हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 95 ☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “प्रायोजित प्रयोजन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 95 ☆

☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

समय बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। आजकल सब कुछ प्रायोजित होने लगा है। पहले तो दूरदर्शन के कार्यक्रम, मैच या कोई बड़ा आयोजन ही इसके घेरे में आते थे किंतु आजकल बड़े सितारों के जन्मदिन, विवाह उत्सव या कोई विशेष कार्य भी प्रायोजित की श्रेणी में आ गए हैं । फेसबुक, यूट्यूब, आदि सोशल मीडिया पर तो बूस्ट पोस्ट होती है। मजे की बात अब त्योहार व उससे जुड़े  विवाद भी प्रायोजित की श्रेणी में आ खड़े

हुए हैं। एक साथ सारे देश में एक ही मुद्दे पर एक ही समय पर एक से विवाद, एक ही शैली में आ धमकते हैं।इसकी गूँज चारों ओर मानवता की पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।

इसकी जिम्मेदारी किसकी है, कौन इस सूत्र को जोड़- जोड़ कर घसीट रहा है व कौन बेदर्दी से तोड़े जा रहा है। इसका चिंतन कौन करेगा? दोषारोपण करते हुए मूक दर्शक बनकर रहना भी आसान नहीं होता है। लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए एकतरफा निर्णय सुनाते जा रहे हैं। वैसे ऐसे विवादों से एक लाभ यह होता है कि देश के मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटक जाता है। जिससे राजनीतिक रोटियों को सेंकना और फिर उन्हें परोसना आसान होने लगता है।

कोई भी कार्य दो आधारों पर बाँटे जा सकते हैं – चुनाव से पूर्व के कार्य व चुनाव के बाद के कार्य।

चुनाव के  कुछ दिनों पूर्व सबसे अधिक चिंता हर दल को केवल गरीबों की होती है। ऐसा लगता है कि पाँच वर्ष पूरे होने के दो महीने पहले ही यह वर्ग  सामने आता है, इनका दुःख दर्द सभी को सालने लगता है । 

तरह – तरह के प्रलोभनों द्वारा इन्हें आकर्षित कर अपने दलों का महिमामंडन करते हुए लोग जाग्रत हो जाते हैं।

अरे भई इतने दिनों तक क्या ये इंसान नहीं थे,  क्या इनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर तब आपका ध्यान नहीं था, तब क्या ये पंछियो की तरह आकाश में विचरण कर घोसले बना कर रहते थे या धूल के गुबार बन बादलों में छिपे थे।

सच्चाई तो यही है कि कोई भी दल इनकी स्थिति में  सुधार चाहता ही नहीं तभी तो  इस वर्ग के लोगों में भारी इजाफा हो रहा है, इनकी मदद के लिए सभी आगे आते हैं किंतु कैसे गरीबी मिटे इस पर चिंतन बहुत कम लोग करते हैं। 

केवल  आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से  ये वर्ग दिनों दिन अमरबेल की तरह बढ़ता जायेगा।  अभी भी समय है बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन- मनन द्वारा कोई नया रास्ता खोजना चाहिए जिससे सबके लिए समान अवसर हो अपनी तरक्की के लिए।

अब चुनावों का दौर पूर्ण हो चुका है सो आगे की तैयारी हेतु  विकास पर विराम  लगाते हुए धार्मिक उन्मादों की ओर सारे राजनीतिक दलों की निगाहें टिकी हुई हैं। दुःख तो ये सब देख कर होता है कि ऐसे कार्यक्रमों को भी प्रायोजित  किया जाता है।  और हम सब मूक दर्शक बनें हुए केवल समाचारों की परिचर्चाओं का अघोषित हिस्सा बनें हुए हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #113 – अपनों को भी क्या पड़ी है? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 113 ☆

☆ कविता – अपनों को भी क्या पड़ी है ? ☆ 

वह भूख से मर रहा है।

दर्द से भी कराह रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कुछ यमदूत भी आए हैं ।

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – संजय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – संजय   ??

