सूचनाएँ/Information ☆ साहित्य की दुनिया ☆ प्रस्तुति – श्री कमलेश भारतीय ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्य की दुनिया – श्री कमलेश भारतीय  🌹

(साहित्य की अपनी दुनिया है जिसका अपना ही जादू है। देश भर में अब कितने ही लिटरेरी फेस्टिवल / पुस्तक मेले / साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाने लगे हैं । यह बहुत ही स्वागत् योग्य है । हर सप्ताह आपको इन गतिविधियों की जानकारी देने की कोशिश ही है – साहित्य की दुनिया)

☆ राजगढ़ में लघुकथा सम्मेलन

राजस्थान के कस्बे राजगढ़ में राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के सहयोग से साहित्य समिति ने दो दिवसीय लघुकथा सम्मेलन आयोजित किया । इसका उद्घाटन सादुलपुर की विधायक व प्रसिद्ध खिलाड़ी कृष्णा पूनिया व अकादमी के अध्यक्ष दुलाराम सहारण ने किया । इसमें देश भर से कम से कम चालीस लघुकथाकार शामिल हुए और दोनों दिन लघुकथा पाठ के सत्र बहुत ही प्रभावशाली रहे । उद्घाटन सत्र में कुछ पत्रिकाओं व लघुकथा संग्रहों का विमोचन भी किया गया । इस सफल आयोजन के लिये डाॅ रामकुमार घोटड़ बधाई के पात्र हैं जो हर समय अतिथियों की सेवा सत्कार में जुटे रहे । इनकी धर्मपत्नी लाजवंती व बेटी डाॅ प्रेरणा भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ रहीं । ऐसा आयोजन मुश्किल से हो पाता है पर यह बहुत स्मरणीय रहा । इससे पहले पंजाब की मिन्नी संस्था ने पिछले वर्ष अक्तूबर माह में लघुकथा सम्मेलन किया था ।

कथा संवाद के सम्मान : प्रसिद्ध कथाकार से रा यात्री के बेटे आलोक यात्री, संभाष चंदरशिवराज मिलकर गाजियाबाद में चला रहे हैं -कथा संवाद ! इसमें प्रतिमाह कथा गोष्ठी का आयोजन करते हैं । अगले माह मई मे वे देने जा रहे हैं कथा सम्मान ! इसमें अनेक नामों के बीच कथाकर सिनीवाली का नाम उल्लेखनीय है । वे गाजियाबाद में ही रहती हैं । उनके नये कथा संग्रह का नाम है -गुलाबी नदी की मछलियां ! इसमें नौ कहानियां संकलित हैं और बहुत ही प्रभावशाली हैं । आने वाले समय की महत्त्वपूर्ण कथाकार को सम्मानित किये जाने की घोषणा पर बधाई ।

मुम्बई में बैठकी : जहां जहां लेखक जाते हैं, वहीं वहीं रचनाकार उनके स्वागत् करें, गोष्ठियां करें तो कितना अच्छा हो । ऐसे ही खुशकिस्मत लेखक हैं व्यंग्य यात्रा के संपादक व प्रसिद्ध व्यंग्यकार डाॅ प्रेम जनमेजय जिनको मुम्बई पहुंचने पर भी पूरा प्यार, सम्मान व स्नेह मिलता है। इसी स्नेह के चलते वे जब पुष्पा भारती से मिले तब एक नयी पुस्तक ने जन्म लिया जो प्रसिद्ध रचनाकार व धर्मयुग के यशस्वी संपादक धर्मवीर भारती पर आधारित रही बल्कि एक सम्मान भी तय हुआ धर्मवीर भारती की स्मृति में । मुम्बई में उनका बेटा रहता है, जब वे वहां जाते हैं तो मुम्बईकर हो जाते हैं। आजकल मुम्बईकर हैं डाॅ प्रेम जनमेजय! वे कहते हैं कि मुम्बई में मेरा आत्मीय साहित्यिक परिवार है। इस परिवार के एक महत्वपूर्ण हिस्से–हरीश पाठक, संजीव निगम और सुभाष काबरा संग बैठकी का मुक्तानन्द प्राप्त किया। इनके ताज़ा व्यंग्य संकलन ‘सींग वाले गधे’ और व्यंग्य यात्रा के ताजा अंक ने, सही हाथों में पहुंचकर इस आनंद को दो दूनी चार कर दिया ।

भिवानी में नाट्य कार्यशाला : मीरा कल्चरल सोसायटी के संचालक व रंगकर्मी सोनू रोझिया ने आजकल भिवानी में नाट्य कार्यशाला चला रखी है । इसे अनोखी कार्यशाला भी कह सकते हैं क्योंकि इसमें साठ वर्ष से ऊपर की महिलायें भी आ रही हैं और सारी महिलायें ही हैं । बधाई ।

