(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण अभिनवगीत – “बादल की क्या रही बिसात ….. ”। )
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
पुनर्पाठ में आज एक संस्मरण
संजय दृष्टि – संस्मरण – वह निर्णय
स्मृतियों की स्क्रीन पर अबाध धाराप्रवाह चलते रहनेवाला धारावाहिक होता है बचपन। आँखों की हार्ड डिस्क में स्टोर होता है अतीत और विशेषता यह कि डिस्क हमारी कमांड की गुलाम नहीं होती। आज कौनसा महा एपिसोड चलेगा, इसका निर्णय आँख का मीत मन करता है।
एकसाथ कुछ एपिसोड सामने आ रहे हैं। दो तो ट्रेलर हैं, एक मुख्य एपिसोड है। पुणे में चौथी कक्षा में पढ़ने का चित्र घूम रहा है। कमांड हॉस्पिटल के रेजिमेंटल स्कूल की पिद्दी-सी कैंटीन में मिलनेवाली टॉफी की गंध आज भी नथुनों में बसी है। बहुत हद तक पारले की आज की ‘किस्मी’ टॉफी जैसी। सप्ताह भर के लड़ाई-झगड़े निपटाने के लिए शनिवार का दिन मुकर्रर था। शनिवार को स्कूल जल्दी छूटता। हम सब उस दिन हंटर (उन दिनों हम छात्रों में बेल्ट के लिए यही शब्द प्रचलित था) लगाकर जाते। स्कूल से कुछ दूर पर पेड़ों की छांव में वह जगह भी तय थी जहाँ हीरो और विलेन में भिड़ंत होनी होती। कभी-कभी टीम बनाकर भी भव्य (!) युद्ध होता। विजेता टीम या नायक की वीरता की चर्चा दबी ज़ुबान में सप्ताह भर कक्षा के लड़कों में होती। हाँ, आपसी समझदारी ऐसी कि सारी मार-कूट शनिवार तक ही सीमित रहती और सोमवार से शुक्रवार फिर भाईचारा!
दूसरा ट्रेलर लखनऊ का है। पिता जी का पोस्टिंग आर्मी मेडिकल कोर्प्स के सेंटर, लखनऊ आ गया था। हम तो वहाँ पहुँच गए पर घर का लगेज संभवत: चार महीने बाद पहुँचा। मालगाड़ी कहाँ पड़ी रही, राम जाने! माँ के इष्ट हनुमान जी हैं (हनुमान जी को पुरुषों तक सीमित रखनेवाले ध्यान दें)। हमें भी उन्होंने हनुमान चालीसा और संकटमोचन रटा दिये थे। मैं और बड़े भाई मंगलवार और शनिवार को पाठ करते। उसी दौरान माँ ने बड़े भाई को ‘हरहुँ नाथ मम संकट भारी’ की जगह ‘करहुँ नाथ मम संकट भारी’ की प्रार्थना करते सुना। माँ को दृढ़ विश्वास हो गया कि लगेज नहीं आने और तत्सम्बंधी अन्य कठिनाइयों का मूल इस निष्पाप और सच्चे मन से कहे गये ‘ करहुँ नाथ..’ में ही छिपा है!
