान विष्णु की पत्नी है । दिवाली का 5 दिवसीय त्यौहार उस दिन शुरू होता है जब देवी लक्ष्मी का जन्म, सुर (देवता) और असुर (राक्षसों) द्वारा दूध के लौकिक महासागर के मंथन से हुआ था (धन तेरस); जबकि दिवाली की रात्रि  वह दिन है जब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को अपने पति के रूप में चुना और उनका विवाह हुआ था ।

दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी के साथ साथ भक्त, भगवान गणेश को प्रसाद अर्पित करते हैं, जो नैतिक शुरुआत और बाधाओं को निडरता से हटाने के प्रतीक हैं । एवं देवी सरस्वती, जो संगीत, साहित्य और शिक्षा की प्रतीक हैं और भगवान कुबेर, जो पुस्तक रखने, छुपा खजाना और धन प्रबंधन का प्रतीक है,की भी पूजा करते हैं । अन्य हिंदुओं का मानना ​​है कि दीवाली वह दिन है जब भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी वैकुंठ में उनके निवास स्थान पर आये थे । जो लोग दिवाली के दिन देवी लक्ष्मी की पूजा करते हैं उन्हें लक्ष्मी माँ की अच्छी मनोदशा का लाभ मिलता है, और इसलिए आगे के वर्ष के लिए मानसिक और भौतिक कल्याण का आशीर्वाद मिलता है । भारत के पूर्वी क्षेत्र, जैसे ओडिशा और पश्चिम बंगाल में हिंदू, दिवाली की रात्रि देवी लक्ष्मी के बजाय देवी काली की पूजा करते हैं, और त्यौहार को काली पूजा कहते हैं ।

गोवर्धन के दिन भारत के ब्रज और उत्तर मध्य क्षेत्रों में, भगवान कृष्ण व्यापक रूप से पूज्येहैं। इस दिन लोग गोवर्धन पर्वत की प्रार्थना करते हैं । भारत के कुछ क्षेत्रों में, गोवर्धन पूजा (या अनाकूट) के दिन, कृष्ण भगवान को 56 या 108 विभिन्न व्यंजनो का भोग लगाया जाता है और प्रसाद वितरित किया जाता है । पश्चिम और भारत के कुछ उत्तरी हिस्सों में, दिवाली का त्यौहार एक नए हिंदू वर्ष की शुरुआत को चिन्हित करता है ।

 

© आशीष कुमार  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 8 ☆ दोस्ती क्या? ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनका  विचारणीय आलेख  “दोस्ती क्या?”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 8 ☆

 

☆ दोस्ती क्या? ☆

 

प्यार, वफ़ा, दोस्ती के/सब किस्से पुराने हो गए/एक छत के नीचे रहते हुए/एक-दूसरे से बेग़ाने हो गए/ अजब-सा है व्याकरण ज़िन्दगी का/हमें खुद से मिले जमाने हो गए/यह फ़साना नहीं, हक़ीक़त है जिंदगी की,आधुनिक युग की….जहां इंसान एक-दूसरे से आगे बढ़ जाना चाहता है, किसी भी कीमत पर…. जीवन मूल्यों को ताक पर रख, मर्यादा को लांघ, निरंतर बढ़ता चला जाता है। यहां तक कि वह किसी के प्राण लेने में तनिक भी गुरेज़ नहीं करता। औचित्य -अनौचित्य व मानवीय सरोकारों से उसका कोसों दूर का नाता भी नहीं रहता। रिश्ते-नाते आज कल मुंह छिपाए जाने किस कोने में लुप्त हो गए हैं।

प्यार, वफ़ा, दोस्ती अस्तित्वहीन हो गये हैं, क्योंकि संसार में केवल स्वार्थ का बोलबाला है। आज के प्रतिस्पर्धात्मक युग में चारों ओर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अविश्वास, संत्रास आदि का भयावह वातावरण सुरसा के मुख की भांति निरंतर फैलता जा रहा है तथा स्नेह, सौहार्द, त्याग, करुणा, परोपकारादि भावनाओं को अजगर की भांति लील रहा है।