हिसार में ईना , मीना, डीका : इसी बीच हिसार की नृत्यम् संस्था की ओर से ईना , मीना , डीका बाल नाटक का मंचन किया गया जिसमें छब्बीस कलाकारों ने अपना कमाल दिखाया । यह बाल नाटक गीत, संगीत व सीख का मिश्रण है । तीन लड़कियाँ अनाथाश्रम से भागती हैं और इसी भागमभाग में वे दहेज के लोभी दूल्हे , बच्ची की खरीद फरोख्त कर रहे लोभी व्यक्ति और वृद्धा मां को रेलवे स्टेशन पर छोड़कर गये बेटे से टकराती हैं और उन्हें सबक सिखाती हैं । इसी बीच अनाथाश्रम का मैनेजर दो गुंडों के साथ इन्हें पकड़ना चाहता है जबकि वे इन्हें भी धराशायी कर देती हैं । इस तरह बहुत ही प्रभावशाली मंचन संजय सेठी और ज्योति चुघ के निर्देशन में ! बहुत बहुत बधाई ।

साभार – श्री कमलेश भारतीय, पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क – 1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी द्वारा साहित्य की दुनिया के कुछ समाचार एवं गतिविधियां आप सभी प्रबुद्ध पाठकों तक पहुँचाने का सामयिक एवं सकारात्मक प्रयास। विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ – हळदीचं शेत – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– हळदीचं शेत– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

हळदीचे पिक बहरले

झुळझुळ वाहे पाणी ग

वार्‍याच्या ओठावरती

हिरवी पिवळी गाणी ग

तृप्तपणाने बळीराजाही

सोडी पाटाचे पाणी ग

वयात आलेल्या पोरीसम

रान हळदीचे पाही  ग

हिरवाईची ही श्रीमंती

सुखवी घरादारा शेता ग

हिरवाई  वर सळसळते

पिवळेपण पेलते भुई ग

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #185 – 71 – “दिल में छुपा रखा दर्द…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “दिल में छुपा रखा दर्द …”)

? ग़ज़ल # 71 – “दिल में छुपा रखा दर्द …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

जवानी में ख़्वाहिशें हसीनों से पयाम करती हैं,

नज़रें बेसाख्ता नाज़नीनों को सलाम करती हैं।

ऊँचे पहाड़ों से राब्ता बहुत कुछ सिखा जाता है,

मुश्किल चढ़ाई आरज़ुओं को लगाम करती हैं।

सागर किनारे की उदास सिंदूरी शाम सुहाती है,

दिल में छुपा रखा दर्द लहरें सरेआम करती हैं। 

जातपाँत धन वैभव से पलता लोकतंत्र दिखावा है,

चुनावी प्रक्रिया को स्वेच्छाचारी निज़ाम करती हैं।

‘आतिश’ तेरे लबों से सच बात कही नहीं जाती,

नज़रें तख़्तनशीन सूरतों का एहतराम करती हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 63 ☆ ।।जियो यूँ यह जिन्दगी ईश्वर का अनमोल  उपहार  समझ कर।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं।  आप प्रत्येक शनिवार श्री एस के कपूर जी की रचना आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण मुक्तक ।।जियो यूँ यह जिन्दगी ईश्वर का अनमोल  उपहार  समझ कर।।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 63 ☆

☆ मुक्तक  ☆ ।।जियो यूँ यह जिन्दगी ईश्वर का अनमोल  उपहार  समझ कर।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

सफर जारी रखो धूल को रंगोंगुलाल समझ कर।

सफर जारी रखो इसे ना   मलाल समझ कर।।

जीवन की यात्रा  जरा  हंस   कर ही  गुज़ारो।

काम मेंआनन्द लो इसका जलाल समझ कर।।

[2]

मत गुज़ारो   जिन्दगी कोई कारोबार समझ कर।

गुज़ारो जिन्दगी जैसे कोई सरोकार  समझ कर।।

किसीअर्थ को मिला जीवन का अनमोल वरदान।

गुज़ारो यह जिन्दगी ईश्वर का उपहार समझ कर।।

[3]

मत गुज़ारो यह जिंदगी जीत और हार समझ कर।

सहयोग करो सबसे हीअपना संस्कार समझ कर।।

जरूरत से ज्यादा    रोशनी भी बना देती है अंधा।

मत गुज़ारो जिंदगी बस जीने की दरकार समझ कर।।

[4]

