हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 53 ☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख अन्याय सहना : भीषण अपराध।  यह सत्य है कि अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है। किन्तु, अन्याय करने वाले के विरोध में कितने लोग खड़े हो पाते हैं, यह अलग प्रश्न है। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 53 ☆

☆ अन्याय सहना : भीषण अपराध

‘याद रखिए सबसे बड़ा अपराध अन्याय सहना और ग़लत के साथ समझौता करना है।’ सुभाष चंद्र बोस की यह पंक्तियां हमें स्मरण कराती हैं, गीता में भगवान कृष्ण के मुख से नि:सृत वाणी का…’अन्याय करने से, अन्याय सहने वाला अधिक दोषी होता है’ –यह कथन ध्यातव्य है, अनुकरणीय है, जो मानव में ऊर्जा संचरित करता है; आत्मबल का अहसास दिलाता है; अंतर्मन में छिपी दैवीय शक्तियों के अवलोकन का संदेश देता है व स्वयं को पहचानने की प्रेरणा देता है। इतना ही नहीं, यह हमें अपने पूर्वजों का स्मरण कराता है तथा स्वर्णिम अतीत में झांकने का दम भरता है… हमें अपनी संस्कृति की ओर लौटने को प्रवृत्त करता है और विश्वास व अहसास दिलाता है कि ‘अपनी संस्कृति से विमुख होना, हमें पतन के गर्त में धकेल देता है।’

पाश्चात्य की ‘हैलो-हाय’ की मूल्यहीन संस्कृति हमें सुसंस्कारित नहीं कर रही, बल्कि पथ-भ्रष्ट कर रही है। हम मर्यादा की सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर, स्वयं को आधुनिक समझ रहे हैं। यह हमें अपने देश की मिट्टी व अपनों से बहुत दूर ले जा रही है … जिसके परिणाम-स्वरूप हम अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं और निपट स्वार्थी बन रहे हैं। हम केवल अपने व अपने परिवार के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। दूसरे शब्दों में हम आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं, जो सामाजिक विषमता के रूप में हमारे समक्ष हैं।

आत्मकेंद्रितता का भयावह परिणाम, सामाजिक विश्रृंखलता के रूप में हमारे हृदय में वैमनस्य का भाव उत्पन्न करता है। अहं द्वन्द्व का जनक है व संघर्ष का प्रतिरूप है। वह मानव का सबसे बड़ा शत्रु है; जिसके भंवर में फंसा मानव चाह कर भी मुक्त नहीं हो सकता। जैसे सुनामी की लहरों में डूबती- उतराती नौका में बैठे नाविक व अन्य यात्रियों की मन:स्थिति होती है, वे स्वयं को नियति के समक्ष असहाय, विवश व बेबस अनुभव कर, सृष्टि-नियंता से भीषण आपदा से रक्षा करने की ग़ुहार लगाते हैं; अनुनय-विनय करते हैं… उस विषम परिस्थिति में उनका अहं विगलित हो जाता है। परंतु इस मन: स्थिति में हर इंसान स्वयं को दयनीय दशा में पाता है और भविष्य में शुभ कर्म व सत्कर्म करने की ग़ुहार लगाता है। परंतु भंवर से उबरने के पश्चात् चंद लोग तो प्रायश्चित-स्वरूप जीवन को सृष्टि-नियंता की बख्शीश समझ, स्वयं तो शुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होते हैं; दूसरों को भी शुभ कर्म कर अच्छा व सज्जन बनने की प्रेरणा देते हैं। ऐसा व्यक्ति सत्य की अडिग राह पर चलने लगता है और अन्याय करने या गलत पक्ष के लोगों के साथ समझौता न करने का अटल निश्चय करता है। सो! उसका जीवन के प्रति सोच व दृष्टिकोण ही बदल जाता है। वह प्रकृति के कण- कण व प्राणी-मात्र में परमात्म-सत्ता का अनुभव करता है…सबसे प्रेम-व्यवहार करता है… करुणा की वर्षा करता है तथा समाज द्वारा बहिष्कृत दुर्बल, असहाय लोगों की सहायता कर सुक़ून पाता है। फलत: वह गलत के साथ कभी भी समझौता नहीं करता। यह सर्वविदित है कि यदि एक बार कदम गलत राह की ओर बढ़ जाते हैं, तो वह उस दल-दल मेंं धंसता चला जाता है… बुराइयों के जंजाल से कभी मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि अंधी गलियों से लौट पाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।

आत्मकेंद्रित व्यक्ति के हृदय में उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ व अच्छे-बुरे का भेद नहीं रहता। वह उसी कार्य को अंजाम देता है, जिसमें केवल उसका हित होता है और वह जीवन का सबसे भयावह दौर होता है। ऐसा व्यक्ति मज़लूमों पर ज़ुल्म ढाता है; उनकी भावनाओं को रौंद कर; उनके जज़्बातों की परवाह न करते हुए सुख-शांति व आनन्द की प्राप्त करता है। उनके आंसू व चीत्कार भी उसके हृदय को द्रवित नहीं कर पाते। वह इंसान से जल्लाद बन जाता है और मासूमों पर ज़ुल्म ढाना उसका पेशा।