इन विषम परिस्थितियों में संशय, संदेह व आशंका के कारण, केवल दूरियां ही, नहीं बढ़ती जा रहीं, मानव भी आत्म-केंद्रित हो रहा है। एक छत के नीचे रहते हुए पति-पत्नी के मध्य पसरा मातम-सा सन्नाटा, अजनबीपन का अहसास, संवादहीनता का परिणाम है, जो मानव को संवेदन-शून्यता के कग़ार पर लाकर नितान्त अकेला छोड़ देता है और मानव एकांत की त्रासदी झेलता हुआ अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाता है। उसे कोई भी अपना नहीं लगता क्योंकि उसकी संवेदनाएं, अहसास, जज़्बात उसे मृत्तप्राय: प्रतीत होते हैं…किसी वे किसी दूसरे लोक के भासते हैं।

वह लौट जाना चाहता है, अतीत की स्मृतियों में….

जहां उसे बचपन की धमाचौकड़ी,मान-मनुहार,पल- प्रति पल बदलते मनोभावों की यादें आहत-विकल करती हैं। युवावस्था की दोस्ती एक-दूसरे पर जान लुटाने तथा मर-मिटने की कसमें, उसके अंतर्मन को कचोटती हैं। वह निश्छल प्रेम की तलाश में भटकता रहता है, जो समय के साथ नष्ट हो चुकी होती हैं। मानव उसे पा लेना चाहता है,जो कहीं नि:सीम गगन में लुप्त हो चुका होता है, जिसे पाना कल्पनातीत व असंभव हो जाता है। वे नदी के दो किनारों की भांति कभी मिल नहीं सकते, परंतु क्षितिज के उस पार मिलते हुए दिखाई पड़ते हैं। परंतु उसकी अंतहीन  तलाश सदैव जारी रहती है।

सुक़ून के चन्द पलों की तलाश में वह आजीवन भटकता रहता है, जहां उसके हाथ केवल निराशा ही लगती है। वह स्वयं से बेखबर, अजनबी सम बनकर रह जाता है। वह मृग-मरीचिका सम भौतिक सुख- सुविधाओं की तलाश में निरंतर भटकता रहता है और एक दिन इस संसार को अलविदा कह रुख़्सत हो जाता है, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

काश! इंसान का अंतर्मन दैवीय गुणों से लबरेज़ से रहता और सहृदयता व सदाशयता को जीवन में धारण कर, अहं को शत्रु सम त्याग देता,तो विश्व में समन्वय,सामंजस्य व समरसता का सुरम्य वातावरण रहता। किसी के मन में किसी के प्रति शत्रुता-प्रतिद्वंद्विता का भाव न रहता…चारों ओर शांति का साम्राज्य प्रतिस्थापित रहता। वह मौन को सर्वश्रेष्ठ स्वीकार, नवनिधि सम संजो कर रखता व आत्मलीन रहता…. अंतरात्मा के आदेश को स्वीकारता। इस स्थिति में वह राग-द्वेष, स्व-पर से निज़ात पा लेता। उसे प्रकृति के कण-कण में परमात्म-सत्ता का आभास होता। वह संत एकनाथ की भांति कुत्ते में भी प्रभु के दर्शन पाता और रोटी पर घी लगाकर उसे रोटी खिलाने के लिए पीछे-पीछे दौड़ता। वह हर पल अनहद नाद की मस्ती में खोया अलौकिक आनंद को प्राप्त होता क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है …जीते जी मुक्ति पाना।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ गुरु पुर्णिमा ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

गुरु पुर्णिमा विशेष 

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी का  गुरु पुर्णिमा के अवसर पर  विशेष  लेख।  )

 

☆ गुरु पुर्णिमा ☆

 

अगर हम मानव जीवन का परम उद्देश्य कहना चाहे तो हम कह सकते हैं कि उसका एक मात्र उद्देश सुख और आनंद प्राप्त करना है। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता है। इसके लिए वह सभी प्रकार के कर्मों का चुनाव अपने आप करता है। परंतु उसके आनंद और सुख की वृद्धि प्रथम पूज्य गुरु के श्री चरणों से ही शुरू होती है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाता है। इस पृथ्वी पर सभी ब्रम्हांड के गुरु भगवान वेदव्यास जी का अवतरण हुआ था। वेद व्यास जी ने ज्ञान के प्रकाश को चारों  ओर फैलाया। मनुष्य का जीवन तो माता-पिता के कारण होता है। परंतु इस जीवन रूपी काया को संस्कारी कर उसे अपने लक्ष्य पर पहुंचाने का कार्य गुरुदेव के कारण ही होता है। हमारे रामचरितमानस ग्रंथ में गुरु की महिमा का बखान करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरु वंदना से ही इसे आरंभ किया।

