(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “चरैवेति चरैवेति…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 230 ☆चरैवेति चरैवेति…… ☆
आस्था और भक्ति के रंगों से सराबोर श्रद्धा व विश्वास सहित महाकुम्भ में मौनी अमावस्या पर अमृत स्नान की डुबकी हमें मानसिक मजबूती प्रदान करेगी। जो चाहो वो मिले यही भाव मन में रखकर श्रद्धालु कई किलोमीटर की पैदल यात्रा से भी नहीं घबरा रहे हैं। मेलजोल का प्रतीक प्रयागराज सबको जीवन जीने की कला सिखाने का सुंदर माध्यम बन रहा है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 330 ☆
व्यंग्य – गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
धन्य हैं वे श्रद्धालु जो कुंभ में गंगा दर्शन की जगह मोनालिसा की चितवन लीला की रील सत्संग में व्यस्त हैं. स्त्री की आंखों की गहरी झील में डूबना मानवीय फितरत है. मेनका मिल जाएं तो ऋषि मुनियों के तप भी भंग हो जाते हैं. हिंदी लोकोक्तियाँ और कहावतें बरसों के अध्ययन और जीवन दर्शन, मनोविज्ञान पर आधारित हैं. “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. इसका अर्थ है कि किसी विशेष उद्देश्य से हटकर किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाना. बड़े लक्ष्य तय करने के बाद छोटे-मोटे इतर कामों में भटक जाना”.
कुम्भ में इंदौर की जो मोनालिसा रुद्राक्ष और 108 मोतियों वाली जप मालाएं बेचती हैं उनकी मुस्कान से अधिक उनकी भूरी आंखों की चर्चा है. वे शालीन इंडियन ब्लैक ब्यूटी आइकन बन गई हैं. यह सब सोशल मीडिया का कमाल है. एक विदेशी युवती सौ रुपए लेकर कुंभ यात्रियों के साथ सेल्फी खिंचवा रही है. दिल्ली में वड़ा पाव बेचने वाली सोशल मीडिया से ऐसी वायरल हुई कि रियल्टी शो में पहुंच गई. मुंबई के फुटपाथ पर लता मंगेशकर की आवाज में गाने वाली सोशल मीडिया की कृपा से रातों रात स्टार बन गई. जाने कितने उदाहरण हैं सोशल मीडियाई ताकत के कुछ भले, कुछ बुरे. बेरोजगारी का हल सोशल इन्फ्लूएंसर बन कर यू ट्यूब और रील से कमाई है.
तो कुंभ में मिली मोनालिसा की भूरी चितवन इन दिनों मीडिया में है. यद्यपि इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालिसा स्मित मुस्कान के लिए सुप्रसिद्ध है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को मॉडल बनाकर की गई थी. यह सुप्रसिद्व पेंटिंग आजकल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है. इस पेंटिंग को बनाने में लिओनार्दो दा विंची को 14 वर्ष लग गए थे. पेंटिंग में 30 से ज़्यादा ऑयल पेंट कलर लेयर्स है. इस पेंटिंग की स्मित मुस्कान ही इसकी विशेषता है. यूं भी कहा गया है कि अगर किसी परिस्थिति के लिए आपके पास सही शब्द न मिलें तो सिर्फ मुस्कुरा दीजिये, शब्द उलझा सकते है किन्तु मुस्कुराहट हमेशा काम कर जाती है.
तो अपना कहना है कि मुस्कराते रहिए. माला फ़ेरत युग गया, माया मिली न राम, कुंभ स्नान से अमरत्व मिले न मिले, पाप धुले न धुलें, किसे पता है. पर राम नामी माला खरीदिए, मोनालिसा के संग सेल्फी सत्संग कीजिए, इसमें त्वरित प्रसन्नता सुनिश्चित है. हमारे धार्मिक मेले, तीज त्यौहार और तीर्थ समाज के व्यवसायिक ताने बाने को लेकर भी तय किए गए हैं. आप भी कुंभ में डुबकी लगाएं.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।
राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?
एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।
फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।
और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।
आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।
इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।
मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।
और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।
समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 202 ☆
☆ व्यंग्य – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।
उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।
‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।
ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।
तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर
लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।
चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।
ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।
पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।
छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।
कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।
इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(पूर्वसूत्र- इथं कोल्हापूरात लहान वयाच्या पेशंटना देवधर डागतरकडंच आणत्यात समदी. माज्या रिक्षाच्या तर रोज चार-पाच फेऱ्या हुत्यात. म्हनून तर सवयीनं त्येंच्या दवाखान्याम्होरंच थांबलो बगा.. ” तो चूक कबूल करत म्हणाला. पण…. ?
