(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “जिनकों हमने था चलना सिखाया…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 75 ☆ गजल – जिनकों हमने था चलना सिखाया… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
है हवा कुछ जमाने की ऐसी, लोग मन की छुपाने लगे हैं।
दिल में तो बात कुछ और ही है, लब पै कुछ और बताने लगे हैं।
ये जमाने की खूबी नहीं तो और कोई बतायें कि क्या है ?
जिसको छूना भी था पहले मुश्किल, लोग उसमें नहाने लगे हैं।
कौन अपना है या है पराया, दुनियाँ को ये बताना है मुश्किल
जिनको पहले न देखा, न जाना, अब वो अपने कहाने लगे हैं।
जब से उनको है बागों में देखा, फूल सा मकहते मुस्कुराते
रातरानी की खुशबू से मन के दरीचे महमहाने लगे हैं।
बालों की घनघटा को हटा के चाँद ने झुक के मुझकों निहारा
डर से शायद नजर लग न जाये, वे भी नजरें चुराने लगे हैं।
रंग बदलती ’विदग्ध’ ऐसा दुनियाँ कुछ भी कहना समझना है मुश्किल
जिनकों हमने था चलना सिखाया, अब से हमको चलाने लगे हैं।
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #85 – 🌻 दोषारोपण 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार☆
एक आदमी रेगिस्तान से गुजरते वक़्त बुदबुदा रहा था, “कितनी बेकार जगह है ये, बिलकुल भी हरियाली नहीं है और हो भी कैसे सकती है यहाँ तो पानी का नामो-निशान भी नहीं है।
तपती रेत में वो जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था उसका गुस्सा भी बढ़ता जा रहा था. अंत में वो आसमान की तरफ देख झल्लाते हुए बोला- क्यों भगवान आप यहाँ पानी क्यों नहीं देते? अगर यहाँ पानी होता तो कोई भी यहाँ पेड़-पौधे उगा सकता था और तब ये जगह भी कितनी खूबसूरत बन जाती!
ऐसा बोल कर वह आसमान की तरफ ही देखता रहा मानो वो भगवान के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हो! तभी एक चमत्कार होता है, नज़र झुकाते ही उसे सामने एक कुंवा नज़र आता है!
वह उस इलाके में बरसों से आ-जा रहा था पर आज तक उसे वहां कोई कुँवा नहीं दिखा था… वह आश्चर्य में पड़ गया और दौड़ कर कुंवे के पास गया। कुंवा लाबालब पानी से भरा था.
उसने एक बार फिर आसमान की तरफ देखा और पानी के लिए धन्यवाद करने की बजाये बोला – “पानी तो ठीक है लेकिन इसे निकालने के लिए कोई उपाय भी तो होना चाहिए !!”
उसका ऐसा कहना था कि उसे कुँवें के बगल में पड़ी रस्सी और बाल्टी दिख गयी।एक बार फिर उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ! वह कुछ घबराहट के साथ आसमान की ओर देख कर बोला, “लेकिन मैं ये पानी ढोउंगा कैसे?”
तभी उसे महसूस होता है कि कोई उसे पीछे से छू रहा है,पलट कर देखा तो एक ऊंट उसके पीछे खड़ा था!अब वह आदमी अब एकदम घबड़ा जाता है, उसे लगता है कि कहीं वो रेगिस्तान में हरियाली लाने के काम में ना फंस जाए और इस बार वो आसमान की तरफ देखे बिना तेज क़दमों से आगे बढ़ने लगता है।
अभी उसने दो-चार कदम ही बढ़ाया था कि उड़ता हुआ पेपर का एक टुकड़ा उससे आकर चिपक जाता है।उस टुकड़े पर लिखा होता है –
मैंने तुम्हे पानी दिया,बाल्टी और रस्सी दी। पानी ढोने का साधन भी दिया,अब तुम्हारे पास वो हर एक चीज है जो तुम्हे रेगिस्तान को हरा-भरा बनाने के लिए चाहिए। अब सब कुछ तुम्हारे हाथ में है ! आदमी एक क्षण के लिए ठहरा !! पर अगले ही पल वह आगे बढ़ गया और रेगिस्तान कभी भी हरा-भरा नहीं बन पाया।
मित्रों !! कई बार हम चीजों के अपने मन मुताबिक न होने पर दूसरों को दोष देते हैं। कभी हम परिस्थितियों को दोषी ठहराते हैं,कभी अपने बुजुर्गों को,कभी संगठन को तो कभी भगवान को ।पर इस दोषारोपण के चक्कर में हम इस आवश्यक चीज को अनदेखा कर देते हैं कि – एक इंसान होने के नाते हममें वो शक्ति है कि हम अपने सभी सपनो को खुद साकार कर सकते हैं।
शुरुआत में भले लगे कि ऐसा कैसे संभव है पर जिस तरह इस कहानी में उस इंसान को रेगिस्तान हरा-भरा बनाने के सारे साधन मिल जाते हैं उसी तरह हमें भी प्रयत्न करने पर अपना लक्ष्य प्राप्त करने के लिए ज़रूरी सारे उपाय मिल सकते हैं.