अब एपिसोड की बात! सैनिकों के बच्चों की समस्या कहिये या अवसर कि हर तीन साल बाद नई जगह, नया विद्यालय, नये मित्र। किसी के अच्छा स्कूल बताने पर ए.एम.सी. सेंटर से लगभग दो किलोमीटर दूर तेलीबाग में स्थित रामभरोसे हाईस्कूल में पिता जी ने प्रवेश दिलाया। लगभग साढ़े ग्यारह बजे प्रवेश हुआ। स्कूल शायद डेढ़ बजे छूटता था। पिता जी डेढ़ बजे लेने आने की कहकर चले गए। कपड़े के थैले में कॉपी और पेन लिए मैं अपनी कक्षा में दाखिल हुआ। कॉपी के पहले पृष्ठ पर मैंने परम्परा के अनुसार श्री गणेशाय नमः लिखा था। विशेष याद ये कि बचपन में भी मैंने पेंसिल से कभी नहीं लिखा। जाने क्या था कि लिखकर मिटाना कभी रास नहीं आया। संभवतः शिक्षित पिता और दीक्षित माँ का पाठ और किसी जन्म का संस्कार था कि ‘अक्षर, अक्षय है, अक्षर का क्षरण नहीं होता’ को मैंने लिखे को नहीं मिटाने के भाव में ग्रहण कर लिया था।
कुछ समय बाद शिक्षक आए। सुलेख लिखने के लिए कहकर चले गए। साथ के छात्र होल्डर से लिख रहे थे। मैंने जीवन में पहली बार होल्डर देखा था। शायद अक्षर सुंदर करने के लिए उसका चलन था। मैंने पेन से सुलेखन किया। लगभग एक बजे शिक्षक महोदय लौटे। हाथ में एक गोल रूलर या एक-डेढ़ फीट की बेंत भी कह सकते हैं, लिए कुर्सी पर विराजे। छात्र जाते, अपनी कॉपी दिखाते। अक्षर सुंदर नहीं होने पर हाथ पर बेंत पड़ता और ‘सी-सी’ करते लौटते। मेरा नम्बर आया। कॉपी देखकर बोले,‘ जे रामभरोसे स्कूल है। इहाँ पेन नाहीं होल्डर चलता है। पेन से काहे लिखे? हाथ आगे लाओ।’ मैंने स्पष्ट किया कि डेढ़ घंटे पहले ही दाखिला हुआ है, जानकारी नहीं थी। अब पता चल गया है तो एकाध दिन में होल्डर ले आऊँगा।…‘बचवा बहाना नहीं चलता। एक दिन पहिले एडमिसन हुआ हो या एक घंटे पहिले, बेंत तो खाना पड़ेगा।’ मैंने बेंत खाने से स्पष्ट इंकार कर दिया। उन्होंने मारने की कोशिश की तो मैंने हाथ के साथ पैर भी पीछे खींच लिए। कपड़े का बैग उठाया और सीधे कक्षा से बाहर!..‘कहाँ जा रहे हो?’ पर मैं अनसुनी कर निकल चुका था। जिन्होंने एडमिशन दिया था, संभवतः हेडमास्टर थे, बाहर अहाते में खड़े थे। अहाते में छोटा-सा गोल तालाब-बना हुआ था, जिसमें कमल के गुलाबी रंग के फूल लगे थे। प्रवेश लेते समय जो परिसर रम्य लगा था, अब स्वाभिमान पर लगी चोट के कारण नेत्रों में चुभ रहा था। हेडमास्टर अपने में ही मग्न थे, कुछ बोले नहीं। शिक्षक महोदय ने भी अब तक कक्षा से बाहर आने की जहमत नहीं उठाई थी। हो सकता है कि वे निकले भी हों पर हेडमास्टर कुछ पूछते या शिक्षक महोदय कार्यवाही करते, लम्बे डग भरते हुए मैं स्कूल की परिधि से बाहर हो चुका था।
एक और संकट मुँह बाए खड़ा था। स्कूल से घर का रास्ता पता नहीं था। पिता जी के साथ दोपहिया पर आते समय थोड़ा अंदाज़ा भर आया था। मैंने उसी अंदाज़े के अनुसार कदम बढ़ा दिये। अनजान शहर, अनजान रास्ता पर अनुचित को स्वीकार नहीं करने की आनंदानुभूति भी रही होगी। अपरिचित डगर पर लगभग एक किलोमीटर चलने पर ए.एम.सी. सेंटर की कम्पाउंड वॉल दिखने लगी। जान में जान आई। चलते-चलते सेंटर के फाटक पर पहुँचा। अंदर प्रवेश किया। शायद डेढ़ बजने वाले थे। पिता जी आते दिखे। मुझे घर के पास आ पहुँचा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। पूछने पर मैंने निर्णायक स्वर में कहा,‘ मैंने ये स्कूल छोड़ दिया।’
