मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 97 ☆ स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 97 ☆

☆ स्फुट ☆

मी डोळे उघडले सकाळी

सात वाजता,

तेव्हा नवरा स्वतःचा चहा करून घेऊन, टेरेस वरच्या फुलझाडांना पाणी द्यायला गेलेला!

मी फेसबुक, व्हाटस् अॅप वर नजर टाकली…..

काल रात्री एक कवयित्री मैत्रीण म्हणाली,

“अगं तू “सुंदर” का म्हणालीस त्या पोस्टला? किती खोटं आहे ते सगळं…..”

खरंतर न वाचताच सांगीवांगी

मी त्या पोस्टला “सुंदर” म्हटलेलं,

मग फेसबुक वर जाऊन वाचलं ते

आणि

काढून टाकलं लाईक आणि कमेन्ट

खरंतरं न वाचताच मत देत नाही मी कधीच पण अगदी जवळच्या व्यक्तीनं भरभरून कौतुक केलेलं पाहून,  मी ही ठोकून दिलं….”सुंदर”!

आता ते ही डाचत रहाणार दिवसभर….!

 

तिनं सांगितलं….एका कवीनं स्वतःचीच तारीफ करण्यासाठी फेसबुक वर

खोटी अकाऊंटस उघडल्याची आणि ते उघडकीस आल्यावर त्याला नोकरीवरून काढून टाकल्याची बातमी!

खोट्या पोस्ट टाकणा-यांनाही होईल अशीच काही शिक्षा!

 

बापरे…आत्मस्तुतीसाठी काहीही…..

 

काल रात्रीचा भात कावळ्याला ठेवण्यासाठी टेरेसवर गेले तर…

नवरा मोबाईल वर कुणाचा तरी “समझौता” घडवून आणत असलेला….

मी खुडली मोग-याची फुलं,

वीस मिनिटं कोवळी  उन्हं अंगावर घेत,

नाष्टा बनवायला खाली उतरले,

पण मोबाईल वाजला…

दोन मिनिटं बोलली सखी छानसं…

 

तर मोबाईल वर दिलीप सायरा ची छबी!

आजकाल मला सायरा सती सावित्री वाटायला लागली आहे,

पुन्हा पुन्हा  नव-याचे प्राण वाचवणारी…..

 

हे स्फुट टाईपत बसले,

आणि नव-यानं झापलं..”हे काय नाष्टा नाही बनवला?”

 मोबाईल ठेवून किचनकडे वळले,

साडेनऊ ची वेळ पाळली चहा नाष्ट्याची!

तरीही नव-याच्या बोलण्यातली धार जाणवली ……

 

टोचत राहते नेहमीच,

“आपण खुपच निकम्मे आहोत की काय?” ही टोचणी,

आजूबाजूचे बरेच जण स्वतःला

खुपच ग्रेट समजत असताना!

 

खरंच हे किती बरं आहे, न्यूनगंडच असल्याचे, मला आठवते…. मी नेहमीच, ”  ” शुक्रिया, आपने मुझ नाचिज को इस काबिल समझा। 

म्हटल्याचे!

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “रंग भरा तोहफ़ा। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆

☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆

वो सीली सी महक…

वो यादों की चहक…

मजबूर कर रही थी मुझे

कुछ बंद कमरे खोलने के लिए…

कुछ भी तो नहीं था बस में मेरे,

और चल पड़ी मैं

दिल के मकाँ के अन्दर बने

इन ख़ाली-ख़ाली से कमरों में…

 

धूल से ऐसी मटमैली लग रही थीं दीवारें

और कमरे के कैनवास के रंग इतने मलिन थे,

कि मुड़कर मैं वापस आने ही वाली थी…

पर…पर…नज़र आ गयी वो रंगीन डायरी,

जिसका रंग अभी भी बरक़रार था…

 

मैंने दीवारों को साफ़ किया,

कैनवास को पोंछा,

और फिर अपने थरथराते हाथों में लिए हुए

वो हसीं सी डायरी,

उसका लम्हा-लम्हा अपने हथेलियों पर रख

उसे निहारने लगी!

