हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 427 ⇒ सारा आकाश… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सारा आकाश।)

?अभी अभी # 427 ⇒ सारा आकाश? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मुझे रात में तारे गिनने का शौक नहीं, लेकिन रात में आकाश को निहारने का शौक ज़रूर है। दिन का आकाश तो सब का है, क्योंकि हर तरफ़ सूरज का प्रकाश ही प्रकाश होता है, सूरज की पहली किरण से ही प्रकृति सूर्य नमस्कार करती प्रतीत होती है। कली कली खिलती है, फूल मुस्कुराते हैं, पक्षी चहचहाते हैं, अखबार और दूध घर घर हाजरी बजाते हैं, रसोई में उबलती चाय की खुशबू नींद की खुमारी को और बढ़ा देती है।

दिन सबका है, सुबह सबकी है। लेकिन मेरे लिए अभी रात बाकी है। रात का आकाश सिर्फ मेरा है, पूरा का पूरा, सारा का सारा ! मैं जिस कमरे में सोता हूं, वहां एक बड़ी सारी खिड़की है, जहां मच्छरों की जाली भी लगी है और काँच भी। लेकिन फिर भी खिड़की के आर पार का खुला आसमान पूरी रात मेरी आँखों के सामने रहता है। मैं जब चाहे, रात में आसमान से बातें कर सकता हूं।।

जब आसमान खुला होता है, मैं आसमान से खुलकर बात करता हूं। इस धरती की, यहाँ के लोगों की, अपने परायों की, उनके सुख दुख की। वह मेरी सभी बातें बड़े ध्यान से सुनता है। बहुत धैर्य है आसमान में। वह कभी टूटता नहीं, बिखरता नहीं, फटता नहीं। मुझमें इतना धीरज कहाँ। कभी अपनी परेशानियों से, तो कभी किसी और की तकलीफ़ से, फूट पड़ता हूं, फफक कर रो उठता हूं। आसमान पत्थर दिल नहीं, कभी कभी वह भी रोता है मेरे साथ। मेरी दास्तां उसे भी विचलित कर देती है, वह गरजता भी है, और बरसता भी है।

मैं नहीं जानता, इस आकाश में ऐसा क्या है, जो मुझे आकर्षित करता है। मैं जानता हूं, मैं आकाश को छू नहीं सकता। वहाँ तक कभी जा नहीं सकता। लेकिन बच्चों की कहानियों में सुना है, वहां परियां रहती हैं, फरिश्ते रहते हैं। आजकल के बच्चे इतने भोले नहीं। उन्हें परियों के नहीं, एलियंस के सपने आते हैं।।

इंसान जब भी परेशान होता है, उसके हाथ, आसमान की ओर उठ जाते हैं। वह किसी ऊपर वाले की बात करता है। जिस तरह राजा एक ऊंचे सिंहासन पर विराजमान होता है, शायद भगवान भी हमारी पहुंच से दूर, सातवें आसमान में, अपना दरबार सजाये बैठा रहता हो, कान से ऊँचा सुनता हो, या इतनी ऊंचाई तक, उस एक किसी की पुकार ही नहीं पहुंचती हो, और ज़नाब साहिर शिकायत कर उठते हैं ;

आसमां पे है खुदा

और ज़मीं पे हम

आजकल वो इस तरफ

देखता है कम।।

मेरी कभी उस ऊपर वाले से बात नहीं हुई। लेकिन एक बात की मुझे तसल्ली है, मेरी पहुंच आसमान तक है। आखिर यह आसमान भी हमारे ब्रह्मांड का हिस्सा ही तो है। चाँद, सूरज, ग्रह नक्षत्र, उल्का पिंड। हम भी आसमान से ही टूटकर बने हैं और जब भी हम टूटते हैं, हम आसमान की ओर ही उम्मीद भरी नजर से देखते हैं, क्योंकि ये दुनिया, ये महफिल, मेरे काम की नहीं। मेरे पास शब्द नहीं, लेकिन मेरा आकाश बहुत बड़ा है, इसी आकाश में ईश्वर तत्व और आकाश तत्व समाया हुआ है।

यही आकाश मेरे अंदर भी है। हर घट में ब्रह्म व्याप्त है। ॐ भुः, भवः, स्वः, तपः, मनः, जनः और सत्यं ! मतलब ये सातों लोक भी हमारे अंदर ही हैं। तभी कई बार हमारा पारा भी सातवें आसमान पर रहता है। यह शरीर तो मिट्टी से बना है, मिट्टी में मिल जाना है,

और हमें अगले सफर के लिए निकल जाना है। किसी ने सही कहा है ;

अगर ये ज़मीं नहीं वो मेरा वो आसमां तो है।

ये क्या है कम, कि कोई, मेरा मेहरबां तो है।।

जब तक आसमां मेरे सर पर है, मुझ पर बिजली नहीं गिरेगी। उस ऊपर वाले का हाथ जो मुझ पर है। मुझे कोई गम नहीं, क्योंकि सारा आकाश मेरा है …!!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 14 – नवगीत – कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी

? रचना संसार # 14 – नवगीत – कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

