हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #5 – व्यंग्य निबंध – व्यंग्य क्या कविता का गद्य स्वरुप हैं? चिंताएं/निराकरण ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

व्यंग्य एक मानवीय प्रक्रिया है. जो संवेदना के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है. यह शुरूआत से ही मानवीय जीवन का अंग रही है. जब भी, जहाँ भी प्रकृति के विपरीत, नियम के विरुद्ध दिखता है. व्यंग्य समाज और मानवीय जीवन में प्रतिरोध कर दे देता है व्यंग्य  से आप सामने वाले को सजग ,सतर्क और सक्रिय कर सकते है.प्राचीन भारत में धर्म ही चेतना का मूल तत्व था.धर्म के आसपास ही राजतंत्र और अन्य व्यवस्था घूमती थी जबकि उस तंत्र में भी अनेक विकृतियां रहती हैं पर अथाह शक्ति के कारण विरोध के स्वर दब जाते थे, आज भी उसका प्रभाव कम नहीं हुआ है.उस समय भी विरोध के स्वर में जन सामान्य को सचेत करने की भावना उद्दीप्त रही हैं, पर आज इसके मध्यवर्गीय रुप में परिवर्तन जरूर आया है. पूर्व  में धर्मांधता राजशाही सामांतवादी प्रवृत्तियां विकृतियां ही व्यंग्य के केंद्र में थी. भारतीय महाद्वीप में साहित्य का माध्यम पद्य था. सभी रचनाएं पद्य में रची जाती थी. व्यंग्य की बुनावट का ताना बाना का माध्यम भी कविता था. सामाजिक विसंगतियों, विडंबनाओं  विकृतियों, कुरीतियों की चर्चा सदा कविता, छंद में की जाती रहीं हैं. इस लिए हमारी भारतीय संस्कृति में जितने भी ग्रंथ मिलते हैं, वे सभी पद्य में मिलते हैं. हमारे आदि ग्रंथ वेद, पुराण, उपवेद, रामायण, रामचरित मानस सभी पद्य में हैं. तब गद्य के स्वरुप का विकास नहीं हुआ था, पद्य ही संचार का माध्यम था .तब भी कवियों के द्वारा सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों को सफलता पूर्वक पद्य में उदघाटित किया जााता रहा हैं. इस सब में कबीर का सबसे बढ़िया उदाहरण है, कबीर ने अपने उस समय में समाज में व्याप्त कुरीतियों, विसंगतियों, धर्मांधता कठमुल्लापन को अपनी कविताओं में विषय बनाया, शायद कबीर के पहले, व्यंग्य का सार्थक उपयोग किसी अन्य कवि ने नहीं किया है, यदि किया भी है, इतनी प्रचुर मात्रा में तीखे तेवर के साथ और प्र्भावी ढंग से नहीं किया है. वे जन जन के मनोमस्तिष्क में अंदर तक धसे है. वे सबको आव्हान करते हुए कहते हैं

कबिरा खड़ा बाजार में, लिये लुकाटी हाथ।

जो घर फूंके आपना, चले  हमारे  साथ।।

अस्पृश्यता और धर्मांडम्बर पर कबीर तल्ख ढंग से कहते हैं

एक बूंद एकै मल-मूतर, एक वाम एक गूदा ।

एक जोतिथै सब उत्पन्ना, को बामन को सूदा ।।

कविता में व्यंग्य का तैवर आज भी नहीं बदला है आधुनिक कवियों ने भी कबीर की तई कविता में व्यंग्य को अपना हथियार बनाया. नारायण सुर्वे की कविता ‘दस्तावेज’का अंश है-

लेकिन क्या कोई बताएगा

             इस सदी में चांद महंगा हुआ था ?

कलकत्ते की सड़कों पर घोड़ा बन कर

              मेरी आत्मा बग्घी खींच रही थी ?

लेकिन इतना काफी है; हमें भी बदल लेने होंगे अब धुंधलाएं चश्मे

हम भी इस सदी में पैदा हुए; हमारा भी पूरा करना होगा हिसाब-किताब

इसी तरह मुक्तिबोध की एक चर्चित कविता है

          मकानों की पीठ पर ।

          अहातों की भीत पर ।

          बरगद की अजगरी डालों के फन्दों पर ।

          अंधेरे के कन्धों पर  ।

          चिपकाता कौन है ? चिपकाता कौन है ?

            हड़ताली पोस्टर……..।’

