हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 1 ?

? संजय दृष्टि –  अंतरा (काव्य संग्रह) –  कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – अंतरा

विधा – कविता

कवयित्री- डॉ. पुष्पा गुजराथी

? पार्थिव यात्रा और शाश्वत कविता – श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। भावात्मक विरेचन एवं व्यक्तित्व के चौमुखी विकास में काव्य कला को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भूत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। डॉ. पुष्पा गुजराथी उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है,‘पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भूत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री डॉ. पुष्पा गुजराथी के क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित प्रस्तुत कवितासंग्रह ‘अंतरा’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। संवेदना मनुष्य की दृष्टि को उदात्त करती है। उदात्त भाव सकारात्मकता के दर्शन करता है-

पर

तुझे पता भी है?

पत्थर के बीच

झरना भी बहता है..!

कविता के उद्भव में विचार महत्वपूर्ण है। अवलोकन से उपजता है विचार। पुष्पा जी के सूक्ष्म अवलोकन का यह विराट चित्र प्रभावित करता है-

चिता पर रखी लकड़ी पर,

एक पौधे ने

खुलकर अंगड़ाई ली..!

विचार को अनुभव का साथ मिलने पर कविता युवतर पीढ़ी के लिए जीवन की राह हो जाती है-

अब मैैं

तुम्हारी आँखों के आकाश से

नीचे उतर जाती हूँ, क्योंकि-

आकाश में

घर तो बनता नहीं कभी..!

कवयित्री की भावाभिव्यक्ति के साथ पाठक समरस होता है। यह समरसता, व्यक्तिगत को समष्टिगत कर देती है। यही पुष्पा गुजराथी की कविता की सबसे सफलता है।

यूँ तो गैजेट के पटल पर एक क्लिक से सब कुछ डिलीट किया जा सकता है पर मानसपटल का क्या करें जहाँ ‘अन-डू’ का विकल्प ही नहीं होता।

अभी कुछ शेष है,

देह के कंकाल में

जो मुक्त होना नहीं चाहता,

गहरा अंतर तक खुद गया है,

यह ‘कुछ’ डिलीट नहीं होता..!

पूरे संग्रह में विशेषकर स्त्रियों द्वारा भोगी जाती उपेक्षा, टूटन की टीस प्रतिनिधि स्वर बनकर उभरती हैं।

हर बार वह

झुठला दी जाती,

अपनी क़ब्र में

दफ़न होने के लिए..

समय साक्षी है कि हर युग में स्त्री की भावनाओं, उसके अस्तित्व को दफ़्न करने के कुत्सित प्रयास हुए पर अपनी जिजीविषा से हर बार वह अमरबेल बनकर अंकुरित होती रही, विष-प्राशन कर मीरा बनती रही।

विष पीकर

वह निखरती रही,

मीरा बनती रही..

कवयित्री के अंतस में करुणा है, नेह है। विष पीनेवाली को भी एक अगस्त्य की प्रतीक्षा है जो उसके हिस्से के ज़हर को अपना सके, जिसके सान्निध्य में वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर सके।

मैं आँखें खोल देखती हूँ

तुम्हारे नीले पड़े होठों को,

तुम कुछ कहते नहीं,

बस उठकर चल देते हो,

मेरा ज़हर स्वयं में समेटकर..

इस संग्रह की रचनाओं में मनुष्य जीवन के विभिन्न रंग और उसकी विविध छटाएँ अभिव्यक्त हुई हैं। प्रेम, टीस, पर्यावरण विमर्श, मनुष्य का ‘कंज्युमर’ होना, अध्यात्म, दर्शन, अनुराग, वीतराग, आत्मतत्व, परम तत्व जैसे अन्यान्य विषय हैं। विषयों की यह विविधता कवयित्री के विस्तृत भाव जगत की द्योतक हैं। हिडिम्बा जैसे उपेक्षित पात्र की व्यथा को कविता में उतारना उनकी संवेदनशीलता तो दर्शाता ही है, साथ ही उनके अध्ययन का भी परिचायक है।

इहलोक की पार्थिव यात्रा में कविता के शाश्वत होने को कुछ यूँ भी समझा जा सकता है-

शाश्वत-अशाश्वत की

सीढ़ियाँ चढता-उतरता हुआ

जब भी लम्बी यात्रा

पर निकल पड़ता है..!

कामना है कि डॉ. पुष्पा गुजराथी की साहित्यिक यात्रा प्रदीर्घ हो, अक्षरा हो।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन को वसंत करो

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पतझड़ से इस जीवन को तुम,

आकर कंत वसंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

जीवन को वसंत करो

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “तालियां बजाते रहो…”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है व्यंग्यकार श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” जी की कृति “तालियां बजाते रहो… “ की समीक्षा)

श्री सुरेश मिश्र “विचित्र”

☆ “तालियां बजाते रहो… ”(व्यंग्य संग्रह)– श्री सुरेश मिश्र “विचित्र” ☆ पुस्तक चर्चा – श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆ 

(आज 22 जून को विमोचन पर विशेष)