पण ती त्याची अनवधानानं झालेली चूक म्हणजे पुढील अरिष्टापासून समीरबाळाला वाचवण्याचा एक केविलवाणा प्रयत्न होता हे सगळं हातातून्या निसटून गेल्यानंतर आमच्या लक्षात येणार होतं… !!)
डॉ. जोशींच्या हॉस्पिटलमधे गेलो त्याआधीच आपलं काम आवरून रिसेप्शनिस्ट घरी गेलेली होती. हॉस्पिटलमधे एक स्टाफ नर्स होती. तिने ‘डॉक्टर अर्जंट मीटिंगसाठी राऊंड संपवून थोड्याच वेळापूर्वी गेलेत, आता उद्याच येतील’ असे सांगितले. आम्ही इथे तातडीने येण्याचे प्रयोजन तिला सांगताच तिने आम्हाला एका रूममधे बसवले. लगबगीने बाहेर गेली. ती परत येईपर्यंतची पाच दहा मिनिटेही आमचं दडपण वाढवणारी ठरत होती. ती येताच तिने बाळाला अॅडमिट करून घ्यायच्या फॉर्मलिटीज पूर्ण केल्या.
“डॉक्टर कधी येतायत?”
मी उतावीळपणे विचारले.
डॉक्टर सपत्निक केशवराव भोसले नाट्यगृहात नाटक पहायला गेले होते हे नर्सला असिस्टंट डॉक्टरशी बोलल्यावर समजले होते. समीरच्या केसबद्दल त्याच्याशी डॉक्टरांची जुजबी चर्चा झालेली होती. त्यानुसार त्याने दिलेल्या सूचनेप्रमाणे नर्सने तातडीने समीरबाळाला सलाईन लावायची व्यवस्था केली.
डाॅ. जोशी दुसऱ्या दिवशी सकाळी नेहमीप्रमाणे राऊंडला आले. समीरला तपासताना असिस्टंट डॉक्टरही सोबत होते. आम्हाला औषधांचं प्रिस्क्रिप्शन त्यांनी लिहून दिलं.
“दोन दिवस सलाईन लावावं लागेल. या औषधाने नक्कीच फरक पडेल. डोण्ट वरी. “
आम्हाला धीर देऊन डाॅक्टर दुसऱ्या पेशंटकडे गेले. योग्य निर्णय तातडीने घेतल्याचं त्या क्षणी आम्हाला मिळालेलं समाधान कसं भ्रामक होतं हे आमच्या लक्षात यायला पुढे आठ दिवस जावे लागले. दोन दिवसांपुरतं लावलेलं सलाईन चार दिवसानंतरही सुरू ठेवल्याचं पाहून आमच्या मनात कुशंकेची पाल चुकचुकली खरी पण त्यातलं गांभीर्य तत्क्षणी जाणवलं मात्र नव्हतं. अलिकडच्या काळात सलाईन लावताना एकदा शीर सापडली की त्या शीरेत ट्रीटमेंट संपेपर्यंत कायमच एक सुई टोचून ठेवलेली असते. त्यामुळे सलाईन बदलताना प्रत्येकवेळी नव्याने शीर शोधताना होणारा त्रास टाळला जातो. पण त्याकाळी ही सोय नसे. त्या चार दिवसात प्रत्येक वेळी सलाईन बदलायच्या वेळी शीर शोधताना द्याव्या लागणाऱ्या टोचण्यांमुळे असह्य वेदना होऊन समीरबाळ कर्कश्श रडू लागे. त्याचं ते केविलवाणेपण बघणंही आमच्यासाठी असह्य वेदनादायी असायचं. बॅंकेत मित्रांसमोर मन मोकळं केलं तेव्हा झालेल्या चर्चेत तातडीने सेकंड ओपिनियन घ्यायची निकड अधोरेखित झाली. डाॅ. देवधर हाच योग्य पर्यायही पुढे आला पण ते काॅन्फरन्सच्या निमित्ताने परगावी गेले होते. सुदैवाने आमच्या एका स्टाफमेंबरच्या बहिणीने नुकतीच पेडिट्रेशियन डिग्री मिळाल्यावर डाॅ. देवधर यांच्याच मार्गदर्शनाखाली राजारामपुरीत स्वत:चं क्लिनिक सुरु केल्याचं समजलं. मी तिला जाऊन भेटलो. माझ्याजवळची फाईल चाळतानाच तिचा चेहरा गंभीर झाल्याचे जाणवले.
