हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 139 ☆ बिन पानी सब सून ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 139 ☆ बिन पानी सब सून ?

जल जीवन के केंद्र में है। यह कहा जाए कि जीवन पानी की परिधि तक ही सीमित है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। नाभिनाल हटाने से लेकर मृतक को स्नान कराने तक सारी प्रक्रियाओं में जल है। अर्घ्य द्वारा  जल के अर्पण से तर्पण तक जल है। इतिहास साक्षी है कि पानी के स्रोत के इर्द-गिर्द नगर और महानगर बसे। भोजन ग्रहण करने से लेकर विसर्जन तक जल साथ है।

जल ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते’ का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर  हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल निराकार है।निराकार  जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्‌भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-“आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

भारतीय लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा “जियो और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बाँधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती। पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरी था। पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह का विराट दर्शन था।

कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ  एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है।

जल प्राकृतिक स्रोत है। प्राकृतिक संसाधन निर्माण नहीं किए जा सकते।  प्रकृति ने उन्हें रिसाइकिल करने की प्रक्रिया बना रखी है। बहुत आवश्यक है कि हम प्रकृति से जो ले रहे हैं, वह उसे लौटाते भी रहें।

रहीमदास जी ने लिखा है-

‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून,

पानी गये न ऊबरे, मोती, मानस, चून।’

विभिन्न संदर्भों  में इसकी व्याख्या भिन्न-भिन्न हो सकती है किंतु यह प्रतीक जगत में जल की अनिवार्यता को प्रभावी रूप से रेखांकित करता है।  पानी के बिना जीवन की कल्पना करते ही मुँह सूखने लगता है। जिसके अभाव की  कल्पना इतनी भयावह है, उसका यथार्थ कैसा होगा! बेहतर होगा कि हम समय रहते चेत जाएँ।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी   ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 93 ☆ नवगीत – चलो! कुछ गायें… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित नवगीत – चलो! कुछ गायें… )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 93 ☆ 

☆ नवगीत – चलो! कुछ गायें…  ☆

*

क्यों है मौन?

चलो कुछ गायें…

*

माना अँधियारा गहरा है.

माना पग-पग पर पहरा है.

माना पसर चुका सहरा है.

माना जल ठहरा-ठहरा है.

माना चेहरे पर चेहरा है.

माना शासन भी बहरा है.

दोषी कौन?…

न शीश झुकायें.

क्यों है मौन?

चलो कुछ गायें…

*

सच कौआ गा रहा फाग है.

सच अमृत पी रहा नाग है.

सच हिमकर में लगी आग है.

सच कोयल-घर पला काग है.

सच चादर में लगा दाग है.

सच काँटों से भरा बाग़ है.

निष्क्रिय क्यों?

परिवर्तन लायें.

क्यों है मौन?

चलो कुछ गायें…

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #124 ☆ आलेख – छाया का मानव जीवन तथा प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 124 ☆

☆ ‌ आलेख – छाया का मानव जीवन तथा प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यूँ तो छाया शब्द व्याकरण के अनुसार शब्द और मात्रा द्वारा निर्मित है तथा परछाई, प्रतिकृति, प्रतिबिंब, प्रतिमूर्ति और बिंब छांव उसके पर्याय है, जो अपने आप में विस्तृत अर्थ समेटे हुए है जिसके अलग अलग निहितार्थ भाव तथा प्रभाव दृष्टि गोचर होते रहते हैं। उसके स्थान परिस्थिति के अनुसार उसकी उपयोगिता अलग-अलग दिखाई देती है। जैसे माँ की ममतामयी आँचल की छांव में जहां अबोध शिशु को आनंद की अनुभूति होती है, वहीं पिता की छत्रछाया में सुरक्षा की अनुभूति होती है।