नहीं रुको बढ़ो  आगे कोई किरदार समझ कर।

बढ़ो  आगे मुश्किल को भी पतवार समझ कर।।

कठनाई ही संवारती मनुष्य के आत्मविश्वास को।

बढ़ो   आगे इसे जीवन का हिस्सेदार समझ कर।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 127 ☆ “दुनिया बदलती जा रही…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित  ग़ज़ल  – “दुनिया बदलती जा रही …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण   प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा #127 ☆ ग़ज़ल – दुनिया बदलती जा रही …” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

चलता तो रहता आदमी हर एक हाल में

पर जलता भी रहता सदा मन के मलाल में।

दुनिया बदलती जा रही तेजी से हर समय

पर मन रहा उलझा कई सपनों के जाल में।

सुनता समझता पढ़ता रहा ज्ञान की बातें

बदलाव मगर आ न सका मन की चाल में।

लालच में ही खोई रहीं नित उसकी निगाहें

बस स्वार्थ  ही पसरा रहा उसके खयाल में

इतिहास है गवाह लड़ी गई लड़ाइयाँ  

क्योंकि नजर गड़ी रही औरों के माल में।

बातें तो प्रेम की किया करता रहा बहुत

पर मुझको दिखा हर समय उलझा बवाल में।

खोजें भी हुई ज्ञान औ’ विज्ञान की कई

पर स्वार्थ की झलक मिली उसके कमाल में।

हर वक्त रही कामना यश और नाम की

धर्मों  के काम तक में औ’ हर देखभाल में।

हर समस्या का मिल गया हल होता शांति से

गर पेंच न डाले गये होते सवाल में।

सद्भावना उसकी ’विदग्ध’ आती नजर कम

बगुला भगत सी दृष्टि है धन के उछाल में।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 148 – पंढरीची वारी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 148 – पंढरीची वारी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

आषाढी कार्तिकी

पंढरीची वारी।

नामाचा जल्लोष

करी वारकरी।।

 

विरालासे दंभ।

नसे भेदभाव ।

भजनात रंगे

रकं आणि राव ।।

 

श्रद्धेची पताका

खेळती पावली।

टाळ मृदुंगाच्या

तालात चालली ।।

 

सजले कळस

डोई ही तुळस ।

गाऊया अभंग

सोडूनी आळस ।।

 

वैष्णवांचा धर्म

नाम संकीर्तन

धरोनी रिंगन

सद्भावे नर्तन ।।

 

वरी भीमा तीरी

धन्यती नगरी ।।

भक्तांच्या संगती

भुलला पंढरी।। 

 

अनाथाची आई

माझी ग विठाई।

रूसली कौतुके

राई रूख्माबाई।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆

मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆

सौ. उज्ज्वला केळकर

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ एका रानवेड्याची शोधयात्रा… श्री कृष्णमेघ कुंटे ☆ परिचय – सौ. उज्वला केळकर ☆ 

एका रानवेड्याची शोधयात्रा

लेखक – कृष्णमेघ कुंटे

राजहंस प्रकाशन

पृष्ठे – १६९ मूल्य – १२५ रु.

परिचय उज्वला केळकर

कृष्णमेघ कुंटे हे मदुमलाईच्या जंगलात पूर्णपणे एक वर्ष राहिले. ऑगस्ट ९४ ते जुलै ९५ या काळात ते तिथे राहिले. त्यांनी तिथे जगलेलं जीवन, घेतलेले अनुभव म्हणजे एका रानवेड्याची शोधयात्रा’. तिथे ते घामानं थबथबेपर्यंत, पोटर्‍या लटपटेपर्यंत, बूट फाटेपर्यंत, मांड्या दुखेपर्यंत, पाठीचा कणा मोडेपर्यंत हिंडले. नादावल्यासारखे परत परत झाडीमाध्ये फिरत गेले. जंगलातील सर्व ऋतूंमधीलरूप, रंग, नाद, स्पर्श अनुभवले. त्यामधला रस घेतला आणि तितक्याच रसिलेपणाने, शब्दांमधून तो अनुभव वाचकांपर्यंत पोचवला.   

पहिल्या प्रकरणात लेखकाने आपण मदुमलाईच्या जंगलात का व कधी गेलो, ते सांगितलय. कॉलेजच्या पहिल्या वर्षाला ते रसायनशास्त्रात नापास झाले. दुसर्‍या वर्षाचे सर्व विषय सुटले होते, पण रसायनशास्त्रात पास झाल्याशिवाय पुढे जाता येणार नव्हते. मग वर्षभर काय करायचं? याबद्दल विचार चालू असतानाच, त्यांचे सर मिलिंद वाटवे यांनी विचारणा केली की मदुमलाईच्या जंगलात अभ्यासाठी जातोस का? त्यांना रानकुत्र्यांचा काही अभ्यास करायचा होता. त्यांच्या अभ्यासाचा पाठपुरावा कृष्णमेघांनी करावा, असा प्रस्ताव त्यांनी मांडला. तिथला त्यांचा सगळा खर्च ते करणार होते. जंगल भ्रमंतीचं वेड असणार्‍या आणि वन्य प्राण्यांबद्दल कुतूहल असणार्‍या कृष्णमेघांनी या प्रस्तावाला मान्यता दिली. ते ६ वीत असताना ‘फ्रेंडस ऑफ अॅनिमल्स’ या संस्थेने अंदमान येथे घेतलेल्या शिबिराला हजर राहिल्यापासून त्यांना वन्य जीवनाबद्दल कुतूहल निर्माण झाले होते. मदुमलाईच्या जंगलात राहून ते मिलिंद वाटवे यांच्यासाठी त्यांच्या पद्धतीने अभ्यास करणार होते.

