( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें सफर रिश्तों का तथा मृग तृष्णा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता आजाद हो गए मोती)
Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>> मृग तृष्णा
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 15 – आजाद हो गए मोती☆
खुल गयी गांठ आजाद हो गए मोती,
बिखर कर चारों और फ़ैल गए सब, ठहर गए जिसको जहां जगह मिली ||
गिरते मोती इधर-उधर फुदक रहे थे,
जश्न मना रहे थे सब फुदक-फुदक कर, धागे से आजादी जो मिली ||
उतर गया मुंह सबका जब जमीन पर धड़ाम से गिरे,
कोई इस तो कोई उस कोने में गिरा, किसी को कचरे मे जगह मिली ||
कुछ मोती तो ज्यादा उतावले थे आजादी के जश्न में,
ऐसे औंधे मुंह गिरे, सबसे बिछुड़ ना जाने किसको कहाँ जगह मिली ||
पहले सब खुश थे एक मुद्द्त बाद आजादी जो मिली,
अब सब अपनी-अपनी जगह दुबक गए जहां भी उन्हें जगह मिली ||
सब एक दूसरे को जलन ईर्ष्या करने लगे,
सब एक दूसरे को तिरछी नजर से देखते रहे मगर आँखे नहीं मिली ||
कुछ मोती समझदार थे जो एक जगह इकट्ठे थे,
कुछ खुद को ज्यादा होशियार समझते थे, वे इधर-उधर बिखरे मिले ||
सबको समझ आया बंद गांठ में कितने मजबूत थे,
चाह कर भी मोती धागे में खुद को पिरो वापिस माला नहीं बन सकते ||
बिखरे मोतियों को देख खुला धागा भी रोने लगा,
धागे को देख सब अतीत में खो गए काश कोई हमें एक सूत्र में बांध दे ||
धीरे-धीरे धागा भी वर्तमान से अतीत हो गया,
धागा ठोकरे खा अदृश्य हो गया, मोती धुंधला कर एक दूसरे को भूल गए ||
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना “ सो जाएँ”। )
आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी के अतिथि संपादन में प्रकाशित डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी पर केंद्रित अट्टहास पत्रिका पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 39 ☆
☆ पुस्तक चर्चा – डॉ ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अट्टाहस पत्रिका – अतिथि संपादक – श्री शांतिलाल जैन ☆
चर्चा में पत्रिका – अट्टहास का डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अंक – अक्टूबर २०२०
अंक संपादक – श्री शांति लाल जैन
प्रधान संपादक – श्री अनूप श्रीवास्तव
गुलिंस्ता कालोनी, लखनऊ ( उ प्र )
इससे पहले कि अट्टहास के डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अंक इस विशेषांक पर कुछ लिखूं, व्यंग्य को समर्पित पत्रिका अट्टहास पर व इसके समर्पित संपादक श्री अनूप श्रीवास्तव जी पर संक्षिप्त चर्चा जरूरी लगती है. ऐसे समय में जब कादम्बनी जैसी बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठानो की साहित्यिक पत्रिकायें बंद हो रही हों, एक बुजुर्ग व्यक्ति अपने कंधो पर अट्टहास का बोझ लिये चलता दिखे तो उसकी जिजिविषा व व्यंग्य के लिये समर्पण की मुक्त कंठ प्रशंसा आवश्यक है. वे व्यंग्य का इतिहास रचते दिखते हैं. अट्टहास के अनवरत प्रकाशन हेतु ही नही किसी भी पत्रिका के सफल संचालन के लिये यह आवश्यक होता है कि पत्रिका का उत्तरोतर विकास हो, नये पाठक, नये लेखक पत्रिका से जुड़ें. इस लक्ष्य को पाने के लिये अट्टहास ने अतिथि संपादन के रूप में अनेक महत्वपूर्ण प्रयोग किये. क्षेत्रीय व्यंग्य विशेषांक निकाले गये हैं.अतिथि संपादक की व्यक्तिगत योग्यता, क्षमता व ऊर्जा का लाभ पत्रिका को मिला भी है. डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य के जीवंत शिखर पुरुषों में हैं, उन पर केंद्रित विशेषांक निकालना किसी भी पत्रिका के लिये गौरव का विषय है. अट्टहास ने यह बेहद महत्वपूर्ण परम्परा प्रारंभ की है.
