हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 111 ☆ कविता – सतरंगी दोहे … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 110 ☆

☆ कविता – सतरंगी दोहे … ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

तड़क – फड़क बिजली करे, कृषक सुनें घबरायँ।

खुले गगन में जो फँसें, वे सब भी पछतायँ।।

 

पानी अमृत तत्व है, इसको सदा बचायँ।

जीवन का आधार यह, बेजा नहीं बहायँ।।

घूँट – घूँट कर ही सदा , पानी पीएँ आप।

भोजन सँग जो जल पिएँ , गैस, कब्ज हों ताप।।

 

हवा प्राण की तत्व है, करें भोर में योग।

पौधे खूब लगाइए, नहीं बढेंगे रोग।।

 

गुस्सा भी तूफान है, इससे बचिए आप।

सागर से भी कब बचें , बढ़ें सुनामी ताप।।

 

पेड़ झुकें आँधी चले, नहीं कभी घबरायँ।

विषम परिस्थिति ये कहे, नम्र सदा बन जायँ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#133 ☆ शहर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “शहर…”)

☆  तन्मय साहित्य # 133 ☆

☆ शहर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

खूबसूरत सा चमकता इक शहर

हर किसी पर, ढा रहा है ये कहर।

 

भवन बँगले फ्लेट और अपार्टमेंट

ढूंढने  से  भी मिला  नहीं एक घर।

 

माँ-पिता, मौसी, बुआ, ताऊ  कहाँ

मॉम-डैड, कज़न यहां सिस्टर  ब्रदर।

 

भावना, संवेदना से  शून्य  चेहरे

प्रेम  करुणा से  रहित सूने महल।

 

दौड़ – भाग अजब  यहाँ रफ्तार है

है किसे  फुर्सत  घड़ी भर ले ठहर।

 

कैद  घड़ियों में हुआ  अब आदमी

है कहाँ  अब साँझ, सुबहो-दोपहर।

 

अब निगलने भी लगा यह गाँव को

फैलता  ही  जा रहा  इसका जहर।

 

गीत भी है गजल भी इस शहर में

किंतु  कंठों में  नहीं है  मधुर  स्वर।

 

एक, दूजे से अपरिचित  सब यहाँ

कब  बहेगी  नेह  की   मीठी नहर।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 27 ☆ ग़ज़ल – हम गीत गुनगुनाऐंगे… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण हिंदी ग़ज़ल “हम गीत गुनगुनाऐंगे…”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 27 ✒️

?  ग़ज़ल – हम गीत गुनगुनाऐंगे… — डॉ. सलमा जमाल ?

शब्द कसमसाएंगे ,

भाव जाग जाएंगे ।

थरथराते होठों से ,

हम गीत गुनगुनाऐंगे ।।

 

तुमको मैंने चाहा है ,

तुमको मैंने पूजा है ।

अब किसी के द्वार पर ,

हम सर नहीं झुकाएंगे ।।

 

अध खुली इन आंखों के ,

सपने बिखर जाऐं ना ।

फिर वही घरोंदे हम ,

रेत पर बनाएंगे ।।

 

रूठने मनाने का ,

सिलसिला अच्छा नहीं ।

ले लो आज इंम्तहां ,

ना कभी सताएंगे ।।

 

खींच कर ले आएगी ,

‘ सलमा ‘ प्यार की लगन ।

उन हसीन लम्हों में ,

मिलकर मुस्कुराएंगे ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से  मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन– भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

