हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 213 ☆ बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 213 ☆

बाल गीत – ढमढम बजे नगाड़ा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सुन्न हो रहे हाथ सभी के

दस्तक देता जाड़ा।

दाँत किटकिटी चले सैर के पर

पढ़ते सभी पहाड़ा।।

सूरज दादा छिपे कोहरे

ओस ठंड में अलसाई।

ठंडी – ठंडी हवा कह रही

अब ओढ़ो शीघ्र रजाई।

 *

ठंड ,  कोरोना पास न आए

पीओ प्रतिदिन काढ़ा।।

 *

काजू , पिस्ता और मूंगफली

गरम पकौड़ी हैं भातीं।

अदरक, तुलसी चाय जो पीएं

ठंडी दूर भाग जाती।

 *

काम करें व्यायाम , योग भी

ढमढम बजे नगाड़ा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचनाएँ/Information ☆ ‘बच्चों का देश’ राष्ट्रीय बाल पत्रिका की रजत जयंती पर राजसमंद में 16 से 18 अगस्त 2024 तक ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम’ ☆ साभार – श्रीओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

‘बच्चों का देश’ राष्ट्रीय बाल पत्रिका की रजत जयंती पर राजसमंद में 16 से 18 अगस्त 2024 तक ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम’ ☆

देश भर से जुटेंगे लगभग 100 बाल साहित्य रचनाकार

रतनगढ़ (निप्र)। राष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित मासिक बाल पत्रिका ‘बच्चों का देश’ का रजत जयन्ती समारोह 16 से 18 अगस्त 2024 तक अंतरराष्ट्रीय संस्थान अणुव्रत विश्व भारती सोसायटी (अणुविभा) के राजसमंद (राजस्थान) स्थित मुख्यालय ‘चिल्ड्रन‘स पीस पैलेस’ में मनाया जायेगा। उल्लेखनीय है कि अणुविभा द्वारा प्रकाशित नई पीढ़ी के नव-निर्माण को समर्पित इस बाल पत्रिका को देशभर में प्रतिष्ठा प्राप्त है और 25 राज्यों में इसका पाठक वर्ग फैला है। देश की महान विभूतियों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है और एक जागरूक, जिम्मेदार और मानवीय मूल्यों को समर्पित श्रेष्ठ व्यक्तित्व के निर्माण में इसकी रचनात्मक भूमिका को रेखांकित किया है।

अणुविभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अविनाश नाहर ने बताया कि संयुक्त राष्ट्रसंघ के वैश्विक संवाद विभाग से सम्बद्ध अणुविभा गत 75 वर्षों से संचालित अणुव्रत आंदोलन की केंद्रीय संस्था है जिसके अंतर्गत भारत में 200 केंद्र संचालित हैं और इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 5000 संस्थाओं व शांतिकर्मियों से नेटवर्क है। नई पीढ़ी के संस्कार निर्माण की दृष्टि से यह संस्था ‘बच्चों का देश’ के साथ ही जीवन-विज्ञान, बालोदय कार्यक्रम, अणुव्रत क्रिएटिविटी कॉन्टेस्ट, नशामुक्ति अभियान – एलिवेट, डिजिटल डेटॉक्स अभियान, पर्यावरण जागरूकता अभियान जैसे रचनात्मक प्रकल्प संचालित करती है।

अणुविभा के पूर्व अध्यक्ष‘बच्चों का देश‘ के सम्पादक श्री संचय जैन ने बताया कि पत्रिका की रजत जयन्ती के अवसर पर आयोजित हो रहे ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम‘ में 15 राज्यों के लगभग 100 बाल साहित्य रचनाकार भाग लेंगे। इस तीन दिवसीय आयोजन में बाल साहित्य विषयक सात सत्र एवं समूह चर्चाएँ आयोजित होंगी जिनमें बाल पत्रिका : भविष्य की अपेक्षायें और समाधान, एक सफल बाल साहित्य रचनाकार होने के मायने, राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हिन्दी बाल साहित्य की दशा और दिशा, आदर्श व्यक्तित्व निर्माण में बाल साहित्य का योगदान, बाल साहित्य का पठन-पाठन : समाज व परिवार का दायित्व, बाल साहित्य रचनाधर्मिता : चुनौतियाँ और समाधान जैसे विषयों पर राष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त साहित्यकार अपने विचार व्यक्त करेंगे।

रजत जयन्ती समारोह के अन्तर्गत एक नवाचार किया जा रहा है जिसमें देशभर से समागत बाल साहित्य रचनाकार 17 अगस्त को राजसमन्द क्षेत्र की 25 से अधिक अलग-अलग स्कूलों में जाएँगे और बच्चों के सीधा संवाद करेंगे। यह संवाद जहाँ कहानी, कविता, नाटिका, गीत आदि विविध विधाओं में साहित्य लेखन की बारीकियों से बच्चों को परिचित कराएगा वहीं साहित्यकार बच्चों की भावनाओं व अपेक्षाओं को जान पाएँगे। अपनी तरह का यह एक अनूठा प्रयोग होगा जिसमें पांच हजार से अधिक बच्चों की सहभागिता होगी।