इसी तरह धर्मांधों पर कवि कुमार विकल की तीखी कविता

             मजहब एक भद्र गोली है

             जो हर धर्मग्रंथ में पाकीजगी के नकाबों में

             छिपी रहती है

             और कभी आरती

             कभी कलमा

             कभी अरदास बनकर

             आम आदमी की प्रतिज्ञाओं में

             घुसपैठ कर जाती है

             ताकि वह इस दुनिया को और गालियां

             बुदबुदाते हुए

             एक नर्कनुमा जिंदगी में रीत जाए ।

व्यंग्य में कविता का स्वतंत्र अस्तित्व रहा है चाहे प्राचीन हिंदी साहित्य हो या आधुनिक हिंदी साहित्य. स्वतंत्रता के बाद प्रमुखतः काका हाथरसी माणिक वर्मा, निर्भय हाथरसी, हुल्लड़ मुरादाबादी का स्मरण किया जाता है. ये सब मूलतः मंचीय कवि थे. इन्होंने सदा मंच के साथ ही साहित्य का भी सम्मान रखा. काका हाथरसी, और हुल्लड़ मुरादाबादी की रचनाओं में हास्य का पुट अधिकता से था. पर माणिक वर्मा की कविता का स्वर व्यंग्य का रहा है. अतः यह कहना ठीक नहीं है या जल्दबाजी होगी कि व्यंग्य, कविता का गद्य स्वरुप है. व्यंग्य का गद्य रुप काफी समय के बाद आया है आधुनिक काल के आरंभ में रुढ़िवादिता के साथ साथ आधुनिकता का मोहपाश भी अपने पैर पसार चुका था. समाज में व्याप्त विद्रूपता की वजह से व्यंंग्य के पोषक तत्वों के कारण व्यंग्यकारों को फलने फूलने का पूरा पूरा अवसर मिला. स्वतंत्रता के पूर्व भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रतापनारायण मिश्र और बालमुकुद गुप्त और उनके समकालीनों ने थोक में व्यंग्य लिखना शुरू किया, वह भी गद्य में. जिन्हें अखबारों में जगह मिली, पाठकों ने खुले मन से स्वीकार किया. उन रचनाओं का केंद्र बिंदु अंग्रेजी शासन की नीतियां और समाज में व्याप्त कुरीतियां, बुराइयां थीं. उस लेखन की नयी शैली थी. अन्यथा यह सब काम कवि और कविता ही करते थे. स्वतंत्रता आंदोलन के उत्तरार्ध हरिशंकर परसाई ने लिखना शुरू किया. पहले उन्होंने कहानियां लिखीं. पर उससे उन्हें संतोष नहीं मिला .फिर उन्होंने लेख लिखे. पाठकों की प्रतिक्रिया प्रोत्साहन करने वाली थीं, पाठक और पत्रिकाओं को उनके लेखों में राजनैतिक और सामाजिक चेतना की चिंगारी की रश्मि दिखी. एक नया तैवर, एक नयी शैली, शब्दों के नये अर्थ दिखे. बस यहीं से व्यंंग्य में गद्य की स्थापना का समय आरंभ हो गया. परसाई जी ने अकाल उत्सव, मातादीन चांद पर, हम बिहार से चुनाव लड़ रहे है. वैष्णव की फिसलन, विकलांग श्रद्धा का दौर आदि सैकड़ों रचनाओं से साहित्य समाज में हलचल मचा दी थी. हिंदी व्यंग्य के बारे में हरिशंकर परसाई का मानना था, ‘सही व्यंग्य व्यापक परिवेश को समझने से आता है ।व्यापक सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक परिवेश की विसंगति, मिथ्याचार, असामंजस्य, अन्याय, आदि की तह में जाना,कारणों का विश्लेषण करना, उन्हें सही परिप्रेक्ष्य मे देखना, इससे सही व्यंंग्य बनता है, जरूरी नहीं, कि व्यंग्य मे हंसी आए. यदि व्यंग्य चेतना को झकझोर देता है।विद्रूप को सामने खड़ा कर देता है आत्म साझात्कार कराता है, सोचने को बाध्य करता है. व्यवस्था की सड़ांध को इंगित करता है. और परिवर्तन की ओर प्रेरित करता है., तो वह सफल व्यंग्य है. जितना व्यापक परिवेश होगा, जितनी गहरी विसंगति होगी और जितनी तिलमिला देने वाली अभिव्यक्ति होगी, व्यंग्य उतना ही सार्थक होगा.उपरोक्त विचार के साथ ही व्यंग्य के गद्य स्वरूप को मजबूत धरातल मिला, गद्य में व्यंग्य के फैलाव का प्रमुख कारण यह है कि जीवन की आपाधापी की कठिन परिस्थितियों के समय, समाज में फैली विद्रूपता, विसंगति,विडम्बना, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, विकृत सामाजिक रुढ़ियां, बुराईयां, विकृत प्रवृतियां,  ठकुरसुहाती, संवेदनहीनता, स्वार्थलोलुपता, आदि को लेखक निर्भीक खुलकर पाठक के सामने लाता है. पाठक यह सब अपने आसपास देखता है. और उसे अपनी ही लगती है. जिससे वह रोज जूझता है. उसे लगता है. किसी को उसकी समस्या से चिंता है. रचना में उसे अपनी मौजूदगी दिखती है. इससे व्यंंग्य  को पसंद करता है. और पसंद  करता है व्यंग्य के गद्य फार्म को. क्योंकि उसे इस फार्म में पढ़ने और समझने में आसानी होती है.समय को व्यंंग्य ने पहचानाा,और पाठक ने व्यंग्य को हाथों हाथ लियाा. उस समय परसाई के साथ साथ व्यंग्य को केंद्र में रख कर सामाजिक राजनीतिक, विकृतियों को उघाड़ने का काम शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, नरेन्द्र कोहली, श्रीलाल शुक्ल, के पी सक्सेना, सूर्यबाला, शंकर पुण्ताम्बेकर, लतीफ घोंघी, अजातशत्रु लक्ष्मीकांत वैष्णव, श्रीबाल पाण्डेय आदि ने बखूबी किया. और व्यंग्य को गद्य के स्वरुप में स्थापित किया और व्यंग्य  कविता के साथ साथ गद्य के अस्तित्व के में आ चुका था.इसके बाद व्यंग्य के इस रुप ने पाठक और लेखकों को आकर्षित किया . आज गद्य मे व्यंग्य का स्वरुप अधिक मुखर है, और पद्य में अलग उपस्थिति दर्ज करा है. ऐसा कहना ठीक नहीं होगा. कि व्यंग्य कविता का गद्य रूप है. पहले साहित्य और विचार का माध्यम ही कविता था, परअब स्थिति बदल चुकी है. आज व्यंग्य गद्य और पद्य दोनों में स्वतंत्र रूप से प्रभावी है वे एक दूसरे पर अवलम्बित नहीं है.