जन-मानस को मोहित करती,

कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी।

 *

नाथ हाथ में वंशी लेकर,

वंशीवट पर हैं जाते।

नटवर नागर लीला करते,

ग्वाल बाल सब हर्षाते।।

धेनु चराते हैं गोकुल में,

चक्र सुदर्शन हरि धारी।

 *

जन-मानस को मोहित करती,

कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी।

 *

सुन वंशी की तान निराली,

थिरके ब्रज की हर बाला।

ग्वाल-बाल सब झूम रहे हैं,

जादू सब पर कर डाला।।

मोहन के अधरों पर शोभित,

वंशी सम्मोहक न्यारी ।

 *

जन-मानस को मोहित करती,

कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी।

 *

युगल करों में सजे मुरलिया

सबके मन को है भाती।

मंत्र मुग्ध स्वर करें रसीले,

सुध-बुध सारी खो जाती।।

गोप -गोपियों का मन भटके,

जब-जब आते बनवारी।

 *

जन-मानस को मोहित करती,

कान्हा-मुख-सुषमा प्यारी।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #242 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 242 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चमकती बूंदे बारिश की आया मौसम सावन का।

काले काले छाए बदरा मौसम है मन भावन का ।

छाई है हरियाली  इनकी  सुंदरता  बड़ी  न्यारी।

करते महिमा शिव की गान आया है सावन पावन। का – –

*

आया तीज का त्यौहार करते सबसे है व्यवहार।

बड़ा पावन महीना है मनाते सब है घर परिवार।

चमकती बूंदे बारिश की झलक दिखती है पत्तों पे।

लगी मेंहदी है हाथों पर दिखते है सब संस्कार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #224 ☆ एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 224 ☆

☆ एक पूर्णिका – बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दिलों में  जब  भी  खाई  होती  है

प्रीत  अपनी  नहीं  पराई  होती  है

*

मिल जाएं अगर दिल से दिल जहां

वहां ही तब  सच्ची खुदाई होती है

*

बात रूह  से  रूह तक जब पहुंचे

दिलों  में  तभी  सच्चाई  होती है

*

उसे  क्या  मिलेगा सुकून  जहां  में

साख जिसने अपनी गवाई होती है

*

रुलाती है  जो यहां हर  किसी  को

वो कुछ और नहीं महंगाई होती  है

*

रखते हैं वफा में मिलने की जुस्तजू

मंजूर  उन्हें  कहां  जुदाई  होती  है

*

याद लाती है जब भी करीब उनको

संतोष मैं और मेरी तनहाई होती है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

रिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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सूचना/Information ☆ संपादकीय निवेदन ☆ सम्पादक मंडळ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सूचना/Information 

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

💐 संपादकीय निवेदन 💐

ई अभिव्यक्ती ग्रुपमधील सर्वांनी कृपया नोंद घ्यावी ——आपले संपादक श्री.सुहास पंडित हे पुढील काही दिवस या ग्रुपसाठी उपलब्ध असणार नाहीत. त्यामुळे “ कवितेचा उत्सव ( कविता ),” “ काव्यानंद ‘ (रसग्रहण ) “ आणि “ विविधा “ या सदरांसाठीचे साहित्य पुढील सूचना येईपर्यंत श्री. पंडित यांच्याकडे न पाठवता मंजुषा मुळे यांच्याकडे पाठवावे. तसेच याआधी श्री पंडित यांना पाठवलेले पण अजून प्रकाशित न झालेले साहित्यही पुन्हा एकदा मंजुषा मुळे यांच्याकडे पाठवावे. म्हणजे ते प्रकाशित केले जाईल. या तात्पुरत्या बदलासाठी सर्वांचे सहकार्य अपेक्षित आहे.

सौ मंजुषा मुळे – मो. नं. ९८२२८४६७६२.

 संपादक मंडळ

ई-अभिव्यक्ती (मराठी)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 231 ☆ कुठे शोधू…? ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 231 – विजय साहित्य ?

कुठे शोधू…? ☆

हरवले सौख्य माझे

कुठे शोधू विठूराया.?

पामराला देशील का  ?

तुझी नित्य कृपा छाया. १

*

हरवले गाव माझे

वेळेकाळी धावणारे

संकटांत अगत्याने

पाठी उभे राहणारे ..! २

*

पैसा झाला जगी प्यारा

हरवली नाती गोती.

मातीमोल झाले कारे ?

सुविचार शब्द मोती..! ३

*

परतुनी येईल का

माझे कुटुंब एकत्र

नको द्वेष राग लोभ

नको अहंकारी सत्र…! ३

*

कुठे शोधू विठूराया

माझी कैवल्याची वारी

हरवलो मीच येथे

वेगे संकट निवारी…! ४

*

स्वार्थी जगात धावतो

विसरून हरिनाम

पैसा संपता आठवे

ज्याला त्याला विठू धाम..! ५

*

विसरली बासनात

संत साहित्याची गाथा

सांग कधी कुठे कसा ..?

टेकवावा लीन माथा..! ६

*

युगे सरली अनंत

नच सरे विठू माया

कुठे शोधू  चंद्र भागा..?

आणि तुझी छत्रछाया.! ७

*

विसरून सारें काही,

जग जाहले दिखाऊ..!

वारीतले निरामय

चला विश्व डोळा पाहू..! ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वर्षाधारा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?  कवितेचा उत्सव ?

