हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 676 ⇒ तिल धरने की जगह… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “तिल धरने की जगह।)

?अभी अभी # 675 ⇒ तिल धरने की जगह ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारी भाषा इतनी संपन्न है कि हम इसके साथ कलाबाजियां भी कर सकते हैं, और खिलवाड़ भी। अलंकारों, मुहावरों, लोकोक्तियों की तो छोड़िए, अतिशयोक्ति तो इतनी कि, बस पूछिए मत।

पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था, कहीं तिल धरने की भी जगह नहीं थी। वैसे तो श्रोता खचाखच के प्रयोग से ही निहाल हो गया था, बेचारा एक तिल, यानी तिल्ली का दाना, अब उसके रखने की जगह भी हॉल में नहीं बची। हुई न यह, तिल से ताड़ बनाने वाली बात। ।

अब सबसे पहले तो हॉल में आपको तिल लाने की आवश्यकता ही क्या थी। चलो अगर आप एक तिल का दाना ले भी आए, तो उसे कहां रखकर लाए थे, किसी माचिस की डिबिया में अथवा भानुमति के पिटारे में। अगर लाते तो पर्स में तिल गुड़ के दो तीन लड्डू ही ले आते आराम से खा तो सकते थे। खुद भी खाते और पड़ोसी श्रोता को भी ऑफर कर देते।

वह तो गनीमत है कि वहां कोई सिक्योरिटी चेक अथवा हाय अलर्ट नहीं था वर्ना एक तिल हॉल में लाना आपको बहुत भारी पड़ जाता। कहीं मेटल डिटेक्टर आपकी तिल में कोई खुफिया माइक्रो चिप अथवा सेल्यूलर बम, ना ढूंढ निकालता। ऐसे गैर जिम्मेदाराना, बेवकूफी भरे बयानों से बचकर रहा कीजिए, साइबर और डिजिटल क्राइम का जमाना है। ।

हो सकता है, दुश्मनों ने टाइम बम की तरह कोई विस्फोटक तिल बम ईजाद कर लिया हो, और आतंकवाद निरोधक दस्ता, खुफिया रिपोर्ट के आधार पर, वहां पहले से ही मौजूद हो। और आपकी यह तिल तक रखने की जगह नहीं, वाली बात उन्होंने सुन ली हो। पहले तो आप अंदर, आतंकवादी और देशद्रोही गतिविधियों में लिप्त पाए जाने के आरोप में। तिल को तिल बम बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगता। पहले पूरा हॉल खाली कराया जाता, आपकी तिल तिल की तलाशी ली जाती, हॉल का चप्पा चप्पा छान मारा जाता, और अगर कहीं गलती से, तिल गुड़ वाला तिल का टुकड़ा किसी कुर्सी के नीचे से बरामद हो जाता तो क्या उसे हाथ कोई लगाता।

उसे सुरक्षित तरीके से कब्जे में ले लिया जाता, प्रेस, पत्रकार और इलेक्ट्रिक मीडिया के सौजन्य से आपकी तस्वीर भी सनसनीखेज तरीके से कैद कर ली जाती। उधर कोई भी आतंकवादी संगठन अपनी पब्लिसिटी के लिए आपको उस गिरोह का सदस्य घोषित कर देता। ।

क्या यह सब बेसिर पैर की बातें हैं अथवा अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा ! तो बताइए, तिल की बात शुरू किसने की थी। खुद को आसानी से बैठने की जगह मिल गई थी, लेकिन नहीं, इन्हें अपने तिल को रखने की भी जगह चाहिए थी। अब तिल तिल पुलिस कस्टडी में सड़ो।

ऐसी बददुआ सुबह सुबह हम अपने दुश्मन को भी नहीं देते। बस एक तिल की बात को लेकर दिमाग का दही हो गया था, तो हमने अनजाने में ही रायता फैला दिया। ।

सुबह सुबह इस गुस्ताखी के लिए हम आपसे करबद्ध माफी मांगते हैं, लेकिन आपसे गुजारिश है, तिल देखो, तिल की साइज देखो, पहले अपने मुंह में तिल धरने की जगह तो तलाशो, फिर उसके बाद मुंह खोलो। अतिशयोक्ति सदा बुरी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 50 ☆ व्यंग्य – “समग्र आहत समाज की परिकल्पना साकार करने की दिशा में…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  समग्र आहत समाज की परिकल्पना साकार करने की दिशा में…” ।)

☆ शेष कुशल # 50 ☆

☆ व्यंग्य – “समग्र आहत समाज की परिकल्पना साकार करने की दिशा में… – शांतिलाल जैन 

साथियो, आईए हम एक आहत समाज का निर्माण करें. एक ऐसा समाज जहाँ सब एक दूसरे से आहत हैं. यादव कुर्मी से,  कुर्मी कोईरी से, कोईरी ब्राह्मण से, ब्राह्मण राजपूतों से, राजपूत बनियों से, एक्स-बनिए वाय-बनियों से, वाय-बनिए ज़ेड-बनियों से…हर कोई हर किसी से आहत घूम रहा है. कितनी अद्भुत है एक समग्र आहत समाज की परिकल्पना. दुनिया के नक़्शे पर एक सौ चालीस करोड़ आहत नागरिकों का यूनिक देश. वी द पीपुल ऑफ़ इंडिया समग्र आहत समाज निर्माण की दिशा में चल तो पड़े हैं मगर यह एक महती और विशाल परियोजना है. अगर आपने इसमें अभी तक अपनी आहुति नहीं दी है तो तैयार हो जाईए. भागीदारी आपको भी करनी है. कैसे ? चलिए, हम आपको बताते हैं.