दिव्य दृष्टि की

विकरालता का भक्ष्य हूँ,

शब्दांकित करने

अपने समय को विवश हूँ,

भूत और भविष्य

मेरी पुतलियों में

पढ़ने आता है काल,

वरद अवध्य हूँ,

कालातीत अभिशप्त हूँ!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 –“कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री श्याम सुंदर दुबे जी  की पुस्तक “कालः क्रीडति” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

किताब ..कालः क्रीडति 

लेखक …श्याम सुंदर दुबे

यश पब्लिकेशनस

मूल्य ४९५ रु

हिन्दी में ललित निबंध लेखन बहुत अधिक नही है.श्याम सुंदर दुबे अग्रगण्य, वस्तुपरक ललित लेखन हेतु चर्चित हैं. उनके निबंधो में प्रवाह है, साथ ही भारतीय संस्कृति की विशद जानकारी, तथ्य, व संवेदन है. प्रस्तुत पुस्तक में कुल ३३ लेख हैं. पहला ही लेख ” एक प्रार्थना आकाश के लिये ” किसी एक कविता पर निबंध भी लिखा जा सकता है यह मैं इस लेख को पढ़कर ही समझ पाया, महाप्राण निराला की वीणा वादिनी वर दे, पर केंद्रित यह निबंध इस कविता की समीक्षा, विवेचना, व्याख्या विस्तार बहुत कुछ है. अन्य लेखो में पहला दिन मेरे आषाढ़ का,, सूखती नदी का शोक गीत, जल को मुक्त करो, तीर्थ भाव की खोज, सूखता हुआ भीतर का निर्झर, नीम स्तवन, सूखी डाल की वासंती संभावना सारे ही फुरसत में बड़े मनोयोग से पढ़ने समझने और आनंद लेने वाले निबंध हैं. प्रत्येक निबंध चमत्कृत करता है, अकेला पड़ता आदमी, इंद्र स्मरण और रंगो की माया, फूल ने वापस बुलाया है, कालः क्रीडति, फागुन की एक साम आदि निबंध स्वयं किसी लंबी कविता से कम नही हैं. हर शब्द चुन चुन कर सजाया गया है, इसलिये वह सम्यक प्रभाव पेदा करता है. किताब को १० में से ९ अंक देना ही पड़गा. जरूर पढ़िये, खरीदकर या पुस्तकालय से लेकर.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 105 ☆ कविता – शस्य श्यामला माटी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता  “शस्य श्यामला माटी”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 105 ☆

☆ शस्य श्यामला माटी ☆ 

अपनी संस्कृति को पहचानो, इसका मान करो।

शस्य श्यामला माटी पर, मित्रो अभिमान करो।।

 

गौरव से इतिहास भरा है भूल न जाना।

सबसे ही बेहतर है होता सरल बनाना।

करो समीक्षा जीवन की अनमोल रतन है,

जीवन का तो लक्ष्य नहीं भौतिक सुख पाना।

 

ग्राम-ग्राम का जनजीवन, हर्षित खलिहान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

उठो आर्य सब आँखें खोलो वक़्त कह रहा।

झूठ मूठ का किला तुम्हारा स्वयं ढह रहा।

अनगिन आतताइयों ने ही जड़ें उखाड़ीं,

भेदभाव और ऊँच-नीच को राष्ट्र सह रहा।

 

उदयाचल की सविता देखो, उज्ज्वल गान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

तकनीकी विज्ञान ,ज्ञान का मान बढ़ाओ।

सादा जीवन उच्च विचारों को अपनाओ।

दिनचर्या को बदलो तन-मन शुद्ध रहेगा,

पंचतत्व की करो हिफाजत उन्हें बचाओ।

 

भारत, भारत रहे इसे मत हिंदुस्तान करो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

भोग-विलासों में मत अपना जीवन खोना।

आपाधापी वाले मत यूँ काँटे बोना।

करना प्यार प्रकृति से भी हँसना- मुस्काना,

याद सदा ईश्वर की रखना सुख से  सोना।

 

समझो खुद को तुम महान  श्वाशों में प्राण भरो।

शस्य श्यामला माटी पर मित्रो अभिमान करो।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆☆ भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. आज प्रस्तुत है श्री अरुण डनायक जी का विचारणीय आलेख भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर.)