‘बच्चों का देश’ में नियमित लिखने वाले वरिष्ठ साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ने बताया कि ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य समागम‘ के आयोजन स्थल ‘चिल्ड्रन‘स पीस पैलेस’ का अपना विशेष महत्व है क्योंकि प्रसिद्ध राजसमंद झील के किनारे पहाड़ी पर विकसित यह कलात्मक भवन बच्चों के सर्वांगीण विकास को समर्पित एक अनूठा केंद्र है जहाँ प्रतिमाह आयोजित होने वाले आवासीय बालोदय शिविरों में बच्चे जीवन निर्माण की वह दिशा प्राप्त करते हैं जो सामान्यतः परिवार या विद्यालयों में भी संभव नहीं हो पाती है। यहाँ विकसित 25 से अधिक बालोदय दीर्घाएँ व कक्ष तथा यहाँ उपलब्ध संसाधन विभिन्न मानवीय मूल्यों से बच्चों को जोड़ते हैं और यहाँ संचालित बाल विज्ञान आधारित प्रवृत्तियाँ बच्चों को स्व से परिचित करा एक सफल जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

रजत जयंती के इस अवसर पर ‘बच्चों का देश’ का रजत जयन्ती विशेषांक भी प्रकाशित किया जाएगा जिसमें पिछले 25 वर्षों में प्रकाशित चयनित रचनाओं के साथ ही इस गौरवशाली यात्रा की झलकियाँ भी सम्मिलित होंगी। उल्लेखनीय है कि बाल मनोविज्ञान की कसौटी पर कसी श्रेष्ठ रचनाओं और बहुरंगी चित्रों के साथ प्रकाशित यह पत्रिका बच्चों के मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती है। यह एक गैर-व्यावसायिक सेवा-प्रकल्प है जिसका प्रारम्भ 1999 में भागीरथी सेवा प्रन्यास के तत्वावधान में जयपुर से हुआ था। देश के विभिन्न भागों से लगभग 400 साहित्यकार इससे जुड़े हैं।

अगस्त में आयोजित हो रहे इस राष्ट्रीय स्तर के आयोजन में रतनगढ़ से श्रीओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ सहभागिता करेंगे। उल्लेखनीय हैं  कि ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ लंबे समय से बाल साहित्य लेखन में संलग्न हैं। आपको मध्य प्रदेश शासन द्वारा श्री हरिकृष्ण देवसरे बालसाहित्य पुरस्कार सहित अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।

साभार – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’,

14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश), पिनकोड-458226 मोबाइल नंबर- 8827985775

≈ श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पाऊस पहिला…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पाऊस पहिला” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

पाऊस पहिला,

भिजवून गेला,

थंडी अजून बाकी।

मनात शिरला,

स्मृतीत उरला,

आठव अजून बाकी।

वर्षा सरली,

वर्षे सरली,

इच्छा अजून बाकी।

पुन्हा भिजावे,

धुंद फिरावे,

जोश न आता बाकी।

धरती भिजली,

मनेही भिजली,

काय राहिले  बाकी?

वृत्ती थिजली,

गात्रे थिजली,

जीवन अजून बाकी।

© श्री सुनील देशपांडे

 

मो – 9657709640

 

email : sunil68deshpande@outlook.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ डोहात हरवले… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

श्री शरद कुलकर्णी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ डोहात हरवले… ☆ श्री शरद कुलकर्णी ☆

काळिमा भासतो गोड,

काळ्याच आठवणींचा.

कृष्णमेघ नभी बरसतो,

तिमिरात श्याम थेंबांचा.

जळात सोडून पाय,

औदुंबर बसला कोणी.

डोहात खोल हरवले,

डोळ्यातील गहिरे पाणी.

© श्री शरद  कुलकर्णी

मिरज

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग १८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग १८ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – माझे बाबा ‘तो’ आणि मी यांच्यातला एक दुवा आहेत असं पूर्वी वाटायचं. ते गेले आणि तो दुवा निखळला याची रुखरुख पुढे बरेच दिवस मनात होती.पण ‘त्या’नेच मला सावरलं. तो दुवा निखळल्यानंतर ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर खरंतर वाढायला हवं होतं पण तसं झालं नाही.ते दिवसेंदिवस कमीच होत गेलं.)