आइए! हम दृष्टिपात करते हैं, प्रति-पक्ष की मन: स्थिति पर, जो उसे नियति स्वीकार लेते हैं। उनके हृदय में यह भावना घर कर जाती है कि उन्हें अपने पूर्व-जन्म के कृत-कर्मों का फल मिल रहा है और भाग्य के लेखे-जोखे को कोई नहीं बदल सकता। काश! वे पहचान पाते…अंतर्निहित अलौकिक शक्तियों को… तो वे भी ज़ुल्म ढाने वाले का प्रतिरोध कर पाते और अन्याय सहने के पाप से बच पाते। इंसान की सहनशक्ति ही प्रति-पक्ष को और अधिक ज़ुल्म करने को प्रेरित करती है; न्यौता देती है। यदि वह साहस जुटा कर उस परिस्थिति का सामना करता है, तो विरोधियों के हौसले पस्त हो जाते हैं और वह उन्हें समान दृष्टि से देखने लगता है।

गलत व्यक्ति की अहमियत स्वीकार, स्वार्थ-वश उसके साथ समझौता करना अपराध है, पाप है, हेय है, त्याज्य है, निंदनीय है; जो आपको कभी भी सुक़ून नहीं प्रदान कर सकता। हितोपदेश व गीता का सारगर्भित संदेश इस तथ्य को उजागर करता है कि ‘न तो कोई किसी का मित्र है, न ही शत्रु, बल्कि व्यवहार से ही मित्र व शत्रु बनते हैं अर्थात् परमात्मा ने सबको समान रूप प्रदान किया है, परंतु व्यक्ति का व्यवहार ही मित्र व शत्रु का रूप प्रदान करते हैं। व्यवहार हमारी सोच व स्वार्थ-वृत्ति पर आश्रित होता है। स्वार्थ-परता शत्रुता के भाव की जननी है; जो जीवन में नकारात्मकता को जाग्रत करती है।’ परंतु सकारात्मक सोच मानव में मैत्री भाव को संचरित करती है, जिसमें प्राणी-मात्र के हित की भावना निहित रहती है। ऐसे लोगों के केवल मित्र होते हैं, शत्रु नहीं; वे सर्वहिताय की भावना से ओत-प्रोत रहते हैं…सबके मंगल की कामना करते हैं। इसलिए नकारात्मक सोच के व्यक्ति की संगति करना कारग़र नहीं है। सो! वह आपको सदैव गलत दिशा की ओर प्रवृत्त करेगा, क्योंकि जो उसके पास होगा, उसकी धरोहर होगी और उसी संपदा को वह दूसरों को देगा।

मुझे स्मरण हो रही हैं, योगवशिष्ट की पंक्तियां, ‘जिस वस्तु का, जिस भाव से चिंतन किया जाता है, वह उसी प्रकार से अनुभव में आने लगती है’– उक्त भाव को पोषित करती हैं। हमारी सोच ही हमारे व्यक्तित्व की निर्धारक है, निर्माता है। इसका सशक्त उदाहरण है ‘रेकी’…यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूर बैठे अपनी भावनाएं, दूसरे व्यक्ति तक प्रेषित कर सकते हैं। यदि भावनाएं शुभ हैं, तो वहां के वातावरण में शांति, उल्लास व आनंद वर्षा होने लगेगी। यदि वहां ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध का भाव होगा; तो दु:ख, पीड़ा व क्लेश के भाव उन तक पहुंचेंगे। इस प्रकार हम अनुभव कर सकते हैं कि मानव की सोच ही उसके व्यवहार की जन्मदाता है, निर्माता है, पोषक है। इस संसार में जो भी आप दूसरे को देते हैं; वही लौटकर आपके पास आता है। तो क्यों ना अच्छा ही अच्छा किया जाए, ताकि सब का मंगल हो। सो! हम स्वयं अपने भाग्य-निर्माता हैं  तथा हमें अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मांतर तक भुगतना पड़ता है।

सो! हमें अन्याय का सामना करते हुए अपने दायित्व का वहन करना चाहिए और ग़लत के साथ समझौता कदापि नहीं करना चाहिए तथा अपनी आंतरिक शक्तियों को संचित कर, पूर्ण साहस व उत्साह से उन विषम परिस्थितियों का सामना करना चाहिए। जो व्यक्ति इन दैवीय गुणों को जीवन में संचित कर लेता है; आत्मसात् कर लेता है; पथ की बाधाओं व आपदाओं को रौंदता हुआ निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है और आकाश की बुलंदियों को भी छू सकता है। इसलिए मानव को अच्छे भावों-विचारों को धरोहर रूप में संजोकर रखना चाहिए तथा उसे आगामी पीढ़ी को सौंपने के पश्चात् ही अपने कर्त्तव्यों व दायित्वों की इतिश्री समझनी चाहिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 6 ☆ प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। आज से आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक समसामयिक एवं सकारात्मक आलेख  ‘प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी।)

☆ किसलय की कलम से # 6 ☆

☆ प्राकृतिक असंतुलन का दुष्परिणाम है कोविड-19 : एक गंभीर चेतावनी ☆

(अन्तहीन लालसा को जरूरत में बदलना होगा)

(धैर्य, सावधानी, सद्भावना से ही हारेगा कोविड-19)