सबसे पहले तो आप ऐसे करें कि आहत होना सीख लीजिए. यह बेहद आसान है. आपके पास एक एंड्रायड फोन हो, कुछ जीबी डाटा हो, एक वाट्सअप अकाउंट हो, ढ़ेर सारा फुरसती समय हो. न हो तो बस विवेक न हो. विवेक होना मेजर डिसक्वालिफिकेशन मानी जाती है. अगर संयोग से आपके पास विवेक है तो आहत होने का आव्हान किए जाने पर इसे इस्तेमाल न करें.

घबराएँ बिलकुल नहीं. आपका आहत होना जरूरी तो है, सचमुच में आहत होना बिलकुल जरूरी नहीं है. आप हरबार सचमुच आहत हो भी नहीं सकते क्योंकि आपने तो वो बयान अभी तक देखा, पढ़ा या सुना भी नहीं है जिससे आहत होकर आपने तोड़फोड़ के क्षेत्र में उतरने का फैसला किया है. किसी ने वाट्सअप पर किसी को कुछ भेजा है जो ब्रम्हांड का चक्कर लगाकर आप तक पहुँचा है और आप आहत हो लिए. आपने तो वो किताब पढ़ी भी नहीं जिसके प्रकाशन की खबर मात्र से आप आहत हो लिए. बल्कि, बचपन से ही किताब पढ़ने में आपकी रूचि कभी रही नहीं, आप तो अफवाहभर से आहत हो लिए. किसी ने ट्विटर पर किसी को कुछ कहा है और आप आहत हो लिए. उन्होंने तमिल में कुछ कहा और आप हिंदी में आहत हो लिए. कभी आप गाने के बोल से आहत हो लिए, कभी नायिका के अंतर्वस्त्रों के रंग से. अगला मन ही मन कुछ बुदबुदाया और आप आहत हो लिए. जिसके लिए कहा गया है वो आहत नहीं हुआ, उसके बिहाफ़ पर आप आहत हो लिए. ग्यारहवीं सदी के किसी नायक के लिए किसी ने कुछ कहा, आप ईक्कीसवीं सदी में उनके लिए आहत हो लिए. कभी कभी तो किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा तो भी आप आहत हो लिए. आप इसी से आहत हो सकते हैं कि अमुक जी ने कुछ क्यों नहीं कहा. आहत होने के लिए आपको फैक्ट चेक करने की जरूरत भी नहीं. आपको तो बस भियाजी के पठ्ठे बने रहना है – वे आपको बताएँगें कि आज आपको इनसे आहत होना है, इनफ.

चलिए आहत हो लिए हैं तो आप वो सब कर पाएँगे जिसकी आज़ादी आपको संविधान से नहीं मिली है, आपने भीड़ बनाकर अपने अख्तियार में कर ली है. मसलन, ज़ेब में चार फूटी कौड़ी न हो मगर इसका या उसका सिर काट लाने पर करोड़ों के ईनाम की घोषणा कर पाने की आज़ादी. प्रदर्शनियों, नाटकों, कवि सम्मेलनों-मुशायरों को तहस नहस कर डालने की आज़ादी. सरेआम गाली-गलौज, मारपीट करने की आज़ादी. आहतकर्ता का मुँह काला करने की आज़ादी.

अब आप इस आज़ादी को एन्जॉय कर सकते हैं. तो ऐसा करें कि जिनसे आहत हुए हैं उनके घर में,  ड्राइंग रूम में,  स्टूडियो में,  प्रदर्शनी में,  दफ्तर में या स्टेज पर चढ़कर फर्नीचर तहस नहस कर डालें, लाईटें फोड़ दें, माईक उखाड़ दें, तलवारें और बंदूकें लहराएँ, गर्व करने लायक नारे लगाएँ. शालीनता, शिष्टाचार, शांति, सहिष्णुता और मर्यादा सब कुछ तहस-नहस कर डालिए. आखिर आप आहत जो हुए हैं. आप भरोसे के उस सोशल फेब्रिक को ही तोड़ डालिए जिस पर समाज टिका हुआ है. अगर तब भी अपने आप को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे तो टारगेट की टांग तोड़ दें, सिर खोल दें. सॉफ्ट हिंसा का सहारा लें यह सेकंड डिग्री का ट्रीटमेंट है. अगर अभी भी अपने आप को हंड्रेड परसेंट अभिव्यक्त न कर पाएँ हों तो ‘मॉब लिंचिंग – दी थर्ड डिग्री ट्रीटमेंट’ तो अंतिम उपाय है ही. आप शूरवीर हैं क्योंकि आप उस समूह का हिस्सा हैं जिसने एक निर्दोष निहत्थे अकिंचन जन को मार डाला है. आप उदारवादियों की तरह कायर नहीं हैं. फ़ख्र कीजिए कि आप बुद्धिजीवी भी नहीं हैं. होते तो देशद्रोही कहाते. तोड़फोड़ में गर्व की अनुभूति अंतर्निहित है. आपको नाज़ होना चाहिए कि आप तोड़फोड़ करने के फुल-टाईम कॅरियर में हैं और हर तोड़फोड़ के साथ आपका कॅरियर नई ऊँचाईयों को छू रहा है. आपके पास कमानेवाली नौकरी नहीं है, पेशे में सफलता नहीं है, स्वाभिमानवाला रोज़गार नहीं है, मिलने की संभावना भी नहीं है मगर जातिगत स्वाभिमान पर काँच फोड़ डालने का स्थाई और स्थिर जॉब तो है. जॉब जो आपमें सेंस ऑफ़ फुलफिलमेंट भरता है और अभिव्यक्तिवाली स्वतंत्रता का एहसास कराता है. और हाँ, पुलिस प्रशासन की ओर से निश्चिंत रहें, उसके लिए भियाजी हैं ना. उनके हाथों में नफरत के अलग अलग साइज़-शेप के मारक पत्थर हैं जो वे यथा समय समाज के शांत स्थिर जल में फेंकते रहते हैं. उसे उसके आहत होने का अहसास कराने के मिशन में जुटे रहते हैं. वे समग्र आहत समाज की परिकल्पना को साकार करने में जुटे हैं और आप उनके पठ्ठे हैं.

