हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 157 ☆ गीत – ।। जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम फल पाओगे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 157 ☆

☆ गीत – ।। जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम फल पाओगे ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम पाओगे फल।

याद रखें हर दिन चलता नहीं किसी का छल।।

***

जब कर्मों का फल मिले तो तुम्हें दुआ ही मिले।

मत करो जीवन में कुछ   ऐसा कि बद्दुआ मिले।।

दिल को  बनाओ जैसे कि शीतल निर्मल जल।

जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम पाओगे फल।।

****

भरोसा देने आशीर्वाद लेने में संकोच नहीं करें।

क्रोध में किसी लिए यूँ ही गलत सोच नहीं करें।।

अच्छा सोचने   करने से समस्या भी जाती टल।

जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम पाओगे फल।।

****

जीवन का गणित तो  होता बहुत ही आसान है।

जो सीख गया   वही    जाकर बनता इंसान है।।

जो करना  आज करो कभी आता नहीं है कल।

जो बोयोगे वैसा ही फिर तुम पाओगे फल।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #222 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – बलिदानी वीरों की याद… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – बलिदानी वीरों की याद…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 222

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – बलिदानी वीरों की याद…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

वतन पर मिटने वालों की लगन जब याद आती है

तो मन हो जाता भारी, साँस दुख में डूब जाती है।

*

मिटाकर अपनी हस्ती देश को जिनने दिया हमें जीवन

उन्हें सब याद करते, माँ सिसक आँसू बहाती है।

*

हमेशा आँधी-तूफानों से जो लड़ते रहे भरसक

उन्हें श्रद्धा सुमन की भेंट हर बस्ती चढ़ाती है।

*

लड़े बेखौफ आगे बढ़ सहे सौ वार दुश्मन के

समर की यही गाथाएँ अमर उनको बनाती हैं।

*

सुरक्षित स्वर्ण पृष्ठों पर उन्हें इतिहास रखता है

जिन्हें निस्वार्थ जीवन औ’ मरण की रीति आती है।

*

जिन्होंने जान दी अपनी विजय की भोर लाने को

सदा जनता उन्हीं की वीरता के गीत गाती है।

*

दिवस, मेले और प्रतिमाएँ सजायी जाती उनकी ही

जिन्हें आदर से मन मंदिर में जनता नित बिठाती है।

*

उन्हीं के त्याग ने हमको बनाया आज जो हम हैं

 ‘विदग्ध’ उनकी विमल स्मृति हमें जीना सिखाती है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ खोज ☆ श्रीमति जस्मिन शेख ☆

श्रीमति जस्मिन शेख

? कविता ?

 ☆ खोज ☆ श्रीमति जस्मिन शेख  

विघटित विचारों की अनुभूति से

घबराहट भरी अराजकता से

स्वप्नीश बना अध्यापक

खोज रहा है आज

कल का सभ्य नागरिक।

 

झूठे भविष्य की आस में

बच्चों पर सपने लांध कर

बिखरे हुए माता-पिता

खोज रहे हैं आज

अपने ही बच्चों के रक्षक

 

कागज़ के पहाड़ी बोझ उठाकर

गहरे आंतरिक दर्द से पीड़ित

कालसूत्र से बंधा बच्चा

खोज रहा है आज

उसके ही भविष्य का भक्षक

 

व्यर्थ संकल्प के साँप छोड़कर

समाज में भ्रम फैलाकर

गैरजिम्मेदार शासक

खोज रहा  आज

एक और मासूम शावक…

    ☆

साभार – सौ. उज्ज्वला केळकर, सम्पादिका ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

© श्रीमति जस्मिन शेख

मिरज जि. सांगली

9881584475

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 666 ⇒ पौ फटना ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पौ फटना।)

?अभी अभी # 666 ⇒ पौ फटना ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

DAWN BURST

रात्रि विश्राम के लिए बनी है, दिन भर का थका मांदा इंसान, निद्रा देवी की गोद में अपनी थकान मिटाता है, प्रकृति भी रात्रि काल में सोई सोई सी प्रतीत होती है, क्योंकि अधिकांश पशु पक्षी भी इस काल में अपनी दैनिक गतिविधियों को विराम दे देते हैं।

प्रकृति में जीव भी हैं और वनस्पति भी ! जीव भले ही रात्रि में विश्राम करे, उसका दिल धड़कता रहता है, सांस चलती रहती है।

एक नई सुबह के साथ कैलेंडर ही नहीं बदलता, हमारी उम्र भी एक दिन घट/बढ़ जाती है। हमें पता ही नहीं चलता, हमारे नाखून बढ़ जाते हैं, सुबह फिर शेव करनी पड़ती है।

उधर भले ही पेड़ पौधे भी हमें रात्रि विश्राम करते प्रतीत होते हैं, हवा मंद गति से चलती रहती है, सुबह के स्वागत में कहीं कोई कली चटकती है तो कहीं कोई फूल खिलता है। पक्षियों का चहचहाना शुरू हो जाता है, पेड़ पौधों में नई कोपलें दृष्टिगोचर होने लगती है।।

अचानक बहुत कुछ घटने लगता है। लगता है, प्रकृति अंगड़ाई ले रही है। आसमान शनै: शनै: साफ होने लगता है। पौ फटने लगती है। पौ जब फटती है, तब सूर्योदय होता है अथवा जब सूर्योदय होता है, तब पौ फटती है। दिल टूटने की आवाज़ कुछ दीवाने भले ही सुन लें, पौ फटने की आवाज़ अभी तक तो विज्ञान ने भी नहीं सुनी।

अगर पौ नहीं फटेगी तो क्या सुबह नहीं होगी, सूरज नहीं निकलेगा। पंचांग में रोज सूर्योदय और सूर्यास्त का समय दिया रहता है, पौ फटने न फटने से पंचांग को क्या लेना देना। भले ही आसमान में किसी दिन बादलों के कारण सूर्य नारायण देरी से प्रकट हों, पौ तो वक्त पर फट ही चुकी होती है।।