त्यानंतर लेखकाने मदुमलाईचे जंगल आणि त्यांच्या पंचक्रोशीची माहिती दिली आहे. त्यांनी लिहिलय, ‘अन्य जंगलांप्रमाणे हे एकांडं जंगल नाही. तामीळनाडू, कर्नाटक आणि केरळ या तीन राज्यात पसरलेल्या भल्या मोठ्या अरण्याचा, मदुमलाईचे जंगल हा एक भाग आहे. नीलगिरी पर्वतरांगेत हे जंगल येते.’ पुस्तकाच्या शेवटी मदुमलाईच्या जंगलाचा नकाशाही दिलेला आहे. ते म्हणतात, मदुमलाईचा गाभा बघायचा असेल, तर म्हैसूर-उटीचा डांबरी रस्ता सोडून उजवीकडे आत शिरलं पाहिजे. तिथून पुढे फक्त झाडा-झुडपांचं, दाट गवताचं, हत्ती –अस्वलांचं, केताचं ( कृष्णमेघ यांचा आदिवासी वाटाड्या) आणि त्याच्यासारख्या जंगलात रमणार्‍यांचं साम्राज्य. आपण त्यात प्रामाणिकपणे घुसखोरी करण्याचा प्रयत्न केला आणि तो थोडा-फार यशस्वी झाला, असं ते म्हणतात. त्यांनी लिहिलय, ‘मी मदुमलाईला आलो आणि कक्कनल्लापासून थोरापळ्ळीपर्यन्त आणि मासिनागुडीपासून गेम हटपर्यन्त, साधारण देडशे- दोनशे चौ. की. मीटरचं जंगल मला उंडारायला मिळालं.’

मदुमलाईला  आल्यावर प्रथम ते मासिनागुडीत राहिले. इथे त्यांचे स्वतंत्र घर होते. इथे ५-६ घरातून रहाणार्‍या शेजारी संशोधकांची थोडी माहिती ते देतात. चार-दोन लेखणीच्या फटकार्‍याने बोम्मा या त्यांच्या स्वयंपाक्याचे आणि कोता या त्यांच्या आदिवासी वाटाड्याचे दर्शन ते घडवतात. इथून आपल्या आनंदी प्रवासाची सुरुवात झाल्याचे ते सांगतात.

ते ज्या प्रदेशात फिरले, तिथली झाडे-झुडुपे, पक्षी-प्राणी, नद्या-ओढे, उंचवटे-टेकड्या या सार्‍यांचं वर्णन अगदी चित्रमय शैलीत झाले आहे. आनईकट्टी येथील वर्णन उदाहरण म्हणून बघता येईल. ‘या भागाचं रूपही वेगळं आहे. इथे उंच डोंगर नाही की सपाट जंगल नाही. आहेत त्या अगदी दाटीवाटीने उभ्या असलेल्या, एकमेकांच्या पोटात शिरणार्‍या छोट्या छोट्या टेकड्या आणि त्यांच्यामधून वाहणारे उन्हाळ्यात रोडावणारे सडपातळ ओढे. पाऊस कमी, त्यामुळे आभाळाला हात लावणार्‍या पण एकमेकांपासून अलिप्त रहाणार्‍या उंच झाडांऐवजी इथे एकमेकांच्या हातात हात आणि गळ्यात गळे घतलेल्या , नसती गर्दी करून राहणार्‍या बुटक्या झाडांची आणि झुडुपांची रेलचेल आहे. आनईकट्टीत बाभळी, ईखळ, धावडा, खैर, पांगारा, चंदन, निवडुंगाचं साम्राज्य.. इथल्या धसमुसळ्या, बाकदार काटेरी जाळ्यांच्या प्रेमळपणापासून, काट्यात कपडे धरून ठेवण्याच्या हट्टापासून थोडं जपूनच राहिलेलं बरं. इथलं रहाणीमान पाठीचा कणा मोडणारं आणि हिंडणं पायाचे तुकडे पाडणारं, पण इतकं रोमांचकारी की इथून पाय लवकर हलत नाही.’

