हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆ इमारतें ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “इमारतें । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 79 ☆

☆ इमारतें ☆

क्या सोचती हैं यह इमारतें

यूँ ही बरसों से तनहा खड़ी हुई?

 

क्या यह किसी के इंतज़ार में हैं?

या कोई ऐसा दर्द है हो वो

बयान करने में कतराती हैं?

या कोई ऐसा घाव है

जिसपर मरहम तो लगायी कई बार

पर वो उन ज़ख्मों को भर नहीं पायीं?

 

ऊपर से तो कोई दरार नज़र नहीं आती-

पर क्या यह अंदर से टूट चुकी हैं

और कुछ कहती ही नहीं?

 

क्यों नहीं बातें करतीं यह

उनके चहुदिशा में खड़े

उन आसमान छूते दरख्तों से?

या फिर उनपर लहरा रहे पीले फूलों से?

क्या उन्हें सब कुछ बासी सा लगने लगा है?

 

इन इमारतों के भीतर आते-जाते मैंने

कई आदमी देखे हैं…

उनके आगे भी यह क्यों मौन धारण किये हैं?

क्यों नहीं बयान कर देतीं यह अपनी दास्ताँ

किसी ऐसे दोस्त से जो उन्हें समझ सके?

 

सुनो ए इमारत!

बस, अभी तो बसंत का आगमन हुआ है…

यह खिलने का मौसम है,

मुरझाने का नहीं!

चलो, हम-तुम मिलकर ही डोलते हैं

इन लचकती डालियों के संग,

और मस्त हो जाते हैं

इस खूबसूरत समां में!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 85 – संस्मरण – बोलता बचपन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  “संस्मरण – बोलता बचपन।  हम एक ओर बेटियों को बोझ मानते हैं और दूसरी ओर नवरात्रि पर्व पर उन्हें कन्याभोज देकर  उनके देवी रूप से आशीर्वाद की अपेक्षा करते हैं।  यह दोहरी  मानसिकता नहीं तो क्या है ?  इस  संवेदनशील विषय पर आधारित विचारणीय संस्मरण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 85 ☆

?? संस्मरण – बोलता बचपन ??

‘बेटा भाग्य से और बेटियां सौभाग्य से प्राप्त होती हैं।’  इसी विषय पर पर आज एक  संस्मरण – सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ 

ठंड का मौसम मैं और पतिदेव राजस्थान, कुम्बलगढ़ की यात्रा पर निकले थे। जबलपुर से कोटा और कोटा से ट्रेन बदलकर चित्तौड़गढ़ से कुम्बलगढ ट्रेन पकड़कर जाना था। क्योंकि ट्रेन चित्तौड़गढ़ से ही प्रारंभ होती थी।

हम ट्रेन पर बैठ चुके थे, ट्रेन खड़ी थी। स्टेशन पर मुसाफिरों का आना जाना लगा हुआ था। जैसे ही ट्रेन की सीटी हुई, दौड़ता भागता आता हुआ एक बिल्कुल ही गरीब सा दिखने वाला परिवार अचानक एसी डिब्बा में घुस कर बैठ गया। तीन चार सामान जो उन्होंने साड़ी और चादर की पोटली बना बांध रखा था। तीन बिटियाँ को चढ़ा, एक बेटा और स्वयं पति पत्नी चढ़कर बैठ गए।

सीटी बजते ही ट्रेन चल पड़ी। जल्दी-जल्दी चढ़ने से सभी हाँफ रहे थे, उनको कुछ लोगों ने डाँटा और कुछ सज्जनों ने कहा कि ठीक है अगले स्टेशन पर उतर कर सामान्य डिब्बा में चले जाना।

कंपकंपाती ठंड और उनकी दशा देख बहुत ही दयनीय स्थिति लग रही थी। परंतु बातों से वो बहुत ही बेधड़क, बोले जा रहे थे।

तीनों बच्चियों को महिला बार-बार आँखें दिखा डांट रही थी और पाँच वर्ष का एक बेटा जिसे गोद में बड़े प्यार से बिठा रखी थीं।

बेटे के हिसाब से उसको पूरा स्वेटर मोजा जूता सभी कुछ पहनाया गया था।

परंतु बच्चियों में सिर्फ एक बच्ची के पैरों पर चप्पल दिख रही थी। बाकी दो फटेहाल कपड़ो में दिख रहीं थीं। और फटी साड़ी को आधा – आधा कर सिर  से बांध गले में लपेट पूरे शरीर पर ओढ रखी थीं।