पुस्तक चर्चा 

कृतिकार सुरेश मिश्र “विचित्र” के श्रेष्ठ व्यंग्य

विषयों के चयन, निर्भीक कथन और सहज – सरल चुटीली प्रवाह पूर्ण भाषा शैली के कारण व्यंग्यकार सुरेश मिश्र “विचित्र” ने व्यंग्यकारों और पाठकों के बीच अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। यों विचित्र जी एक अच्छे कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भी सहज ही व्यंग्य उपस्थित हो जाता है। विगत कुछ समय से उनके द्वारा लिखे जा रहे “यह जबलपूर है बाबूजी” में पाठकों को काव्य और व्यंग्य का दोहरा मजा आ रहा है। आज विचित्र जी के नवीन व्यंग्य संग्रह “तालियां बजाते रहो” का विमोचन हो रहा है। मुझे विश्वास है कि विचित्र जी के इस व्यंग्य संग्रह को भी पाठकों का भरपूर स्नेह प्राप्त होगा। किसी भी लेखक की सफलता इस बात में है कि जब पाठक उसकी रचना पढ़ना प्रारंभ करे तो उसकी रोचक शुरूआत में ऐसा फंसे की पूरी रचना पढ़ने पर मजबूर हो जाए। देश के अनेक दिग्गज कहे जाने वाले व्यंग्यकारों में पाठकों को अपनी रचना से बांधने का जो कला कौशल नहीं है वह कला भाई विचित्र जी के लेखन में है। इसलिए वे पढ़े भी जाते हैं और लोकप्रिय भी हैं। यह बात अलग है कि समझ में न आने वाला लिखने वाले जोड़ तोड़ से निरंतर सरकारी व गैरसरकारी सम्मान अर्जित कर रहे हैं, स्वयं अपने श्रेष्ठ होने का डंका बजवा रहे हैं। मैं समझता हूं कि लेखक का असली सम्मान उसके लेखन को समझने वाले, उसमें रस लेने वाले, उसकी प्रशंसा करने वाले पाठकों की संख्या से होता है जो विचित्र जी के पास है।

“तालियां बजाते रहो” व्यंग्य संग्रह में विभिन्न विषयों, संदर्भों पर 35 व्यंग्य रचनाएं हैं। इनमें राजनैतिक व्यस्था – उथलपुथल, विसंगतियों, विद्रूपता, अतिवाद, भ्रष्टाचार, कुत्सित मानवीय प्रवृत्तियों आदि को आधार बना कर व्यंग्य की चुटकी लेते हुए रोचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। पुस्तक के नाम “तालियां बजाते रहो” शीर्षक से रचित व्यंग्य में विचित्र जी ने तालियां बजवाने और बजाने वालों के साथ साथ तालियों के प्रकार पर व्यापक चर्चा करते हुए उसके विविध अर्थ प्रकट किए हैं। संग्रह में तबादलों का मौसम खंड वृष्टि जैसा, पैजामा खींच प्रतियोगिता, वृद्धाश्रम का बढ़ता हुआ दायरा, भविष्यवाणियों का दौर जारी है, तृतीय विश्वयुद्ध के नगाड़े बज रहे, गधों को गधा मत कहो, नैतिकता के बदलते मापदंड, मेरे सफेद बाल जैसी संवेदना से भरपूर मारक व्यंग्य रचनाएं हैं। पाठक एक रचना पढ़ने के बाद तुरन्त ही दूसरी रचना पढ़ने के लिए बाध्य हो जायेगा।

“साहित्य सहोदर” संस्था के संस्थापक सुरेश मिश्र “विचित्र” वर्षों से समारोह पूर्वक कबीर जयंती समारोह माना रहे हैं। वे कबीर को सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार मानते हैं और उनकी रचनाओं का अध्ययन मनन करके, उनसे प्रेरणा प्राप्त करके ही उन्होंने लेखन की व्यंग्य विधा को चुना है। मैं समझता हूं कि न सिर्फ विचित्र जी वरन किसी भी रचनाकार की तुलना किसी भी अन्य रचनाकार से नहीं की जा सकती क्योंकि प्रत्येक रचनाकार का समयकाल, बचपन, उसका पालन पोषण, पारिवारिक पृष्ठभूमि, शिक्षा, मित्र, पेशा, परेशानियों आदि का संयुक्त प्रभाव उसकी मनोदशा का निर्माण करता है जो उसकी रचनाओं में परिलक्षित होता है। अतः परसाई जी, शरद जोशी या किसी भी अन्य वर्तमान व्यंग्यकार से सुरेश मिश्र “विचित्र” की कोई तुलना नहीं। विचित्र जी “विचित्र” हैं और सदा सबसे अलग लिखने, दिखने वाले “विचित्र” रहेंगे। कृति विमोचन के अवसर पर सभी मित्रों, प्रशंसकों की ओर से उन्हें बहुत बहुत बधाई, मंगलकामनाएं। उनकी कलम निरंतर चलती रहे।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #237 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 237 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तपती है कैसे धरा, बादल सुनो पुकार।

पंछी व्याकुल हो रहे,पानी की दरकार।।

*

खेतों में हम गा रहे,सुनो मेघ मल्हार।

ईश्वर सुनिए आप अब, मेघ करो बौछार।।

*

जगह जगह पर बाढ़ है, यहां नहीं बरसात।

कब आओगे मेघ तुम,  नहीं बीतती   रात।।

*

आज हमें तो लग रहा,आएगी बरसात।

विनती सुन ली ईश ने, बदरा छाए रात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #219 ☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – खूब परखते औरों को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 219 ☆

☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राज  दिल  के  खोल दो जी

आज खुल कर बोल दो  जी

*

छोड़  कर  नफ़रत  जहन से

प्यार  दिल  में  घोल  दो  जी

*

रहो    झूठ    से    दूर   सदा

सच्चाई   का   मोल   दो  जी

*

खूब    परखते    औरों    को

खुद  को  भी  टटोल  लो जी

*

प्यार    चाहें    बेपनाह    गर

स्वयं  को  भी  तोल  लो  जी

*

हम   भी   हैँ    प्रेम    पुजारी

हमें   भी  कुछ  रोल  दो   जी

*

मिलेगा    “संतोष”   प्रेम    में

राग  प्रेम   का  बोल  दो   जी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 226 ☆ द्या आम्हा प्रेरणा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 226 – विजय साहित्य ?