☆ वर्षाधारा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

(राजा छत्रसाल यांनी महाराजांकडे कर्जाची मागणी केली होती आणि महाराजांनी त्यांना दान दिले आणि त्यांची अवस्था सुधारली अशी कथा आहे )

मी पावसावरील कविता लिहिताना त्यात प्रयोग म्हणून छत्रपती शिवाजी महाराजांच्या कथा त्यात कशा दिसतात हे सांगण्याचा प्रयत्न केला आहे. अशा 12 प्रसंगांवर मी कविता लिहिल्या आहेत. त्यातील एका प्रसंगावरील ही कविता….

वरूणराजा तो झाला, राजा शिवछत्रपती

ढगांच्या घोड्यावर आरूढ़,गड़गडाच्या नौबती

सौदामिनीचे दाणपट्टे, सूर्यकिरणाच्या तलवारी

अशा मोठ्या दलासवे,राजा शोभे तालेवारी

*

आता आमचा बळीराजा,झाला छत्रसाल राजा

ऋण फिटता फिटेना,भेटू म्हणे महाराजा

शेत जमीन नांगरून गार्हाणे हे घातले

यथाशक्ती मदत व्हावी, मागणे हे मागितले

*

छत्रसालाने पसरले बाहू,शिवराय सरसावले

उराऊरी ते भेटताच, दैन्य सारे हे संपले

मृद्गंधाचे अत्तर लावले,थेंबांची ती पुष्पवृष्टी

धरे पासुनी आसमंतापर्यंत, सारी सुखावली सृष्टी

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ ‘पानशेत’ नंतर… — लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

🌸 विविधा 🌸

☆ ‘पानशेत’ नंतर… — लेखक : अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

१२ जुलै १९६१. पानशेत धरण फुटलं. नदीकाठच्या पेठा वाहून गेल्या. संसार उध्वस्त झाले. वाडे पडले. घरं वाहून गेली. माणसं गेली, पैसाआडका गेला, दागिने वाहून गेले, पुण्याचं होत्याचं नव्हतं झालं.

त्याआधीचं पुणं वेगळं होतं. पुण्यात गुरांचे गोठे होते. बरेच बोळ होते. रस्त्यांवर फारसा प्रकाश नसे. घोड्यांच्या पागा होत्या, टांगे होते, बग्ग्या होत्या. खूप साऱ्या सायकली होत्या. घरोघरी चुली होत्या, शेगड्या होत्या, कोळशाच्या वखारी होत्या. कंदील होते. पलंग होते. खाटा होत्या. हौद होते…

पहाटे पिंगळे यायचे, सकाळी वासुदेव यायचे. दुपारी डोंबारी आणि दगडफोडे आपापला खेळ करून पैसे मागायचे. खोकड्यातला सिनेमा यायचा. मुलं त्याला डोळा लावून ‘शिणूमा’ बघायची. माकडाचे खेळ यायचे. नागसापवाले गारूडी यायचे. डोंबारी दोरीवरून चालायचे. ‘जमूरे’ चादरीत लपून गायब व्हायचे.

पुणं पहाटेचंच उठायचं. पूजाअर्चा चालायच्या. खूप मंदिरं होती. त्यात घंटानाद व्हायचे. धूपदीपांचा सुगंध दरवळायचा. आरती नैवेद्य व्हायचे. व्रतवैकल्यं असायची. सण जोरात साजरे व्हायचे. त्यात धार्मिकता ठासून भरलेली असे. अगदी पाडव्यापासून सुरू होऊन, वटसावित्री, श्रावण, मंगळागौरी, नारळीपौर्णीमा, रक्षाबंधन, गणपती, नवरात्र, दिवाळी, रथसप्तमी, होळीपर्यंत सण उत्साहात साजरे होत. गणपतीत वाड्यावाड्यात धार्मिक आणि सांस्कृतिक कार्यक्रम साजरे होत. गणपती चौकात सतरंज्या टाकून लोक गजानन वाटव्यांची गाणी ऐकत. घरोघरी धार्मिकतेनं गणपती बसे. सत्यनारायण वगैरेही जोरात होई. घरोघरी नवरात्र बसे. वाड्यावाड्यात भोंडले होत. ‘ऐलोमा पैलोमा गणेश देवा…’ ऐकू येई. अनेक बायकांच्या अंगात देवी येई. दिवाळीत घरोघरी फराळाचे पदार्थ बनत. मुलं किल्ले करत. मुली रांगोळ्या काढत. वर्षभर सणसमारंभ चालत.

त्याकाळी बरेच पुरुष धोतर नेसत. बायका नऊवारी साडी नेसत. पाचवारी साडी अजून रूळायची होती. बालगंधर्व बायकांचे आवडते होते. त्यांचे हावभाव, साडी नेसणं याची बायका नक्कल करत. ‘असा बालगंधर्व पुन्हा न होणे…’ हे सर्वमान्य होतं.

मुलं पतंग उडवत, विट्टीदांडू खेळत. आट्यापाट्या, लगोरी, सूरपारंब्या वगैरे मुलांचे आवडते खेळ होते. मुली सागरगोटे, बिट्ट्या वगैरे खेळत. भातुकली हा मुलींचा आवडीचा खेळ होता. मुलं चड्ड्या घालत. मुली परकर पोलकं घालत. बायका अंबाडा घालत. त्यात एक फूल खोचत. ठसठशीत कुंकू लावत. मंगळसूत्र घालत. मुली कानात डूल घालत. काही मुलं शेंडी ठेवत.