 

उन लम्हों के बुलबुलों में

कुछ ग़म था, तो कुछ ख़ुशी;

पर मेरी छुअन से

ग़म के बुलबुले फूटने लगे

और ख़ुशी के बुलबुले और रंगीन होने लगे!

 

यह रंग भरा तोहफ़ा

मैंने अपनी रूह की तिजोरी में

क़ैद कर लिया

और ख़ुद को गले से लगाकर कहा

“मुझे तुमसे प्यार है!”

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ हेमन्त बावनकर

 

लोकतन्त्र का उत्सव

मतदान

लोकतन्त्र का पर्व !

शायद इसीलिए

कुछ लोग मना लेते हैं

सपरिवार महापर्व ।

 

दलदल

सजग मतदाताओं ने

घंटों पंक्तिबद्ध होकर

किया मताधिकार

मनाया – लोकतन्त्र का पर्व!

  

किसी ने अपने विवेक से

किसी ने अविवेक से।  

किसी ने धर्म से प्रेरित होकर

किसी ने जाति से प्रेरित होकर।

 

अंत में जो जीता

उसने बदल लिया

अपना ही दल।

 

किंकर्तव्यमूढ़ मतदाता !

देख रहा है

लोकतन्त्र का भविष्य?

समझ नहीं पा रहा है कि

वह किसी दल में है

या

किसी दलदल में?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

15 जून 2021 प्रातः7.57

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 108 ☆ पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार  ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख – पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकारइस ऐतिहासिक रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

रामेश्वर गुरू स्मृति शताब्दि समारोह के अवसर पर वैचारिक आलेख 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 108 ☆

? पं. रामेश्वर गुरू – आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार ?

पं. रामेश्वर गुरू  कलम से ही नहीं मैदानी कार्यो से भी आम आदमी के प्रतिनिधि पत्रकार 

वर्ष १९५० का दशक, तब जबलपुर एक छोटा शहर था। कुल दो कालेज थे। विश्वविद्यालय नहीं था। तब शहर के साहित्य के केंद्र में पं. भवानी प्रसाद तिवारी तथा रामेश्वर गुरू थे।शहर के अन्य व्यक्ति जो बहुत अध्ययनशील तथा रचनाशील थे, वे थे बाबू रामानुजलाल श्रीवस्तव ऊंट’, नाटककार बाबू गोविंद दास, सुभद्रा कुमारी चौहान भी थी, जिनका बड़ा रौब-दाब था। परसाई जी व अन्य युवा लेखक व पत्रकार इन सुस्थापित व्यक्तित्वो से संपर्क में रहकर अपनी कलम को दिशा दे रहे थे. पं रामेश्वर गुरु ने पत्रकारिता के शिक्षक की भूमिका भी इन नये लेखको के लिये स्वतः ही अव्यक्त रूप से निभाई. 

‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में पं रामेश्वर गुरू

वर्ष १९४६ में पं. रामेश्वर गुरू जी जबलपुर के प्रतिष्ठित क्राइस्ट चर्च के हाई स्कूल में अध्यापक थे पर साथ ही वे आजीवन एक सजग पत्रकार भी रहे । उनकी पत्रकारिता में भी रचनात्मक गुण थे। अपने लेखन से ‘अमृत बाजार पत्रिका’ दैनिक समाचार पत्र के प्रतिनिधि के रूप में उन्होने जबलपुर की सकारात्मक छबि राष्ट्रीय स्तर पर बनाई. 

