हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 89 ☆ बुंदेली नवगीत – राम रे! ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

 

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली नवगीत – राम रे!।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 89 ☆ 

☆ बुंदेली नवगीत – राम रे! 

राम रे!

तनकऊ नई मलाल???

*

भोर-साँझ लौ

गोड़ तोड़ रै

काम चोर बे कैते

पसरे रैत

ब्यास गादी पे

भगतन संग लपेटे

काम-पुजारी

गीता बाँचे

हेरें गोप निहाल।

आँधर ठोकें ताल

राम रे!

बारो डाल पुआल।

राम रे!

तनकऊ नई मलाल???

*

झिमिर-झिमिर-झम

बूँदें टपकें

रिस रए छप्पर-छानी

मैली कर दई रैटाइन की

किन्नें धोती धानी?

लज्जा ढाँपे

सिसके-कलपे

ठोंके आप कपाल

मुए हाल-बेहाल

राम रे!

कैसा निर्दय काल?

राम रे!

तनकऊ नई मलाल???

*

भट्टी-देह न देत दबाई

पैले मांगें पैसा

अस्पताल मा

घुसे कसाई

ठाणे-अरना भैंसा

काले कोट

कचैरी घेरे

बकरा करें हलाल

नेता भए बबाल

राम रे!

लूट बजा रए गाल

राम रे!

तनकऊ नई मलाल???

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – आत्मानंद साहित्य #119 ☆ सद्गुरू महिमा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 119 ☆

☆ ‌सद्गुरू महिमा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

(ॐ  शिव गुरू नारायण – अर्थात् शिव ही गुरु और नारायण स्वरूप हैं)

दोहा-

दोउ कर जोरे नाई सिर, बिनती करौं मैं तोर।

दया दृष्टि नित राखियो, दास भगत मैं तोर।।१।।

 मो पर बाबा दया करो, करिओ  पूरन काज।

सदगुरु महिमा लिख रहा, तुम्हरी कृपा से आज।।२।।

 

चौपाई –

जै जै सदगुरु ज्ञानी दाता।

जो भी सरन तुम्हारी आता।।

श्रद्धा भक्ति से शीश झुकाता।

सुख शांति सब कुछ पा जाता।।

दुखिया दुख में तुम्हें पुकारे।

किन्ह सहाय दुःख सब टारे।।

तुम प्रभु हो करूणा के सागर।

तुम हो राधा के नट नागर।।

शिव स्वरूप मैं तुमको ध्याऊं।

तुम्हारी किर्ती सदा मैं गांऊं।

करत बखान मन नहीं अघाता।

धरत ध्यान सुख शांति पाता।।

ज्योति रूप प्रभु आप अनंता।

गावत चरित भगत सब संता।।

जब छायो मन में अंधियारा।

आरत मन से तुम्हें पुकारा।।

 बिनती सुनि प्रभु आयो धाई।

सब भगतन को कींन्ह सहाई।।

भगतन के सब काज नेवारो।

हनुमत रूप कष्ट सब टारो।।

राम रूप धरि रावण मारा।

कृष्ण रूप में दनुज संहारा।।

शिव बिरंचि ध्यावहि नित ध्याना।

रामकृष्ण सेवहि बिधि नाना।।

तेज अपार बरनि नहिं जाई।

तुम्हारी किर्ति कहां लौं गाई।।

प्रकटी ज्योति हृदय ऊंजियारा।

तुम्हारी महिमा अपरंपारा।।

वेद पुराण नित करत बखाना।

तुम्हरो चरित को अंत न जाना।।

संत जनन भगतन हितकारी।

सुनि लीजै  प्रभु अरज हमारी।।

जन जन काज नर रूप तुम धारे।

 सब भगतन के काज संवारे।।

नर नारी जो महिमा गावहिं।

नाना बिधि सुख संपति पावहिं।।

आत्मानंद करहि नित गाना।

तुम्हारी किर्ति न जाइ बखाना।।

 