मनपसंद कुर्सी से आत्मलोचन जी के प्रबल आत्मविश्वास में और भी ज्यादा वृद्धि हुई और हुक्म चलाने की अदा में कुछ बेहतर पर कड़क निखार आ गया. ये कुर्सी उन्हें सिहांसन बत्तीसी की तरह अधिनायक वादी पर दिनरात एक कर लक्ष्य पाने का ज़ुनून दे रही थी और उनका इस विशिष्ट कुर्सी के प्रति प्रेम, चंद्रकलाओं की तरह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. जिलाधीश को अक्सर किसी न किसी मीटिंग में भाग लेकर अध्यक्षता करनी पड़ती है अथवा संभागीय स्तर के उच्चाधिकारी, प्रभारी मंत्री ,सांसद, विधायकों की अध्यक्षता में आहूत बैठक में भाग लेना पड़ता है.तो जब भी बैठक की अध्यक्षता करनी होती तो बंगले से सिंहासनबत्तीसी की जुड़वां कुर्सी मीटिंग हॉल में आ जाती अन्यथा आत्मलोचन जी को उनसे ऊपर वालों की उपस्थिति में हो रही मीटिंग्स में प्रोटोकॉल के कारण बहुत अनमनेपन से सामान्य कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता.कलेक्टर की अध्यक्षता में साप्ताहिक TL याने टाईमलिमिट मीटिंग पहले हर मंगलवार को निर्धारित थी पर जब उन्होंने पाया कि जिलास्तर के विभागीय प्रमुख अपना सप्ताहांत  महानगर स्थित परिवार के साथ बिताने के बाद सोमवार को “देरआयद दुरुस्तआयद” की प्रक्रिया का पालन कर आराम से कार्यालय पहुंचते हैं तो उन्होंने TL meeting को सोमवार 11बजे से लेना प्रारंभ कर दिया. उनके बहुत सारे अधीनस्थ इससे परेशान तो हुये क्योंकि अब उन्हें हर हाल में जिला मुख्यालय में सुबह पहुंचना पड़ता था पर और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था क्योंकि वीकएंड में मुख्यालय बिना अनुमति के छोड़ने की परंपरा यहां पर भी सामान्य रूप से प्रचलन में थी. हर तिमाही रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार होने वाली बैठक उनकी अध्यक्षता में होती थी जिसके बिंदुवार अनुवर्तन के मामले में वो बहुत कुशल और कड़क थे और पिछली मीटिंग्स में दिये गये आश्वासन पूरे नहीं होने पर false promise करने वाले अधिकारियों की कड़क समझाइश भी की जाती थी भले ही वह व्यक्ति उनके अधीन हो या न हो.उनका यह सोचना था कि जिले की प्रगति के साथ अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी है और हर मीटिंग्स के लक्ष्य शत-प्रतिशत पूरा करना उपस्थित अधिकारियों का कर्तव्य.इस बारे में उनके हर कोआर्डिनेटर को स्पष्ट निर्देश थे कि मीटिंग्स अटैंड करनेवाले लोग अधिकारसंपन्न हों,कई बार प्राक्सी लोगों को आने पर मीटिंग्स से वापस भेजने की परिपाटी उनके कार्यकाल में ही रिवाज में आई.

आत्मलोचन जी अविवाहित थे और अपने माता पिता के साथ अपने बंगले में सामान्य पर गरीबी मुक्त वैभवशाली जीवन व्यतीत कर रहे थे जो उनकी प्रतिभा, निष्ठा, परिश्रम और सौभाग्य के कारण उनका हक था पर उनके शिक्षक पिता कभी कभी अपने पुत्र के व्यवहार में संवेदनहीनता, घमंड, निर्दयता की झलक पाकर चिंतित हो जाते थे. पुत्र की असीम उपलब्धियों ने , पिता से पुत्र को सलाह देने या कुछ सुधार करने की पात्रता छीन ली थी और पितृत्व की शक्ति का स्थान, इन अवगुणों को नजरअंदाज करने की निर्बलता लेती जा रही थी.

 पुत्र इस बात पर आश्वस्त थे कि पिता ने उसके ऊपर जो भी इन्वेस्ट किया था उससे कई गुना सम्मानित और वैभवशाली जीवन वह अपने पिता को लौटा चुका है तो अब पिताजी को अपना शेष जीवन आराम से अपनी रुचियों (हॉबीज़) के साथ बिताना है और कम से कम पुत्र के जीवन में अब कोई दखलंदाजी करने की जगह नहीं है और आखिर हो भी क्यों और वो क्या समझें कि कलेक्टर का दायित्व कितना बड़ा होता है.

 पिता और पुत्र के बीच संवाद की एक ही स्थिति थी “संवादहीनता” जो धीरे धीरे कब अपना स्थान बनाती गई, दोनों को पता नहीं चल पाया. जन्म केे  रिश्तों का अपनापन, अधिकार और गरमाहट कब ठंडी पड़ गई ,एहसास बहुत धीमे धीमे हुआ पर आखिर हो ही गया और पिता और पुत्र एक ही बंगले में एक दूसरे के अस्तित्व को अनुपस्थिति के समान उपस्थिति से भरा समय समझते हुये गुजारते जा रहे थे.