☆ द्या आम्हा प्रेरणा…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

द्या आम्हा प्रेरणा

दान धर्मातून

कळे कर्मातून,

पदोपदी. . . ! १

*

माय बाप तुम्ही

काळजाची छाया

जपतोय माया,

उराउरी. . . ! २

*

द्या आम्हा प्रेरणा

संवादाचा नाद

टाळतोच वाद,

अनाठायी. . . ! ३

*

जीवन प्रवास

अनुभवी धडा

चुकांचाच पाढा,

वाचू नये. . . . ! ४

*

द्या आम्हा प्रेरणा

पिढ्यांचे संचित

कुणी ना वंचित

सन्मार्गासी . . . ! ५

*

द्या आम्हा प्रेरणा

यशोकिर्ती ध्यास

कर्तव्याची आस

आशिर्वादी. . . . ! ६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रार्थनेचे फळ… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रार्थनेचे फळ… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

वातावरण संस्कारिक , तिने वारसा जपला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

*

महात्म्य वटपौर्णिमेचे आहे तिला सारे ज्ञात

बळीराजाचा प्राण ‘धरा’ ओतले काळीज त्यात

पूर्ण कर त्याच्या आशा मंत्र मनात प्रार्थियला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

*

सवाष्णीचे मागणे असे देव कसा हो टाळेल

वरदहस्त कृपेचा मग तिच्या डोई ठेवेल

पूर्ण करण्या हेतू तिचे देव कामास लागला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

*

पसरल्या पदरात दान श्रद्धेने मागितले

पतीसवे सकलांचे हित त्यात सामावले

मनोभावेची प्रार्थना देव नाराज न करी तिला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

*

दैन्य जावो तिचे आणि सारे सौख्यात नांदावे

पदरात हेच दान तिच्या आता मी घालावे

नारायणीच्या ओंजळीतून खजिना मोत्यांचा सांडला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

*

चार मास हा खजिना वेळोवेळी सांडणार

बळीराजाचे कष्ट सारे देवकृपे फळणार

देऊ त्याहून अधिक मिळवू हाच दाखला मिळाला

बळीराजाच्या अस्तुरीने आज वड पुजीयेला ॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ माझा आधार -वड… ☆ सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

☆ माझा आधार -वड ☆ सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सोडून गेला तुम्ही अकाली,

या जन्मीची गाठच सुटली !

राहिले मी इथेच आता,

तुझ्या विना का जगी एकली!….१

*

बांधू न शकले तुझं हाताला,

कमी पडला सावित्रीचा धागा !

मजवरी पडला अवचित घाला, 

तुम्हांस  मिळाली स्वर्गी जागा !…२

*

सावित्री होती पुण्यवान मोठी,

तप केले तिने भ्रतारासाठी !

यमास केले प्रसन्न तिने,

ओढून आणी सौभाग्य हाती!….३

*

इतकी पुण्याई नव्हती माझी,

तुझ्या सवे जाण्याची वरती !

तरीही पूजिते वटवृक्षाला,

पुढील जन्मी दे हाच साथी!…४

*

होतास तू माझा आधारवड !

आदर, भक्ती, प्रीती तुजवर !

जिरवते मी मनातले कढ,

 दुःखी होई जरी माझे अंतर !…५

*

मन होते जरी अस्वस्थ माझे,

घडणारे ते घडून जाते !

सांत्वन करते मीच मनाचे,

 रामाची इच्छा म्हणून राहते !….६

© सुश्री उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ वटपौर्णिमा अर्थात ‘वैश्विक पर्यावरण दिन’ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’ ☆

श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

🔅 विविधा 🔅

☆ वटपौर्णिमा अर्थात ‘वैश्विक पर्यावरण दिन’ ☆ श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

।श्रीराम। आपण हिंदू लोकं उत्सवप्रिय आहोत. आपल्या संस्कृतीतील सर्व सण विज्ञानाधिष्ठीत आहेत. सर्व सण कौटुंबिक वातावरण उबदार करणारे आणि सामाजिक बांधिलकी वृद्धिंगत करणारे आहेत. हिंदूंचा कोणताही सण घेतला तरी त्यातून कोणत्या ना कोणत्या प्रकारे सामाजिक आशयच प्रगट होत असतो हे आपल्या लगेच लक्षात येईल. आपले सर्व सण सामाजिक बांधिलकी, राष्ट्रीय एकात्मता आणि बंधुभाव शिकवतात. ‘ज्याला कृष्णाचा ‘काला’ समजला त्याला वेगळी ‘राष्ट्रीय एकात्मता’ शिकविण्याची बिलकुल गरज नाही’ असे एक वचन प्रसिद्ध आहे.

चुकून कुणाला पाय लागला तर नुसते ‘क्षमस्व’ किंवा आजच्या नवीन पिढीच्या आंग्लमिश्रित भाषेत तोंडदेखलं ‘सॉरी’ म्हणणारी आपली संस्कृती नाही तर अतीव नम्रतेने ‘नमस्कार’ करणारी आपली संस्कृती आहे. अशा प्रकारचा व्यवहार अथवा परंपरा आपल्याला इतरत धर्मात अथवा उपासना पद्धतीत बघायला मिळत नाही. इतक्या सूक्ष्म स्तरावर समोरील मनुष्याच्या भावभावनांचा विचार करणारी दुसरी संस्कृती ह्या भूतलावर नक्कीच नसेल. असे असूनही परकियांपेक्षा आपले लोकच आपल्या धर्मावर जास्त टीका करतात, याचे नवल वाटते. टीका करणे आपण एक वेळ समजू शकतो, पण आज कोणताही हिंदू सण आला की त्याला विरोध करणारे एकवटतात आणि हिंदू धर्म कसा विज्ञानविरोधी आहे, अंधश्रद्धाळू आहे, बुरसटलेल्या विचारांचा आहे असे सांगण्याची तथाकथित बुद्धिजीवी लोकांची अहमहिका सुरु होते.जेष्ठ पौर्णिमेला जिवंत वडाची पूजा करणे ही अंधश्रद्धा मानणारी तथाकथित पुढारलेली ( ‘अतिप्रागतिक वैज्ञानिक दृष्टिकोन असणारी’ ) मंडळी २५ डिसेंबरला मात्र कृत्रिम ‘ख्रिसमस ट्री’ बनविताना आणि आकाशातून ‘सांताक्लाज’ नावाचा कोणी ‘देवदूत’ येईल या आशेने त्याच्या येण्याची वाट पाहतांना मात्र आपल्या दृष्टीस पडतात. अशा वेळी त्यांच्या (अ)वैज्ञानिक दृष्टिकोनाची कीव येते.