👉 दोस्तॊ !! समस्या ये है कि ज्यादातर लोग इन उपायों के होने पर भी उस आदमी की तरह बस शिकायतें करना जानते है। अपनी मेहनत से अपनी दुनिया बदलना नहीं! तो चलिए, आज इस कहानी से सीख लेते हुए हम शिकायत करना छोडें और जिम्मेदारी लेकर अपनी दुनिया बदलना शुरू करें क्योंकि सचमुच सब कुछ तुम्हारे हाथ में है !!
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख घर की तलाश। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 127 ☆
☆ घर की तलाश ☆
एक लम्बे अंतराल से उसे तलाश थी एक घर की, जहां स्नेह, सौहार्द, समर्पण व एक-दूसरे के लिए मर-मिटने का भाव हो। परंतु पत्रकार को सदैव निराशा ही हाथ लगी।
आप हर रोज़ आते हैं और अब तक न जाने कितने घर देख चुके हैं। क्या आपको कोई घर पसंद नहीं आया?
–तुम्हारा प्रश्न वाज़िब है। मैंने बड़ी-बड़ी कोठियां देखी हैं–आलीशान बंगले देखे हैं–कंगूरे वाली ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं व हवेलियां भी देखी हैं; जहां के बाशिंदे अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं और वहां व्याप्त रहता है अंतहीन मौन व सन्नाटा। यदि मैं उसे चहुंओर पसरी मरघट-सी ख़ामोशी कहूं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
–परंतु तुमने द्वार पर खड़ी चमचमाती कारें, द्वारपाल व जी-हज़ूरी करते गुलामों की भीड़ नहीं देखी, जो कठपुतली की भांति हर आदेश की अनुपालना करते हैं। परंतु मुझे तो वहां इंसान नहीं; चलते-फिरते पुतले नज़र आते हैं, जिनका संबंध-सरोकारों से दूर तक का कोई नाता नहीं होता। वहां सब जीते हैं अपनी स्वतंत्र ज़िंदगी, जिसे वे सिगरेट के क़श व शराब के नशे में धुत्त होकर ढो रहे हैं।
आखिर तुम्हें कैसे घर की तलाश है?