हमने आसमान में बादलों को फटते देखा है, तीन चौथाई जल के होते हुए भी यहां कभी ज्वालामुखी फटते हैं तो कभी इस धरती के कलेजे को भी फटते देखा है। इंसान के भी अपने दुख दर्द हैं। कहीं कुछ फटा है तो कहीं कुछ टूटा फूटा है। एक बाल मन तो फकत एक गुब्बारे के फूटने से ही उदास हो जाता है। पेट्रोल के भाव सुनकर तो फटफटी की आंखें भी फटी की फटी रह गई हैं आजकल।

क्या पौ रात भर से भरी बैठी रहती है, जो सुबह होते ही फट जाती है, पौ का शाम से कुछ लेना देना नहीं, यह सिर्फ सुबह का नज़ारा है। जो सुबह ही फट गई, फिर उसके शाम को पौ बारह होने की संभावना वैसे भी खत्म ही हो जाती है। खेद है, प्रकृति प्रेमी और पर्यावरण प्रेमी भी पौ फटने की घटना को गंभीरता से नहीं लेते।

कवि और कविता की कल्पना की उड़ान चारु चन्द्र की चंचल किरणों से भले ही खेल ले, उसे सूरज का सातवां घोड़ा तक नजर आ जाए, मंद मंद हवा का शोर और कल कल करते बहते झरने की आवाज उसे सुनाई दे जाए, लेकिन पौ फटने का स्वर वह नहीं पकड़ पाया। फिर भी मेरी हिम्मत नहीं कि इस सनातन सत्य को मैं झुठला सकूं कि पौ नहीं फटती। जंगल में मोर नाचा, सबने देखा। आज ही सुबह सुबह, खुले आसमान में पौ फटी, कोई शक ? पौ फटना शुभ है। एक शुभ दिन की शुरुआत होती है पौ फटने से। आपका आज का दिन शुभ हो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ फेरे प्रारब्धाचे… ☆ सुश्री प्राची जोशी ☆

सुश्री प्राची जोशी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ फेरे प्रारब्धाचे… ☆ सुश्री प्राची जोशी ☆

निळ्या आसमंती झाली ढगांची दाटी

काळ्याभोर ढगांतूनी सूर्यकिरणे डोकावती – –

*

ढगांनी व्यापलेले हे काळेभोर आकाश

मनावरील मळभ खोलवर उदास – –

*

ढगांतूनी डोकावतो निळा निळा प्रकाश

जणू तो दाखवितो प्रकाशाची वाट – –

*

काळे ढग उन्मळूनी घनघोर बरसती

त्या पावसातल्या उन्हातूनी इंद्रधनुष्य डोकावती – –

*

सप्तरंगी इंद्रधनुष्याची अती तेजस्वी किरणे

पाहताना दिसे मज शिवधनुष्य पेलले रामाने – –

*

निसर्गाच्या लीलांवर असे प्रभुत्व परमेश्वराचे

मानवाच्या हाती उरे खेळ पाहणे किमयांचे – –

*

परमेशाच्या लीला असती अगाध

मानवाच्या बुध्दीला नसे तिथे वाव – –

*

हात धरी रामराया असा अलगद आपला

परमार्थाच्या भवसागरी पार करी प्रपंचनौका – –

*

सागरात दिसे रामनौका अशी दूरवर जाताना

जाणवे खोल मनात रामलक्ष्मण सीतेची व्यथा – –

*

वाटे असे…..

जिथे देव भोगी वनवास तिथे मानवाचे काय

प्रारब्धाचे न चुकले फेरे कुणा मानवा सात जन्मात – –

©  सुश्री प्राची अभय जोशी

मो ९८२२०६५६६६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ तिच्या मानसी मी…☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

प्रा. सौ. सुमती पवार

? कवितेचा उत्सव ?

☆ तिच्या मानसी मी ☆ प्रा. सौ. सुमती पवार ☆

दुरावा तिचा हा जरा साहतो ना

तिच्या मानसी मी सदा राहतो….

*

तिचे राज्य माझे मनावरती हो

तरी तेच सारे प्रेमाने वाहतो मी

कसे रूप तिचे सावळे आभाळ ते

आभाळाशी जणू आहे माझे नाते…

अशा त्या तिला मी मनी पाहतो

तिच्या मानसी मी सदा राहतो…

*

कशी चाफेकळी सावळीशी छान

बटा ओघळती वेळावते मान

विना शृंगार ती दिसे मेनका हो

मन मोर नाचे केतकी बनी हो

तिची मूर्त अशी हृदी जपता

तिच्या मानसी मी सदा राहतो…

*

तिचा ध्यास माझ्या मिटे पापण्यात

तिला पाहतो मी रात्री चांदण्यात

धुके होऊनी ती लपेटून घेते

अलगद ओठ पहा टेकवते

तिच्या ह्या अदा नि रूपसंपदात

कळेना मला हो स्वप्नी की सत्यात….

© प्रा.सौ.सुमती पवार 

 नाशिक

मो. ९७६३६०५६४२; ईमेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ६ – संत बहिणाबाई…☆ सौ शालिनी जोशी ☆