प्रहरी के संपादक   

वर्ष १९४७ मे तिवारी जी और गुरू जी के संपादकत्व में ‘प्रहरी’ साप्ताहिक पत्र जबलपुर से निकला। यह तरूण समाजवादियों का पत्र था और प्रखर था। इसी पत्र में परसाई उपनाम से हरिशंकर परसाई जी की  पहली रचना छपी. परसाई जी ने अपने संस्मरण में लिखा है कि प्रहरी के माध्यम से ही  गुरू जी से उनका परिचय हुआ। वे उनके घर जाने लगे। उनके निकट जाने पर परसाई जी को मालूम हुआ कि गुरू जी कितने अध्ययनशील साहित्य प्रेमी और रचनाकार थे। 

प्रहरी’ में वे नियमित लिखते थे। गंभीर भी, आलोचनात्मक भी और व्यंग्यात्मक भी। उनकी भाषा बहुत प्रखर और बहुत जीवंत थी। वे ‘प्रहरी’ में इस प्रतिभा के साथ बहुत धारदार लेख लिखते थे। उनके लेखों में  गहरी संवेदना होती थी। वे गरीबों, शोषितों के पक्षधर थे। इस वर्ग के लोगों पर उनके रेखाचित्र बहुत संवेदनपूर्ण और बहुत मार्मिक है। दूसरी तरफ़ वे सत्ता और उच्चवर्ग की आत्मकेंद्रित जीवन शैली के विरोधी थे। सत्ता चाहें राजनैतिक हो या आर्थिक या साहित्यिक- उस पर वे प्रहार करते थे। घातक प्रव्रत्तियों में लिप्त बड़े व्यक्तियों पर वे बिना किसी डर के बहुत कटु प्रहार करते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का व्यंग काव्य 

 ‘प्रहरी’ में वे व्यंग्य काव्य भी लिखते थे जिसका शीर्षक था- बीवी चिम्पो का पत्र। यह हर अंक में छपता था और लोग इसका इंतजार करते थे। उसी पत्र में ‘राम के मुख से’ कटाक्ष भी वे लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू का बाल साहित्य  

‘प्रहरी’ में एक पृष्ठ बच्चों के लिए होता था। उसे गुरू जी संपादित करते थे और इसमें लिखते भी थे। यह पृष्ठ सुदन और मुल्लू के नाम से जाता था। “सुदन” पं भवानी प्रसाद तिवारी जी का घर का नाम था और “मुल्लू” गुरू जी का। गुरू जी बाल साहित्य में बहुत रूचि लेते थे और उन्होंने बच्चों के लिए नाटक भी लिखे थे। ‘प्रहरी’ की फ़ाइलों में उनका लिखा ढेर सारा बाल साहित्य है, जिसके संकलन तैयार किये जाने चाहिये.

‘वसुधा’ मासिक पत्रिका में सहयोग 

पं. रामेश्वर गुरू का बहुत महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य ‘वसुधा’ मासिक पत्रिका का पौने तीन वर्षों तक प्रकाशन था। इस पत्रिका में सहयोग सबका था, पर ‘वसुधा’ तब बिखरे हुए प्रगतिशील साहित्यकारों की पत्रिका थी।गुरू जी बौद्धिक भी थे और भावुक भी। वे छायावादी युग के थे, मगर छायावादी कविताएं उन्होंने नहीं लिखी। वे दूसरे प्रकार के कवि थे। माखनलाल चतुर्वेदी का प्रभाव उन पर था, पर वह प्रभाव प्यार, मनुहार, राग का नहीं, राष्ट्र्वाद का था। भाषा श्री माखनलाल जी से प्रभावित थी। कवि भवानी प्रसाद मिश्र उनके अभिन्न मित्र थे। कुछ प्रभाव उनका भी रहा होगा। गुरू जी की कविताओं पर न निराला का प्रभाव है, न पंत का। इस मामले में वे सर्वथा स्वतंत्र थे। उनकी कविताओं में देश प्रेम, सुधारवादिता, और जनवादिता है। वे संवेदनशील थे और गरीब शोषित वर्ग के प्रति उनकी स्थाई सहानुभूति थी। वे इस वर्ग के संघर्ष, अभाव और दुख पर कविताएं लिखते थे। वे उदबोधन काव्य भी लिखते थे। तरूणों का, मजदूरों का, संघर्ष और परिवर्तन के लिए आव्हान अपनी कविताओं में वे करते थे। 