आज मला जाणवतं ते असं की माझ्या अजाण वयापासूनच सभोवतालच्या आणि विशेषतः घरच्या वातावरणामुळे श्रद्धेचं बीजारोपण माझ्या मनोभूमीत झालंच होतं. नंतरच्या अनेक अघटीत घटना, प्रसंग यांच्या खतपाण्यामुळे ते बी रुजलं,अंकुरलं आणि फोफावलं. त्या श्रद्धेबरोबरच आई-बाबांनी त्यांचे अविरत कष्ट, प्रतिकूल परिस्थितीतही जपलेला प्रामाणिकपणा, सह्रदयता आणि माणुसकी यासारख्या मूल्यांचे संस्कार स्वतःच्या आचरणांनी आम्हा मुलांवर केले होतेच. त्यामुळे मनातल्या श्रद्धेतला निखळपणा सदैव तसाच रहाण्यास मदत झाली. ती श्रद्धा रुजता-वाढताना कधी कणभरही अंधश्रद्धेकडे झुकली नाही.अनेक अडचणी, संकटांच्यावेळीही ‘त्या’च्याकडे कधी ‘याचक’ बनून पहावंसं वाटलं नाही. त्या त्या प्रत्येक वेळी प्रयत्नांची पराकाष्ठा करीत असताना ‘तो’ फक्त एक साक्षीदार म्हणून सदैव माझ्या मनात उभा असायचा. ‘कृपादृष्टी असू दे’ एवढीच मनोमन एकच प्रार्थना ‘त्या’च्या चरणी असे. त्यामुळे स्वतःची अंगभूत कर्तव्यं निष्ठेने आणि मनापासून पार पाडण्याकडेच कल कायम राहिला. नित्यनेमाचे रूपांतर त्यामुळेच असेल कर्मकांडात कधीच झाले नाही. तसे कधी घडू पहातेय अशी वेळ यायची तेव्हा या ना त्या निमित्ताने मी सावरलो जायचो. मग आत्मपरीक्षणाने स्वतःच स्वतः ला सावरायची सवय जशी अंगवळणी पडली तसा मी ‘त्या’च्या अधिकाधिक जवळ जाऊ लागलो. ‘तो’ आणि मी यांच्यातलं अंतर कमी होत जाण्याचे हे एक ‘प्रोसेस’ होते!

आणि मग वेळ आली ती माझ्या कसोटीची. पण त्यालाही माझे बाबा १९७३ साली गेल्यानंतर दहा वर्षांचा काळ उलटून जावा लागला!

बाबा नेहमी म्हणायचे, “दत्तसेवा अनेकांना खूप खडतर वाटते. त्यामुळे ‘मी’ करतो असं म्हणून ती प्रत्येकाला जमत नाही.करवून घेणारा ‘तो’च ही भावना हवी.एकदा निश्चय केला कि  मग त्यापासून परावृत्त करणारेच प्रसंग समोर येत रहातात.तेच आपल्या कसोटीचे क्षण.जे त्या कसोटीला खरे उतरतात तेच तरतात….! “

‘तो’ आपली कसोटी पहात असतो म्हणजे नेमकं काय? आणि त्या कसोटीला ‘खरं’ उतरणं म्हणजे तरी काय? याचा अर्थ समजून सांगणारा अनुभव मला लगेचच आला.

तो दत्तसेवेच्या वाटेवरचं पुढचं पाऊल टाकण्याचा एक क्षण होता. घडलं ते सगळं  अगदी सहज घडावं असं.

यापूर्वी उल्लेख केल्यानुसार १९५९ साली कुरुंदवाड सोडून किर्लोस्करवाडीला जायची वेळ आली तेव्हा आईने दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दर्शनाला येण्याचं व्रत स्वीकारलं होतं. ते व्रत जवळजवळ दोन तपं अखंड सुरु होतं. आई वय झालं तरी ते व्रत बाबा गेल्यानंतरही श्वासासारखं जपत आली होती.

माझे बँकेतले कामाचे व्याप, जबाबदाऱ्या, दडपणं हे सगळं दिवसेंदिवस वाढत होतंच. त्यामुळे रोजची देवपूजा आणि गुरुचरित्राचं नित्य-वाचन एवढाच माझा नित्यनेम असायचा.

नोव्हेंबर १९८३ मधल्या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई नृसिंहवाडीला गेली आणि अचानक माझी मावस बहिण सासरच्या कार्यासाठी या भागात आली होती आणि माझ्या आईला  भेटून जावं म्हणून आमच्या घरी  आली. थोडा वेळ बसून बोलून मग पुढे पुण्याला जायचं असं तिनं ठरवलं होतं.आई यायची वेळ होत  आली होतीच म्हणून तिची वाट पहात ती  थोडा वेळ थांबली होती.

मी नुकताच बँकेतून येऊन हातपाय धुवत होतो तेवढ्यात आई आली. त्यामुळे दार उघडायला तीच पुढे झाली. आमच्या मुख्यदारापर्यंतच्या तीन पायऱ्या चढतानाही आई खूप थकल्यामुळे गुडघ्यावर हात ठेवून सावकाश चढतेय आणि बहिण तिला हाताचा आधार देऊन आत आणतेय हे मी लांबून पाहिलं आणि कपडे बदलून मी बाहेर जाणार तोवर बहिणीने तिला खुर्ची देऊन भांडंभर पाणीही नेऊन दिलं होतं.

“किती दम लागलाय तुला. आता पुरे झालं हं. अगदी देवधर्म आणि नेम झाला तरी शरीर स्वास्थ्यापेक्षा तो महत्त्वाचा आहे कां सांग बघू. खूप वर्ष सेवा केलीस.आता तब्येत सांभाळून रहायचं” बहिण तिला पोटतिडकीने सांगत होती. दोघींचा संवाद अगदी सहज माझ्या कानावर पडत होता.

“सवयीचं झालंय ग आता.नाही त्रास होत.जमेल तेवढे दिवस जायचं. नंतर आराम आहेच की. त्याच्या कृपेनंच तर सगळं मार्गी लागलंय. मग घरच्या कुणी एकानं तरी जायला हवंच ना गं? प्रत्येकाला त्यांचे त्यांचे व्याप आहेतच ना? इथं मी रिकामीच असते म्हणून मी जाते एवढंच” आई म्हणाली.