कोविड-19 महामारी के चलते आज लोगों का डरे-सहमे होना लाजमी है। वैसे भी जब यमराज हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रहे हों तो घर से बाहर निकलने की कोई बेवकूफी करेगा ही क्यों? जो बाहर निकल रहे हैं उनके लिए तो बस इतना ही कहा जाएगा कि ऊपर वाले की इच्छा के बगैर पत्ता  भी नहीं खरकता फिर घर से बाहर निकलने की बात तो बहुत दूर की है। हमने दूसरी बात यह भी सुनी है कि ईश्वर ने इंसान का सब कुछ तो अपने पास रखा है लेकिन बुद्धि-विवेक इंसान के सुपुर्द कर उसी पर छोड़ दिया है कि अच्छे-बुरे का निर्णय तू ही कर और उसका परिणाम भी खुद भोग। अर्थात जो जैसा करेगा, सो वैसा भरेगा। जिस कारण ईश्वर को दोष देने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता। आजकल यह मजेदार बात आम हो गई है कि ईश्वर तो बाद में देखेगा पहले पुलिस ही घर से बाहर निकलते ही आपके कर्मों का फल दे रही है।

यदि हम मान भी लें कि-

जन्म, विवाह, मरण गति सोई।

जो जस लिखा तहाँ तस होई।।

तब भी बुद्धि-विवेक का सहारा लेकर किये गए सकारात्मक कर्मों से कई अनिष्ट तो कट ही सकते हैं। कहा भी गया है कि आपके कर्म आपका भाग्य बदलने की सामर्थ्य रखते हैं।

  वर्तमान में सरकार द्वारा बताए गए कर्म आपके दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल सकते हैं। कोविड-19 के बनते-बिगड़ते गंभीर हालात को देखते हुए मुझे भी यह बात किसी दृष्टिकोण से गलत नहीं लगती। बहुत पहले सुना था हैजा, प्लेग, चेचक आदि महामारियों से लोग भयाक्रांत हो जाते थे, लेकिन विकास और तकनीकि ने इन बीमारियों का अंत कर दिया, लेकिन आज कोविड-19 नामक वायरस की बीमारी ने सम्पूर्ण विश्व को हिला कर रख दिया है। सच कहें तो उन परिस्थितियों से कहीं ज्यादा। इंसान इंसान के पास आने से कतराने लगा है। आज किसी के द्वारा स्पर्श की गई सामग्री को भी लेने के पहले बुद्धि- विवेक का उपयोग करने वाला आदमी दस बार सोचने लगा है और बड़ी सावधानी के साथ सेनेटेराइज करने के उपरान्त ही कुछ लेता है। आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों? यह संवेदनशील एवं विचारणीय विषय है। इस पर विश्व स्तरीय चिंतन- मनन की आवश्यकता है। इसके पीछे मानव द्वारा प्रकृति तथा अन्य जीव-जंतुओं के साथ खिलवाड़ करना तो नहीं है? हम निजी स्वार्थवश कहीं अपनी सीमाएँ तो नहीं लाँघ रहे हैं?  ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’  हमारे ग्रंथों का ही लघु सूत्र है। हमारी इस अंतहीन लालसा के परिणाम अब सामने आने शुरू हो गए हैं। चिंतन कर अब मान भी लेना चाहिए कि  हम प्रकृति के साथ अत्याचार  करने लगे हैं।