वहीं बादलों की छाया तथा वृक्ष की छांव धूप से जलती धरती तथा पथिक को शीतलता का आभास कराती है। छाया चैतन्यात्मा न होते हुए भी गतिशील दिखाई देती है, जब हम गतिशील होते हैं तो साथ चलती हुई छाया भी चलती है। तथा आकृति की प्रतिकृति अथवा प्रतिबिंब बनती दिखती है। यह प्रकाश परावर्तन से भी निर्मित होती है। कभी कभी कमरे में में झूलती हुई रस्सी की छाया हमारे मन में सांप के होने का भ्रम पैदा करती है तो वहीं पर भयानक आकृति की छाया लोगों को प्रेत छाया बन डराती है। यह कोरा भ्रम भले ही हो लेकिन हमारी मनोवृत्ति पर उसका प्रभाव तो दीखता ही है।

छाया किस प्रकार पृथ्वी को गर्म होने से बचाती है वहीं उसकी अनुभूति करने के लिए किसी वृक्ष के पास धूप में खड़े होइए, तथा उसके बाद वृक्ष की छांव में जाइए, अंतर समझ में आ जाएगा। जहां धूप में थोड़ी देर में आप की त्वचा में जलन होती है वहीं वृक्ष की सघन छांव में आप घंटों बैठकर गुजार देते हैं। इसलिए छाया का मानव मन तथा जीवन प्रकृति तथा पर्यावरण पर बहुत ही गहरा असर पड़ता है। इस लिए हमें भौतिक संसाधनों पर निर्भरता कम करते हुए वृक्ष लगाने चाहिए ताकि उस वृक्ष की छांव फल फूल तथा लकड़ी का मानव सदुपयोग कर सके।

ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन:..

के साथ आप सभी का शुभेच्छु

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (11-15)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (11 – 15) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

था पिता-पुत्र में नेह बड़ा दोनों थे परस्पर भाग्यवान।

फल पिता-पुत्र होते का पाया दोनों ने अनुपम समान।।11।।

 

थे पिता-पुत्र दोनों सुयोग्य गुणवान, यज्ञविधि जानकार।

इससे सुत को दे राज्य-भार, गये ‘क्षेम’ स्वर्ग निर्भय सिधार।।12।।

 

‘अहिनगु’ आत्मज जो देवनीक का था मधुभाषी मिलनसार।

मोहित हरिणों सम अरि भी जिसको वाणी वश करते थे प्यार।।13।।

 

वह वैभवशाली वीर ‘अहिनगु’ शासक था निर्मल उदार।

था युवा किन्तु नीचों दुर्व्यसनों से था दूर, नित निर्विकार।।14।।

 

वह निपुण पारखी पिता बाद, विष्णु सा अतिशय पूज्य मान्य।

बन गया नीतियाँ अपना कर, चारों दिक, का शासक महान।।15।। 

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ यावी सर हलकीच आता… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

? कवितेचा उत्सव ?

☆ यावी सर हलकीच आता… ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

ग्रीष्मामधले नको निखारे,नको उन्हाचा भाता

यावी सर हलकीच आता

 

कृष्णघनांची व्हावी गर्दी यावे थेंब टपोरे

माळावरूनी फिरून यावे मृद्गंधाचे  वारे

बघता बघता चिंब भिजावा अवघा डोंगरमाथा

यावी सर हलकीच आता

 

फडफडणारे पंख भिजावे,तुषार पानोपानी

आसुसलेले गवत नहावे पिवळ्या कुरणामधूनी

दूर दिसावी माळ खगांची नभात उडता उडता

यावी सर हलकीच आता

 

रंगमंच हा सहज फिरावा क्षणात दुसरा यावा

कुंचल्यातूनी जलधारांच्या अवघा ग्रीष्म पुसावा

नूर मनाचा बदलून जावा वसंत सरता सरता

यावी सर हलकीच आता

 

ग्रीष्मामधले नको निखारे नको उन्हाचा  भाता

यावी सर हलकीच आता.

