हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “सरेआम ” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी – “सरेआम” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

-भई यह घर आपने बहुत ही सही लोकेशन पर लिया है। इसकी बायीं ओर मार्केट, दायीं ओर मार्केट और बिल्कुल सीधे जाओ तो लोकल बस व ऑटो मिलने के लिए चौक ! बहुत खुशकिस्मत हो आप !

जब हमने मकान खरीदा तब आसपास के लोगों का यही कहना था। वैसे हम इसी मकान में पिछले पांच साल से किराये पर रह रहे थे। तब छत पराई लगती थी, अब अपनी लगने लगी !

शुरू शुरू में हमने भी यह बात महसूस की थी और अब तो लोगों ने इस पर मोहर लगा दी थी।

हम यानी आमतौर पर मैं और बेटी ही बायीं ओर की मार्केट शाम को सब्ज़ी, दूध और दूसरे जरूरी सामान लेने जाते हैं। पत्नी को बाज़ार जाने का कम ही शौक है। वह कहती है कि आप गांव में रहते थे तो आप ही जाइये सब्ज़ियां लेने ! अब पांच साल तो किसी अनजान जगह और शहर में अपनी और दूसरों की पहचान में लग ही जाते हैं और हमारी भी मार्केट वालों से जान पहचान हो गयी। इतना भरोसा तो जीत ही लिया कि यदि भूलवश कमीज़ बदलते समय पैसे डालने रह गये और दुकान पर सामान खरीदने के बाद पता चला तो दुकानदार कहने लगे कि कोई बात नहीं भाई साहब, आप सामान ले जाओ‌ ! आप पर भरोसा है। हमारे पैसे कहीं नहीं जाते ! आ जायेंगे ! यह तो बरसों का भरोसा है और बनते बनते बनता है ! यही नहीं आस पड़ोस भी अब दिन त्योहार पर घर की घंटी बजा कर उसमें शामिल होने का न्यौता देने लगा ! हालांकि पहले पहल हमें पंजाब से होने के चलते रिफ्यूजी तक मानते रहे और यह दंश भी देश के किसी हिस्से में रहने पर झेलना ही पडता है सबको! अपने ही देश में रिफ्यूजी! फिर दिन बीतने के साथ साथ सब हंसने खेलने लगे हमसे!

अब मार्केट में सब्ज़ी की रेहड़ियां शाम के समय खूब लगती हैं, जैसे पूरी सब्ज़ी मंडी ही चलकर इस मार्केट में रेहड़ियों पर लद कर आ गयी हो ! शाम के समय खूब चहल पहल और कितने ही कुछ जाने और कुछ अनजाने चेहरे देखने को मिलते हैं ! पर एक बात मेरी समझ में न आ रही थी कि आखिर शाम के धुंधलके में या अंधेरा छा जाने पर ये रेहड़ी वाले बिजली कहां से लेते हैं? इनकी रेहड़ियां इतनी जगमगाती कैसे हैं?

इसका भी रहस्य खुला सिमसिम की तरह ! एक दिन हम थोड़ा जल्दी ही मार्केट चले गये। क्या देखता हूँ कि एक आदमी हर रेहड़ी वाले से बीस बीस रुपये वसूल कर रहा है, बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में ! जैसे ही बीस रुपये हाथ में आते, रेहड़ी पर रोशनी जगमगाने लग जाती ! यह कैसा जादू है? रेहड़ी वाले गरीब आदमी, मुंह खोलते भी डरते ! क्या करिश्मा है और बिना कनैक्शन बिजली आती कहां से है? वैसे तो एक आम आदमी को इससे क्या लेना देना? अरे आखें बंद कर, कानों में रुई डाल और चुपचाप सामान खरीद और सुरक्षित घर को लौट! वो लिखा रहता है न कि घर कोई आपका इ़तज़ार कर रहा है तो ऐसे में न बायें देख, न दायें, सीधा घर को देख और घर चल ! पर मुझसे रहा नहीं जा रहा था। फिल्मी हीरो तो था नहीं कि उससे भिड़ जाता! बस, अंदर ही अंदर कसमसाता रहता कि आखिर यह हफ्ता वसूली क्यों? वे गरीब, परदेसी रेहड़ी वाले खामोश रुपये देते रहते ! देखते समझते तो और भी होंगे लेकिन वे मस्त लोग थे, सौदा सुल्फ लिया और ये गये और वो गये ! कौन क्या कर रहा है, इससे क्या मतलब?