दोनों दंपत्ति भी लगभग कपड़े, स्वेटर, शाल पहने हुए थे। मेरे मन में बड़ी ही छटपटाहट होने लगी।

उसमें से छोटी बच्ची बहुत ही चंचल और नटखट, बार- बार देखकर मुस्कुरा कर कुछ कहना चाह रही थीं।

बातों का सिलसिला शुरु हो गया “आप कहां जा रही हैं आंटी जी?”  बस बात शुरू हो गई। पतिदेव नाराज हो रहे थे परंतु बच्चों की मासूमियत के कारण बात करने लगी।

बात कर ही रही थी कि आँखें दिखा बस महिला बात करना शुरु कर दी…” छोरियां है मैडम जी। बड़ी वाली तो शौक से आई ।बाकी दो छोड़ो वो तो राम जाणे और इस समर्थ बेटे को बहुत मन्नत और पूजा पाठ के बाद पाया है हमणे। या छोरियां तो किसी काम की ना रहेंगी।”

“एक दिन ससुराल चली जाएंगी और वंश तो बेटा ही चलावे है। इसीलिए बेटे की चाह में यह छोरियां हो गई है।”

“इन छोरियों को पालने का जी न करता है, परंतु रुखी- सूखी देकर पाल रहे हैं। सोच रहे हैं बारह-बारह बरस की हो जाएंगी तो शादी कर दूंगी। बाकी खुद जाणेगी।”

पूरे डिब्बे में उनकी बातों को मैं और मेरी सहेली और बाकी सभी सुन रहे थे। सभी आश्चर्य से देखने लगे।

” समर्थ की मन्नत पूरी करने हम चित्तौड़गढ़ माता की मंदिर जा रहे हैं। या छोरियां भी पीछे लग रखी इसलिए लाना पड़ा। बहुत पिटाई की पर नहीं माणी।” तीनों बच्चों के मासूम से मुसकुराते चेहरे हाँ में सिर हिला रहे थे।

ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ती चली जा रही थी। मैं आवाक उसकी बातों को सोचने लगी ‘क्या ऐसा भी होता है कि वाकई माँ- बाप के लिए बेटियां बोझ होती हैं!’ कहने सुनने के लिए शब्द नहीं थे। कुछ बोलने की स्थिति भी नहीं लग रही थीं। तीनों बिटिया गोल बनाकर चिया- चुटिया खेलने में मस्त हो गई थी।

शायद हँसता मुस्कुराता बचपन मानो कह रहा हो “जाने दीजिये हम आखिर छोरियाँ (बेटियाँ) ही तो हैं।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 93 ☆ गुढी उभारू दारी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 93 ☆

☆ गुढी उभारू दारी ☆

 

नववर्षाचे स्वागत करुया गुढी उभारू दारी

गुढीस साडी नेसवलेली होय पैठणी कोरी

 

अंधाराची सुटका करण्या अवतरली ही स्वारी

एक सूर्य अन् दिशा उजळल्या धरतीवरच्या चारी

 

सडसडीत ह्या युवती साऱ्या साड्या नेसुन भारी

सज्ज स्वागता उभ्या ठाकल्या घरंदाज ह्या पोरी

 

गुढी बांधली नववर्षाची बळकट आहे दोरी

प्रसादात या लिंब कोवळे गूळ आणखी कैरी

 

चौदावर्षे वनवासाची सजा संपली सारी

आयोध्याच्या नगरीमधले हर्षलेत नर नारी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ चैत्र  पालवी ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ कवितेचा उत्सव ☆ चैत्र  पालवी ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

 

काल होते शुष्क सारे

आज  फुटले हे धुमारे

पालवीचे हात झाले

अन् मला केले इशारे

चैत्र आला,चैत्र आला

सांगती हे  रंग  सारे

नेत्र झाले तृप्त आणि

शब्द  हे  अंकुरले

आम्रवृक्षाच्या तळाशी

दाट छायेचा विसावा

पर्णराशीतून अवचित

कोकीळेचा सूर यावा

ही कशी बिलगे सुरंगी

रंग मोहक लेऊनी

मधुरसाच्या पक्वपंक्ती

वृक्ष हाती घेऊनी

जांभळीला घोस लटके

शिरीषातूनी खुलती तुरे

पळस,चाफा,सावरीच्या

वैभवाने मन भरे

चैत्र डोले हा फुलांनी

वृक्ष सारे मोहोरले

पाखरांच्या गोड कंठी

ॠतुपतीला गानसुचले

भावनांचे गुच्छ सारे

शब्दवेलीवर फुलावे

रंग माझ्या अंतरीचे

त्यात मी पसरीत जावे

साल सरले एक आता

सल मनातील संपवावे

स्वप्नवेड्या पाखराने

चैत्रमासी गीत गावे.