सौ शालिनी जोशी

🔅 विविधा 🔅

☆ महाराष्ट्रातील संत स्त्रिया – भाग – ६ – संत बहिणाबाई… ☆ सौ शालिनी जोशी

संत बहिणाबाईंचा जन्म वेरूळ जवळील देवगाव येथे. आई-वडील, जानकी व आवजी कुलकर्णी यांनी वयाच्या केवळ पाचव्या वर्षी पाठक आडनावाच्या एका तीस वर्षाच्या बिजवराशी बहिणाबाईंचा विवाह करून दिला. पण मुलीच्या लग्नासाठी काढलेले कर्ज आई-वडिलांना फेडणे शक्य झाले नाही. म्हणून जावयासह सारे कुटुंब घर सोडून प्रवासाला बाहेर पडले. पंढरपूर, शिंगणापूर करत कोल्हापूरला आले. एका ब्राह्मणांने त्यांना आश्रय दिला. बहिणाबाईंचे वय केवळ आठ वर्षाचे होते. पण त्यांना ईश्वराची अनावर ओढ होती. येथे जयरामस्वामी वडगावकरांची कीर्तने त्यांनी ऐकली. त्यातील तुकारामांच्या अभंगांनी त्या भारावल्या. सतत मुखात अभंग आणि तुकारामांचे ध्यान. ‘पती हाच परमेश्वर’ मानण्याचा तो काळ होता. बहिणाबाईच्या कर्मठ पतीला ते मानवले नाही. हात, पाय बांधून गोठ्यात टाकण्यापर्यंतच्या छळाला सामोरे जावे लागले. पण संसाराकडे तटस्थ भावनेने बघण्याचे सूत्र त्यांनी अवलंबले. करावं वाटतं ते करता येत नव्हतं. जे करावे लागत होतं ते आवडत नव्हतं. अशा कोंडीत त्या सापडल्या. तरीही प्रपंच आणि परमार्थ यांची सांगड त्यांनी घातली. परमार्थाचा आनंद घेतला.

स्त्रियेचे शरीर पराधीन देह l न चाले उपाय विरक्तीचा l

शरीराचे भोग वाटतात वैरी l माझी कोण करी चिंता आता ll

अशी व्यथा त्या अभंगातून व्यक्त करतात.

बहिणाबाईंची निष्ठा पाहुनी संत तुकारामानी त्याना स्वप्नात दृष्टांत दिला. त्यावेळी त्या अठरा वर्षांच्या होत्या. त्यांचे जीवन बदलून गेले. ‘प्रपंच परमार्थ चालवि समान l तिनेच गगन झेलियेले l’ असे आपले जीवन त्यांनी आपण अभंगातून उलगडले. हळूहळू बहिणाबाईंचा लौकिक पसरू लागला. लोक त्यांच्या दर्शनाला येऊ लागले. पण एका ब्राह्मण स्त्रीने शूद्र जातीच्या तुकारामाचे शिष्य व्हावे ही गोष्ट सनातन्यांना पटणारी नव्हती. नवराही संतापला. पण बहिणाबाई तुकारामांच्या अधिकार संपन्न शिष्या झाल्या. ‘मत्स जसा जळावाचूनि चडफडी lतैसी आवडली तुकोबाची l’अशा प्रकारची तगमग त्यांची तुकोबांविषयी असे. ‘स्वप्नामाजी कृपा केली पूर्ण’ अशी बहिणाबाईंची साक्ष आहे.

ब्रह्मज्ञांनी, भक्तीभाव व वैराग्याने त्या युक्त होत्या. नवऱ्याच्या संतापाला त्यांनी प्रतिक्रिया दिली.

‘भ्रताराची सेवा तोचि आता देव l भ्रतार स्वयमेव परब्रह्म ll

भ्रतार तो रवि मी प्रभा तयाची l वियोग त्याची केवी घडे ll

भ्रतारदर्शनाविण जाय दिस l तरी तेची राशी पातकांच्या ll

पुढे हळूहळू पतीचा स्वभाव बदलला.

काही दिवस त्या देहूला राहिल्या होत्या. तुकारामांची त्यांची प्रत्यक्ष भेट झाली. तेथे असताना त्यांना दोन मुले झाली एक मुलगा व एक मुलगी. स्वतः ब्राह्मण असूनही ब्राह्मण कोण या विषयावर त्यांनी आपले सडेतोड विचार तत्कालीन सनातनी ब्राह्मणांना सांगितले. ‘ब्रह्म जाणणारा तो ब्राह्मण’ असे ठामपणे सांगितले. त्यांनी साधारण ७३२ अभंग लिहिले.

वारकरी संप्रदायाच्या इमारत उभारणीतील संतांच्या कार्याचे रूपकात्मक वर्णन करून संतांची माहिती लोकांवर बिंबवली. ती प्रसिद्ध रचना,

संत कृपा झाली इमारत फळा आली l

ज्ञानदेवे रचीला पाया उभारिले देवालया l

नामा तयाचा किंकर तेणे विस्तारले आवार l

जनी जनार्दन एकनाथ स्तंभ दिला भागवत l

तुका झालासे कळस भजन करा सावकाश l

बहिणी फडकती ध्वजा तेणे रूप केले ओजा l

त्यांचे अभंग अलंकारिक, रसपूर्ण, शांतरसाचे अधिक्य असलेले असे आहेत.

असे सांगतात की त्यांना आपल्या पूर्वीच्या १२ जन्मांचे स्मरण होते. चालू जन्म हा तेरावा होता. हे जन्म मरण्यापूर्वी त्यांनी अभंगातून आपल्या मुलाला सांगितले. ‘घट फुटल्यावरी l नभ नभाचे अंतरी l’ हा शेवटचा अभंग सांगितल्यावर त्या समाधीस्थ झाल्या. (१७००साली) शिरूर येथे त्यांचे समाधी आहे.

अशा या बहिणाबाई स्त्रियांना सुधारण्याचा मार्ग दाखवणाऱ्या क्रांतीज्योत !

©  सौ. शालिनी जोशी

संपर्क – फ्लेट न .3 .राधाप्रिया  टेरेसेस, समर्थपथ, प्रतिज्ञा मंगल कार्यालयाजवळ, कर्वेनगर, पुणे, 411052.

मोबाईल नं.—9850909383

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ धक्के पे धक्का… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ धक्के पे धक्का… – भाग-१ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

मी माझ्या कौटुंबिक सल्ला केंद्रात बसले होते.. तशी मी नवीनच.. बँकेतून राजीनामा देऊन या आवडीच्या कामात गुंतले होते. माझे शिक्षण वकिलीचे.. पण पटकन बँकेत नोकरीं केली आणि पैशाची गरज म्हणून स्वीकारली.. पण कंटाळा आला लवकरच.. तेच डेबिट आणि क्रेडिट.. लग्न नाही केल.. नको ती गुंतवणूक कोणामध्ये.. सर्वाशी प्रेमाने वागायचं.. अनेक माणसे जोडायची.. अनेक पर्याय समोर ठेवायचे आणि शेवटी… पेन्शन आहे तर छान वृद्धाश्रम पकडायचा… आपल्या वयाच्या माणसात रमायचे.. असे माझे ठरलेले पण….