ज्येष्ठ महिन्यातील पौर्णिमेला वडाची पूजा करण्याची पद्धत फार पूर्वीपासून आपल्याकडे आहे. याला वटपौर्णिमा असेही म्हणतात. सुवासिनींनी वडाची पूजा करावी, दिवसभर उपवास करावा आणि एकूणच त्या दिवशी ‘व्रत’ धरावे अशी अपेक्षा असते. चातुर्मासाच्या पुस्तकात सत्यवान आणि सावित्रीची कथा देखील आहे. कहाणीत सांगितल्याप्रमाणे सत्यवानाचा मृत्यू होतो. सावित्रीला हे समजल्यावर ती यमाकडे जाते आणि आपल्या पतीला जीवनदान मिळवून परत स्वगृही घेऊन येते अशा अर्थाची ही कथा आहे. ज्या झाडाखाली सत्यवान जिवंत होतो ते झाड वडाचे होते, म्हणून वडाच्या झाडाची पूजा केली जाते. भाविकांनी ती कहाणी अवश्य वाचावी.

“सावित्रि ब्रह्मसावित्रि सर्वदा प्रियभाषिणी|

तेन सत्येन मां पाहि दुःख-संसार-सागरात्|

अवियोगो यथा देव सावित्र्या सहितस्य ते |

अवियोगो तथास्माकं भूयात् जन्मनि जन्मनि ||”

वरील प्रार्थना वटपोर्णिमे संदर्भात आहे. सर्व पवित्र वृक्षांत वटवृक्षाचे आयुष्य जास्त ( साधारण हजार वर्षे) असून पारंब्यांनी त्याचा विस्तारही खूप होतो. अशा वटवृक्षाची पूजा करून स्त्रिया `मला व माझ्या पतीला आरोग्यसंपन्न दीर्घायुष्य लाभू दे, धनधान्य व मुले-नातू यांनी माझा प्रपंच विस्तारित व संपन्न होऊ दे’, अशी प्रार्थना करतात.

आजच्या काळात आपल्याला या व्रताचा आणि त्या कहाणीचा वेगळ्या प्रकारे विचार करता येईल. त्याआधी वड या झाडाचे गुणधर्म लक्षात घ्यायला हवेत. वडाचे बीज अतिसूक्ष्म असते, पण त्यातून निर्माण होणारा वृक्ष हा अतिविशाल असतो. वड ही अधिकाधिक प्राणवायु देणार वृक्ष आहे, त्याचे आयुष्य साधारणपणे हजार ते अकराशे वर्ष असते. वैशाख वणव्यातून बाहेर पडून धरती पावसासाठी आसुसलेली असते. दोन ऋतूंमधील संधिकाल असल्यामुळे  वातावरण प्रकृतिला त्रासदायक असते. काही ठिकाणी कमीअधिक प्रमाणात पाऊस सुद्धा झालेला असतो. त्यामुळे रोगराई वाढण्याची शक्यता जास्त असते. अशावेळी मनुष्याला अधिक प्राणवायुची (शुद्ध वातावरणाची) गरज असते आणि ती पुरवण्याची क्षमता फक्त वडात आहे. मनुष्याने या निमित्ताने निसर्गाच्या सानिध्यात जावे, प्राणवायू अव्याहतपणे पुरविणाऱ्या वनस्पतींच्या सान्निध्यात यावे हा ह्या व्रताचा मूळ उद्देश!. वडाला पारंब्या असतात त्यामुळे त्याचा विस्तार प्रचंड होतो. विस्तार जरी प्रचंड झाला तरी तो कधी पडत नाही कारण तो वृक्ष आपल्या पारंब्यांच्या आधारावर जमिनीवर दिमाखात उभा राहतो. वड, पिंपळ या सारख्या मोठ्या वृक्षांची लागवड मुद्दाम गावाबाहेर केली जाते. वडाच्या मुळाबाजूच्या मातीत देखील प्राणवायू आणि नायट्रोजनचे प्रमाण जास्त असते हे आधुनिक विज्ञानाने सिद्ध करून दाखविले आहे. नायट्रोजनयुक्त माती खत म्हणून उपयुक्त असते. वडाच्या प्रारंब्यांपासून बनविलेले तेल केसांसाठी उपयुक्त आहे. ‘पुसंवन’ विधीमध्ये देखील वडाच्या कोवळ्या अंकुराचा उपयोग केला जातो. वडाच्या पारंब्यांचा कितीही विस्तार झाला तरी मूळ खोड कायम सतेज आणि मुख्य आधारस्तंभाच्या स्वरुपात तसेच राहते. वडाची मूळं जमिनीत खूप खोलवर रुजलेली असतात. त्यामुळे जमिनीतील पाण्याची पातळी कायम राखली जाते. वडाचे आणिक बरेच उपयुक्त गुणधर्म आहेत जे खास स्त्रियांसाठी गुणकारक आहेत, जिज्ञासू वाचकांनी ते अभ्यासू मंडळींकडून जाणून घ्यावेत.

श्रीगोंदवलेकर महाराजांचे एक वचन आहे. ‘आजपर्यंत हिंदू धर्म टिकला तो घरातील स्त्रियांमुळेच’. पण आज मात्र हिंदूधर्माच्या सण आणि परंपरांवर घाला घातला जात आहे आणि आपल्या सुशिक्षित माता भगिनी त्यास बळी पडत आहेत. आपल्याला पुन्हा हिंदू धर्माला पूर्वीचे वैभव प्राप्त करून द्यायचे असेल तर आपल्या सर्व सणांचा आजच्या काळानुरूप अर्थ लावावा लागेल आणि  त्याचा प्रचार आणि प्रसार करुन येणाऱ्या नवीन पिढीपर्यंत ते योग्य मार्गाने पोहचवावे लागेल. नवीन पिढी कुशाग्र आहे त्यांना अनेक प्रश्न पडतात, त्यांची सयुक्तिक उत्तरे आपल्याला देता आली पाहिजेत अन्यथा येणारी पुढील पिढी आपल्याला माफ करणार नाही.