पता चला कि यह सरेआम बिजली चोरी प्रशासन के ध्यान में आ ही गयी और आखिरकार यह हफ्ता वसूली कुछ दिन रुकी और फिर आठवां आश्चर्य हुआ जब सुनने में आया कि उसी अधिकारी की ट्रांसफर हो गयि, जिसने यह बिजली चोरी रोकी थी ! हैं घोर कलयुग? रेहड़ी वाले राहत की सांस भी न ले पाये कि हफ्ता वसूली फिर शुरू ! सुनने में आया कि जो बिजली कनैक्शन देने आता था, वह तो मोहरा भर था, असली बाॅस तो उस एरिया का बड़ा नेता था ! अब यह बात कितनी सच, कितनी झूठ, हम बीच बाज़ार कुछ नहीं कह सकते भाई ! हमें माफ करो !

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रत्येक शनिवार आप आत्मसात कर सकते हैं यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा)

? यात्रा संस्मरण – गंगा-सागर यात्रा – भाग-१ ☆ श्री सुरेश पटवा ?

(यात्रा जीवन की एकरसता से निजात दिलाकर कुछ रोमांच के क्षण के अवसर उपलब्ध कराती हैं, इसलिए हर किसी को सुहाती हैं। हरेक यात्रा पर्यटन नहीं होती। यात्रा ज़रूरी होती है लेकिन पर्यटन आवश्यक नहीं होता, एक शौक होता है। पहाड़ों और सागरों के पर्यटन के अलावा तीर्थाटन भी पर्यटन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। जिसमें आस्था का पुट भी शामिल होता है। हम पिताजी को चारों धाम यात्रा कराने के पूर्व एकाधिक बार तीर्थ यात्रा कर चुके थे। इस तरह प्रायः सभी प्रमुख तीर्थ स्थान देख चुके थे। अब उन तीर्थ स्थानों को पहुंचना था, जहाँ अब तक जाना न हुआ था।

तीर्थयात्रा में अक्सर आध्यात्मिक महत्व की खोज शामिल होती है। आम तौर पर, यह किसी व्यक्ति की मान्यताओं और आस्था के लिए किसी धार्मिक स्थान की यात्रा होती है, हालांकि कभी-कभी यह किसी व्यक्ति की अपनी मान्यताओं की कुतूहल पूर्वक एक प्रतीकात्मक यात्रा भी हो सकती है। हमारी यात्राएं इसी प्रकार की थीं।)

हमारे पिताजी दोस्तों के साथ 1965 में गंगा सागर तीर्थ भ्रमण करने गए थे। उस समय हमारा मस्ती भरा बचपन चल रहा था। हम जवानी की रौ में रहते थे। वे गंगा सागर घूम कर क्या आए। मन के सितार पर दिन के सारे पहर गंगा सागर राग छेड़े रहते। वे भी हमारे बाप थे, साथियों से डींग मारते बड़ी शान से कहा करते थे- सब तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार।

उनसे जब इसका अर्थ पूछते तो वे कहते थे कि गंगा सागर यात्रा बहुत कठिन है। जब उनको उत्तराखंड चार धाम ले गए तब बोले यार सुरेश ये तो गंगा सागर से भी कठिन है। टैक्सी यात्रा के दौरान वहाँ उनको बार-बार हिल सिकनेस होता था जिससे मितली आती थी। मितली आने से घबराहट भी होती थी। जब हम उनको साथ लेकर अमरनाथ यात्रा करने गए तब बोले यह तो चार धाम से भी कठिन है-