आईनं आजपर्यत हक्कानं, अधिकारानं आम्हा कुणावर कधीच काही लादलं नव्हतं. आज मावस बहिण आल्याचं निमित्त झालं म्हणून आईच्या मनाच्या तळातलं मला नेमकं समजलं तरी. आई आता थकलीय. घरातल्या कुणीतरी एकानं जायला हवंच तर मग ते मीच हे ओघानंच आलं. कारण तेव्हा माझा मोठा भाऊ बदली होऊन नागपूरला गेला होता. लहान भाऊ अजून शिकत होता. प्रवासाची दगदग आता यापुढे आईला जमणार नाही हे या प्रसंगामुळे मला तीव्रतेने जाणवलं होतं आणि आईचं ते व्रत आता यापुढे आपण सुरु ठेवायचं आणि त्यातून तिला मोकळं करायचं हे त्याचक्षणी मी मनोमन ठरवून टाकलं. त्यानंतरची डिसेंबर १९८३ ची पौर्णिमा दत्तजयंतीची होती.

या पौर्णिमेला नेहमीप्रमाणे आई सकाळीच नृ.वाडीला गेलेली.त्या संध्याकाळी मी बँकेतून परस्परच वाडीला गेलो. दत्तदर्शन घेतलं. हात जोडून मनोमन प्रार्थना केली ,

‘दर पौर्णिमेला निदान एक तप नित्यनेमाने आपल्या दर्शनासाठी येण्याची माझी मनापासून इच्छा आहे. आपला कृपालोभ असू दे. हातून सेवा घडू दे.” अलगद डोळे उघडले तेव्हा आत्यंतिक समाधानाने मन भरून गेलं होतं. अंत:प्रेरणेने पडलेलं दत्तसेवेच्या वाटेवरचं हे माझं पुढचं पाऊल होतं.

घरी हे आईला सांगितलं.आता यापुढे खूप दगदग करून,ओढ करुन तू अट्टाहासानं नको जाऊस.मी जात जाईन असंही म्हटलं.सगळं ऐकून आई एकदम गंभीरच झाली.

“माझ्याशी आधी बोलायचंस तरी..” ती म्हणाली.

” का बरं?असं का म्हणतेस?”

“उद्या तुझी कुठे लांब बदली झाली तर? कशाला उगीच शब्दात अडकलास?”

“नकळत का होईना अडकलोय खरा” मी हसून म्हटलं. ” तू नेहमी म्हणतेस ना, तसंच. सुरुवात तर केलीय. होईल तितके दिवस जाईन. पुढचं पुढं”

आईशी बोलताना मी हे हसत हसत बोललो खरं पण तिच्या बोलण्यातही तथ्य आहेच हे मला नाकारता येईना.

खरंच. देवापुढे हात जोडून मनोमन संकल्प सोडताना माझ्या ध्यानीमनीही नव्हतं की हा आपला बँकेतला जॉब आहे. तो ट्रान्स्फरेबल आहे. कुठेही कधीही बदली होऊ शकेल. तेव्हा काय करायचं? बारा वर्षांचा दीर्घकाळ आपण थोडेच या परिसरात रहाणार आहोत? पुढे नाही जमलं तर?”

या जरतरच्या गुंत्यात मी फार काळ अडकून पडलो नाही. तरीही ही संकल्पसिद्धी सहज सोपी नाहीय याची प्रचिती मात्र पुढे प्रत्येक पावलावर मला येणार होतीच.

क्रमश:…  (प्रत्येक गुरूवारी)

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ जॉब… — लेखिका : सुश्री गीता गरुड ☆ प्रस्तुती – सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆

सौ.शशी.नाडकर्णी-नाईक

? जीवनरंग ?

☆ जॉब… — लेखिका : सुश्री गीता गरुड ☆ प्रस्तुती – सौ. शशी नाईक-नाडकर्णी ☆

“वहिनी,माझ्या आईला तू उलट कशी बोलू शकतेस?”

नणंद रेश्मा आईचा कैवार घेत मालतीशी भांडायला अगदी अर्ध्या दिवसाची रजा टाकून आली होती. 

उन्हातून आली म्हणून मालतीने तिला माठातलं गार पाणी दिलं. 

“आज लवकर सुटलं ऑफीस?” मालतीनं विचारलं

“हे असं आमच्याशी गोडगोड बोलतेस नि आमच्या अपरोक्ष आमच्या आईला..अगदी पोरक्यासारखी वागणूक देतेस. बरोबर ना.”

जीजी डोळ्याला पदर लावून बसली. “बघ बाई आता तुच काय ते. तू झालीस तेंव्हा दुसरीपण पोरगीच झाली म्हणून हिणवलं सासूसासऱ्यांनी पण तुम्हा लेकींनाच गं माझी कणव.”

“आई,तू अजिबात रडू नकोस. तुझी लेक जीवंत आहे अजून. खडसावून जाब विचारते की नाही बघ. कुणाचं मिंध रहायची गरज नाही तुला. पेंशन आहे चालू तुझी. यांच्या जीवावर नाही जगत तू.” भरल्या गळ्याने रेश्मा आईचे डोळे पुसत म्हणाली.