खरंतर ‘वटपौर्णिमा’ हाच *वैश्विक पर्यावरण दिन आहे असे म्हटले तर अतिशयोक्ती होऊ नये.* सध्या आपण ५ जून हा जागतिक पर्यावरण दिन साजरा करतो. वटपूजनाचा मूळ उद्देश हा आहे की सर्वांना वृक्षांचे महत्व कळावे, वन (वृक्ष) साक्षरता वाढावी. आपल्या कुटुंबातील वडीलधाऱ्या माणसांची काळजी आपण ज्या आत्मीयतेने काळजी घेतो तितक्याच किंवा किंबहुना त्यापेक्षा अधिक आत्मीयतेने आपण वृक्षांचे, वनांचे, वन्यजीवांचे पर्यायाने एकूणच वनसंपत्तीचे संरक्षण आणि संवर्धन केले पाहिजे असे हा सण आपल्याला सांगतो. आजची एकूणच पर्यावरणाची स्थिती बघितली, तर वृक्षसंवर्धन अमूल्य आहे याची आपणा सर्वांना निश्चितच जाणीव आहे. ही जाणीव मात्र आपल्याला जागतिक तापमान वाढायला लागल्यानंतर झालेली आहे. हे सर्व *’तहान लागल्यावर विहिरी खणण्यासारखे’ आपण करीत आहोत. आपल्या पूर्वसूरींना मात्र खूप आधीपासून याची जाणीव होती. आजच्या सारखे प्रगत तंत्रज्ञान नसतानाही ही ‘जाणीव’ त्यांनी प्रयत्नपूर्वक समाजाच्या तळागाळापर्यंत पोहोचविली आणि श्रद्धेने तिचे पालन केले जाईल असे बघितले, नव्हे ती जाणीव समाजमनात उजवली,रुजवली. आज एखादी नवीन प्रणाली आत्मसात करुन ती आपल्या घरात रुजविणे किती जिकरीचे आहे, याची आपल्याला नक्कीच कल्पना आहे. म्हणून भारतासारख्या खंडप्राय देशात जिथे दर १५ किमी. वर बोली भाषा बदलते, अशा ठिकाणी वृक्षसंवर्धन करण्यासाठी एखाद्या ‘कहाणी’चा पूर्वसूरींनी आधार घेतला असेल तर ते सयुक्तिकच मानले पाहिजे. त्यांनी ही संकल्पना तत्कालीन समाजात रुजवली, संवर्धित  केली आणि आज सुद्धा हे व्रत केले जात आहे याबद्दल आपण आपल्या पूर्वजांचे ऋणी असले पाहिजे.

ज्याप्रमाणे घरातील जेष्ठांना सर्वात आधी नमस्कार केला जातो त्याचप्रमाणे जंगलातील जेष्ठ अशा वडाचे प्रातिनिधिक स्वरूपात पूजन होणे अपेक्षितच आहे. म्हणून ‘वडाचेच पूजन का?’ हा प्रश्नच गैर आहे असे वाटते. पूर्वी व्रतवैकल्ये प्रामुख्याने महिला करीत असत त्यामुळे हे व्रत महिलांकडे आले असावे. उपवास हा यातील गौण मुद्दा आहे. स्त्रीला धरित्रीची उपमा दिली जाते. स्त्री हीच जन्मदात्री आहे. निसर्गाने स्त्रीला दिलेली सर्वात मोठी देणगी आहे ती म्हणजे मातृत्व अर्थात नवनिर्मिती करण्याची क्षमता, प्रजनन क्षमता!!!

स्त्री नैसर्गिक गुणानेच सहनशील आणि संयमित आहे. आपल्याकडे कोणतेही देवकार्य, देव पूजन स्त्रीला सोबत घेतल्याशिवाय केले जात नाही. दुर्दैवाने पत्नी हयात नसेल तर सुपारी सोबत घेऊन विधी केले जातात. तसेच आपल्या संस्कृतीत ‘स्त्री’ला लक्ष्मी मानली जाते. स्त्री जशी ‘कोमल’ ह्रदयी आहे तशी ती वेळप्रसंगी ‘दुर्गा’ही होऊ शकते. जन्म देणे आणि संगोपन करणे ही कला स्त्रीला (मादी) निसर्गानेच बहाल केली आहे. चार मुलं एकत्र येऊन आईला सांभाळू शकत नाहीत पण एक आई मात्र चार मुलांना आज सुद्धा सांभाळते. स्त्रीमध्ये मातृत्वाची भावना उपजतच असते. त्यामुळे स्त्रियांनी हे व्रत केले तर सर्व कुटुंब ते सहज स्वीकारेल आणि त्याचे काटेकोरपणे पालन होईल असाही सुप्त उद्देश त्यामागे असावा असे वाटते. कोणत्याही गोष्टीचे ‘मर्म’ न घेता नुसतेच कर्म केले गेले तर योग्य तो लाभ होऊ शकत नाही.

हिंदुधर्म पुनर्जन्म मानणारा आहे. वडाची वाढणारी प्रत्येक पारंबी ही मनुष्याचा नवीन जन्म सूचित करणारी आहे असे मानले तर सात जन्माचे रहस्य आणि वटपूजा आणिक स्पष्ट होईल. गीतेत भगवंतांनी सांगितले आहे की आत्मा मरत नाही तर तो वस्त्र बदलावे, त्याप्रमाणे फक्त शरीर (योनी) बदलत असतो. नरदेह प्राप्त झाल्याशिवाय आत्म्यास मुक्ती लाभत नाही. पारंब्या कितीही वाढल्या तरी वड आपले मूळ खोड विसरत नाही. अगदी त्याचप्रमाणे मनुष्याने कितीही वेळा जन्म घेतला आणि तरीही तो आपल्या मूळ स्वरूप असलेल्या ‘आत्मारामा’स विसरला नाही तर त्याला ‘स्व’रूपाची नक्कीच ओळख होईल. आत्मारामाची ओळख करून घेण्यातच  मानवी जीवनाचे सार्थक आहे. मनुष्य योनीत जन्मास येऊनच रामाने देवत्व प्राप्त केले. त्यामुळे आजच्या शुभदिनी प्रत्येक जोडप्याने असा दृढनिश्चय करावा की आम्हाला कितीही जन्म घ्यावे लागले तरी आमचे ध्येय एकच असेल ते म्हणजे ‘आत्मारामाची भेट’ !!!