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

☆ आलेख – भारत के राजनीतिक परिदृश्य में डाक्टर भीम राव आंबेडकर ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

भारत के राजनीतिक पटल में डाक्टर आंबेडकर का आगमन जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष से आरंभ हुआ और गोलमेज कांफ्रेंस से लेकर पूना पेक्ट, महात्मा गांधी से विरोध और संविधान निर्माण तक व्यापक है। सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ अहिंसक आंदोलनों के समय वे भारत के स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहे। कभी वे गांधीजी के प्रसंशक बने और कांग्रेस के निकट आए तो कभी जिन्ना से भी मुलाकात करी। ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व के धनी डाक्टर आंबेडकर के विचार आजादी के आंदोलन को लेकर क्या थे? यह सदैव चर्चा का विषय रहा है।

स्वराज को लेकर उनके विचारों का पता हमें 08 अगस्त 1930 को नागपुर दलित जाति कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में दिए गए भाषण से लगता है। डाक्टर आंबेडकर ने माना कि कांग्रेस के सविनय अवज्ञा आंदोलन से जन चेतना पैदा हुई है लेकिन वे इस आंदोलन के पक्ष में नहीं थे। उन्हें लगता था कि गांधीजी और कांग्रेस के प्रयासों से राजनैतिक सत्ता का हस्तांतरण तो हो जाएगा पर सामाजिक परिवर्तन नहीं आ सकेंगे। उनके अनुसार कांग्रेस ने छुआछूत उन्मूलन को अपना लक्ष्य नहीं बनाया और गांधीजी ने भी छूआछूत मिटाने के लिए कोई सत्याग्रह या उपवास नहीं किया, इसलिए वे चाहते थे कि दलित वर्ग सरकार, कांग्रेस और गांधीजी से स्वतंत्र रहे। काँग्रेस और देश का बहुमत प्रथम गोलमेज कांफ्रेस में भाग लेने के विरुद्ध था। गांधीजी समेत कांग्रेसी नमक सत्याग्रह के चलते जेलों में बंद थे। ऐसे में दलितों के हितों की पैरवी करने, डाक्टर आंबेडकर ने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सम्मिलित होने ब्रिटिश सरकार के आमंत्रण को स्वीकार किया और इस कारण देश भर में उनकी आलोचना हुई। उन्होंने गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश राज में दलितों के हक और उनकी सामाजिक स्थिति में किसी परिवर्तन के न होने पर दुख व्यक्त किया और यहाँ तक कहा कि भारत में अछूत ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हैं और ऐसी सरकार के पक्ष में हैं जो जनता के द्वारा बनाई गई हो। उन्होंने भारत को डोमिनियन राज्य का दर्जा दिए जाने की भी मांग सम्मेलन में रखी। गांधीजी ने भी प्रथम गोलमेज सम्मेलन में डाक्टर आंबेडकर के द्वारा दिए गए भाषण के आधार पर उन्हें महान देश भक्त कहा।

7 सितंबर 1931 से लंदन में प्रारंभ हुई द्वितीय गोलमेज सम्मेलन, में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गांधी शामिल हुए और उन्होंने अपने शुरुआती भाषण में ही यह स्पष्ट कर दिया कि कांग्रेस सभी भारतीयों यानि हिन्दूओं, अल्पसंख्यक मुसलमानों, सिखों व पारसियों के साथ साथ अछूतों का भी प्रतिनिधित्व करती है। अंग्रेजों ने इस सम्मेलन में राजनीतिक चाल चलते हुए अल्पसंख्यकों और अछूतों को एकजुट कर एक समझौता प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसके अनुसार अल्पसंख्यकों की भांति अछूतों को भी प्रथक निर्वाचन का अधिकार दिया जाना प्रस्तावित था। गांधीजी, अंग्रेजों की इस कुटिल चाल को समझ गए और उन्होंने इसका विरोध किया। जब डाक्टर आंबेडकर ने गांधीजी और कांग्रेस की कटु आलोचना करते हुए अखबारों में लेख लिखे तो इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें भी कांग्रेस समर्थकों की ओर से कठोर निंदा का सामना करना पड़ा। उन्हें सवर्ण हिंदुओं द्वारा घृणित व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगा । उन्हें ब्रिटिश राज का पिच्छलग्गू, प्रतिक्रियावादी, देशद्रोही और हिन्दू धर्म विनाशक माना गया।

