हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 86 – मांस का मूल्य ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #86 – 🌻 मांस का मूल्य 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

मगध सम्राट् बिंन्दुसार ने एक बार अपनी राज्य-सभा में पूछा – “देश की खाद्य समस्या को सुलझाने के लिए सबसे सस्ती वस्तु क्या है…?” मंत्री परिषद् तथा अन्य सदस्य सोचमें पड़ गये। चावल, गेहूं, ज्वार, बाजरा आद तो बहुत श्रम बाद मिलते हैं और वह भी तब, जब प्रकृति का प्रकोप न हो। ऐसी हालत में अन्न तो सस्ता हो नहीं सकता.. शिकार का शौक पालने वाले एक अधिकारी ने सोचा कि मांस ही ऐसी चीज है, जिसे बिना कुछ खर्च किये प्राप्त किया जा सकता है…..उसने मुस्कुराते हुऐ कहा – “राजन्… सबसे सस्ता खाद्य पदार्थ मांस है। इसे पाने में पैसा नहीं लगता और पौष्टिक वस्तु खाने को मिल जाती है।”

सभी ने इस बात का समर्थन किया, लेकिन मगध का प्रधान मंत्री आचार्य चाणक्य चुप रहे। सम्राट ने उससे पुछा : “आप चुप क्यों हो? आपका इस बारे में क्या मत है?” चाणक्य ने कहा : “यह कथन कि मांस सबसे सस्ता है…., एकदम गलत है, मैं अपने विचार आपके समक्ष कल रखूँगा….रात होने पर प्रधानमंत्री सीधे उस सामन्त के महल पर पहुंचे, जिसने सबसे पहले अपना प्रस्ताव रखा था।”

चाणक्य ने द्वार खटखटाया….सामन्त ने द्वार खोला, इतनी रात गये प्रधानमंत्री को देखकर वह घबरा गया। उनका स्वागत करते हुए उसने आने का कारण पूछा? प्रधानमंत्री ने कहा – “संध्या को महाराज एकाएक बीमार हो गए है उनकी हालत नाजूक है राजवैद्य ने उपाय बताया है कि किसी बड़े आदमी के हृदय का दो तोला मांस मिल जाय तो राजा के प्राण बच सकते है….आप महाराज के विश्वास पात्र सामन्त है। इसलिए मैं आपके पास आपके हृदय का दो तोला मांस लेने आया हूँ। इसके लिए आप जो भी मूल्य लेना चाहे, ले सकते है। कहे तो लाख स्वर्ण मुद्राऐं दे सकता हूँ…..।” यह सुनते ही सामान्त के चेहरे का रंग फिका पड़ गया। वह सोचने लगा कि जब जीवन ही नहीं रहेगा, तब लाख स्वर्ण मुद्राऐं किस काम की?

उसने प्रधानमंत्री के पैर पकड़ कर माफी चाही और अपनी तिजोरी से एक लाख स्वर्ण मुद्राऐं देकर कहा कि इस धन से वह किसी और सामन्त के हृदय का मांस खरीद लें।

मुद्राऐं लेकर प्रधानमंत्री बारी-बारी सभी सामन्तों, सेनाधिकारीयों के द्वार पर पहुँचे और सभी से राजा के लिऐ हृदय का दो तोला मांस मांगा, लेकिन कोई भी राजी न हुआ….सभी ने अपने बचाव के लिऐ प्रधानमंत्री को दस हजार, एक लाख, दो लाख और किसी ने पांच लाख तक स्वर्ण मुद्राऐं दे दी। इस प्रकार करोडो स्वर्ण मुद्राओं का संग्रह कर प्रधानमंत्री सवेरा होने से पहले अपने महल पहुँच गऐ और समय पर राजसभा में प्रधानमंत्री ने राजा के समक्ष दो करोड़ स्वर्ण मुद्राऐं रख दी….!

सम्राट ने पूछा : यह सब क्या है….? यह मुद्राऐं किसलिऐ है? प्रधानमंत्री चाणक्य ने सारा हाल सुनाया और बोले – “दो तोला मांस खरिदने के लिए इतनी धनराशी इक्कट्ठी हो गई फिर भी दो तोला मांस नही मिला। अपनी जान बचाने के लिऐ सामन्तों ने ये मुद्राऐं दी है। राजन अब आप स्वयं सोच सकते हैं कि मांस कितना सस्ता है….??”