आपल्या भटकंतीतील प्रदेशाप्रमाणे इथले प्राणी, पक्षी, कीटक इ. चे वर्णनही त्यांनी सविस्तर केले आहे. त्यांच्या दिसण्याप्रमाणेच, त्यांचे स्वभाव, सवयी याबद्दल लिहिले आहे. काही निरीक्षणे, अभ्यास नोंदवला आहे. हत्तींमध्ये नराला दात असतात. माद्यांना  नसतात. . त्यांना आपल्या कळपाजवळ कुणी इतर प्राणी आलेला चालत नाही. ते लगेच त्याला हुसकावून लावतात. पाणी जसं ते आपल्या अंगावर घालून घेतात, तसंच पाण्याकाठची मातीही सोंडेने आपल्या अंगावर घालून घेतात. उन्हापासून आणि एक प्रकारच्या रक्तपिपासू माशांपासून आपला बचाव करण्यासाठी ते आपल्याला मातीने माखून घेतात. आपल्या विष्ठेचा वास सहन न झाल्यामुळे किंवा आसपासचे गवत जून निबर झाल्याने, कोवळ्या लुसलुशीत गवताच्या शोधात हत्ती स्थलांतर करतात. डिसेंबरमध्ये मोठ्या प्रमाणावर हत्ती आईनकट्टीला येतात. हा भाग हत्तींच्या शिकारीसाठी कुप्रसिद्ध आहे. इथे शिकार करणार्‍या वीरप्पनसह आणखी तीन टोळ्या आहेत. हस्तीदंतासाठी शिकार होते. एकदा या भागात गेलेले नर पुन्हा दिसत नाहीत. शिकार्‍याच्या गोळीला बळी पडतत, असं आदिवासी सांगतात. 

रानकुत्री ही बुटकी असतात. ती भुंकत नाहीत. इतर प्राण्यात नर, तर या कुत्र्यांमध्ये मादी ही टोळीची राणी असते. तीच तेवढी नवी पिले जन्माला घालू शकते इतर माद्या नवी पिल्ले जन्माला घालत नाहीत. त्या नवीन जन्मलेल्या पिल्लांना वाढवायला मदत करतात. राणी म्हातारी झाली किंवा मेली की दुसरी मादी राणी होते. रानकुत्री भुंकत नाहीत. एकमेकांशी संपर्क करण्यासाठी शीळ घालात.  अशी अनेक प्राण्यांबद्दलची निरीक्षणे त्यांनी इथे नोंदवली आहेत. रानकुत्र्यांच्या पोटातील परजीवी आणि चितळांच्या पोटातील परजीवी यांचा परस्परांशी काही संबंध आहे का, याचा अभ्यास करण्यासाठी लेखक तिथे गेला होता. हा संबंध असायचं कारण म्हणजे चितळ हे रानकुत्र्यांचं भक्ष. तसाच हातींचाही अभ्यास त्यांना करायचा होता.

जंगल भ्रमंतीत अनेक थरारक प्रसंगांचे अनुभव त्यांनी घेतले. अगदी जीवघेणे प्रसंगही आले. ते वाचताना त्याचा थरार वाचकांनाही जाणवतो. मग प्रत्यक्ष अनुभवलेल्यांची त्यावेळी कशी स्थिती झाली असेल? हे सारं वर्णन इतक्या चांगल्या शब्दात झालय की आपण वाचत नसून व्हिडिओ बघतोय असं वाटतं. खरं तर या पुस्तकावर उत्तम माहितीपट होऊ शकेल.

एकदा आईनकट्टीला असताना ते व केता, त्यांचा मागकाढया , दुपारी एका ओढ्याकाठी जेवायला बसले होते. पाठीमागे गच्च जाळी. ओढ्याच्या पलीकडे झुडुपांमध्ये जोरात खसखस सुरू झाली. चित्कार, आरोळ्या यांनी जमीन हादरू लागली. हत्तींचा एक कळप जवळ जवळ पळतच त्यांच्या दिशेने येत होता. ओढा उथळ असल्याने हत्तींना सहज ओलांडता येणार होता. पाठीमागच्या जाळीमुळे त्यांना पळून जाणंही शक्य नव्हतं. पण सुदैवाने हत्ती ओढा ओलांडून, त्याला समांतर चालत राहिले. ते त्यांच्या दिशेने आले असते तर…  

एकदा रानकुत्र्यांच्या गुहेच्या शोधात ते मोयार गॉर्जपाशी आले. खाली खोल दरी. तिथे उतरायला वाट नव्हती. शेवटी त्यांच्यापासून ४-५ फुटांवर असलेल्या झाडावरून त्यांनी खाली उतरायचं ठरवलं. झाडावर त्यांनी उडी मारली. तो अंदाज बरोबर ठरला. नाही तर त्यांचा कपाळमोक्षच झाला असता. इथे रानकुत्र्यांची गुहा शोधताना त्यांना अजगर दिसला. मगरी दिसल्या. अस्वल, वाघ, पाणमांजरे यांच्या गुहा दिसल्या. हे सगळं वाचता वाचताही आपल्याला धडकी भरते.