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆

अपनों से जा दूर बसने में कई मजबूरियां हैं

समय के संग मन को कई बदलाव देती दूरियां है

कब क्या  बदलाव होगा बता पाना तो कठिन है

पर नए परिवेश में बदलाव की कमजोरियां हैं

 

शुरू में बदलाव तो लगता सभी को है सुहाना

जानता कोई नहीं कल आयेगा कैसा जमाना

खुद के भी बदलाव को कोई समझ पाता कहां है

समय की धारा में मिल बहना जगत ने धर्म माना

 

दूरदर्शी सोच कि संसार में कीमत बड़ी है

क्योंकि नियमित समय से बदलाव की आती घड़ी है

आज जो दिखता जहां है कल कभी मिलता कहां वह

इसलिये नए निर्णयों में उचित नहीं कोई हड़बड़ी है

 

परिस्थितियों साथ नित बनता बिगड़ता विश्व सारा

जरूरी इससे बहुत सद्बुद्धि का शाश्वत सहारा

सदा रहते हरे ऊंचे वृक्ष जिनकी जड़ें गहरी

बहा ले जाती समय की नदी अपना ही किनारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…4”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” की यात्रा का पथिक राग-द्वेष का पहला पड़ाव पार करने के बाद दूसरे पड़ाव की यात्रा शुरू करता है। वह स्मृतियों के बियाबान में प्रवेश करता है और पाता है कि जब “मैं” कौशोर्य अवस्था पर था तब उसे बताया गया कि वह रंग, देह, जाति, नस्ल, बुद्धि, सामर्थ और धन में दूसरों से श्रेष्ठ है। वहीं से “मैं” के ऊपर सच्ची झूठी प्रशंसा का लेप चढ़ाया जाने लगा। उसके चारों तरफ़ श्रेष्ठता रूपी ईंटों की दीवार खड़ी कर पलस्तर चढ़ा कर रंग रोगन से पक्का कर दिया। उसका मौलिक स्वरुप उसे ही दिखना बंद हो गया।

“मैं” जब भी दुनिया से मिलता-जुलता, लड़ता-झगड़ता “मैं” के ऊपर का अहंकार भाव का कड़क आवरण न सिर्फ़ उसकी रक्षा करता अपितु जीतने में उसकी भरपूर मदद भी करता। उसे विश्वास होने लगता कि उसका अहंकार ही मौलिक “मैं” है, वह पूरी तरह बदल चुका है। सफलता दर सफलता उसका मन पूरी तरह अहंकार के खोल में पैबंद हो गया है। पथिक की राह में यह दूसरी बड़ी बाधा है।

जब  “मैं” को बचपन में बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, और इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है, तो यहीं से अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव तथा अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड है, और क्रोध उसका उच्छ्वास है।” 

अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर अहंकार भाव तिरोहित होना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती है।

“मैं” निर्माण से निर्वाण की यात्रा में कई सोपान तय करता है। “मैं” को दुनियादारी से निभाव के लिए समुचित मात्रा में अहंकार की ज़रूरत होती है। एक बार निर्माण पूरा हो गया फिर अहंकार की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है। अहंकार की प्रवृत्ति जूझने की है। वह धन, यश, मोह में जकड़ा अपनो के लिए दूसरों से लड़ता है। जब लड़ने को कोई पराया नहीं मिलता तो अपनो से लड़ता है। दुनियावी उपलब्धियों का संघर्ष समाप्त होते ही अहंकार “मैं” को ही प्रताड़ित करने लगता है।   

एक ओर हम राम के विवेकसम्मत परिमित अहंकार को देखते हैं जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम  सकोप तब,  भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ हम रावण के अविवेकी अपरिमित अहंकार को पाते हैं, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। दूसरों से लड़ता उसका अहंकार  स्वयं के नज़दीकी रिश्तेदारों से लड़ने लगता है। फिर उसकी लड़ाई ख़ुद की ज़िद से शुरू होती है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में यश, धन, यौवन, जीवन; सबकुछ हर लेते हैं।’

अहंकार “मैं” के पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर है जो उसे टस से मस नहीं होने देती। कर्ता का अहंकार छोड़े बग़ैर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे नहीं बढ़ सकता।

“आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया, फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक़ सम्मत है? यदि “मैं” को अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया या आत्म चिंतन द्वारा मन से बाहर निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।”