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#46 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #46 –  दोहे  ✍

जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।

अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।

 

एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।

धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।

 

केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।

लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।

 

गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।

शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।

 

सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।

ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।

 

कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।

दमकेगा सूरज अभी जरा छंटे अंधियार।।

 

इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।

एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 45 – लरजती रही ड्योढी … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “लरजती रही ड्योढी  …  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 45 ।। अभिनव गीत ।।

☆ लरजती रही ड्योढी  …  ☆

इस इमारत की थकी

दीवार थी जो

ढह गई कल सिसकती

भिनसार थी जो

 

बडी बहिना सी

लरजती रही ड्योढी

उम्र  में मेहराव जो थी

बड़ी थोड़ी

 

और वह खिड़की

दुहाई के लिये बस

चुप हुई है ले रही

चटकार थी जो

 

भरभराकर गिर

रही हैं सीढियाँ तक

इस महल की गुजारीं

कई पीढियाँ तक

 

एक आले में कुँअरि की

मिली नथनी

कभी शासन की पृथक

चमकार थी जो

 

दियाठाने पर

सटा जो देहरी से

उसी के दायीं तरफ

निर्मित जरी से

 

उस दुपट्टे की फटी

निकली किनारी

कभी जनपद की प्रखर

सरकार थी जो

 

और अब इतिहास

का यह गर्त केवल

समय की सबसे

जरूरी शर्त केवल

 

कहीं भी देती सुनाई

अब नहीं है

कड़क मूँछों की रही

ललकार थी जो

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

6-4-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 91 ☆ वापिसी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं 9साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कहानी वापिसी ….। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 91 ☆ वापिसी ☆

दस दस घरों के पांच टोले मिलाकर बना है कसवां गांव। गांव के एक टोले के खपरैल घर के अंदर गोबर से पुते चूल्हे के पास मुन्ना पैदा हुआ। पैदा होते ही खिसककर चूल्हे में घुस गया।  धीरे धीरे मुन्ना बड़ा हुआ।

मुन्नालाल गांव के सम्पन्न घरों के बड़े लड़कों को लोहे का रिंग दौड़ाते देखता तो उसका मन भी रिंग के साथ दौड़ने लगता। उसके घर में ऐसा कोई रिंग नहीं था जिससे वह अपनी ललक पूरी कर लेता। दिनों रात रिंग के जुगाड की ऊहापोह में वह परेशान रहता।एक रात मुन्ना ने सपना देखा, सपने में उसे कोयले की सिगड़ी दिखी जिसमें एक रिंग लगा दिखा। सपने की बात उसने जब मां को बताई तो मां ने कहा कि बहुत साल पहले जब उसके ताऊ जी शहर से नौकरी छोड़कर आये थे तो सामान के साथ पुरानी सिगड़ी भी थी जिसे गाय भैंस बांधने वाली सार के पीछे फेंक दिया गया था, फिर वह मिट्टी में दबती गई और उसका पता नहीं चला। सुबह उठते ही मुन्ना लाल ने सिगड़ी की तलाश करना चालू कर दिया, मिट्टी खोदने के बाद उसे सपने में देखी वही सिगड़ी मिल गई,मुन्नालाल की बांछें खिल गई। मुन्ना लाल ने सिगड़ी के सड़े-गले टीन को तोड़कर उसमें से एक सबूत छोटा सा रिंग निकाल लिया, उसे बड़ा सुकून मिला चूंकि अब वह भी गांव के अन्य लड़कों की तरह रिंग लेकर दौड़ सकता था।उसे लगा जैसे उसने दुनिया जीत ली। दिन दिन भर वह रिंग लेकर दौड़ लगाता रहता,खाना पीना भी भूल जाता। गांव के गरीब घर का बेटा लोहे का रिंग लिए खेले,यह बात कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगती थी। जबकि मुन्ना लाल ने यह रिंग अपने बुद्धि कौशल से प्राप्त किया था।जब यह बात उसके बाबू को पता चली तो बाबू को लगा कि हमारा मुन्ना लाल होनहार लड़का है, अचानक बाबू के अंदर उम्मीदों का रेला बह गया, उसके बाबू तुरन्त उसके पढ़े-लिखे फूफा के पास मुन्ना लाल को ले गए और उनसे सारी बात बताई।