सब तीरथ बार-बार गंगा सागर एक बार,

गंगा सागर दस बार अमरनाथ एक बार।

एक बार बात-बात में पिताजी ने कहा था कि मेरी अस्थि प्रयाग के अलावा गंगा सागर भी ले जाना। यह उनकी भावनात्मक आस्था थी कि उनकी कुछ अस्थियाँ गंगा सागर में तिरोहित की जाएँ। पिताजी का स्वर्गारोहण हुए पाँच साल हो गए। हम अब तक गंगा सागर नहीं जा पाए थे। बात यह नहीं है कि उनकी आस्था का तार्किक आधार क्या है। असल बात है कि उन्हें औलाद से यह अपेक्षा थी। हमने उनके दाह संस्कार के दौरान उनका एक अस्थि अंश सुरक्षित कर रखा था। मन में एक टीस थी। क्या पिताजी की एक आस्थागत इच्छा पूरी नहीं की जा सकती है। गंगा सागर जाने के बारे में एक दो बार सोचा, परंतु कुछ बात बनी नहीं। हमारे मन में वहाँ जाने की बड़ी उत्कंठा थी।

सुबह की सैर पर बहुत से जान पहचान के लोग मिलते रहते हैं। मई 2023 की 07 तारीख़ को सुबह की सैर पर सरकारी प्रशासकीय सेवा से निवृत्त पवन राय मिले। उन्होंने कहा- कहीं घूमने चलते हैं आपके साथ। पहले बात चली कि काशी चलते हैं। लेकिन गर्मी में काशी घूमने का मज़ा नहीं है। वहाँ सावन के महीने में बहार का मौसम होता है, तब वहाँ चलना उपयुक्त होगा। अभी तुरंत चलना है तो कहीं समुद्र के किनारे पर लहरों से खेलने का कार्यक्रम बनाया जाय। हमारी बातचीत की सुई गोवा के समुद्री तटों से होते हुए बंगाल की खाड़ी में गंगा के मुहाने पर आबाद गंगा सागर पर टिक गई। घर पहुँच कर परिवार से चर्चा में यह तय हो गया कि गंगा सागर भ्रमण को जाना चाहिए। पवन भाई को फ़ोन घुमा कर कहा कि भोपाल से कोलकाता का सेकंड एसी का किराया 5,000/- और हवाई उड़ान का 6,000/- है। बातचीत के बाद हवाई जहाज़ पर टिकट की जानकारी लेकर मात्र 6,000/- रुपये प्रति व्यक्ति खर्चे कर भोपाल से कोलकाता वाया हैदराबाद हवाई टिकट बुक कर दीं। इसी दर से वापसी टिकट भी वाया दिल्ली मिल गई।

अब बारी थी, गंगा सागर में तीन दिन रुकने के लिए उपयुक्त होटल। वेस्ट बंगाल टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन की होटल सर्च करके मैनेजर से संपर्क साधने पर पता चला कि कमरा एडवांस बुकिंग पर ही मिलता है। दो दिन का एडवांस किराया 6,000/- रुपये गूगल-पे से भुगतान करके एक वातानुकूलित कमरा बुक कर लिया। अगली बारी कोलकाता एयरपोर्ट से गंगासागर तक तीन दिन के पैकेज पर एक बढ़िया टैक्सी बुक करनी थी। पता चला कि 3,000/- प्रतिदिन के हिसाब से तीन दिन के 9,000/- लगेंगे। यह तय हुआ कि जिस रात नौ बजे कोलकाता एयरपोर्ट पहुँच रहे हैं। वहीं लाउंज पर क्रेडिट कार्ड पर प्राप्त मुफ़्त लाउंज और भोजन की सुविधा का लाभ उठाया जाये। टैक्सी बुकिंग वहीं पहुँच कर देखेंगे। 

एक सहज कौतूहल ने दिमाग़ में खलबली सी मचानी शुरू कर दी कि भैया पिताजी गंगा सागर के इतने दीवाने क्यों थे ? खोजबीन आरम्भ की तो पता चला कि गंगा सागर कोलकाता से 140-150 कि.मी. दूरी पर हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल बंगाल की खाड़ी में सुंदरबन डेल्टा पर स्थित एक द्वीप है। यह अपनी भौगोलिक विशेषता से ज़्यादा अपनी धार्मिक विशेषता के लिए जाना जाता है। अब यह सुंदरबन डेल्टा क्या बला है ?