द्वितीय गोलमेज सम्मेलन असफलता के साथ समाप्त हुआ लेकिन अंग्रेजों की चालबाजी खत्म नहीं हुई। 20 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कम्यूनल अवार्ड की घोषणा कर दी और इसके अनुसार दलितों को अल्पसंख्यकों की ही तरह प्रथक निर्वाचन का अधिकार मिला। उन्हें दोहरे मतदान का अधिकार दिया गया और वे अपने प्रतिनिधियों को तो चुन ही सकते थे साथ ही अन्य प्रतिनिधियों के लिए भी मतदान कर सकते थे। गांधीजी ने ब्रिटिश चाल को ध्वस्त करने के लिए आमरण अनशन की घोषणा कर दी और यरवदा जेल में 20 सितंबर से उपवास पर बैठ गए। डाक्टर आंबेडकर और कांग्रेस के नेताओं के बीच बातचीत का दौर शुरू हुआ। अंतत: डाक्टर आंबेडकर ने भी अपनी जिद्द छोड़ी और वे राष्ट्रहित में महात्मा गांधी का जीवन बचाने सहमत हुए। इस प्रकार 26 सितंबर को पूना पेक्ट पर हस्ताक्षर होने व ब्रिटिश राज की मंजूरी मिलने के बाद गांधीजी का अनशन समाप्त हुआ। डाक्टर आंबेडकर के लिए यह दौर बड़े धर्म संकट का था। एक ओर उन्हें दलितों के हितों की रक्षा करने की चिंता थी तो दूसरी ओर भारत की स्वतंत्रता के लिए महात्मा गांधी के प्राण बचाने का दबाव भी उन पर था। उन्होंने जन दवाब और व्यापक राष्ट्रहित के सामने झुकने का निर्णय लिया और पूना पेक्ट पर अपनी सहमति दी। पूना पेक्ट पर निर्मित सहमति और देश हित महात्मा गांधी के प्राणों की रक्षा का सारा श्रेय कांग्रेस के सम्मानित नेता मदन मोहन मालवीय ने डाक्टर आंबेडकर को दिया। इस पेक्ट के फलस्वरूप कांग्रेस ने डाक्टर आंबेडकर को दलित नेता के रूप में मान्य किया। डाक्टर आंबेडकर के समर्थक विद्वान, दलितों के विषय को लेकर गांधीजी की कठोर आलोचना करते हुए भी यह मानते हैं कि पूना पेक्ट के जरिए गांधीजी ने न केवल कांग्रेस को बचाया वरन हिन्दू धर्म और समाज को भी सदैव के लिए विघटित होने से बचा लिया। पूना पेक्ट के कारण गांधीजी को भी सनातनी हिंदुओं के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा और यह विरोध प्रदर्शन तो उनकी हरिजन यात्रा के समय और भी उग्र हो उठते थे। गांधीजी की अस्पृश्यता निवारण संबंधी सार्वजनिक घोषणाओं की प्रशंसा डाक्टर आंबेडकर ने तृतीय गोलमेज सम्मेलन में नवंबर 1932 में जाते वक्त भी की थी।  

