हिन्दी साहित्य – ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ ग़ज़ल – सूखे फूल के पत्ते . . . ☆ – सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता “Sahyadri Echoes” में पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी एक बेहतरीन ग़ज़ल सूखे फूल के पत्ते . . . । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

 ☆ दीपिका साहित्य #2 ☆ कविता – सूखे फूल के पत्ते . . .☆ 

सूखे फूल के पत्ते उड़ाया करता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं,

रेत के घरोंदे जो बनाये थे हमने साहिल में ,

बेदर्द लहरों से उनको बचाया करता हूँ मैं ,

न जाने कौन सी बात थी तुम में ,

जिसके लिए आज भी  आहें भरा करता हूँ मैं ,

तेरे आने की आहट आज भी है जहन में ,

जिसके लिए तरसा करता हूँ मैं ,

तेरी हंसी की किलकारियां आज भी हैं सहरा में ,

उनके ही सहारे तो जिया करता हूँ मैं ,

तेरा गम जो खाया करता है अकेले में ,

सरी महफ़िल में सबसे छुपाया करता हूँ मैं ,

बदनाम न हो जाए तू ज़माने में ,

इसलिए अजनबी सा गुजर जाया करता हूँ मैं ,

सूखे फूल के पत्ते उड़ाता रहता हूँ मैं,

याद जब भी आती है तस्वीर तेरी बनाया करता हूँ मैं..

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ मी_माझी – #31 – ☆ Generation Gap ☆ – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(प्रस्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की अगली कड़ी  ‘Generation Gap‘.  सुश्री आरूशी जी  के आलेख मानवीय रिश्तों  को भावनात्मक रूप से जोड़ते  हैं.  सुश्री आरुशी के आलेख पढ़ते-पढ़ते उनके पात्रों को  हम अनायास ही अपने जीवन से जुड़ी घटनाओं से जोड़ने लगते हैं और उनमें खो जाते हैं।  सुश्री आरुशी जी का आज का आलेख दो  पीढ़ियों के बीच मानसिक द्वंद्व का पर्याय ही तो है।  यह आलेख पढ़ कर हमें अपनी पिछली पीढ़ी का यह वाक्य  कि “हमारे  जमाने में तो …” अनायास ही  याद आ जाता है और हम अगली पीढ़ी को भी अपने अनुभव ऐसे ही उदाहरण देकर थोपने की कोशिश करते हैं। यह पीढ़ियों से चला आ रहा है। हम भूल जाते हैं कि हमारे समय मैं वह कुछ नहीं था जो आज की पीढ़ी को मिल रहा है चाहे वह रहन सहन से सम्बंधित हो, रुपये का अवमूल्यन हो या लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ ‘ मीडिया’  का तकनीकी विकास हो। यदि हम इन तथ्यों पर विचार कर आपसी सामंजस्य  बना लें तो  दो पीढ़ियों के बीच के  Generation Gap की प्रत्येक समस्या का हल संभव हो जावेगा। सुश्रीआरुशी जी के संक्षिप्त एवं सार्थकआलेखों  तथा काव्याभिव्यक्ति का कोई सानी नहीं।  उनकी लेखनी को नमन। इस शृंखला की कड़ियाँ आप आगामी प्रत्येक रविवार को पढ़  सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मी_माझी – #31 ☆

☆ Generation Gap☆

 

काय ही आजकाल ची मुलं, आमच्या वेळी असं नव्हतं बाई !

आपल्याला हे वाक्य आधीच्या पिढीच्या तोंडून बऱ्याच वेळा ऐकायला मिळतं. आणि ते खूप अंशी खरं ही आहे. कारण गोष्टी बदलत असतात, दगडासारखं दगडही बदलतो, त्याचं रूप, रंग बदलतो. वातावरणाचा परिणाम गडदामध्येही नैसर्गिक रित्या बदल घडवून आणतो… मानव निर्मित बदल तर खूप होतात… काही आवश्यक, काही अनावधानाने, काही दुर्लक्ष केल्यामुळे…

आता बघा ना, पूर्वी स्त्रिया रोज साडी नेसत असत, पण आता बऱ्याच स्त्रिया रेग्युलर बेसिस वर ड्रेस घालतात. ह्यात साडीला कमी दर्जा द्यायची भावना नसते, पण ड्रेस जास्त सोयीस्कर असल्याने त्याचा वापर वाढला आहे.

पूर्वी फ्रीज नव्हते, दिवे नव्हते, मिक्सर नव्हते पण मानवाने ह्या गोष्टींचा शोध लावून आपले आयुष्य सोपे करायचा मनापासून प्रयत्न केला आहे, ह्यात काहीच वावगं नाही.

पण म्हणतात ना अति तिथे माती, ही म्हण कायम लक्षात ठेवायला हवी. नवीन गोष्टी आत्मसात करताना निसर्गाची हानी होणार नाही ह्याची खबरदारी घेणं तितकंच आवश्यक आहे. नाही तर आज आपण जी दुष्काळाची परिस्थिती भोगतो आहोत अशा अनेक कठीण प्रसंगांना आपल्याला तोंड द्यावं लागेल आणि ही हानी थांबली नाही तर गोष्टी कंट्रोल च्या बाहेर जायला वेळ लागणार नाही.