 

© श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंगीत भोंगे… ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंगीत भोंगे… ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे ☆

दोन भोंगे समरासमोर, मिरवत होते दिमाखात

आरती अजान गात होते, रहात होते एकांतात

 

दृष्ट लागली देवाचीच, अल्ल्लालाही कबूल नव्हते

भोंग्यांमुळेच जाग यायची, दोघानांही ते मान्य होते

 

न्यायदेवतेने आदेश दिले, आवाजावर बंधन घातले

समस्त भोंगे जातीवर, मर्यादेचे आभाळ कोसळले

 

स्वतःच्याच रुबाबात दोघे, आदेशाचे पालन नव्हते

भटजी मौलवी हेच त्यांचे, पालन कर्ता हार होते

 

राजकर्त्यांना कैफ आला, निवडणुका त्या जवळ आल्या

जातपातीच्या चुलीवर, पोळ्या त्यांनी भाजायला घेतल्या

 

शांत असलेल्या भोंग्यांनाही, भगवे हिरवे रंग चढले

अजान हनुमानचालीसानी, महा राष्ट्र ते दुमदुमले

 

भगव्या हिरव्यांनी ठरविले, गळे आपले नाही कापायचे

नेत्यांसाठी आपणच आपले, बळी कदापी नाही घ्यायचे

 

शेवटी ठरविले भोंग्यांनी, आपणच ह्यातून मार्ग काढू

नेत्यांसाठी न भांडता, आपणच वेळेचे बंधन पाळू

 

सामोपचाराने दोघांनी, पहाटेचा आवाज विसावला

भगव्या हिरव्या भोंग्यांनी, शांतीचा सफेद स्विकारला

 

काकड आरतीच्या भोंग्यालाही, वेळेचे बंधन झाले

हिंदू देशातील महा राष्ट्राचे, समस्त डोळे पाणावले

 

मुगींच्या पायांतील घुंगुरांचा, आवाजही वर पोचत असतो

भोंग्यांशिवाय तुमचा आवाज, त्यांना ऐकायला येत असतो

 

भोंग्यांशिवाय मनातला हुंकार, त्यांच्या हृदयी पोचत असतो

भोंग्यांशिवाय मनातला भाव, त्यांच्या जास्त जवळचा असतो

 

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

१५-०५-२०२२

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पोस्टमनदादा… ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

?  विविधा ?

☆ पोस्टमनदादा… ☆ सुश्री त्रिशला शहा 

(अलिकडे मोबाईल आणि इंटरनेटच्या जमान्यात लोकांंच्या जिव्हाळ्याचे असलेले ‘ पोस्टखाते ‘बरचं मागे पडलंय,त्यामुळे पोस्टमनची फारशी कुणाला आठवणचं येत नाही.याचसाठी हा लेख)

नमस्कार पोस्टमनदादा,

एकेकाळी पोस्ट,पत्र आणि जनता यांच्यामधे तुमच्यामुळे एक भावनिक अनुबंध गुंफला गेला होता.अत्यंत जिव्हाळ्याच नातं तुमच्यामार्फत येणाऱ्या पत्रामुळे आमच्याशी जोडलं गेल होत.आपल्या माणसाच एखाद पत्र येणार असेल तर आम्ही तुमची आतुरतेने वाट पहायचो.तुमचा तो युनिफॉर्म, खाकी शर्ट-पँट,डोक्यावर टोपी,हातात पत्रांचा गठ्ठा आणि खांद्यावर शबनम बँग,अशा तुमच्या वेगळेपणामुळे तुम्ही लांबूनही ओळखायचात.तुम्ही दिसलात की इतका आनंद व्हायचा! ज्या पत्राची आम्ही वाट पहात असायचो,ते तुम्ही नक्की आणले असणार असं वाटायचं.तुमच्यामुळेच तर आम्हाला परगावी असणाऱ्या नातेवाईकांची खुशाली कळायची.आनंद,सुख-दुःख अशा सगळ्या बातम्या तुमच्यामुळेच तर कळायच्या.तुम्हालाही एखादी लग्नपत्रिका, आनंदाचे,खुशालीचे पत्र आम्हाला देताना आनंद व्हायचा.शाळेचा निकाल,नोकरीचा काँल,शहरातून आलेली एखादी मनीआँर्डर तुम्ही प्रसन्न मनाने आमच्याकडे सुपूर्द करायचात.नवविवाहित जोडपं,प्रेमीजन तर तुमची आतुरतेने वाट पहायचे.