दोहा-

पूरन  सदगुरु महिमा भई, भयो मुदित मन आज।

दया-दृष्टि नित राखियो, हे! सतगुरु महराज।।

चरन कमल नित पूज कर, बिनती कर, कर जोरि।

 धन्य भइ मम लेखनी, लिख कर महिमा तोरि।।

 महिमा पढ़त अघात मन, पावत कृपा तुम्हार।।

 सब में तूं ही रम रहा, तूं ही जीवन सार।।

गुरु पिता गुरू मातु है,  गुरू ही सखा सुजान।

गुरु ईश्वर गुरु ज्ञान है, इसको सच तूं मान।।

ॐ  श्री बंगाली बाबाय अर्पणमस्तु

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ प्राजक्ताची फुले… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

सौ. सुचित्रा पवार

?  विविधा  ?

☆ प्राजक्ताची फुले… ☆ सौ. सुचित्रा पवार ☆

जेव्हा जेव्हा मला तुझी आठवण येते

मी प्राजक्ताला पहाते

ही टपटपणारी फुले जणू

आहेत अबोल अश्रुधारा …

हो ना …तू असा दुनियेच्या संसारात गुंतलेला तुला कुठे ठाऊक आहेत या उरीच्या वेदना ?? या प्राजक्ताच्या झुळुकीसारखेच तुझे अस्तित्व …तू आलास म्हणून मोहरून जातात दिशा …स्तब्ध होतो वारा …… मध्यान रात्री पक्षी फडफडतात …सूर्यही अवचित डोकावतो अवेळी काळ्याशार ढगांच्या जळात …गायी कान टवकारतात ..इतकेच काय ती तुझी बासुरी सुद्धा अधीर होते तुझ्या कोमल अधरांवर विसावायला …थरथरते तिचीही काया अन अधीर होते तुझ्या मंजूळ स्पर्शासाठी …केवड्याच्या बनात नाग उगीचच सळसळत रहातात …निशिंगन्ध डोकावतो हळूच हिरव्या पानाअडून तुझ्या आगमनाची वार्ता पसरावयाला ! पण …पण तू येतोस …विद्युल्लतेच्या वेगाने … धड -धड होते काळजात ..कालिंदीच्या डोहात तरंग उठत रहातात …आसुसतो तोही डोह …तुझ्या चरण कमलाना स्पर्शायला … धावते वेड्यासारखी मीही तुझ्या भेटीला पण …पण पितांबर  लहरत रहातो रुक्मिणीच्या परसदारात …चांदण झुला झुलत राहतो …..कर -कर आवाज अंधार कापत जातो ..कस्तुरी रेंगाळत रहाते आसमंतात …खोलवर श्वासात रुतत जाते माझ्या .. .. अन … अबोल प्राजक्त हळुवार ओघळतो त्या काजळलेल्या डोळ्यांच्या व्याकूळ काळोखात नि:शब्द ….

© सौ.सुचित्रा पवार 

तासगाव, सांगली

8055690240

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ फुल किती सुंदर… ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? फुल किती सुंदर ?   सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆ 

जेवढ आयुष्य आहे तेवढ

फुल किती सुंदर जगत

नितळ सौंदर्य दरवळ आपला

मुक्तपणे उधळत रहात

झाडावरच्या कळ्यांना

कस जगाव शिकवण देत

अस आखिव रेखीव जगा

आपणालाही संदेश देत

जगण्याची ही श्रीमंती

किती काळ नको विचार

आनंद द्या समाधान घ्या

तसाच असो वर्तन, आचार

चित्र साभार – सुश्री नीलांबरी शिर्के 

©  सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 27 ☆ भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ? ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?”। इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ शेष कुशल # 27 ☆

☆ व्यंग्य – “भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?” – शांतिलाल जैन ☆ 

मान लीजिए कभी मन करे आपका कि कोई आपको बुरी तरह से झिड़क दे, बदतमीज़ी करे, जलील करने की सीमा तक डांट दे. आपको अपनी एक छोटी सी उतावल पर बड़ी सी ग्लानि के दौर से गुजरने का अनुभव लेना हो तो सलाह ये कि आप एक बेहद भीड़वाले व्यस्त डॉक्टर के यहाँ परामर्श लेने जाएँ और लंबी प्रतीक्षा के बीच उसके चेम्बर के दरवाजे के ठीक बाहर मौजूद अटेंडेंट-बॉय से दो बार पूछ लें – ‘भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?’