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 110 ☆ चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “चार अनाथ बालिकाओं की कहानी”)

☆ संस्मरण # 110 – चार अनाथ बालिकाओं की कहानी – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

माँ  सारदा कन्या विद्यापीठ के छात्रावास में एक अनाथ कन्या शिवानी रहती है ।  यह मुझे तब ज्ञात हुआ शिवानी ने 12 मार्च 2021 को शिवमंदिर के सामने डाक्टर सरकार की चिता को मुखाग्नि दी थी और उनका अंतिम संस्कार विधि विधान से किया । लेकिन जब पिछली बार पोड़की गया तो पता चला कि शिवानी सहित चार अनाथ बालिकाएं यहाँ छात्रावास में रहकर शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।

शिवानी जब तीन वर्ष की थी, तब वह अपने माता पिता से कटनी रेलवे स्टेशन में बिछड़ गई । रेलवे पुलिस ने उसे वहाँ एक अनाथालय में दाखिल करा दिया । कुछ दिन वह अनाथालय में रही और फिर मौका देखकर वहाँ से निकल भागी, शायद उसे वहाँ के वातावरण में प्रेम और करुणा का एहसास नहीं हुआ होगा । अनुपपुर स्टेशन रेलवे  पुलिस के द्वारा उसका  पुन: उद्धार किया गया और फिर जिला प्रशासन के उप जिला दंडाधिकारी ने डाक्टर सरकार से चर्चा कर शिवानी को उन्हें सौंप दिया। तब से शिवानी आश्रम में रह रही है और उसने आठवीं की परीक्षा विगत वर्ष उत्तीर्ण कर ली है । बिना माँ की बेटी के लिए यह उम्र अनेक परेशानियाँ लेकर आती है और यही कुछ अब शिवानी के साथ हो रहा है । आश्रम की अन्य बालिकाओं व कर्मचारियों के सद्व्यवहार के बावजूद शिवानी अक्सर स्वेच्छाचारी हो जाती है । ऐसे में उसे नियंत्रित करना बड़ी बहनजी के लिए भी मुश्किल हो जाता है । शिवानी के स्वभाव में हो रहे परिवर्तन, एवं अध्ययन के प्रति उसकी अरुचि  को देखते हुए उसका दाखिला निकटवर्ती उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नहीं कराया गया । वह निजी छात्रा के रूप में आगे की पढ़ाई जारी रखेगी । शासन द्वारा जातिगत आधार पर जो सुविधाएं दी जाती है शिवानी उससे वंचित है क्योंकि उसके पास तहसीलदार द्वारा जारी जाति प्रमाणपत्र नहीं है । भविष्य में उसके विवाह की भी समस्या आएगी । शासन के अधिकारियों के पास इन समस्याओं का समाधान, किसी परिवार द्वारा उसे  गोद लिया जाना है। पहले बाबूजी और अब  बड़ी बहनजी शिवानी को किसी को  गोद दिए जाने के पक्ष में नहीं रहे हैं । शिवानी भी गोद लिए जाने के प्रस्ताव से असहमत है, वह स्वयं को बाबूजी की पुत्री मानती है ।  इन सभी सामाजिक और शासकीय परेशानियों  के बावजूद शिवानी का भविष्य अंधकारमय नहीं है। बड़ी बहनजी कहती हैं कि वह सेवाश्रम की बेटी है और जब उसकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी तब उसे यहीं योग्यता के अनुरूप काम दिया जाएगा ताकि वह अपनी आजीविका कमाती रहे, सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सके।  