पण एखाद्या दुःखद घटनेचे पोस्टकार्ड, तार देताना तुम्हीही तितकेच हळवे व्हायचात.तार आली म्हणजे तर घरातले सारे घाबरुनच जायचे.अशावेळी तुम्हीच ती तार वाचून दाखवायचात.ती वाचताना नकळत तुमचेही डोळे ओले व्हायचे.याच तुमच्या स्वभावाने लोकांशी आपुलकीचे नाते तयार व्हायचे.सासरी गेलेल्या मुलीची खुशाली,मुलीला माहेरची खुशाली या गोष्टी तुमच्यामुळेच कळायच्या.अशावेळी तुम्ही त्यांना एक देवदूतच वाटत होता.त्यामुळे दिवाळीची खुशी देताना तुमचाही नंबर त्यात असायचा.

पत्राची वाट पहाणं आणि त्यानंतर पत्र येण यातला हुरहुरीचा काळचं आता संपल्यासारख झालयं.या इंटरनेट,व्हाटस्अँपच्या जमान्यात तुमची कुणाला गरजच उरली नाही. किती बदललं जग सार! इथे वाट पहायला कुणाला वेळच नाही.फँक्स,ई-मेल,व्हाटस्अँपमुळे सारे जगचं जवळ आल्यासारखे झाले आहे.पाच मिनीटात साता समुद्रापार मेसेज पोहोचतोय.त्यामुळे पोस्ट आणि पोस्टमन या गोष्टी विस्मृतीत गेल्यासारख झालय.हुरहुरीतला आनंद संपलाय.आलेली पत्रे पुन्हापुन्हा वाचण्यातली गोडीच नाहीशी झालीये.जुनी तारकेटमधे घातलेली पत्रे पहाताना नकळत त्या पूर्वीच्या दिवसांची आठवण होते.हे काहीच उरले  नाही.आता फक्त मेसेज वाचणे आणि डिलीट करणे एवढचं उरलय.नाही म्हणायला ठराविक पार्सल सेवेसाठी, राखी पाठविण्यासाठी मात्र पोस्टाचा नक्कीच उपयोग होतो.पोस्टामधे पैसेही सुरक्षितपणे साठविता येतात.पण तो तेवढाच संबंध आता पोस्टाशी उरलाय हेही खरेचं

असो,कालाय तस्मै नमः इथेच थांबते. 🙏

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा लक्ष्मीची पावले ☆ प्रस्तुती – संपदा कानिटकर ☆

? जीवनरंग ❤️

☆ कथा लक्ष्मीची पावले ☆ प्रस्तुती – संपदा कानिटकर

आईच्या चपलांची  किंमत एक मुलगा आपल्या पहिल्या पगारातून आपल्या आईसाठी चप्पल खरेदी करण्यासाठी दुकानात जातो दुकानदाराला लेडीज साठी चप्पल दाखवा ना अशी विनंती करतो दुकानदार पायाचे माप विचारतो मुलगा सांगतो माझ्याकडे माझ्या आईच्या पायाचे माप नाही पण पायाची आकृती आहे त्यावरून चप्पल देऊ शकाल का दुकानदाराला हे अजबच वाटले दुकानदार म्हणाला या आधी कधी आकृती पाहून चप्पल आम्ही कधीच दिली नाही त्यापेक्षा तुम्ही तुमच्या आईला घेऊन का येत नाही मुलगा सांगतो माझी आई गावाला राहते आजवर तिने कधीच चप्पल घातली नाही माझ्यासाठी मात्र खूप कष्ट घेऊन तिने माझे शिक्षण पूर्ण करून दिले आज मला माझ्या नोकरीचा पहिला पगार मिळाला आहे त्यातून आई साठी भेट म्हणून मी चप्पल घेणार आहे हे ठरवूनच मी घरून निघताना आईच्या पायाची आकृती घेतली होती असे म्हणत मुलाने आईच्या पावलांच्या आकृतीचा कागद दुकानदाराला दिला दुकानदाराचे डोळे पाणावले त्याने साधारण अंदाज घेत या मापाच्या चपला दिल्या आणि सोबत आणखी एक जोड घेत म्हणाला आईला सांगा मुलाने आणलेल्या चपलेचा एक जोड खराब झाला तर दुसऱ्या मुलाने भेट दिलेला जोड वापर पण अनवाणी फिरू नकोस हे ऐकून मुलगा भारावला त्याने पैसे देऊन चपलांचे दोन्ही जोड घेतले आणि तो जायला निघाला तेवढ्यात दुकानदार म्हणाला तुमची हरकत नसेल तर आईच्या पायांची आकृती असलेला कागद मला द्याल का मुलाने प्रतिप्रश्न न करता तो कागद दुकानदाराला दिला आणि तो निघाला दुकानदाराने तो कागद घेऊन आपल्या दुकानातल्या देवघरात ठेवला आणि श्रद्धापूर्वक नमस्कार केला बाकीचे कर्मचारी आवक झाले त्यांनी कुतुहलाने दुकानदाराला तसे करण्यामागचे कारण विचारले तेव्हा दुकानदार म्हणाला ही केवळ पावलांची आकृती नाही तर साक्षात लक्ष्मीचे पावले आहेत ज्या माऊलीच्या संस्काराने या मुलाला घडवले यशस्वी होण्याची प्रेरणा दिली ही पावले आपल्या ही दुकानाची भरभराट करतील याची खात्री आहे म्हणून त्यांना देवघरात स्थान दिले अशा रीतीने प्रत्येकाने जर आपल्या आईची किंमत ओळखली आणि तिचा योग्य सन्मान केला तर खऱ्या अर्थाने परमेश्वराची सेवा होईल…