उनकी शब्द-सामर्थ्य बहुत थी और वे मुहावरों के धनी  थे। वे बहुत अच्छी बुंदेली जानते थे और उनकी बुंदेली कविताएं बहुत अच्छी है। व्यंग्य काव्य अकसर वे बुंदेली में लिखते थे।

पं. रामेश्वर गुरू  मैदानी कार्यो से भी जनता के प्रतिनिधी पत्रकार 

पं. रामेश्वर गुरू ने जनता के प्रतिनिधी पत्रकार की भूमिका न केवल कलम से वरन अपने मैदानी कार्यो से भी निभाई है.  सुभद्राकुमारी चौहान की प्रतिमा की स्थापना नगर निगम कार्यालय के सामनेवाले लान में उन्होने ही  कराई। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के अभिनंदन में समारोह आयोजित किया। चिकित्सक और राजनीतिज्ञ डा. डिसिल्वा की स्मृति में उन्होंने डिसिल्वा रतन श्री माध्यमिक विद्यालय की  स्थापना कराई। वे जब शहर के मेयर बने, तब महात्मा गांधी और पंडित मदनमोहन मालवीय की आदमकद प्रतिमाओं की स्थापना उन्होने करवाई। अपने मित्र प्रसिद्ध पत्रकार हुकुमचंद नारद की स्मृति में उन्होंने विक्टोरिया अस्पताल में विश्राम-कक्ष भी बनवाया।

इस तरह पं. रामेश्वर गुरू  ने पत्रकारिता के वास्तविक मायने और आदर्श हमारे सामने रखे हैं, जिनके अनुसार पत्रकारिता केवल स्कूप स्टोरी या सनसनी फैलाना नही वरन समाज और लोकतंत्र के चौथे  स्तंभ के रूप में जनहितकारी सशक्त भूमिका का निर्वहन है. 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 89 –विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!– ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीयआलेख  विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!। इस सामयिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 89 ☆

 ? आलेख – विनाश और विकास के मध्य संतुलन !!  ?

आपने कभी सोचा कि हर प्रार्थना का उत्तर नहीं आता है और कई बार भगवान का भेजा हुआ संदेश इंसान समझ नहीं पाता है?? ऐसा क्यों होता है कि – अपनों का साथ बीच में ही छूट जाता है?

आज जो विषम परिस्थितियां बनी हैं। वे पहले भी बन चुकी हैं। एक सृष्टिकर्ता केवल सृष्टि करते जाए तो सोचिए क्या होगा ? वसुंधरा तो पूरी तरह नष्ट हो जाएगी न। इसीलिए विनाश या जिसे प्रलय या नष्ट होना कहा जाता है। इसका होना भी नितांत आवश्यक है।

विनाश और विकास के बीच संतुलन कैसे हो इस पर किसी कवि की सुंदर पंक्तियां हैं….

सब कुछ करता रहता फिर भी मौन है

सब को नचाने वाला आखिर कौन है

आज देखा जाए तो कोई भी ऐसा इंसान नहीं है जिसने अपनों को नहीं खोया है। सारी सृष्टि हाहाकार कर उठी है। विनाश की ज्वाला ने धधक कर लाशों का ढेर बना दिया  और ऐसा विनाश रचा कि मानव मन भी आशंकित है।

किसी को किसी अपनों का कांधा नसीब नहीं हुआ तो किसी को अंतिम दर्शन भी नहीं मिले। यह विडंबना प्रकृति का एक ज्वलंत रूप ही है। आज का दृश्य सदियों बाद याद किया जायेगा। 