आहत सेना में आप वर्चुअल वॉरियर भी बन सकते हैं. इसके लिए आपको हथियारों से लैस होकर सड़कों पर उतरने की जरूरत नहीं. आपको सोशल मिडिया की आभासी दुनिया में ट्वेंटी-फोर बाय सेवन सक्रिय रहना है, आहत किए जा सकनेवाले मेसेज रिसीव करना है और फॉरवर्ड कर देना है. आपका काम कम मेहनत में ज्यादा असर पैदा करनेवाला है. आपकी एक पोस्ट पूरे समाज को आहत फील करवा पाने का दम रखती है. आप उनमें जोशभर सकते हैं. ललकार सकते हैं. चैलेंज कर सकते हैं. इस या उस रंग का साफा बांधकर तलवार लेकर जुलूस निकाल सकते हैं. तलवार भारी हुई तो बाजुओं में क्रेम्प आ सकते हैं. सावधानी रखें, फोटो खिंचाने जितनी देर ही उठाएँ. नकली तलवार भी उठा सकते हैं. अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता अब सिर्फ आहत नागरिकों के लिए ही बची है.

तो क्या सोचा है आपने ? समग्र आहत समाज के निर्माण में योगदान देने आ रहे हैं ना! प्रतीक्षा रहेगी.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 4 – बुंदेली हास्य व्यंग्य – “बातन पै नईं पैसा पै भरोसा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय बुन्देली हास्य व्यंग्य  बातन पै नईं पैसा पै भरोसा)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 4

☆ बुंदेली हास्य व्यंग्य ☆ “बातन पै नईं पैसा पै भरोसा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संजा कें पार्क की एक बैंच पै बैठो मैं पान चबात भओ फूलन की खुशबू सें सनी ठंडी – ठंडी नौनी हवा को मजा लै रओ हतो। देखत का हों कै एक हांथ में टारच ओ एक हांथ में डंडा लयें पार्क को चौकीदार मोरे सामूं ठांड़ो है। बो सामू लगी एक तख्ती खों टारच की रोसनी से नहवात भओ मोसें बोलो – “आपनें पढ़ो नईं कै पार्क में आकें थूंकबो, पान गुटका खाबो, बीड़ी सिगरिट, सराब पीबो मना है। ” मोने कही, भइया पढ़ लओ है – लिखो है कै पार्क में आकें पान खाबो मनो है, रही हम तौ बाहर सें खाकैं आये हें। मोरे ज्वाब सें चौकीदार गुस्सया गओ, ओको मुंह लाल हो गओ। मेंने सोची काये न गुस्साए, जबसें अपने देस के परधान मंत्री ने खुदखों चौकीदार कहो है तबसें देस भर के चौकीदारन को स्टेटस बढ़ गओ है। आजकाल कौंनऊ चौकीदार खुदखों उपपरधान मंत्री सें कम नईं समझे। मोरे ज्वाब सें भन्नाओ चौकीदार कछू ऊंची आवाज में बोलो – मानों कै आप पान बाहर सें खाकें आये हौ रही पान की पिचकारी तौ पार्क के अंदरई मार हो। में बोलो – प्यारे मोरी ओर से निस फिकर रहो, 10 रुपैया को पान खाओ है, एक एक पैसा वसूल कर हों, जरा भी न थूंक हों। वो बोलो – भइया मोहे तुमाई बात पै भरोसा नईंयां, बाहर जाओ, पान थूंक कें कुल्ला करकें आओ। मेंने कही – चौकीदार भइया पार्क में जघा जघा पान की पीक डरी है, बीड़ी सिगरिट के टुकरा परे हें, क्यारियन सें सराब की खाली बोतलें सोई झांक रई हें। ओट में बैठे ज्वान जोड़न की हरकतन सें झाड़ियें सोई हिल रईं हें। बो गुस्सा में जोर सें बोलो – इतै को चौकीदार को है ? मेंने कई चौकीदार तो तुमई कहाये। ओने तुरतई सवाल दागो – फिर हमाये देखबे वाली चीजन खों तुम काये देख रये। हमने कही भइया गुस्सा न हो हम तो न थूंकबे की कसम खात भये इते बैठकें चैन सें पान चबाबे की परमीशन चाहत हें। बो एक तरफ थूंकत भओ बोलो – हमें तुमाई बात पै तनकऊ भरोसा नैंयां, पीक की पिचकारी मारबे में कित्तो टेम लगत ? तुम तो बहस ने करौ बाहर जाओ। हमने कही, भइया जू तुम हमें थूंकबे सें रोक रहे और खुद थूंक रहे हो ! हमाई बात सें चौकीदार साब को गुस्सा बढ़ गओ। बोलो- हम तौ पार्कई में रहत। लेट्रिन, नहाबो-धोबो, थूंकबो-खखारबो सब कछू पार्क मेंई करत। जे बंदिशें हमाये लाने नैंयां, बाहर वालों के लाने हें। देखो मुतकी बातें कर लईं, अब निकरो इतै सें। हम आवाज में मिसरी घोलत भये बोले, चौकीदार भइया दया करकें बतायें कै हमाये न थूंकबे के वादे पै तुम्हें केंसे भरोसा हूहे ? चौकीदार मुस्कात भओ बोलो – एकै तरीका है एको। हमने पूंछी का ? ओने कही हमाओ मों बंद कर दो फिर कछू भी करौ हम न देख हें। मेंने जोर को ठहाको लगाओ और कही बस इत्ती सी बात पै खफा हो! ल्यो एक पान तुम सोई दबा लो, मों बंद हो जैहे। अबकी मोरी बात सुनकें चौकीदार ठहाका लागत भओ बोलो – बो टेम गओ भइया जब चाय पान सें लोगन के मों बंद हो जाता हते। अब तो जित्तो बढ़ो काम उत्तो बढ़ो दाम, वो भी कड़क और नगद। हमने ओकी टारच एक दूसरी तख्ती पै चमका कें कही – भइया जी ईपै तो लिखो है कै रिश्वत लेबो और देबो जुरम है। बो फिर हंसो, बोलो – जो तो देश भक्ति-जनसेवा और सत्यमेव जयते के ठिकानों समेत देश भर में लिखो है। उते भी लिखो रहो जहां सें आज हम सौ रुपैया रिश्वत देकें अपने बाप को मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाकें लाये। तुमई बताओ हम लें हें न तो दें हें कहां सें। हमने कही अच्छा बताओ इते कित्तो देने पड़त ? बो बोलो- पार्क में पान, बिड़ी, सिरगिट के लाने दस रुपैया, सराब पीबे पचास रुपैया और लड़की के साथ बैठबे के सौ रुपैया। जौन के पास सराब और लड़किया नइंयां तो ? ओने कही, सब इंतजाम हो जेहे आप चिंता ने करो। रुपैया में बड़ी ताकत होत है। रुपैया सें तो अब सरकार लौ बन और बिगड़ रई है। मोहे सोच में डूबो देखकें बो बोलो – सब पैसा मोरी जेब में नईं रहे साब, ऊपर भी देंने पड़त है। अब टेम बर्बाद ने करो, फटाफट 10 को नोट निकारो, मोहे पूरो पार्क चेक करने है। में चुपचाप उठो औ बाहर की तरफ चल दओ।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 287 ☆ व्यंग्य – हमारे कार्यालय ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘हमारे कार्यालय‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 287 ☆