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥

अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

 

श्री गुर पद नख मनि गन जोती।
सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥2॥

भारतवर्ष में सदियों से सनातन धर्म और गुरुकुल की महत्ता रही है। गुरु शक्ति और शिक्षा के कारण ही एक से बढ़कर एक विद्वान, वीर और गुणवान महापुरुष हुए भगवान राम को राम बनवाने में गुरु विश्वामित्र का, अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर बनाने में गुरु द्रोण का और एकलव्य की गुरु भक्ति को कौन नहीं जानता है। द्वापर में कृष्ण जी ने संदीपनी गुरु जी से शिक्षा ग्रहण किया। उज्जैन में आज भी लोग संदीपनी आश्रम के दर्शन करने जरूर जाते हैं।

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय |

बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय ||

भगवान स्वयं कहते हैं कि यदि गुरु और भगवान दोनों खड़े हों तो, पहले आप गुरु का वंदन कीजिए। ईश्वर की पूजा अपने आप हो जाएगी। गुरु के सानिध्य से जीवन की दशा और दिशा दोनों सुधर जाती हैं। गुरु का ज्ञान एक दिव्य प्रकाश पुंज है जो हमेशा सही और सुखद मार्गदर्शन कराता है। वेद आदि और अनंत है। वेद का ज्ञान पूरा होना कभी भी संभव नहीं होता। भगवान वेदव्यास ने इसे सरल कर चार भागों में विभाजित किया:- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इसे जनमानस के लिए प्रसारित किया और सरल रुप दे कर उसे वर्गीकृत किया। इसलिए उन्हें भगवान वेदव्यास कहा गया और उनके जन्मदिवस को गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाया जाने लगा। गुरु से मिलन परमात्मा का मिलन होता है। गुरु हमारे कुशल मार्गदर्शक हैं। ध्यान, भक्ति, प्रेम, समर्पण, त्याग, संतोष, दया, यह सभी भाव गुरु भक्ति से ही उत्पन्न और सिखाया जाता है। गुरु हमारे अंतर में अंधकार को हटाकर एक दिव्य प्रकाश ज्योति की ओर ले जाते हैं। गुरु के  प्रति सच्ची श्रद्धा भाव और समर्पित श्रद्धा सुमन ही हमारी सच्ची गुरु भक्ति है। गुरु पूर्णिमा को जिनके के कारण हमारा जीवन आलोक कांतिमय बनता है। उसे हर्षोल्लास  पूर्वक मनाना चाहिए। नवयुग का आगमन हो या नव चेतना का संचार हो गुरु सदैव हमारे मार्गदर्शक रहेंगे। समूचे विश्व में गुरु को……

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकर रूपिणम्।

यमाश्रितो हि बक्रो पि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते।।

कहकर संबोधित करना चाहिए

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #8 – आपदा प्रबंधन ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज आठवीं  कड़ी में प्रस्तुत है “आपदा प्रबंधन ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 8 ☆

 

☆ आपदा प्रबंधन ☆

 

आपदा प्रबंधन का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि आज अनेक संस्थायें इस विषय में एम.बी.ए. सहित अनेक पाठ्यक्रम चला रहे हैं।  जापान या अन्य विकसित देशों में आबादी का घनत्व भारत की तुलना में बहुत कम है। अतः वहाँ आपदा प्रबंधंन अपेक्षाकृत सरल है। हमारी आबादी ही हमारी सबसे बड़ी आपदा है, किन्तु , दूसरी ओर छोटे-छोटे बिखरे हुए गांवों की बढी संख्या से बना भारत हमें आपदा के समय किसी बडे नुकसान से बचाता भी है।

