हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 96 ☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘सीनियारिटी की फाँस‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 96 ☆

☆ व्यंग्य – सीनियारिटी की फाँस

उस दफ्तर में एक काम से गया था। बरामदे में से गुज़रते हुए किशोर बाबू टकरा गये। मेरे परिचित थे। वे बरामदे की पट्टी पर कुहनियाँ टेके,शून्य में ताकते, आँखें झपका रहे थे। सलाम- दुआ हुई।

मैंने पूछा, ‘आप इसी दफ्तर में हैं?’

वे बोले, ‘हाँ जी। तीस साल हो गये।’

मैं समझ गया कि फाइलें खंगालते खंगालते वे मछली की तरह थोड़ी ऑक्सीजन लेने के लिए बाहर आ गये हैं।

उनसे बात करते करते खिड़की में से मेरी नज़र एक और परिचित बृजबिहारी बाबू पर पड़ी। वे अन्दर एक मेज़ पर झुके थे।

मैंने किशोर बाबू से पूछा, ‘बृजबिहारी जी भी आपके ऑफिस में हैं?’

वे सिर हिलाकर बोले, ‘हाँ जी, वे भी यहीं हैं।’

बृजबिहारी बाबू के बालों की सफेदी को ध्यान में रखते हुए मैंने पूछा, ‘आप उनके अंडर में होंगे?’

सुनते ही किशोर बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर कई रंग आये और गये। लगा जैसे मेरी बात से उनको ज़बरदस्त धक्का लगा।

एक क्षण मौन रहकर उत्तेजित स्वर में बोले, ‘क्या कह रहे हैं! बृजबिहारी जी मेरे अंडर में हैं। आई एम हिज़ सीनियर।’

मैंने सहज भाव से कहा, ‘अच्छा, अच्छा! मुझे मालूम नहीं था। उनकी उम्र देखकर मैंने उन्हें सीनियर समझा।’

वे आहत स्वर में बोले, ‘उम्र से क्या होता है?मैंने सन इक्यासी में ज्वाइन किया और वे पचासी में आये। चार साल की सीनियारिटी का फर्क है।’

मैं ‘ठीक है’ कह कर आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे जाने पर लगा कोई पीछे से आवाज़ दे रहा है। देखा तो किशोर बाबू झपटते आ रहे थे। मैं रुक गया। उनके माथे पर बल दिख रहे थे,लगता था किसी बात को लेकर परेशान हैं। पास आकर बोले, ‘आपने मुझे बहुत डिस्टर्ब कर दिया। सीनियारिटी बड़ी तपस्या के बाद मिलती है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है। आपने बिना सोचे समझे कह दिया कि बृजबिहारी बाबू मुझसे सीनियर हैं। थोड़ा मुझसे पूछ तो लेते।’

मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। मुझे मालूम नहीं था।’

वे बोले, ‘आप मुझे अपना मोबाइल नंबर दीजिए। मैं आपको डिटेल में समझाऊँगा कि मैंने किस किस के अंडर में काम किया और कैसे सीनियर हुआ। आई एम वन ऑफ द सीनियरमोस्ट परसंस इन द डिपार्टमेंट।’

मैंने ‘बताइएगा’ कह कर उनसे पीछा छुड़ाया।

उस दिन उनका फोन नहीं आया। मैंने समझा बात उनके मन से उतर गयी। रात को खा-पी कर गहरी नींद में डूब गया। अचानक मोबाइल की घंटी बजी। नींद में कुछ समझ में नहीं आया। बिना चश्मे के मोबाइल भी नहीं पढ़ पाया। दीवार पर घड़ी देखी तो डेढ़ बजे का वक्त दिखा। उस तरफ किशोर बाबू थे। बुझे बुझे स्वर में बोले, ‘इस वक्त जगाने के लिए माफ कीजिएगा। बात यह है कि आपने आज मेरे पूरे दिन का सत्यानाश कर दिया। आपसे मिलने के बाद अभी तक टेंशन में हूँ। नींद नहीं आ रही है, इसलिए आपको फोन करना पड़ा। आप सीनियारिटी का मतलब नहीं समझते। उसे मामूली चीज़ समझते हैं। मैं आपको समझाता हूँ कि सीनियारिटी कैसे मिलती है और उसकी क्या अहमियत है।’ फिर वे बिना साँस लिये बताते रहे कि उन्होंने किन किन महान अधिकारियों के मार्गदर्शन में काम किया और कैसे सीनियारिटी नाम का दुर्लभ रत्न प्राप्त किया।