आपल्या खूप सखोल अशी भारतीय संस्कृती मिळाली आहे, त्यात सुद्धा मानव आणि निसर्ग ह्याचा समतोल कसा राखता येईल ह्याची योग्य शिकवण आहे, पण आपण सोय आणि पैसा ह्यापुढे काहीच बघत नाही. ते मिळवण्यासाठी इतर नुकसान झाले तरी त्या कडे कणा डोळा केला जातोय, जे भविष्यासाठी खूप घटक आहे. मानवी संस्कृती टिकवण्यासाठी फक्त स्वार्थ उपयोगी पडणार नाही. कितीही जागतिकीकरण झाले, तरी मूळ मूल्यांना विसरून चालणार नाही. आधीची पिढी किती बुरसटलेली होती असे म्हणणे योग्य ठरणार नाही, कारण त्यांच्या वेलची जीवन व्यवस्था आणि आजच्या पिढीची जीवन व्यवस्था ह्यात आणि विचारसरणी ह्यात खूप फरक असतो, आणि हा फरक स्वीकारला तरंच दोन्ही पिढ्यामधील अंतर कमी व्हायला मदत होईल. दोन्ही पिढ्यांनी एकमेकांना थोडं तरी समजून घ्यायला हवं. ओपन minded असायला हवं, दोन्ही पिढ्यांमध्ये सुसंवाद असायला हवेत.

म्हणून जून तेच योग्य हाही विचार सोडला पाहिजे, किंवा त्या पिढीची मते अयोग्य आहेत हेही मनात ठेवून वागता कामा नये, तेव्हाच नवीन गोष्टी आत्मसात करू शकतो. नाही तर विकासाचे मार्ग बंद राहतील, कोणीच आपल्या बुद्धीचा वापर करणार नाही, त्यातून प्रगती होणार नाही… सगळं जैसे थे राहील … आणि मग जीवन कदाचित कंटाळवाणं होईल, नाही का? एकाच ठिकाणी असून न राहता, जुन्यातील योग्य, नव्यातील फायदे लक्षात घेऊन पावलं पुढे टाकली पाहिजेत.

ही Generation Gap खूप काही घडवून आणते, निदान वैचारीक उलाढाल नक्की घडते…

Generation Gap हा कधीही न संपणारा विषय आणि पण त्यातून होणारे वाद विवाद नक्किच कमी करता येऊ शकतात. त्यासाठी दोन्ही पिढ्यांमध्ये मैत्रीचं नातं एडेल तर सुसंवाद घडू शकतो आणि दोघांमधील वैचारिक दरी कमी होऊ शकते. ह्यासाठी दोन्ही गटांना किंवा व्यक्तींना फकेक्सिबल किंवा open minded असणं उपयुक्त ठरेल. जून तेच योग्य हा हेका थोडा बाजूला ठेवून नवीन घडणाऱ्या गोष्टींकडे सकरतामक दृष्टीने पाहिलं तर अनेक समस्या दूर होतील. तसेच लहान मोठा, गरीब श्रीमंत, उच्च नीच हा भेदभाव दूर ठेवला तर वादाचे मुद्देच कमी होतील. माणूस म्हणून त्याच्या मताचा आदर करणे, मीच फक्त बरोबर, हा हट्ट न करणे, तो कोण मला सांगणारा हा अहंकार जवळ येऊ न देणे, ह्यातूनच दोन पिढीतील अंतर कमी होऊन योग्य निर्णय घेतले जातील.

 

© आरुशी दाते, पुणे

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 1 ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

 

(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

 

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – भाग 1 – बचपन ☆

 

जी हाँ यह कहानी है उस पगली माई की जो त्याग, तपस्या, दया, करूणा तथा प्रेम जैसे गुणों की साक्षात् प्रतिमूर्ती थी। उस में हिमालयी चट्टानों का अटल धैर्य था, तो कार्य के प्रति  समर्पण का जूनूनी अंदाज भी।  वह हर बार परिस्थितिजन्य पीड़ा से टूट कर बिखर जाती लेकिन फिर संभलकर अपने कर्मपथ पर अटल इरादों के साथ चल पड़ती। उसकी जीवन मृत्यु सब समाज के लिए थी।

दमयंती के चेहरे पर सारे जमाने का भोलापन था। वह किसान परिवार में पैदा हुई अपनी माँ बाप की इकलौती संतान थी।

बचपन में उसका अति सुंदर रूप था। गोरा-गोरा रंग ऐसा जैसे विधाता ने दूध में केशर घोल उसमें नहला दिया हो। चेहरे के बड़े बड़े नेत्र गोलक किसी मृगशावक के आंखों की याद दिला देते।  उसके चेहरे का कोमल रूप-लावण्य देखकर लगता जैसे प्रातः ओस में नहाई गुलाब कली खिल कर मुस्कुरा उठी हो। जो भी उसे देखता
उस सुन्दर परी जैसी जीवन्त गुड़िया को गोद में उठाकर नांच उठता। उसकी  खिलखिलाहट भरी हंसी सुनते-सुनते मन  की वीणा के तार झंकृत हो उठते। उस का जन्म का नाम तो दमयन्ती था, पर माता-पिता प्यार से  उसे पगली कह के बुलाते। तब उन्हें कहाँ पता था कि उनका संबोधन एक दिन सच हो जायेगा। वह बहुत पढ़ी लिखी नहीं थी, लेकिन गृह कार्य में दक्ष तथा मृदुभाषी थी। बहुधा कम ही बोलती।