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #61 – अपना दीपक स्वयं बनें  ☆ श्री आशीष कुमार

एक गांव मे अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहाँ एक सुन्दर बेटा पैदा हुआ जो अंधा नही था।

एक बार पत्नी रोटी बना रही थी उस समय बिल्ली रसोई मे घुस कर बनाई रोटियां खा गई।

बिल्ली की रसोई मे आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पङा।

एक दिन किसी प्रकार से मालूम पङा कि रोटियां बिल्ली खा जाती है।

अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता।

इससे बिल्ली का आना बंद हो गया।

जब लङका बङा हुआ ओर शादी हुई।  बहू जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट फट करने लगा।

कई  दिन बीत जाने के बाद पत्नी ने उससे पूछा  कि तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो?

पति ने जवाब दिया कि – ये हमारे घर की परम्परा है इसलिए मैं रोज ऐसा कर रहा हूँ ।

माँ बाप अंधे थे बिल्ली को देख नही पाते उनकी मजबूरी थी इसलिये फटका लगाते थे। बेटा तो आँख का अंधा नही था पर अकल का अंधा था। इसलिये वह भी ऐसा करता जैसा माँ बाप करते थे।

ऐसी ही दशा आज के समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था इसलिए पाखंडवादी लोग जिनका स्वयं का भला हो रहा था उनके पाखंडवादी मूल्यों को माना औऱ अपनाया। जिनके पीछे किसी प्रकार का कोई  लौजिक या तर्क नही है। लेकिन आज के पढे लिखे हम वही पाखंडता भरी परम्पराओं व रूढी वादिता के वशीभूत हो कर जीवन जी रहे हैं।

इसलिये सबसे पहले समझो ,जानो ओर तब मानो तो समाज मे परिवर्तन होगा ।

“अपना दीपक स्वयं बनें”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 75 –  हा मार्ग संकटांचा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 75 –  हा मार्ग संकटांचा 

हा मार्ग संकटांचा, अंधार दाटलेला।

शोधू कसा निवारा, जगी दंभ दाटलेला।धृ।।

 

हे मोहपाश सारे, अन् बंध भावानांचे।

मी दाखवू कुणाला, आभास वेदनांचे।

प्रेमात ही आताशा , हा स्वार्थ  साठलेला।।१।।

 

लाखोत लागे बोली,व्यापार दो जिवांचा।

हुंड्या पुढे अडावा, घोडा तो भावनांचा ।

आवाज प्रेमिकांचा, नात्यात गोठलेला।।२।।

 

ही लागता चाहूल , अंकूर बालिकेचा।

सासूच भासते का , अवतार कालिकेचा।

खुडण्यास कळीला , हा बाप पेटलेला।।३।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ पितृपक्ष …भाग 3 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

? जीवनरंग ❤️

☆ पितृपक्ष  …भाग 3 ☆ श्री उदय गोपीनाथ पोवळे 

( जे वातावरण कर्णिक वकीलांनी मृत्युपत्र वाचल्यावर बदलले होते ते पूर्ववत हसते खिदळते झाले)  इथून पुढे —-

जे काही आपण करतोय ते तात्यांच्या मनाविरूद्ध होत आहे हे  संदेशला कळत होते. तात्यांनी  सांगितले होते लग्न कर.  पण  ते आता तरी पन्नाशीच्या उंबरठ्यावर उभा असलेल्या संदेशला योग्य वाटत नव्हते, नाही त्याला ते पटतच नव्हते. आत्ता तात्या गेले. आता जरा उसंत घेऊन त्याला स्वतःचे आयुष्य जगायचे होते. तात्या असताना त्याचा दिवस रात्र तात्यांसाठीच जात होता. आता कुठच्याही बंधनात संदेशला अडकायचे नव्हते. तसा  त्याचा आयुष्याकडे बघायचा  दृष्टीकोन वेगळा आहे. त्याला त्याच्या आयुष्याच्या कॅनव्हासवर रंगांची उधळण करायचीच नाही. त्याला फक्त नी फक्त निसर्गाच्या जवळ जायचे आहे– ते पण एकटे. कोणाच्याही साथी शिवाय. तो आणि निसर्ग , बस अजून कोणीही त्याला नको आहे. आता हे सगळे शक्य आहे.  पण त्यासाठी तात्या गेल्यावरही  त्यांचे मन मोडायला लागणार होते आणि त्याचाच त्याला त्रास होत होता. 

अशातच आता पितृपक्ष आला आणि तात्यांच्या तिथीला जेवणाचे ताट ठेवायची वेळ परत आली. आज ही तेराव्याला घडले तेच घडत होते. पानातील प्रत्येक पदार्थ तात्यांना आवडणारा ठेवला होता तरीही कावळे काही पानाला शिवत नव्हते. 