पानशेत पुरामुळेच पुण्याचं रूप पालटलं. मुकुंदनगर, महर्षीनगर, सहकारनगर, दत्तवाडी, पानमळा असे अनेक नवीन भाग उदयाला आले. वाड्यांच्या पुण्यात बंगल्यांची एंट्री झाली. तिथून पुणं वाढायला सुरुवात झाली. पेठांमध्ये वसलेलं पुणं, ही पुण्याची ओळख पुसून नवीन पुढारलेलं पुणं दिसू लागलं. जसं ते रहाणीमानात बदललं, तसं ते आचारविचार आणि संस्कृतीतही बदलू लागलं. कर्मठ पुण्याचं आता प्रगतीशील पुण्यात रुपांतर होऊ लागलं. संस्कृती, आचारविचार, रुढी, परंपरा या मागासलेपणाचं निदर्शक मानल्या जाऊ लागल्या. साठच्या दशकात संसाराला लागलेल्या पिढीची तारेवरची कसरात झाली. रुढी परंपरांवर त्यांच्या आईवडिलांच्या दबावामुळे असलेला अर्धवट विश्वास आणि आभासी प्रागतिक विचारांचं सुप्त आकर्षण यात त्यांची कुतरओढ झाली. म्हणून ते आपल्या मुलांवर कुठलेच संस्कार नीट करू शकले नाहीत. कर्मठपणावरून त्यांचा विश्वास  उडाला होता आणि नवीन, प्रागतिक विचार पचवायला ते असमर्थ होते.

या दरम्यान पुणं वाढतच होतं. साठच्या दशकात जन्माला आलेली नवीन पिढी मोठी होत होती. धार्मिकता, कट्टरता यावर आपल्या आईवडिलांचा डळमळीत झालेला विश्वास त्यांना जाणवत होता. ही पिढी प्रागतिक विचार बोलू लागली होती. त्यांच्या या विचारांपुढे त्यांचे आईवडील हतबल झालेसे वाटत होते. आईवडीलांच्या पिढीत आईवडील मोठे असत. मुलं त्यांच मनोभावे ऐकत असत. पुढच्या पिढीत आईवडील मुलांच्या प्रागतिकतेनं मंत्रमुग्ध झाल्यानं आईवडील मुलांचं ऐकू लागले.

नव्वदच्या दशकात पुढची पिढी आली. तिच्या आईवडिलांवरच पुरेसे संस्कार झालेले नव्हते. तिच्यावर कसलेच संस्कार करायला तिच्या आईवडिलांना वेळ नव्हता. वेळही नव्हता आणि माहितीही नव्हती. आजी आजोबा ही स्थानं संपली होती. गोष्टी सांगणारी आजी लुप्त झाली होती. ‘ममा, पप्पां’ना गोष्टी सांगता येत नाहीत. त्यांना तेवढा वेळही नाही. त्यात टीव्ही घरात आले. आजीपासून नातवापर्यंत सगळे निरनिराळ्या सिरीयल्समध्ये अडकले. त्यात ‘डिस्टर्ब’ नको, म्हणून आईबापांनीं मुलांच्या हातात मोबाईल दिला. त्यानं ती व्हिडिओ गेम्सच्या आहारी गेली. बहुतेकसे आईवडील एकपुत्र असल्यानं मुलांना बोलायला घाबरू लागले. आपल्या मास्तरांनी मारलेल्या छड्यांचे वळ अभिमानाने मिरवणारे आईबाप मुलांच्या अंगावर हात टाकायला बिचकू लागले. मुलांच्याही ते लक्षात आले. ती अवास्तव मागण्या करू लागली. त्यांचे हट्ट पुरवले जाऊ लागले. आजीआजोबा किंवा आईवडीलांचा  ‘धाक’ संपला. धाक हा शब्द डिक्शनरीत जाऊन पडला. शिक्षकांनी मुलांना मारणं गुन्हा ठरू लागला. मारलं तर मुलं आत्महत्या करू लागली. शिक्षकांना जेल होऊ लागली. मुलांवरचा धाक संपला!

त्यात आय.टी. इंडस्ट्री पुण्यात आली. जो तो आयटीत पळू लागला. त्यांना अवाच्यासवा पगार मिळू लागले. त्यातल्या प्रत्येकानं दोनदोन चारचार फ्लॅट्स विकत घेतले. त्यानं पुणं अजूनच विस्तारलं. पुण्याची राक्षसी वाढ होऊ लागली. खराडी, वाकड, धानोरी, अशी अनेक पूर्वी कधी पुण्यात न ऐकलेली नावं सर्रास ऐकू येऊ लागली. पेठेत रहाणारी लोकं आपापली घरं व्यापाऱ्यांना विकून तिकडे रहायला जाऊ लागली. आयटी क्षेत्रानं पुण्याची संस्कृती अजून रसातळाला गेली. आजचं आणि आत्ताचं पहा, आम्हाला कोणी मोठे नाहीत. अगदी आईवडील सुद्धा नाहीत. त्यांना असा कितीसा पगार होता. आत्ताच आम्ही त्यांच्या दसपट कमावतो, असा गंड मनात मूळ धरू लागला. मुली सर्रास दारू पिऊ लागल्या. रस्त्यावर सिगारेटी पिऊ लागल्या. वीतभर चड्ड्या घालून रस्त्यावरून फिरू लागल्या. लग्न करायची गरज कमी होऊ लागली. ‘लिव्हिंग रिलेशनशिप’ नावाचा नवीन विचार पुढे आला. आईवडील अधिकच हतबल होऊन पहात राहिले. अनेक कुटुंबं आयटीमधल्या मुलींच्या पैशावर पोसली जात असल्यानं, आईवडील मुलींना काही बोलू शकत नव्हते. आता पुणं, आयटी पुणं झालं होतं. जागांच्या किमती गगनाला भिडल्या होत्या. खूप हॉटेलं झाली होती. अनेकांच्या घरी स्वयंपाक बनत नव्हता. बाहेरचं खाण्याची संस्कृती रुजत चालली होती. दारू फारच सामान्य झाली होती. ड्रग्जचे नवनवीन प्रकार येत होते. एकमेकांच्या संगतीनं नवी पिढी त्यात ओढली जात होती.