उस रोज़ पहलीबार लगा कि पेट का दर्द कितना भी असहनीय क्यों न हो – अटेंडेंट-बॉय की झिड़की से ज्यादा असहनीय तो नहीं होता. नंबर सात बजे का मिला था और साढ़े आठ बज चुके थे. प्रतीक्षा-बेंचो पर बिखरी पड़ीं, कवर फटी पुरानी स्टार-डस्टों को कई बार पलटकर देख चुका था, पेट का  दर्द और इंतिजारजनित ऊब उर्मिला मतोंडकरों की मुस्कानों से कम नहीं होती थी. वाट्स-अप देखने का भी मन नहीं किया.   डॉक्साब के घर से डिस्कार्डेड कूबड़ निकले पुराने टीवी पर समझ नहीं पड़ता था ये एम-टीवी है कि एफ-टीवी है. बेचैनी अपने चरम पर थी, इस बीच मेरी मति मारी गई जो दो बार पूछ लिया – भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ? यकीनन, यहाँ नौकरी करने से पहले उसने व्यवहार कला का प्रशिक्षण पुलिसवालों से लिया होगा. झिड़की से पेट दर्द में टेंपरेरी रिलीफ मिला, आहत् होने के दर्द के मुक़ाबिल पेट का दर्द कुछ देर को मैं भूल ही गया. मेरी खुशनसीबी यह रही कि मुझे एंटी-रैबीज का इंजेक्शन लगवाने की जरूरत भी नहीं पड़ी.

वैसे देखा जाए तो मुझे उस समय उससे सवाल नहीं पूछना चाहिए था जिस समय वह मोबाईल पर फन्नी वीडियो देखने में मशगूल था. दस मिनिट के बाद दूसरीबार गलती तब हुई कि जब पेट में एक तेज़ मरोड़ सी उठी. वह अपनी अभिसारिका से मोबाइल पर इज़हार-ए-ईश्क कर रहा था और मैंने पूछ लिया – ‘भाईसाब हमारा नंबर कब आएगा ?’ आप ऐसी गलती मत कीजिएगा. और हाँ अगर दर्द पेट का हो तो एक वयस्क साईज़ का डायपर जरूर पहनकर जाएँ. हो सकता है बीमारी के कारण नहीं तो झिड़की के कारण वह उपयोग में आ जाए.

एक बार आँखों के डॉक्टर के यहाँ भी यही गलती की थी मैंने. ‘नंबर कब आएगा’ के जवाब में एक नर्स आई और आँखों में जाने-कौन से ड्रॉप की दो बूंद डाल कर पैंतालीस मिनिट आँखें और मुँह दोनों बंद रखने का फरमान जारी करके चली गई. चालीस मिनिट बाद एक बार पलकें ऊँची करके उसने टॉर्च मारी और फिर से दो बूंद डाल कर पैंतालीस मिनिट को आँखें और मुँह दोनों लॉक कर गई.

बहरहाल, ‘नंबर कब आएगा’ ये वो मुझे क्यों बताता ? वेटिंग हॉल उसकी टेरेटरी है, उसका साम्राज्य है, यहाँ उसकी अपनी एक सत्ता है, उसने जो कह दिया वही कानून है, उसने जो दे दी वही व्यवस्था है. लांग-कॉपी से फाड़े गए एक पन्ने पर बेतरतीबी से दर्ज़ किए गए नाम हैं जो सीएए-एनआरसी के रजिस्टर से ज्यादा डरावने हैं. उसके पास पॉवर है. क्रम में हेरा-फेरी उसका गुनाह नहीं उसका विशेषाधिकार है. भाई-भतीजे विधायकों मंत्रियों के ही नहीं होते, उसके भी होते हैं. आंटियाँ उसके मोहल्ले में भी रहती हैं.