——-” काव, काव …….,काव, काव,काव ” संदेश कावळ्यांना बोलावून कंटाळला होता. आजूबाजूला कावळे दिसत होते पण पानाजवळ काही येत नव्हते. ह्याचा आत्ताच सोक्षमोक्ष लावायचा असं ठरवून संदेश ठेवलेल्या पानाच्या जवळ गेला. डोळे मिटले आणि संदेशने मनातून तात्यांचा स्मरण केले आणि मनातच बोलायला लागला, नाही जरा अधिकारवाणीनेच बोलायला लागला. ” तात्या, ज्या दिवशी तुम्ही माझ्या लग्नाविषयी बोललात तेंव्हाच मी तुम्हांला सांगितले होते की  ते शक्य नाही. तुम्ही जोपर्यंत होतात तो पर्यंत तुमच्या सगळ्या इच्छा मी पुऱ्या केल्या. तुम्हाला काही कमी पडू नये ह्या साठी मी कायम प्रयत्नशील असायचो. माझे ऐन उमेदीतले दिवस मी तुमच्यासाठी, तुम्हाला काही कमी पडू नये म्हणून दिले.  तुमच्या आजारपणात तुमच्या सोबतीने काढले. तुमचा मुलगा म्हणून ते माझे कर्तव्यच होते आणि तुम्ही जिवंत असेपर्यंत मी ते व्यवस्थित निभावले.  पण आता तुम्ही गेल्यावरही  माझ्या आयुष्याला कलाटणी देण्यासाठी असे अडून राहिला असाल तर ते शक्य नाही.  मी तुमचं ऐकणार नाही. तुम्ही जिवंत असेपर्यंत तुमच्या प्रत्येक भावनांचा, तुमच्या विचारांचा मी मान राखला.  पण आता ते शक्य नाही. मी लग्न करणार नाही. अजून एक गोष्ट– प्रॉपर्टीची. माझ्यासारख्या एकट्या माणसाला तुमच्या सगळ्या फिक्स डिपॉझिट आणि नावावरच्या जागेची खरंच गरज नाही. त्यापेक्षा मला माझ्या बहीण -भावांबरोबर असलेले संबंध चांगले ठेवण्यात इंटरेस्ट आहे. अपेक्षा, गैरसमज, अहंकार, तुलना आणि मुख्यतः पैसा, यामुळे आमची नाती बिघडू शकतात. तात्या मला आता आनंदी राहायचं आहे. स्वार्थ आणि मोठेपणा सोडून मला फक्त नी फक्त आनंद द्यायचा आहे आणि आनंद घ्यायचा आहे. ह्यासाठी तुमचे मन मोडले तरी चालेल. आता मी  तुमचे ऐकणार नाही. आत्ता जर ठेवलेल्या पानाला कावळा शिवला नाही, तर ह्यापुढे कधीही तुमच्या तिथीला मी तुमच्यासाठी पान ठेवणार नाही. मला क्षमा करा. जमल्यास मला माफ करा. “

——-एवढे बोलून संदेश मागे फिरला. दहा पावलं चालून गच्चीच्या दरवाज्यापर्यंत पोहचला. गच्चीतून तो खाली पायऱ्या उतरणार तेवढ्यात त्याने मागे वळून बघितले. कावळा ठेवलेल्या पानाला शिवला होता. कावळ्याच्या चोचीत जिलेबी होती. तात्यांनी संदेशला माफ केले होते. संदेश खुश झाला होता—–आता दरवर्षी पितृपक्षात संदेशला तात्यांसाठी पान ठेवायला लागणार होते.

समाप्त

© श्री उदय गोपीनाथ पोवळे

ठाणे

मोबा. ९८९२९५७००५ 

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 102 ☆ उपहार व सम्मान ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख उपहार व सम्मान। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 102 ☆

☆ उपहार व सम्मान ☆

किसी को प्रेम देना सबसे बड़ा उपहार है और किसी का प्रेम पाना सबसे बड़ा सम्मान है। उपहार व सम्मान दोनों स्थितियां प्रसन्नता प्रदान करती हैं। जब आप किसी के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हैं, तो उसके लिए वह सबसे बड़ा उपहार होता है और जब कोई आपका हृदय से सम्मान करता है; आप के प्रति प्रेम भाव प्रदर्शित करता है, तो इससे बड़ी खुशी आपके लिए हो नहीं सकती। शायद इसीलिए कहा जाता है कि एक हाथ दे और दूसरे हाथ ले। जिंदगी देने और लेने का सिलसिला है। आजकल तो सारा कार्य-व्यवहार इसी पर आश्रित है। हर मांगलिक अवसर पर भी हम किसी को उपहार देने से पहले देखते हैं कि उसने हमें अमुक अवसर पर क्या दिया था? वैसे अर्थशास्त्र में इसे बार्टर सिस्टम कहा जाता है। इसके अंतर्गत आप एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु प्राप्त कर सकते हैं।