“आत्या काय चाललय तुझं. खालपर्यंत आवाज येतोय,” नुकतीच  घरात पाऊल टाकत असलेली किमया आत्याजवळ आपली स्याक ठेवत म्हणाली. 

“या पोरीला माझा आवाज सहन होत नाही गं रेशम. आता तुझाही सहन होत नाहीए बघ.”जीजी असं म्हणत परत रडू लागली.

“एक मिनिट. हे काय चाललंय आणि आत्तू तू माझ्या आईवर का कावत होतीस मगाशी? पहाटे उठल्यापासनं आई घरात वावरतेय. एकतर कामवालीही मिळत नाहीए हल्लीच्या काळात. मिळाली होती एक धुणी धुवायला पण आजी रोज आपली चादर धुवायला टाकू लागली,कधीकधीच्या कपाटातल्या साड्या काढून तिला धू म्हणून सांगू लागली. ती बिचारी मावशी पळून गेली नंतर पोळ्या करायला बाई लावली तर तिच्या खनपटी बसू लागली..इतक्याच पातळ हव्या,एकसारख्या हव्या..तीही परागंदा झाली. 

डॉक्टर म्हणतात,आजीला अल्झायमर झालाय. गोळ्या चालू केल्यात पण ही कधी घेते,कधी खिडकीतून फेकून देते. त्यादिवशी कुंडीतही सापडल्या हिच्या गोळ्या. कुठेही नाक शिंकरते,थुंकते..ते सगळं आई स्वच्छ करतेय. हल्ली तर अंथरुणातही..पण हे सारं एका शब्दाने आई बोलली का तुला!नाही नं. का तर तुला त्रास होईल. तू तुझ्या घरी सुखी रहावस म्हणून. 

हल्ली ऐकूही कमी येऊ लागलय आजीला. डॉक्टर म्हणाले,आता या वयात ऑपरेशन नको. ही मोठमोठ्याने बोलते. मोठ्या आवाजात टिव्ही लावते. दोन खोल्यांचं घर आमचं. कसं अभ्यासात लक्ष लागणार गं आत्तू! तरी आई मला हिला काही बोलू देत नाही. तूच लायब्ररीत जाऊन अभ्यास कर म्हणून सांगते. 

आजीला तेलकट कमी द्यायला स़ागितलय म्हणून घरात सगळ्यांनाच कमी तेलाचं,थोडसं अळणी स्वैंपाक  का तर आजीला वाटू नये की आम्ही तिला टाकून चांगलंचुंगलं करुन खातोय. आजीचा मधुमेह वाढलाय म्हणून आजीसोबत आमचं सर्वांच गोडधोड बंद का तर तिला टाकून कसं खायचं! 

आत्तू, माझी आई घरात रहाते म्हणून आजवर तुम्ही तिला ग्रुहित धरीत आलात. उन्हाळ्याची सुट्टी पडली की खुशाल तुझी नि मोठ्या आत्तुची मुलं आमच्याकडे. का तर मालतीवहिनी घरातच तर असते. घरात कसलं डोंबलाचं काम असतं एवढं.. नुसत्या झोपाच तर काढते!”

“किमया”..कपडे धुऊन ते वाळत घालण्यासाठी पिळे भरलेली बादली घेऊन आलेल्या मालतीने लेकीला दटावलं. 

“आई, मी कधी आत्याच्या घरी रहायला गेली की आत्या असंच बोलायची तुझ्याबद्दल. घरात तर असते. अरे,हौस होती का माझ्या आईला घरी रहायची? तुमच्याइतकीच शिकलेली ती पण आजीने मला सांभाळण्यास नकार दिला होता. मला पाळणाघरात ठेवायचं नाही असंही बजावलं होतं..खिंडीतच पकडलं होतं तिला. राहिली मग ती घरात. घरी शिकवण्या घेऊ लागली तर तेही आवडत नसायचं आजीला. मुलांना शिकवायला बसली की काहीतरी कामं सांगून उठवायची. मुलांच्या आया मुलांना पाठवेनाशा झाल्या. 

काही माणसं नं फक्त ऐकून घेण्यासाठीच जन्माला आलेली असतात त्यातलीच माझी आई. मला आठवतं,एकदा मावशीकडे मुंजीला जायचं होतं आईला आणि आईचा कैरीहार आजीने दडवून ठेवला. आई शोधूनशोधून रडकुंडीला आली. बाबाही तापले होते तिच्यावर. आजीला कोण हसू येत होतं. मला फाइव्हस्टॉर चॉकलेटसाठी पैसे देऊन माझं तोंड गप्प केलं होतं तिने तरी मी रात्री आईला आजीची करामत सांगितलीच. बाबा संतापले होते. तिला जाब विचारायला उठले तर आईनेच त्यांना शांत झोपायला लावलं होतं. 

आताशी आजी फार चिडचिड करते.  वाढलेलं ताट भिरकावून देते. आत्तू, खरंच माझी आई वाईट आहे असं धरुन चालुया आपण. तू घेऊन जा तुझ्या आईला. उगा या छळवादात नको ठेवूस तुझ्या माऊलीस.”किमयाने आत्यापुढे हात जोडले. 

“न्हेलं असतं गं पण..अतुलची फायनल एक्झाम आहे ना.  आणि आमचं घर पडलं खाडीजलळ. तिथली हवा सहन होणार नाही तिला.”