आयटी बरोबर परप्रांतीयही पुण्यात खूप आले. त्यांनी त्यांची संस्कृती पुण्यात मिसळली. रंगपंचमी बंद होऊन पुण्यात धुळवड जोरात खेळली जाऊ लागली. प्रचंड पैसा घेऊन पुण्यात शिकायला आणि नोकरीला आलेल्यांनी नीतिमत्ता पूर्णपणे धाब्यावर बसवली. पुण्यात बुद्धिमत्ता कमी झाली आणि पैसा बोलू लागला.

या आयटीयन्स् मुळे जागांना प्रचंड भाव आले. पुण्याभोवतालचे शेतकरी शेती बंद करून ‘स्कीमा’ करू लागले. बिल्डर बनू लागले. ‘गुंठामंत्री’ नावाची एक नवीन जमात उदयाला आली.

साठ वर्षांत पुणं आता पूर्णपणे बदललं आहे. ब्राम्हणी पुणं तर केव्हाच लोप पावलंय.  सांस्कृतिक, बौद्धिक, वैचारिक अशी पुण्याची ओळख पुसली गेली आहे. पुरणावरणाच्या पुण्यात, सदाशिव पेठेत मटण आणि बिर्याणीची दुकानं दाटी करू लागली आहेत.

आता पुण्यात फारसे वाडे शिल्लक नाहीत. सकाळी वासुदेव येत नाही. दगडफोडे, डोंबारी, भुते, ‘जग्ग’ डोक्यावर घेऊन फिरणाऱ्या बायका, कुडमुडे, पोपटवाले ज्योतिषी, ‘जमूरे’ वाले नाहीसे झालेत. नदीचं आता गटार झालंय. पानशेतफुटीपूर्वी ओंकारेश्वराजवळ सुद्धा नदीचं पाणी पिता यायचं. आता त्यात पाय घालायचीही किळस येते. पानशेत फुटीनंतर पुणं बदललं, वाढलं, विस्तारलं. पण जे रूप बदललं, ते पुणं नाही राहिलं. ते बौद्धिक, तात्विक, विचारवंतांचं, शिक्षणाचं माहेरघर असलेलं पुणं पानशेतच्या पुरात वाहून गेलं. उरलं आणि वाढलं ते पुणं नाहीये, एक अक्राळविक्राळ संस्कृतीहीन, चेहेरा नसलेलं, मुंबईच्या पावलावर पाऊल टाकायला निघालेलं एक चेहेराहीन, पानशेतफुटीनं  बकाल केलेलं गर्दीचं एक शहर!

लेखक : अज्ञात

प्रस्तुती : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “कर चले हम फिदा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “कर चले हम फिदा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