वास्तव में उपहार पाने पर वह खुशी नहीं मिलती; जो हमें सम्मान पाने पर मिलती है। हां शर्त यह है कि वह सम्मान हमें हृदय से दिया जाए। वैसे चेहरा मन आईना होता है, जो कभी  झूठ नहीं बोलता। यह हमारे हृदय के भावों को व्यक्त करने का माध्यम है। इसमें जो जैसा है, वैसा ही नज़र आता है। एक फिल्म के गीत की यह पंक्तियां ‘तोरा मन दर्पण कहलाय/ भले-बुरे सारे कर्मण को देखे और दिखाय’ इसी भाव को उजागर करती हैं। इसलिए कहा जाता है कि ‘जहां तुम हो/ वहां तुम्हें सब प्यार करें/ और जहां से तुम चले जाओ/ वहां सब तुम्हें याद करें/ जहां तुम पहुंचने वाले हो/ वहां सब तुम्हारा इंतज़ार करें’ से सिद्ध होता है कि इंसान के पहुंचने से पहले उसका आचार-व्यवहार व व्यक्ति की बुराइयां व खूबियां पहुंच जाती हैं। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘तुम्हारी ज़िंदगी में होने वाली हर चीज के लिए ज़िम्मेदार तुम स्वयं हो। इस बात को तुम जितनी जल्दी मान लोगे; ज़िंदगी उतनी बेहतर हो जाएगी।’ सो! दूसरों को अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी ठहराना मूर्खता है,आत्म-प्रवंचना है। ‘जैसे कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान’ तथा ‘बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय’ पंक्तियां सीधा हाँट करती हैं।

धरती क्षमाशील है; सबको देती है और भीषण आपदाओं को सहन करती है। वृक्ष सदैव शीतल छाया देते हैं। यदि कोई उन्हें पत्थर मारता है, तो भी वे उसे मीठे फल देते हैं। नदियां पापियों के पाप धोती हैं; निरंतर गतिशील रहती हैं तथा शीतल जल प्रदान करती हैं। बादल जल बरसाते हैं; धरती की प्यास बुझाते हैं। सागर असंख्य मोती व मणियां लुटाता है। पर्वत हमारी सीमाओं की रक्षा करते हैं। सो! वे सब देने में विश्वास रखते हैं; तभी उन्हें सम्मान प्राप्त होता है और वे श्रद्धेय व पूजनीय हो जाते हैं। ईश्वर सबकी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं और बदले में कोई अपेक्षा नहीं करते। परंतु बाबरा इंसान वहां भी सौदेबाज़ी करता है। यदि मेरा अमुक कार्य संपन्न हो जाए, तो मैं इतने का प्रसाद चढ़ाऊंगा; तुम्हारे दर्शनार्थ आऊंगा। आश्चर्य होता है, यह सोच कर कि सृष्टि-नियंंता को भी किसी से कोई दरक़ार हो सकती है। इसलिए जो भी दें, सम्मान-पूर्वक दें; भीख समझ कर नहीं। बच्चे को भी यदि ‘आप’ कह कर पुकारेंगे, तो ही वह आप शब्द का प्रयोग करेगा। यदि आप उस पर क्रोध करेंगे, तो वह आपसे दूर भागेगा। इसलिए कहा जाता है कि आप दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप उनसे करते हैं, क्योंकि जो आप देते हैं; वही लौट कर आपके पास आता है।

‘नफ़रतों के शहर में/ चालाकियों के डेरे हैं/ यहां वे लोग रहते हैं/ जो तेरे मुख पर तेरे/ मेरे मुख पर मेरे हैं।’ सो! ऐसे लोगों से सावधान रहें, क्योंकि वे पीठ में छुरा घोंकने में तनिक भी देर नहीं लगाते। वे आपके सामने तो आप की प्रशंसा करते हैं और आपके पीछे चटखारे लेकर बुराई करते हैं। ऐसे लोगों को कबीरदास जी ने अपने आंगन में अर्थात् अपने पास रखने की सीख दी है, क्योंकि वे आपके सच्चे हितैषी होते हैं। आपके दोष ढूंढने में अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। सो! आपको इनका शुक्रगुज़ार  होना चाहिए। शायद! इसलिए कहा गया है कि ‘दिल के साथ रहोगे; तो कम ही लोगों के खास रहोगे।’ वैसे तो ‘दुनियादारी सिखा देती है मक्करियां/  वरना पैदा तो हर इंसान साफ दिल से होता है।’ इसलिए ‘यह मत सोचो कि लोग क्या सोचेंगे/ यह भी हम सोचेंगे/ तो लोग क्या सोचेंगे।’ इसलिए ऐसे लोगों की परवाह मत करो; निरंतर सत्कर्म करते रहो।

प्रेम सृष्टि का सार है। हमें एक-दूसरे के निकट लाता है तथा समझने की शक्ति प्रदान करता है। प्रेम से हम संपूर्ण प्रकृति व जीव-जगत् को वश में कर सकते हैं। प्रेम पाना संसार में सबसे बड़ा सम्मान है। परंतु यह प्रतिदान रूप में ही प्राप्त होता है। यह त्याग का दूसरा रूप है। इस संसार में अगली सांस लेने के निमित्त पहली सांस को छोड़ना पड़ता है। इसलिए मोह-माया के बंधनों से दूर रहो; अपने व्यवहार से उनके दिलों में जगह बनाओ। सबके प्रति स्नेह, प्रेम, सौहार्द व त्याग का भाव रखो; सब तुम्हें अपना समझेंगे और सम्मान करेंगे। सो! आपका व्यवहार दूसरों के प्रति मधुर होना आवश्यक है।