दस मिनट तक उनकी सफाई सुनने के बाद मैंने मोबाइल दूर रख दिया और उनके शब्दों की भनभनाहट चलती रही। जाने कब मुझे नींद आ गयी। सबेरे जब आँख खुली तो मोबाइल और किशोर बाबू,दोनों ही शान्त थे।

उस दिन से डर रहा हूँ कि किसी दिन फिर किशोर बाबू फोन करके सीनियारिटी की अहमियत न समझाने लगें।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 94 ☆ गिद्ध उड़ाने की कोशिश में ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 94 ☆ गिद्ध उड़ाने की कोशिश में ☆

‘आपदा में अवसर’ अर्थात देखने को दृष्टि में बदलना, आशंका में संभावना ढूँढ़ना। इसके लिए प्रखर सकारात्मकता एवं अचल जिजीविषा की आवश्यकता होती है। यह सकारात्मकता  सामूहिक हित का विचार करती है।

सिक्के का दूसरा पहलू यह है कि आपदा में निजी लाभ और स्वार्थ की संकुचित वृत्ति मनुष्य को गिद्ध कर देती है।  मृतक प्राणी  को नोंच-नोंच कर अपना पेट भरना गिद्ध की प्राकृतिक आवश्यकता है पर भरे पेट मनुष्य का असहाय, मरणासन्न अथवा  मृतक से लाभ उठाने के लिए गिद्ध होना समूची मानवता का सिर शर्म से झुका देता है।

इस संदर्भ में प्रतिभाशाली पर दुर्भाग्यवान फोटोग्राफर केविन कार्टर का याद आना स्वाभाविक है। केविन 1993 में सूडान में भुखमरी की ‘स्टोरी'(!) कवर करने गए थे। भुखमरी से मरणासन्न एक बच्ची के पीछे बैठकर उसकी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे गिद्ध की फोटो उन्होंने खींची थी। इस तस्वीर ने दुनिया का ध्यान सूडान की ओर खींचा। केविन को इस फोटो के लिए पुलित्जर सम्मान भी मिला। बाद में टीवी के एक शो के दौरान जब केविन इस गिद्ध के बारे में बता रहे थे तो एक दर्शक की टिप्पणी ने उन्हें भीतर तक हिला कर रख दिया। उस दर्शक ने कहा था, ‘उस दिन वहाँ दो गिद्ध थे। दूसरे के हाथ में कैमरा था।’

 माना जाता है कि बाद में ग्लानिवश केविन अवसाद में चले गए। एक वर्ष बाद उन्होंने उन्होंने आत्महत्या कर ली। यद्यपि अपने आत्महत्या से पूर्व लिखे पत्र में केविन ने इस बात का उल्लेख किया था कि इस फोटो के कारण ही सूडान को संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़े स्तर पर सहायता मिली।

इस सत्यकथा का संदर्भ यहाँ इसलिए दिया गया है क्यों कि कोविड महामारी की दूसरी लहर में कुछ लोग निरंतर गिद्ध हो रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर की कालाबाज़ारी हो, रेमडेसिविर की मुँहमाँगी रकम लेना हो या प्लाज़्मा का व्यापार, गिद्ध हर स्थान पर मौज़ूद हैं। यद्यपि अब प्लाज़्मा और रेमडेसिविर को कोविड के इलाज के प्रोटोकॉल से बाहर कर दिया गया है पर इससे पिछले तीन-चार सप्ताह में मनुष्यता को नोंचने वाले गिद्धों का अपराध कम नहीं हो जाता। कुछ किलोमीटर की एंबुलेंस या शव-वाहिनी सेवा (!)  के लिए हज़ारों रुपयों की उगाही और नकली इंजेक्शन की फैक्ट्रियाँ  लगाकर दुर्लभ होते असली गिद्धों की कमी नरगिद्ध पूरी करते रहे। कुछ स्थानों से महिला रुग्ण के शीलभंग के समाचार भी आए। इन समाचारों से तो असली गिद्ध भी लज्जित हो गए। 

कोविड के साथ-साथ इन गिद्धों का इलाज भी आवश्यक है। पुलिस और न्यायव्यवस्था अपना काम करेंगी। समाज का दायित्व है कि उस वृत्ति का समूल नाश करे जो संकट में स्वार्थ तलाश कर मनुष्य होने को कलंकित करती है। मनुष्य को परिभाषित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है,

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।

सीधी, सरल बात यह है कि और कुछ भी होने से पहले हम मनुष्य हैं। मनुष्यता बची रहेगी तभी मनुष्य से जुड़े सरोकार भी बचे रहेंगे। साथ ही कालातीत सत्य का एक पहलू यह भी है कि हम सबके भीतर एक गिद्ध है। हो सकता है कि हरेक उस गिद्ध को समाप्त न कर सके पर दूर भगाने या उड़ाने की कोशिश तो कर ही सकता है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 50 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 50 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 50) ☆ 