आज हम हैं कल हमारी यादें होंगी

जब हम ना होंगे हमारी बातें होंगी

कभी पलटोगे जिंदगी के पन्ने

तब शायद आपकी आंखों में भी बरसात होगी

यह विनाश की कहानी हमारी आने वाली कई पीढ़ियां याद करेगी। प्रकृति का नियम है और गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है…. मां के पेट से और पृथ्वी पर जन्म लेने वाला जो है उसका अंत उसी के चुने हुए कर्मों से होता है। पर विनाश सुनिश्चित है।

हम सब माया मोह के बंधन में भूल जाते हैं मेरा घर, मेरा बेटा, मेरा परिवार और मैं ही सर्वशक्तिमान, उस परम शक्ति को एक किनारे कर देते हैं। इस पर एक सुंदर सी घटना आपको याद दिलाती हूँ। एक राजा अपनी बेटी को बहुत प्यार करता था। सारे जतन कर उसने वरदान प्राप्त किया कि…. जिसे भी वह छुए सब सोना हो जाए। विधाता ने तथास्तु कहकर सब नियंत्रित किया।

राजा की बेटी ने मांगा था कि उसकी मृत्यु अपने पिता के हाथों हो। राजा सब कुछ बड़े ध्यान से छूता। पर क्षण भर में ही वरदान उससे विनाश की ओर ले चला। राज्य का सारा राजपाट हर वस्तु सोने की हो निर्जीव हो गई।

बेटी खेलते खेलते आई राजा परेशान था। बेटी को गले लगाना चाहा पर।  यह क्या बात हुई वह छूते ही सोने की हो गई।

सृष्टि ने राजा को विकास और विनाश की घटना क्षणभर की ही लिखी थी।

ठीक वैसा ही मानव सब कुछ अपने हाथों लेकर आतताई बनने लगा था, परंतु सृष्टि की गतिविधि सभी को अलग-अलग कर नष्ट नहीं कर सकती थी। कहीं तूफान, कहीं जल का भयंकर प्रकोप, कहीं सूखा, तो कहीं कोरोना जैसी महामारी।

समूचा विश्व नष्ट होने की कगार पर था। उसने अपने शक्ति का आभास कराया और कुछ महात्मा जीव के कारण कहीं जीवन दायक हवा बनी, कहीं टीका बना और कहीं जीवन रक्षक दवाइयां, कहीं अच्छी चीजों का आविष्कार हुआ। शक्ति का संतुलन फिर से बनने लगा।

आत्मा कभी मर नहीं सकती, ना जल सकती है, न टूट सकती है, और ना खत्म हो सकती है, आत्मा अमर है।

नैन छिंदन्ती शस्त्राणि, नैन दहति पावकः

न चैनः क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः

बस एक नयी काया कवच से जीवन का फिर से आरंभ होता है। यही प्रकृति की विनाश और विकास की प्रक्रिया है। बिना दर्द के आंसू बहते नहीं है इसीलिए यह वक्त आया जो बहुत कुछ सिखा गया।

संपूर्ण जीवन की परिभाषा विकास विनाश से ही होकर गुजरती है। रेगिस्तान भी हरा हो जाता है।

जब अपने अपनों के साथ खड़े हो जाते हैं।  अब हमें हमारे जो अपने हैं उन्हें फिर से जीवन की आश नहीं छोड़नी चाहिए अपनों को समेट कर नई जिंदगी की शुरुआत करनी चाहिए।

चलिए जिंदगी का जश्न

कुछ इस तरह मनाते हैं

कुछ अच्छा याद रखते हैं

कुछ बुरा भूल जाते हैं

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 97 ☆ जिद्द पेरली ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 97 ☆

☆ जिद्द पेरली ☆

जीवनाच्या मातीमध्ये

जिद्द पेरली मी होती

केले अश्रुंचे सिंचन

कुठे होती सोपी शेती

 

माझ्या सागराच्या तळी

गाळ साठलेला किती

पापण्यांच्या शिंपल्यात

काही पिचलेले मोती

 