अंकिता अभी चौथी कक्षा में पढ़ रही है और उसकी बड़ी बहन हिरोंदिया सातवीं कक्षा की छात्रा है । खाँटी गाँव की रहने वाली इन दोनों बैगा कन्यायों के पिता प्रेम बैगा की मृत्यु हो गई । दादी ने बच्चियों की माँ, गुलवतिया  को इतना प्रताड़ित किया कि उसने आत्महत्या कर ली ।  गुलवतिया की छोटी  बहन गुलाबवती बैगा विद्यापीठ की पुरानी छात्रा थी । उसने जब बाबूजी को यह दुखद गाथा सुनाई तो करुणा की मूर्ति डाक्टर सरकार हिरोंदिया को सेवाश्रम ले आए और उसका प्रवेश पहली कक्षा में करवाया। बाद में जब अबोध अंकिता बड़ी हुई तो उसकी दादी स्वप्रेरणा से उसे भी सेवाश्रम में छोड़ गई । दोनों बहनें यहाँ छात्रावास में रहकर पढ़ रही हैं और अक्सर अपनी दादी से भी मिलने जाती रहती हैं । बड़ी बहनजी कहती हैं कि हिरोंदिया का अगर मन पढ़ने में लगा रहा तो यह लड़की भी अपनी मौसी गुलाबवती  की भांति स्नातक हो सकती है । उसमें क्षमता है पर उम्र का असर अनाथ बच्चियों को ज्यादा प्रभावित करता है। उम्र बढ़ने के साथ  मन भटकता रहता है, और ऐसे में माँ की भूमिका अहम हो जाती है । बालिकाओं को इस उम्र में माँ की सहानभूति और प्रेम से भरी फटकार दोनों की जरूरत होती है ।  मैंने कहा ‘आप ही इनकी माँ हैं ।‘ बड़ी बहनजी ने सकारात्मक प्रत्युत्तर दिया और बोली माँ की डांट फटकार का बच्चों को बुरा नहीं लगता पर मेरी इच्छा उन्हें दंडित करने की कभी नहीं होती, मैंने इन बच्चियों को उनकी अबोध अवस्था से पाल-पोष कर बड़ा किया है ।

पार्वती बैगा समीपस्थ ग्राम उमरगोहन के लंका टोला की निवासिनी है । गाँव का यह मोहल्ला बैगा बहुल है और रामायनकालीन रावण से इसका दूर दूर तक संबंध नहीं है । लंका टोला नामकरण का किस्सा आप विस्तार से उमरगोहान की कहानी में पढ़ सकते हैं । जब पार्वती विद्यापीठ की पाँचवी  कक्षा में पढ़ रही थी तब उसके पिता राय सिंह बैगा ने अपनी पत्नी की निर्दयतापूर्वक  हत्या कर दी । पार्वती की माँ घर में भोजन पका रही थी कि अचानक शराब के नशे में धुत्त रायसिंह बैगा ने कुल्हाड़ी के एक ही वार से अपनी पत्नी का सिर धड़ से अलग कर दिया । वह दिन भर एक हाथ में कुल्हाड़ी और दूसरे हाथ में मृत पत्नी का मुंड लिए गाँव में घूमता रहा। भयग्रस्त ग्रामीणों ने पुलिस को खबर दी। जब तक पुलिस मौका-ए-वारदात पर पँहुचती, हत्यारे का नशा उतर  चुका था और वह लंका टोला से लगे हुए मैकल पर्वत शृंखला के जंगल में मृत पत्नी की लाश ठिकाने लगाने के जुगाड़ में था कि पुलिस वहाँ पहुंची उसने अधजली लाश को अपने कब्जे में लिया, पंचनामा बना लाश को शव विच्छेदन के लिए भेज दिया, हत्यारा गिरफ्तार किया गया और अब जेल में आजीवन कारावास की सजा भुगत रहा है । अबोध बालिका से शुरू में बाबूजी ने माँ की हत्या राज छिपाए रखा । पार्वती के दो भाई,  पढ़ाई लिखाई से वंचित, अपने चाचा के साथ रहते हैं । पार्वती पोड़की स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में नौवीं कक्षा में पढ़ रही है । उसे शासकीय उत्कर्ष  उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा में भी सफलता मिल गई थी । पर जाति प्रमाण पत्र के अभाव में वह वहाँ निशुल्क शिक्षा की पात्रता से वंचित हो रही थी इसीलिए उसे स्थानीय स्कूल में प्रवेश दिलवाया गया और सेवाश्रम के छात्रावास में रहने और भोजन की व्यवस्था की गई। यद्दपि बाद में बहुत ना नुकूर के बाद पार्वती के चाचा ने सहयोग दिया और दस्तावेज उपलब्ध कराए। हालांकि पार्वती के पास अब उसका जाति प्रमाणपत्र तो है पर इस विलंब ने उसे  उत्कर्ष विद्यालय की गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा से वंचित कर दिया । अनाथ बालिकाओं का यही प्रारब्ध होता है, परिजन उनका उपयोग मेहनत मजदूरी में चाहते हैं ताकि आमदनी का साधन बना रहे । ऐसी पृच्छा अक्सर पार्वती के पितृ कुल द्वारा की जाती है । वे उसे वापस गाँव ले जाना चाहते हैं और उसके विवाह पर जोर देते हैं । लेकिन बड़ी बहनजी चाहती हैं कि पार्वती आगे पढे और अपने पैरों पर खड़ी हो ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 133 ☆ गझल… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 133 ?