“बरं मग..”

“मग काय निघतेच मी. बराच वेळ झाला येऊन.”

तेवढ्यात किचनमधून मालतीने आवाज दिला. वन्सं,आमटी केलीय चिंचगुळाची तुमच्या आवडीची नि नाचणीचे पापड तळतेय. एकत्रच बसू जेवायला. तुमचं चर्चासत्र संपलं तर हात धुवून घ्या. मी पानं वाढते. 

“वहिनी,तुझं गं पान कुठेय?”

“आत्तु,हल्ली आजी नीट जेवत नाही ना म्हणून आई तिला कधीच्या जुन्या गोष्टी सांगत भरवते. चार घास जास्त जातात तिचे.” 

रेश्माच्या डोळ्यात पाणी आलं. 

“अहं,आत्तू,भरल्या पानावर डोळ्यात पाणी आणू नाही,”आईच म्हणते असं. आत्तुचे डोळे पुसत किमया म्हणाली. कधीतरीची गोड आठवण सांगत सासूला घास भरवणाऱ्या आपल्या वहिनीकडे पाहून जेवणाआधीच त्या माहेरवाशिणीचं मन समाधानाने भरुन पावलं.

रेश्मा जायला निघाली तेंव्हा मालतीने तिला गुळपापडीचा डबा दिला. रेश्माला अजब वाटत होतं..कधीच उलट न बोलणारी आपली भाची आपल्याला आज एवढं का बरं सुनावत होती याचं.  किमया तिला खाली सोडायला गेली..तिचा हात धरुन म्हणाली,”सॉरी आत्तू,आज जरा जास्तच बोलले तुला पण..”

“पण..काय?”

“अगं महिना झाला आईच्या अंगावर जातय. माझी परीक्षा चालू म्हणून कोणालाच बोलली नाही ती. आठ दिवसांपूर्वी चक्कर येऊन पडली. डॉक्टरकडे न्हेलं. त्यांनी स्त्रीरोगतज्ञांची चिठ्ठी दिली. तिथे सगळ्या तपासण्या झाल्या. रिपोर्टस आलेत. गर्भाशयात ट्यूमर आहे. मला आजीचा राग येतोय. हीच तिला सणावाराला गोळ्या घेऊन पाळी पुढेमागे ढकलायला लावायची. माझ्या लेकी यायच्यात. तू बाहेरची झालीस तर त्यांचं कोण करणार..देवाचं कोण करणार? आता माझ्या आईचं कोण करणार गं आत्तु?”

रेश्मा आपल्या भाचीकडे पहात राहिली. एक लेक तिच्या आईबद्दल जाब विचारायला आली होती. जाताना एक लेक तिला जाब विचारत होती!

लेखिका : सुश्री गीता गरुड

प्रस्तुती : सौ.शशी.नाडकर्णी-नाईक

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ टेनिस विश्वाचा अनभिषिक्त सम्राट रॉजर फेडरर… – लेखिका : नीलांबरी जोशी ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆

सुश्री स्नेहलता दिगंबर गाडगीळ

? इंद्रधनुष्य ?

☆ टेनिस विश्वाचा अनभिषिक्त सम्राट रॉजर फेडरर… – लेखिका : नीलांबरी जोशी ☆ प्रस्तुती – सुश्री स्नेहलता गाडगीळ ☆

टेनिस विश्वाचा अनभिषिक्त सम्राट रॉजर फेडरर

– आणि त्याने सांगितलेले  “तीन टेकअवेज

टेनिस विश्वाचा अनभिषिक्त सम्राट रॉजर फेडररला Dartmouth College नं सन्माननीय डॉक्टरेट दिल्यानंतर त्यानं केलेलं भाषण प्रचंड गाजतं आहे.. फेडररचं भाषण प्रेरणादायी होतंच. पण उत्कृष्ट भाषण कसं असावं याचा नमुना म्हणून ते इतिहासात अजरामर ठरेल याचं कारण म्हणजे प्रत्येक माणसासाठी ते उपयोगी आहे.

आपल्या सुमारे २५ मिनिटांच्या भाषणात त्यानं आजच्या भाषेत बोलायचं तर “तीन टेकअवेज” सांगितले आहेत. 

१. Effortless is a myth 

एफर्टलेस – एखादी गोष्ट लीलया करणं, ती सहजगत्या अवगत असणं ही केवळ दंतकथा आहे. केवळ एखाद्याकडे टॅलेंट आहे म्हणून त्याला / तिला ते जमतं असं कधीच नसतं. अनेक वर्षांचे परिश्रम त्यामागे असतात. लोक म्हणतात मी लीलया खेळतो. त्यांना माझं कौतुकच करायचं असतं. मात्र “तो किती सहजगत्या खेळतो” हे सारखं ऐकून मी वैतागायचो. खरं तर मला प्रचंड मेहनत करावी लागत होती. मी अनेक वर्षं रडगाणं गायलो, चिडचिड केली, रागानं रॅकेट फेकून दिली आणि मग मी शांत रहायला शिकलो. मी इथपर्यंत केवळ टॅलेंटवर पोचलेलो नाही. माझ्या प्रतिस्पर्ध्यांच्या खेळापेक्षा चांगला खेळ करण्याचा अविरत प्रयत्न करुन मी इथवर पोचलो.