आम नागरिकों में आपदा के समय किये जाने वाले व्यवहार की शिक्षा बहुत आवश्यक है। संकट के समय संयत व धैर्यपूर्ण व्यवहार से संकट का हल सरलता से निकाला जा सकता है। नये समय में प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ मनुष्य निर्मित यांत्रिक आकस्मिकता से उत्पन्न दुर्घटनाओं की समस्यायें बड़ी होती जा रही है। जैसे भोपाल गैस त्रासदी हुई थी तथा हाल ही जापान में न्यूक्लियर रियेक्टर में विस्फोट की घटना हुई है। खदान दुर्घटनायें, विमान, रेल व सडक दुर्घटनायें, आंतकवादी तथा युद्ध की आपदायें हमारी स्वंय की तेज जीवनशैली से उत्पन्न आपदायें है। प्राकृतिक आपदाओं में बाढ, चक्रवात, भूकंप, सुनामी, आग की दुर्घटनायें सारे देश में जब-तब होती रहती हैं। इनसे निपटने के लिये सामान्य प्रशासन, पुलिस, अग्निशमन व स्वास्थ्य सेवाओं को ही सरकारी तौर पर प्रयुक्त किया जाता है। जरूरत है कि आपदा प्रबंधंन हेतु अलग से एक विभाग का गठन किया जाये।

फायर ब्रिगेड व एम्बुलेंस से झूठी खबरों के द्वारा मजाक करना, लोगो के असंवेदनशील  व्यवहार का प्रतीक है। भेड़िया आया भेड़िया आया वाला मजाक कभी बहुत महँगा  भी पड़ सकता है। इंटरनेट, मोबाइल व रेडियो के माध्यम से आपदा प्रबंधंन में नये प्रयोग किये जा रहे हैं। हमें यही कामना करनी चाहिए कि आपदा प्रबंधंन इतना सक्षम हो जिससे दुर्घटनायें हो ही नहीं।

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #5 – वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

इस आलेख को हम देवशयनी (आषाढ़ी) एकादशी के पावन पर्व पर साझा करना चाहते थे। किन्तु, मुझे पूर्ण विश्वास है कि- आपको यह आलेख निश्चित ही आपकी वारी से संबन्धितसमस्त जिज्ञासाओं की पूर्ति करेगा। आज के  विशेष आलेख के बारे में मैं श्री संजय भारद्वाज जी के शब्दों को ही उद्धृत करना चाहूँगा।)

??  मित्रो, विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि वारी पर बनाई गई फिल्म और इस लेख ने विशेषकर गैर मराठीभाषी नागरिकों के बीच वारी को पहुँचाने में टिटहरी भूमिका निभाई है। यह लेख पचास से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है। अधिकांश मित्रों ने पढ़ा होगा। आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी।

– संजय  भारद्वाज  ????

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 5 ☆

 

☆ वारी-लघुता से प्रभुता की यात्रा ☆

 

 

भारत की अधिकांश परंपराएँ ऋतुचक्र से जुड़ी हुई एवं वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरने वाली हैं। देवता विशेष के दर्शन के लिए पैदल तीर्थयात्रा करना इसी परंपरा की एक कड़ी है। संस्कृत में तीर्थ का शाब्दिक अर्थ है-पापों से तारनेवाला। यही कारण है कि  तीर्थयात्रा को मनुष्य के मन पर पड़े पाप के बोझ से मुक्त होने या कुछ हल्का होने का मार्ग माना जाता है। स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ।

स्थावर तीर्थ की पदयात्रा करने की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध वारी इस परंपरा का स्थानीय संस्करण है।

पंढरपुर के विठ्ठल को लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले  महाराष्ट्र के प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में मान्यता मिली। तभी से खेतों में बुआई करने के बाद पंढरपुर में विठ्ठल-रखुमाई (श्रीकृष्ण-रुक्मिणी) के दर्शन करने के लिए पैदल तीर्थ यात्रा करने की परंपरा जारी है। श्रीक्षेत्र आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की चरणपादुकाएँ एवं श्रीक्षेत्र देहू से तुकाराम महाराज की चरणपादुकाएँ पालकी में लेकर पंढरपुर के  विठोबा के दर्शन करने जाना महाराष्ट्र की सबसे बड़ी वारी है।