माझे नाव विजया.. माझी एक सहकारी आहे, म्हंटल तर मैत्रीण म्हंटल तर सहकारी, माझे सगळे टायपिंग करते, शिवाय पोस्टात जाणे, बँकेत चेक जमा करणे इत्यादी.. काही काम नसेल तेंव्हा गप्पा मारते.. ती पण एकटीच आहे… तिने का लग्न केल नाही कोण जाणे.. कदाचित प्रेमभंग झाला असेल किंवा कोणी मनासारखा कोण मिळाला नसेल. मी लग्न केल नाही कारण माझा प्रेमाभंग झाला असे काही नाही.. पण मनासारखा कोणी मिळाला नाही हेच खरे..

माझ्या या कौटुंबिक सल्ला केंद्रात काही पीडित येत.. सल्ला विचारत.. माझा एवढ्या वर्षाचा जगाचा अनुभव आणि वकिलीचे शिक्षण, त्यामुळे बहुतेक मी चांगले सल्ले देत असावी.. पण बरीच मंडळी येत हॆ खरे.

एक दिवस मी आणि माझी सहकारी शांता ऑफिसात बसलेलो असताना माझी बँकेतील जुनी सहकारी लीना आत आली. लीना आणि मी जुहू शाखेत दहा वर्षे एकत्र होतो.. मग तिची बदली झाली आणि भेटी कमी होत गेल्या पण मोबाईलमुळे संपर्क होता.

“अग विजू.. छान ऑफिस काढलंस ग.. मला कुंदा म्हणाली.. गोरेगाव ईस्टला सेंट थॉमसजवळ तू ऑफिस थाटल्याच.. नोकरीं केंव्हा सोडलीस?

“अग हो हो लीने.. किती वर्षांनी भेटतेस? असतेस कुठे?

“मी अजून नोकरीं करते ग.. सध्या माहीम ब्रँचला आहे.. मुलगी कॅनडात गेली जॉबला.. आणि मी एकटीच..

“हो हो… मला आठवण आहे लीने.. तुझा नवरा खुप लवकर गेला ते माझ्या लक्षात आहे, त्यानंतर तू तूझ्या मुलीला धिटाईने वाढवलंस.. सोपं नाही ते.

“मुळीच सोपं नाही.. पण बँकेत नोकरीं होती आणि तुझ्यासारखे सर्व सहकारी मित्र मैत्रिणी म्हणून मुलीला मोठं केल.. ती आर्किटेक झाली आणि तीन वर्षांपूर्वी कॅनडाला गेली पण.. छान नोकरीं मिळाली तिला.

“मग तू नाही गेलीस कॅनडाला?

“ती म्हणते आहे इकडे ये म्हणून.. पण अजून नाही गेले.. नाही जाणार असेही नाही.. शेवटी महिमा म्हणजे माझा जीव आहे, तिला लांब ठेऊन कसे चालेल? नवरा गेल्यानंतर आम्ही दोघी एकमेकांसाठी आहोत.

‘हो, बरोबर आहे ग.. एवढी वर्षे तुम्ही दोघीच ना सतत.. सहज आलीस ना?

‘सहज असं नाही.. तुझा सल्ला हवा होता.. तू हॆ ऑफिस काढलंस. म्हणजे तू सर्व कायदेशीर बाबींचा अभ्यास पण केला असणार. म

“म्हणजे काय? अग मी लॉ केलय.. बर तुला कसला सल्ला हवाय?

“विजू.. लीना शांताकडे साशंक नजरेने पहात बोलली..

“अग बोल. बोल.. ती आपली मैत्रीणच समज.. शांता तीच नाव.. ती पण एकटी आहे माझ्यासारखी.. मला मदत करते या ऑफिस मध्ये.

‘बर.. मग मी बोलते.. विजू, तुला माहित आहे माझा नवरा मुलगी अगदी लहान असताना गेला… त्यानंतर आईबाबा मागे लागले पण मी लग्न केल नाही.. मुलीला मोठं केल.. शिकवलं.. ती परदेशीं गेली आणि माझी एक जबाबदारी कमी झाली. बाबा गेल्यानंतर आईला माझ्याकडे आणलं.. मग आम्ही तिघ आनंदाने राहिलो.. गेल्या वर्षी आई गेली. माझ्या भावाने आईकडे दुर्लक्ष केल पण मी आईच सर्व केल. आई गेली, मुलगी परदेशी त्यामुळे मी एकटी पडले.

“खरे आहे, सतत सोबत असणारी मानस दूर गेली की फार फार एकटं वाटतं. मग काय केलंस तू?

‘मी नोकरीं करतेच पण बऱ्याच ऍक्टिव्हीटी मध्ये भाग घेते… योगा.. जिम जॉईन केल.

“बर केलंस.. आपली तब्येत चांगली राहते आणि वेळ पण चांगला जातो.

“हो.. आणि माझ्या जिममध्ये मला भेटला कुमार.. डॉ. कुमार.

“अरे वा.. डॉ. कुमार.. मग?

“डॉ कुमार हा सर्जन आहे.. अंदाजे पंचाव्वान वयाचा..

“म्हणजे आपल्याच वयाचा..

“होय.. त्याची बायको तीन वर्षांपूर्वी कॅन्सरने वारली.

“बर.. मग?

“गेले सहा महिने आम्ही एकमेकांना ओळखतो.. त्याने मला मागणी घातली.

“लग्नाची?

“नाही.. लिव्ह मध्ये राहण्याची.

“मग? तू काय उत्तर दिलस? आणि डॉ कुमार तुला आवडतो काय?