1920-30 के दशक और गोलमेज सम्मेलनों के दौरान डाक्टर आंबेडकर प्रखर राष्ट्रवादी दिखते हैं। उन्होने उस वक्त कभी भी स्वतंत्रता आंदोलन का विरोध नहीं किया। वे गांधीजी और कांग्रेस की आलोचना में भी पर्याप्त सावधानी रखते थे और राष्ट्रीय एकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराते रहते थे। लेकिन बाद के वर्षों में डाक्टर आंबेडकर छूआछूत मिटाने, दलितों के मंदिर प्रवेश, मनुस्मृति जैसे सामाजिक भेदभाव पैदा करने वाले ग्रंथों को जलाने जैसे आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान उनकी महात्मा गांधीं से अनेक बार भेंट तो हुई पर वे मंदिर प्रवेश और जाति व्यवस्था को लेकर गांधीजी के विचारों का प्रबल विरोध करते रहे। गांधीजी चाहते थे कि डाक्टर आंबेडकर बंबई विधान सभा व केन्द्रीय असेंबली में कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत दलितों के मंदिर प्रवेश की अनुमति देने संबंधी प्रस्ताव का समर्थन करें। लेकिन डाक्टर आंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि पहले जाति व्यवस्था खत्म हो, अन्तर्जातीय विवाह और भोज को मंजूरी मिले, प्रस्तावित बिल में छुआछूत की निंदा हो उसके बाद ही मंदिर प्रवेश की बात की जाए। डाक्टर आंबेडकर की दृष्टि में महात्मा गांधी अस्पृश्यता निवारण को लेकर धीमी गति से चल रहे थे तो दूसरी ओर गांधीजी का मुख्य उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था और इसके लिए वे बहुसंख्यक हिंदुओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के बीच संतुलन बनाए रखने के पक्षधर थे। 1933 के बाद तो वे गांधीजी से यह कहने में भी नहीं चूके कि अस्पृष्यों के पास कोई होमलेंड नहीं है। उन्होंने 1939 अपने इस मत को बंबई की विधानसभा में भी दोहराया कि ‘जब भी देश के हितों और अस्पृष्यों के हितों के बीच कोई टकराव होगा, तो मेरी नजर में अस्पृष्यों के हित देश के हितों से निश्चय ही ऊपर होंगे।‘ डाक्टर आंबेडकर का एक ओर कांग्रेस व गांधीजी से मोह भंग हो रहा था तो दूसरी ओर वे अंग्रेजों के काफी निकट आ गए थे। इन सबके बावजूद गांधीजी के मन में डाक्टर आंबेडकर के प्रति कोई कटुता नहीं थी और वे अक्सर उनके त्याग और बलिदान की प्रसंशा करते थे। वस्तुत: अस्पृश्यता निवारण को लेकर डाक्टर आंबेडकर का रुख लचीला नहीं था और इस कारण उनकी राष्ट्रीय राजनीति में दखल रखने वाले नेताओं चाहे वह आर्य समाजी हों, हिन्दू महासभाई हों या मुस्लिम लीगी ज्यादा पटी नहीं। वे अपने सिद्धांतों को लेकर विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से मिलते अवश्य पर समझौता होने के पहले ही मनमुटाव हो जाता। 1940 में जब जिन्ना ने पाकिस्तान की मांग उठाई तो डाक्टर आंबेडकर ने उनके इस विचार का समर्थन किया, जबकि गांधीजी और कांग्रेस भारत विभाजन के सख्त विरोध में थे। डाक्टर आंबेडकर ने तो बाद में यह अव्यवहारिक सुझाव भी दिया कि भारत विभाजन के बाद सारे मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ और वहाँ से हिन्दू भारत आ जाएँ। अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को हिरासत में लेकर दमन चक्र चलाया गया। इस दमनात्मक कारवाई के विरोध में, आगाखान पेलेस पूना में नजरबंद गांधीजी ने, 21 दिन का उपवास प्रारंभ कर दिया। गांधीजी से सहानुभूति दिखाते हुए अनेक नेताओं ने वाइसराय काउंसिल से त्यागपत्र दे दिया पर डाक्टर आंबेडकर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करने से कोई लाभ नहीं होगा। वे इस राजनीतिक गतिरोध के लिए सरकार को दोषी ठहराने के पक्ष में भी नहीं थे। डाक्टर आंबेडकर के ऐसे व्यवहार के चलते कांग्रेसी नेताओं के साथ साथ महात्मा गांधी से भी उनकी दूरियाँ बढ़ती गई और गांधीजी ने उन्हें तवज्जो देना कम कर दिया। गांधीजी ने कुछ अन्य दलित नेताओं को डाक्टर आंबेडकर के समकक्ष खड़ा कर दिया उनमे जगजीवन राम का स्थान प्रमुख है।