☆ व्यंग्य ☆ हमारे कार्यालय

साढ़े  दस बजे कार्यालय खुलते हैं। खुलने का मतलब यह नहीं कि कर्मचारी अपनी सीटों पर आ जाते हों। खुलने का मतलब सिर्फ यह है कि साढ़े दस के बाद कभी भी दफ्तर के पट खुल जाते हैं। चपरासी मेज़ों पर कपड़ा मारने लगता है। जहां झाड़ू लगाने का रिवाज़ है वहां झाड़ू लगने लगती है। जो लोग साढ़े दस को साढ़े दस समझ कर आ जाते हैं वे झाड़ू से उठे गर्द-ग़ुबार से बचने के लिए बाहर भीतर परेड करते हैं।

ग्यारह बजे के आसपास कर्मचारी दफ्तर के कंपाउंड में घुसने लगते हैं। कंपाउंड में प्रवेश करते ही ड्यूटी शुरू हो जाती है। अपनी मेज़ पर पहुंचना ज़रूरी नहीं होता। बाहर ही सहयोगी, मित्र मिल जाते हैं। दो घड़ी बात करने का, पारिवारिक हाल-चाल लेने का, डी.ए. और बोनस के बारे में पूछने का मन होता है। इसके बाद  बरामदे के किसी कोने में गुटखा थूक कर कर्मक्षेत्र में प्रवेश किया जाता है। कार्यालय का कोई कोना असिंचित नहीं होता। लोग आते-जाते, सीढ़ियों से उतरते-चढ़ते निष्ठा से कोनों को सींचते हैं।

सवा ग्यारह बजे भी आधी मेज़ें खाली होती हैं। पूछने पर सहयोगी सच्चा सहयोगी-धर्म निबाहते हैं— ‘अभी आ जाएंगे’। फिर जोड़ देते हैं —‘अगर छुट्टी पर नहीं हुए तो।’ ज़्यादा पूछताछ करने वाले को डपट दिया जाता है— ‘अभी ग्यारह ही तो बजे हैं, थोड़ा घूमघाम कर आ जाओ।’ अगर चुस्ती और नियमितता का आदी कोई आदमी किसी काम का मारा दफ्तरों में आ जाता है तो यहां की चाल देखकर सकते में आ जाता है।