बाद में घर पर सारा वाकया बताया। आखिर डी.एन.ए तो पिता जी का ही था। सुनते ही बोले, ‘सही किया बेटा। इस स्कूल में जाना ही नहीं है।’ बाद में सदर बाज़ार स्थित सुभाष मेमोरियल स्कूल में पाँचवी पढ़ी। छठी-सातवीं मिशन स्कूल में।
आज सोचता हूँ कि वह स्कूल संभवतः अच्छा ही रहा होगा। शिक्षक महोदय कुछ गर्म-मिज़ाज होंगे। हो सकता है कि बाल मनोविज्ञान के बजाय वे अनुशासन के नाम पर बेंत में यकीन रखते हों। जो भी हो, पिता जी के पोस्टिंग के साथ स्कूल बदलने की परंपरा में किसी ’फर्स्ट डे-फर्स्ट शो’ की तरह पहले ही दिन डेढ़ घंटे में ही स्कूल बदलने का यह निर्णय अब भी सदा याद आता है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता ‘हम है बिजूका ….’ )
☆ संस्मरण # 110 ☆ हम है बिजूका…. ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# बसेरा #”)
काय मंडळी, आठवतंय का तुम्हांला उद्देशून कोणीतरी किंवा तुम्ही कोणाला तरी उद्देशून हे असं म्हटल्याचं ? माझ्या पिढीतील मंडळींना हे नक्कीच आठवत असणार ! कारण त्या काळी मुलं मुली शाळेत किंवा घरी, सारे खेळ एकत्रच खेळत होती. मुला मुलींची शाळा वेगवेगळी, ही कन्सेप्ट खूपच नंतरची. एखाद्या मित्राशी किंवा मैत्रिणीशी खेळतांना काही कारणाने भांडण झालं, तर त्याची परिणीती फार तर फार दुसऱ्याला चिमटा काढण्यात व्हायची. अगदीच तो किंवा ती द्वाड असेल तर चिमट्या बरोबरच दुसऱ्याला बोचकरण्यात ! आत्ताच्या सारखी पाचवी सहावीतली मुलं, आपापसातल्या भांडणातून एकमेकांवर वर्गात चाकू हल्ला करण्यापर्यंत, तेंव्हाच्या मुलांची मानसिकता कधीच गेली नव्हती ! कालाय तस्मै नमः! असो !
तर असा हा चिमटा ! ज्याचा अनुभव आपण आपल्या लहानपणी कोणाकडून तरी घेतला असेल किंवा तसा अनुभव दुसऱ्या कोणाला तरी नक्कीच दिला असेल ! अगदीच काही नाही, तर आठवा शाळेत कधीतरी “गुरुजींनी” तुम्हांला “घरचा अभ्यास” पूर्ण न झाल्याने दंडाला काढलेला चिमटा ! तो “गुरुजींनी” काढलेला चिमटा एवढा खतरनाक असायचा की दुसऱ्या दिवशी सुद्धा ती चिमट्याची जागा ठुसठुसायची आणि काळी निळी पडायची ! आणि ही गोष्ट घरी कळली की दुसरा दंड पण घरच्या वडीलधाऱ्या लोकांकडून काळा निळा व्हायचा ! हल्लीच्या “सरांना” किंवा “मॅडमना” कुठल्याही यत्तेच्या मुलांना हात लावून शिक्षा करणे तर सोडाच, उंच आवाजात ओरडायची पण चोरी ! कारण उद्या त्या मुलांच्या “मॉम किंवा डॅडने” “प्रिन्सिपॉलकडे” तक्रार केली, तर “सरांना” किंवा “मॅडमला” स्वतःची मुश्किलीने मिळवलेली नोकरी गमवायची भीती ! तेंव्हाच्या “गुरुजींना” सगळ्याच मुलांच्या घरून, त्यांना वाटेल तसा त्यांच्या दोन्ही हातांचा, डस्टर, पट्टी किंवा छडी यांचा अनिर्बंध वापर करायचा अलिखित परवाना, “गुरुजी” म्हणून शाळेत नोकरीला लागतांनाच मिळालेला असायचा ! आणि या पैकी कुठल्याही गोष्टीचा यथेच्छ वापर करायला ते “गुरुजी” त्या काळी मागे पुढे पहात नसत.