संपादन कितना दुष्कर काम है यह मैं समझता हूं, रचनायें बुलवाना, गुणवत्ता परखना, उन्हें एक फांट में संयोजित करना, सरल नही हैं. आदरणीय शांतिलाल जैन सर ने भोपाल से उज्जैन स्थानांतरित होने, स्वयं के स्वास्थ्य खराब रहने की व्यक्तिगत व्यस्तताओ के बाद भी महीनो भरपूर समय व ऊर्जा इस अंक के लिये सामग्री जुटाने व संपादन में लगाई है जिसके परिणाम स्वरूप ही अंक डा ज्ञान चतुर्वेदी पर संग्रहणीय दस्तावेज बन सका है.
अपने संपादकीय में अनूप जी लिखते हैं व्यंग्य विधा है या शैली इस बहस में पड़े बिना ज्ञान जी ने अपनी पृथक शैली में लगातार लिखकर स्वयं को साबित किया है. उनका यह लिखना कि शिखर पर होते हुये भी ज्ञान जी में लेश मात्र भी अभिमान नही है, वे लगातार युवाओ के मार्गदर्शक बने हुये हैं. यह टिप्पणी डा साहब के कृतित्व व व्यक्तित्व का सूक्ष्म आकलन है.
अतिथि संपादक शांतिलाल जैन जी ने अपनी भूमिका बहुत गरिमा व गम्भीरता से निभाई है. उन्होने डा चतुर्वेदी की चुनिंदा रचनाये जैसे नरक यात्रा से अंश, हम न मरब से अंश, मार दिये जाओगे भाई साब, पुरातन राजा रानी की आधुनिक प्रेम कथा, एक खूबसूरत खंजर अंक के पाठको के लिये प्रस्तुत की हैं. मुझे लगता है उनके लिये ज्ञान सर की लम्बी रचना यात्रा में से चंद रचनायें चुनना फूलो की टोकरी में से चंद बीज के दाने चुनने जैसा रहा होगा. तुम ज्ञानू हम प्रेमू पढ़ा मैं प्रेम जनमेजय जी की भावनाओ को आत्मसात करता रहा. वे लिखते हैं ज्ञान व्यंग्ययात्रा का घनघोर प्रशंसक है, ज्ञान जी लिखते हैं प्रेम सक्षम होते हुये भी तिकड़मी नहीं है. मुझे लगा जैसे सी सा झूले के दो छोर पर बैठे दो व्यक्ति एक दूसरे को आंखों में आंखे डाल बड़ा साफ देख रहे हों.सुभाष चंदर जी, हरीश नवल जी, सूर्यबाला जी, गिरीश पंकज जी, पंकज प्रसून जी, प्रभु जोशी जी, रामकिशोर उपाध्याय जी, डा हरीश कुमार सिंह, अरुण अर्णव खरे जी, श्रवण कुमार उर्मलिया जी के लेख पठनीय हैं. ज्ञान जी का उपन्यास नरक यात्रा बहु चर्चित रहा है उसकी कांति कुमार जैन जी की समीक्षा, मरीचिका पर मधुरेश जी की समीक्षा, हम न मरब पर कैलाश मण्डलेकर जी की समीक्षा महत्वपूर्ण चयन है. अंक में प्रस्तुत सारे चित्र डा ज्ञान का जीवन एल्बम हैं. पारिवारिक चित्र, सम्मान के चित्र, पद्मश्री ग्रहण करते हुये चित्र, अनेक व्यंग्यकारो के साथ के चित्र सब दस्तावेज हैं. समग्र टीप की है विजी श्रीवास्तव जी ने जिसे पढ़कर अभीभूत हूं. मैं अट्टहास लम्बे समय से पढ़ता रहा हूं, जबलपुर में इसके एक अंक के विमोचन का आयोजन भी कर चुका हूं, पर निर्विवाद लिख सकता हूं कि अट्टहास का डा ज्ञान चतुर्वेदी केंद्रित अक्टूबर २०२० अंक पिछले अनेक वर्षो के अंको में सर्वश्रेष्ठ है. जिसके लिये अट्टहास, अनूप जी, शांतिलाल जी, ही नही इसका हर पाठक बधाई का पात्र है. मुझे लगता है जो भी व्यंग्य प्रेमी इसे पढ़ेगा संदर्भ के लिये मेरी तरह संग्रहित जरूर करेगा.