सुंदरबन भारत तथा बांग्लादेश में स्थित विश्व का सबसे बड़ा नदी डेल्टा है। भारत और बांग्लादेश में फैले बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित कई द्वीपों के समूह से सुंदरबन बनता है। यह गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदियों के समुद्र मिलन पर स्थित है। इसके अलावा यहाँ पर देवा, केवड़ा, तर्मजा, आमलोपी और गोरान वृक्षों की ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो सिर्फ़  सुंदरबन में पाई जाती हैं। यहाँ के वनों की एक ख़ास बात यह है कि यहाँ वही पेड़ पनपते या बच सकते हैं, जो मीठे और खारे पानी के मिश्रण में रह सकते हों। यह डेल्टा धीरे-धीरे सागर की ओर बढ़ रहा है। कुछ समय पहले कोलकाता सागर तट पर ही स्थित था और सागर का विस्तार राजमहल तथा सिलहट तक था, परन्तु अब यह तट से 24-32 किलोमीटर दूर स्थित लगभग 1,80,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है। यहाँ बड़ी तादाद में सुंदरी पेड़ मिलते हैं जिनके नाम पर ही इन वनों का नाम सुंदरवन पड़ा परंतु वन को बंगाली में बन कहते हैं इसलिए सुंदरवन हो गया सुंदरबन।

मन सुंदरबन की सुंदरता को लालायित हो उठा। गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना नदी से मिलकर दुनिया का सबसे बड़ा मुहाना अर्थात् डेल्टा बनाता है। जिसके आधे हिस्से पर बांग्लादेश और आधे पर भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के परगने बसे हैं। सघन वन और सतत बारिश की बूँदों से सिंचित दलदली ज़मीन का हरीतिमा से ढँका हिस्सा सुंदरबन है। यहाँ कोबरा बहुतायत से पाए हैं।

हवाई जहाज़ की टिकट और गंगा सागर में होटल कमरा बुक हो गया। और तो और सौम्या ने भोपाल-हैदराबाद-कोलकाता उड़ान हेतु वेब चेक-इन भी कर दिया। लेकिन एक दिन पहले एक नई दिक़्क़त सामने आ खड़ी हुई। यात्रा की पूर्व संध्या को डॉक्टर मीनू पांडेय “नयन” की पहल पर श्री अर्जुन प्रसाद तिवारी अस्मी जी पुस्तक “मुस्कान के प्रतिबंध” के लोकार्पण कार्यक्रम का संचालन दायित्व लिया हुआ था। कार्यक्रम स्थल दुष्यंत सभागार जाते समय लू लग गई। एक मन हुआ कि भाई आयोजकों से अनुमति लेकर घर पहुँच आराम किया जाय। परंतु फिर विचार आया कि इस कार्यक्रम का क्या होगा ? लिहाज़ा ठंडे पानी की बोतल बुलवाईं और पानी पी-पीकर तीन घंटे का कार्यक्रम संचालित किया। उसके बाद स्थिति ख़राब होना शुरू हुई। कार से घर पहुँचे। तब तक अच्छा ख़ासा एक सौ एक डिग्री बुख़ार चढ़ चुका था। दही-चावल का भोजन किया एक गोली काम्बीफ़्लेम की ली और सोने का उपक्रम करने लगे। घर वाले हमारे कल कोलकाता यात्रा को लेकर बहुत परेशान होने लगे। उन्होंने दबाव बनाना आरंभ किया कि टिकट निरस्त करवा ली जाय। हमने किसी तरह उन्हें समझाया कि हमारी स्थिति ठीक नहीं होगी तो हम कदापि नहीं जाएँगे। लेकिन गंगा सागर के इशारे अरमानों को हवा दे रहे थे। यात्रा के दिन सुबह हमारे डॉक्टर अभिषेक मिश्रा और डॉक्टर संजय पाटकार से सलाह मशविरा किया। उन्होंने कहा कि दिन में दो बार काम्बीफ़्लेम टेबलेट लेते जाओ। सौम्या ने एक बड़ी बोतल में शक्कर-नमक का घोल भर कर रख दिया। चार केले बैग में रख लिए और यात्रा पर निकल लिए। आप यदि घुमंतू तबियत के हैं तो आपकी यात्रा में इस तरह की दिक़्क़तें पेश होतीही  हैं। आपका शरीर साथ दे रहा है तो डॉक्टर की सलाह से यात्रा में आते व्यवधान से मुक्त हुआ जा सकता है। इस तरह की स्थितियों से निपटने के लिए एक और चीज महत्वपूर्ण है, आपकी इच्छाशक्ति।