# कर चले हम फ़िदा… अब तुम्हारे हवाले… #

“… हे काय? अजून तुम्ही स्टूलावरच उभे आहात काय? गळफास लावून घ्यायला धीर होत नाही ना? …पाय लटलट कापायला लागलेत ना! तो फास गळ्यात अडकवून घ्यायला हात थरथरायलाही लागलेत का?.. अगं बाई! चेहरा कसा भीतीने फुलून गेलाय… अंगालाही कापरं भरलयं वाटतं… आणि छप्पन इंचाची नसलेली छाती कशी उडतेय धकधक… ह्यॅ तुमची.. तुमच्याने साधं फासाला जाणं देखील जमणारं नाही…  घरातल्या इतर कामा सारखंच फाशी घेण्याचं कामं सुध्दा तुम्हाला जमत नाही…म्हणजे बाई कमालच झाली म्हणायची…अहो बाकीच्या  संसाराच्या कामात मेलं एकवेळ राहू दे हो  पण निदान फासावर जाण्याच्या कार्यात तरी पुरूषार्थ दाखवयाचा होताना…तितही डरपोक निघालात….तुका म्हणे तेथे हवे जातीचे हे येरागबाळ्याचे काम नोव्हे… आणि हे काय हातात लिहिलेला कागद कसला घेतलाय? बघु दे मला एकदा वाचून… आपल्या आत्महत्येला जबाबदार म्हणून माझं नावं वगैरे तर लिहिले नाही ना त्यात… हो तुमचा काय भरवंसा.. तुम्ही मनात आलं नाही तर फासावर लटकवून घ्याल नि व्हालं मोकळे एकदाचे… आणि मी बसते इथे  विनाकारण पोलिसांच्या ससेमिऱ्याला तोंड देत नि कोर्ट कचेऱ्याच्या हेलपाट्या टाकत आयुष्यभरं… तसं जिवंत पणीही तुम्ही मला सुखानं जगू दिलं तर नाहीच पण मेल्यावर सुद्धा माझ्या आयुष्याची परवड परवड करून गेल्याशिवाय चैन ती तुम्हाला कसली पडायची नाही… जळ्ळं माझं नशिब फुटकं म्हणून देवानं हा असला नेभळट नवरा माझ्या नशीबी बांधून दिला… अरेला कारे केल्याशिवाय का संसाराचा गाडा चालतोय… पण ती धमकच तुमच्या खानदानातच नाही त्याला तुम्ही तरी काय करणार… अख्खं गावं तुम्हाला भितरा ससोबा महणतयं आणि मला  जहाॅंबाज गावभवानी… पण कुणाची टाप होती का माझ्या वाटेला येण्याची… एकेकाची मुंडीच पिरगाळू टाकली असती… मी होते म्हणून तर इथवरं संसार केला… आणखी कुणी असती तर तेव्हाच गेली असती पाय लावून पळून… चार दिडक्या कमवून घरी आणता म्हणजे वाघ मारला नाही… घर संसार माझा तसाच तुमाचाही आहे… नव्हे नव्हे बायको पेक्षा नवऱ्याचा संसार जास्त महत्त्वाचा.. त्याचा वंशवेल वाढत जाणार असतोना पुढे… मग तो कर्ता पुरुष कसा असायला हवा हूशार, तरतरीत, शरीरानं दणकट नि मनानं कणखरं.. हयातला एकही गुण तुमच्याजवळ असू नये… जरा बायकोनं आवाज चढवला कि तुम्ही घरातून पळून जाता… कंटाळले मी तुमच्या या पळपुटेपणाला… एकदाचं काय ते कायमचे पळूनच का जात नाही म्हणताना आज तुम्ही हि फिल्मी स्टाईल स्टंटबाजीनं फासावर लटकवून घेण्याचं काढलतं.. कशाला मला भीती घालायला… असल्या थेरांना मी भिक घालणारी बाई नाही… माझ्या मनगटातलं पाणी काही पळून गेलंल नाही… माझं मी पुढचं सगळं निभावून न्यायला खंबीर आहे… तुम्ही तुमचं बघा… आणि काय ते लवकरच आटपा … आज एकच रविवारची सुट्टी असल्याने सगळं घरं झाडून घ्यावं म्हणतेय मी… मला ते तुमच्या पायाखालचं स्टूल हवयं.. तेव्हा तुमचा निर्णय लवकर अंमलात आणा… मला थांबायला वेळ नाही बरीच कामं पडलीत घरात… नाहीतर असं कराना एवीतेवी तुम्ही फासावर लटकायचं हे ठरवलंय ना.. मग जाण्यापूर्वी शेवटचं एकदा घर झाडून द्यायला मदत करुनच गेलात जाता जाता तरं माझ्या मनाला तेव्हढचं समाधान मिळेल हो… आणि त्या आधी तुमचे आवडीचे दडपे पोहे  नि त्याबरोबर गरम गरम चहा ठेवलाय तोही पिऊन घ्यालं… नाहीतर उगाच माझ्या मनाला नकोती रुखरुख लागेल… आता बऱ्या बोलानं खाली उतरतायं कि कसं.. का मारू लाथ त्या स्टूलाला अशीच… “

… ” नको नको…मी खाली उतरतो… तू म्हणतेय तसं फासावर जाण्यापूर्वी दडपे पोहे नि चहा घेतो… ते घरं झाडायला तुला मदतही करतो… पण पण तू असं समजू नकोस कि मी माझ्या निर्णायापासून परावृत्त झालो म्हणून… ते आपलं तुझ्या शब्दाचा मान राखावा आणि तुला ते स्टूल हवयं म्हणून… हे सगळं आवरून झालं कि मी माझा निर्णय  अंमलात आणणारं हं… मग भले त्यावेळी तू कितीही मधे मधे आढेवेढे आणलेस तरी माघार घेणार नाही… पण त्यावेळी तू मात्र दडपे पोहे नि गरमागरम चहाच्या मोहात फशी पाडू नकोस बरं… नाहीतर…. “

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –nandkumarpwader@gmail.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ शीरखुर्मा… – भाग – १ ☆ प्रा. विजय काकडे ☆

प्रा. विजय काकडे

? जीवनरंग ❤️

☆ शीरखुर्मा… – भाग – १ ☆ प्रा. विजय काकडे 

शीरखुर्मा  हे एक वर्षातून एकदाच मिळणारे दुर्मिळ असे पक्वान ! रमजान ईदच्या दिवशी मुस्लिम बांधवांच्या घरी मोठा उत्सव असतो त्यांच्या आनंदाला त्यादिवशी उधान असते. त्यादिवशी मुस्लिम बांधव आपल्या सर्व नातेवाईकांना,शेजाऱ्यांना, प्रतिष्ठित, निमंत्रित, मित्रपरिवार, जमातवाले इत्यादी सर्वांना अतिशय प्रेमाने आणि आग्रहाने आपल्या घरी बोलावतात आणि शीरखुर्मा खाऊ घालतात.