जीवन अमूल्य है।

हम यह न भूलें कि जिस तरह हमें अपनी जान प्यारी होती है, उसी तरह सभी जीवों को प्यारी होती है..! इस धरती पर हर किसी को स्वेछा से जीने का अधिकार है…

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 98 – दूर कोठेतरी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 98 – दूर कोठेतरी ☆

दूर कोठेतरी, साद घाली कुणी ।

नाद का जाणवे , या आठवातुनी ।।धृ।।

 

सांग का शोधिशी, प्रेम शब्दाविना ।

भाव तू जाणले , आज अर्थाविना।

प्रितीची आस ही, दाटे डोळ्यातुनी ।।१।

 

भाव वेडी मने, गुंतली ही अशी।

प्रेमवेडी तने,दोन होती कशी।

मार्ग हा कंटकी, चाले काट्यातुनी ।।२।।

 

बंध हे रेशमी, वीण नात्यातली ।

ओढ ही मन्मनी, चाल शब्दातली ।

आर्त ही भावना, बोले काव्यातुनी ।।3।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 128 ☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ग़लत सोच : दु:खों का कारण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 128 ☆

☆ ग़लत सोच : दु:खों का कारण

ग़लत सोच के लोगों से अच्छे व शुभ की अपेक्षा-आशा करना हमारे आधे दु:खों का कारण है, यह सार्वभौमिक सत्य है। ख़ुद को ग़लत स्वीकारना सही आदमी के लक्षण हैं, अन्यथा सृष्टि का हर प्राणी स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान समझता है। उसकी दृष्टि में सब मूर्ख हैं; विद्वत्ता में निकृष्ट हैं; हीन हैं और सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम हैं। ऐसा व्यक्ति अहंनिष्ठ व निपट स्वार्थी होता है। उसकी सोच नकारात्मक होती है और वह अपने परिवार से इतर कुछ नहीं सोचता, क्योंकि उसकी मनोवृत्ति संकुचित व सोच का दायरा छोटा होता है। उसकी दशा सावन के अंधे की भांति होती है, जिसे हर स्थान पर हरा ही हरा दिखाई देता है।

वास्तव में अपनी ग़लती को स्वीकारना दुनिया सबसे कठिन कार्य है तथा अहंवादी लोगों के लिए असंभव, क्योंकि दोषारोपण करना मानव का स्वभाव है। वह हर अपराध के लिए दूसरों को दोषी ठहराता है, क्योंकि वह स्वयं को ख़ुदा से कम नहीं समझता। सो! वह ग़लती कर ही कैसे सकता है? ग़लती तो नासमझ लोग करते हैं। परंतु मेरे विचार से तो यह आत्म-विकास की सीढ़ी है और ऐसा व्यक्ति अपने मनचाहे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। उसके रास्ते की बाधाएं स्वयं अपनी राह बदल लेती हैं और अवरोधक का कार्य नहीं करती, क्योंकि वह बनी-बनाई लीक पर चलने में विश्वास नहीं करता, बल्कि नवीन राहों का निर्माण करता है। अपनी ग़लती स्वीकारने के कारण सब उसके मुरीद बन जाते हैं और उसका अनुसरण करना प्रारंभ कर देते हैं।