धीरे धीरे समय बीतता रहा। बचपना कब बीता, किशोरावस्था कब आई समय के प्रवाह में किसीको पता ही नही चला।

उसी गाँव में एक सूफी फकीर रहा करते थे। सारा गाँव उन्हें प्यार से भैरव बाबा कह के बुलाता था। उनकी वेशभूषा तथा दिनचर्या अजीब थी। उनका आत्मदर्शन  तथा जीवन जीने का अंदाज़ निराला था। वे हमेशा खुद को काले लबादे में ढंके कांधे पर  झोली टांगे हाथ में ढपली लिए गाते घूमते रहते थे। वे हमेशा बच्चों के दिल के करीब रहते, बच्चों को बहुत प्यार करते थे।

जब कोई भी बच्चा उनके पैरों  को छूता तो वो उसका माथा चूम लेते तथा उसे एक मुठ्ठी किसमिस का प्रसाद अवश्य मिल जाता। वे जब भिक्षाटन पर जाते तो सिर्फ एक घर से ही पका अन्न लेते और उसे वही बैठ खा लेते। कभी पगली के दरवाजे पर “माई भिक्षा देदे” की आवाज लगाते तो पगली भीतर से ही “आयी बाबा कह उनसे दूने जोर से चिल्लाती तथा आकर बाबा के पावों मे लेट जाती। उस दिन उसे मुठ्ठी भर प्रसाद अवश्य मिल जाता खाने को।

वह भी घर में बने भोजन से थाली सजाती  और उसी भाव से खिलाती मानों भगवान का भोग लगा रही हो।  इस प्रकार खेलते खाते समय कब  बीत चला किसी  को पता नही चला।

अब पगली जवानी की दहलीज पर कदम  रख चुकी थी।  पिता ने संपन्न सजातीय वर देख उसका विवाह कर  दिया।

वह जमाना भारत देश की गुलामी से आजादी का दौर था। देश स्वतंत्र था, फिर भी देश पिछडापन, अशिक्षा, नशाखोरी, गरीबी, तथा रूढिवादी विचारधाराओं का दंश झेल रहा था।  उन्ही परिस्थितियों में जब माता पिता ने उसे विवाह के पश्चात डोली में बिठाया तो पगली छुई मुई सी लाज की गठरी बन बैठ गई थी। उसे माता पिता तथा सहेलियों का साथ छूटना, गाँव की गलियों से दूरी खल रही थी। वह डोली  में बैठी सिसक रही थी कि सहसा उसके कानों में ढपली की आवाज के साथ  भैरव बाबा की दर्द भरी  आवाज में बिदाई गीत गूंजता चला गया।

उस बेला में भैरव बाबा की आंखें  आंसुओं से बोझिल थी, तथा ओठों पे ये दर्द में डूबा गीत मचल रहा था—–

ओ बेटी तूं बिटिया बन,
मेरे घर आंगन आई थी।
उस दिन सारे जहाँ की खुशियाँ,
मेरे घर में समाई थी।
मुखड़ा देख चांद सा तेरा,
सबका हृदय बिभोर हुआ।
तू चिड़िया बन चहकी आंगन में,
घर में मंगल चहुं ओर हुआ।
हम सबने अपने अरमानों से,
गोद में तुमको पाला था।
पर तू तो धन थी पराया बेटी,
बरसों से तुझे संभाला  था।
राखी के धागों से तूने,
भाई को ममता प्यार दिया।
अपनी त्याग तपस्या से,
माँ बाप का भी उद्धार किया।
तेरी शादी का दिन आया,
ढ़ोलक शहनाई गूंज उठी।
मंडप में वेद मंत्र गूंजे,
स्वर लहरी गीतों की फूटी।
मात-पिता संग अतिथिगणों ने,
तुझको ये आशीष दिया।
जीवन भर खुशियों के रेले हो,
तू सदा सुखी रहना  बिटिया।
जब आई घड़ी बिदाई की,
तब मइया का दिल भर आया,
आंखें छलकी गागर की तरह,
दिल का सब दर्द उभर आया।
द्वारे खड़ी देख पालकी,
पिता की ममता जाग उठी।
स्मृतियों का खुला पिटारा,
दिल के कोने से आवाज उठी।
ओ बेटी सदा सुखी रहना,
तुम दिल से सबको अपनाना।
अपनी मृदु वाणी सेवा से,
तुम सबके हिय में बस जाना।
जब उठी थी डोली द्वारे से,
नर-नारी सब चित्कार उठे।
बतला ओ बिटिया कहां चली,
पशु पंछी सभी पुकार उठे।
तेरे गाँव की गलियां भी,
सूनेपन से घबराती हैं।
पशु पंछी पुष्प लगायें सब,
नैनों से नीर बहाते हैं।
ये विधि का विधान है बड़ा अजब,
हर कन्या को जाना पड़ता है।
छोड़ के घर बाबुल का इक दिन,
हर रस्म निभाना पड़ता है।
खुशियों संग गम के हर लम्हे,
हंस के बिताना पड़ता है।