” मी डाॅ. देवधर यांच्याशी संपर्क साधते. ही वुईल गाईड अस प्राॅपरली. “
पुढे हे प्रोसेस पूर्ण होईपर्यंत एक दिवस निघून गेला. आम्ही डिस्चार्जसाठी डाॅ. जोशीना विनंती केली तेव्हा ते कांहीसे नाराज झाल्याचे जाणवले.
“तुम्ही ट्रीटमेंट पूर्ण होण्याआधीच डिस्चार्ज घेणार असाल तर स्वतःच्या जबाबदारीवर घेणार आहात कां? तसे लिहून द्या आणि पेशंटला घेऊन जावा. पुढे घडणाऱ्या कोणत्याही गोष्टीला मी जबाबदार रहाणार नाही” त्यांनी बजावले.
पुढे डॉ. देवधर यांच्या मार्गदर्शनाखाली योग्य ट्रीटमेंट चालू झाली तरी आधीच डॉ. जोशींमुळे स्पाॅईल झालेली समीरची केस त्याचा शेवट होऊनच फाईलबंद झाली. केस स्पाॅईल कां आणि कशी झाली होती ते आठवणं आजही आम्हाला क्लेशकारक वाटतं. समीरच्या अखेरच्या दिवसांत देवधर डॉक्टरांच्याच सल्ल्याने त्याला पुढील उपचारांसाठी पुण्याला केईएम हॉस्पिटलमधे रातोरात शिफ्ट केल्यानंतर त्याचं ठरलेलं ऑपरेशन होण्यापूर्वीच त्याने शेवटचा श्वास घेतला होता!!
घरी आम्हा सर्वांसाठीच तो अडीच तीन महिन्यांचा काळ म्हणजे एक यातनापर्वच होतं!
पण या सर्व घटनाक्रमामधे लपलेले अघटिताचे धागेदोरे अलगद उलगडून पाहिले की आश्चर्याने थक्क व्हायला होतं!माझे बाबा १९७३ साली गेले ते इस्लामपूरहून पुण्यात शिफ्ट केल्यानंतर तिथल्या हाॅस्पिटलमधेच. २६सप्टे. च्या पहाटे. तिथी होती सर्वपित्री अमावस्या. समीरचा मृत्यू झाला तोही त्याला रातोरात पुण्याला शिफ्ट केल्यानंतर तिथल्या हाॅस्पिटलमधेच. तोही २६सप्टें. च्या पहाटेच. आणि त्या दिवशीची तिथी होती तीही सर्वपित्री अमावस्याच! हे थक्क करणारे साम्य एक अतर्क्य योगायोग असेच आम्ही गृहित धरले होते. शिवाय घरी आम्ही सर्वचजण विचित्र दडपण आणि प्रचंड दु:खाने इतके घायाळ झालेलो होतो की त्या योगायोगाचा विचार करण्याच्या मनस्थितीत आम्ही नव्हतोही. पण त्याची उकल झाली ती अतिशय आश्चर्यकारकरित्या आणि तीही त्यानंतर जवळजवळ पंधरा वर्षांच्या प्रदीर्घ काळानंतर आणि तेही अशाच एका चमत्कार वाटावा अशा घटनाक्रमामुळे. ते सर्व लिहिण्याच्या ओघात पुढे येईलच.
समीरच्या आजारपणाचा हा तीन महिन्यांमधला आमचा आर्थिक, भावनिक, मानसिक आणि शारीरिक अस्वास्थ्य अशा सर्वच पातळ्यांवरचा आमचा संघर्ष आम्ही अथकपणे निभावू शकलो ते आम्हा सर्व कुटु़बियांच्या ‘त्या’च्यावरील दृढ श्रध्दा आणि निष्ठा यामुळेच! ‘तो’ बुध्दी देईल तसे निर्णय घेत राहिलो, या संघर्षात लौकिकार्थाने अपयश आल्यासारखे वाटत असले तरी तोल जाऊ न देता समतोल विचारांची कास कधी सोडली नाही. त्यामुळेच कदाचित आमच्या दु:खावर ‘त्या’नेच हळुवार फुंकर घातली तीही अगदी ध्यानीमनी नसताना आणि त्यासाठी ‘त्या’ने खास निवड केली होती ती लिलाताईचीच! तो क्षण हा ‘तो’ आणि ‘मी’ यांच्यातील अनोख्या नात्यातला एक तेजस्वी पैलू अधोरेखित करणारा ठरला आणि म्हणूनच कायम लक्षात रहाणाराही!