ग़लत सोच के लोग किसी का हित कर सकते हैं तथा किसी के बारे में अच्छा सोच सकते हैं; सर्वथा ग़लत है। सो! ऐसे लोगों से शुभ की आशा करना स्वयं को दु:खों के सागर के अथाह जल में डुबोने के समान है, क्योंकि जब उसकी राह ही ठीक नहीं होगी; वे मंज़िल को कैसे प्राप्त कर सकेंगे? हमें मंज़िल तक पहुंचने के लिए सीधे-सपाट रास्ते को अपनाना होगा; कांटों भरी राह पर चलने से हमें बीच राह से लौटना पड़ेगा। उस स्थिति में हम हैरान-परेशान होकर निराशा का दामन थाम लेंगे और अपने भाग्य को कोसने लगेंगे। यह तो राह के कांटों को हटाने लिए पूरे क्षेत्र में रेड कारपेट बिछाने जैसा विकल्प होगा, जो असंभव है। यदि हम ग़लत लोगों की संगति करते हैं, तो उससे शुभ की प्राप्ति कैसे होगी ? वे तो हमें अपने साथ बुरी संगति में धकेल देंगे और हम लाख चाहने पर भी वहां से लौट नहीं पाएंगे। इंसान अपनी संगति से पहचाना जाता है। सो! हमें अच्छे लोगों के साथ रहना चाहिए, क्योंकि बुरे लोगों के साथ रहने से लोग हमसे भी कन्नी काटने लगते हैं तथा हमारी निंदा करने का एक भी अवसर नहीं चूकते। ग़लती छोटी हो या बड़ी; हमें उपहास का पात्र बनाती है। यदि छोटी-छोटी ग़लतियां बड़ी समस्याओं के रूप में हमारे पथ में अवरोधक बन जाएं, तो उनका समाधान कर लेना चाहिए। जैसे एक कांटा चुभने पर मानव को बहुत कष्ट होता है और एक चींटी विशालकाय हाथी को अनियंत्रित कर देती है, उसी प्रकार हमें छोटी-छोटी ग़लतियों की अवहेलना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इंसान छोटे-छोटे पत्थरों से फिसलता है; पर्वतों से नहीं।

‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ अक्सर यह संदेश हमें वाहनों पर लिखित दिखाई पड़ता है, जो हमें सतर्क व सावधान रहने की सीख देता है, क्योंकि हमारी एक छोटी-सी ग़लती प्राण-घातक सिद्ध हो सकती है। सो! हमें संबंधों की अहमियत समझनी चाहिए चाहिए, क्योंकि रिश्ते अनमोल होते हैं तथा प्राणदायिनी शक्ति से भरपूर  होते हैं। वास्तव में रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं और भुने हुए पापड़ की भांति पल भर में दरक़ जाते हैं। मानव के लिए अपेक्षा व उपेक्षा दोनों स्थितियां अत्यंत घातक हैं, जो संबंधों को लील जाती हैं। यदि आप किसी उम्मीद रखते हैं और वह आपकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता, तो संबंधों में दरारें पड़ जाती हैं; हृदय में गांठ पड़ जाती है, जिसे रहीम जी का यह दोहा बख़ूबी प्रकट करता है। ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ टूटे से फिर ना जुरै, जुरै तो गांठ परि जाए।’ सो! रिश्तों को सावधानी-पूर्वक संजो कर व सहेज कर रखने में सबका हित है। दूसरी ओर किसी के प्रति उपेक्षा भाव उसके अहं को ललकारता है और वह प्राणी प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने का हर संभव प्रयास करता है। यहीं से प्रारंभ होता है द्वंद्व युद्ध, जो संघर्ष का जन्मदाता है। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव मानव को विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। इसलिए हमें सबको यथायोग्य सम्मान ध्यान देना चाहिए। यदि हम किसी बच्चे को प्यार से आप कह कर बात करते हैं, तो वह भी उसी भाषा में प्रत्युत्तर देगा, अन्यथा वह अपनी प्रतिक्रिया तुरंत ज़ाहिर कर देगा। यह सब प्राणी-जगत् में भी घटित होता है। वैसे तो संपूर्ण विश्व में प्रेम का पसारा है और आप संसार में जो भी किसी को देते हो; वही लौटकर आपके पास आता है। इसलिए अच्छा बोलो; अच्छा सुनने को मिलेगा। सो! असामान्य परिस्थितियों में ग़लत बातों को देख कर आंख मूंदना हितकर है, क्योंकि मौन रहने व तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त न करने से सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है।