–क्या तुम ईंट-पत्थर के मकान को घर की संज्ञा दे सकते हो,जहां शून्यता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं होता। एक छत के नीचे रहते हुए भी अजनबी-सम…कब, कौन, कहां, क्यों से दूर– समाधिस्थ।
–अरे विश्व तो ग्लोबल विलेज बन गया है; इंसानों के स्थान पर रोबोट अहर्निश कार्यरत हैं। मोबाइल ने सबको अपने शिकंजे में इस क़दर जकड़ रखा है, जिससे मुक्ति पाना सर्वथा असंभव है। आजकल सब रिश्ते-नातों पर ग्रहण लग गया है। हर घर के अहाते में दुर्योधन व दु:शासन घात लगाए बैठे हैं। सो! दो माह की बच्ची से लेकर नब्बे वर्ष की वृद्धा की अस्मिता भी सदैव दाँव पर लगी रहती है।
चलो छोड़ो! तुम्हारी तलाश तो कभी पूरी नहीं होगी, क्योंकि आजकल घरों का निर्माण बंद हो गया है। हम अपनी संस्कृति को नकार पाश्चात्य की जूठन ग्रहण कर गौरवान्वित अनुभव करते हैं और बच्चों को सुसंस्कारित नहीं करते, क्योंकि हमारी भटकन अभी समाप्त नहीं हुई।
आओ! हम सब मिलकर आगामी पीढ़ी को घर-परिवार की परिभाषा से अवगत कराएं और दोस्ती व अपनत्व की महत्ता समझाएं, ताकि समाज में समन्वय, सामंजस्य व समरसता स्थापित हो सके। हम अपने स्वर्णिम अतीत में लौटकर सुक़ून भरी ज़िंदगी जिएं, जहां स्व-पर व राग-द्वेष का लेशमात्र भी स्थान न हो। संपूर्ण विश्व में अपनत्व का भाव दृष्टिगोचर हो और हम सब दिव्य, पावन निर्झरिणी में अवगाहन करें; जहां केवल ‘तेरा ही तेरा’ का बसेरा हो। हम अहं त्याग कर ‘मैं से हम’ बन जाएं और वहां कुछ भी ‘तेरा न मेरा’ हो।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं नवरात्रि पर्व पर विशेष “मुक्तक देवी के”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “फागुन लायो रंग हजार…”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
“नमस्कार पंत, हा तुमचा पेपर ! आज पेपरात वाचण्यासारखं काही नाही, म्हणून लवकरच आणला !”
“मोऱ्या, उद्यापासून एक कामं कर !”
“कोणतं पंत ?”
“आमचा पेपर वाचायला न्यायचा नाही, कळलं ?”
“असं करू नका पंत, गेली कित्येक वर्ष मी तुमचा पेपर तुमच्याआधी वाचतोय आणि परत आणून पण देतोय ना आठवणीने ?”
“गाढवा, आमचाच पेपर आम्हांला परत आणून देतोयस म्हणजे काय मेहेरबानी करतोयस की काय माझ्यावर ?”
“असं रागावू नका पंत, पण पेपरात आज खरंच वाचण्यासारखं काही नाही. रोजच्याच रटाळ बातम्या वाचून वाचून कंटाळा आलाय नुसता !”
“मग असं का करत नाहीस मोऱ्या, आपल्या एक ते आठ अहमद सेलरचा, चाळकमिटीचा अध्यक्ष या नात्याने, ‘अहमदी सफर’ नावाचा एक पेपर चालू कर ना तूच, म्हणजे तुला हव्या तशा बातम्या त्यात देता येतील संपादक या नात्याने आणि तुझा पेपर कसा वाचणेबल करायचा हे तुला ठरवता ही येईल, काय ?”
“ही मस्त कल्पना आहे पंत तुमची ! आपल्या आठ चाळीत काही ना काही रोज घडतंच असतं, त्यामुळे बातम्यांना पण तोटा नाही !”
“खरं आहे मोऱ्या, आठ चाळीतली नळावरची रोजची भांडण, प्रत्येक चाळीतली किंवा दोन चाळीत मिळून चालू असलेली प्रेम प्रकरणं, शाब्दिक हमरी तुमरी, मारामाऱ्या, नवरा बायकोची भांडण, असा बराच मसाला वापरून तुला तुझा पेपर रंजक आणि वाचनीय बनवता येईल बघ !”
“पंत समस्त आठ चाळीतील चाळकऱ्यांना सुद्धा कुठल्या चाळीत काय चालू आहे ते कळेल. लगेच ‘अहमदी सफरच्या’ कामाला लागतो आता, येतो पंत !”
“मोऱ्या तुझ्या ‘अहमदी सफर’ मध्ये इतर पेपरात जसा लोकांच्या पत्र व्यवहारासाठी, त्यांच्या समस्या किंवा विचार मांडण्यासाठी एक कोपरा राखीव असतो, तसा ठेव बरं का !”
“जरूर पंत, लोकांच्या समस्या मला चाळकमिटीचा अध्यक्ष या नात्याने लोकांच्या पत्रांनी कळल्या तर बरंच होईल, म्हणजे त्यावर लगेच काहीतरी तोडगा काढता येईल !”
“हॊ मोऱ्या !”