दफ्तर में प्रवेश करने पर कुछ मेज़ें खाली मिलती हैं, लेकिन कुछ मेज़ों के इर्द-गिर्द पूरा दफ्तर मिल जाता है। इन्हीं मेज़ों पर दो-चार लोग बैठे होंगे, बाकी इनके आसपास कुर्सियों पर होंगे। अबाध चर्चा चलती है— घोटालों की, क्रिकेट टेस्ट की, संभावित ट्रांसफरों की, नेताओं द्वारा साहब की रगड़ाई की। इसी बीच अगर काम का मारा कोई दफ्तर में आ जाता है तो वह कभी खाली  मेज़ को और कभी गप्पों में मशगूल इस गुच्छे को देखता है। बातचीत में बाधा डालने और रंगभंग करने की उसकी हिम्मत नहीं होती क्योंकि कर्मचारी पर काम करने की बाध्यता नहीं होती। ज़्यादा अकड़ दिखाओगे तो इतने चक्कर लगाने पड़ेंगे कि अंजर- पंजर ढीला हो जाएगा। क्या करोगे? शिकायत करोगे? जाओ, जहां जाना हो चले जाओ। अब तुम खड़े रहो, हम जा रहे हैं चाय पीने। लौट कर आने तक खड़े रहोगे तो सोचेंगे।

कर्मचारी-नेताओं की कुर्सियां हमेशा खाली रहती हैं। जन-सेवा में लगे रहते हैं, काम की फुरसत कहां? अफसर की हिम्मत कहां जो ज़बान हिलाए। नेता सुबह से शाम तक व्यस्त रहते हैं— मंहगाई, बोनस, भत्तों के लिए लड़ने में, अखबारों में विज्ञप्तियां देने में। एक ही काम वे नहीं कर सकते —कर्मचारियों को काम करने और उत्पादन बढ़ाने के लिए कहना। जो नेता कर्मचारियों को काम करने के लिए कहता है वह लोकप्रिय नहीं होता। इसलिए नेता ज़माने की नब्ज़ देखकर काम करते हैं।

कोई कर्मचारी मजबूरी में मेज़ पर सिर रखे झपकी लेता दिखता है। बीच-बीच में सिर उठाता है, अधखुली आंखों से इधर-उधर देखता है, फिर पूरा मुंह फाड़कर उबासी लेता है। लगता है गाल की खाल फट जाएगी। इसके बाद धीरे-धीरे फिर सिर को मेज़ पर टिका देता है। एकाध बार बीच में बुदबुदाता है— ‘बोर हो गए। कोई काम नहीं है।’

एक और मेज़ के पीछे एक ज़्यादा समझदार युवक है। वह काम के अभाव में कर्नल रंजीत या अमिताभ या कामिनी का उपन्यास पढ़ रहा है। बीच में कोई फाइल आकर उसके अध्ययन में बाधा डालती है। उसे फुर्ती से निपटा कर वह अगली मेज़ की तरफ धकेल देता है और फिर उपन्यास में डूब जाता है।

हमारे दफ्तरों की एक विशेषता यह है कि वहां काम न रहने पर भी किसी को बात करने की फुरसत नहीं होती। काम से आये आदमी को कर्मचारी बबर शेर की नज़र से देखता है। उसकी नज़र पढ़ते ही आदमी झुलस कर सिकुड़ जाता है। एक बार बाबू की नज़र पड़ने के बाद वह गिन गिन कर कदम रखता, दबे पांव मेज़ की तरफ बढ़ता है। दफ्तर के दरवाज़े में घुसते ही आदमी का मनोबल नीचे की तरफ गिरता है। आवाज़ धीमी हो जाती है। बहुत से लोग हकलाने लगते हैं। यहां सिर्फ छात्र-नेताओं और स्थानीय नेताओं की आवाज़ ही बुलन्द रह पाती है, बाकी लोग ज़्यादातर मिमियाते,चिरौरी करते दिखते हैं। अगर बाबू का मूड ठीक हुआ और टाइम हुआ तो काम कर देता है।

झपकी लेने वाले बाबू के सामने बड़ी देर से एक आदमी खड़ा अपनी उंगलियां मरोड़ रहा है। कुछ देर पहले उसने बाबू से कुछ पूछा था। सहमी हुई आवाज़ में दो-तीन बार दोहराने के बाद बाबू ने अपना सिर उठाया था और कुछ जवाब दिया था। जवाब इस तरह दिया गया था कि आदमी कुछ समझ नहीं पाया। बाबू ने फिर अपना सिर  मेज़ पर रख दिया था। आदमी ने फिर से बाबू से पूछा था। अब की बार बाबू ने सिर उठा कर भौंहें चढ़ाकर गुर्रा कर इस तरह जवाब दिया कि आदमी घबरा गया। जवाब फिर भी उसके पल्ले नहीं पड़ा। बाबू ने सिर वापस मेज़ पर टिका दिया।

आदमी अब पांव घसीटता बाबुओं के गुच्छे के पास पहुंच गया है। बातचीत में थोड़ा विराम होते ही वह अपना सवाल दोहराता है। एक बाबू गुटखा चबाते, कोई दो शब्दों का जवाब उसकी तरफ फेंक कर मुंह घुमा लेता है। गुटखे के उस पार से आया हुआ यह जवाब भी आदमी की पकड़ में नहीं आता। बाबू  फिर गप्पों में मशगूल हो गया है। अब उसकी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं पड़ती।

ढीले पांवों से वह उपन्यास वाले बाबू की मेज़ पर पहुंचता है। भिनभिन करके अपना सवाल पूछता है। बाबू शायद सस्पेंस या रोमांस के शिखर पर है। वह बिना किताब से सिर उठाये कोई जवाब टपका देता है। जवाब फिर आदमी के सिर के ऊपर से गुज़र जाता है। हिम्मत बटोर कर वह फिर सवाल दोहराता है। अब बाबू उपन्यास से सिर उठाता है और ज़बान का कुछ बेहतर उपयोग करके कहता है, ‘सोहन बाबू के पास जाओ।’ ‘जाओ’ के साथ ही वह वापस सस्पेंस या रोमांस की दुनिया में उतर जाता है।

अब आदमी में यह हिम्मत नहीं कि पूछे कि सोहन बाबू कौन से हैं और कहां बिराजते हैं। हार कर वह बाहर बेंच पर एक टांग ऊपर रखकर बैठे चपरासी के पास पहुंचता है, बड़ी  शिष्टता से पूछता है, ‘सोहन बाबू कौन से हैं?’