क्रमशः…

© श्री सुरेश पटवा 

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # १० – लघुकथा – रोशनी ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # १० ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ रोशनी ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

चाँदनी रात भरपूर मुस्कुराहट भी बिखेर नहीं पाई थी कि घनघोर काले बादलों की काली साया ने उसे ढक लिया।

खिलखिलाती हुई रोशनी के होठों की खुशियां अचानक स्तब्ध हो गयीं। पतली पतली बांस की फंठीयों पर चढ़ी हुई प्लास्टिक की पन्नीयाँ फड़फडाती हुई मानो कह रही थी, रोशनी, …अब मैं इससे ज्यादा तुम्हारी हिफाजत नहीं कर सकती। अपनी पूरी बात करने के पहले ही रोशनी के सिर ऊपर पड़ी काली चादर कहां चली गई पता नहीं चला।

फटे दुप्पटे में स्वयं को छुपाए, रोशनी यह नहीं समझ पा रही थी, कि आखिर वह जाए तो जाए कहाँ।

पानी की तेज बौछारें रोशनी को बेइंतहा दर्द दे रही थी।

अचानक आकाश में बिजली तड़की और तड़कती बिजली की रोशनी में एक काली छतरी ओढ़े सुंदर सी काया उसके पास आयी।

अरे, यहां क्या कर रही है रोशनी? चल, घर चल।

अरे भाभी आप.. आप यहाँ कैसे चली आयीं? ऐसी हालत में तो आपको आना ही नहीं चाहिए था.. भाभी।

भाभी… आप भीगती हुई क्यों चली आयीं। आपकी तबीयत खराब हो जाएगी। आपको तो इस वक्त अपनी सेहत का बहुत ही ध्यान रखना चाहिए,

ऐसा कहते हुए रोशनी डल्लू भाभी से चिपट कर रो पड़ी।

तेज हवा और हल्की हल्की बूंदा बांदी के बीच रोशनी को अपनी छतरी में ले डल्लू धीरे धीरे अपने कदम बढ़ा रही थी। डॉक्टर ने उसे इस अवस्था में ऐसे ही चलने की सलाह दी थी।

ऊपरी मंजिल से रोशनी के आशियाने को हर रोज निहारने वाली वाली डल्लू, बड़ी मुश्किल से छत की सीढ़ियों से नीचे उतर पायी थी।

डल्लू भाभी के घर की लाबी में बिछे बिस्तर पर दुबकी रोशनी खुद को लिहाफ से लपेटकर गर्म करने की कोशिश कर रही थी।

डल्लू ने चाय का गर्म गर्म प्याला रोशनी हाथों में पकड़ाया तो वह बोल पड़ी….

अरे भाभी!!..आप मेरे लिए इतना मेहनत कर रही हो?

नहीं भाभी नहीं.. रोशनी के आँखों से आंसू की धारा निकल पड़ी।

अरे मेहनत, ..!! यह क्या बोल रही हो रोशनी, ..मुझे तो तुम एक सींक भी सरकाने नहीं देती मेरी बिटिया रानी। वैसे भी बर्तन पोछा करने के बाद, तेरा काम समाप्त हो जाता है लेकिन रोशनी, … इसके बाद मेरे लिए कोई काम बाकी ही कहाँ छोड़ती हो।

रोशनी!.. तुम अंधेरी रात में जलता हुआ एक खूबसूरत दीया हो, जिसकी रोशनी बहुत दूर तक जाने वाली है।

ऐसा कहते हुए डल्लू ने दोबारा रोशनी को गले लगा लिया। इस बार डल्लू और रोशनी दोनों रो रहे थे।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 162 ☆ गीत – ।। बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 162 ☆

☆ गीत – ।। बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

बुला   रहा   है   सबेरा   कि   सब   साथ-साथ   चलो।

अब नहीं करना है तेरा मेरा कि सब साथ- साथ चलो।।

****

जला सको तो एक दीप जलाओ हम सब के लिए।

हंसा सको तो सबको हंसाओ हम सब के लिए।।

आतंक से लड़ने के लिए भी सब साथ- साथ चलो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