☆ गझल… ☆

सदा तेच क्षण  डोळ्यांमध्ये

तुझे  जागरण डोळ्यांमध्ये

 

टिपू काय ती मी ओठांनी

सुरेख पखरण डोळ्यांमध्ये

 

नकोय अंजन आता कुठले

तुझीच झणझण डोळ्यांमध्ये

 

तुला सजवले मी हृदयाशी

दिसे समर्पण डोळ्यांमध्ये

 

दिवे कशाला लावू आता

सदैव औक्षण डोळ्यांमध्ये

 

अथांग सागर मनीमानसी

ते गहिरेपण डोळ्यांमध्ये

 

भाषा अवगत कशी जाहली?

दिसे व्याकरण डोळ्यांमध्ये

 

जरी मला तू ओढ लावली

पण आकर्षण डोळ्यांमध्ये

 

सगळे तो ही स्वच्छ दाखवी

बिलोर दर्पण डोळ्यांमध्ये

© प्रभा सोनवणे

२० मे २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ आणि पसारा करायचाच असेल तर…. अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री माधुरी परांजपे ☆

? मनमंजुषेतून ?

☆ आणि पसारा करायचाच असेल तर…. अज्ञात ☆ प्रस्तुती – सुश्री माधुरी परांजपे ☆

आज स्वयंपाकघर आवरायला काढलं होतं. आवरायच्या आधीच ठरवलं होतं की ज्या गोष्टी गेल्या वर्षभरात लागल्याच नाहीत, वापरल्या गेल्याच नाहीत त्या सरळ काढून टाकायच्या आणि देऊनच टाकायच्या. अशा बर्‍याच निघाल्या पाहता पाहता. केवढा पसारा. विस्मृतीत गेलेल्या बर्‍याच गोष्टी. 

कधीतरी त्या हव्या होत्या पण वेळेवर कुठे ठेवल्या तेच आठवलं नाही. म्हणून ती वेळ भागवायला लगेच बाजार गाठला. सगळं उरकल्यावर ती वस्तू सापडली. पण मग काय उपयोग??

आखीव, रेखीव, आटोपतं असं असावं ना सगळंच, असं वाटायला लागलंय हल्ली. माझी आजी म्हणायची दोन लुगडी हवीत. एक अंगावर आणि एक दांडीवर…

आता भांडी ढीगभर, कपडे कपाटातून उतू जाताहेत, खाद्यपदार्थांची रेलचेल. कशाचंच नावीन्य नाही राहिलं.

माझ्या ओळखीतली, नात्यातली, अशी उदाहरणे आहेत.  पेशंट असलेली, आजारी असलेली, त्यांनी जाण्याआधी आपलं सगळं सामान वाटून टाकलं. काहीजणांनी तर कुणाला काय द्यायचं ते लिहून ठेवलं. खरंच नवल वाटलं मला. आपण काहीतरी शिकायला हवं असं वाटून गेलं.

ह्या वस्तूंचा मोह सुटत नाही. शेवटपर्यंत माणसाला खाण्याचा मोह सोडवत नाही. 

खाण्याची इच्छा आणि ह्या गोष्टीतली इच्छा संपली की माणूस जाणार हे समजायला लागतं.

एक ओळखीच्या आजी होत्या, मुलबाळ काही नव्हते . एकट्या राहायच्या एका वाड्यात. 

पुतणे वगैरे होते पण कुणाजवळ गेल्या नाहीत.आपली पेन्शन कुणी घेईल ह्या भितीने लपवून ठेवत असाव्यात. 

गेल्या तेव्हा उशीमधे पण पैसे सापडले. जातांना म्हणत होत्या नवी नऊवार साडी कुणालातरी पिको करायला दिलीय. तिच्याकडेच आहे. आणा म्हणून. असंही उदाहरण आहे, 

एक ओळखीच्या बाई गेल्या. कॕन्सर झाला होता, पण गेल्या तेव्हा एका वहीत सगळं लिहून ठेवलं होतं. 