त्यादिवशी शीरखुर्मा हे जगातले सगळ्यात मोठे पक्वान असते. ती केवळ एक शिरखुर्माची वाटी नसते… तर ती वाटी असते बंधुत्वाची…! ती वाटी असते समतेचे प्रतीक…! एवढेच नव्हेतर ते असते समाजा समाजातील माणसांच्या प्रेमाचे अलोट प्रतिक…!   म्हणूनच तर गावातील कुठल्याही जातीचा माणूस असो तो वर्षातून एकदा आपल्याला शीरखुर्मा खायला मिळणार याची वाट पाहत असतो आणि तो खायला मिळाल्यावर स्वतःला भाग्यवान समजत असतो.

तसे पाहिले तर शीरखुर्मा म्हणजे  एक शेवयांची खीर असते जी मुस्लिमेत्तर लोकांच्या घरी सुद्धा खूप छान पद्धतीने बनवता येते. त्यामध्ये सुद्धा दूध, केशर आणि महागातले ड्रायफ्रूट्स घातलेले असतात. तरीपण त्याला शीरखुर्माची गोडी येत नाही कारण शिरखुर्म्यात मुस्लिम बांधवांचे प्रेम असते… त्याचा गोडवा खिरीमध्ये मिसळलेला असतो.तर त्याची सर दुसऱ्या कशाला कशी येईल?

खूप वर्षापूर्वीची माझ्या बालपणीची एक गोष्ट आहे. त्यावेळी मी साधारणपणे 11ते 12 वर्षांचा असेन. तो एक रमजान इदचा दिवस होता.  सकाळचे नऊ साडेनऊ वाजले होते. आम्ही आंघोळ करून चावडीपुढे खेळत असताना पोपटदादा अचानक तिथे आला. तो खूपच खुशीत दिसत होता. दररोज याच वेळी तो अर्धी पावशेर घेऊन टाईट असायचा. त्यामुळे त्याच्याकडे कोणी फारसे लक्ष देत नसे. कोणाची तरी दारू पिऊन दुसऱ्याच कोणालातरी शिवीगाळ करणे,  कोणाबरोबर तरी भांडण करणे हे त्याचे रोजचे ठरलेले असे परंतु त्यादिवशी मात्र तो एकदम खडकमध्ये होता. विशेष म्हणजे तो आपल्या दोन्ही पायावर सरळ उभा होता…!

आपल्या ओठावरून जीभ फिरवत आमच्याकडे बघून तो म्हणतो कसा, ”  पोराहो, जावा… शीरखुर्मा पिऊन या, मी आत्ताच चार वाट्या शीरखुर्मा पिऊन आलो. ” एवढे बोलून त्याने एक जोरकास ढेकर दिला.

आम्ही त्याला विचारलं, ” दादा शीरखुर्मा म्हणजे काय असतं?”

“अरे येड्यांनो, आज  ईद आहे ना? त्यामुळं मुसलमानांच्या घरी प्रसाद म्हणून सगळ्यांना शीरखुर्मा देत्यात.”

तुम्हाला मोठ्या माणसांना देत असत्याला आम्हाला बाराक्या पोरांना कोण देणार?मी विचारले.

“अरे पोरांनो, ते लहानांना,थोरांना सगळ्यांनाच देत्यात जावा तुम्हाला बी देत्याल, आजच्या दिवशी कोण न्हाय म्हणणार न्हाय. ” 

 “पण,कुणाच्या घरी जायचं आम्ही? ”  मी विचारलं. 

“अरे, कोणाच्या बी घरी जायचं… समशेर,ताया, रमजानभाई, बरकतभाई जाफरभाई,मुन्नाभाई नाहीतर आपला बाळूभाई आहेच की..! त्याच्या घरी जा. सगळी आपलीच हाईत.

पोपटदादांनी आम्हाला अगदी सविस्तर माहितीदेवून आम्हाला शीरखुर्मा खायला जाण्यासाठी प्रोत्साहीत केले.

मग मी हळूच म्हटलं,” आम्हाला सोडा की कुणाच्यातरी घरी, तुमच्या वशिल्याने.”

“अरे,त्याला वशिला कशाला लागतोय?कोणीबी जातय कोणाच्याबी घरी आज सण आहे त्यांचा कोणी कोणाला नाही म्हणत नाही.जावा, पळा लवकर… “

“आईला ‘लईच भारी झालं की! मग जाऊ का मी समदीच ?%

” अरे जावा जावा लवकर नाहीतर सगळा शीरखुर्मा संपून जाईल… “

संपून जाईल म्हटल्याबरोबर आम्ही सणाट पळालो…

सगळेजण वाडा ओलांडून मशिदीकडे गेलो. तिथे माशिदीवर भलमोठ्ठा स्पीकर लावला होता.  स्पीकरवर बहारदार  कव्वाली ऐकायला येत होती.

सगळे मुस्लिम बांधव नवनवीन कपडे घालून डोक्यावर अर्ध चंद्राकर टोप्या घालून आनंदाने इकडून तिकडे धावत होते. समोर आल्यावर एकमेकांच्या गळाभेटी करत होते. त्यांच्या भाषेत एकमेकांना काहीतरी म्हणत होते. सगळेजण आपापल्या घराच्या विरुद्ध दिशेला जात होते. ते एकमेकांकडे शीरखुर्मा खायला जात होते असा त्याचा अर्थ होता. आम्ही ते सगळे लांबून पाहत होतो. तर गावातले बरेच लोक सुद्धा मुसलमानाच्या वाड्यातून अगदी मिटक्या मारत बाहेर येत होते. शीरखुर्मा खाऊन आलो म्हणजे गावात आपला किती वट आहे, आपली किती पथ आहे, मुसलमान लोक आपल्याला किती मानतात.हे प्रत्येकाच्याच देहबोलीतून जाणवत होते.