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं । गम्भीर चर्चा नही होती है । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं। – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत हैं मानवीय संवेदनशील रिश्तों पर आधारित एक अतिसुन्दर एवं समसामयिक कविता “निर्मल सांसें मिलेगी तुमको”। आशा पर संसार टिका है। ईश्वर शीघ्र इस आपदा से सारे विश्व को मुक्ति दिलाएंगे और सबको निर्मल सांसे मिलेगी। इस सार्थक एवं भावनात्मक कविता के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।)
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे । )
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी की परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक। )
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 63 ☆
☆ परिचर्चा – व्यंग्य कोई गणित नहीं है – श्री आलोक पुराणिक ☆
देश के जाने-माने व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से महत्वपूर्ण बातचीत –
जय प्रकाश पाण्डेय –
किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?
आलोक पुराणिक –
साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।
जय प्रकाश पाण्डेय –
देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है ?
आलोक पुराणिक –
सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है। अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।
जय प्रकाश पाण्डेय –
आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?
आलोक पुराणिक –
व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों” व्यंग्य की जुगलबंदी ” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या ?
आलोक पुराणिक –
अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार इंटरनेट के युग में आसान हो गया।
जय प्रकाश पाण्डेय –
हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधन सम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?
आलोक पुराणिक –
नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।
जय प्रकाश पाण्डेय –
व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?
आलोक पुराणिक –
फेसबुक या असली की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “सुवासित पनिहारने”। )
( डॉ निधि जैन जी भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता “आमंत्रण”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 20 ☆
☆ आमंत्रण ☆
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण,
उन्मुक्त प्यार रूपी पंछी को मेरा हसीन निमंत्रण,
अभिव्यक्तियों को दिल से दिल तक पहुँचाने का निमंत्रण,
उम्र के हर पड़ाव में, अपनों के साथ का निमंत्रण,
ख्वाब को रूबरू होने का निमंत्रण,
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण।
ज़िन्दगी की भीड़ में कहीं अपने आप को छुड़ाने का निमंत्रण,
ये शरीर बना हड्डी का पिंजर, उसे सहजने का निमंत्रण,
मुसाफिरखाना बने मेरे मन को नए एहसास का निमंत्रण,
अपने अंतर्मन को छूने का निमंत्रण,
खामोशी के साथ पैगाम-ए-दिल को निमंत्रण,
आमंत्रण शब्द में छुपा मेरा निमंत्रण।
आओ हम सब एक हो जाएँ और दे ख़ुशी को निमंत्रण,
ऊँच-नीच जाति -पाति का भेद मिटाकर, करे एकता का निमंत्रण,
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है। सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक भावप्रवण रचना “लाॅकडाऊन”। श्री श्याम खापर्डे जी ने इस कविता के माध्यम से लॉकडाउन की वर्तमान एवं सामाजिक व्याख्या की है जो विचारणीय है।)
(कवी राज शास्त्री जी (महंत कवी मुकुंदराज शास्त्री जी) मराठी साहित्य की आलेख/निबंध एवं कविता विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। मराठी साहित्य, संस्कृत शास्त्री एवं वास्तुशास्त्र में विधिवत शिक्षण प्राप्त करने के उपरांत आप महानुभाव पंथ से विधिवत सन्यास ग्रहण कर आध्यात्मिक एवं समाज सेवा में समर्पित हैं। विगत दिनों आपका मराठी काव्य संग्रह “हे शब्द अंतरीचे” प्रकाशित हुआ है। ई-अभिव्यक्ति इसी शीर्षक से आपकी रचनाओं का साप्ताहिक स्तम्भ आज से प्रारम्भ कर रहा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण अभंग “बावरे मन”)