फूफा ने कहा- इसका मतलब लड़के के अंदर वैज्ञानिक सोच है, इसे अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहिए,यह बड़ा होकर बड़ा वैज्ञानिक बन सकता है। बाबू गरीब था, लड़के को अच्छे स्कूल में पढ़ाना सपने की बात थी। गांव के फटेहाल स्कूल में पढ़ाने के अलावा कोई चारा नहीं था, पर मुन्ना लाल के फूफा ने बाबू के अंदर अजीब तरह की उम्मीदें भर लीं थीं, उसके अंदर कुलबुलाहट होती रहती कि थोड़ा बड़ा होने के बाद शहर के अच्छे स्कूल में मुन्ना लाल का दाखिला करायेगा।

मुन्ना लाल उस सिगड़ी के रिंग को दौड़ाते दौड़ाते बड़ा हो गया,गांव के सम्पन्न घरों के लड़के उसके लिंग से चिढ़ते,उस पर हंसते। ऐसा भी नहीं था कि सम्पन्न परिवार के लड़कों के रिंग कोई सोने चांदी के बने थे या उनमें कोई अजूबा था,मात्र कुछ रुपए देकर गांव के लुहार से उनके रिंग बने थे, मुन्ना लाल का रिंग मुफ्त में धोखे से मिल गया था, मुन्ना लाल के बाबू गरीब थे उनके पास लुहार को देने के लिए पैसे नहीं थे।

मुन्ना लाल बड़ा होता गया, उसे शहर में उसके फूफा के पास पढ़ने को छोड़ दिया गया,वह पढ़ता गया, और बड़ा इंजीनियर हो गया। एक बड़े सरकारी संस्थान में महत्वपूर्ण पद मिल गया, विभाग वाले उसे अब एम एल साब कहने लगे। शादी हुई इंजीनियर लड़की से। दो बच्चे भी तीन साल में हो गये, फिर एक दिन सरकारी काम से मुन्ना लाल अमेरिका के लिए उड़ गए। गांव के उस छोटे से टोले के खपरैल घर की टूटी खटिया में लेटे लेटे बापू ने ये सब बातें खांसते खांसते सुनी, बापू को संतोष भी हुआ और मुन्ना लाल को देखने की ललक पैदा हुई,पर लम्बी बीमारी और बेहिसाब कमजोरी ने खाट से उठने नहीं दिया।

बीच बीच में सुनने में आया कि मुन्ना लाल कनेडियन लड़की के साथ रहने लगे हैं, फिर छै महीने बाद सुनने में आया कि कनेडियन लड़की से अलग होकर अब पाकिस्तानी लड़की के साथ घर बसा लिया है। बीच बीच में अपनी असली पत्नी पत्र भेज देते, थोड़ा पैसा भी भेज देते।जो लोग अमेरिका से छुट्टियों में इंडिया लौटते वे लोग मुन्ना लाल के बड़े रोचक कारनामे सुनाते। बात फैलते फैलते कसवां गांव तक जाती, गांव के लोग सुनकर दांतों तले उंगली दबाते। बीच में एक बार मुन्ना लाल की ओरिजनल पत्नी बच्चों के साथ अमेरिका गयी तो मुन्ना लाल के रंगरेलियां देख कर हताश होकर लौट आयी।

मुन्ना लाल के हर नये चरचे पर गांव के लोग शर्म से पानी पानी हो जाते, फूफा को गलियाते,बाबू अपनी गलती पर पछताते, मुन्ना लाल के बचपन के साथी गांव की चौपाल में हंसी उड़ाते।