पहले लोग व्यक्तिगत स्तर पर दर्शन करने जाते थे। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, स्वाभाविक था कि संग से संघ बना। 13 वीं शताब्दी आते-आते वारी गाजे-बाजे के साथ समारोह पूर्वक होने लगी।

वारी का शाब्दिक अर्थ है-अपने इष्ट देवता के दर्शन के लिए विशिष्ट दिन,विशिष्ट कालावधि में आना, दर्शन की परंपरा में सातत्य रखना। वारी करनेवाला ‘वारीकर’ कहलाया। कालांतर में वारीकर ‘वारकरी’ के रूप में रुढ़ हो गया। शनैःशनैः वारकरी एक संप्रदाय के रूप में विकसित हुआ।

अपने-अपने गाँव से सीधे पंढरपुर की यात्रा करने वालों को देहू पहुँचकर एक साथ यात्रा पर निकलने की व्यवस्था को जन्म देने का श्रेय संत नारायण महाराज को है। नारायण महाराज संत तुकाराम के सबसे छोटे पुत्र थे। ई.सन 1685 की ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को वे तुकाराम महाराज की पादुकाएँ पालकी में लेकर देहू से निकले। अष्टमी को वे आलंदी पहुँचे। वहाँ से संत शिरोमणि ज्ञानेश्वर महाराज की चरण पादुकाएँ पालकी में रखीं। इस प्रकार एक ही पालकी में ज्ञानोबा-तुकोबा (ज्ञानेश्वर-तुकाराम) के गगन भेदी उद्घोष के साथ वारी का विशाल समुदाय पंढरपुर की ओर चला।

अन्यान्य कारणों से भविष्य में देहू से तुकाराम महाराज की पालकी एवं आलंदी से ज्ञानेश्वर महाराज की पालकी अलग-अलग निकलने लगीं। समय के साथ वारी करने वालों की संख्या में विस्तार हुआ। इतने बड़े समुदाय को अनुशासित रखने की आवश्यकता अनुभव हुई। इस आवश्यकता को समझकर 19 वीं शताब्दी में वारी की संपूर्ण आकृति रचना हैबतराव बाबा आरफळकर ने की। अपनी विलक्षण दृष्टि एवं अनन्य प्रबंधन क्षमता के चलते हैबतराव बाबा ने वारी की ऐसी संरचना की जिसके चलते आज 21 वीं सदी में 10 लाख लोगों का समुदाय बिना किसी कठिनाई के एक साथ एक लय में चलता दिखाई देता है।

हैबतराव बाबा ने वारकरियों को समूहों में बाँटा। ये समूह ‘दिंडी’ कहलाते हैं। सबसे आगे भगवा पताका लिए पताकाधारी चलता है। तत्पश्चात एक पंक्ति में चार लोग, इस अनुक्रम में चार-चार की पंक्तियों में अभंग (भजन) गाते हुए चलने वाले ‘टाळकरी’ (ळ=ल,टालकरी), इन्हीं टाळकरियों में बीच में उन्हें साज संगत करने वाला ‘मृदंगमणि’, टाळकरियों के पीछे पूरी दिंडी का सूत्र-संचालन करनेवाला विणेकरी, विणेकरी के पीछे सिर पर तुलसी वृंदावन और  कलश लिए मातृशक्ति। दिंडी को अनुशासित रखने के लिए चोपदार। 

वारी में सहभागी होने के लिए दूर-दराज के गाँवों से लाखों भक्त बिना किसी निमंत्रण के आलंदी और देहू पहुँचते हैं। चरपादुकाएँ लेकर चलने वाले रथ का घोड़ा आलंदी मंदिर के गर्भगृह में जाकर सर्वप्रथम ज्ञानेश्वर महाराज के दर्शन करता है। ज्ञानेश्वर महाराज को माउली याने चराचर की माँ भी कहा गया है। माउली को अवतार पांडुरंग अर्थात भगवान का अवतार माना जाता है। पंढरपुर की यात्रा आरंभ करने के लिए चरणपादुकाएँ दोनों मंदिरों  से बाहर लाई जाती हैं। उक्ति है-‘ जब चराचर भी नहीं था, पंढरपुर यहीं था।’