“कुणालाही आवडवा असाच आहे कुमार.. हुशार, स्मार्ट, प्रेमळ पण?

“पण तो लग्न करायला तयार नाही..

“का?

“त्याच्या मुलाचं ऑब्जेशन आहे म्हणे?

“त्याला मुलगा आहे? कोण कोण आहे त्याच्या घरी.

“मुंबईत तो एकटाच असतो… त्याचा मुलगा आणि सून सिंगापुरला असतात.

“ठीक आहे.. तूझ्या कुमारला घेऊन ये इकडे.. मी बोलते.

“हो, त्यासाठीच मी आले होते.. तुझं मत घयायला.. तुझा सल्ला हवा मला..

“तुम्ही दोघे येत्या रविवारी दुपारी चारला या.. मी वाट पहाते..

“मी निघते तर..

“अग, अशी कशी जाशील.. माझी मैत्रीणना तू? शांता.. मी हाक मारली. न सांगता शांताने कॉफीचे मग हातात दिले.

मी आणि शांता लीनाची वाट पहात होतो. पण चारच्या सुमारास एका महागड्या गाडीतून एक मध्यम वयाचा माणूस उतरला. आमच्या ऑफिसकडे पहात आत आला. माझ्याकडे पहात म्हणाला..

“मी डॉ. कुमार.. लीनाने सांगितलंच असेल..

मी गडबडले.. हा लीनाचा मित्र.. किती देखणा.. वय लक्षातच येत नाही याच..

“हो.. लीना नाही आली..

“नाही.. लीना म्हणाली तू भेटून ये, ती बोलली आहे सर्व..

“हो हो.. लीना मला म्हणाली.. डॉ. कुमार यांनी मला लिव्ह इन बद्दल विचारलं.

‘हो.. माझी पत्नी तीन वर्षांपूर्वी गेली.. मी डॉक्टर असूनही तिला वाचवू शकलो नाही मी… खरं तर ती पत्नी नंतर आधी मैत्रीण.. गिरगांवात आमच्या चाळीत रहाणारी. त्यामुळे शाळेत असताना पासूनची मैत्रीण. माझ्या मुलाची आई.. ती गेली आणि मी एकटा झालो. विजया, एकटेपणाना फार वाईट असतो.

“हो डॉक्टर, मला कल्पना आहे त्याची.. कारण मी पण एकटीच असते.. एकटीच रहाते..

“का? तुमचे मिस्टर हयात नाहीत?

“मी लग्नचं केल नाही..

“असं का? का बर? तुम्ही देखण्या आहात.. सुशिक्षित आहात.. बँकेत नोकरीं करत होत्या.. कुणी मनासारखा राजकुमार भेटला नाही का?

“तस असेल कदाचित.. लग्न करावेसे वाटलं नाही हॆ खरे..

“बर.. लीना बोलली असेल माझ्या बद्दल..

“हो.. लीना माझी बँकेतील मैत्रीण.. मी असे सल्ले देते हॆ कळल्यामुळे ती माझ्याकडे आली.. लीना म्हणाली तिची तुमची भेट जिममध्ये झाली.

“होय.. जवळजवळ सहा महिने मी तिला पहातोय.. ओळख झाली.. मन चहा कॉफी घेणे झाले.. तिने तिच्या नवऱ्या बद्दल सांगितले आणि एकटीने मुलीला वाढवल्याचे पण सांगितले.. मला तिचे कौतुक वाटले.. मुलगी कॅनडाला गेल्याचे सांगितले.

तेंव्हा मला वाटायला लागले, आता लीना एकटी झाली आहे.. तिला कुणीतरी जोडीदार हवा आहे.. मी पण एकटा आहे.. दिवस हॉस्पिटल, पेशन्ट यात जातो पण घरी येताना एकटेपणा जाणवतो… कुणीतरी ‘दमलास का रे’ म्हणणारी हवी असते. पाणी आणून देणार हक्काच हवं असत.. मला लीना तशी वाटली.. मी तिला विचारलं..

“पण तुम्ही लग्नाचं नाही विचारलात.. लिव्ह इन बद्दल विचारलात.

“हो.. तस दोन्ही एकच असत ना?

“नाही.. लिव्ह इनमध्ये बायकोचे अधिकार नसतात.. फक्त एकत्र राहणे असत.

“बरोबर.. पण मागील संसार असतो ना.. तो मोडता येत नाही. माझा मुलगा आहे, सून आहे.. नातवंड येईल दोन महिन्यात.. त्यामुळे त्यान्च्या अधिकारात अडचण होता कामा नये नवीन लग्नामुळे. त्यामुळे माझा मुलगा, सून म्हणालीत ” तुम्हाला एकटेपणा वाटतोय.. हॆ खरेच.. तुम्हाला पण जोडीदारीण हवी.. पण लग्न करू नका.. लिव्ह इन हा चांगला पर्याय आहे.

“मग लीनाच काय मत आहे?

“म्हणून लीना तुझा सल्ला विचारायला आली होती.. मग ती आपल्या मुलीशी बोलेल.

“ठीक आहे.. मी बोलेन तिच्याशी..

“मग मी निघतो..

“थांबा डॉक्टर, शांता.. “ मी हाक मारली. शांता कॉफीचे मग घेऊन आली. कॉफी घेता घेता मी म्हणाले

“डॉक्टर, तुमच्या मुलाचा फोन नंबर द्या आणि त्याला केंव्हा वेळ असतो? मी बोलेन त्याच्याशी. ” 

– क्रमशः भाग पहिला 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ती कोण होती ? ☆ सुश्री नीला महाबळ गोडबोले ☆

सुश्री नीला महाबळ गोडबोले

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☆ ती कोण होती ? ☆  सुश्री नीला महाबळ गोडबोले

पंचवीसएक वर्षांपूर्वीची गोष्ट… लेकीचा जन्म अजून झालेला नव्हता.. मी आणि माझे यजमान दोघेच रहात होतो…

नक्की महिना कोणता ते आठवत नाही.. पण पावसाळ्याचे दिवस होते.