खैर, नौ बजकर चार मिनिट और सत्ताईस सेकेंड्स पर गोचर का प्रभाव दिखा, राहू के नीच घर में प्रवेश करते ही अनुकूल परिवर्तन हुआ. जब डॉक्साब पर्चा लिख रहे थे तब मन किया कि पूछ ही लिया जाए – सर आप इस कदर शिष्ट, सौम्य, शालीन, सुसभ्य, शाईस्तगी से पेश आनेवाले ज़हीन शख्स हैं और आप ही का मुलाज़िम इस कदर ……? चलो, जाने भी दो यारों.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #139 – ग़ज़ल-25 – “आजकल मिलते नहीं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हम रदीफ़ संग क़ाफ़िया ओ बहर रखते हैं…”)

? ग़ज़ल # 25 – “हम रदीफ़ संग क़ाफ़िया ओ बहर रखते हैं…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत वाले क़यामत की नज़र रखते हैं,

महबूब को हो तकलीफ़ तो ख़बर रखते हैं।

 

हमने उनके ख़्वाबों को आँखों पर सजाया,

हमपर आई सख़्त धूप वो शजर रखते हैं।

 

उन्होंने हमारी रातों को ख़्वाबों से सजाया,

उनकी यादें हम दिल में हर पहर रखते हैं।

 

ग़ज़ल सिर्फ़ आपही लिखना नहीं जानते हो,

हम रदीफ़ संग क़ाफ़िया ओ बहर रखते हैं।

 

हमने तो लुटा दी जन्नत उनकी चाहत में

वो हमेशा मिल्कियत पर ही नज़र रखते हैं।

 

तारे तोड़ फ़लक से बिछाए  तेरी रहगुज़र,

खुद के लिए टूटे प्यालों में ज़हर रखते हैं।

 

उन पर होवे  इनायात की बारिश हर पल,

आतिश उनकी मुसीबतों से बसर रखते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा#77 ☆ गजल – ’’खतरों भरी है सड़के…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “खतरों भरी है सड़के…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 77 ☆ गजल – खतरों भरी है सड़के…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

हमें दर्द दे वो जीते, हम प्यार करके हारे,

जिन्हें हमने अपना माना, वे न हो सके हमारे।

 

ये भी खूब जिन्दगी का कैसा अजब सफर है,

खतरों भरी है सड़के, काटों भरे किनारें।।

 

है राह एक सबकी मंजिल अलग-अलग है,

इससे भी हर नजर में हैं जुदा-जुदा नजारे।

 

बातें बहुत होती हैं, सफरों में सहारों की

चलता है पर सड़क में हर एक बेसहारे।

 

कोई किसी का सच्चा साथी यहाँ कहाँ है ?

हर एक जी रहा है इस जग में मन को मारे।

 

चंदा का रूप सबको अक्सर बहुत लुभाता,

पर कोई कुछ न पाता दिखते जहां सितारे।

 

देखा नहीं किसी ने सूरज सदा चमकते

हर दिन के आगे पीछे हैं साँझ औ’ सकारे।

 

सुनते हैं प्यार की भी देते हैं कई दुहाई।

थोड़े हैं किंतु ऐसे होते जो सबके प्यारे।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार # 87 – समय का सदुपयोग ☆ श्री आशीष कुमार ☆

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #87 🌻 समय का सदुपयोग 🌻 ☆ श्री आशीष कुमार

किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था। वह बहुत ही भला था लेकिन उसमें एक दुर्गुण था। वह हर काम को टाला करता था। वह मानता था कि जो कुछ होता है भाग्य से होता है।

एक दिन एक साधु उसके पास आया। उस व्यक्ति ने साधु की बहुत सेवा की। उसकी सेवा से खुश होकर साधु ने पारस पत्थर देते हुए कहा- मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। इसलिय मैं तुम्हे यह पारस पत्थर दे रहा हूं। सात दिन बाद मै इसे तुम्हारे पास से ले जाऊंगा। इस बीच तुम जितना चाहो, उतना सोना बना लेना।