1946 में जब धारा सभा के चुनाव हुए तो डाक्टर आंबेडकर के दल शैडूल्यड कास्ट फेडरेशन ने चुनाव में हिस्सा लिया। आम सभाओं में डाक्टर आंबेडकर ने कांग्रेस तथा गांधीजी की कटु आलोचना यह कहते हुए की कि वे अछूतों के हितों की सुरक्षा के प्रति उपेक्षा का भाव रखते हैं और मुस्लिम मांगों की ओर बड़े उदार हैं। गांधीजी की अति आलोचना के परिणामस्वरूप चुनाव में डाक्टर आंबेडकर और उनके दल की घोर पराजय हुई। जबकि 1936 में बंबई विधानसभा के चुनावों में 17 आरक्षित सीटों में से 15 दलित उम्मीदवार डाक्टर आंबेडकर के समर्थन से चुनाव जीते थे। डाक्टर आंबेडकर का राजनीतिक सफर इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से शुरू हुआ, फिर उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का गठन 1942 में किया। स्वतंत्र भारत में उन्होंने अपने दल को नया नाम दिया, रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया। इसके बावजूद डाक्टर आंबेडकर अनुसूचित जातियों के मध्य अपनी पैठ बना पाने में खास सफल नहीं हुए। उनके द्वारा स्थापित दल अपना सांगठनिक आधार बनाने में भी विफल रहे। वे दलितों के उत्थान के लिए अपना योग्य उत्तराधिकारी भी नहीं बना पाए। कुल मिलाकर कांग्रेस और गांधीजी का अति विरोध करने के कारण वे नाकामयाबी के गहरे दलदल में लगभग फंस गए थे।

भारत की आजादी के बाद की कहानी में डाक्टर आंबेडकर एक नई भूमिका में आए। वे अपने ज्ञान और विलक्षण प्रतिभा के कारण एक बार पुन: प्रासंगिक बने। गांधीजी की सलाह पर कांग्रेस, जिसके वे आजीवन विरोधी रहे थे, ने उन्हें संविधान सभा में महती जिम्मेदारी सौंपी। पहले बंगाल से और फिर महाराष्ट्र से केन्द्रीय असेंबली में चुनाव जिताकर लाए गए और संविधान सभा के सदस्य बने। संविधान की ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष बनाए गए, भारत सरकार में कानून मंत्री बने और हिन्दू कोड बिल के शिल्पी। लेकिन एक बार फिर वे कांग्रेस से दूर हो गए और उन्होंने मंत्रीमण्डल से त्याग पत्र दे दिया। अपने आखरी दिनों में वे राज्य सभा के सदस्य के रूप में हिन्दू कोड बिल को शांत भाव से पास होता देखते रहे।

(इस आलेख में उल्लेखित विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। )

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (86 – 90) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

यज्ञ पूर्ण कर विदा कर ऋषि और अतिथि तमाम।

पुत्र केन्द्रित प्रेम रख विवश रह गये राम।।86।।

 

युधाजित की विनय पर सिंधु देश का राज्य।

दिया राम ने भरत को सहित प्रेम अविभाज्य।।87।।

 

जीत वहाँ गन्धर्वों को दे वीणा और गान।

भरत प्रभावी नृपति बन जीत सके सम्मान।।88।।

 

तक्ष और पुष्कल सुतों को दे अपना राज्य।

भरत लौट आये पुनः भ्रात राम के पास।।89अ।।

 

तक्षशिला और पुष्पपुर थी उनके आवास।

जो दोनों हुई बाद में उन्हीं नाम से ख्यात।।89ब।।

 

रामाज्ञा से लखन ने बना दिया निज हाथ।

अंगद व चंद्रकेतु को कारापथ का नाथ।।90।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १४ एप्रिल – संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १४ एप्रिल -संपादकीय – श्रीमती उज्ज्वला केळकर – ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