कारगुडीला एकदा कुत्र्याच्या टोळीचं निरीक्षण करत कृष्णमेघ आणि अरुण बसले होते. थोड्या वेळाने कुत्री अस्वस्थ झाल्यासारखी वाटू लागली. त्यांनी आवाज केला. त्या आवाजात धोक्याची सूचना होती. जीवाचा आकांत होता. ती कुत्री बघत होती, त्यामागे एक उंचवट्याचा उतार होता. त्यापलीकडे ओढा. ओढ्याभोवती दाट झाडी होती. तिथून गोलसर चेहर्‍याचा पिवळ्या रंगाचा, अंगावर काले पट्टे असलेला वाघ बाहेर आला आणि चालत त्यांच्याच दिशेने पुढे आला. उंचवट्यावर आल्यावर तो क्षणभर थांबला. वाटेतल्या कुत्र्याच्या अंगावर तो धावला. पण कृष्णमेघ लिहितात, ‘आम्हाला बघून तो बुजला असावा. कुत्र्याचा पाठलाग सोडून तो वळला आणि एक मोठी डरकाळी फोडून तो उंचवट्यामागे गायब झाला. एकदा हत्तींणीने त्यांचा पाठलाग केला आणि त्यांना पळता भुई थोडी झाली. असे अनेक थरारक प्रसंग यात लेखकाने दिले आहेत.

विरप्पन प्रकरणात त्यांनी, आदिवासींच्या काही समस्यांबद्दल, त्यांच्या स्थिती-गतीबद्दल लिहिले आहे.

पुस्तकात जागोजागी, जंगल, हत्ती, गवे, वाघ, कुत्री, पक्षी इ.ची छायाचित्रे वर्णनाला अधीक मूर्त स्वरूप देतात. ऋतुचक्र हे यातलं शेवटचं प्रकरण. उन्हाळा, पावसाळा, हिवाळा या तीनही ऋतूतील जंगलाच्या बदलत्या रंगरूपाचं वर्णन यात केलं आहे. यात पक्षी, कीटक, कीडे-मकोडे यांच्या जीवनाबद्दल आणि त्यांच्या जीवनसंघर्षाबद्दल लिहिलय. जंगल त्यांच्या देहाच्या कणाकणात मुरलय. सरत्या वर्षाबरोबर, म्हणजे, जुलै ९५ मधे त्यांची शोधायात्रा तात्पुरती थांबली. पण संधी मिळताच ती पुन्हा सुरू होईल, यात संदेह नाही.  

ज्यांना रानं-वनं- जंगल, प्राणी-पक्षी, झाडं – झुडुपं, नद्या-टेकड्या याविषयी कुतुहल असेल, त्यांनी ‘एका रानवेड्याच्या शोधायात्रे’त जरूर सामील व्हावं आणि आनंद मिळवावा.

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170 ईमेल  – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #178 ☆ कोशिश, सत्य व विश्वास ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोशिश, सत्य व विश्वास। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 17८ ☆