एक नई ताज खबर चलते चलते इन दिनों कसवां गांव पहुंची है, मुन्ना लाल के हम उम्र दिलचस्प खबर सुनने बेताब हैं, सुना है कि मुन्ना लाल तीस पेंतीस साल बाद कसवां गांव आने वाले हैं।लोग कहते काहे को आ रहा है, मां बाप को बिलखता छोड़ खुद ऐश करता रहा,एक एक दाना को मां बाप तरसते तरसते मर गए। मां बाप के मरने पर भी नहीं आया,अब काहे को आ रहा है गांव।

एक दिन मुन्ना लाल अमेरिकी संस्कृति लिए गांव पहुंचे। गांव आकर पता चला कि उसके माता-पिता कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भूखे प्यासे दुनिया छोड़ चुके थे। बहुत दिन बीत गए थे, उनकी आत्मा की शांति के लिए मुन्ना लाल गांव के गेवडे़ के पीपल के नीचे मिट्टी का दिया जलाकर आंखें मूंदे खड़े हो गए,उसी समय गांव के दो छोटे लड़के लोहे का रिंग लेकर दौड़ते हुए वहां से गुजरे… उसे अचानक याद आया… बचपन में इस लोहे के रिंग को लुहार से बनवाने के लिए उसके बाबू के पास पैसा नहीं था। उसे याद आया, टूटी-फूटी टीन की सिगड़ी को तोड़कर जब उसने रिंग बनायी थी और गांव के सम्पन्न घराने के लड़कों की सम्पन्नता को उस छोटे से रिंग से मात दी थी, फिर उसे याद आया कि वह शायद बचपन में टूटी सिगड़ी से बनाए गए रिंग को शायद वह अमेरिका ले गया था।नम आंखों से मुन्ना लाल ने तय किया कि वह तुरंत अमेरिका पहुंचकर बचपन में बनाये गये उस रिंग की तलाश करेगा और उस रिंग को बाबू की संगमरमर की विशाल प्रतिमा के हाथों में पकड़ा देगा। उसने तय किया कि उस विशाल प्रतिमा को गांव के बीच के चौराहे पर खड़ा करेगा और मूर्ति के उदघाटन के लिए पाकिस्तानी पत्नी ठीक रहेगी या पुरानी भारतीय पत्नी…. इसी उहापोह में मुन्ना लाल पीपल के नीचे खड़ा बहुत देर तक रिंग चलाते बच्चों को देखता रहा। उसने जैसे ही उन खेलते बच्चों को आवाज दी, हवा के झोंके से मिट्टी का दिया बुझ गया और पीपल के पत्ते खड़खड़ाकर आवाज करने लगे, उसे लगा चारों तरफ के पेड़ लड़खड़ाते हुए हंस रहे हैं और उसके नीचे की जमीन खिसक रही है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना #88 – प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में  आज प्रस्तुत है प्रवासी भारतीयों को समर्पित एक विशेष कविता प्रवासी भारतीयों को समर्पित….।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  # 88 ☆

☆ प्रवासी भारतीयों को समर्पित…. ☆

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

वतन की ऊर्जा हिये में हर्षाये

हरेक प्रकोष्ठ में धरा के समाये।

रंग-रूप रीति-नीति धर्म-कर्म संग

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

सांसों में थामे कस्बाई हवा को

उड़ चले सातों समंदर के पार।

कुरीतियों पे करते जमकर प्रहार

विषमताओं के तोड़ते हैं तार।

वृक्षों से झरे पर मुरझाए नहीं

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

फैलाते चहुँ ओर सुरभित गंध

हृदय में बसाये विदेशिये द्वंद्व।

बिसारते न खान-पान बोली-भाषा

अपनो से जुड़ने की हरपल आशा।

नहीं कसमसाते पीड़ा से इसकी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

उड़े पवन संग गिरे दूर जाकर

खुशबू को रखा हमेशा संभाले।

मिट्टी को अपनी लपेटे तन में

रंगे नहीं हर किसी के रंग में।

सोना उगलती ये धरती सारी

जड़ों से जुड़े ये पुष्प हैं प्रवासी।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

राष्ट्रीय मार्ग दर्शक, इंद्रप्रस्थ लिटरेचर फेस्टिवल, नई दिल्ली

मो 9435533394

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 41 ☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆ कवी राज शास्त्री

कवी राज शास्त्री

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हे शब्द अंतरीचे # 41 ☆ 

☆ कुठे हरवली प्रीत… ☆

(दश-अक्षरी…)