***

मिल कर हम चलेंगे तो ही मंजिल की प्रीत पाएंगे।

साथ – साथ ही लड़ेंगे तो ही हम जीत पाएंगे।।

मिलकर रहे हर एक चेहरा सब साथ- साथ बढ़ो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

****

जोश एकता सहयोग समय की आज बनी मांग है।

आज हर किसीको भूलना होगा मतभेद का स्वांग है।।

लड़ रही फौज सीमा परआप भी साथ-साथ चलो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

****

जान लो देखने को सबेरा जागना बहुत जरूरी है।

जीत लिए कभी नहीं हिम्मत हारना बहुत जरूरी है।।

संकट का समय तो एक ही मंत्र कि साथ-साथ बढ़ो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #227 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – भ्रष्टाचार निवारण… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – भ्रष्टाचार निवारण। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 227

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भ्रष्टाचार निवारण…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मन ही करता है जीवन की हर गति का संचालन

सिर्फ संयमी मन कर सकता नीति नियम का पालन।

यदि मैला है मन तो झूठी सदाचार की बातें

नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण ॥ । ॥

*

उजले कपड़े बड़ी डिगरियाँ और ऊँचा सिंहासन

मन को सही आँक सकने के नहीं सही कोई साधन ।

सबकी समझ सोच होती है अलग-अलग इस जग में

अपवित्र मन ही होता है हर बुराई का कारण ॥ 2 ॥

*

सही दृष्टि से हो न सका स‌दशिक्षा का निर्धारण

 इसीलिये उदण्ड हुआ मन तोड़ रहा अनुशासन ।

संयमहीन व्यक्ति का मन आतंकवाद की जड़ है

जिससे तंग सभी देशों का जग में आज प्रशासन ॥ ३ ॥

*

नीति-नियम कानून कड़े हों , हो निष्पक्ष प्रशासन

इतने भर से संभव कम भ्रष्टाचार-निवारण।

सोच-विचार-आचरण सबके पावन हितकारी

इसके लिये चाहिये मन को पावन शिक्षा-साधन ॥ 4 ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ “कर्ता – करविता…. आधुनिक मेंदूसंशोधन व आपले जीवन” – लेखिका : सुश्री अनिता देशमुख / सुश्री राजश्री क्षीरसागर -परिचय : श्री रमेश पानसे ☆ प्रस्तुती –  श्री हर्षल सुरेश भानुशाली☆

श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “कर्ता – करविता…. आधुनिक मेंदूसंशोधन व आपले जीवन” – लेखिका : सुश्री अनिता देशमुख / सुश्री राजश्री क्षीरसागर –परिचय : श्री रमेश पानसे ☆ प्रस्तुती –  श्री हर्षल सुरेश भानुशाली ☆

पुस्तक :  कर्ता – करविता…. आधुनिक मेंदूसंशोधन व आपले जीवन

लेखिका : सुश्री अनिता देशमुख, सुश्री राजश्री क्षीरसागर.

प्रकाशक : अर्थविज्ञानवर्धिनी 

पृष्ठ:२४२

मूल्य: ५००₹ 

आधुनिक मेंदू संशोधन आणि त्याचा आपल्या जीवनाच्या विविध अंगांशी असलेला, शास्त्रांमध्ये नव्याने प्रस्थापित होत असलेला संबंध दाखवून देण्यासाठी ‘कर्ता-करविता’ या पुस्तकाची रचना केली. या अगदी नवीन अशा विषयाचे स्वागत मराठी वाचकांनी उत्तमरीत्या केले. पहिली आवृत्तीही खूप लवकर संपली. मध्यंतरी बराच काळ हवे असूनही, मागणी करणा-यांना हे पुस्तक उपलब्ध होत नव्हते. यामुळे, भारतीय अर्थविज्ञानवर्धिनीने याची दुसरी आवृत्ती प्रकाशित करण्याचा निर्णय घेतला.