“पंत, जसं तुम्ही चाळीच्या पेपरला नांव सुचवलत तसं त्या पेपरमधील पत्र व्यवहाराच्या कोपऱ्याला पण नांव सुचवा ना तुम्हीच ?”
” ‘तुमच्या मनांत, सांगा जनांत’ हे नांव कसं वाटतंय तुला त्या पत्र व्यवहाराच्या कोपऱ्याला ?”
“अगदी योग्य आहे पंत ! तुमच्या मनांत काही असेल तर पत्र रूपाने ते आम्हाला कळवा, आम्ही ते आमच्या पेपरच्या पानावर छापून त्याला जनात सांगून प्रसिद्धी देवू, मस्त !”
“मोऱ्या एक लक्षात ठेव तुझ्या पेपरात माझंच पाहिलं पत्र प्रसिद्ध व्हायला हवं !”
“नक्कीच पंत, पण तुमच्या पत्राचा विषय काय असेल तेच माझ्या ध्यानात येत नाहीये, तो जर आधी कळला तर…..”
“मोऱ्या, आपल्या आठ चाळीत रोज कुणाकडे ना कुणाकडे कसलं तरी मंगल कार्य असतंच असतं आणि…”
“पंत, आता आठ चाळी मिळून ४८० बिऱ्हाड म्हटली की असं होणारच ना !”
“त्याला माझी हरकत नाहीच मुळी, आपापल्या घरच मंगल कार्य नक्कीच साजरं करावं सगळ्यांनी पण ते कशा प्रकारे साजरं करावं याला काही पद्धत असते ना रे !”
“हॊ पंत, आपण म्हणता ते बरोबर, पण हौसेला मोल नसतं असं आपणच म्हणतो ना ?”
“अरे म्हणून काय उठल्या सुटल्या कुठल्याही कार्यक्रमात मोठं मोठ्याने DJ लावून नाचायलाच हवं का ?”
“पंत असते एकेकाला हौस त्याला…..”
“म्हणून बारशाला सुद्धा त्या लहान बाळाचा विचार न करता कर्ण कर्कश्य DJ लावून अचकट विचकट नाच करायचे ?”
“तुम्ही म्हणताय ते बरोबर आहे पंत, हल्ली सगळ्याच चाळीतून कुणी ना कुणी पेशंट असतो, बऱ्याच सिनियर सिटीझनना मोठ्या आवाजाचा त्रास होतो, हे कुणी लक्षातच घेत नाही ! पंत तुम्ही लिहाच या विषयावर पत्र, चांगल्या ठळक चौकटीत तुमचं पत्र छापतो की नाही बघा !”
“अरे मोऱ्या या अशा लोकांना सांगायला हवं, की उठल्या सुटल्या त्या DJ च्या तालावर नाचून नाचून तुम्हांला फक्त घाम येईल, पण अक्कल नाही येणार !”
“बरोबर पंत !”
“त्या DJ वर खर्च होणारे हजारो रुपये दुसऱ्या कुठल्या तरी सामाजिक कार्याला द्या, हुशार गरजू गरीब विद्यार्थ्यांना मदत करा यातच तुमचं आणि समाजाच भलं आहे.”
“अतिशय उत्तम विचार दिलात तुम्ही पंत ! आजच नवीन पेपरच्या कामाला सुरवात करतो, शुभस्य शीघ्रम !”