ज्या काळातील ही कथा आहे. त्या काळातील  मनुष्याचे आयुर्मान विचारात घेतले तर ते सरासरी १४० वर्षाचे होईल आणि वडाच्या झाडाचे एकूण आयुर्मान आपण १००० वर्षे पकडले तर  सात जन्म पुरेल इतके होईल. वटवृक्षाप्रमाणे आपला वंश किमान ७ जन्म अर्थात हजार वर्षे  तरी टिकावा किंवा त्याचा वडाच्या पारंब्यांप्रमाणे वंशविस्तार व्हावा म्हणून हे व्रत !! कोणत्याही सजीवास आपला वंश वाढावा असे वाटणे नैसर्गिकच आहे, नाही का ?

पूर्वी लग्न ही ‘संस्कार’ म्हणून केली जात असतं. वंशविस्तार आणि समाजधारणा हा लग्नसंस्काराचा प्रधान हेतू होता. तसेच तत्कालीन व्यवस्थेत मुलीला आपला पती निवडण्याचे स्वातंत्र्य होते. त्या काळी पतीलाच देव अथवा गुरू मानले जाई. मनुष्यत्वाकडून देवत्वाकडे जाण्याचा मूलभूत अधिकार पुरुषांप्रमाणे स्त्रियांना देखील होता. पतिसेवा हाच स्त्रीयांचा धर्म मानला जाई. भगवान दत्तात्रेयांच्या आईची अर्थात माता अनुसयेची कथा आपणा सर्वांना ज्ञात आहे. देवत्व प्राप्त करणे हे गुरुशिवाय शक्य नाही. म्हणून असा गुरू (आवडीचा पती) मला पुढील सात जन्म तरी मिळावा अशी प्रामाणिक इच्छा असणे गैरलागू कसे होऊ शकते? आपण कोठे प्रवासास निघालो तर सोबतीला आपण आपल्या विश्वासाचा मनुष्य बरोबर घेतो. कारण आपला प्रवास सुखाचा व्हावा अशी आपली त्यामागील भावना असते. इथे आपल्याला ‘मनुष्यत्व ते देवत्व’ असा प्रवास करायचा आहे अर्थात ‘आनंताचा’ प्रवास करायचा असेल तर आपण निवडलेला आपल्या आवडीचा सोबती प्रवास संपेपर्यंत अर्थात जिवाशिवाचे मिलन होईपर्यंत सोबत रहावा असे वाटणे अगदी स्वाभाविक आहे. वडाभोवती सूत गुंडाळण्यामागे पुर्वजांची संकल्पना अशी होती की वटवृक्षाला शिवाचे प्रतिक मानले जाते, वडाचे खोड सछिद्र असते त्यामुळे त्यास सूताने गुंडाळत फेरी मारणे हे जिवाशिवाचे मिलन झाल्याचे प्रतीक मानले जाई. भगवान शंकराचे मानसिक सामर्थ्य आणि शारीरिक क्षमता आपणांस प्राप्त व्हाव्यात ही भावना सुद्धा त्यामागे आहे. म्हणूनच पुर्वी पतीपत्नी दोघेही वडाला सूत गुंडाळत आणि प्रदक्षिणा घालत असत. प्रदक्षिणा घालणे हे मोटर फिरवण्यासारखे आहे. त्यामुळे केंद्रस्थानी असलेल्या वडाची सर्व ऊर्जा प्रदक्षिणा घालणाऱ्यास अनायासे मिळत असते.

आज विवाहामागील  ‘संस्कार’ लुप्त होत चालला असून ती आज एक प्रकारची व्यवस्था किंवा सर्वमान्य तडजोड ठरते आहे की काय याची भीती वाटू लागली आहे. सध्याचे कुटुंबातील वातावरण, एकूण सहजीवन आणि वाढत्या घटस्फोटांचे प्रमाण बघितले तर ही भीती खरी आहे असे वाटू लागते. आज विभक्त कुटुंब पद्धती रुजू पहात आहे. बदलत्या काळानुसार काही प्रमाणात ते अपरिहार्यही झाले आहे. म्हणून आज वटपौर्णिमा साजरी करीत असताना फक्त महिलांनीच याचा विचार न करता संपूर्ण कुटुंबानी आणि एकूण समाजाने याचा विचार करावा असे वाटते. व्यावहारिक अडचण असल्यामुळे दूर गेलेली कुटुंब या निमित्ताने एकत्र यावीत आणि वडाच्या पारंब्याप्रमाणे एकमेकांना आधार देत परस्परांतील स्नेह वृद्धिंगत करून आपले कुटुंब भक्कम आणि उबदार करण्याचा प्रयत्न केला जावा असे या सुचवावेसे वाटते. वटपौर्णिमेच्या निमित्ताने विश्वमान्य असलेली आपली ‘कुटुंब व्यवस्था’ अधिक सक्षम आणि सुसंस्कारित करण्याचा संकल्प आजच्या मंगलदिनी आपण सर्वांनी करावा अशी मनीषा व्यक्त करतो. आपल्या ‘कुटुंबरुपी’ वडाचा सर्वांगीण विकास व्हावा तसेच आपल्या कुटुंबाचा समाजातील प्रत्येक घटकाला आधार वाटावा असा प्रयत्न आपण सर्वांनी करावा, यातूनच हिंदू धर्माचा वटवृक्ष बहरेल यात तीळमात्र शंका नाही.