 संग्राहिका  – सौ संपदा कानिटकर

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ पुणेरी ताट… ☆ प्रस्तुती – सुश्री वीणा छापखाने ☆

? इंद्रधनुष्य ? 

☆ पुणेरी ताट… ☆ प्रस्तुती – सुश्री वीणा छापखाने ☆

पुण्याच्या बाहेर एका कार्यक्रम आयोजकांनी “पुणेकरास” मेनू विषयी त्याचं मत मागितलं … त्यावेळी त्यांना पुणेकराने दिलेले हे उत्तर…

“मेनू साधारण असा असावा”

१. वरण-भात, तूप, मीठ, लिंबू – त्यात शक्य असल्यास चमचाभर पूरण. 

२. मसाले भात पण त्यावर ताज्या ओल्या नारळाच किसलेलं खोबर आवश्यक…

३. पुऱ्या, आळुची शेंगदाणे-खोबरे घालून केलेली भाजी,

४. सुकी बटाटा भाजी, गोड-आंबट आमटी.

५. पापड-कुरडई. कोथिंबीर वडी किंवा घोसळा भजी.

६. “ओल्या नारळाची” कोथिंबीरीची चटणी, काकड़ी- शेंगदाणे कूट आणि दही घातलेली कोशिंबीर.

७. चवी पुरतं पंचामृत.

८. गोडात श्रीखंड किंवा बासुंदी.

९. मठ्ठा.

“आता काही सूचना…. लक्ष्य पूर्वक वाचा..”

  • आम्ही अंमळ तिखट कमी खातो तेंव्हा भरमसाठ मसाल्याचा मारा नको.
  • तेलात आंम्हास पोहावयाचे नाही, तेंव्हा तवंगाचा तलाव नको.
  • श्रीखंड असेल तर वाटी चमचा हवाच, उगाच श्रीखंड बचकन पानात वाढू नये…
  •  आम्ही बोटाने चाटत श्रीखंड खात नाही… श्रीखंडाशी अशी प्रतारणा आम्हास मान्य नाही…
  • आळुच्या भाजीतील शेंगदाणे आख्खे असावे, उगाच तुकडे तुकडे टाकू नये…
  • तसेच, खोबरे देखील पाऊण इंचा पेक्षा जास्त लांबीचे नको.
  • मठ्ठा हा प्रमाणशीर थंड असावा. त्यातील मीठ, साखर, ताक-पाण्याचे प्रमाण, आलं, कोथिंबीर योग्य प्रमाणातच हवी, त्यात मिरचीचे तुकडे घालणार असाल ते ५ ते ६ मि.मी. पेक्षा जास्त लांबीचे नको.
  • वरणाची डाळ “एक-पात्रीच” हवी, नाहीतर चव बदलते.
  • पापड-कुरडई मरतुकडे नको…. त्याच्यातला “कुरकुरीतपणा” निघुन गेल्यास आमची “कुरकुर” सुरु होईल…
  • गोडात सुधारस ठेवल्यास तो एक तारीच असावा, लिंबू योग्य प्रमाणात असावे.
  • ताटातली भजी आणि भाजी ही चमचमीत हवी… तिखट नको… त्यामुळे उगाच गुलाल उधळल्यासारखं तिखट त्यात उधळू नये…

 “आता पान वाढावयाच्या सूचना -“

१. पाट मांडून त्यासमोर छान रांगोळी घालावी..