चरण पादुकाएँ लिए पालकी का छत्र चंवर डुलाते एवं निरंतर पताका लहराते हुए चलते रहना कोई मामूली काम नहीं है। लगभग 260 कि.मी.  की 800 घंटे की पदयात्रा में लाखों वारकरियों की भीड़ में पालकी का संतुलन बनाये रखना, छत्र-चंवर-ध्वज को टिकाये रखना अकल्पनीय है।

वारी स्वप्रेरित अनुशासन और श्रेष्ठ व्यवस्थापन का अनुष्ठान है। इसकी पुष्टि करने के लिए कुछ आंकड़े जानना पर्याप्त है-

  • विभिन्न आरतियों में लगनेवाले नैवेद्य से लेकर रोजमर्रा के प्रयोग की लगभग 15 हजार वस्तुओं (यहाँ तक की सुई धागा भी) का रजिस्टर तैयार किया जाता है। जिस दिन जो वस्तुएँ इस्तेमाल की जानी हैं, नियत समय पर वे बोरों में बांधकर रख दी जाती हैं।
  • 15-20 हजार की जनसंख्या वाले गाँव में 10 लाख वारकरियों का समूह रात्रि का विश्राम करता है।  ग्रामीण भारत में मूलभूत सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में अद्वैत भाव के बिना गागर में सागर समाना संभव नहीं।
  • सुबह और शाम का भोजन मिलाकर वारी में प्रतिदिन 20 लाख लोगों के लिए भोजन तैयार होता है।
  • रोजाना 10 लाख लोग स्नान करते हैं, कम से कम 30 लाख कपड़े रोज धोये और सुखाये जाते हैं।
  • रोजाना 50 लाख कप चाय बनती है।
  • हर दिन लगभग 3 करोड़ लीटर पानी प्रयोग होता है।
  • एक वारकरी दिन भर में यदि केवल एक हजार बार भी हरिनाम का जाप करता है तो 10 लाख लोगों द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले कुल जाप की संख्या 100 करोड़ हो जाती है। शतकोटि यज्ञ भला और क्या होगा?
  • वारकरी दिनभर में लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलता है। विज्ञान की दृष्टि से यह औसतन 26 हजार कैलोरी का व्यायाम है।
  • जाने एवं लौटने की 33 दिनों की  यात्रा में पालकी के दर्शन 24 घंटे खुले रहते हैं। इस दौरान लगभग 25 लाख भक्त चरण पादुकाओं के दर्शन करते हैं।
  • इस यात्रा में औसतन 200 करोड़ का आर्थिक   व्यवहार होता है।
  • हर दिंडी के साथ दो ट्रक, पानी का एक टेंकर, एक जीप, याने कम से कम चार वाहन अनिवार्य रूप से होते हैं। इस प्रकार 500 अधिकृत समूहों के साथ कम से कम 2 हजार वाहन होते हैं।
  • एकत्रित होने वाली राशि प्रतिदिन बैंक में जमा कर दी जाती है।
  • रथ की सजावट के लिए पुणे से रोजाना ताजा फूल आते हैं।

हर रात 7 से 8 घंटे के कठोर परिश्रम से रथ को विविध रूपों में सज्जित किया जाता है।

  • एक पंक्ति में दिखनेवाली भक्तों की लगभग 15 किलोमीटर लम्बी ‘मूविंग ट्रेन’ 24 घंटे में चार बार विश्रांति के लिए बिखरती है और नियत समय पर स्वयंमेव जुड़कर फिर गंतव्य की यात्रा आरंभ कर देती है।
  • गोल रिंगण अर्थात अश्व द्वारा की जानेवाली वृत्ताकार परिक्रमा हो, या समाज आरती, रात्रि के विश्राम की व्यवस्था हो या प्रातः समय पर प्रस्थान की तैयारी, लाखों का समुदाय अनुशासित सैनिकों-सा व्यवहार करता है।
  • नाचते-गाते-झूमते अपने में मग्न वारकरी…पर चोपदार का ‘होऽऽ’  का एक स्वर और संपूर्ण नीरव …… इस नीरव में मुखर होता है-वारकरियों का अनुशासन।