तारेवर ओले कपडे वाळत घालतांना ते वाऱ्याने पडू नयेत म्हणून, “हा चिमटा तुटला, जरा दुसरा दे !” असं आपण घरातल्या कोणाला म्हटल्याच बघा आठवतंय का ? (कधी अशी काम केली असतील तर ?) माझ्या लहानपणी लाकडाचे स्प्रिंग लावलेले चिमटे, अशा तारेवरच्या सुकणाऱ्या कपड्यांना लावायची पद्धत होती ! ते चिमटे तसे फार नाजूक असायचे. आता तुम्ही म्हणाल नाजूक चिमटे ? म्हणजे काय बुवा ! तर तुम्हांला लगेच कळणाऱ्या भाषेत सांगायचं तर, तरुणपणी जर तुम्ही प्रेमात पडला असाल(च)?आणि कधीकाळी तुमच्या प्रेयसीने तुम्हांला लाडात येवून प्रेमाने नाजूक चिमटा काढला असेल, तर तो आठवा, तेवढं नाजूक ! हे उदाहरणं लगेच पटलं ना ? ?पण ज्यांच्या नशिबात कांद्या पोह्याचा कार्यक्रम होऊन गळ्यात वरमाला पडली असेल त्यांनी आपल्या लग्नाचं फक्त पाहिलं वर्ष आठवून बघा ! तर लग्ना नंतरच्या पहिल्या वर्षातच बरं का, असा नाजूक चिमट्याचा आपल्याला हवा हवासा प्रसाद, आपापल्या बायकोने आपल्याला दिल्याचं बघा आठवतंय का ! मी फक्त पहिल्या वर्षातच असं म्हटलं, त्याला कारण पण तसं ठोस आहे. कसं असत ना, लग्ना नंतरचे नव्या नवलाईचे दिवस संपल्यावर, उरलेल्या वैवाहिक जीवनात बायकोकडून वाचिक चिमटे ऐकायची सवय नवरे मंडळींना करून घ्यावी लागते ! पण जसं जशी संसाराची गाडी पुढे जाते, तसं तसा या वाचिक चिमट्याचा त्रास, त्याची स्प्रिंग लूज झाल्यामुळे असेल कदाचित, पण नवरोबांच्या अंगावळणी पडतो एवढे मात्र खरे !?त्यामुळे अशा वाचिक चिमट्याचा पुढे पुढे म्हणावा तसा त्रास होतं नाही, नसावा !
तर मंडळी, पुढे पुढे हे त्या काळी वापरात असलेले लाकडी चिमटे जाऊन, त्याची जागा तारेच्या चिमट्याने घेतली. तारेच्या म्हणजे, आतून तार आणि बाहेरून प्लास्टिकचे आवरण ! पण या चिमट्याचा एक ड्रॉबॅक होता. तो म्हणजे आतल्या तारेवरचे प्लास्टिकचे आवरण निघाले की त्याच्या आतली तार गंजत असे आणि त्यामुळे तो ओल्या कपड्यावर लावताच त्यावर डाग पडत असे. नंतर नंतर हे चिमटे पण वापरातून हद्दपार झाले आणि त्याची जागा निव्वळ प्लास्टिकने बनलेल्या, लहान मोठ्या आकाराच्या चिमट्याने घेतली, जी आज तागायत चालू आहे. माझ्या मते या पुढे सुद्धा तीच पद्धत अनंत काळ चालू राहील, हे आपण स्वतःच स्वतःला चिमटा न काढता मान्य कराल यात शंका नाही !?