जी बाई त्यांची सेवा सुश्रुषा जाईपर्यंत करत होती तिला स्वतःची सोन्याची चेन आणि वीस हजार रुपयाचं पाकीट ठेवून गेल्या. मुलींना काय द्यायचं, सुनेला काय द्यायचं सगळं लिहून गेल्या. साड्या बाकी सामान कोणत्या अनाथाश्रमाला द्यायच्या ते पण लिहून गेल्या. ह्याला म्हणतात प्लानिंग.

देवही तेवढा वेळ देतो आणि हे लोक पण आपल्याला जायचंय हे मान्य करतात. ह्याला हिंमतच लागते.

नाहीतर आपण एक गोष्ट सोडत नाही हातातून. कायमचा मुक्काम आहे पृथ्वीवर ह्या थाटातच वावरत असतो आपण. 

तीन-तीन महिन्यांचा नेट पॕक किती कॉन्फीडन्सने मारुन येतो आपण. नवलच वाटतं माझंच मला.

चार प्रकारचे वेगवेगळे झारे, चार वेगवेगळ्या किसण्या, आलं किसायची, खोबरं किसायची, बटाट्याचा किस करायची जाड अशी– असं बरंच काही. सामानातलं खोबरं आणल्यावर किसणं होत नाही लवकर. 

खूप पाहुणे येतील कधी म्हणून पंचवीसच्या वर ताटं, वाट्या, पेले आणि पाहुणे येतंच नाहीत, आले तरी एकदिवस मुक्काम. घरी एक नाश्ता आणि एक जेवण बाहेर. घरी जेवणं झाली तरी भांडीवाली बाई सुट्टी मारेल खूप भांडी पडली तर म्हणून युज अॕण्ड थ्रो प्लेट्स. कुणालाच घासायला नको. पाहुणे मुक्काम करत नाहीत सहसा. कारण एक सतरंजी पसरवून सगळे झोपलेत असं होत नाही. कुणाचे गुडघे दुखतात, कुणाला कमोड लागतो. तेव्हा प्रत्येकाला  आपआपल्या घरी परतण्याची घाई. घरची बाई पण आग्रह करत नाही कारण तिच्या हातून काम होत नाही. 

पाहुणी आलेली बाई मदत करत नाही. सगळ्यांच्या हातात नेऊन द्यावं लागतं. अशा तक्रारी ऐकू येतात—-

असं खूप काही आठवत बसतं, पसारा पाहून…

एवढाच पसारा हवा की वरच्याचं बोलावणं आलं, चल म्हणाला की लगेच उठून जाता आलं पाहिजे. 

पण तसं होत नाही. दिवसेंदिवस जीव गुंततच जातो. वस्तूंमध्ये, दागिने, पैसा, नाती आणि स्वतः मधे पण. 

रोज कुणीतरी गेल्याच्या बातम्या येतात. पण तरी नाही.. आपण काही सुधारणार नाही.

— दरवर्षी घरातला पसारा काढायचा आवरायला. त्याच त्या वस्तू पुन्हा काढायच्या- पुन्हा ठेवायच्या असं चाललेलं असतं आपलं. देऊन टाकलं तरी पुन्हा नवीन आणायचं.

खरंतर जितक्या गरजा कमी, तितका माणूस सुखी … पण मन ऐकत नाही.. 

ये मोह मोह के धागे…….मग त्या धाग्यांचा कोष, मग गुंता, मग गाठ आणि मग पीळ…आणि मग सुंभ जळला तरी पीळ जात नाही…

निसर्गाकडून शिकायला हवं, आपल्या जवळ आहे ते देऊन टाकायचं आणि रितं व्हायचं. फळं, फुलं, सावली, लाकडं सगळं सगळं देण्याच्याच कामाचं.

पण आम्ही नाही शिकत …

— थोडक्यात काय तर पसारा करु नये, आटोपशीर ठेवावं सगळं..

— आणि पसारा करायचाच असेल तर तो करावा दुसऱ्यांच्या मनात— आपल्या चांगल्या आठवणींचा, सहवासाचा, आपल्या दानतीचा… दिसू द्यावा तो आपल्या माघारी– आपण परतीच्या प्रवासाला निघाल्यावर लोकांच्या मनात, डोळ्यात, अश्रूंच्या बांधात…

— जातांना आपण मागे बघितलं तर दिसावा खूप पसारा— आपल्या माणसांचा, जिव्हाळ्याचा, गोतावळ्याचा—–