संसार मिथ्या है और माया के कारण हमें सत्य भासता है। जीवन में सफल होने का यही मापदंड है। यदि आप बापू के तीन बंदरों की भांति व्यवहार करते हैं, तो आप स्टेपनी की भांति हर स्थान व हर परिस्थिति में स्वयं को उचित व ठीक पाते हैं और उस वातावरण में स्वयं को ढाल सकते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि ‘अपना व्यवहार पानी जैसा रखो, जो हर जगह, हर स्थिति में अपना स्थान बना लेता है। इसी प्रकार मानव भी अपना आपा खोकर घर -परिवार व समाज में सम्मान-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकता है। इसलिए हमें ग़लत लोगों का साथ कभी नहीं देना चाहिए, क्योंकि ग़लत व्यक्ति न तो अपनी ग़लती से स्वीकारता है; न ही अपनी अंतरात्मा में झांकता है और न ही उसके गुण-दोषों का मूल्यांकन करता है। इसलिए उससे सद्-व्यवहार की अपेक्षा मूर्खता है और समस्त दु:खों कारण है। सो! आत्मावलोकन कर अंतर्मन की वृत्तियों पर ध्यान दीजिए तथा अपने दोषों अथवा पंच-विकारों व नकारात्मक भावों पर अंकुश लगाइए तथा समूल नष्ट करने का प्रयास कीजिए। यही जीवन की सार्थकता व अमूल्य संदेश है, अन्यथा ‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाए’ वाली स्थिति हो जाएगी और हम सोचने पर विवश हो जाएंगे… ‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’ का सिद्धांत सर्वोपरि है, सर्वोत्तम है। संसार में जो अच्छा है, उसे सहेजने का प्रयास कीजिए और जो ग़लत है, उसे कोटि शत्रुओं-सम त्याग दीजिए…इसी में सबका मंगल है और यही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #127 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के मुक्तक। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 127 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

लहर उठती है सागर में किनारों से वो मिल जाए।

असर दिल पे जो होता है इशारों में वो कह जाए।

दिलवालों से पूछो तो लगन दिल की ये कैसी है।

मिलन दिल का जो होता है वो चेहरा बता जाए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

कहानी ये मैं कहता हूँ तुझे मैं ये सुनाता हूँ ।

तेरे गीतों में जादू है उसे मैं गुनगुनाता हूँ ।

तेरी धड़कन जो कहती है उसे मैंने ही समझा है।

नहीं शिकवा कोई तुझसे शिकायत मैं बताता हूं।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

प्रेम है लाजमी जिंदगी के लिए।

तुम समर्पण करो बंदगी के लिए।

जिंदगी तो अकेले  ही निभती नहीं

हमसफ़र चाहिए जिंदगी के लिए।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #117 ☆ साधौ जीवन के दिन चार… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साधौ जीवन के दिन चार…। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 117 ☆

☆ साधौ जीवन के दिन चार… 

राह ताकती मृत्यु हर पल, करिए तनिक  विचार

स्वारथ से अब बाहर निकलो, बदलो अब आचार

समय चूकि पछिताना होगा, तब होगे लाचार

दर्द बांट लो इक दूजे का, जिसमें जीवन सार

राजा हो या रंक वहाँ पर, सबकी एक कतार

हरि चरण”संतोष”चाहता, केशव सुनो पुकार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ भाग्यवंत… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆

श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ भाग्यवंत… ☆ श्री हरिश्चंद्र कोठावदे ☆ 

वृत्त: आनंदकंद

(गागाल गालगागा)×२

व्हावी क्षणास माझ्या, बाधा निळी अनंत

ओंजळ कृतार्थ व्हावी,आयुष्य भाग्यवंत !

 

कंठात दाटलेला,हा हुंदका कुणाचा?

भिडती अजून ह्रदयी, उद्ध्वस्त ते दिशान्त !

 

पंखांस ज्ञात माझ्या ,त्यांचा किती अवाका

स्वप्नी भल्या पहाटे, चळवी तरी दिगंत !…

 

तिमिरास तिमिर घेतो, कवटाळुनी उराशी

होतो जरा जरासा, काळोख तेजवंत !…..

 

रानात दाटलेली,हिमरात्र आरपार….

सूर्योदयात एका, फुलतो कधी वसंत !

 

लावण्य जीवनाचे, भोगून घे उदंड…

प्रेतास काय साजे, शृंगार शोभिवंत !

 

अंतागणीक माझ्या,मी जन्मतो नव्याने

आरंभ हा नवा अन् आता नवीन अंत !

 

© श्री हरिश्चंद्र कोठावदे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

 

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #120 – विजय साहित्य – भीमा तुझ्यामुळे…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 120 – विजय साहित्य ?

(14 एप्रिल 1891 – 6 डिसेंबर 1956)

☆ भीमा तुझ्यामुळे…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शिका, लढा, नी, संघटीत व्हा

कळले रे भीमा तुझ्या मुळे.