चपरासी भी दुर्वासा के वंश का है। भृकुटि  तान कर मेज़ पर सोये बाबू की तरफ इशारा करता है, कहता है, ‘वह तो रहे। और कौन से हैं?’

आदमी वापस लौट कर मेज़ पर निद्रामग्न बाबू के सामने पहुंचता है। बाबू की नींद में खलल डालने के लिए उसका मन अपराधबोध से ग्रस्त है। वह फिर पुकार कर बाबू को इस नश्वर संसार में वापस बुलाता है। बाबू का सिर बांहों के ऊपर से धीरे-धीरे उठता है। आदमी कुछ दांत ज़्यादा निकालकर कहता है, ‘मेरी फाइल शायद आपके पास है।’

सोहन बाबू फिर  जबड़ा-तोड़ उबासी लेते हैं, फिर कहते हैं, ‘है न। हम तो आपसे दो-दो बार कहे कि हमारे पास है। आप सुने नहीं क्या?’

आदमी राहत  की सांस लेता है, कहता है, ‘तो फिर कष्ट करके निकाल दीजिए न।’

सोहन बाबू कष्ट करके अपना बायां हाथ उठाकर घड़ी देखते हैं, कहते हैं, ‘आधा घंटा में लंच होने वाला है। तीन बजे आइए, तभी देखेंगे।’

उनका सिर फिर मंज़िले-मक्सूद की तरफ झुकने लगता है और आदमी कुछ देर तक उनकी छवि निहारने के बाद पांव घसीटता दरवाज़े की तरफ बढ़ जाता है। चलते-चलते वह देखता है कि गुच्छे वाले बाबुओं ने अब ताश निकाल लिये हैं और उपन्यास वाला बाबू किताब पर झुका मन्द मन्द मुस्करा रहा है। लगता है हीरो हीरोइन का इश्क परवान चढ़ गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 348 ☆ “दिल्ली दूर है: एक व्यंग्यात्मक यात्रा वृतांत” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 348 ☆

?  दिल्ली दूर है: एक व्यंग्यात्मक यात्रा वृतांत ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

मैने दिल्ली जाने का प्लान बनाया तो मित्र ने कहा – “अरे! दिल्ली तो बस एक ट्रेन टिकट दूर है!” परिवार वालों ने स्वास्थ्य, सामान और सुरक्षा की सलाहों का अम्बार लगा दिया। “रात की ट्रेन लेना, सीट मिल जाएगी, ” “नहीं, सुबह की शताब्दी एक्सप्रेस में AC से जाओ, वरना दिल्ली पहुँचते-पहुँचते भुर्ता बन जाओगे। ” अंततः मैंने विकल्प चुना, गरीबों का रथ यानी स्लीपर क्लास में ए सी। ट्रेन का नाम था “आशा एक्सप्रेस”। दिल्ली से सारे देश को आशा होती ही है।

यात्रा का अर्थ होता है, जहाँ ‘स्वच्छ भारत’ का सपना धूल चाटता नजर  आता है, ट्रेन के भीतर भी और खिड़की से झांको तो बाहर भी।

ट्रेन में प्रवेश करते ही एक खास गंध ने स्वागत किया—नमकीन, पसीना, और डिब्बे के नीचे लटकते कूड़े की अजीब सी गंध। मेरी बर्थ के बाजू में एक बुजुर्ग सज्जन सो रहे थे, उनकी खर्राटों की लय ट्रेन की आवाज़ की लय ताल में चल रही थी। पास वाली सीट पर बैठे युवक ने मोबाइल पर रील्स चला रखी थी, जिनके निर्माता निर्देशक कलाकार सब लोग स्वयं होते हैं। बीच-बीच में चायवाला चिल्लाता निकलता “गरमा-गरम चाय!” मगर चाय ऐसी कि पीते ही पेट में कुछ कुछ होने लगे।

दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही एक ऑटोवाले ने लपकना चाहा, गूगल मैप्स ने बताया कि जिस होटल में मैंने अग्रिम आरक्षण करवा रखा वह सिर्फ २ किमी दूर है। ऑटोवाले से कहा तो उसका भाड़ा सुनकर लगा, शायद उन्होंने “दिल्ली” को “दुबई” समझ लिया है, बहुत नखरे के बाद वह मीटर से चलने पर राजी हुआ। रास्ते भर उसने राजनीति, प्रदूषण, और बाढ़ के बारे में बौद्धिक भाषण दिया। मैं दाद दे रहा था, यहाँ के लोगों के ज्ञान और धैर्य की।

खैर हम होटल पहुंचे। ओयो होटल था, जिसका अर्थ युवा पीढ़ी कुछ और ही लगाने लगी है।

दूसरे दिन दिल्ली घूमने निकले, लाल किले के बाहर “सेल्फी स्टिक” लिए लोगों की भीड़ देखकर विचार आया, यदि शहंशाह अकबर के समय फेसबुक होता तो यहीं से फेसबुक लाइव चलाया जाता। मजे की बात यह थी कि लाल किले का दिल्ली गेट बंद था और लाहौरी गेट चालू था, उसी से अंदर पहुँचे तो एक थका हुआ सुरक्षाकर्मी स्टूल पर खर्राटे लेता मिला।