विलास सारंग

विलास सारंग यांचा जन्म १९४२चा. नवतेचा आग्रह धरणारे हे मराठी आणि इंग्रजीही लेखक होते. मूळ इंग्रजीत लिहीलेल्या आपल्या अनेक पुस्तकांचे त्यांनी मराठी अनुवाद केले. तसेच मूळ मराठीत लिहीलेल्या आपल्या अनेक पुस्तकांचे त्यांनी इंग्रजीत अनुवाद केले. त्यांची मराठीत ११ व इंग्रजीत ८ पुस्तके आहेत. अनेक संपादित निवडक कथांच्या संग्रहात त्यांच्या कथा आहेत.        

आधुनिक परंपरेतील कवी, कथाकार, कादंबरीकार यांच्या साहित्य व्यवहाराची त्यांनी पर्खडपणे चिकित्सा केली आहे. त्यांचे लेख व समीक्षा प्रामुख्याने ‘सत्यकथे’त प्रसिद्ध झाल्या. पुढे ’अभिरुची’, ‘अनुष्टुभ’, ‘नवभारत’ इ. मधूनही त्यांचे लेखन प्रकाशित झाले.   

विलास सारंग यांची काही पुस्तके –

१. अमर्याद आहे बुद्ध, २. अक्षरांचा श्रम केला, ३ आतंक ( कथासंग्रह), ४. एन्कीच्या राज्यात, (कादंबरी)  ५. कविता (१९६९ ते १९८४ ), ६. घडल्या इतिहासाची वाळू , ७. रुद्र ( कादंबरी), ८. लिहित्या लेखकाचं वाचन (समीक्षा), ९. वाङ्मयीन संस्कृती आणि सामाजिक वास्तव १०. सर्जनशोध आणि लिहिता लेखक – विलास सारंग यांची इंग्रजी पुस्तकेही आहेत. त्यांच्या पुस्तकांच्या नावावरूनच त्यांच्या लेखनातील वेगळेपण जाणवते.

आज विलास सारंग यांचा स्मृतीदिन ( १४ एप्रील २०१५ ) त्यांच्या स्मृतीला सादर वंदन. ? 

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना – कराड शताब्दी दैनंदिनी, गूगल विकिपीडिया

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दुरावा… ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ दुरावा ☆ श्री तुकाराम दादा पाटील ☆ 

काळ नाही थांबणारा सारखा तो चालतो

वाटत्याची कोणती हे तो कुणाला सांगतो

 

माणसाला माणसाचा भरवसा आहे कुठे

संशयाने ग्रासलेल्या जिवलगा शी भांडतो

 

ग्रासलेला संभ्रमाने खेळ तेव्हा थांबतो

जिंकलेला डाव जेव्हा जिंकणारा हारतो

 

बेगडी प्रेमात होती गुंतली काही मने

हाल झाले काय त्यांचे हे जमाना पाहतो

 

का मला निक्षून काही बोलशी तू हे प्रिये

हा तुझा आवाज नाही आतला मी जाणतो

 

मागताना न्याय थोडा संकटानी घेरले

कोणता आहे पुरावा सांग येथे जाचतो

 

मांडला छळवाद आहे वास्तवाने सारखा

मी भविष्यालाच आता रोज माझ्या पाहतो

 

या फुलांचा त्या फुलांचा रंग आहे वेगळा

एकतेचा हार गुंफू दाखवाया लागतो

 

© श्री तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – ☆ कवितेचा उत्सव ☆ डाॅ.आंबेडकर ☆ कै विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆

कै विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ डाॅ.आंबेडकर ☆ कवी कुसुमाग्रज ☆

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

सदाशिवाच्या शूलापरि तो असा परजला

वादळ पिऊनी तो जलधीसम असा गरजला

मेघ होऊनी तो धरणीला असा भेटला

वीज होऊनी तिमिरावरती असा पेटला

वज्रबलाने शत शतकांचा अडसर तुटला

मृत मातीवर नव्या मनूचा  अंकुर फुटला

– कै विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’

 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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