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>  कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

☆ English translation of Urdu poetry couplets of  Anonymous litterateur of Social Media# 50 ☆

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

आते-जाते हैं तमाम

रंग  मेरे  चेहरे  पर,

लोग  लेते  हैं  मजा

ज़िक्र तुम्हारा कर के…

 

Keep coming  and going

Myriad hues on my face,

People teasingly enjoy by

Mentioning  your  name…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मंज़िल तो मिल ही जाएगी

भटक कर ही सही

गुमराह तो वो हैं

जो घर से निकले ही नहीं….

 

You’ll get to the destination

may be, by wandering itself

Misguided are those, who

never venture out of house….!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

मुझ पर तुम्हारा प्यार

यूँ ही उधार रहने दो,

बड़ा ख़ूब है ये कर्ज़,

मुझे कर्ज़दार रहने दो..

 

Just simply let your love be

a perennial  loan  on  me…

This loan is so very special

Let me be a borrower only..!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

चुप्पियाँ…

प्यासी आत्मायें हैं,

जो रिश्ते…

पी जाया करती हैं…

 

Reticences …

are nothing but

The thirsty souls

devouring the relationships…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 51 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – बात नें करियो ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘बात ने करियो । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 51 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – बात नें करियो ☆ 

बात नें करियो तनातनी की.

चाल नें चलियो ठनाठनी की..

 

होस जोस मां गंवा नें दइयो

बाँह नें गहियो हनाहनी की..

 

जड़ जमीन मां हों बरगद सी

जी न जिंदगी बना-बनी की..

 

घर नें बोलियों तें मकान सें

अगर न बोली धना-धनी की..

 

सरहद पे दुसमन सें कहियो

रीत हमारी दना-दनी की..

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #83 ☆ ऐसा प्यारा गाँव हो ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावपूर्ण रचना  “ऐसा प्यारा गाँव हो ….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 83 ☆ ऐसा प्यारा गाँव हो …. ☆

गौरी का गांव हो,पीपल की छांव ‌ हो

झरनों का शोर हो, बागों में ‌मोर हो।

अमवा की डाली‌ हो, कोयलिया काली‌ हो ।

नदिया में  कल-कल हो, मृगशावक चंचल हो।

चिड़ियों का गीत हो, सुंदर मन मीत हो।

नदिया में नाव हो, ऐसा प्यारा गाँव हो ।।1।।

 

पर्वत विशाल हो, देख मन निहाल हो।

ग्वालों की गइया हों, किशन कन्हैया हो ।

राजा‌ हों रानी हों,नानी की कहानी हों ।

दादा हो दादी हों, नतिनि की शादी हो।

उत्सव उमंग‌हो , यारों का संग हो।

हम सबका सपना हो, हर कोई अपना हो।

इंसानियत की, ठांव गौरी का गांव हो।

बस ऐसा प्यारा सा सुन्दर गाँव हो।।2।।

 

आग हो अलाव हो, ख्याली पुलाव हो।

राजनैतिक चिंतन हो, समस्या पर मंथन हो।

चट्टी चौबारा हो, मंदिर गुरूद्वारा हो।

पोखर तालाब हों, बगिया गुलाब हो।

मादक बसंत हो , कल्पना अनंत हो।

सुंदर शिवाले हो,पूजा की थाले हों ।

खेत हो सिवान हो, गंवइ किसान हो।

भूखा हो बचपन पर आंखों में ‌सपने हो ।

बिखरी हों खुशियां, जीवन संघर्ष ‌हो।

मेल हो मिलाप हो, ऐसा प्यारा गाँव हो ।।3।।

 

मंदिर हो मस्जिद हो, पूजा अजान हो ।

दायें में गीता और बायें कुरान हो ।

नात या कौव्वाली हो ,चैता या‌ होली हो।

राम हो रहमान हों, प्रेम गीत गूंजते सदा ।

सपनों से सुंदर हो, प्यार का समंदर‌ हो।

शांति हो समृद्धि हो, ऐसा प्यारा गाँव हो।।4।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 38 ☆ भारत की पावन माटी को प्रणाम ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “भारत की पावन माटी को प्रणाम“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 38 ☆ भारत की पावन माटी को प्रणाम ☆

 

रहे तिरंगा सदा लहराता भारत के आकाश में,

करता रहे देश नित उन्नति इसके धवल प्रकाश में ॥

लाखों वीरों ने बलि देकर के इसको फहराया है

आजादी का रथ रक्तिम पथ से ही होकर आया है ॥1 ॥

 