कुतुब मीनार पर जाकर पता चला कि टिकट की कीमत और लोगों की धक्का-मुक्की, दोनों “ऊँचाई” के मुकाम पर हैं। एक युवती अपने बॉयफ्रेंड से झगड़ा कर रही थी “तूने मेरी फोटो में मीनार काट दिया!” दिल वालों की दिल्ली के प्रेमी भी “कट-ऑफ” के मामले में एक्सपर्ट लगे।

गांधी की समाधि गया तो सोचता रह गया कि अब यह विदेशी मेहमानों को घुमाने और शपथ ग्रहण के बाद मीडिया कवरेज के लिए चक्कर लगाने के काम की रह गई, लगती है। गांधी को सजिल्द पुस्तकों के पाठों में कैद कर दिया गया है और सफेद खादी की आड़ में काले धंधे चल रहे हैं।

जंतर मंतर वेधशाला न रहकर विरोध प्रदर्शन का स्थल बन चुका है। आंदोलन इतने बड़े हो चुके हैं कि वे यहां भी समा नहीं पाते और शाहीन बाग की सड़क हो या दिल्ली हरियाणा बार्डर, सड़क को अपने पिताजी की संपत्ति मानकर गलत सही हक की लड़ाई का साधन बना लिया गया है।

चांदनी चौक की गलियों में “दिल्ली का असली स्वाद” चखने का साहस किया। एक दुकानदार ने दावा किया “यहाँ के समोसे नेहरू जी को भी पसंद थे!” पहली बाइट खाते ही पेट ने विद्रोह कर दिया। शायद नेहरू जी के पास अच्छे डॉक्टर थे। अगले दिन मैंने होटल के रूम में “ओआरएस” के साथ समय बिताया।

सच कहूँ तो, इस तरह दिल्ली ने मेरे शरीर को “डिटॉक्स” कर दिया। वैचारिक भोजन की जुगाली करता रहा।

पर्स खाली हो रहा था तो, आ अब लौट चलें, वाले अंदाज के साथ वापसी की ट्रेन पकड़ी। ट्रेन चली तो पीछे से किसी की अनुगूंज आई “दिल्ली दूर है!”

मुहावरे वाली दिल्ली शाब्दिक रूप से कितनी भी दूर हो, आम जनता के लिए मानसिक रूप से तो वह और भी दूर ही है। यहाँ के ऑटोवाले, भीड़भाड़, और “हिस्टोरिकल ट्रैफिक जाम”, संसद और सचिवालय में घूमते सफेद बगुले, तोंद पर हाथ फेरते काले कौओं से भरे कनॉट प्लेस, पालिका बाजार, मंडी हाउस दिल्ली के वे टूरिस्ट अट्रैक्शन हैं जिन्हें बुद्धि की आंखों से देखना समझना पड़ता है।

सर्वोच्च न्यायालय हो या एम्स, यहां की भीड़ सिखाती है कि दिल्ली से असली दूरी किलोमीटर में नहीं, बल्कि सहनशक्ति में, पर्स की ताकत से होती है।

 लोग दिल्ली पहुंचते हैं ट्रेन, हवाई जहाज या बस के टिकिट से और जनप्रतिनिधि दिल्ली पहुंचते हैं चुनावी टिकिट से। फिर वे लोगों से दूर हों न हों पर एक बात तय है—जब तक दिल्ली है, “दिल्ली दूर है” वाली कहावत जिंदा रहेगी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संक्षिप्त परिचय

(सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री धर्मपाल जी का जन्म रानापुर, झाबुआ में हुआ। वे अब कैनेडियन नागरिक हैं। प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता। स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन। नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित। श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत।)

☆ हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

 कवि असंतोषजी मेरे पास आए। सधे कदम, मुस्कुराते अधर, उन्नत मस्तक और मेरे नाक पर केंद्रित उनकी आँखें। कविताएँ अधकचरी हों, छरहरी हों, तो कवि में गजब का बाँकपन आ जाता है। वे बोले -आचार्यजी, इन कविताओं में से श्रेष्ठ छाँट दीजिए और अश्रेष्ठ फाड़ दीजिए। अप्रकाशित कविताओं का गठ्ठर चार किलो का था। भारतेंदु काल में कविताएँ सेर में तोली जाती थीं तो छँटाक भर ठीक निकल आती थीं। आधुनिक काल की किलोग्राम भर कविताओं में कवित्त मिलीग्राम में बैठता है। मैं ठहरा आचार्य कुल का। कवि असंतोषीजी को मना कर दूँ तो हिंदी साहित्य का निरादर हो जाए और कविताएँ छाँटने लगूँ तो मैं ही छँट जाऊँ। न केवल मेरी आँखें पढ़ने के तनाव से फट जाएँ पर दिमाग भी समझने के चक्कर में बठ्ठर हो जाए। इसलिए मैंने उनसे एक प्रसिद्ध आलोचक की तरह पूछा -आपका वजन कितना है? वे बोले, लगभग अस्सी किलो। तब मैंने गंभीर मुद्रा में कहा -कविवर कविताओं में वजन हो या न हो, कविताओं के समग्र पुलिदों का वजन भी लगभग अस्सी किलो होना चाहिए। कवि को अपने भार के बराबर कविताओं का भार ढोना आना चाहिए। इस सिद्धांत को हम कहते हैं समभार का सिद्धांत।