समीर जाऊन पंधरा दिवस होऊन गेले होते. आरतीची मॅटर्निटी लिव्ह संपल्यानंतर त्यालाच जोडून बाळाच्या आजारपणासाठी तिने घेतलेली रजाही तो गेल्यानंतर आठवड्याभरात संपणार होती. पण आरती पूर्णपणे सावरली नसल्याने घराबाहेरही पडली नव्हती. रजा संपताच ती बँकेत जायला लागावी तरच ती वातावरण बदल होऊन थोडी तरी सावरली जाईल असं मलाही वाटत होतं पण ती तिची उमेदच हरवून बसली होती. मीही माझं रुटीन सुरू केलं होतं ते केवळ कर्तव्याचा भाग म्हणूनच. कारण या सर्व धावपळीत माझं बॅंकेतल्या जबाबदाऱ्यांकडे आधीच खूप दुर्लक्ष झालं होतं. स्वतःचं दुःख मनात कोंडून ठेवून ड्युटीवर हजर होण्याशिवाय मला पर्यायही नव्हताच. रोज घरून निघतानाही पूत्रवियोगाच्या दुःखात रुतून बसलेल्या आरतीच्या काळजीने मी व्याकुळ व्हायचो. त्यामुळे मनावरही प्रचंड दडपण असायचं आणि अनुत्साहही.. !
अशा वातावरणातला तो शनिवार. हाफ डे. मी कामं आवरुन घरी आलो. दार लोटलेलंच होतं. दार ढकलून पाहिलं तर आरती सोफ्यावर बसून होती आणि दारात पोस्टमनने शटरमधून आत टाकलेलं एक इनलॅंडलेटर. ते उचलून पाहिलं तर पाठवणाऱ्याचं नाव आणि पत्ता… सौ. लिला बिडकर, कुरुंदवाड!
ते नाव वाचलं आणि मनातली अस्वस्थता क्षणार्धात विरूनच गेली. एरवी तिचं पत्र कधीच यायचं नाही. तसं कारणही कांही नसायचं. मी नृसि़हवाडीला जाईन तेव्हा क्वचित कधीतरी होणाऱ्या भेटीच फक्त. जी काही ख्यालीखुशाली विचारणं, गप्पा सगळंं व्हायचं ते त्या भेटीदरम्यानच व्हायचं. म्हणूनच तिचं पत्र आल्याचा आनंद झाला तसं आश्चर्यही वाटलं. मुख्य म्हणजे माझा घरचा हा एवढा संपूर्ण पत्ता तिला दिला कुणी हेच समजेना.
मी घाईघाईने ते पत्र फोडलं. वाचलं. त्यातला शब्द न् शब्द आम्हा उभयतांचं सांत्वन करणारा तर होताच आणि आम्हाला सावरणाराही. त्या पत्रातलं एक वाक्य मात्र मला मुळापासून हादरवणारं होतं!
‘समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेलेला असल्याने तो बरा होण्यासाठी देवाघरी गेलाय आणि तो पूर्ण बरा होऊन परत येणाराय या गोष्टीवर तू पूर्ण विश्वास ठेव. आरतीलाही सांग. आणि मनातलं दुःख विसरून जा. सगळं ठीक होणाराय. ‘
समीरच्या संपूर्ण आजारपणात मी घरच्या इतरांपासूनच नव्हे तर आरती पासूनही लपवून ठेवलेली एकच गोष्ट होती आणि ती सुद्धा त्यांनी उध्वस्त होऊ नये म्हणून. समीर जिवंत राहिला तरी कधीच बरा होणार नव्हता. हे कां ते डॉ. देवधर यांनी मला अतिशय सौम्यपणे समजून सांगितलेलं होतं आणि त्या प्रसंगी एकमेव साक्षीदार होते त्यादिवशी डॉक्टरांच्या केबिनमधे माझ्यासोबत असणारे माझे ब्रॅंच मॅनेजर घोरपडेसाहेब! ‘समीरचा आजार पृथ्वीवरच्या औषधाने बरा होण्याच्या पलिकडे गेलेला होता’ ही तिसऱ्या कुणालाही माहित नसलेली गोष्ट लिलाताईपर्यंत पोचलीच कशी याचा उलगडा तिला समक्ष भेटल्यानंतरच होणार होता आणि ‘समीर बरा होऊन परत येणाराय’ या तिच्या भविष्यवाणीत लपलेल्या रहस्याचाही! पण तिला समक्ष जाऊन भेटण्याची गरजच पडली नाही. तिच्या पत्रात लपलेल्या गूढ अतर्क्याची चाहूल लागली ती त्याच दिवशी आणि तेही अकल्पितपणे!!
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “रास्ते कब खत्म होते हैं…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #265 ☆
☆ रास्ते कब खत्म होते हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “क्यों?” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 89 ☆ क्यों? ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “कुंभ में डुबकी लगा के आ गए…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 93 ☆
कुंभ में डुबकी लगा के आ गए… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