क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।

पंच रचित अति अधम शरीरा।।

अर्थात पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं पवन रूपी इन पाँच तत्त्वों से ही हमारा यह अधम शरीर और यह संपूर्ण ब्रह्मांड बना है। प्राकृतिक संतुलन हेतु इन तत्त्वों में भी संतुलन का होना परम आवश्यक है। असंतुलन ही विनाश का कारण है, लेकिन यह सामाजिक प्राणी  स्वार्थ लोलुपता में इतना लिप्त होता गया है कि वह इन तत्वों  का संतुलन बनाए रखना ही भूल गया। आज जब ओजोन परत क्षीण हो रही है, जलवायु प्रदूषण बद से बदतर होता जा रहा है। पर्यावरण की सुरक्षा हेतु ठोस कदम नहीं उठाये जा रहे हैं। प्रकृति संतुलन के अहम सहभागी वनस्पति व जीव-जंतुओं को भी हमारे द्वारा नहीं बक्शा जा रहा है? क्या तब भी हम उम्मीद करेंगे कि प्रकृति हमारे स्वास्थ्य व बेहतर जीवन शैली पर ध्यान देगी? एड्स, स्वाइन फ्लू, कोविड-19 जैसे यमराजों को तो एक न एक दिन हमारे दरवाजों पर दस्तक देना ही थी। क्या आज के पहले किसी ने सोचा था कि सारे विश्व के लोग महीनों चूहों जैसे अपने घरों में दुबक कर बैठेंगे? क्या रेल और हवाई जहाज कभी एक जगह खड़े रहेंगे? क्या आवागमन बन्द सा हो जाएगा? लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखने हेतु आदेशित किया जाएगा, जबकि जीव जगत में मानव को ही सर्वश्रेष्ठ सामाजिक प्राणी माना गया है, फिर यह सब क्यों हुआ? क्या  ऐसा नहीं लग रहा है कि हमारी अपनी दुनिया रुक सी गई है। भला हो सरकार का कि अभी तक खाने के लाले नहीं पड़ने दिए। जरा कल्पना कीजिए यदि यही हालात तीन-चार महीने और रहे तो फिर क्या होगा ? तब हम यह भी जान लें कि आपका  तिजोरियों में भरा पैसा कोई काम आने वाला नहीं है। काम आयेगा तो स्वच्छ जल, स्वच्छ वायु, स्वच्छ वातावरण एवं निर्विकार भोजन। यही वक्त है आत्मचिंतन का। यही वक्त है इंसान को इंसानियत सीखने का। भले ही हम पूरी तरह से विश्व की वर्तमान परिस्थितियाँ नहीं देख पा रहे हैं और विवशता के चलते हमें घर पर रहना पड़ रहा है, लेकिन आप एक बार इसका दूसरा पहलू यह भी देखिए, यह भी जानिये कि आज कुछ ही दिनों में हमारी नदियाँ कितनी निर्मल हो गईं हैं। शहरों में वायु प्रदूषण कितना कम हो गया है। हम आज बिना सैलून, ब्यूटी पार्लर, धोबी, कामवाली, मनपसन्द सब्जियाँ, बिना मांसाहार, बिना आवागमन अर्थात बिना डीजल-पेट्रोल के भी इतने दिन गुजार सकते हैं। शायद आपने इनके अभाव में जीवन जीने  का कभी सोचा भी नहीं होगा। आज भले ही हम कोविड-19 को लेकर जोक्स बनाकर खुद को हँसा रहे हैं, बहला रहे हैं और इस बीमारी से स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं, लेकिन मोहल्ले या वार्ड में किसी को संक्रमित देखकर  भयभीत भी हो रहे हैं।

आज यह बताना भी आवश्यक है की जरा सी असावधानी हमें बहुत महँगी पड़ सकती है। संयोगवश ही सही हमारी सतर्कता हमें सुरक्षित भी रख सकती है। तब हमें अपने धैर्य, सावधानी और स्वविवेक से कोविड-19 के संक्रमण से स्वयं और दूसरों को भी बचाना होगा।

हम देखते हैं कि लोग मौत के मुँह से भी बाहर आ जाते हैं। चलती ट्रेन के पहियों के बीच से जीवित निकल आते हैं और ऊँचाई से गिरकर भी जिंदा बच जाते हैं। अर्थात हमारी हिम्मत, हमारा विश्वास एवं हमारी सुरक्षित दिनचर्या के साथ ही हमारी प्रतिरोधक क्षमता हमें रोगों को हराने का सामर्थ्य प्रदान करती है। सहस्राब्दियों का इतिहास गवाह है कि जीवन और कालचक्र कभी रुके नहीं, वे निरंतर चलते रहेंगे।

कोविड-19 कितना भी बड़ा राक्षस क्यों न हो, उसे पछाड़ना हमारी पहली प्राथमिकता  होना चाहिए। इसे हराने में कुछ वक्त और लगेगा, तब तक सावधानी ही इस बीमारी से बचने का सर्वोत्कृष्ट उपाय है। लगातार अध्ययन, प्रयोगों तथा शोधों से रामबाण औषधि व प्रतिरोधक टीका बनने में अब देर नहीं है। औषधि बनते ही हम, हमारा देश और पूरा विश्व चैन की साँस ले सकेगा। हम कोविड-19 से मुकाबला करने में सक्षम होंगे, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। तब तक धैर्य, सावधानी, सद्भावना व शांति के प्रयासों में निरंतर सहभागी बनें, स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

26 अप्रेल 2020

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 52 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 52 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆

 

नव्य विधा है काव्य की, झरता है संगीत।

सरस  काव्य की धार से, निकला है नवगीत।।

 

पछुवा की चलने लगी, तेज हवा तत्काल।

अपने अगन समेटती, वर्षा  दृष्टि विशाल।।

 

सांझ सबेरे ढूंढ़ती, पनघट राधा श्याम।

आस लगाए टेरती,  कहां छुपे घन श्याम।।

 

शिल्पकार गढ़ने लगे, कौशल शील विधान।।

होती उत्तम शिल्प की, प्रथक श्रेष्ठ पहचान।।

 

शिल्प साधना से लिखा,  साहित्यिक इतिहास।

साध रहे रस छंद को, भाव और विन्यास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी/मराठी साहित्य – लघुकथा ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा की हिन्दी लघुकथा ‘दंतमंजन’ एवं मराठी भावानुवाद ☆ श्रीमति उज्ज्वला केळकर

श्रीमति उज्ज्वला केळकर

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपके कई साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी हुआ है। इसके अतिरिक्त आपने कुछ हिंदी साहित्य का मराठी अनुवाद भी किया है। आप कई पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपकी अब तक 60 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें बाल वाङ्गमय -30 से अधिक, कथा संग्रह – 4, कविता संग्रह-2, संकीर्ण -2 ( मराठी )।  इनके अतिरिक्त  हिंदी से अनुवादित कथा संग्रह – 16, उपन्यास – 6,  लघुकथा संग्रह – 6, तत्वज्ञान पर – 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  