घरामध्ये नाही तेल

आणू कुठून मी वाती

तुला ओवळण्यासाठी

फक्त माझ्या दोन ज्योती

 

आला मेघ भेटायला

तहानलेल्या घागरी

सोडा कोरडा विचार

ठोवा पाणी हे भरुनी

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#50 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #50 –  दोहे  ✍

शब्द वहां बेमायने, जहां तीव्र अहसास ।

कितनी भी दूरी रहे, प्रिय लगता है पास।।

 

अनदेखी आत्मा बड़ी, छोटा बहुत शरीर।

 मिलन बिंदु के मध्य में, खींची एक प्राचीर।।

 

बस तन ही माध्यम बना, करें प्रेम अहसास।

 आत्मा को तो मानिए, मरुथल का मधुमास।।

 

सीढ़ी से तुम उतरती, सधे हुए लय ताल।

 एड़ी की आभा रचे, नए इंद्र के जाल।।

 

चाह चाहती चांदनी, मनचाहे मकरंद ।

इन यादों का क्या करूं, रचती शोध प्रबंध।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 49 – जैसे दोहे रहीम के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “जैसे दोहे रहीम के…  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 49 ☆।। अभिनव गीत ।।

☆ जैसे दोहे रहीम के …  ☆

ये पत्ते नीम के

कड़वे लगते

जैसे नुस्खे

हकीम के

 

दुबले पतले

हिलते

लगे, हाथ हैं

मलते

 

भूखे

प्यासे

जैसे बेटे

यतीम के

 

डालडाल

लहराते

टहनी में

गहराते

 

झूमते

मचलते

नशे में

अफीम के

 

हरे भरे

रहते हैं

खरी खरी

कहते हैं

 

जैसे कि

तकाजे

हवा के

मुनीम के

 

झोंके

छतनार कहीं

झुकते

साभार वहीं

 

शाख पर

सजे

जैसे दोहे

रहीम के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-06-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 96 ☆ नकली इंजेक्शन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  ‘नकली इंजेक्शन)  

☆ कविता # 96 ☆ नकली इंजेक्शन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ये कविता उन बहती

लाशों के लिए

जिन्हें बहना था बेहिसाब,

 

ये कविता उस बच्चे

के लिए

जिसके चले गए मां बाप,

 

ये कविता हर

उसके लिए जो

नकली इंजेक्शन के बने शिकार,

 

ये कविता दूषित

सांसों के लिए

जिससे हुए घर बर्बाद,

 

ये कविता जवान

कलयुग के लिए

जो कर रहा है अट्टहास,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #40 ☆ # तुम जुगनू बनके —- # ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है महामारी कोरोना से ग्रसित होने के पश्चात मनोभावों पर आधारित एक अविस्मरणीय भावप्रवण कविता “# तुम जुगनू बनके —- #”) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 40 ☆

☆ # तुम जुगनू बनके —- # ☆ 

तुम जुगनू बनके

मेरे जीवन में आये हो

तम के काले बादलों से

किरण लाये हो

 

पतझड़ में उजड़ गई थी

जो मेरी बगीया

तुम ने सींचा तो

हर फूल में तुम मुस्कुराये हो

 

हर कली तक रही है

कब से राह तुम्हारी

इस उपवन में जबसे तुम

भ्रमर बनकर आये हो

 

हम भी मरन्नासन्न थे

महामारी की लहर में

तुम ही तो दवा पिलाकर

हमें होश में लाये हो

 

ये तपता हुआ तन

ये प्यासा प्यासा मन

तुम रिमझिम फुहार बनकर

ये अगन बुझाये हो

 

कल का क्या भरोसा

रहे ना रहे हम

कुछ पल आंखें मूंद लो

बहुत सताये हो

 

अभी ना करो जिद  

जाने की “श्याम” तुम

मुद्दत के बाद तो

पहलू में आये हो 

 

© श्याम खापर्डे 

11/06/2021

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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