यह भारत की माटी पावन इसमें चन्दन – गंध है,

अमर शहीदों का इसमें इतिहास और अनुबंध है ॥

उनके उष्ण रक्त से रंजित अगणित मर्म व्यथाएँ हैं,

सतत प्रेरणादायी भावुक कई गौरव – गाथाएँ हैं ॥2 ॥

 

मनस्वियों औ ‘ तपस्वियों से इसका युग का नाता है,

राम – कृष्ण , गाँधी – सुभाष हम सबकी प्रेमल माता है ।

वीर प्रसू यह भूमि पुरातन बलिदानी, वरदानी है,

मानवीय संस्कृति की हर कण में कुछ लिखी कहानी है ॥3 ॥

 

आओ इससे तिलक करें हम सुदृढ़ शक्ति फिर पाने को,

नई पीढ़ी को अमर शहीदों की फिर याद दिलाने को ॥

जन्मभूमि यह कर्मवती धार्मिक ऋषियों का धाम है,

इसको शत – शत नमन हमारा, बारम्बार प्रणाम है ॥4 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #50 – माँस का मूल्य ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #50 – माँस का मूल्य ☆ श्री आशीष कुमार☆

मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा – “देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है…?” मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोचमें पड़ गये। चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आद तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता.. शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि माँस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है…..उसने मुस्कुराते हुऐ कहा – “राजन्… सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ माँस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।”

सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध के प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे। सम्राट ने उनसे पूछा – “आप चुप क्यों  हैं ? आपका इस बारे में क्या मत है?” चाणक्य ने कहा – “यह कथन कि माँस सबसे सस्ता है…., एकदम गलत है, मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा…. ।” रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था।

चाणक्य ने द्वार खटखटाया….सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये प्रधानमंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा? प्रधानमंत्री ने कहा – “संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए हैं उनकी हालत नाजुक है। राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला माँस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते है….आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला माँस लेने आया हूँ। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहे, ले सकते है। कहें तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ…..।” यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की?

उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राऐं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारियों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ….सभी ने अपने बचाव के लिऐ प्रधानमंत्री को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दी। इस प्रकार दो करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गऐ और समय पर राजसभा में प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दी….!

सम्राट ने पूछा – “यह सब क्या है….? यह मुद्राऐं किस लिऐ है?” प्रधानमंत्री चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले – “दो तोला माँस खरीदने के लिए इतनी धनराशि इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला माँस नही मिला। अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी है। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है….??

जीवन अमूल्य है।

हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है..! इस धरती पर हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है…

 

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 91 ☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 91 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा ☆

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए; सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 90 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 90 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

विनती प्रभु वर आपसे,

करते बारंबार।

कोरोना के कहर से,

मुक्त करो संसार।।

 

महावीर अब कुछ करो,

सही न जाए पीर।

धीरे धीरे टूटता,

इंसानों का धीर।।

 

समाधान अब चाहिए,

होगा कभी निदान।

धरती देती जा रही,

इंसानों का दान।।

प्राणों की रक्षा करो,

सुनो वीर हनुमान

लाओ तुम संजीवनी ,

बचे सभी के प्राण।।

 

प्रत्याशा अब टूटती,

बची नहीं है आस।

पल पल में अब छूटती,

इंसानों की सांस।।

 

प्रत्याशा मन में रखो,

जीतेंगे संग्राम।

कोरोना के काल में,

जपा करो तुम राम।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 80 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “अपनी-अपनी जान बचाओ। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 80 ☆

☆ अपनी-अपनी जान बचाओ ☆

अपनी-अपनी जान बचाओ

पहले यह सबको समझाओ

 

कोरोना ने पैर पसारा

आत्मबल ही एक सहारा

मास्क मुँह पर सदा लगाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

गीता ने जो हमें सिखाया

कोरोना ने कर दिखलाया

धन-दौलत पर मत इतराओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

कोई नहीं है संगी साथी

छूट गए पीछे बाराती

धीरज-धर्म सदा अपनाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

पल भर में क्या से क्या होता

क्या लाये थे.? किस पर रोता

अहम छोड़ कर अब झुक जाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

एक आस विस्वास वही है

जीवन की हर सांस वही है

प्रभु चरणों में शीश झुकाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

दो गज दूरी बहुत जरूरी

रखो समय के साथ सबूरी

जीवन में कुछ पेड़ लगाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

दिल में गर “संतोष” रहेगा

जीवन में तब जोश रहेगा

मानवता का धर्म निभाओ

अपनी-अपनी जान बचाओ

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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