ज़िंदगी को अगर क़ामयाब बनाना है तो याद रखें/ पांव भले फिसल जाए/ ज़ुबान कभी फिसलने मत देना, क्योंकि वाणी के घाव कभी नहीं भरते और दिलों में ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं, जिनका भरना संभव नहीं होता। यह बड़े-बड़े महायुद्धों का कारण बन जाती हैं। वैसे भी लड़ने की ताकत तो सबके पास होती है; किसी को जीत पसंद होती है’ तो किसी को संबंध। वैसे भी ताकत की ज़रूरत तब पड़ती है, जब किसी का बुरा करना हो, वरना दुनिया में सब कुछ पाने के लिए प्रेम ही काफी है। प्रेम वह संजीवनी है, जिसके द्वारा हम संबंधों को प्रगाढ़ व शाश्वत् बना सकते हैं। इसलिए किसी के बारे में सुनी हुई बात पर विश्वास ना करें; केवल आंखिन-देखी पर भरोसा रखें, वरना आप सच्चे दोस्त को खो देंगे।

‘ज़िंदगी भर सुख कमा कर/ दरवाज़े से घर लाने की कोशिश करते रहे/ पता ही ना चला/ कब खिड़कियों से उम्र निकल गई।’ मानव आजीवन  सुक़ून की तलाश में भटकता रहता है। उसे सुख-ऐश्वर्य व भौतिक-सम्पदा तो प्राप्त हो जाती है, परंतु शांति नहीं। इसलिए मानव को असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगाने की सीख दीजाती है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है, वरना एक शब्द के कई-कई अर्थ निकलने लगते हैं। मौन वह संजीवनी है, जिससे बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है। इसलिए कहा जाता है कि छोटी-छोटी बातों को बड़ा ना किया करें/ उससे ज़िंदगी छोटी हो जाती है। इसलिए गुस्से के वक्त रुक जाना/ फिर पाना जीवन में/ सरलता और आनंद/ आनंद ही आनंद’ श्रेयस्कर है। सो! अनुमान ग़लत हो सकता है; अनुभव नहीं, क्योंकि अनुमान हमारे मन की कल्पना है; अनुभव जीवन की सीख है। परिस्थिति की पाठशाला ही मानव को वास्तविक शिक्षा देती है। कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं, जो किस्मत बदल देते हैं। सुख व्यक्ति के अहंकार की परीक्षा लेता है और दु:ख धैर्य की। दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण व्यक्ति का जीवन सफल होता है और उसे ही जीवन में सम्मान मिलता है, जो अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियों से बच कर रहता है। वास्तव में यह दोनों स्थितियां ही भयावह हैं, जो हमारी उन्नति में अवरोधक का कार्य करती हैं। उपहार पाने पर क्षणिक सुख प्राप्त होता है और सम्मान पाने पर जिस सुख की प्राप्ति होती है, वह मधुर स्मृतियों के रूप में सदैव हमारे साथ रहती हैं। सो! सदैव अच्छे लोगों की संगति करें, क्योंकि वे आपकी अनुपस्थिति में भी आप के पक्षधर बनकर खड़े रहते हैं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 54 ☆ आज उपेक्षित होते बुजुर्ग ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख  आज उपेक्षित होते बुजुर्ग”.)

☆ किसलय की कलम से # 54 ☆

☆ आज उपेक्षित होते बुजुर्ग ☆

एक समय था जब बुजुर्गों को वट वृक्ष की संज्ञा दी जाती थी, क्योंकि जिस तरह वटवृक्ष अपनी विशालता और छाया के लिए जाने जाते हैं, उससे कहीं अधिक बुजुर्गों में विशालता और अपने बच्चों को खुशियों रूपी शीतल छाया देने हेतु याद किया जाता था। आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। बच्चे बड़े होते ही अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। ऊपर से एकल परिवार की व्यवस्थाओं में आजा-आजी की छोड़िए वे अपने माँ-बाप को भी वांछित सम्मान नहीं देते। जिन्होंने अपनी औलाद को जी-जान से चाहकर अपना निवाला भी उन्हें खिलाया वही कृतघ्न संतानें माँ-बाप को बुढ़ापे में घर से दूर वृद्धाश्रम में छोड़ आती हैं। इन माता-पिताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन पर उन्होंने अपना सर्वस्व लुटाया वही संतानें उन्हें बेसहारा कर देंगी। ऐसे वाकये और हकीकत जानकर अन्य बुजुर्गों के दिलों पर क्या बीती होगी। आधा खून तो वैसे ही सूख जाता होगा कि कहीं उनकी संतानें भी उन्हें इसी तरह अकेला न छोड़ दें।

लोग शादी करके बच्चे मनोरंजन के लिए पैदा नहीं करते। हमारे धर्म व हमारी परंपराओं के अनुसार अपना उत्तराधिकार, अपनी धन-संपत्ति का अधिकार भी संतानों को स्वतः स्थानांतरित हो जाता है। भारतीय वंश परंपरा की भी यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वंश को आगे बढ़ाने वाला ही श्रेष्ठ कहलाता है, अन्यथा उसे निर्वंशी कहा जाता है। आशय यही है कि अपनी संतानों के लालन-पोषण और शादी-ब्याह का पूरा उत्तरदायित्व माँ-बाप का ही होता है, लेकिन जब वही संतान उन्हें दुख देती हैं, उन्हें उपेक्षित छोड़ती हैं तो उनका दुखी होना स्वाभाविक है।