संग्रहिका – सुश्री माधुरी परांजपे

बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

मो ९४२११२५३५७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक २२ – भाग २ – जॉर्डन – लाल डोंगर, निळा सागर ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २२ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ जॉर्डन – लाल डोंगर, निळा सागर  ✈️

जॉर्डनवर बाबीलोनियन, पर्शियन यांच्यानंतर इसवी.सन ६३ पर्यंत नेबेटिअन्सनी राज्य केलं.इ. स. पूर्व दुसऱ्या शतकापासून पेट्रा ही नेबेटिअन्स राज्यकर्त्यांची राजधानी होती. हिंदुस्थान ,चीन, युरोप यांना जोडणारा व्यापारी मार्ग पेट्रावरून जात असे.नेबेटिअन्सनी  या व्यापारी मार्गावरून जाणाऱ्या उंटांच्या कबिल्यांना, व्यापार्‍यांना संरक्षण दिलं व त्यांच्याकडून करवसुली केली. त्याकाळी हिंदुस्थानातून मसाल्याचे पदार्थ,रेशीम, अरबस्तानातून सुगंधी धूप व ऊद, आफ्रिकेतून हस्तीदंत व जनावरांची कातडी यांचा व्यापार होत असे. नेबेटिअन्सकडून   राज्य घेण्याचा प्रयत्न ग्रीकांनी केला.  नंतर रोमन जनरल पॉ॑म्पे याने सिरिया व जॉर्डन जिंकून घेतलं . रोमन्सनी शहराचं पुनर्निर्माण केलं. मोठ्या रुंद रस्त्यांच्या कडेने उंच कलाकुसरीचे दगडी खांब उभारले. सार्वजनिक बाथस्,ॲ॑फी थिएटर्स, सुंदर इमारती, कारंजी उभारली. व्यापारी मार्ग ताब्यात घेतला. नंतर रोमन साम्राज्यात ख्रिश्चन हा अधिकृत धर्म ठरविण्यात आला. दोन चर्चेस बांधण्यात आली. पुढे सातव्या शतकात इस्लामचा प्रसार झाला. इसवी सन ७३७ मध्ये भयानक भूकंप झाला आणि पेट्रा गाडलं गेलं, नाहीसं झालं व नंतर विस्मृतीत गेलं. इसवी सन १८१२ मध्ये स्विस प्रवासी जोहान बर्कहार्ड यांनी प्रयत्नपूर्वक  पेट्रा शोधून काढलं व पेट्राचं पुनरुज्जीवन झालं.

आज मदाबा व माउंट नेबो इथे जायचं होतं. माउंट नेबो हा दोन हजार पाचशे फूट उंचीचा डोंगर आहे .डोंगरावर जायला चांगला रस्ता बांधून काढलेला आहे. दोन्ही बाजूला छोट्या बागा, फुलझाडं, ऑलिव्ह वृक्ष आहेत. सुरुवातीला पुस्तकाच्या पानासारखं उंच, आधुनिक शिल्प आहे. त्यावर तिथे भेट दिलेल्या महत्त्वाच्या व्यक्तींची नावे कोरली आहेत. माउंट नेबो इथे मोझेसचं दफन केलं असं समजलं जातं. म्हणून ही जागा धार्मिक, पवित्र मानली जाते. या डोंगराच्या माथ्यावर उभं राहिलं की जॉर्डन रिव्हर व्हॅलीचं दृश्य दिसतं. तसंच इथून मृत समुद्र (डेड सी ) व जेरूसलेमचे डोंगर दिसतात . चौथ्या शतकातील एका भग्नावस्थेतील चर्चच्या पुनर्बांधणीचे काम चालू होतं. मूळ चर्चमध्ये सापडलेल्या मोझॅक  टाइल्स व्यवस्थित मांडून त्यांची सफाई करण्याचं, रंग देण्याचं काम चालू होतं. या मांडलेल्या टाइल्समध्ये आपल्या बारा राशींची चित्र – मेंढा, विंचू, मासा वगैरे- होती. जिथून जॉर्डन रिव्हर व्हॅली दिसते त्याठिकाणी ब्रांझचे एक आधुनिक शिल्प उभारलेलं आहे. काठीसारख्या उभ्या खांबाभोवती अनेक सर्पाकृतींनी विळखा घातला आहे असे ते शिल्प आहे. मोझेसने स्वसंरक्षणार्थ काठीपासून साप तयार केले अशी गोष्ट गाईडने सांगितली. या सर्पाकृतीच्या डोक्यावर क्रॉसचं चिन्हआहे.