आज प्रस्तुत है  सर्वप्रथम सुश्री नरेंद्र कौर छाबड़ा जी की मूल हिंदी लघुकथा  ‘दंतमंजन ’ एवं  तत्पश्चात श्रीमति उज्ज्वला केळकर जी  द्वारा मराठी भावानुवाद  ‘दंतमंजन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – जीवन रंग #3 ☆ 

सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा

(सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार सुश्री नरेन्द्र कौर छाबड़ा जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है । आपकी अब तक देश की सभी पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पिछले 40 वर्षों से लेखन में सक्रिय। 5 कहानी संग्रह, 1 लेख संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 पंजाबी कथा संग्रह तथा 1 तमिल में अनुवादित कथा संग्रह। कुल 9 पुस्तकें प्रकाशित।  पहली पुस्तक मेरी प्रतिनिधि कहानियाँ को केंद्रीय निदेशालय का हिंदीतर भाषी पुरस्कार। एक और गांधारी तथा प्रतिबिंब कहानी संग्रह को महाराष्ट्र हिन्दी साहित्य अकादमी का मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार 2008 तथा २०१७। प्रासंगिक प्रसंग पुस्तक को महाराष्ट्र अकादमी का काका कलेलकर पुरुसकर 2013 लेखन में अनेकानेक पुरस्कार। आकाशवाणी से पिछले 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण। लेखन के साथ चित्रकारी, समाजसेवा में भी सक्रिय । महाराष्ट्र बोर्ड की 10वीं कक्षा की हिन्दी लोकभरती पुस्तक में 2 लघुकथाएं शामिल 2018 )

☆ दंतमंजन

महिला समिति की सदस्यों ने इस माह के प्रोजेक्ट के अंतर्गत झुग्गी वासियों की एक बस्ती के स्वास्थ्य जाँच शिविर के आयोजन का निर्णय लिया. तय हुआ कि बस्ती के लोगों का डेंटल चेकअप किया जाय तथा सभी को दंतमंजन निःशुल्क वितरित किए जाएँगे.

निश्चित दिन सभी झुग्गीवासियों को बुलाकर कतार में खड़ा किया गया. दो डॉक्टर उनके दांतों के परीक्षण में जुट गये. अधिकांश लोगों के दांत सड़े हुए, गंदे तथा रोगग्रस्त थे. सभी को दंतमंजन के डिब्बे दिए गये और रोज दांतों की सफाई की हिदायत दी गई. जिनके दांत रोगग्रस्त थे उन्हें दवाइयां भी दी गईं. लगभग पूरा दिन ही इस प्रोजेक्ट में गुजर गया. समिति की सदस्य बड़ी प्रसन्न थीं फोटोग्राफर, पत्रकार भी इस प्रोजेक्ट में उपस्थित थे. काफी सारे फोटोज लिए गये और लम्बी, प्रभावशाली खबर बनाई गई जो अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपनी थी. प्रोजेक्ट की समाप्ति पर सभी महिलाऐं होटल गईं और दिन भर की थकान उतारते हुए ठन्डे पेय,चाय कॉफ़ी और बढ़िया खाना खाया.

अगले दिन समिति की एक सदस्य रविवार के हाट में खरीदारी के लिए गई. सब्जी खरीदकर वह जैसे ही मुड़ी उसने देखा तीन चार लडके दंतमंजन के डिब्बों के ढेर को सजाए गुहार लगा रहे थे –‘दंतमंजन का पांच रूपये वाला डिब्बा चार रूपये में.’ यह उसी बस्ती के लडके थे जहाँ वे कल दन्त परीक्षण के लिए गयी थीं.और उनके मुफ्त बांटे गये दंतमंजन के डिब्बों के आसपास अब अच्छी खासी भीड़ जुटने लगी थी.

© नरेन्द्र कौर छाबड़ा

❃❃❃❃❃❃

☆ दंत मंजन  

(मूळ हिन्दी कथा –दंत मंजन   मूळ लेखिका – नरेंद्र कौर छाबडा  अनुवाद – उज्ज्वला केळकर)

महिला समीतीच्या सदस्यांनी  या महिन्यात एक प्रकल्प हाती घेतला. एका झोपडपट्टीतील लोकांची दंत तपासणी करायची. सगळ्यांची तपासणी झाल्यानंतर दंत मांजनाच्या डब्या तिथे मोफत वाटायच्या.

ठरलेल्या दिवशी तिथे लोकांना एकत्र बोलावले. त्यांना रांगेत उभे केले. डेन्टल सर्जन त्यांचे दात तपासू लागले. अनेकांचे दात किडले होते. हिरड्या रोगग्रस्त होत्या.  दांत तपासणीनंतर सगळ्यांना दंत मांजनाच्या डब्या दिल्या गेल्या. रोज दात स्वच्छ घासण्याची सूचनाही दिली गेली. हा कार्यक्रम संपण्यास पूर्ण दिवस लागला.