“मोऱ्या, पण एक लक्षात ठेव, तू तुझा पेपर काढलास तरी आमचा पेपर कसाही असला, तरी रोज आमच्या आधी नेवून वाचायचा आणि न विसरता परत आणून द्यायचा, काय ?”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “समय के साथ बदलते रहें…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 94 ☆
☆ समय के साथ बदलते रहें… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
सभा कोई सी हो, बस विचारकों को ढूंढती रहती है। अब लोकसभा में न जीत पाएँ तो विधानसभा में जोर आजमाइश कीजिए। और यहाँ भी मुश्किल हो तो राज्यसभा या विधानपरिषद की सीट सुरक्षित कीजिए। बस कुछ न कुछ करते रहना है। कहते हैं राजनीति में कोई भी स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता है। बस कुर्सी ही सबकी माई- बाप है। कुर्सी बदलाव माँगती है, सो अधीरता दिखाते हुए उन्होंने विरोधियों को सूचीबद्ध कर दिया। मगर परिणाम उनकी आशा के विपरीत आया। अब गुस्से में ये लिस्ट उन्होंने बाहर फेंक दी। दूसरे दलों ने ये लिस्ट उठा कर सूची में शामिल लोगों को अपना विश्वास पात्र बना लिया क्योंकि दुश्मन का दुश्मन मित्र होता है। इन अनुभवी लोकोक्तियों ने जीने का अंदाज ही बदल दिया है। अब सब कुछ शॉर्टकट सेट हो रहा है। परिश्रम की बातें करना एक बात है, उसे अमल में लाना दूसरी बात है।
परिश्रम का प्रतिफल तभी सार्थक होता है जब नियत सच्ची हो। एक ही कार्य के दो पहलू हो सकते हैं। जल्दी-जल्दी कार्यकर्ताओं का परिवर्तन, जहाँ एक ओर ये सिद्ध करता है कि संगठन में कमीं हैं तो वहीं दूसरी ओर ये दर्शाता है कि समय-समय पर बदलाव होना चाहिए।
बुद्धिमान व्यक्ति वही होता है जो जिस पल मौका मिले अपने को सिद्ध कर सके क्योंकि समय व विचारधारा कब बदल जाए कहा नहीं जा सकता है। क्रमिक विकास के चरण में बच्चा पहले नर्सरी, प्री प्रायमरी, प्रायमरी, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक पढ़ते हुए विद्यालय से जुड़ जाता है किंतु आगे की पढ़ाई के लिए उसे इंटर के बाद सब छोड़ कालेज जाना पड़ता है फिर वहाँ से डिग्री हासिल कर रोजी रोटी की तलाश में स्वयं को सिद्ध करना पड़ता है।
इस पूरी यात्रा का उद्देश्य यही है कि कितना भी लगाव हो उचित समय पर सब छोड़ आगे बढ़ना ही पड़ता है अतः केवल लक्ष्य पर केंद्रित हो हर पल को जीते चले क्योंकि भूत कभी आता नहीं भविष्य कहीं जाता नहीं। केवल वर्तमान पर ही आप अपने आप को निखार सकते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं भावप्रवण कविता “मेरा प्यारा गीत गया”.
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 104 ☆
☆ मेरा प्यारा गीत गया ☆
दुख-सुख-प्रत्याहार मिला, लेकिन सब कुछ बीत गया।
कभी धूप ने झुलसाया, कभी लहर-सा शीत गया।।
कुछ हैं नौका खेने वाले, कुछ हैं उसे डुबोने वाले।
कुछ हैं गौर वर्ण मानस के, कुछ हैं कपटी, नकली ,काले।
कुछ की आँखें खुली हुई हैं, कुछ के मुख पर स्वर्णिम ताले।
कभी हार का स्वाद चखा, कभी- कभी मैं जीत गया।।
अनगिन स्वप्न सँजोए हमने, पूरे कभी नहीं होते हैं।
कालचक्र के हाथों खुद ही, फँसे हुए हँसते-रोते हैं।
वीर जागते सीमाओं पर, कुछ तो आलस में सोते हैं।
करूँ सर्जना आशा की, फिर भी मन का मीत गया।।
दर्प, मदों में डूबे हाथी, झूम-झूम कर कुछ चलते हैं।
बनते दुर्ग खुशी में झूमें, ढहते हाथों को मलते हैं।
जिसका खाते, उसी बाँह में, बनकर सर्प सदा पलते हैं।
भूल रहा हूँ मैं हँसकर, रोकर, किन्तु अतीत गया।।
संग्रह हित ही पूरा जीवन, भाग रहा भूखे श्वानों-सा।
ढहता रहा आदमी खुद ही, जर्जर हो गहरी खानों-सा।
कभी आँख ने धोखा खाया, कभी अनसुना कर कानों-सा।
कभी बेसुरे गीत सुना, कभी छोड़ संगीत गया।।
क्रूर नियति से छले गए हैं, सुंदर -सुंदर पुष्प सदा ही।
कभी अश्रु ने वस्त्र भिगोए, और भाग्य का खेल बदा ही।
नग्न बदन अब चलें अप्सरा, प्रश्न उठें अब यदा-कदा ही।