उस व्यक्ति को लोहा नही मिल रहा था। अपने घर में लोहा तलाश किया। थोड़ा सा लोहा मिला तो उसने उसी का सोना बनाकर बाजार में बेच दिया और कुछ सामान ले आया।

अगले दिन वह लोहा खरीदने के लिए बाजार गया, तो उस समय मंहगा मिल रहा था यह देख कर वह व्यक्ति घर लौट आया।

तीन दिन बाद वह फिर बाजार गया तो उसे पता चला कि इस बार और भी महंगा हो गया है। इसलिए वह लोहा बिना खरीदे ही वापस लौट गया।

उसने सोचा-एक दिन तो जरुर लोहा सस्ता होगा। जब सस्ता हो जाएगा तभी खरीदेंगे। यह सोचकर उसने लोहा खरीदा ही नहीं।

आठवे दिन साधु पारस लेने के लिए उसके पास आ गए। व्यक्ति ने कहा- मेरा तो सारा समय ऐसे ही निकल गया। अभी तो मैं कुछ भी सोना नहीं बना पाया। आप कृपया इस पत्थर को कुछ दिन और मेरे पास रहने दीजिए। लेकिन साधु राजी नहीं हुए।

साधु ने कहा-तुम्हारे जैसा आदमी जीवन में कुछ नहीं कर सकता। तुम्हारी जगह कोई और होता तो अब तक पता नहीं क्या-क्या कर चुका होता। जो आदमी समय का उपयोग करना नहीं जानता, वह हमेशा दु:खी रहता है। इतना कहते हुए साधु महाराज पत्थर लेकर चले गए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 99 – प्रारब्ध माणसाचे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 99 – प्रारब्ध माणसाचे ☆

प्रारब्ध माणसाचे कोणास ना कळे।

हे भोग संचितांचे चुकवून का टळे।

 

हा देह राबवूनी जगतास पोसणारा ।

राहूनिया उपाशी गळफास आवळे।

 

खोटीच स्वप्न सारी दुनियेस दाविशी ।

जगतास ठकविणारे हे भास आगळे।

 

देऊन तेज बुद्धी छळवाद का असा।

पैशाविना न शाळा तिळमात्र ही पळे।

 

संतान सौख्य शोधा प्रासाद गुतं ले।

तान्हास काय देऊ रंकास ना कळे।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #129 ☆ दोस्ती और क़ामयाबी ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य”  के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख दोस्ती और क़ामयाबी। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 129 ☆

☆ दोस्ती और क़ामयाबी

‘क़ामयाब होने के लिए अच्छे मित्रों की आवश्यकता होती है और अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की’ चाणक्य की इस उक्ति में विरोधाभास निहित है। अच्छे दोस्तों पर आप स्वयं से अधिक विश्वास कर सकते हैं। वे विषम परिस्थितियों में आपकी अनुपस्थिति में भी आपके पक्षधर बन कर खड़े रहते हैं और आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं। सो! क़ामयाब होने के लिए उनकी दरक़ार है। परंतु यदि आप अधिक क़ामयाब होना चाहते हैं, तो आपको शत्रुओं की आवश्यकता होगी, क्योंकि वे आपके शुभचिंतक होते हैं और आपकी ग़लतियों व दोषों से आपको अवगत कराते हैं; दोष-दर्शन कराने में वे अपना बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं। इसलिए आप उनके योगदान को कैसे नकार सकते हैं। कबीरदास जी ने भी ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छुआए/ बिन साबुन, पानी बिनु, निर्मल करै सुभाय’ के माध्यम से निंदक को अपने आंगन अथवा निकट रखने का संदेश दिया है, क्योंकि वह नि:स्वार्थ भाव से आपका स्वयं से साक्षात्कार कराता है; आत्मावलोकन करने को विवश करता है। वास्तव में अधिक शत्रुओं का होना क़ामयाबी की सीढ़ी है। दूसरी ओर यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि जिसने जीवन में सबसे अधिक समझौते किए होते हैं; उसके जीवन में कम से कम शत्रु होंगे। अक्सर झगड़े तो तुरंत प्रतिक्रिया देने के कारण होते हैं। इसलिए कहा जाता है कि जीवन में मतभेद भले ही हों; मनभेद नहीं, क्योंकि मनभेद होने से समझौते के अवसर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए संवाद करें; विवाद नहीं, क्योंकि विवाद बेसिर-पैर का होता है। उसका संबंध मस्तिष्क से होता है और उसका कोई अंत नहीं होता। संवाद से सबसे बड़ी समस्या का समाधान भी निकल आता है और उसे संबंधों की जीवन-रेखा कहा जाता है।

सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अपनी भावनाएं दूसरों से सांझा करना चाहता है, क्योंकि वह विचार-विनिमय में विश्वास रखता है। परंतु आधुनिक युग में परिस्थितियां पूर्णत: विपरीत हैं। संयुक्त परिवार व्यवस्था के स्थान पर एकल परिवार व्यवस्था काबिज़ है और पति- पत्नी व बच्चे सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। संबंध-सरोकार समाप्त होने के कारण वे एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। सिंगल- पेरेन्ट का प्रचलन भी बढ़ता जा रहा है। दोनों के अहं टकराते हैं और झुकने को कोई भी तैयार नहीं होता। सो! ज़िंदगी ठहर जाती है और नरक से भी बदतर हो जाती है। सभी सुंदर वस्तुएं हृदय से आती है और बुरी वस्तुएं मस्तिष्क से आती हैं और आप पर आधिपत्य स्थापित करती हैं। इसलिए मस्तिष्क को हृदय पर हावी न होने की सीख दी गई है। इसी संदर्भ में मानव को विनम्रता की सीख दी गयी है। ‘अदब सीखना है, तो कलम से सीखो; जब भी चलती है, झुक कर चलती है।’ इसलिए महापुरुष सदैव विनम्र होते हैं और स्नेह व सौहार्द के पक्षधर होते हैं।

भरोसा हो तो चुप्पी भी समझ में आती है अन्यथा शब्दों के ग़लत व अनेक अर्थ भी निकलते हैं। इसलिए मौन को संजीवनी व नवनिधि कहा गया है। इससे सभी समस्याओं का समाधान स्वतः निकल आता है। मानव को रिश्तों की अहमियत स्वीकारते हुए सबको अपना हितैषी मानना चाहिए, क्योंकि वे रिश्ते बहुत प्यारे होते हैं, जिनमें ‘न हक़, न शक़, न अपना-पराया/ दूर-पास, जात-जज़बात हो/ सिर्फ़ अपनेपन का एहसास ही एहसास हो।’ वैसे जब तक मानव को अपनी कमज़ोरी का पता नहीं लग जाता; तब तक उसे अपनी सबसे बड़ी ताकत के बारे में भी पता नहीं चलता। यहां चाणक्य की युक्ति अत्यंत कारग़र सिद्ध होती है कि अधिक क़ामयाब होने के लिए शत्रुओं की आवश्यकता होती है। वास्तव में वे आपके अंतर्मन में संचित शक्तियों का आभास से दिलाते हैं और आप दृढ़-प्रतिज्ञ होकर पूरे साहस से मैदान-ए-जंग में कूद पड़ते हैं।