कुठे हरवली प्रीत सांगा

तुटला कसा प्रेमाचा धागा…०१

 

स्नेह कसे आटले विटले

तिरस्काराचे बाण रुतले…०२

 

अशी कशी ही बात घडली

संयमाची घडी विस्कटली…०३

 

मधु बोलणे लोप पावले

जसे अंगीचे रक्त नासले…०४

 

तिटकारा हा एकमेकांचा

नायनाट ऋणानुबंधाचा…०५

 

अंधःकार भासतो सर्वदूर

लेकीचे तुटलेच माहेर…०६

 

भावास बहीण जड झाली

पैश्याची तिजोरी, का रुसली…०७

 

कोडे पडले मना-मनाला

गूढ उकलेना, ते देवाला…०८

 

माणूस मी कसा घडवला

होता छान, कसा बिघडला…०९

 

राज विषद, मन मोकळे

सु-संस्कार, सोनेचं पिवळे…१०

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री.

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 95 ☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मेरी दूकान’ का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 95 ☆

☆ व्यंग्य – ‘मेरी दूकान’ का किस्सा

उनसे मेरा रिश्ता वैसा ही था जैसे शहर के आम रिश्ते होते हैं।कभी वे मुझे देखकर रस्म-अदायगी में हाथ लहरा देते, कभी मैं उनके बगल से गुज़रते,दाँत चमका देता।कभी वे मुझे देखकर अनदेखा कर देते और कभी मैं उन्हें देखकर पीठ फेर लेता।वे एक किराने की दूकान के मालिक थे और उन्होंने अपना नाम शायद गोलू शाह बताया था।वे एक दो बार मुझसे दरख़्वास्त कर चुके थे कि मैं सामान उन्हीं की दूकान से ख़रीदूँ क्योंकि सामान बढ़िया और वाजिब दाम पर मिलेगा।लेकिन मैं उसी दूकान से सामान ले सकता था जो उधार दे सके और तकाज़ा न करे।इसलिए मैं उनके प्रस्ताव को स्वीकार न कर सका।

ऐसे ही एक दूसरे के बगल से गुज़रते गुज़रते वे एक दिन घूम कर मेरी बगल में आ गये।बोले, ‘एक मिनट रुकेंगे?’

मैंने स्कूटर रोक लिया।वे भारी विनम्रता से बोले, ‘कैसे हैं?’

मैंने ज़बान पर चढ़ा जवाब दे दिया, ‘अच्छा हूँ।’

वे बोले, ‘बच्चे कैसे हैं?’

मैंने फिर कहा, ‘अच्छे हैं।’

वे बोले, ‘बच्चे तो अभी छोटे हैं न?’

मैंने कहा, ‘हाँ,बेटी सात साल की है और बेटा पाँच साल का।’

वे प्रसन्न होकर बोले, ‘दरअसल मैंने सदर बाज़ार में खिलौनों की दूकान खोली है।एक से एक बढ़िया खिलौने हैं।बच्चों को लेकर पधारिए।बच्चे बहुत खुश होंगे।’

मैंने टालने के लिए कहा, ‘ज़रूर आऊँगा।जल्दी ही आऊँगा।’

वे इसरार करते हुए बोले, ‘ज़रूर आइएगा।मैं आपका इन्तज़ार करूँगा।’

मैं ख़ुश हुआ।लगा कि अभी भी बाज़ार में मेरे जैसे ख़स्ताहालों की कुछ इज़्ज़त बाकी है।

एक दिन परिवार के साथ बाज़ार निकला तो मन हुआ कि बाल-बच्चों को बताया जाए कि बाज़ार में उनके बाप की कितनी साख है।उनके बाप का रूप सिर्फ दूध वाले और किराने वाले से आँख चुराने वाले का ही नहीं है।कहीं उनके बाप की पूछ-गाछ भी है।

मैंने स्कूटर सदर बाज़ार की तरफ मोड़ दिया।पत्नी ने पूछा, ‘कहाँ चल रहे हैं?’ मैं चुप्पी साधे रहा।

गोलू शाह की दूकान में मैं इस तरह अकड़ कर घुसा जैसे दूकान में पहुँच कर मैं शाह जी पर अहसान कर रहा हूँ।गोलू मुझे देखकर ऐसे गद्गद हुए जैसे भक्त के घर भगवान अवतरित हुए हों।मैंने गर्व से पत्नी की तरफ देखा।

गोलू शाह हाथ जोड़कर बोले, ‘खिलौने दिखाऊँ?’