२. पानाच्या डाव्या बाजूला लोटी भांडे ठेवावे…

३. पान समोर ठेवून अगदी पुढचा भाग “शून्य अंश” पकडून मीठ वाढावे आणि 

४. त्याच्या “उणे पाच अंशावर” लिंबू अन मग क्रमाने पाच-पाच अंशावर चटणी, पंचामृत, कोशिंबीर, लोणचे वाढावे…

५. उणे ९० अंशावर पापड़, त्याखाली पूरी वाढावी.

६. मध्यभागी भाताचा मुद असावा व सगळं वरण “भसकन” वाढू नये… वरणाचा ओघळ नको… आणि त्यावर “साजूक तुपाची धार” हवीच… पण त्यासाठी जेवणार्यास वाट पहायला लावू नये… तुपाचा चमचा चांगला खोलगट असावा.. मागून चेपलेला अपेक्षित नाही.

७. मुदाचा आकार प्रमाणशीर असावा… “भसाडा नको…”

८. वरण-भाता खाली मसाले भात वाढावा.

९. मसाले-भाताच्या उजव्या बाजुलाच भाजी वाढलेली असावी..

१०. आणि त्याच्या बरोबर वर आमटीची वाटी असावी.

११. उजव्या हाताला वरच्या बाजूला ४५ अंशावर गोडाची वाटी असावी व त्याच्या वर मठ्ठा वाटी असावी.

१२. आमटी व भाजी गोडाच्या खाली असावी.

वर नमूद केलेल्यात काही त्रुटी असल्यास तुमच्या तुम्हीच दुरुस्त कराव्यात, उगाच आमच्या चुका आंम्हाला दाखवू नये. आणि उपकार केल्यासारखा वाढप्याचा चेहरा असू नये.  

बस एवढेच अपेक्षित आहे. सूचना संपल्या. 🙏

“काटेकोर” पुणेकर…

संग्राहिका : सुश्री वीणा छापखाने

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रवासवर्णन ☆ चला आसाम मेघालयाला… भाग -3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

✈️ प्रवासवर्णन ✈️

☆ चला आसाम मेघालयाला… भाग – 3 ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

शाळेच्या भूगोलात सर्वाधिक पाऊस पडणारे क्षेत्र म्हणजे चेरापूंजी हे वाचलं होतं .आज प्रत्यक्ष चेरापूंजी ला भेट देण्याची उत्सूकता अर्थातच खूप मोठी होती.  ड्रायव्ह अतिशय सुखद होता. आजूबाजूला उंच उंच डोंगर ,डोंगरावर उतरलेले  मेघ,वळणावळणाचे रस्ते,न बोचणारे परंतु गार वारे, भुरभुर पडणारा पाऊस सारेच खूप प्रसन्न होते.  वातावरण अतिशय आल्हाददायक होते. खासी व जायैती  हिल्स हा भूभाग खासी जमातीच्या अधिपत्याखाली होता अठराशे तेहतीस साली हा भाग ब्रिटिशांच्या राजवटीखाली आला आणि त्यांनी मेघालया ची राजधानी चेरापूंजी न ठेवता शिलॉंग येथे हलवली.  येथील डोंगराळ भाग व सौम्य हवामानामुळे शिलॉंग ची तुलना स्कॉटलंड सोबत केली जाते.

चेरापुंजीत पर्यटकांसाठी खास आकर्षण म्हणजे येथील कोसळणारे धबधबे!