२. It’s only a point

आपण खेळलेल्या १५२६ सिंगल मॅचेसपैकी फेडरर ८० टक्के मॅचेस जिंकला. मात्र पॉईंटस ५४ टक्केच जिंकला.. म्हणजे सर्वोच्च स्थानावरचे टेनिस खेळाडूदेखील निम्मे पॉईंटस गमावतात.. तेव्हा तुम्ही It’s only a point असा विचार करायला स्वत:ला शिकवायला हवं. आयुष्याच्या खेळात सतत आपण असे पॉईंटस गमावत असतो. मात्र तुमचा सकारात्मक दृष्टिकोन तुम्हाला नकारात्मक गोष्टींवर मात करायला शिकवतो. आत्मविश्वास त्यातूनच वाढतो. तळमळीनं, स्पष्टपणे आणि लक्ष केंद्रित करुन पुढचा गेम खेळायला तुम्ही तयार होता.

उत्तमोत्तम खेळाडू हे त्या स्थानापर्यंत प्रत्येक पॉईंट जिंकल्यानं पोचत नाहीत, तर आपण वारंवार हरणार आहोत आणि त्यावर कशी मात करायची ते सातत्यानं शिकत रहातात म्हणून उत्कृष्टतेपर्यंत पोचतात.

३.‘Life is bigger than the court’

आयुष्य हे टेनिस कोर्टपेक्षा फार मोठं आहे. मी खूप परिश्रम घेतले, खूप शिकलो आणि टेनिस कोर्टाच्या त्या छोट्या मैदानात कित्येक मैल पळलो. मात्र मी पहिल्या पाचांमध्ये असतानाही मला आयुष्य जगण्याचं महत्व कळत होतं. प्रवास, निरनिराळ्या संस्कृतींचा अनुभव, नातीगोती आणि विशेषत:, माझं कुटुंब. मी माझी मुळं कधी सोडली नाहीत, मी कुठून आलो ते मी कधीच विसरलो नाही.

टेनिसप्रमाणेच तुम्ही तुमच्या आयुष्यात एका बाजूला उभे असता. तुमचं यश तुमच्या प्रशिक्षकावर, तुमच्या टीममधल्या सहका-यांवर, तुमच्या प्रतिस्पर्ध्यांवर अवलंबून असतं. तुम्ही घडता ते या टीमवर्कमुळे..! 

लेखिका : नीलांबरी जोशी 

(फेडरर यांच्या संपूर्ण भाषणाची लिंक — https://www.youtube.com/watch?v=pqWUuYTcG-o&ab_channel=Dartmouth

प्रस्तुती : स्नेहलता गाडगीळ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ “Mandatory Overs…” – लेखक – अवि बोडस ☆ प्रस्तुती – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

? वाचताना वेचलेले ?

☆ “Mandatory Overs…” – लेखक – अवि बोडस ☆ प्रस्तुती – सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

एका पाठोपाठ wicket पडाव्या तसा एक एक दात crease सोडून चाललाय! तरीही काही खायला जावं  तर घरातल्या घरात running between the wicket चालू होतं .डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच ! आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

डोळ्यात मोतीबिंदू झाला की काय? सारखं bad light चं  appeal  करतायत ! तरीही डोळे फाडून फाडून मोबाईल मधे cheer girls पाहायला जावं  तर बायको पाठीमागे cought behind साठी तत्पर! डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय, बरोबरच आहे !आता mandetory overs! विसरलात वाटतं !

आजकाल पाय वळतात म्हणून जरा बाहेर मित्र मैत्रिणीकडे जायला पाय वळतात तर ते नेमके ते wide ball पडल्यासारखे उजवी डावीकडे पडतात. रस्ता अडवून बायको दारात उभी आणि मुलगा सून नातू सारे एक सुरात leg before wicket ..  out म्हणतात. खरं  म्हणजे इन म्हणतात. डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच ! आता mandatory overs! विसरलात वाटतं ! काठी ठेवत चला bat सारखी !

आजकाल कान माझं सुद्धा ऐकत नाहीत. त्यामुळे बरेच शब्द ,काही वेळा अख्खं वाक्य missfield होतं  आणि विषय पार boundry line च्या बाहेर ! हैं ना चौका देनेवाली बात ! डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच ! आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

डोक्याच्या peach वर जरा कुठे गवत राहिले असेल तर शप्पथ ! पार पाटा wicket. पोटाचा आकार  

Shape  बदललेल्या चेंडूसारखा होत चाललाय. डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय चालायचंच.आता  mandatory overs ! विसरलात वाटतं….. 

गुळगुळीत दाढी करून पँटवर ball  घास घास घासून तकाकी लकाकी कायम ठेवावी तसं सुरकुतलेल्या चेहऱ्यावर क्रीम चोळून चोळून चेहेऱ्यावरची तकाकी कायम ठेवायचा निष्फळ प्रयत्न करतोय.पण व्यर्थ! डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच, mandatory overs. विसरलात वाटतं !