मागे मी एका लेखात म्हटल्या प्रमाणे, विषय कुठलाही असला तरी त्यात नेते मंडळींचा उल्लेख असल्या शिवाय, तो लेख पूर्ण झाल्याच समाधान मला तरी मिळत नाही ! ?आता तुम्ही म्हणाल चिमट्याचा आणि नेते मंडळींचा संबंध काय ? तर तो असा, की पूर्वी जी खरोखरची विद्वान नेते मंडळी होऊन गेली, ती आपल्या विद्वताप्रचूर भाषणातून, आपापल्या विरोधी पक्षाच्या नेते मंडळींना चांगलेच शाब्दिक चिमटे काढीत ! तो तसा चिमट्याचा शाब्दिक मार, तेंव्हाच्या नेत्यांची कातडी गेंड्याची नसल्यामुळे, त्या काळी त्यांच्या खरोखरचं जिव्हारी लागतं असे ! गेले ते दिवस आणि गेले ते विद्वान नेते !
आपली मराठी भाषा कोसा कोसावर बदलते याचा अनुभव आपण कधी ना कधी घेतला असेलच. “अरे बापरे, पाणी उकळलं वाटतं ! जरा तो चिमटा बघू !” आता या वाक्यात आलेला चिमटा हा कोणत्या प्रकारात मोडतो हे आपल्या लगेच लक्षात यायला हरकत नाही ! म्हणजे काही महिला मंडळी ज्याला “सांडशी” किंवा “गावी” किंवा “पकड” म्हणतात त्यालाच काही काही महिला चिमटा असं पण म्हणतात !
“तू तुझ्या पोटाला कधी चिमटा काढून जगला आहेस का ?” असा प्रश्न आपण जर का आजच्या तरुण पिढीतल्या मुलांना किंवा मुलींना विचारला, तर ९९% तरुणाईच उत्तर असेल “मी कशाला माझ्याच पोटाला चिमटा काढायचा ? दुखेल ना मला ! पण हां, तुम्ही सांगत असाल तर मी दुसऱ्या कोणाच्या तरी पोटाला नक्कीच चिमटा काढू शकतो हं!” या अशा उत्तरावर, आपण माझ्या पिढीतील असाल तर नक्कीच खरोखरचा कपाळाला हात लावाल !
शेवटी, आपल्या सगळ्यांवरच या पुढे आपापल्या पोटाला कधीही चिमटा न काढता, सुखी आणि समाधानी आयुष्य व्यतित करायला मिळू दे, हीच त्या परमेश्वराच्या चरणी प्रार्थना करतो आणि हे चिमटा पुराण आणखी चिमटे न काढता संपवतो !
ता. क. – वरील पैकी कुठल्याही “चिमट्याचा” कोणाला वैयक्तिक त्रास झाल्यास, त्याला लेखक जबाबदार नाही !
(“सगळं जमेल. मी आहे ना !” सर त्याच्या खांद्यावर हात ठेवून म्हणाले. गजूने खाली वाकून त्यांचे पाय धरले.) इथून पुढे —–
“सर खूप करताय माझ्यासाठी”—
“अरे ते माझं कर्तव्यच आहे !” त्याला उठवत ते म्हणाले. ” माझे बाकीचे विद्यार्थी परदेशात नोकऱ्या करताहेत. कोणी इथे मोठे अधिकारी आहेत. तूच एकटा मागे रहावा हे मला कसं पटावं?” गजूच्या डोळ्यात पाणी आलं.