मानव को कभी भी अपने हुनर पर अहंकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि पत्थर भी जब पानी में गिरता है, तो अपने ही बोझ से डूब जाता है। ‘शब्दों में भी तापमान होता है; जहां वे सुक़ून देते हैं; जला भी डालते हैं।’ सो! यदि संबंध थोड़े समय के लिए रखने हैं, तो मीठे बन कर रहिए; लंबे समय तक निभाने हैं, तो स्पष्टवादी बनिए। वैसे संबंध तोड़ने तो नहीं चाहिए, लेकिन जहां सम्मान न हो; वहां जोड़ने भी नहीं चाहिए। इसलिए ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि अक्सर वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। दर्द कितना खुशनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है, जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं। वास्तव में ‘ओस की बूंद-सा है/ ज़िंदगी का सफ़र/ कभी फूल में, कभी धूल में।’ परंतु ‘उम्र थका नहीं सकती/ ठोकरें उसे गिरा नहीं सकतीं/ अगर जीतने की ज़िद्द हो/ तो परिस्थितियां उसे हरा नहीं सकती’, क्योंकि शत्रु बाहर नहीं; हमारे भीतर हैं। हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह व घृणा को बाहर निकाल फेंकना चाहिए और शांत भाव से जीना चाहिए। यह प्रामाणिक सत्य है कि जो व्यक्ति इनके अंकुश से बच निकलता है; अहं उसके निकट भी नहीं आ सकता। ‘अहंकार में तीनों गए/ धन, वैभव, वंश। यकीन न आए तो देख लो/ रावण, कौरव, कंस।’ जो दूसरों की सहायता करते हैं; उनकी गति जटायु और जो ज़ुल्म होते देखकर आंखें मूंद लेते हैं; उनकी गति भीष्म जैसी होती है।

‘उदाहरण देना बहुत आसान है और उसका अनुकरण करना बहुत कठिन है’ मदर टेरेसा की यह उक्ति बहुत सार्थक है। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ अर्थात् दूसरों को उपदेश देना बहुत सरल है, परंतु उसे धारण करना अत्यंत दुष्कर। मुश्किलें जब भी जवाब देती हैं, हमारा धैर्य भी जवाब दे जाता है। ईश्वर सिर्फ़ मिलाने का काम करता है; संबंधों में दूरियां-नज़दीकियां बढ़ाने का काम तो मनुष्य करता है। जीवन में समस्याएं दो कारणों से आती हैं। प्रथम हम बिना सोचे-समझे कार्य करते हैं, दूसरे जब हम केवल सोचते हैं और कर्म नहीं करते। यह दोनों स्थितियां मानव के लिए घातक हैं। इसलिए ‘कभी फ़ुरसत में अपनी कमियों पर ग़ौर कीजिए/ दूसरों को आईना दिखाने की आदत छूट जाएगी।’ जीवन बहती नदी है। अत: हर परिस्थिति में आगे बढ़ें, क्योंकि जहां कोशिशों का अंत होता है; वहां नसीबोंं को भी झुकना पड़ता है। क़ामयाब होने के लिए रिश्तों का निर्वहन ज़रूरी है, क्योंकि रिश्ते अंदरूनी एहसास व आत्मीय अनुभूति के दम पर टिकते हैं। जहां गहरी आत्मीयता नहीं, वह रिश्ता रिश्ता नहीं; मात्र दिखावा हो सकता है। इसलिए कहा जाता है कि रिश्ते खून से नहीं; परिवार से नहीं; मित्रता व व्यवहार से नहीं; सिर्फ़ आत्मीय एहसास से वहन किए जा सकते हैं। यदि परिवार में विश्वास है, तो चिंताओं का अंत हो जाता है; अपने-पराए का भेद समाप्त हो जाता है। सो! ज़िंदगी में अच्छे लोगों की तलाश मत करो; ख़ुद अच्छे हो जाओ। शायद! किसी दूसरे की तलाश पूरी हो जाए। इंसान की पहचान तो चेहरे से होती है, परंतु संपूर्ण पहचान विचार व कर्मों से होती है। अतः में मैं यह कहना चाहूंगी कि दुनिया वह किताब है, जो कभी पढ़ी नहीं जा सकती, लेकिन ज़माना वह अध्याय है, जो सब कुछ सिखा देता है। ज़िंदगी जहां इम्तिहान लेती है, वहीं जीने की कला भी सिखा देती है। वेद पढ़ना आसान हो सकता है, परंतु जिस दिन आपको किसी की वेदना को पढ़ना आ गया; आप प्रभु को पा जाते हैं। वैसे भौतिक सुख- सम्पदा पाना बेमानी है। मानव की असली कामयाबी प्रभु का सान्निध्य प्राप्त करने में है, जिसके द्वारा मानव को कैवल्य अर्थात् अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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