मैंने थोड़ा सिर हिलाकर स्वीकृति प्रदान की।वे बोले, ‘आइए।’

उन्होंने एक एक कर खिलौनों को निकालना शुरू किया।बच्चों की आँखों में चमक आ गयी।लगा उनके सामने कारूँ का ख़ज़ाना फैल गया हो।कभी इस खिलौने को बगल में दबा लेते, कभी उस को।उनकी मंशा ज़्यादा से ज़्यादा खिलौनों को समेट लेने की थी।

मैंने बच्चों से पूछा, ‘कौन सा पसन्द आया?’

उन्होंने सात आठ खिलौनों की तरफ उँगली उठा दी।ज़ाहिर था कि उन्हें सब खिलौने पसन्द आ रहे थे।गोलू शाह थोड़ी दूर पर प्रसन्न मुद्रा में खड़े थे।

थोड़ी देर में उन्होंने आगे बढ़कर एक डिब्बा खोलकर एक विशालकाय भालू निकाला और उसे बच्चों के सामने रखकर हाथ बाँधकर फिर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गये।बच्चे अपने खिलौनों को छोड़कर भालू की तरफ लपके।

बच्चे जब भालू में उलझे थे तभी उन्होंने एक बड़े बड़े बालों वाला प्यारा सुन्दर कुत्ता पेश कर दिया।बच्चे भालू को छोड़कर उस तरफ दौड़े।

खिलौनों के आकार-प्रकार को देखकर मेरे मन में उनके मूल्य को लेकर कुशंकाएँ उठने लगी थीं।ऊपर से अपनी अकड़ को बरकरार रखते हुए मैंने गोलू शाह से पूछा, ‘इस भालू की कीमत क्या होगी?’

गोलू शाह बत्तीसी निकालकर बोले, ‘कीमत की क्या बात करते हैं।बच्चों को देखने तो दीजिए।’

मैंने मन में उठते डर को ढकेलते हुए कहा, ‘फिर भी।बताइए तो।’

गोलू शाह आँखें बन्द करके मुस्कराते हुए बोले, ‘आपके लिए सिर्फ पाँच सौ रुपये।’

मेरी रीढ़ को ज़बर्दस्त झटका लगा।सारी अकड़ निकल गयी।गर्दन लटकने लगी।

मैंने कातर आँखों से गोलू शाह की तरफ देखकर पूछा, ‘पाँच सौ?’

गोलू शाह ने फिर आँखें बन्द कर दुहराया, ‘सिर्फ आपके लिए।’

मैंने सूखे गले से पूछा, ‘और कुत्ता कितने का है?’

गोलू शाह एक बार फिर आँखें बन्द कर बोले, ‘आपके लिए सिर्फ छः सौ का।’

मुझे लगा गोलू शाह इसलिए आँखें बन्द कर लेते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि कीमत सुनकर ग्राहक की सूरत बिगड़ जाएगी।उनका जवाब सुनकर मैं बच्चों के हाथ से खिलौने छीनकर उन्हें पीछे खींचने लगा।बच्चे खिलौनों को छोड़ नहीं रहे थे और मैं उन्हें वहाँ से खींच निकालने पर तुला हुआ था।

मेरी सारी कोशिशों के बावजूद ढाई हज़ार के खिलौने खरीद लिये गये।लघुशंका के बहाने सड़क के एक अंधेरे कोने में जाकर मैंने पर्स के नोट गिने।सिर्फ डेढ़ हज़ार थे।इनमें से गोलू शाह को दे देता तो महीने का हिसाब गड़बड़ा जाता।

मैंने गोलू शाह से झूठी शान से कहा, ‘आज तो ऐसे ही घूमते हुए आ गये थे।एक दो दिन में पेमेंट हो जाएगा।’

गोलू शाह हाथ जोड़कर झुक गये, बोले, ‘कैसी बातें करते हैं! आपकी दूकान है।पैसे कहाँ भागे जाते हैं।फिर आइएगा।’

मैं ऊपर से चुस्त और भीतर से पस्त, दूकान से बाहर आ गया।घर आकर बच्चों पर खूब झल्लाया, लेकिन वे मेरी बातों को अनसुना कर खिलौनों से खेलने में मगन रहे।

अगले माह तनख्वाह मिलने पर बजट में कटौती करके गोलू शाह को एक हज़ार रुपये दे आया।कहा, ‘बाकी तीन चार दिन में दे दूँगा।’.