उस दर्द में डूबे गीत को भैरव बाबा गाये जा रहे थे। आंखों से आंसू सावन भादों की घटा बन बरस पड़े थे। इसी के साथ सारा गाँव  रो रहा  था।  इसी के साथ पगली की डोली सर्पाकार पगडंडियो से होती हुई ससुराल की तरफ बढ़ चली थी।

 – अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – भाग -2 – सुहागरात

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆ मत का दान ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “मत का दान”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 18 ☆

☆ मत का दान

मत का दान दे उनको
जो करें मत का राज।

मत का दान न देना उनको
जो करें मन का राज।

गरीब को भी जी जाने दो
ऊँगली में स्याही लगने दो।

ना मस्तवाल का राज हो
जी भर जीवन जीने दो।

गणतंत्र का राज हो
वाणी अधिकार मिलने दो।

राम राज्य अब आ जाए
हर जीवन में खिलने दो।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 – लक्ष्मी प्राप्ति  ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “लक्ष्मी प्राप्ति ।)

Amazon Link – Purn Vinashak

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 20 ☆

☆ लक्ष्मी प्राप्ति 

 

तब भगवान राम ने भगवान हनुमान को देवी सीता को उनकी जीत के विषय में सूचित करने और सम्मान के साथ लाने के लिए भेजा। देवी सीता यह खबर सुनकर बहुत खुश थीं और भगवान हनुमान से पूछा कि वह वांछित किसी भी वरदान के लिए पूछें। भगवान हनुमान उन राक्षसों के खिलाफ क्रोध से भरे हुए थे जो देवी सीता की रक्षा कर रहे थे क्योंकि वे हमेशा उनके लिए परेशानी पैदा करते रहते थे और उन्हें डराने का प्रयत्न करते रहते थे। तो भगवान हनुमान देवी सीता से उन्हें सबक सिखाने की अनुमति चाहते थे। देवी सीता ने अपनी असीम करुणा और महानता का प्रदर्शन करते हुए भगवान हुनमान से कहा कि ये राक्षस रावण के सेवकों के रूप में केवल असहाय रूप से अपना कर्तव्य पालन कर रहे थे, और हमें इन्हें दंडित करने का अधिकार नहीं है, तब देवी सीता ने भगवान हुनमान को एक कहानी सुनायीं:

एक बार वन में एक शिकारी एक शेर का शिकार करते हुए गिर गया और अपने हथियार को खो दिया। शेर ने शिकारी का पीछा करना शुरू कर दिया। शिकारी भाग कर एक वृक्ष पर चढ़ गया। उसने वृक्ष पर देखा कि एक भालू बैठा था। आदमी पूरी तरह से असहाय और डरा हुआ था और उसने भालू के आश्रय में अपने जीवन को छोड़ने के लिए अनुरोध किया । इस बीच शेर वृक्ष के नीचे आया और भालू को आदमी को धक्का देने के लिए प्रेरित किया ताकि वे दोनों आदमी को खा सके । भालू ने इनकार कर दिया और कहा कि उस आदमी ने उसके घर आश्रय लिया है और इसलिए वह उसे नीचे नहीं फेकेगा। कुछ समय बाद भालू सो गया और शेर ने शिकारी से कहा, “मुझे बहुत भूख लग रही है, इसलिए आप सोते हुए भालू को वृक्ष से नीचे धकेल दो ताकि मैं उसे मार सकूं और उसे खा सकूं और जिससे आपकी जान बच जायगी”

असभ्य शिकारी अपने जीवन के विषय में इतना चिंतित था, कि उसने सोते हुए भालू को पेड़ से धक्का दे दिया। गिरने के दौरान भालू किसी तरह जाग गया और वृक्ष की एक शाखा को पकड़ लिया, और वो बच गया। शेर ने भालू को बताया कि भालू ने शिकारी को बचाने की कोशिश की, फिर भी उसने उसे नीचे धक्का दे दिया। इसलिए अब भालू को शिकारी को नीचे धक्का देकर शेर की सहायता करनी चाहिए । संत भालू ने उत्तर दिया कि महान आत्माओं के पास दूसरों के प्रति आक्रामक दृष्टिकोण नहीं होता है, और उनकी यह दयालु प्रकृति दूसरों की बुरी प्रकृति होने के बावजूद भी रहती है। इस प्रकार, भालू अपने सिद्धांतों पे खड़ा था और उसने शिकारी को नुकसान नहीं पहुँचाया जो अब बहुत शर्मिंदा था”

 

© आशीष कुमार  

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 27 ☆ कितनी और निर्भया ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “कितनी और निर्भया ”.     डॉ  मुक्ता जी ने  इस आलेख के माध्यम से यौन अपराध  और उससे सम्बंधित तथ्यों पर विस्तृत विमर्श किया है। यह समझ से परे है कि इस तथ्य को सामयिक कहें या असामयिक, यह निर्णय आप पर है। किन्तु,  दुखद यह है कि अगली दुर्घटना होते तक या दुखद ब्रेकिंग न्यूज़ आते तक समाज निष्क्रिय क्यों रहता है ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।  )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 27 ☆