येथील एलिफंटा फॉल्स ला आम्ही भेट दिली. हा धबधबा तीन टप्प्यांमध्ये वाहता जातो .शंभर दीडशे पायऱ्या खाली उतरून टप्प्याटप्प्यावर या धबधब्याचे दर्शन विलोभनीय आहे. जिथून धबधब्याची सुरुवात होते तिथला भाग हा हत्तीच्या मस्त का सारखा दिसतो म्हणून त्यास एलिफंटा फॉल्स म्हणतात . मात्र आता डोंगर दगडांची पडझड झाल्यामुळे तसा आकार दिसत नाही. अतिशय नयनरम्य असा हा धबधबा ! सूरमयी संगीत ऐकताना आणि खळाळत पाणी बघताना जळू ब्रम्हानंदी टाळी लागते .

सेव्हन सिस्टर्स धबधबा  बघताना ही मन असेच हरवून गेले. नोहकालिकिया वॉटर फॉल निर्मितीमागे एका आईची कहाणी आहे .तिचा दुसरा नवरा तिच्या मुलाचा द्वेष करत असतो . एकदिवस  तो त्या मुलाची हत्या करतो आणि त्याचे मांस शिजवून तिला फसवून खायला देतो. हे जेव्हा तिला कळते तेव्हा दुःखाने ती बेभान होते व या कड्यावरून खाली उडी मारते. जणू तिच्या दुःखाने निसर्गही कोसळतो आणि निसर्गाच्या अश्रुंच्या रूपात हा भव्य धबधबा आपल्याला पहायला मिळतो नोहकालिकिया हे आईच नावच या धबधब्याला दिले आहे.  या मागची कहाणी  भीषण असली तरी निसर्गाचे हे रूप विलक्षण आहे डोळ्याचे पारणे फिटते .

मेघालयात नैसर्गिक गुहा ही खूप आढळतात. माऊस माय केव्ह ही अशीच  एक नैसर्गिक गुहा आहे. 150 मीटर आत चालत जावे लागते. वाकून, सांभाळून ,उड्या मारत आत चालावे लागते. गारवा आणि पावसाचा शिडकावा मनाला आनंद देतोच .पण हे थोडं साहसी काम आहे. 

चेरापुंजी ची ओळख शाळेच्या भूगोलात झाली होती मुसळधार पावसाचे गाव !आज आम्ही त्याचा प्रत्यक्ष अनुभव घेत होतो मजा वाटली अतिशय रम्य ठिकाण येथील रामकृष्ण मिशनला भेट देऊन आम्ही शिलाँग ला परतलो .शिलॉंग चे मूळ वंशज गोरी आणि खासी जमातीचे आहेत. पण ब्रिटिशांच्या आधिपत्याखाली ख्रिश्चन धर्माचा प्रसार होऊन शिलॉंग मध्ये ख्रिश्चन संस्कृती उदयास आली. शीलॉंग हे राजधानीचे शहर असूनही येथे रेल्वे व रस्त्यांचा विकास झालेला आढळला नाही. मात्र पहाडी प्रदेशामुळे चढ-उताराचे अरुंद रस्ते,  आणि पर्यटकांची गर्दी यामुळे वाहन कोंडी आढळते. परंतु वाहन चालक अतिशय काटेकोरपणे रस्त्याचे नियम पाळत असल्याने व शिस्तीने गाड्या चालवत असल्याचे ही अनुभवास आले.पादचारीही शिस्तीने फूटपाथवरुनच चालतात.शाळेतली मुले,आॉफीसात जाणारी आणि इतर सारी माणसं कुठून कुठे पायीच चालत जातात असेही आढळले.

शीलाँगमध्ये प्रामुख्याने इंग्लीश भाषाच बोलली जाते.

काहीशी त्यांची राहणी युरोपीअन पद्धतीची वाटली. मेघालयवासी खरोखरच शांत प्रवृत्तीचे वाटले. कष्टाळु आणि उत्साही वाटले.

गोल गोबरे गाल, ठेंगण्या गोल बांध्यांची ही तुरतुर चालणारी माणसे पाहताना मजा वाटली.

(पुढच्या भागात आसाम,तिथली लोकसंस्कृती आणि पर्यटनावर वाचूया.)

क्रमश:…

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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