विसाव्या शतकाच्या अखेरचे दशक हे मेदूसंशोधन दशक म्हणून गौरविले गेले आहे. आता तर, मेंदूसंशोधनाचे दशक संपूनही दहा वर्षे होऊन गेली आहेत. या गेल्या दहा वर्षांमध्ये, मेंदूविषयक संशोधन वेगाने पुढे सरकले आहे. मेंदूची रचना आणि मेंदूची कार्ये अधिक खोलवरू न अभ्यासण्याचा प्रयत्न चालला आहे. या अभ्यासांचे निष्कर्ष आणि त्यावर आधारित अशी मानवी जीवनाची आणखी खोलवरचे पदर उलगडणारी भाकिते हा अलीकडच्या काळातील शास्त्रीय वाङ्मयातील वाढता पसारा आहे. मज्जाविषयक संशोधनांनी इतर अनेक सामाजिक शास्त्रांवर आणि त्यांमधील अभ्यासांवर प्रभाव टाकलेला आहे. मेंदू अधिकाधिक उलगडत चालल्यामुळे एका अर्थी माणूसच उलगडत चालला आहे. माणसाचे विचार, माणसाचे वर्तन, माणसाच्या भावना आणि माणसांचे परस्पर सामाजिक संबंध यांच्या संदर्भातील काही कारणमीमांसा मेंदूशास्त्राच्या आधारे करणे शक्य होत आहे. त्यामुळे या दिशेने सामाजिक शास्त्रांमध्ये नवे काही घडू लागले आहे.

या पुस्तकाच्या २००६ साली झालेल्या प्रकाशनानंतर दखल घ्यावी अशी एक गोष्ट शिक्षणाच्या क्षेत्रात घडून येत आहे. एकीकडे मेंदूआधारित शिक्षणाच्या तंत्र-मंत्राचा प्रसार होत असतानाच, शिक्षक घडविणा-या प्रशिक्षण अभ्यासक्रमांमध्ये, आधुनिक मेंदूसंशोधन व त्याचे शैक्षणिक पर्यवसान सांगणा-या अभ्यास घटकाचा समावेश करण्यात आला आहे. शिक्षणाला योग्य दिशेने नेणारीच ही घटना आहे. जिज्ञासू वाचकांप्रमाणेच, या घटनेशी संबंधित असणा-या शिक्षण महाविद्यालयांना, त्यांमधील शिक्षक व विद्यार्थी यांना यामुळेच ‘कर्ता-करविता’ हे पुस्तक अधिक नेमकेपणाने उपयुक्त ठरणारे आहे.

अनुक्रमणिका :

  • आपण आणि आपला मेंदू डॉ. ह. वि सरदेसाई
  • क्रांतिकारक मेंदूसंशोधन : रमेश पानसे

इतिहास व उत्क्रांती

१. मेंदूची उत्क्रांती

२ असा आहे आपला मेंदू

३ व्यक्तिमत्व व जनुकांचे कार्य

जडणघडण

४ गर्भावस्थेतील जडणघडण

५ बालमेंदू संगोपन

६ भाषाशिक्षणाचा उगम

७ बुद्धिवर्धक आहार

विचारनिर्मिती

८ भावनांची निर्मिती

९ हातवारे-हावभाव आणि विचार

१० मूक अभिनयातून भाषेची उत्क्रांती

११ विचारनिर्मिती

१२ होल ब्रेन थिंकिंग

१३ कलानिर्मिती

शिक्षण

१४ बहुविध बुद्धिमत्ता

१५ नादलहरींच्या हिंदोळ्यावर

१६ मेंदूसंशोधन व शिक्षण

जैविक घड्याळाचे केंद्र

१७ जैविक घड्याळ

१८ जनुकीय आजार

१९ चेहरे ओळखण्याचे केंद्र

२० संप्रेरकामुळे येणारे स्थूलत्व

२१ व्यायाम वाढवी मेंदूची कार्यक्षमता

२२ बुद्धिमान पक्षी

जाणिवांच्या शोधात…

२३ जाणिवांचे विज्ञान

२४ जाणिवांचा उगम

२५ ध्यानधारणेतील मेंदूसंशोधन

२६ श्रध्देला मरण का नाही?

कृत्रिम बुद्धिमत्ता

२७ कृत्रिम बुद्धिमत्तेकडे…

२८ ग्लोबल ब्रेन

(अनुक्रमणिकेवरून या पुस्तकाच्या विषयाची व्याप्ती लक्षात यावी म्हणून तिचा समावेश परिचयात केला आहे.)