☆ कोशिश, सत्य व विश्वास 

जब आप अपना दिन प्रारंभ करते हैं, तो यह तीन शब्द जेब में रखिए। कोशिश बेहतर भविष्य के लिए,  सच अपने काम के साथ और विश्वास भगवान में रखिए; सफलता आपके कदमों तले होगी। ‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती’ बच्चन जी की यह पंक्तियां अत्यंत सार्थक हैं। जब तक आप नौका को जल में नहीं उतारेंगे, सागर से पार कैसे उतरेंगे?  साहस, उत्साह व एकाग्रता से निरंतर अभ्यास करने से एक मूर्ख भी बुद्धिमान हो सकता है। इसलिए परिश्रम कीजिए, बीच राह थक कर मत बैठिए; आपका भविष्य निश्चित रूप से उज्ज्वल होगा। इसके साथ ही आवश्यकता है कि आप अपने काम को ईमानदारी से कीजिए; सत्य की राह पर चलते रहिए और राह में आने वाली बाधाओं का डटकर सामना कीजिए… क्योंकि बाधाएं वीरों का रास्ता कभी नहीं रोक सकतीं। जिनमें साहस व उत्साह है, उन्हें प्रलोभन भी पथ-विचलित नहीं कर सकते। इतना ही नहीं, बहुत से लोग आपको आकर्षित कर भटकाने का प्रयास करेंगे, परंतु आप को रुकना नहीं है, चलते रहना है, क्योंकि चलना ही ज़िंदगी है।  ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम/ यह रास्ता कट जाएगा मितरा/ यह बादल छंट जाएगा मितरा।’ समय सदैव एक सा नहीं रहता; निरंतर गतिशील रहता है, चलता रहता है। जैसे रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के बाद पूनम व पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन निश्चित है; उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख का आना भी अवश्यंभावी है। विपत्ति का समय सदा नहीं रहता। समय परिवर्तनशील है, निरंतर अबाध गति से बहता रहता है। सो! अगली सांस लेने के लिए मानव को पहली सांस को छोड़ना पड़ता है।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ नश्वर है। इसलिए मानव को सांसारिक माया-मोह के बंधनों में उलझना नहीं चाहिए, क्योंकि माया के कारण यह संसार हमें सत्य भासता है। वास्तव में इसका कोई अस्तित्व नहीं होता। इसलिए काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार में उलझना कारग़र नहीं है, क्योंकि यह अवरोधक मानव को अपनी मंज़िल तक पहुंचने नहीं देते।

विश्वास मानव की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है। यदि आप खुद पर भरोसा व प्रभु में आस्था रखेंगे, तो सफलता आपके कदम चूमेगी। सो! प्रभु-सत्ता में विश्वास बनाए रखिए, क्योंकि जब तक उसकी करुणा-कृपा बनी रहती है, मानव निरंतर उन्नति के शिखर पर चढ़ता जाता है। कबीरदास जी के शब्दों में ‘बाल न बांका हो सके, चाहे जग बैरी होय’ अर्थात् कोई उसे लेशमात्र हानि भी नहीं पहुंचा सकता। इसलिए प्रभु में आस्था रखते हुए निष्काम कर्म करते रहिए, आपको मंज़िल अवश्य प्राप्त होगी। भरोसा व आशीर्वाद भले ही दिखाई नहीं देते, परंतु असंभव को संभव बनाने का सामर्थ्य रखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि यदि आपमें श्रद्धा व अगाध विश्वास है, तो आप धन्ना भक्त की भांति पत्थर से भी भगवान को प्रकट कर सकते हैं। सो! आस्था व विश्वास रखिए क्योंकि संदेह, संशय व शक़ आपको विचलित करते हैं, भटकाते हैं। इसलिए मानव को अहं व वहम दोनों से बचने की सीख दी गयी है, क्योंकि यह अहं की पोषक हैं और मानव-मात्र के लिए घातक हैं।

संपन्नता मन की अच्छी होती है, धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहं को जन्म देती है और मन की संपन्नता संस्कार को। धन, संपत्ति, सत्ता और शरीर सदा साथ नहीं देते, परंतु समझदारी व सच्चे संबंध सदा साथ देते हैं। सो! इनसे प्रभावित हो सच्चे संबंधों पर कभी शंका मत कीजिए। समय के साथ यह सब बदलते रहते हैं, क्योंकि वे सब किसी की मिल्कियत नहीं और न ही सदा साथ रहने वाले हैं। मानव शरीर क्षणभंगुर है और दिन-प्रतिदिन इसका क्षय होता रहता है। परंतु यदि मानव समझदारी से काम लेता है, तो संबंधों पर आंच नहीं आती। सच्चे मित्र सदैव आपके साथ रहते हैं। इसलिए संबंधों को सदैव धरोहर-सम सहेज-संजो कर रखिए।

संसार में आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत है, शेष सब मिथ्या है। है इसलिए हर पल प्रभु का नाम- स्मरण कीजिए; एक सांस भी बिना सिमरन के व्यर्थ न जाने दीजिए। इंसान खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे इस जहान से लौट जाना है। हां! केवल नाम-स्मरण की दौलत ही उसके साथ जाती है। इसलिए मालिक से यही अरदास की जाती है कि ‘शुभ कर्मण से कबहुं ना टरौं’ अर्थात् मैं सदैव सत्कर्म करता रहूं। सो! धन-संग्रह मत कीजिए, क्योंकि यह मानव में अहंनिष्ठता का भाव पोषित करता है और मन की संपन्नता उसे सु-संस्कारों से पोषित करती है। यह मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचा देते हैं। जीवन में लंबे समय तक शांत रहने का उपाय है, ‘जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकारिए। दूसरों से परिवर्तन की आशा करने से बेहतर है, खुद में बदलाव लाना। ‘दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत करो; आत्म-सम्मान बनाए रखो और चले आओ’–स्वामी विवेकानंद जी की यह उक्ति हमें मूल्यों से समझौता न करने की सीख देती है, क्योंकि उस स्थिति में आपको आत्म-सम्मान दांव पर नहीं लगाना पड़ता। अच्छा स्वभाव, अच्छी समझ, अध्यात्म मार्ग व सच्ची भावना जीवन में सदा साथ देते हैं। इसलिए मानव के लिए सत्मार्ग पर चलना व  स्नेह, प्रेम, करुणा, त्याग, सहनशीलता, सहानुभूति आदि गुणों को जीवन में धारण करना श्रेयस्कर है। यह मानव के सच्चे साथी हैं, जो कभी धोखा नहीं देते।