आज के परिवेश में बुजुर्गों की आधुनिक तकनीकि की अनभिज्ञता के चलते संतानें अपने माँ-बाप को पिछड़ेपन की श्रेणी में गिनने लगे हैं, जबकि हमारे यहाँ श्रेष्ठता के मानक भिन्न रहे हैं। भारत में धर्म परायणता, शिष्टाचार, सत्यता, मृदुव्यवहार एवं परोपकारिता जैसे गुणों की बदौलत इंसान को देवतुल्य तक कहा जाता था। क्या नई तकनीकि आपके व्यवहार में उक्त गुण लाती है, कदापि नहीं। ये गुण आते हैं संस्कारों से, अच्छी शिक्षा से, लेकिन आजकल ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। अब तो लोगों को मात्र डिग्री चाहिए और डिग्री के बल पर नौकरी। बस इनसे जिंदगी चलने लगती है। भाड़ में जाएँ माँ-बाप। वे तो अपनी बीवी को लेकर महानगरों में चले जाते हैं या फिर विदेश में जाकर बस जाते हैं।

आज जब उनकी संतानें व  उनके इक्कीसवीं सदी के उनके पोते-पोतियाँ उनसे बात नहीं करते। उनकी सेवा-शुश्रूषा छोड़िये उनका कहा तक कोई नहीं सुनता, ऊपर से उनकी अपनी संतानें भी उनका ही पक्ष लेती हैं। उनके स्वयं के बेटे उनको मुँह बंद करने पर विवश करते हैं, तब एक अच्छा-भला, अनुभव वाला इंसान उपेक्षित महसूस नहीं करेगा तो और क्या करेगा भी क्या। तब उनके पास केवल दो ही विकल्प बचते हैं। पहला या तो ‘मन मार कर जियो’ या फिर दूसरा ‘कहीं डूब मरो’।

अभी मानवता मरती जा रही है। कल जब  वक्त बदलेगा तब इन्हीं वट वृक्षों के तले उन्हें आना पड़ेगा और उनके सदुपदेशों के अनुसार स्वयमेव चलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वह दिन भी दूर नहीं है जब इस तथाकथित आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति का भूत हम भारतीयों के सिर से उतरेगा, तभी भारत की यथार्थ में सुनहरी सुबह होगी।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 101 ☆ नवरात्रि पर्व विशेष – भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 101 – साहित्य निकुंज ☆

☆ नवरात्रि पर्व विशेष – भावना के दोहे ☆

 

मण्डप देखो सज गया, कलश स्थापना आज।

देवी का पूजन करो,  बनते    बिगड़े    काज।।

 

अदभुत प्रथम  स्वरूप है, शैल सुता का रूप ।

करते  हैं   आराधना,     देवी    बड़ी    अनूप।।

 

आए दिन नवरात्रि के, बना  आगमन    खास।

श्रद्धा से सब   पूजते,   पूरी    होती     आस।

 

मंगलमय उत्सव यही,   गाए मंगल   गान।

नौ देवी जो   पूजते,    हो जाता   कल्याण।।

 

जग जननी, जगदंबिका, नौ देवी अवतार।

आदिशक्ति वरदायनी,    पूजें    बारंबार।।

 

शक्ति स्वरूपा मातु श्री, करती है   उद्धार।

विनती करने आ गए, माता  के    दरबार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 90 ☆ माँ के चरणों में भगवान  ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “माँ के चरणों में भगवान । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 90 ☆

☆ माँ के चरणों में भगवान ☆

माँ की महिमा बड़ी महान

माँ के चरणों में भगवान

 

आँखों में जब नींद न आती

लोरी गाकर हमें सुलाती

थप-थपाती प्यार से सिर को

देकर मधुर सुरीली तान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

संकट में वह साहस देती

नजर उतार बलैयां लेती

मुश्किलों के आगे भी वह

खड़ी रहे जो सीना तान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

मंज़िल की माँ राह दिखाती

संस्कार अच्छे सिखलाती

परिवार की जननी बन कर

करे सदा सबका कल्यान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

कहाँ हैं अब आँख के तारे

माँ  के  थे  जो  राजदुलारे

भूल गए वो अब यौवन में

अपनी माँ का भी सम्मान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

घर में जब होता बंटवारा

माँ का दिल रोता बेचारा

अपनी ही खुशी में सारे

भूल गए माँ की मुस्कान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

जिसने सबको पाला-पोसा

उसके लिए न किसने सोचा

बे-बस माँ सिसक कर कहती

बेटे   पूर्ण    करो    अरमान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

माँ  से  बनते  रिश्ते  सारे

माँ से  ही घर में उजियारे

काम-काज दिन-रात करती

फिर भी आती नहीं थकान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

गर्म किसी का माथा होता

माँ का दिल अंदर से रोता

बिन दवा के बन जाती है

माँ दुआओं की इक दुकान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

माँ का दिल मत कभी दुखाना

वही है खुशियों का खजाना

कहता है “संतोष”सभी से

माँ की सेवा कर नादान

माँ की महिमा बड़ी महान

 

माँ   का   ऊँचा  है     स्थान

करिए माँ का सब  गुणगान

माँ के चरणों में भगवान

माँ की महिमा बड़ी महान

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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