☆ कितनी और निर्भया

 

‘एक और निर्भया’ एक उपहासास्पद जुमला बनकर रह गया है। कितना विरोधाभास है इस तथ्य में… वास्तव में  निर्भय तो वह शख्स है, जो अंजाम से बेखबर ऐसे दुष्कर्म को बार-बार अंजाम देता है। वास्तव में इसके लिए दोषी हमारा समाज है, लचर कानून-व्यवस्था है, जो पांच-पांच वर्ष तक ऐसे जघन्य अपराधों के मुकदमों की सुनवाई करता रहता है। वह ऐसे नाबालिग अपराधियों के प्रति सहानुभूति रखते हुए, यह निर्णय नहीं ले पाता कि उन्हें दूसरे अपराधियों से भी अधिक कठोर सज़ा दी जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कम आयु में, नाबालिग़ होते हुए ऐसा क्रूरत्तम व्यवहार कर… उस मासूम के साथ दरिंदगी की सभी हदों को पार कर दिया। 2012 में घटित इस भीषण हादसे ने सबको हिला कर रख दिया। आज तक उस केस की सुनवाई पर समय व शक्ति नष्ट की जा रही है। इन सात वर्षों में न जाने  कितनी मासूम निर्भया यौन हिंसा का शिकार हुईं और उन्हें अपने प्राणों की बलि देनी पड़ी।

हर रोज़ एक और निर्भया शिकार होती है, उन सफेदपोश लोगों व उनके बिगड़ैल साहबज़ादों की दरिंदगी की, उनकी पलभर की वासना-तृप्ति का मात्र उपादान बनती है। इतना ही नहीं,उसके पश्चात् उसके शरीर के गुप्तांगों से खिलवाड़, तत्पश्चात् प्रहार व हत्या, उनके लिए मनोरंजन मात्र बनकर रह जाता है। यह सब वे केवल सबूत मिटाने के लिए नहीं करते, बल्कि उसे तड़पते हुए देख, मिलने वाले सुक़ून पाने के निमित्त करते हैं।

क्या हम चाह कर भी, कठुआ की सात वर्ष की मासूम, चंचल आसिफ़ा व हिमाचल की गुड़िया के साथ हुई दरिंदगी की दास्तान को भुला सकते हैं…. नहीं… शायद कभी नहीं। हर दिन एक नहीं, चार-चार  निर्भया बनाम आसिफा, गुड़िया आदि यौन हिंसा का शिकार होती हैं। उनके शरीर पर नुकीले औज़ारों से प्रहार किया जाता है और उनके चेहरे पर ईंटों से प्रहार कर कुचल दिया जाता है ताकि उनकी पहचान समाप्त हो जाए। यह सब देखकर हमारा मस्तक लज्जा-नत हो जाता है कि हम ऐसे देश व समाज के बाशिंदे हैं, जहां बहन-बेटी की इज़्ज़त भी सुरक्षित नहीं … उसे किसी भी पल मनचले अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। अपराधी प्रमाण न मिलने के कारण अक्सर छूट जाते हैं। सो!अब तो सरे-आम हत्याएं होने लगी हैं। लोग भय व आतंक की आशंका के कारण मौन धारण कर, घर की चारदीवारी से बाहर आने में भी संकोच करते हैं, क्योंकि वे इस तथ्य से अवगत होते हैं कि ग़वाहों पर तो जज की अदालत में गोलियों की बौछार कर दी जाती है और कचहरी के परिसर में दो गुटों के झगड़े आम हो गए हैं। पुलिस की गाड़ी में बैठे आरोपियों पर दिन-प्रति दिन प्रहार किये जाते हैं, जिन्हें देख हृदय दहशत से आकुल रहता है।

गोलीकांड, हत्याकांड, मिर्चपुर कांड व तेज़ाब कांड तो आजकल अक्सर चौराहों पर दोहराए जाते हैं। एकतरफ़ा प्यार, ऑनर-किलिंग आदि के हादसे तो समाज के हर शख्स के अंतर्मन को झिंझोड़ कर रख देते हैं, जिसका मूल कारण है, निर्भयता-निरंकुशता, जिस का प्रयोग वे आतंक फैलाने के लिये करते हैं।

सामान्यतः आजकल अपराधी दबंग हैं, उन्हें राज- नैतिक संरक्षण प्राप्त है या उनके पिता की अक़ूत संपत्ति, उन्हें निसंकोच ऐसे अपराध करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है।

समाज में बढ़ती यौन हिंसा का मुख्य कारण है, पति- पत्नी की अधिकाधिक धन कमाने की लिप्सा, सुख- सुविधाएं जुटाने की अदम्य लालसा, अजनबीपन का अहसास, समयाभाव के कारण बच्चों से अलगाव व उनका मीडिया से लम्बे समय तक जुड़ाव, संवाद-हीनता से उपजा मनोमालिन्य व संवेदनहीनता, बच्चों में पनपता आक्रोश, विद्रोह व आत्मकेंद्रितता का भाव, उन्हें गलत राहों की ओर अग्रसर करता है। वे अपराध की दुनिया में  पदार्पण करते हैं और लाख कोशिश करने पर भी उनके माता-पिता उन्हें उस दलदल से बाहर निकालने में नाकाम रहते हैं।