माणूस होतो, माणूस राहू

शिकलो रे ,भीमा तुझ्या मुळे…! १

 

चवदार तळ्याची घटना

तरलो रे, भीमा तुझ्या मुळे

समाजातले भेदाभेद ही

जाणले रे, भीमा तुझ्या मुळे…! २

 

समाज विघातक रूढींचे

निर्दालन भीमा तुझ्या मुळे

पाखंडी पणा, कर्मकांडाचा

उमजला, भीमा तुझ्या मुळे…! ३

 

लोकशाहीचा देश आपुला

एकी झाली, भीमा तुझ्या मुळे

समाज बांधवा दिशा मिळाली

जागृती ही , भीमा तुझ्या मुळे…! ४

 

संविधान राज्य घटनेचे

साकारले,भीमा तुझ्या मुळे

आचार आणि विचार मोठे

आकारले, भीमा तुझ्या मुळे…! ५

 

अन्यायाचा प्रतिकार करू

शिकलो रे, भीमा तुझ्या मुळे

कमवू आणि, आधार होऊ

जगलो रे, भीमा तुझ्या मुळे…! ६

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 95 ☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “प्रायोजित प्रयोजन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 95 ☆

☆ प्रायोजित प्रयोजन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

समय बहुत तेजी से बदलता जा रहा है। आजकल सब कुछ प्रायोजित होने लगा है। पहले तो दूरदर्शन के कार्यक्रम, मैच या कोई बड़ा आयोजन ही इसके घेरे में आते थे किंतु आजकल बड़े सितारों के जन्मदिन, विवाह उत्सव या कोई विशेष कार्य भी प्रायोजित की श्रेणी में आ गए हैं । फेसबुक, यूट्यूब, आदि सोशल मीडिया पर तो बूस्ट पोस्ट होती है। मजे की बात अब त्योहार व उससे जुड़े  विवाद भी प्रायोजित की श्रेणी में आ खड़े

हुए हैं। एक साथ सारे देश में एक ही मुद्दे पर एक ही समय पर एक से विवाद, एक ही शैली में आ धमकते हैं।इसकी गूँज चारों ओर मानवता की पीड़ा के रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।

इसकी जिम्मेदारी किसकी है, कौन इस सूत्र को जोड़- जोड़ कर घसीट रहा है व कौन बेदर्दी से तोड़े जा रहा है। इसका चिंतन कौन करेगा? दोषारोपण करते हुए मूक दर्शक बनकर रहना भी आसान नहीं होता है। लेकिन जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर कीचड़ उछालते हुए एकतरफा निर्णय सुनाते जा रहे हैं। वैसे ऐसे विवादों से एक लाभ यह होता है कि देश के मूल मुद्दों से आम जनता का ध्यान भटक जाता है। जिससे राजनीतिक रोटियों को सेंकना और फिर उन्हें परोसना आसान होने लगता है।

कोई भी कार्य दो आधारों पर बाँटे जा सकते हैं – चुनाव से पूर्व के कार्य व चुनाव के बाद के कार्य।

चुनाव के  कुछ दिनों पूर्व सबसे अधिक चिंता हर दल को केवल गरीबों की होती है। ऐसा लगता है कि पाँच वर्ष पूरे होने के दो महीने पहले ही यह वर्ग  सामने आता है, इनका दुःख दर्द सभी को सालने लगता है । 

तरह – तरह के प्रलोभनों द्वारा इन्हें आकर्षित कर अपने दलों का महिमामंडन करते हुए लोग जाग्रत हो जाते हैं।

अरे भई इतने दिनों तक क्या ये इंसान नहीं थे,  क्या इनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर तब आपका ध्यान नहीं था, तब क्या ये पंछियो की तरह आकाश में विचरण कर घोसले बना कर रहते थे या धूल के गुबार बन बादलों में छिपे थे।

सच्चाई तो यही है कि कोई भी दल इनकी स्थिति में  सुधार चाहता ही नहीं तभी तो  इस वर्ग के लोगों में भारी इजाफा हो रहा है, इनकी मदद के लिए सभी आगे आते हैं किंतु कैसे गरीबी मिटे इस पर चिंतन बहुत कम लोग करते हैं। 

केवल  आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से  ये वर्ग दिनों दिन अमरबेल की तरह बढ़ता जायेगा।  अभी भी समय है बुद्धिजीवी वर्ग को चिंतन- मनन द्वारा कोई नया रास्ता खोजना चाहिए जिससे सबके लिए समान अवसर हो अपनी तरक्की के लिए।