दोन वर्षात गजू खुप पुढे गेला. फॅक्टरी वाढली. एकाची तीन दुकानं झाली. गजूचा गजानन शेठ झाला. झोपडपट्टीतून तो थ्री बी.एच.के. फ्लॅटमध्ये रहायला गेला. भाऊ बहिणी चांगल्या शाळा काँलेजमध्ये जाऊ लागले. दरम्यान त्याचे वडील वारले. वडील गेल्यावर एका वर्षाने त्याचं लग्न झालं. मुलगी पसंत करायला तो गायकवाड सरांनाच घेऊन गेला होता. काही दिवसांनी त्याची आई वारली.
इकडे गायकवाड सरांना निवृत्त होऊन पाच वर्षे झाली होती. सर आता थकले होते. त्यांच्या मुलाने इंग्लंडमध्येच स्थायिक होण्याचा निर्णय घेतला होता. मुलगी अगोदरच आँस्ट्रेलियात स्थायिक होती. त्यामुळे सर दुःखी होते. त्यात त्यांच्या पत्नीची तब्येतही आजकाल ठीक नसायची.
एक दिवस सरांची पत्नी गेल्याचा संदेश गजूला मिळाला. सर्व कामं सोडून तो त्यांच्या घरी धावला. सरांचा मुलगा, मुलगी वेळेवर पोहचू शकले नाहीत. ते येण्याअगोदरच अंत्यविधी पार पाडावा लागला. पण गजूने सरांना कोणतीच कमतरता तर जाणवू दिली नाहीच, शिवाय तेराव्या दिवसापर्यंतचा सगळा खर्चही त्यानेच केला.
सगळं आटोपल्यावर सरांच्या मुलाने त्यांना इंग्लंडला चलायचा खुप आग्रह केला, पण सरांनी मायदेश सोडायला साफ नकार दिला. सगळे निघून गेल्यावर सरांचं एकाकीपण सुरु झालं, आणि ते गजूला बघवत नव्हतं, पण त्याचाही नाईलाज होता…
एक दिवस बायकोला घेऊन तो सरांच्या घरी पोहचला. त्याला पाहून सरांना आश्चर्य वाटलं.
” सर तुमचे माझ्यावर खुप उपकार आहेत. आज मला अजून एक मदत कराल.?”
“अरे आता तुला मदतीची काय गरज? तू आता खुप मोठा झाला आहेस . बरं ठीक आहे, सांग तुला काय मदत हवी आहे?”
“सर माझे वडील व्हाल?”
सर स्तब्ध झाले. मग म्हणाले, “अरे वेड्या मी तर तुला कधीचंच आपला मुलगा मानलंय !”
“तर मग मला मुलाचं कर्तव्य करु द्या. मी तुम्हाला माझ्या घरी न्यायला आलोय. तुमचं उरलेलं आयुष्य तिथंच काढावं, अशी माझी तुम्हाला विनंती आहे !” गजू हात जोडत म्हणाला.
“अरे पण तुझ्या बायकोला विचारलं का?”
“सर तिला विचारुनच मी हा निर्णय घेतलाय. तिलाही वडील नाहीयेत. तुमच्यासारखे सासरे वडील म्हणून मिळाले तर तिलाही हवेच आहेत. शिवाय पुढे मुलं झाल्यावर त्यांनाही आजोबा हवेतच की! “
“बघ बुवा. म्हातारपण फार वाईट असतं. मी आजारी पडलो तर तुलाच सर्व करावं लागेल.”
“मुलगा म्हटलं की ते सगळं करणं आलंच. सर तो सारासार विचार करुनच मी आलोय !”
सर विचारात पडले. मग म्हणाले, “ठीक आहे, येतो मी. पण माझी एक अट आहे. मला तू सर म्हणायचं नाही.”
“मी माझ्या वडिलांना अण्णा म्हणायचो, तुम्हालाही तेच म्हणेन !”
सर मोकळेपणाने हसले.
“अजून एक अट, तुझ्यासारखे अनेक गजू आहेत, ज्यांना मदतीची गरज आहे. त्यांना गजानन शेठ व्हायला मला मदत करायची !”