प्रश्न उठता है कि बेकाबू यौन हिंसा की भीषण समस्या से छुटकारा कैसे पाया जाए? संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकल परिवार-व्यवस्था के अस्तित्व में आने के कारण, बच्चों में असुरक्षा का भाव पनप रहा है…सो! उनका सुसंस्कार से सिंचन कैसे सम्भव है? इसका मुख्य कारण है, स्कूलों व महाविद्यालयों में संस्कृति-ज्ञान के शिक्षण का अभाव, बच्चों में ज्ञानवर्द्धक पुस्तकों के प्रति अरुचि, घंटों तक कार्टून- सीरियलस् देखने का जुनून, मोबाइल-एप्स में ग़ज़ब की तल्लीनता, हेलो-हाय व जीन्स कल्चर को जीवन  में अपनाना, खाओ पीओ व मौज उड़ाओ की उपभोगवादी संस्कृति का वहन करना… उन्हें निपट स्वार्थी बना देता है। इसके लिए हमें लौटना होगा… अपनी पुरातन संस्कृति की ओर, जहां सीमा व मर्यादा में रहने की शिक्षा दी जाती है। हमें गीता के संदेश ‘जैसे कर्म करोगे, वैसा ही फल तुम्हें भुगतना पड़ेगा’ का अर्थ बच्चों को समझाना होगा। और इसके साथ-साथ उन्हें इस तथ्य से भी अवगत कराना होगा कि मानव जीवन मिलना बहुत दुर्लभ है। इसलिए मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिएं क्योंकि ये ही मृत्योपरांत हमारे साथ जाते हैं। वैसे तो इंसान खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ ही लौटना है।

यदि हम चाहते हैं कि निर्भया कांड जैसे जघन्य अपराध समाज में पुन: घटित न हों, तो हमें अपनी बेटियों को ही नहीं, बेटों को भी सुसंस्कारित करना होगा…उन्हें भी शालीनता और मर्यादा में रहने का पाठ पढ़ाना होगा। यदि हम यथासमय उन्हें सीख देंगे, महत्व दर्शायेंगे, तो बच्चे उद्दंड नहीं होंगे। यदि घर में समन्वय और संबंधों में प्रगाढ़ता होगी, तो परिवार व समाज खुशहाल होगा। हमारी बेटियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी। सबको उन्नति के समान अवसर प्राप्त होंगे और कोई भी, किसी की अस्मत पर हाथ डालने से पूर्व उसके भीषण-भयंकर परिणामों के बारे में अवश्य विचार करेगा।

इसके साथ-साथ यह भी आवश्यक है कि बुराई को पनपने से पूर्व ही समूल नष्ट कर दिया जाए, उसका उन्मूलन कर दिया जाए। यदि माता-पिता व गुरुजन अपने बच्चे को गलत राह पर चलते हुए देखते हैं, तो उनका दायित्व है कि वे साम, दाम, दंड, भेद..की नीति के माध्यम से उसे सही राह पर लाने का प्रयास करें। इसमें कोताही बरतना, उनके भविष्य को अंधकारमय बना सकता है, उन्हें जीते-जी नरक में झोंक सकता है। यदि बचपन से ही उनकी गलत गतिविधियों पर अंकुश लगाया जायेगा तो उनका भविष्य सुरक्षित हो जायेगा और उन्हें किसी गलत कार्य करने पर आजीवन शारीरिक व मानसिक यंत्रणा-प्रताड़ना को नहीं झेलना पड़ेगा।

इस ओर भी ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है कि भय  बिनु होइहि न प्रीति तुलसीदास जी का यह कथन सर्वथा सार्थक है। यदि हम समाज में सौहार्दपूर्ण वातावरण चाहते हैं, तो हमें कठोरतम कानून बनाने होंगे, न्यायपालिका को सुदृढ़ बनाना होगा और बच्चों को सुसंस्कारित करना होगा। यदि कोई असामाजिक तत्व समाज में उत्पात मचाता है, तो उसके लिए कठोर दंड व्यवस्था का प्रावधान करना हमारा प्रमुख दायित्व होगा, ताकि समाज में सत्यम्,  शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हो सके।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता  ‘अनुरागी’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆ नजरिया ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक सामायिक कविता  “नजरिया ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 15 ☆

☆ नजरिया ☆

कल अचानक

मानवाधिकार

संगठन के

पदाधिकारी

से बात हो गई .!

हमने पूछा

आपकी

मानवता

बेटियों पर

कहाँ सो गई..?

सुनकर थोड़ा

झुंझलाए.!

फिर थोड़ा

करीब आये..!!

बोले हम तो

शिकायत पर

काम करते हैं.!

साबित होने पर

हिदायत तमाम

करते हैं..!!

हमने कहा

आपको

निर्भया, प्रियंका

के साथ घटित

घटना का इल्म है..?