अब चुनावों का दौर पूर्ण हो चुका है सो आगे की तैयारी हेतु  विकास पर विराम  लगाते हुए धार्मिक उन्मादों की ओर सारे राजनीतिक दलों की निगाहें टिकी हुई हैं। दुःख तो ये सब देख कर होता है कि ऐसे कार्यक्रमों को भी प्रायोजित  किया जाता है।  और हम सब मूक दर्शक बनें हुए केवल समाचारों की परिचर्चाओं का अघोषित हिस्सा बनें हुए हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #113 – अपनों को भी क्या पड़ी है? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “अपनों को भी क्या पड़ी है ?।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 113 ☆

☆ कविता – अपनों को भी क्या पड़ी है ? ☆ 

वह भूख से मर रहा है।

दर्द से भी कराह रहा है।

हम चुपचाप जा रहे हैं

देखती- चुप सी भीड़ अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है ?

 

सटसट कर चल रहे हैं ।

संक्रमण में पल रहे हैं।

भूल गए सब दूरियां भी

आदत यह सिमट अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

वह कल मरता है मरे।

हम भी क्यों कर उससे डरें।

आया है तो जाएगा ही

यही तो जीवन की लड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम सब चीजें दबाए हैं।

दूजे भी आस लगाए हैं।

मदद को क्यों आगे आए

अपनों में दिलचस्पी अड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

हम क्यों पाले ? यह नियम है।

क्या सब घूमते हुए यम हैं ?

यह आदत हमारी ही

हमारे ही आगे खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

नकली मरीज लिटाए हैं।

कोस कर पैसे भी खाएं हैं।

मर रहे तो मरे यह बला से

लाशें लाइन में खड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कुछ यमदूत भी आए हैं ।

वे परियों के  ही साए हैं।

बुझती हुई रोशनी में वे

जलते दीपक की कड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

 

कैसे इन यादों को सहेजोगे ?

मदद के बिना ही क्या भजोगे ?

दो हाथ मदद के तुम बढ़ा लो

तन-मन  लगाने की घड़ी है।

अपनों को भी क्या पड़ी है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 108 –“कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री श्याम सुंदर दुबे जी  की पुस्तक “कालः क्रीडति” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 108 ☆

☆ “कालः क्रीडति” … श्री श्याम सुंदर दुबे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

किताब ..कालः क्रीडति 

लेखक …श्याम सुंदर दुबे

यश पब्लिकेशनस

मूल्य ४९५ रु

हिन्दी में ललित निबंध लेखन बहुत अधिक नही है.श्याम सुंदर दुबे अग्रगण्य, वस्तुपरक ललित लेखन हेतु चर्चित हैं. उनके निबंधो में प्रवाह है, साथ ही भारतीय संस्कृति की विशद जानकारी, तथ्य, व संवेदन है. प्रस्तुत पुस्तक में कुल ३३ लेख हैं. पहला ही लेख ” एक प्रार्थना आकाश के लिये ” किसी एक कविता पर निबंध भी लिखा जा सकता है यह मैं इस लेख को पढ़कर ही समझ पाया, महाप्राण निराला की वीणा वादिनी वर दे, पर केंद्रित यह निबंध इस कविता की समीक्षा, विवेचना, व्याख्या विस्तार बहुत कुछ है. अन्य लेखो में पहला दिन मेरे आषाढ़ का,, सूखती नदी का शोक गीत, जल को मुक्त करो, तीर्थ भाव की खोज, सूखता हुआ भीतर का निर्झर, नीम स्तवन, सूखी डाल की वासंती संभावना सारे ही फुरसत में बड़े मनोयोग से पढ़ने समझने और आनंद लेने वाले निबंध हैं. प्रत्येक निबंध चमत्कृत करता है, अकेला पड़ता आदमी, इंद्र स्मरण और रंगो की माया, फूल ने वापस बुलाया है, कालः क्रीडति, फागुन की एक साम आदि निबंध स्वयं किसी लंबी कविता से कम नही हैं. हर शब्द चुन चुन कर सजाया गया है, इसलिये वह सम्यक प्रभाव पेदा करता है. किताब को १० में से ९ अंक देना ही पड़गा. जरूर पढ़िये, खरीदकर या पुस्तकालय से लेकर.

 

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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