वारकरी से अपेक्षित है कि वह गले में तुलसी की माला पहने। ये माला वह किसी भी वरिष्ठ वारकरी को प्रणाम कर धारण कर सकता है।

वारकरी संप्रदाय के लोकाचारों में शामिल है- माथे पर गोपीचंदन,धार्मिक ग्रंथों का नियमित वाचन, शाकाहार, सदाचार, सत्य बोलना, हाथ में भगवा पताका, सिर पर तुलसी वृंदावन, और जिह्वा पर राम-कृष्ण-हरि का संकीर्तन।

राम याने रमनेवाला-हृदय में आदर्श स्थापित करनेवाला, कृष्ण याने सद्गुरु- अपनी ओर खींचनेवाला और हरि याने भौतिकता का हरण करनेवाला। राम-कृष्ण-हरि का अनुयायी वारकरी पालकी द्वारा विश्रांति की घोषणा से पहले कहीं रुकता नहीं, अपनी दिंडी छोड़ता नहीं, माउली को नैवेद्य अर्पित होने से पहले भोजन करता नहीं।

वारकरी कम से कम भौतिक आवश्यकताओं के साथ जीता है। वारी आधुनिक भौतिकता के सामने खड़ी सनातन आध्यात्मिकता है। आधुनिकता अपरिमित संसाधन जुटा-जुटाकर आदमी को बौना कर देती है। जबकि वारी लघुता से प्रभुता की यात्रा है। प्रभुता की यह दृष्टि है कि इस यात्रा में आपको मराठी भाषियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में अमराठी भाषी भी मिल जायेंगे। भारतीयों के साथ विदेशी भी दिखेंगे। इस अथाह जन सागर की समरसता ऐसी कि वयोवृद्ध माँ को अपने कंधे पर बिठाये आज के श्रवणकुमार इसमें हिंदुत्व देखते हैं  तो संत   जैनब-बी ताउम्र इसमें इस्लाम का दर्शन करती रही।

वारी, यात्री में सम्यकता का अद्भुत भाव जगाती है। भाव ऐसा कि हर यात्री अपने सहयात्री को धन्य मान उसके चरणों में शीश नवाता है। सहयात्री भी साथी के पैरों में माथा टेक देता है। ‘जे-जे पाहिले भूत, ते-ते मानिले भगवंत……’, हर प्राणी में, हर जीव में माउली दिखने लगे हैं। किंतु असली माउली तो विनम्रता का ऐसा शिखर है जो दिखता आगे है , चलता पीछे है। यात्रा के एक मोड़ पर संतों की पालकियाँ अवतार पांडुरंग के रथ के आगे निकल जाती हैं। आगे चलते भगवान कब पीछे आ गये ,पता ही नहीं चलता। संत कबीर कहते हैं-

कबीरा मन ऐसा भया, जैसा गंगा नीर

पाछे-पाछे हरि फिरै, कहत कबीर-कबीर

भक्तों की भीड़ हरिनाम का घोष करती हैं जबकि  स्वयं हरि भक्तों के नाम-संकीर्तन में डूबे होते हैं।

भक्त रूपी भगवान की सेवा में अनेक संस्थाएँ और व्यक्ति भी जुटते हैं।  ये सेवाभावी लोग डॉक्टरों की टीम से लेकर कपड़े इस्तरी करने, दाढ़ी बनाने, जूते-चप्पल मरम्मत करने जैसी सेवाएँ निःशुल्क उपलब्ध कराते हैं।

वारी भारत के धर्मसापेक्ष समाज का सजीव उदाहरण है। वारी असंख्य ओसकणों के एक होकर सागर बनने का जीता-जागता चित्र है। वस्तुतः ‘वा’ और ‘री’ के डेढ़-डेढ़ शब्दों से मिलकर बना वारी यात्रा प्रबंधन का वृहद शब्दकोश है।

  • आनंद का असीम सागर है वारी..
  • समर्पण की अथाह चाह है वारी…
  • वारी-वारी, जन्म-मरणा ते वारी..
  • जन्म से मरण तक की वारी…
  • मरण से जन्म तक की वारी..
  • जन्म-मरण की वारी से मुक्त होने के लिए भी वारी……