आर्य सनातन वैदिक हिंदू धर्म की जय। श्रीराम। 

© श्री संदीप रामचंद्र सुंकले ‘दास चैतन्य’

थळ, अलिबाग

मो. – ८३८००१९६७६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “ती, आरसा, आणि मी…” भाग – २ ☆ सुश्री शीला पतकी ☆

सुश्री शीला पतकी 

🌸 जीवनरंग 🌸

☆ “ती, आरसा, आणि मी” भाग – २ ☆ सुश्री शीला पतकी 

(त्या म्हणाल्या, “ह्या मुलीबरोबर कोणी डबा खायला तयार नाही, हिला कोणी एक एकत्र बसून घेत नाहीत. आम्ही खूप समजून सांगितलं दोन-तीन दिवस, पण मुली ऐकायलाच तयार नाहीत. तुम्ही काही करता का पहा…”) इथून पुढे 

मी दुसऱ्या दिवशी सकाळी प्रार्थनेच्या वेळेला मुलींना सांगितले की, “..मुलींनो समाजातले एक दुर्दैवी मूल आपण स्वीकारू शकत नसू तर तुम्ही पुढे जाऊन काय करणार. एखाद्याला मानसिक आधार देणे, मदत करणे हे आपण करायला नको का…? बरं, तिला कुठला रोग नाहीये. तो अपघात झाला होता आणि त्यामध्ये तिच्या शरीरावर हे वैगुण्य आले आहे. हे तुमच्या बाबतीत घडले असते आणि न करो पण पुढे  तुमच्या एखाद्या मुलाच्या बाबतीत घडले, नातेवाईकाच्या बाबतीत घडले तर तुम्ही अशा वागणार आहात का? तुमच्या सहकार्यामुळे तिला मानसिक उभारी मिळणार आहे मुलींनो.. आणि मी तुमच्या विश्वासावरच तिला शाळेत प्रवेश दिला आहे. मला खात्री आहे की तुम्ही माझ्या सगळ्या मुली.. एका मुलीला समाजामध्ये शिक्षण घेण्याच्या कामी नक्कीच मदतीला उभे रहाल. पण तुम्ही तर मला निराशच केलं. मला ही अपेक्षा नव्हती तुमच्याकडून. अगं दहावी काय, तुम्ही पास व्हाल, पण आयुष्यामध्ये ज्या अनेक परीक्षा द्यायच्यात ना, त्याच्यामध्ये सामोरे जाताना द्याव्या लागणाऱ्या अनेक परीक्षांची तयारी आहे, त्यात तुम्ही नापास होणार आहात का? मुळीच नाही. तुम्ही पतकी बाईंच्या विद्यार्थिनी आहात हे लक्षात ठेवा. संकट आणि दुःखाशी सामना करणाऱ्या प्रत्येक माणसाबरोबर उभे रहाण्याची ताकद तुमच्यात आली पाहिजे….” आणि मी बरंच बोलत राहिले.

मुली खाली मान घालून बसल्या होत्या. “तुम्हाला डबा खायचा नसेल तर उद्या मधल्या सुट्टीत मी इथे येईन  तिच्याबरोबर डबा खायला.. कारण तिला मी शाळेत घेतले आहे, ती माझी जबाबदारी आहे, तुमची नाही. आणि मी तुम्हाला याबाबत सक्ती करू शकत नाही.”

दुसऱ्या दिवशी मी माझा डबा घेऊन संस्थेत गेले. मी, मुख्याध्यापक आणि ती मुलगी असा मी डबा माझ्या खोलीत खाल्ला. त्यानंतर तिसऱ्या दिवशी मी परत मधल्या सुट्टीत गेले त्यावेळी मात्र मला दृश्य वेगळे दिसले. माझ्या सगळ्या मुलींनी त्या मुलीला आपल्याबरोबर डब्यामध्ये बसवले होते आणि त्या आनंदाने गप्पा मारत डबा खात होत्या. ते दृश्य पाहून माझे डोळे वाहिले. त्यांच्या डब्याच्या मध्ये जाऊन मी म्हणलं.. “तुम्ही माझ्या मुली आहात हे सिद्ध केलेत गं ..खूप छान वाटलं…. दहावी होण्यापेक्षा ह्या अशा गोष्टी शिकणं खूप गरजेचे आहे. खूप मोठ्या व्हाल. माझा आशीर्वाद आहे तुम्हाला …!”

मुलीनाही खूप आनंद झाला. आपण चुकलो याची जाणीव झाली आणि वर्गात पुन्हा प्रश्न निर्माण झाला नाही… शाळा सुरळीत चालू झाली काहीच प्रॉब्लेम नव्हता

सुरेखाच्या डोळ्यात मला हळूहळू आत्मविश्वास दिसायला लागला. अभ्यासाला ती बरीच होती पण फार कृश होती. मी तिच्या पालकांना ‘डॉक्टरांना दाखवून एखादं टॉनिक घ्या’ असा सल्ला दिला. त्यानंतर नागपंचमीचा सण आला. म्हणजे साधारण ऑगस्ट महिना. शाळा सुरू होऊन दीड एक महिना झालेला. माझी मुलींची शाळा असल्यामुळे सेवासदनला सुट्टी होती …शाळेला सुट्टी असली की पूर्ण वेळ मी नापास मुलांच्या शाळेत थांबत असे. आमच्या नापास शाळेला सुट्ट्या अगदी कमी, म्हणजे 15 ऑगस्ट, 26 जानेवारी आणि रविवार याखेरीज सुट्ट्या नाहीत, कारण मला नऊ महिन्यात अभ्यासक्रम पूर्ण करायचा असे. त्यामुळे या दिवशी शाळा चालू होती. 

अर्धी शाळा झाल्यानंतर मुलांना सोडून देण्यात आले आणि त्यानंतर चार वाजता मुलींसाठी फेर धरण्याचा कार्यक्रम होता. मुलींना असे कार्यक्रम फार आवडायचे‌. त्यानंतर आम्ही त्यांना खाऊही देत असू.  माझ्या त्या शाळेची रचना अशी होती की एक मोठा हॉल होता, त्याच्या बाजूला एक छोटी खोली, नंतर अगदी एंट्रन्स लाईक छोटा व्हरांडा आणि त्याच्या बाजूला माझं ऑफिस. त्यावेळी संस्था लहान जागेत कार्य करत होती. ती जागा भाड्याची होती. त्याच्या व्हरांड्यामध्ये माझ्या बंधूनी भिंतीला एक मोठा आरसा बसवून दिलेला होता, कारण सकाळी तिथे लहान मुलांची शाळा म्हणजे नर्सरी होती.. ती मुले आले की आरशात बघून मग प्रवेश करीत असत. 