समीतीच्या सदस्या प्रसन्न होत्या. फोटोग्राफर, पत्रकारदेखील या कार्यक्रमासाठी उपस्थित होते. खूप फोटो काढले. लांबलचक बातमी तयार केली गेली. दुसर्‍या दिवशीच्या वृत्तपत्रात ती छापून येणार होती. कार्यक्रम संपल्यावर सगळ्या जणी हॉटेलात गेल्या. दिवसभराची थकावट दूर करण्यासाठी काही चविष्ट डिश मागवल्या गेल्या. चहा -कॉफी, थंड पेय पण झाले.

दुसर्‍या दिवशी समीतीच्या एक सदस्या बाजारात काही खरेदीसाठी गेली. खरेदी करून ती वळली आणि तिला दिसलं, तीन चार मुले दंत मांजनाच्या डब्यांचा ढीग लावून ओरडत होती. ‘दंत मांजनाची पाच रुपयाची डबी चार रुपयात…’ ही मुले त्या वस्तीतलीच होती, जिथे त्यांनी दंतमंजनाच्या डब्या मोफत वाटल्या होत्या. त्या डब्यांच्या आसपास चांगली गर्दी जमली होती.

© श्रीमति उज्ज्वला केळकर

176/2 ‘गायत्री ‘ प्लॉट नं12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ , सांगली 416416 मो.-  9403310170

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 43 ☆ चमक-दमक ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  भावप्रवण कविता  “चमक-दमक ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 43 ☆

☆ चमक-दमक ☆

चमक-दमक है ऊपरी,दुनिया माया जाल ।

कभी न इससे उलझिए,जी का यह जंजाल ।।

 

चमक-दमक अब शहर की,बढ़ा रहे हैं माल ।

कोरोना के दौर में,ये खतरे के जाल ।।

 

चमक-दमक मन मोहती,दिल पर करती घात ।

सूरत देख सुहावनी,मचल उठें जज्बात ।।

 

चमक -दमक रख बाहरी,अंदर ह्रदय मलीन ।

सादा जीवन जी रहे,सज्जन और कुलीन  ।।

 

ऊपर-ऊपर मेकअप,भीतर गन्दी सोच  ।

बाहर-भीतर विविधता, यह चरित्र की लोच ।।

 

नेताओं की चमक का,जाने क्या है राज ।

दिन दूनी दौलत बढ़े, निर्धन हैं मुहताज।।

 

झूठ सँवरकर नाचता,जैसे वन में मोर ।

करता सीधा वार सच,बिना चमक बिन शोर ।।

 

चमक-दमक इस चर्म की,दिल को लेती मोह।

जो गिरता इस गर्त में,निकले दिल से ओह ।।

 

संस्कृति अपनी भूलकर, चमक-दमक में आज ।

दिल में अब”संतोष” रख,मोह विदेशी त्याज  ।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 35 ☆ लघुकथा – भेडिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भयावह सामाजिक विडम्बना को उल्लेखित करती लघुकथा  “भेडिए”। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 35 ☆

☆  लघुकथा – भेडिए

वह सिर झुकाए बैठी थी, निर्विकार. मैं उससे पहले भी मिली थी पर इतनी लाचार वह कभी नहीं लगी. लंबी कद- काठी और मजबूत शरीरवाली वह दूसरी औरतों की तुलना में मुझे सशक्त लगी थी. हाँ  लगी तो थी  — ?

उससे सवाल पूछे जा रहे थे एक के बाद एक —

क्या हुआ था ? कौन था वह ? चेहरा तो देखा होगा ?

हर सवाल पर उसका एक ही जवाब था –  घना अँधेरा था, कुछ नी देकखा मैंने, पता नी कौन था.

वह क्या बोलती और कैसे ? दरवाजे के पीछे से कई जोडी आँखें उसे घूर रही थीं जिनमें धमकियां थीं, हिदायतें भी, घर की बात घर में ही रहने देने की.

ससुर ने साफ कह दिया था- जबान खोली तो देख ले, फिर घर में जगह ना मिलेगी.

किसी ने समाज सेवी संस्था को खबर कर दी थी, दो महिलाएं आई थीं जाँच पडताल करने के लिए, उनके ढेरों सवाल थे लेकिन इसे मानों कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. वह  यही सोच रही थी कि घरवालों ने निकाल दिया तो नन्हीं बच्ची को लेकर  जाएगी कहाँ ?

एक महिला बोली- आप निडर होकर बोलिए, हम सब आपके साथ हैं. हमारे देश में निराश्रित स्त्रियों  और लडकियों के रहने के  लिए शेल्टर होम हैं, आपको कोई परेशानी नहीं होगी. शेल्टर होम का नाम सुनते ही वह मानों सोते से जगी हो, हाथ जोडकर दृढता से बोली – ना – ना जी मुझे कोई परेशानी ना है, मुझ पर कोई अत्याचार ना हुआ. पति के जाने के बाद इन सबने ही मुझे संभाला है. अब आप जाओ यहाँ से.