मनगट तर अशी दुबळी झाली आहेत की हातातली कपबशी कधी spin होउन कपाचा कान bells उडाव्या तसा उडतो ते माझे मलाच समजत नाही.डॉक्टर नावाचा umpire म्हणातोय,चालायचंच !आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

काहीही लक्षण नसताना सर्दी होते रुमालाची covers on होतात आणि  खेळ थांबतो नाक आणि घशाच field inspection होई पर्यंत!डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच !आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

कॉन्फिडन्स तर एवढा शेक झालाय की बारीक सारीक सरळ पडणारा ball सुद्धा bouncer वाटतो आणि विनाकारण bit होतो. hook करायला जावं तर हुकतो!डॉक्टर नावाचा umpire म्हणतोय,चालायचंच!आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

Umpire ने केव्हाच इशारा केलाय तुमच्या  Power play च्या overs केव्हाच संपल्यात.तेव्हा उगाच मोठे strok न मारता जमतील तेवढे chikki run काढून score board हलता ठेवावा हे मलाही उमगलय.पण यमराज टीम चा Power play मात्र सुरू झालाय.मोठी attacking field लावलीय. डायबेटिस,बीपी,

सांधेदुखी,कंपवात,विस्मरण हे fielder, slip, Gally,covers,point ला catch घ्यायला टपून बसलेत. यमदूत नेटाने inswing,outswing ची भेदक balling करतायत. *umpire म्हणतोय,चालायचंच!आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

.त्या सगळ्यांना चकमा देत गोळ्या इंजेक्शनचे  pad   बांधून इन्सुलिन चे helmet  घालून  gap काढत आपली मात्र batting चालू आहे.तरी एकदा attacking stroke  ने दगा दिलाच. mid on ला  चक्क catch out. तरीही umpire म्हणतोय,चालायचंच !आता mandatory overs! विसरलात वाटतं !

आम्ही जवळ जवळ crease सोडून निघालोच ! — 

— पण तो वरती बसलाय ना third umpire! त्यानें चित्रगुप्ताला action replay दाखवायला सांगितले परत परत !आणि फायनली तो no ball ठरून आम्ही crease वर परत दाखल !आता मात्र century मारायचीच! मगच pavilion ची वाट धरायची. मग भले त्या डॉक्टर नावाच्या umpire ला म्हणू दे ना… mandatory overs ! विसरलात वाटतं !

लेखक :  अवि बोडस

(प्रेरणा : क्रिकेट वर्ल्ड कप २०२४.– वरील घटनांशी माझा काहीही संबंध नाही. फक्त कल्पना विलास यांचा संबंध आहे.) 

संग्राहिका: सौ. मंजुषा सुनीत मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ निसर्ग… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – निसर्ग – ? ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

निसर्ग ही तर खरी आठवण करून देतो 

मायावी आरसा होऊन तुझ्या समोर येतो 

ढळलेल्या मनाचा दु:खी माणूस तेव्हा

 आवेगाने  सावरून कसा सुखी होतो

*

अद्भुत किमया अचानक अशी उजागर होते 

बघणाराला ऐश्वर्याचे दृष्टी दान मिळते 

हीच अपार किमया असते परमेशाची

इथेच नात्यांची नात्याशी खरी नाळ जुळते

*

तू तुझा म्हण किंवा हवंतर माझा म्हण

पण हे जगच या जगाचा नित्य परिपोष करते 

हेच माणसांनी कधी काळी विसरू नये

येवढीच त्या अनंताची माफक अपेक्षा असते 

*

आपण काय आज आहेत उद्या कदाचित नाही 

विश्व त्याचे अफाट सौंदर्य कायम जपत राहील 

औदार्याच्या खुणा त्याच्या जगाला दिसतील कायम

पण मुक्तपणे जगणारा चिरंजीव आत्मा येईल जाईल

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #239 – कविता – ☆ हम खुद को ही समझ न पाए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता हम खुद को ही समझ न पाए” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #239 ☆

☆ हम खुद को ही समझ न पाए… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कितनी भूलें, कितनी भटकन

बहके कितनी बार विगत में

सोच-सोच कर चिंतित है मन

कैसे अब उनको बिसराएँ।

.

बीत गए दिन कितने अनगिन

मृगतृष्णाओं के मररुथल में

खुशियों को, पाने के भ्रम में

गये उलझते ही, दलदल में,

रहे भुलावे में जीवन भर

हम खुद को ही समझ न पाए

सोच-सोच कर…

.

अहंकारमय बुद्धि का व्यापार

रहे करते अपनों में

नापतौल शब्दों की चलती रही

समय बीता सपनों में,

सहज सरल माधुर्य भाव धारा में

अब कैसे बह पायें

सोच-सोच कर…

.

कभी वासनाओं ने घेरा

लोभ कभी सिर पर मँडराया

कभी क्रोध में दूजों के सँग

अपने को भी खूब जलाया,

समय गँवाया जो प्रमाद में

नहीं उन्हें वापस दुहराएँ

सोच-सोच कर…

.

आत्ममुग्ध हो, खुद अपने से

रहे अपरिचित, सारा जीवन

मृगछौना मन, रहा भटकता

कस्तूरी की ले कर तड़पन,

है तलाश, बाहर-बाहर तो

अन्तर का सुख कैसे पाएँ

सोच-सोच कर…

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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