झट बोले हां

ये तो बहुत बड़ा

जुल्म है..!

हमने बात

आगे बढ़ाई..!

कुछ आगे भी

बोलो भाई..!

जुल्म तो सबको

पता है.!

पर उस बेटी के

पास कुछ न

बचा है..!!

बोला हम इसकी

घोर निंदा करते हैं.!!

हमने कहा क्या आप

उन्हें ज़िंदा करते हैं..?

यह सुनकर

वह थोड़ा वहां से

खिसके..!

थोड़ा झिझके..!

फिर थोड़ा हुए रोबीले.!

एक नए अंदाज़ में बोले.!

महिलाएं भी इसमें

हैं जिम्मेदार.!

फैशन का है

उन पर भूत सवार..!!

हमने कहा

बस करो यार..!

सारी बंदिशें

पाबंदी सिर्फ

क्या बेटियों पर.?

और बेटों की आज़ादी

बुलंदियों पर..!!

बेटियों पर नजर.!!

बेटों से बे-खबर.!!

यही तो हमारी

कमजोरी है.!!

नजरिया बदलना

बहुत जरूरी है..!!

अब तो कुछ नेता भी

बेतुके बयान देते हैं..!

कुछ तो जाति धर्म

का नाम देते हैं..!!

इन्हें हर बात में

राजनीति याद

आती है..!

इनकी मानवता

जाने कहाँ सो जाती है..?

पर आप तो

मानवाधिकार के

पदाधिकारी हैं.!

आपकी सबसे बड़ी

जिम्मेदारी है..!!

इनकी अस्मत

बचाएं.!

सुरक्षा का माहौल

बनाएं..!!

“संतोष” बेटियों से

ज्यादा बेटों पर

लगाम लगाएं

उन्हें माँ, बहिन, बेटियों

का सम्मान सिखाएं..!!

तब ही आगे

बढ़ेंगी बेटियाँ.!

तब ही आगे

पढ़ेंगी बेटियाँ..!

तब ही आगे

बचेंगी बेटियाँ..!!

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆ लघुकथा – छठवीं उंगली ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है.  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं.  अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है उनकी एक  सामयिक, सार्थक एवं  मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती  सशक्त लघुकथा “छठी उंगली ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 9 ☆

☆ लघुकथा – छठी उंगली ☆ 

 

एक डिग्री कॉलेज में संगोष्ठी के लिए निमंत्रण आया था। कुछ एक घंटे की दूरी पर था वह शहर। बस से जाना था। बस का सफर मैं टालती हूँ पर आयोजकों का आग्रह अधिक था सो चल पड़ी। साथ में मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास ‘झूला नट’ ले लिया। बस में मैं खिड़की के पासवाली सीट ही लेती हूँ। वहाँ बैठकर मैं बाहर की हवा को अधिक से अधिक अपनी साँस में भरने की कोशिश कर रही थी जिससे पेट्रोल की गंध मुझ पर बेअसर रहे।

अगले बस स्टॉप से एक सज्जन (पुरुष कहना ज्यादा उचित है) बस में चढ़े और मेरी सीट पर आकर बैठ गए। सफर के दौरान साथ में सीट पर कोई महिला हो तो चैन से आँखें बंदकर के भी बैठा जा सकता है। पर सोचा ये सीट तीन लोगों के लिए है तो कोई असुविधा नहीं होगी।

मैंने एक चोर नजर उस व्यक्ति पर डाली चेहरे से तो भला लग रहा था लेकिन चेहरे से भलमनसाहत का पता चलता तो बात ही क्या थी ? सफेदपोश भेड़ियों से हमारी ना जाने कितनी बच्चियाँ बच जातीं ? दुराचार की शिकार लडकियों को हम निर्भया नाम दे देते हैं पर उस समय उन पर जो गुजरती है उस भय तथा पीडा की कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है ।

मैं उपन्यास पढ़ने लगी। उपन्यास की नायिका शीलो का अपनी छठी उँगली काटना मुझे सन्न कर गया। उसके साथ जो हुआ उसकी दोषी वह अपनी अपशकुनी छठी उँगली को मान रही थी। उपन्यास की इस घटना ने मुझे झकझोर दिया। मैं अपनी उँगलियाँ धीरे से सहलाने लगी कि आवाज सुनाई दी –

“आप टीचर हैं ?”

मैने सिर उठाकर देखा। बगल में बैठा व्यक्ति प्रश्न कर रहा था।

“जी।“

“हिंदी विषय है ?” उसने मेरी पुस्तक की ओर देखते हुए पूछा

“जी।“

“महाराष्ट्र की हैं आप ?”

“मूल रूप से उत्तर – प्रदेश की रहने वाली हूँ”, मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।

उपन्यास रोचक लग रहा था। शीलो का आगे क्या होगा, इसकी उत्सुकता थी कि एक और प्रश्न – “तो महाराष्ट्र में कैसे ?”