गोलू फिर हाथ जोड़कर झुके, बोले, ‘क्यों शर्मिन्दा करते हैं बाउजी!आपकी दूकान है।’

उसके बाद दो माह बजट में खिलौनों के भुगतान का प्रावधान नहीं हो पाया।मैंने गोलू शाह की सड़क से निकलना बन्द कर दिया।

एक दिन उनका फोन आ गया—‘कैसे हैं जी?’

मैंने जवाब दिया, ‘आपकी दुआ से ठीक हूँ।’

‘और?’

‘ठीक है।’

‘और?’

‘बिलकुल ठीक है।’

गोलू शाह गला साफ करके बोले, ‘बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं हुए।मैंने सोचा फोन कर लूँ।’

मैंने कहा, ‘अच्छा किया।’

थोड़ी देर सन्नाटा।

गोलू शाह फिर गला साफ करके बोले, ‘आपके नाम कुछ पेमेंट निकलता है।सोचा याद दिला दूँ।’

मैंने कहा, ‘मुझे याद है।एक दो दिन में आता हूँ।’

वे तुरन्त बोले, ‘कोई बात नहीं।आपकी दूकान है।कई दिनों से दर्शन नहीं हुए थे, इसलिए फोन किया।कोई खयाल मत कीजिएगा।’

फिर एक महीना निकल गया।उन्हें दर्शन देने लायक स्थिति नहीं बनी।

फिर एक दिन उनका फोन आया।बोले, ‘बाउजी, आप आये नहीं।हम आपका इन्तजार कर रहे हैं।’

मैंने कहा, ‘हाँ भाई साब, निकल नहीं पाया।’

वे बोले, ‘पेमेंट कर देते, बाउजी।तीन चार महीने हो गये।’

मैंने कहा, ‘बस तीन चार तारीख तक आता हूँ।’

वे शंका के स्वर में बोले, ‘जरूर आ जाना बाउजी।काफी टाइम हो गया।’

अगले माह फिर बजट को खींच तान कर उन्हें एक हज़ार दे आया।इस बार उनके चेहरे पर पहले जैसी मुहब्बत नहीं थी।विदा लेते वक्त निहायत ठंडी आवाज़ में बोले, ‘बाकी जल्दी दे जाइएगा।मार्जिन बहुत कम है।बहुत परेशानी है।’

दो तीन माह बाद किसी तरह उनके ऋण से मुक्त हुआ।आखिरी मुलाकात में वे ऐसी बेरुखी से पेश आये जैसे हमसे कभी मुहब्बत ही न रही हो।मुझे ‘फ़ैज़’ साहब की मशहूर नज़्म का उनवान याद आया—‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग।’

कुछ दिन बाद फिर बच्चों ने धक्का देकर उनकी दूकान में पहुँचा दिया।इस बार वे मुझे देखकर कुर्सी से भी नहीं उठे।कलम से सिर खुजाते हुए नितान्त अपरिचय के स्वर में बोले, ‘हाँ जी, क्या खिदमत करूँ?’

मैंने कहा, ‘बच्चों को कुछ खिलौने देखने हैं।’

वे एक आँख मींजते हुए बोले, ‘बात यह है बाउजी कि आपके लायक खिलौने हैं नहीं।नया स्टाक जल्दी आएगा।तब तशरीफ लाइएगा।’

मैंने कहा, ‘फिक्र न करें।आज उधार नहीं करूँगा।’

वे कुछ शर्मा कर बोले, ‘वो मतलब नहीं है बाउजी।कुछ खिलौने हैं।आइए,दिखा देता हूँ।’

उनके पीछे चलते हुए मैंने कहा, ‘मैंने सोचा कि बहुत दिन से आपसे भेंट नहीं हुई।आखिर अपनी दूकान है।आना जाना चलते रहना चाहिए।’

वे धीरे धीरे चलते हुए ठंडे स्वर में बोले, ‘सच तो यह है बाउजी, कि दूकान जनता की है।अब इसे कोई अपनी समझ ले तो हम क्या कर सकते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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