वस्तुतः वारी देखने-पढ़ने या सुनने की नहीं अपितु अनुभव करने की यात्रा है। इस यात्रा में सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र की पावन धरती आपको संकेत कर रही है।  विदुषी इरावती कर्वे के शब्दों में -महाराष्ट्र अर्थात वह भूमि जहाँ का निवासी पंढरपुर की यात्रा करता है। जीवन में कम से कम एक बार वारी करके महाराष्ट्रवासी होने का सुख अवश्य अनुभव करें।

 

©  संजय भारद्वाज , पुणे

 

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #7 – जीवन एक परीक्षा☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज छठवीं कड़ी में प्रस्तुत है “जीवन एक परीक्षा ”  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 7 ☆

 

☆ जीवन एक परीक्षा ☆

 

परीक्षा जीवन की एक अनिवार्यता है. परीक्षा का स्मरण होते ही याद आती है परीक्षा की शनैः शनैः तैयारी. निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन, फिर परीक्षा में क्या पूछा जायेगा यह कौतुहल, निर्धारित अवधि में हम कितनी अच्छी तरह अपना उत्तर दे पायेंगे यह तनाव. परीक्षा कक्ष से बाहर निकलते ही यदि कुछ समय और मिल जाता या फिर अगर मगर का पछतावा..और फिर परिणाम घोषित होते तक का आंतरिक तनाव. परिणाम मिल जाने पर भी असंतुष्टि या पुनर्मूल्यांकन की चुनौती..हम सब इस प्रक्रिया से किंचित परिवर्तन के साथ कभी न कभी कुछ न कुछ मात्रा में तनाव सहते हुये गुजरे ही है. टी वी के रियल्टी शोज में तो इन दिनों प्रतियोगी के सम्मुख लाइव प्रसारण में ही उसे सफल या असफल घोषित करने की परंपरा चल निकली है.. परीक्षा और परिणाम के इस स्वरूप पर प्रतियोगी की दृष्टि से सोचकर देखें.

सामान्यतः परीक्षा लिये जाने के मूल उद्देश्य व दृष्टिकोण को हममें से ज्यादातर लोग सही परिप्रेक्ष्य में समझे बिना ही येन केन प्रकारेण अधिकतम अंक पाना ही परीक्षा का उद्देश्य मान लेते हैं. और इसके लिये अनुचित तौर तरीकों के प्रयोग तक से नही हिचकिचाते. या फिर असफल होने पर आत्महत्या रोग जैसे घातक कदम तक उठा लेते हैं.

प्रश्न है कि क्या परीक्षा में ज्यादा अंक पाने मात्र से जीवन में भी सफलता सुनिश्चित है ? जीवन की अग्नि परीक्षा में न तो पाठ्यक्रम निर्धारित होता है और न ही यह तय होता है कि कब कौन सा प्रश्न हल करना पड़ेगा ? परीक्षा का वास्तविक उद्देश्य मुल्यांकन से ज्ञानार्जन हेतु प्रोत्साहित करना होता है. जीवन में सफल वही होता है जो वास्तविक ज्ञानार्जन करता है न कि अंक मात्र प्राप्त कर लेता है. यह तय है कि जो तन्मयता से ज्ञानार्जन करता है वह परीक्षा में भी अच्छे अंक अवश्य पाता है. अतः जरूड़ी है कि परीक्षा के तनाव में ग्रस्त होने की अपेक्षा शिक्षा व परीक्षा के वास्तविक उद्देश्य को हृदयंगम किया जावे, संपूर्ण पाठ्यक्रम को अपनी समूची बौद्धिकता के साथ गहन अध्ययन किया जावे व तनाव मुक्त रहकर परीक्षा दी जावे. याद रखें कि सफलता कि शार्ट कट नही होते. परीक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन को अंकों के मापदण्ड पर उतारना मात्र है. ज्ञानार्जन एक तपस्या है. स्वयं पर विश्वास करें. विषय का मनन चिंतन, अध्ययन करें, व श्रेष्ठतम उत्तर लिखें, परिणाम स्वयमेव आपके पक्ष में आयेंगे.

 

© अनुभा श्रीवास्तव

 

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