बहुतेक रविवार असावा…

यजमानांचा सेमिनार होता… ते दिवसभर बाहेर असणार होते..

सकाळपासून रिपरिपणारा पाऊस नि त्यामुळे झालेलं कुंद वातावरण…

मन उदास झालं होतं… त्यात एकटेपणा..

अपर्णाकडे जायचं ठरवलं.. बरेच दिवस ती बोलावत होतीच..

“जेवायलाच ये “.. तिचा हट्टी आग्रह.. नाही म्हणण्याचं काही कारणच नव्हतं..

बरेच दिवसांनी असा निवांत वेळ मिळाला होता. स्वयंपाकाचं झंझट नव्हतं…

पद्मजा फेणाणींची माझी आवडती कॅसेट लावली.. नि मस्तपैकी सगळी कपाटं आवरून काढली…

स्वयंपाकघर चकचकीत केलं. बरेच दिवस रेंगाळलेलं केस धुण्याचं कामही उरकून घेतलं…

छान तयार झाले.. पर्स घेतली नि बाहेर पडले. दाराला कुलूप लावणार एवढ्यात पुस्तक विसरल्याचं आठवलं.. माझ्याकडचं ” चारचौघी ” हे पुस्तक अपर्णाला वाचायचं होतं. ते घेऊन यायला तिने आवर्जून सांगितलं होतं..

तशीच पुन्हा आत गेले.. कपाटातून पुस्तक काढलं.. पर्समधे टाकलं.. नि बाहेर पडले..

कुलूप लावलं… नि चारचारदा कुलूप ओढून पाहिलं…

खरंतर मी संशयी नाही.. पण कुलुपाच्या बाबतीत मला नेहमी माझाच भरवसा वाटत नाही..

कुलूप व्यवस्थित बसल्याची खात्री करून एकदाची निघाले..

अपर्णाचं घर जवळच असल्याने चालतच गेले.. पावसात मस्त भिजत..

ती वाटच पहात होती.. तिचे यजमान पुण्याला गेल्याने तीही घरात एकटीच होती..

गॅलरीत बसून दोघींनी वाफाळतं टोमॅटो सूप प्यायलं.. वाहत्या रस्त्यावरची रहदारी न्याहाळत..

अपर्णानं मला जेवायला बसवलं नि गरमागरम आलू पराठे तव्यावरून माझ्या पानात वाढले…

माझे आवडते आलू पराठे.. तेही गरम नि आयते. घरच्या लोण्याचा गोळा, कवडी दही,. रायतं, कैरीचं लोणचं.. गृहिणीला अजून काय हवं असतं?

पण सुगरण अपर्णाने मला आवडतो म्हणून ढोकळाही केला होता.. गोड पाहिजेच म्हणून बदाम, केशर घातलेली शेवयाची खीर.. शिवाय पुलाव होताच…

भरपेट जेवण झालं.. खरंतर पोटात इवलीशीही जागा नव्हती.. तरी पोटभर गप्पा झाल्या..

यजमानांचा फोन आला.. तेव्हा संध्याकाळचे सात वाजल्याचं कळलं.. ते अर्ध्या तासात घरी येणार म्हटल्यावर मीही घरी जायला निघाले.. पंधरा मिनिटे पुन्हा दाराशी गप्पांची मैफिल झोडून घराकडे कूच केलं..

घराच्या कोप-यावर पोहोचायला नि दिवे जायला एकच गाठ पडली.. पावसाळी वातावरणात अंधाराने घातलेली भर भीतीला आवतण देत होती..

घराच्या दाराशी आले.. दाराच्या बाजूलाच स्वयंपाकघराची खिडकी.. सताड उघडी..

मी जाताना सगळी खिडक्या दारं घट्ट बंद केलेली.. नेहमीच्या सवयीने..

मग ही खिडकी उघडी कशी? कदाचित वादळ आलं असेल.. त्यामुळे उघडली गेली असेल वा-याने..

खिडकीतून आत डोकावून पाहिलं.. सगळा कट्टा भांड्यांनी भरलेला.. फुलपात्रे, ग्लास, चमचे, कप.. यांची मैफल भरलेली.. सोबत चिवडा नि बिस्किटांचा डबाही..

…. मी तर कट्टा साफ करून गेले होते.. मग एवढी भांडी कुठून आली? घरात कधीतरी एखादा उंदीर शिरतो.. किंवा या रिकाम्या खिडकीतून मांजरही शिरलं असेल..

पण उंदीर नि मांजर अशी भांडी कशी काढतील फडताळातून कट्ट्यावर ? शिवाय तो चिवड्याचा डबा?

आता मात्रं भीतीनं जीव कापायला लागला..

म्हणजे एखादा चोर शिरला असेल का घरात?

पण कुलूप तोडलेलं नाही.. कुठलंही दार उघडलेलं नाही.. खिडकीचं दार उघडं आहे पण खिडकीच्या जाळीमधून चोर शिरणं शक्य नाही…

मग. ?

म्हणजे ते भूत, प्रेत वगैरे तर नसेल ? की काळी जादु.. करणी. भानामती तसलं काही?

अरे देवा…

हो.. बरोबरच आहे.. आज अपर्णा म्हणतच होती अमावस्या आहे.. म्हणून तिने घरात नारळ फोडला…

पण असलं काही नसतं.. या सगळ्या अंधश्रद्धा आहेत.. असले विचार करणंही चुकीचं आहे.

पण मग हा कसला प्रकार ?.. खूप विचार केला.. डोक पिंजून काढलं…. आणि ट्यूबलाईट पेटली..

मिस्टरांकडे एक किल्ली असते.. तेच आले असणार.. चहासाठी भांडी काढली असणार.. चिवड्याच्या डब्यातून चिवड्याची फक्की मारली असणार… अन् मी मात्रं वेड्यासारखी काहीबाही विचार करत बसले होते.. स्वत:चीच मला लाज वाटली..

एकदाचं हुश्शही झालं..