उसने  सुना था  शेल्टर होम में भी भेडिए ही बसते हैं.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 59 ☆ व्यंग्य – व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर व्यंग्य “व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप ।  श्री विवेक जी ने  तटस्थ होकर सार्थक विषय पर विमर्श किया है।  मुझे अक्सर ऐसा साहित्य पढ़ने को मिल रहा है जिसमें स्त्री और पुरुष साहित्यकार  एक दूसरे के मन की विवेचना अत्यंत संजीदगी से कर रहे हैं या एक दूसरे के क्षेत्र में अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं । इस सार्थक व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी  का हार्दिक आभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्या # 59 ☆

☆ व्यंग्य  – व्यंग्य में महिला हस्तक्षेप  ☆

मेरी एक कविता में मैंने लिखा है कि आज की नारी ने जींस तो पहन लिया है, पर पारम्परिक साड़ी यथावत है, आशय है कि स्त्री को हर क्षेत्र में दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है. बड़े पदों पर स्त्री को अतिरिक्त सतर्क रहना होता है कि कोई यह न कहे कि अरे वो तो महिला हैं.

व्यंग्य के क्षेत्र में भी महिला व्यंग्यकार अपनी अन्य पारिवारिक व कार्यालयीन जिम्मेदारियो के साथ  बहुत महत्वपूर्ण लेखन कर रही हैं. यह भी सही है कि महिला होने के नाते प्रकृति दत्त गुणो के चलते कई जगह महिला लेखिकाओ पर संपादको, प्रकाशको या पाठको का सहज अतिरिक्त ध्यान जाता ही है. जिसके लाभ व हानि अवश्यसंभावी हैं.

प्रश्न है कि  क्या व्यंग्य रचना का मूल्यांकन यह देखकर किया जाय कि व्यंग्यकार स्त्री है या पुरूष ?  क्या लेखिका ही स्त्री मन को समझ सकती है ? मुझे लगता है कि व्यंग्यकार को स्त्री या पुरूष के खेमो में नहीं बांटा जाना चाहिए.  जब व्यंग्य लिखा जाता है तो विसंगतियो पर प्रहार होता है. सबसे अच्छा व्यंग्यकार वही होता है जो ” बुरा जो देखन मैं चला मुझसे बुरा न कोय “, मतलब स्वयं पर अंगुली उठाने का साहस करे. हो सकता है कि कुछ विशेष विषयो पर व्यंग्यकार अपनी स्वयं की परिस्थति परिवेश के अनुरूप पक्षपात कर जाता हो पर तटस्थ लेखन ही लोकप्रिय होता है. यह बिन्दु महिला व्यंग्यकारो पर भी लागू होता है.

अनेक व्यंग्यकार या चुटकुलो में पत्नी पर, साली पर, महिलाओ पर कटाक्ष किये जाते हैं, किन्तु महिलाये  अपनी जिजिविषा से इस सब को गलत सिद्ध करती बढ़ रही हैं. स्त्री समानता के इस समय में जितने जल्दी स्त्री विमर्श पीछे छूट जावे, समाज के लिये बेहतर होगा. व्यंग्यकार के पास सोच का अलग दायरा होता है, अतः हमें तो व्यंग्य में स्त्री समानता को बढ़ावा व सम्मान देना ही चाहिये. परिहास की बात अलग है, जिसमें मैं अपनी पत्नी के पात्र के जरिये कई बार व्यंग्य लिख देता हूं, पर अंतरमन से मैं पूरा फेमनिस्ट हूं.

पहली स्त्री व्यंग्यकार किसे कहा जावे यह शोध का विषय है, मुझे सूर्यबाला जी, अमृता प्रीतम जी,जबलपुर की सुधारानी श्रीवास्तव जिन्होने परसाई जी के प्रभाव में कुछ व्यंग्य रचनायें की  या बचपन में पढ़े हुये शिवानी जी के कुछ तंज वाले पैराग्राफ भी स्मरण आते हैं.  व्यंग्य शैली में इक्का दुक्का रचनायें तो अनेक लेखिकाओ की मिल जायेंगी. कविता, विशेष रूप से नई कविता के समय में कई कवियत्रियों ने भी चुटकुलो को व्यंग्य कविता में पिरोया है.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 24 ☆ शिव संकल्प ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “शिव संकल्प।  वास्तव में श्रीमती छाया सक्सेना जी की प्रत्येक रचना कोई न कोई सीख अवश्य देती है। व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन के कटु सत्य पर विमर्श करती यह सार्थक रचना हमें कई प्रकार से प्रेरित करती है, बस शिव संकल्प की आवश्यकता है।  इस कालजयी सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 24 ☆

☆ शिव संकल्प  

आचार, सदाचार, विचार, प्रचार, भ्रष्टाचार, दुराचार;

इन प्रत्ययों  ने तो नाक में दम कर दिया है। ये सत्य है कि दो और दो चार तो होते हैं; पर इनकी तो महिमा निराली है। लोग आचार- विचार करें या न करें किन्तु प्रचार अवश्य करेंगे। सदाचार का पाठ पढ़ते -पढ़ाते न जाने कितने भ्रष्टाचार और दुराचार इस जगत में हो रहे हैं । भ्रूण हत्या से शुरुआत होती है,  यदि वहाँ से बच निकले तो दुराचार की भेंट चढ़ जाने का खतरा सदैव मंडराता रहता है। यदि भाग्यवश इन दोनों खतरों को पार कर लिया तो अवश्य ही व्यक्ति पहले सदाचार  सीखेगा फिर सिखायेगा। इस सबके साथ- साथ उसे आसपास चल रहे  विभिन्न क्षेत्रों के प्रचार – प्रसार को भी झेलना होगा  या इसका अंग बन कर स्वयं भी इसमें कूद जाना पड़ेगा।