परिचय : श्री रमेश पानसे

प्रस्तुती : श्री हर्षल सुरेश भानुशाली

पालघर 

मो. 9619800030

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #278 ☆ घर की तलाश… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 278 ☆

☆ घर की तलाश… ☆

एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।

आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?

तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां देखी हैं, जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन। यदि मैं उसे मरघट-सी ख़ामोशी कहूं व चहूंओर पसरा सन्नाटा कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।

आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?

क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो, जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।

अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है;इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं;मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना संभव नहीं है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो!दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सुरक्षित नहीं।

चलो छोड़ो!तुम्हारी तलाश कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।

आओ!हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर- परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। हमें संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें, जहां केवल तेरा ही तेरा का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर मैं से हम बन जाएं, जहां कुछ भी तेरा न मेरा हो।

●●●●

© डा. मुक्ता

30.3.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #51 – नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में

? रचना संसार # 51 – नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

विषधरों को पालते हैं,

जो डुबोते प्रेम -बेड़े।

आह भरती है गरीबी,

और पैसा तन उधेड़े।।

क्षीण होती आस है अब

गाज छाती पर  गिरी है।

प्रेम निष्ठा खो गयी सब,

जेब स्वारथ से घिरी है।।

बह रही तृष्णा हृदय में,

काल के खाकर थपेड़े।

 *

जब चुनावी दौर आता,

सैकड़ो उत्पात होते।

चाल चलते हैं शकुनि- सी,

नित नये है घात होते।।

लालचों के शाल मिलते,

जीत के फिर साथ पेड़े।

 *

कागजी अखबार निशदिन,

खोलते दिन -रात पोलें।

फिर धजी का साँप बनता,

मूक बहरे बोल बोलें।।

किस तरह सागर तरेंगे,

जर्जरित नावों के बेड़े।

 *

चोंच लंबी मौत की है,

रोग करता  देख हमला।

पैंतरा बदला सभी ने,

हो रहा है नित्य घपला।।

आपदा की ये सदी है,

सुत पिता को हैं खदेड़े।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #278 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 278 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घाट घाट पर ढूंढ़ती, राधा अपने श्याम।

पीड़ा अब बढ़ने लगी, कहां छुपे  घनश्याम।

*

कलम आज ये कह रही, समझी तेरी पीर।

जान गए हम आपको, नहीं बहाओ नीर।।

*

कलम ही तो लिख सकती, अपनी पीड़ा यार।

छंद गीत का भाव ही, करता रस संचार।।

*

मधुरिम मधुरिम भाव है, मधुरिम मधुरिम सार ।

परख लिया तुमने मुझे, नमन यही व्यवहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #260 ☆ संतोष के दोहे – नीति ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – नीति आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 260 ☆

संतोष के दोहे – नीति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राष्ट्र धर्म सबसे बड़ा, रखें हमेशा याद ।

मिलेगा संतोष तभी, देश रहे आबाद ।।

*

राष्ट्र द्रोह अपना रहे, यहां विरोधी लोग ।

उन्हें तिरस्कृत कीजिए, कभी न दें सहयोग ।।

*

जीवन भर देता नहीं, यहां न कोई साथ ।

अंत समय में छूटता, सब अपनों का हाथ ।।

*

करे वर्तिका दीप से, बार बार मनुहार ।

अंधेरों को चीरकर, करने दे उजियार ।।

*

विष रखते मन में सदा, मुखड़े पर मुस्कान ।

द्वेष पाल कर हृदय में, बने नेक इंसान ।।

*

जीवन में जब हो समय, अपने ही विपरीत ।

रख कर संयम हृदय में, रखें राम से प्रीति ।।

*

दंभ कभी मत कीजिए, जिसका निश्चित अस्त ।

देखो रावण कंस भी, हुए इसी से पस्त ।।

*

मित्र रखें मत मूढ़ सा, यही घटाते ज्ञान ।

ज्ञानी हो दुश्मन अगर, रखे आपका मान ।।

*

भीड़ साथ लेकर चलें, उसे सुने सरकार ।

आम आदमी की यहां, कौन सुने दरकार ।।

*

नीति वचन संतोष के, मानें जो भी लोग ।

हो हित वर्धन स्वयं ही, बने सुखद संयोग ।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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