“मैं पढाती हूँ।”

प्रश्नों के सिलसिले को टालने के लिए मैंने फिर से आँखें पुस्तक में गढ़ा ली। वैसे भी मैं बस के सफर में किसी से अधिक बात करना पसंद नहीं करती। परंतु उधर से बातचीत का सिलसिला जारी रखने की पूरी कोशिश –

“ओह ! तो उत्तर प्रदेश की रहने वाली हैं और महाराष्ट्र में नौकरी करती हैं।“

“मेरी पोस्टिंग भी आजकल लखनऊ में है। लखनऊ अच्छा शहर है।”

“जी।”

“पर उत्तर प्रदेश में महिलाओं के लिए वातावरण सुरक्षित नहीं है। मैं अपनी पत्नी और बेटी को अपने साथ लखनऊ ले गया था लेकिन वापस ले आया। आपको कुछ अंतर महसूस हुआ महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के माहौल में स्त्रियों की सुरक्षा की दृष्टि से ?”

“हाँ, महाराष्ट्र काफी सुरक्षित है महिलाओं के लिए। खैर आजकल तो पूरे देश में हालात बहुत खराब हैं, किसी एक राज्य की बात नहीं है। मासूम बच्चियों और स्त्रियों पर हर जगह अत्याचार हो रहे हैं। शेल्टर होम जैसी जगह भी सुरक्षित नहीं रह गई। रक्षक ही भक्षक हो गए हैं अब तो, क्या कहा जाए ?”

“आप चाहे जो कहिए पर हमारा राज्य बहुत सुरक्षित है।”

वैसे इस बात से मैं भी सहमत थी इसलिए मैंने इस विषय पर ज्यादा बात करना उचित नहीं समझा। मैंने किताब बंद कर पर्स में डाली और ऑंखें मूंदकर बैठ गई। आँखें बंद थीं पर दिमाग नहीं। महिलाओं की छठी इंद्रिय सक्रिय हो जाती है जब कोई अनजान पुरुष सफर में साथ बैठा हो| अभी तमुझे कुछ ऐसा महसूस होने लगा कि उस व्यक्ति का हाथ मेरे शरीर के बहुत नजदीक आ गया है। तीन यात्रियों की सीट पर दो यात्री बहुत आराम से दूर – दूर बैठ सकते हैं। मैने सोचा शायद गल्ती से हाथ लग गया होगा। हर वक्त किसी पुरुष के बारे में गलत सोचना भी ठीक नहीं है। लेकिन मेरा सोचना सही था,  उसका हाथ मुझे सिर्फ छू ही नहीं रहा बल्कि मैं अपने शरीर पर उसके शरीर का दबाव महसूस कर रही थी जैसे कि कोई मुझे खिड़की की ओर धकेल रहा हो।

मुझे मन ही मन क्रोध आने लगा। थोड़ी देर पहले ही यह आदमी महिलाओं की सुरक्षा की बात कर एक राज्य के वातावरण को उनके लिए असुरक्षित बता रहा था। अब ये खुद क्या कर रहा है ? आँखें बंद किए मैं सोच रही थी कि क्या करूं ? बचपन से ही एक लड़की ऐसी स्थिति में अपने को सुरक्षित करने के लिए जो हथकंडे अपनाती है वही करूं ? सिमट जाऊँ ? दोनों के बीच में पर्स रखूं या उठकर एक जोरदार थप्पड़ रसीद कर दूं? कंडक्टर को बुलाऊँ क्या ?

दिमाग में उथल पुथल थी। झूला नट उपन्यास की नायिका शीलो की कटी हुई छठी उंगली मेरे सामने दर्द से छटपटा रही थी। गलती ना तो छठी उंगली की थी ना शीलो की, दोषी शीलो का पति था जिसने एक पत्नी के रहते हुए शीलो से दूसरा विवाह कर लिया था। दंड का भागी वह था, ना शीलो, ना अपशकुनी मानी जाने वाली उसकी छठी उंगली, उसे दंड क्यों मिले ?

मैं सीट से उठ खड़ी हुई। लोगों को सुनाते हुए मेरी सीट पर बैठे उस व्यक्ति से जोर से बोली – “यहाँ से उठ जाइए या तमीज से दूर बैठिए। ये तीन व्यक्तियों की सीट है। बस के धक्कों के नाम पर गलती से भी आपका हाथ मेरे शरीर को छूना नहीं चाहिए। एक सलाह और देती हूँ अपनी बेटी को लखनऊ से तो वापस ले आए हैं, ऐसा तो नहीं कि वह अपने घर में ही असुरक्षित हो ? ?”

आसपास बैठे यात्री मेरा तमतमाया चेहरा देख रहे थे। उनमें खुसपुसाहट शुरू हो गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – बीज ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  बीज

 

जलती सूखी ज़मीन,

ठूँठ से खड़े पेड़,

अंतिम संस्कार की

प्रतीक्षा करती पीली घास,

लू के गर्म शरारे,

दरकती माटी की दरारें,

इन दरारों के बीच पड़ा

वह बीज…,

मैं निराश नहीं हूँ,

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र  है,

यह जो समाये है

विशाल संभावनाएँ

वृक्ष होने की,

छाया देने की,

बरसात देने की,

फल देने की,

फिर एक नया

बीज देने की,

मैं निराश नहीं हूँ

यह बीज

मेरी आशा का केंद्र है..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 6.11 बजे, 30.11.2019

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

Please share your Post !

Shares