आता निर्धास्तपणे मी कुलूप काढलं.. घरात संपूर्ण अंधार होता … बेडरूममधे टॉर्च होता.. तो आणला.. चालू केला… हॉलमधे टॉर्चचा प्रकाश टाकत स्वयंपाकघराकडे पाणी पिण्यासाठी निघाले..

…. कोप-यात टॉर्चचा उजेड पडला आणि डोळ्याला जे दिसलं ते पाहून जोराची किंकाळी तोंडातून बाहेर पडली..

त्या कोप-यात एक अतिशय कृश आणि बुटकी बाई पाय पोटाशी घेऊन बसली होती..

अंधाराशी स्पर्धा करणारा अव्वल वर्ण, पिंजारलेले मोकळे केस.. बारीक डोळे, नाकात मोठी चमकी नि कशीतरी नेसलेली इरकल साडी.. हे कमी होतं म्हणून की काय..

.. तिचे पुढे आलेले पांढरे पिवळे दात काढून ती माझ्याकडे पाहून हसू लागली..

” कोण आहे तुम्ही ?” मी धीर एकवटून विचारलं.. नि ती पुन्हा खदाखदा हसू लागली..

आता मात्रं माझं अवसान संपलं.. ही नक्कीच कुणीतरी हडळ बिडळ असणार.. माझी खात्री पटली.. मी भीतीने दाराशी पळत सुटले.. नि दाराशी आलेल्या माझ्या यजमानांना धडकले..

” काय झालं ? अशी का पळतेयस?”

माझ्या तोंडातून शब्दच फुटेना..

” भूत.. भूत “

मी कोप-याकडे बोट दाखवायला नि दिवे यायला एकच गाठ पडली..

मिस्टरांनी कोप-यात पाहिलं..

“चिन्नम्मा.. तू कधी आलीस ?”.. मिस्टरांनी तिला सहजपणे विचारलं..

उत्तर न देता ती पुन्हा तशीच हसली..

” तुम्ही या बाईला ओळखता ?”

” ओळखता काय? चांगला ओळखतो.. अगं हिनं दहा वर्ष आपल्या घरी काम केलय.. खूप प्रामाणिक.. अगदी घरच्यासारखं काम करायची.. मुलं मिळवायला लागल्यावर तिने काम सोडलं. परवाच हिचा मुलगा दवाखान्यात माझ्याकडे तपासायला हिला घेऊन आला होता.. हिला स्किझोफ्रेनिया झालाय… कोणीतरी कानात बोलतय.. कोणीतरी फोटो काढतय.. असे भास होतायत.. घरी न सांगता कुठेतरी हिंडत बसते..

अनेक वर्षांनी आज आपल्या घरी आली…. पण तू एवढी घाबरलीयस का? तूच तिला घरात घेतलं असशील नं?”

मी नाही म्हटलं नि घडलेलं सारं सांगितलं..

” पण मग ही घरात कशी शिरली ?”

आम्ही खूप चर्चा केली.. तिला विचारलं.. पण हसण्याशिवाय तिच्याकडून कोणताच प्रतिसाद नव्हता..

नि माझ्या डोक्यात एकदम प्रकाश पडला.

मी अपर्णाकडे जाण्यासाठी दारात आले नि पुस्तक विसरलं म्हणून दार तसेच उघडे ठेऊन खोलीत गेले..

तेवढ्यात ही चिन्नम्माबाई घरात शिरली नि सरळ स्वयंपाकघरात गेली.. आणि मी दाराला कुलूप लावून निघून गेले..

हिने स्वयंपाकघरातील भांडी काढली.. भूक लागल्यावर कदाचित चिवडा, बिस्कीटे खाल्ली नि नंतर बिचारी हॉलच्या कोप-यात येऊन बसली..

– – आम्हाला या प्रकारावर हसावं की रडावं तेच कळेना..

मी तिला चहा करून दिला. चहा, बिस्कीटे खायला घालून, खणानी तिची ओटी भरली नि आम्ही दोघे तिला तिच्या घरी गाडीतून सोडून आलो..

तिच्या घरच्यांची दिवसभर शोधाशोध सुरूच होती. त्यांनी चारचारदा आमची क्षमा मागितली नि आभारही मानले..

चार दिवसांनी ती पुन्हा गायब झाल्याचं तिच्या मुलाकडून कळलं…

पण यावेळी मात्र ती आमच्याकडे आली नव्हती…

– – पंचवीस वर्षात ना ती कुठे सापडली.. ना तिची खबरबात मिळाली..

पोलीस स्टेशनमधे ती अजूनही ” मिसिंग ” आहे..

….. जायच्या आधी मात्र तिच्या ” डॉक्टरदादांना ” भेटून, आमच्या घरी चहापाणी करून गेली.. !!

© सुश्री नीला महाबळ गोडबोले 

सोलापूर 

फोन नं. 9820206306,  ई-मेल- gauri_gadekar@hotmail. com; gaurigadekar589@gmail. com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ।। श्री नारद उवाच ।। – नारद भक्ति सूत्रे — लेख १/२ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले

? इंद्रधनुष्य ?

।। श्री नारद उवाच ।। – नारद भक्ति सूत्रे — लेख १/२  ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले 

अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः

साधन चतुष्ट्य 

भक्त म्हणजे भगवंतापासून जो विभक्त नाही तो. भक्त होण्यासाठी काय पात्रता लागते, तर असे अमुक अमुक सांगता येणं अवघड आहे. पण भक्ताने कसे असावे, किंवा आदर्श भक्त कसा असतो ते सांगता येईल….. ! उत्तम भक्ताची लक्षणे अनेक ग्रंथात आलेली आढळतील.

जेव्हा आपण भक्ति चा शास्त्र म्हणून अभ्यास करतो, तेव्हा त्याला काही सूत्रे जोडावी लागतात, पटतंय ना ?

त्यातील प्रमुख चार सूत्रे खालील प्रमाणे आहेत.

१. नित्यानित्यविवेक म्हणजे जगात नित्य म्हणजे शाश्वत काय आहे आणि अनित्य म्हणजे अशाश्वत काय आहे हे जाणणे.