संसार में कुछ लोग बिना रिश्ते के रिश्ते निभाते हैं, शायद वे ही सच्चे दोस्त कहलाते हैं और वे कभी धोखा नहीं देते। सो! दूसरों की खुशी में खुश रहने का हुनर सीखें। जो यह हुनर सीख जाता है, कभी दु:खी नहीं होता। सो! अपने दिल में जो है, उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है, उसे समझने की कला यदि इंसान सीख लेता है, तो रिश्ते कभी टूटते नहीं। कलाम जी के शब्दों में ‘एक सच्चा दोस्त वह होता है, जो तब तक आपके पास चलकर आए, जब सारी दुनिया आप को अकेला छोड़ कर चली जाए।’ सब आप के भीतर है। प्रतीक्षा मत करें, कोई तुम्हारे जीवन को रोशन करने नहीं आयेगा। आग जलाने के लिए माचिस की तीलियां तुम्हारे पास हैं। आत्मविश्वास रखो, कोशिश करो और अपनी कश्ती को लहरों के सहारे छोड़ दीजिए, क्योंकि सागर से पार उतरने के लिए नौका को जल में उतारना ज़रूरी है, अन्यथा कबीरदास जी की तरह ‘मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ’ उस स्थिति में आप किनारे पर बैठे रहेंगे। जीवन के हर क्षेत्र में मानव को आपदाओं का सामना करने के लिए जूझना पड़ता है। बिना प्रयास के सफलता आपसे कोसों दूर रहेगी। संसार में सबसे बहुमूल्य धन बुद्धिमत्ता और सबसे मज़बूत औज़ार धैर्य है और सबसे अच्छी सुरक्षा, विश्वास व सबसे अच्छी दवा हंसी है और यह सब ही मुफ्त में मिलती हैं। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है तथा व्यवहार से सिद्ध होती है। सुखी रहने के तीन उपाय हैं, शुक्राना, मुस्कुराना और किसी का दिल न दु:खाना। अंत में मैं कहना चाहूंगी कि सम्मान व सब्र ऐसे दो तोहफ़े हैं, यदि देने लग जाएं, तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। ‘अहसासों की नमी ज़रूरी है हर रिश्ते में/  रेत यदि सूखी हो, तो हाथ से फिसल जाती है।’ इसलिए संवेदनशील बने रहिए और सुखी बने रहने के लिए अपनी आशाओं, आकांक्षाओं, आवश्यकताओं व अपेक्षाओं को सीमित कर लीजिए…जीवन स्वतः सुचारु रुप से चलता रहेगा।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #176 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 176 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … ☆

तीव्र धूप की तीव्रता, करती तीव्र प्रहार।

घायल करे शरीर को, पड़े धूप की मार।।

प्यारे गोल कपोल है, मिला यही आकार ।

देख- देख मन झूमता, हमें हुआ है प्यार।।

पिया गए आखेट पर, बढ़ी आज फिर पीर।

होगा घायल कौन अब, किसे लगेगा तीर।।

करना लालच तुम नहीं, करो हमेशा दान।

तेरे अच्छे कर्म का, मिलता है प्रतिदान।।

भाव भरे निकुंज में,  प्रिये तुम्हारा वास।

पल पल ये रस घोलता, बस तेरी  है आस।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #163 ☆ “संतोष के दोहे…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 163 ☆

☆ “संतोष के दोहे …” ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जीवन के किस मोड़ पर, जाने कब हो अंत

मिलकर रहिये प्रेम से, कहते  साधू संत

 

कोई भी न देख सका, आने वाला काल

काम करें हम नेक सब, रहे न कभी मलाल

कौन यहाँ कब पढ़ सका, कभी स्वयं का भाल

कोई भी न समझ सका, यहाँ समय की चाल

 

ईश्वर ने हमको दिये, जीवन के दिन चार

दूर रहें छल-कपट से, रखिये शुद्ध विचार

जीवन में गर चाहिए, सुख शांति “संतोष”

काम-क्रोध् मद-लोभ् से, दूर रहें रख होश

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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