तिथून एक मोझॅक टाइल्सची फॅक्टरी बघायला गेलो. एका तरुण स्त्रीने अस्खलित इंग्रजीमध्ये मोझॅक टाइल्सच्या छोट्या- छोट्या तुकड्यांपासून सुंदर चित्रं कशी बनविली जातात ते सांगितलं.जॉर्डनमध्ये स्त्रिया शिकलेल्या आहेत. बुरख्याची पद्धत नाही.पण केस झाकलेले असतात. तरुण मुली जीन्स-टॉप वगैरे  पाश्चात्य वेशात रिसेप्शनिस्ट म्हणून काम करतात. शिक्षिका म्हणून अनेक जणी नोकरी करतात. तसेच त्या पोलीस व सैन्यदलातही काम करतात. फॅक्टरीमध्ये स्त्रिया कापडावर तऱ्हेतऱ्हेची  पानं-फुलं,मोर, धार्मिक चित्रे यांची डिझाईन्स शाईने काढून त्यावर रंगीत मोझॅक टाइल्सचे छोटे तुकडे फेव्हिकॉलने ( पूर्वी यासाठी वेगळा विशिष्ट झाडाचा डिंक वापरत असत ) चिकटवीत होत्या. यातून भित्तिचित्र, टेबल टॉप, फ्रेम्स बनवत होत्या. शिवाय तिथे सिरॅमिक डिशेस, उंची फर्निचर विक्रीसाठी ठेवलं होतं.

तिथून मदाबा इथे गेलो. सेंट जॉन चर्चकडे जाणाऱ्या रस्त्यावर दोन्ही बाजूला अनेक विक्रेते स्थानिक व धार्मिक कलाकृतींची विक्री करत होते. दिल्लीहून एक खूप मोठा ख्रिश्चन ग्रुप आला होता. या सेंट जॉन चर्चमध्ये ६ व्या शतकातला,मोझॅक टाइल्सचा होली लँड दाखविणारा नकाशा आहे. चर्चच्या अंतर्भागातील जमिनीवर हा नकाशा मोझॅक टाइल्सच्या वीस लाख रंगीत तुकड्यांनी बनविलेला आहे. यात डोंगर-दऱ्या, नाईल नदीचा त्रिभुज प्रदेश, पॅलेस्टाईनमधील गावे,बेझेंटाईन काळातील जेरुसलेम म्हणजे ‘होली लॅ॑ड’ असे सारे दाखविले आहे. आधी बाहेरच्या हॉलमध्ये प्रोजेक्टरच्या सहाय्याने गाईडने हे नकाशा चित्र समजावून सांगितले. नंतर चर्चच्या अंतर्भागातील थोड्या काळोखात असलेला, जमिनीवरील हा मोझॅक टाइल्सचा नकाशा आम्ही बॅटरी…

जॉर्डन भाग– समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ☆ लेखनी सुमित्र की # 89 – दोहे ☆☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 89 –  दोहे ✍

अनुभव होता प्रेम का, जैसे जलधि तरंग ।

नस -नस में लावा बहे, मन में रंगारंग।।

 

उसे जानता कौन जो, सागर का विस्तार ।

मंदिर या मस्जिद नहीं, कहलाता वह प्यार।।

 

आयत कहता हूं उसे, कहता उसे कुरान।

मेरे लेख प्रेम है, गीता वेद पुरान।।

 

परिभाषा दें प्रेम की, किसकी है औकात।

कभी मरुस्थल- सा लगे कभी चांदनी रात।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 34 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 34 – मनोज के दोहे

(फसल, मिट्टी, खलिहान, अन्न, किसान)

हरित क्रांति है आ गई, भारत बना महान।

फसल उगा कर भर रहा, पेट और खलिहान।।

 

मिट्टी की महिमा अलग, सभी झुकाते माथ।

जनम-मरण शुभ-कार्य में, सँग रहता साथ।।

 

कृषक भरें खलिहान को, रक्षा करें जवान।

खुशहाली है देश में, सभी करें यशगान।।

 

अन्न उपजता खेत में, श्रम जीवी परिणाम।

बहा पसीना कृषक का, सुबह रहे या शाम।।

 

कुछ किसान दुख में जिएँ, कष्टों की भरमार।

उपज मूल्य अच्छा मिले, मिलकर करें विचार।।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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