त्या दिवशी मधल्या सुट्टीनंतर डबा खायला एक वेळ दिलेला होता. तेव्हा या सगळ्या मुली एकमेकींच्या हातावर मेंदी काढत होत्या. आज त्यांना काहीही करायला मुभा होती. गटागटांनी मेहंदी काढण्याचे काम चालू होते. मी सहज आत डोकावले तर ..सुरेखाच्या हातावर दोन मुली मेंदी काढत होत्या. मला खूप आनंद झाला. तिची ती दुमडलेली बोटं, तो भाजलेला हात, पण त्याच्यावर मुली आनंदाने मेंदी काढत होत्या. मला कुठेतरी मनात समाधान वाटले‌. मुलींचे आतमध्ये ड्रेसिंग चालले होते, लिपस्टिक लावत होत्या.. वेण्यांमध्ये  गजरे घालत होत्या ..कुणी फेराच्या गाण्याची प्रॅक्टिस करत होत्या.. त्यांच्या शाळेत त्यांना संधी मिळाली नव्हती. आज इथे त्यांना ते मुक्तपणे अनुभवता येणार होते …!

माझ्या ऑफिसमध्ये बसून मी समोर व्हरांड्याकडे पाहत असताना मला आरशासमोर सुरेखा दिसली. ती ही नटून आली होती. छान गुलाबी पंजाबी ड्रेस घातला होता. हाताला नुकतीच मुलींनी मेंदी लावलेली होती, आणि तिने गळ्यामध्ये एक हार घातला होता ज्याच्यावर आर्टिफिशियल खड्यांचे डिझाईन होते. तो हार ती व्यवस्थित करून आपल्या स्वतःच्या चेहऱ्याकडे पाहत होती आणि आनंदित होत होती. ती हार पुन्हा पुन्हा व्यवस्थित करत होती. 

मी आश्चर्यचकित झाले … मुळात सुरेखाने आरशात आपल्या स्वतःला पहावं हे धाडस होते आणि ती पुन्हा पुन्हा आपला तो गळ्यातला हार सारखा करून आपल्या छबीकडे पाहत होती. अर्थात आरशात बघायचे तिचे वयच होते, परंतु पूर्वी दुर्दैव हे की आरशातले रूप तिला आनंद देत नव्हते, पण आता मात्र तसे नव्हते. त्या सुरकुतलेल्या भाजक्या जळक्या मानेवर रुळणाऱ्या त्या हाराला ती व्यवस्थित करत होती आणि पुन्हा पुन्हा तो नीट बसलाय ना हे निरखत होती. ..कदाचित तिला आपल्या चेहऱ्यात एक नवीन सौंदर्य दिसत असावे. 

मी ते दृश्य डोळ्यात साठवून घेत होते… मी मनात म्हणत होते हिला त्यात जळक्या कातडीवर दिसणाऱ्या त्या हारातले कोणते सौंदर्य जाणवत होते ठाऊक नाही, पण तिला जगण्यातली सुंदरता मात्र जाणवली होती. तिचं ते आरशात पाहणं मला मोहून टाकणारे होते. सुरेखाला समवयस्क मुलींनी स्वीकारणे… तिच्या कुरूपतेचा मनापासून सर्वांनी स्वीकार करणे.. तिला थोडे प्रेम देणे आणि पुन्हा वर्गात बसून शिकायची संधी मिळणे… या सर्व कृतींमुळे सुरेखाच्या चेहऱ्यावर जो आत्मविश्वास आला होता त्या आत्मविश्वासाचे विलोभनीय सौंदर्य मी पाहत होते. आज सुरेखाच काय, मला सगळे जग सुंदर दिसत होते.. त्या आरशासमोरची मुलगी मला सर्वात सुंदर दिसत होती… कारण तिला जगणे सापडले होते…. खूप आनंदाचा क्षण होता. कदाचित त्या आरशानंही तिला सांगितलं असेल.. “सुरेखा, आज तू खूप सुंदर दिसतेस”.. 

नंतर सुरेखा अगदी सहज रुळली, उत्तम गुणांनी पास झाली. त्यानंतर तिच्या त्वचारोपणाच्या ऑपरेशन साठी एक सामाजिक संस्था पुढे आली. त्यांनी मदत केली. पुढे सुट्टीमध्ये तिची तीन-चार ऑपरेशन झाली आणि सुरेखाचे हात छान काम करायला लागले. बोटं सरळ झाली. चेहऱ्यावरचे आणि मानेवरच्या.. गळ्यावरच्या.. सुरकुत्या कमी झाल्या ! ‘सुंदर मी होणार’ चे सेशन दोन-चार महिन्यात बऱ्यापैकी यशस्वी झाले ..एका स्थानिक आमदाराने या कामी खूप मदत केली ..!

सुरेखा पास झाली आणि त्यानंतर तिने जवळच्याच कॉलेजमध्ये प्रवेश घेतला. ती बीए झाली. बालवाडीचा कोर्स केला. एका अंगणवाडीमध्ये ती आता शिक्षक म्हणून कार्यरत आहे…!!!

आता माझे आरशात पाहण्याचे वय नाही, तरीही मी जेव्हा जेव्हा आरशात पाहते तेव्हा तेव्हा माझ्या आधी मला तिची प्रतिमा दिसते, कारण मला नेहमी जाणवत राहतं की आरशावर सुरेखाचा पहिला हक्क आहे, त्यानेच तिला सांगितलं, ‘तू खूप सुंदर दिसतेस’, आणि तिथूनच तिचा आत्मविश्वास वाढला. मुळतः आरशात बघण्याचे धाडस तिच्यात निर्माण झाले आणि आमची सुरेखा सुंदर झाली, अगदी अंतर्बाह्य…..!

– समाप्त – 

© सुश्री शीला पतकी

माजी मुख्याध्यापिका सेवासदन प्रशाला सोलापूर 

मो 8805850279

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर

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