आमच्यातले दोघेजण समशेर भाईच्या वाड्याकडे गेले. दोघे आताराच्या घराकडे गेले. बरकत भाईच्या घराकडे मी आणि भूषण वळलो. बरकत भाईंचे घर खूप मोठे होते. इकडे गावी त्यांचा मटणाचा धंदा होता. घरातल्या महिलांचा बांगड्याचा धंदा होता. त्यामुळे घरात चांगलीच बरकत होती. परंतु त्या घरी माणसांची खूपच गर्दी असल्यामुळे आम्हाला आत जाण्याची डेरिंग होत नव्हती.

पांढराशुभ्र कुर्ता पायजमा घातलेले मोठमोठाले, दाढीवाले लोक,पान खाऊन लालसर तोंड झालेले ते मोठे लोक पाहिल्यावर आम्ही त्यांच्या दारातूनच काढता पाय घेतला.

बरकत भाईच्या शेजारीच एका मिलिटरीमनचे घर होते पण तिथे भाभी  घरी एकटीच होती. लहान पोरं कुठेतरी खेळायला गेली होती.  आम्ही तिच्या घरात डोकावल्यासारखं केलं तर आतून आवाज आला, ” कोण पाहिजे रे इनको? किसके लडके है तुम?” भाभींचा  असा आवाज कानावर पडताच आम्ही तिथून कलटी मारली अन थेट मशिदीच्या मागे उभे येऊन उभे राहिलो… मनात विचार केला आज काय आपल्याला शीरखुर्मा मिळत न्हाय. पण शीरखुर्मा न खाता घरी परत जायचं तरी कसं? मन माघर घ्यायला तयार होत नव्हते. मग मी भूषणला म्हटलं, ” काय होईल ते होईल आपण आता माघार घ्यायची नाही. ” भूषणही म्हणाला होय चाललं. ” शिरखुर्मा खाल्ल्याशिवाय आज घरी जायचं नाही. असा आम्ही चंगच बांधला होता. तेवढ्यात समोरून रामूसवाड्यातून आमचा नाना आला. तो स्वभावाला एकदम भारी आणि दिलदार माणूस होता. त्याच्याजवळ पैसे असल्यावर कोणी काही मागावं तो कोणाला नाही म्हणायचा नाही. प्रेमाच्या माणसावर तर तो  पैशांची उधळण अगदी मुक्तपणे करीत असे परंतू त्याचा एक वीक पॉइंट होता तो असा की तो अत्यंत स्वाभिमानी होता. त्याला कुणी कुणापुढे हात पसरलेलं आवडायचं नाही. आता आम्ही शीरखुर्मा पिण्यासाठी दारोदारी फिरतोय हे त्याला कधीच आवडलं नसतं. त्याला तसं कळलं तर तो आम्हाला फोकाने मारल्याशिवाय राहणार नाही. त्या भीतीनेच मग आमची गाळण उडाली! नानाला समोर पाहताच भूषण पळाला. मी ही त्याच्या मागे पळालो. बाकीचेही वाट दिसेल तिकडे पळाले.भूषण पुढे आणि मी मागे मशिदीला वेडा मारून रस्त्याने सरळ नळापर्यंत जाऊन नळापासून बोंदऱ्याच्या  बागेतून थेट धोंडीरामनानाच्या दुकानाला वळसा घालून गावात शिरलो…! पुढे भिमजी नानांच्या दुकानासमोरून तेली नानाच्या दारातून जाफर भाईंच्या दारात आलो.

जाफरभाई आपला गरीब मनुष्य होता.टेलरिंग काम करायचा. तो एक साधा टेलर होता. त्याच्याकडे नवीन कपडे कमी पण जुनेच कपडे जास्त शिवायला यायचे. तो आणि त्याची बहीण कसेबसे दिवस काढत होते. त्याची ती परिस्थिती आम्हाला माहीत असल्यामुळे त्यांच्या घरी शीरखुर्मा खाण्यासाठी जाताना मला वाईट वाटायला लागले.त्यामुळे आम्ही ते टाळले. त्याच्या पुढचं घर माझा वर्गमित्र असलेल्या फरीदचं होतं म्हणजे ते बंदच असायचं कारण ते सगळे लोक मुंबईला असायचे. फक्त झेंड्याला म्हणजे यात्रेला सगळे गावात यायचे.

फरीदचे घर ओलांडून आम्ही पुढे आलो पुन्हा त्या भाभीच्या दारात आलो जिने मघाशीच आम्हाला हाकललं होतं. आता त्यापुढे एकच घर होतं ते म्हणजे बाळू भाईचं. तेवढा एकच पर्याय आता आमच्याकडे होता. बाळूभाई सुद्धा अत्यंत गरीब मनुष्य होता.  त्याला चार मुली आणि दोन मुलगे होते. त्यांचा सायकल दुरुस्तीचा व्यवसाय असल्याने संसार कसाबसा तरी चालत होता. आम्हाला तर आता कशाचाच विचार करून चालणार नव्हतं कारण ते आमच्या दृष्टीने शेवटचं घर होतं.

– क्रमशः भाग पहिला 

© प्रा. विजय काकडे

बारामती. 

मो. 9657262229

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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