२. नित्य आणि अनित्य जाणल्यानंतर त्यांचा यथासंभव त्याग करणे.

३. शम, दम, श्रद्धा, उपरम, तितिक्षा, समाधान यांचा अंगिकार करणे.

४. मुमुक्षता

कोणत्याही शास्त्राची, विषयाची पदवी घ्यायची असेल तर त्यासाठी किमान पात्रता असणे अनिवार्य ठरते. एखाद्याला वैद्यकीय पदवी घ्यायची असेल तर बारावीला नुसते उत्तीर्ण होऊन चालत नाही तर सर्वोत्तम गुण असावे लागतात. त्या अनुषंगाने भक्तिशास्त्र शिकण्यासाठी, भक्तीचा लाभ होण्यासाठी आंतरिक व्याकुळता खूप महत्वाची ठरते. ज्याप्रमाणे एका म्यानात दोन तलवारी राहत नाहीत, त्याप्रमाणे मनात जोपर्यंत वासनेचा जोर आहे तो पर्यंत भक्तीचा उगम होणे कठीण आहे. परंतु मनुष्याचे सुकृत उदयास आले आणि त्याचवेळी सद्गुरूकृपा झाली तर मात्र भक्ति देवता त्याच्यावर कृपा करते असे सर्व संत सांगतात. याच सूत्रानुसार ब्रह्मज्ञान प्राप्त करण्यासाठी साधन चतुष्ट अत्यावश्यक सांगितले गेले आहे.

आपण एकेक मुद्दा पाहू.

१. नित्य आणि अनित्य :~ मी नसताना भगवंत होता, मी असताना भगवंत आहे आणि उद्या कदाचित मी नसेल तेव्हाही भगवंत असेल…, अर्थात तो नित्य आहे. तसेच मी अनित्य आहे, या नश्वर जगातील प्रत्येक गोष्ट अनित्य अर्थात कधीतरी नष्ट होणारी आहे. माउली म्हणतात,

“उपजे तें नाशे । नाशलें पुनरपि दिसे ।

हें घटिकायंत्र तैसें । परिभ्रमे गा ॥”

 (ज्ञानेश्वरी २. १५९)

२. ईश्वर सर्व चराचरात भरून राहिला असल्याने तो माझ्यामध्ये ही आहे. त्याला ओळखणे म्हणजेच भगवंताची ओळख करून घेणे असल्याने, येथील अनित्य गोष्टीत न रमता त्यांचा त्याग करायला शिकणे.

३. शम, दम, श्रद्धा, उपरम, तितिक्षा, समाधान यांचा अंगिकार करणे. हे सहा गुण आहेत. प्रत्येक साधकाने नव्हे तर प्रत्येक मनुष्याने त्याचा अंगिकार करायला हवा.

शम.

म्हणजे मनाचा निग्रह, अर्थात स्वतःच्या बाबतीत कठोर आणि दुसऱ्याच्या बाबतीत मृदु. सामान्य मनुष्य नेहमी याच्या उलट करीत असतो.

दम.

इंद्रियांचा निग्रह. एखाद्याने शुभ्र पांढरा कपडा परिधान केलेला असेल तर मनुष्य त्या कपड्याकडे न पाहता त्यावर कुठे एखादा डाग दिसतो का ते पाहतो… , त्याची नजर चांगल्या गोष्टींकडे न जाता, वाईट गोष्टीकडे जाते. इथे इंद्रियांचा निग्रह महत्त्वाचा ठरतो.

श्रद्धा

सद्गुरूंवर, त्यांच्या वचनावर दृढ श्रद्धा. आईने घास भरवायला तोंडाशी आणला की बाळ अगदी सहज तोंड उघडते, त्याची त्याच्या आईवर आत्यंतिक श्रद्धा असते. त्याच्या मनात असे कधीही येत नाही की आई या घासात मला विष घालेल…. ! अशी श्रद्धा असलेला कल्याण नावाचा शिष्य समर्थांनी कल्याणा, माझी छाटी… असे म्हटले की क्षणाचाही विलंब न करता थेट कड्यावरून उडी मारतो…

उपरम

सर्व कर्माचा त्याग करणे, अर्थात इथे मनाने त्याग अभिप्रेत आहे. कारण कर्म केल्याशिवाय मनुष्य जिवंत राहू शकत नाही….

तितिक्षा

मनुष्याच्या आयुष्यात सुख दुःखाचे प्रसंग येत जात असतात. सुख आले की मनुष्य खुश असतो पण दुःख येऊच नये असे त्याला वाटत असते. जो मनुष्य सुखदुःखात समतोल रहातो, तोच खरा अधिकारी ठरतो. त्याची कसलीच तक्रार नसते. “तू ठेवशील तसा राहीन….. !” इतकेच त्याला कळते…

समाधान 

मनुष्य अनेक इच्छा मनात धरून असतो. कधी त्या पूर्ण होतात तर कधी अपूर्ण राहतात. समाधानी व्हायचे असेल तर पुढील सूत्र उपयोगी पडू शकेल.

इच्छा पूर्ण झाली तर देवाची कृपा समजावी आणि इच्छा अपूर्ण राहिली तर देवाची इच्छा समजावी. आपण आनंदात असावे.

४. मुमुक्षता

 जन्म मरणाच्या फेऱ्यातून मुक्त होणे हे प्रत्येक मानव देह प्राप्त केलेल्या जीवाचे आद्य कर्तव्य आहे. हे मनुष्याचे प्रमुख दीर्घकालीन ध्येय असले पाहिजे. त्यासाठी अन्य छोटी छोटी ध्येय जरूर असावीत, पण त्यामुळे आपल्या दीर्घ कालीन ध्येयाकडे डोळेझाक होऊ देऊ नये.

देवर्षी नारद महाराज की जय!!

– क्रमशः सूत्र १ / २ 

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले (दास चैतन्य)

थळ, अलिबाग. 

८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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