अब जब इन सबसे विजयी होकर कर्मभूमि पर उतरो तभी से भ्रष्टाचार का प्रवेश शुरू हुआ समझो। कोई भी कार्य इसके बिना पूरा ही नहीं होता। हर व्यक्ति इसी की दुहाई देता हुआ मिल जायेगा कि  ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार छाया हुआ, कोई भी कार्य बिना बड़ी पहचान होते ही नहीं, भलाई का जमाना ही नहीं रहा।

महंगाई तो इसके साथ  अमरबेल की तरह पनपती रहती है। बस कोई आधार मिला तो समझो निराधार आरोपों का दौर शुरू हुआ, लेनदेन से क्या नहीं हो सकता, सारे समझौते इसी से शुरू हो इसी पर खत्म होते हैं। ये कोरोना थोड़ी है; जो बढ़ता ही जाए, इसे दूर करना ही होगा। जागरूक लोग क्या नहीं कर सकते, जब एक प्रेमी कल्पना में ही सही आसमान से तारे तोड़ कर ला सकता है तो क्या समझदार भारतीय नागरिक भ्रष्टाचार रूपी अमरबेल को उखाड़ कर नहीं फेक सकता है क्या…?

फेक न्यूज के विशाल सागर में; डूबने- उतराने  से बेहतर है,  कि कोई ठोस कदम उठा कर देश और समाज को स्वस्थ बना;  कुरीतियों को दूर कर सदाचारी व नेक इंसान बनें। मेहनत पर विश्वास कर आगे बढ़ें तो अवश्य ही भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारी का मुँह काला होगा, बस ऐसा शिव संकल्प लेने की जरूरत हम सबको है।

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 54 – थोथा चना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी एक विचारणीय लघुकथा  “थोथा चना । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 54 ☆

☆ लघुकथा –  थोथा चना  ☆

आज वह तीसरे दिन भी खड़ा हो कर वही राग अलापने लगा “सर! मेरे पास एक पाण्डुलिपि है जिस में ऐसी ऐसी विधियां है जिस से छात्र एक दिन में गणित, तीन दिन में हिन्दी के शब्द और चार दिन में छात्र फर्राटें से अंग्रेजी बोलना सीख जाए. उसे किसी ग्रामर की आवश्यकता नहीं पड़ेगी”

उस का यही रटारटाया वाक्य सुन कर गणित का प्रशिक्षण ले रहे शिक्षकबोर हो गए थे.

साहब उस की मंशा समझ गए, “आप पाण्डुलिपि यहां ले आना. अगर, अच्छी लगी तो मेरे पहचान के प्रकाशक से छपवा दूंगा.”

“सर! कोरा आश्वासन तो नहीं है ना?” उस ने पुनः पूछा.

“आप ले आना उस के बाद देखेंगे.” कहते हुए साहब निकल गए.

मगर, मास्टर ट्रेनर को उस की बात अखर गई. वे बोले”  साथियों आज हम एक हासिल का घटाना सीखेंगे. देखते हैं कि कौन बच्चों को कैसे सवाल कराता है” यह कहते हुए मास्टर ट्रेनर ने उसी शिक्षक को उठा दिया.

वह आया. उस ने घटाव किया. देख कर सब हंस पड़े.

“क्यों भाई ! कोई गलती है क्या ?” उस ने हंसते हुए सदन से पूछा.

“कुछ नहीं” एक मनमौजी शिक्षक ने कहा “यदि आप दुकानदार होते तो सभी ग्राहकों को 90 रूपए में से 12 रूपए घटा कर 88 रूपए वापस कर देते.”

“क्या?”  वह शिक्षक अभी मनमौजी शिक्षक की बात समझ नहीं पाया था.

तभी तीसरा शिक्षक बड़बड़ाया, “थोथा चना………….”

सुन कर सदन में हंसी के फव्वारे छूट गए.

चले?”

“हाँ साहब ! मैं उन्हें तड़फता हुआ नही देख सकता था.”

“अच्छा. अब दोनों तड़फ़ना. एक बाहर और एक अन्दर.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/01/2015

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 33 ☆ तुम भारत हो ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण कविता  “तुम भारत हो.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 33 ☆

☆  तुम भारत हो ☆ 

 

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

खगकुल का वंदन है देखे

अब भोर हँसे

स्व शांत चित्त ये सागर भी

मन मोर बसे

प्रियवर के  अनगिन हैं मोती

चिर जीव रसे

 

पवन सुखद है तरुणाई

सुंदर वरणम

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

है अतुल सिंधु पावन बेला में

प्रीत बिंदु

अब अपना स्व लगता है

मीत बन्धु

मनवा ने छोड़े द्वंद्व

रच रहा नए छंद

 

प्राची में है लाली छाई

कमलम अरुणम

तुम भारत हो पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

दृग में चिंतन, उर में मंथन

है अब आया

ये धरा बनी कुंदन चन्दन

है मन भाया

है वंदन करती पोर-पोर

खिलती काया

 

है सत चित भी अब

आनन्दम करुणम

तुम भारत ही पहचान करो

स्वमेव स्वयं

बुद्धम शरणम

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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