वे मुदित हो कर बोले -आप सही के आचार्य हैं। मैं पहली बार किसी विद्वान आलोचक से मिला हूँ, जो मुझे कविताएँ लिखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और आलोचना के सिद्धांत समझा रहा है। आप मुझे एक महीना दीजिए, मैं अस्सी किलो कविताएँ लिखकर आपके श्रीचरणों में डाल दूँगा। इन दिनों अधिकांश साहित्यकार यही करते हैं, श्रीचरण खोजते हैं और उन पर अपनी रचनाएँ चढ़ा आते हैं। कविता ने तुलसी को राममय कर दिया था, अब कविता आधुनिक तुलसी को आराममय कर रही है। असंतोषजी अपना गठ्ठर उठा कर निकल लिए। कविवर गए तो मैं सोचता रहा कि आज बला टली। वे एक जीवंत प्रश्न छोड़ गए थे कि बला कौन। मैंने सारा भाषाविज्ञान ठिकाने लगा दिया और निष्कर्ष में पाया कि कविवर बला थे, कविता तो केवल अबला थी।

वे अब एक महीने बाद आएँगे। जब आएँगे तब तक आलोचना शास्त्र में मेरे नए सिद्धांत आ जाएँगे। आपसे क्या छुपाना, मैं खुद ही “आलोचना शास्त्र के आधुनिक सिद्धांत” विषय पर ग्रंथ लिख रहा हूँ। मेरी औकात ग्रंथावली लिखने की थी पर प्रकाशक एक ही ग्रंथ की सेंटिंग  कर पाए थे, इसलिए मुझे इतने पर ही संतुष्ट होना पड़ा। आलोचना के सिद्धांत विषय पर लिखना बहुत आवश्यक लग रहा था। मैंने अपने कई कविता संकलन आलोचकों को भारी अनुनय-विनय कर के भेजे थे, पर उन्हें समुचित लिखना नहीं आया। नब्बे प्रतिशत आलोचक बधाई के आगे नहीं लिख पाए, उन्हें शुभकामना तक लिखना नहीं आया। शेष आलोचकों ने इस तरह समीक्षा की जैसे किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता राष्ट्रीय टीवी पर दबाव के मारे घिसे-पिटे जुमले बोलते हैं। मैंने तभी तय कर लिया था कि मुझे आलोचना के क्षेत्र में कुछ नया करना पड़ेगा। मेरे बाद की पीढ़ी को उचित मूल्यांकन के अभाव का दर्द नहीं सहना पड़े इसलिए साहित्य समीक्षा के नए सिद्धांत मुझे घड़ने होंगे।

बिना सिद्धांत के आलोचना व्यर्थ है। इसलिए अपना पहला सिद्धांत, “समभार का सिद्धांत” बना कर मुझे संतुष्टि मिली। साहित्यकार अपने भार के बराबर साहित्य रच डाले तो उसका मूल्यांकन अवश्य हो। उस क्षण मुझे समझ आया कि सिद्धांत बनाए नहीं जाते, प्रतिपादित किए जाते हैं। तो मैंने दूसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया, समलंब का सिद्धांत। अर्थात् यदि किसी रचनाकार के प्रकाशित संकलनों के ढेर की ऊँचाई, उसकी जूते रहित ऊँचाई से अधिक हो जाए तो साहित्य अकादमियों का कर्तव्य बनता है कि वे उसकी ओर भी देखें, और उसके अवसादग्रस्त चेहरे पर किसी पुरस्कार का क्रीम लगा दें।

अब मुझे सिद्धांत प्रतिपादित करने में आनंद आने लगा था। न्यूटन तीन सिद्धांत प्रतिपादित कर के अमर हुए थे, मैं उनसे एक कदम आगे निकलना चाहता था। मैंने तीसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया सम-धन का सिद्धांत। जो भी प्रख्यात साहित्यकार सम-धन निवेश कर पाए उसे अवश्य पुरस्कृत किया जाए। प्रवासी साहित्यकारों के द्वारा डॉलर और पौंड के निवेश की तुलना में रुपया भी कम नहीं पड़ता है। भौतिक अर्थ जुड़ जाए तो आलोचना के आभासी प्रतिमान फटाफट बदल जाते हैं। आलोचना में अर्थशास्त्र का तड़का लग जाए तो निष्कर्ष चमक उठते हैं। आलोचना में सौंदर्यशास्त्र का अनुपम योगदान है। इससे मुझे चौथे सिद्धांत का विचार आया -समतन का सिद्धांत। मैं इसकी विवेचना करने लगा तो मुझे इसमें अभद्र और अश्लील रंग दिखाई दिए। साहित्यकार का जो रूप परोक्ष हो, वह आलोचना का विषय नहीं बनना चाहिए। इसलिए इस सिद्धांत को मैं शास्त्रसम्मत नहीं मानूँगा, और हर साहित्यकार को संदेह का लाभ दूँगा। अब मैं हर प्रकार की आलोचना करने के लिए तैयार हूँ। इन तीनों सिद्धांतों पर खरे उतरने वाले विभूति साहित्यकारों की मुझे प्रतीक्षा है। आप मेरा अता-पता उन तक जरूर पहुँचा दें। हिंदी के प्रति आपकी यह निस्वार्थ सेवा आलोच्य साहित्यकार याद रखेंगे।

♥ ♥ ♥ ♥

© श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

वेब पृष्ठ : www.dharmtoronto.com

फेसबुक : https://www.facebook.com/djain2017

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

 (तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

चौराहे पर बैठे रघुनाथ चाचा की जिंदगी अब अखबार के कोने में छपे राशिफल से ज्यादा भरोसेमंद नहीं रही थी। रिटायरमेंट के बाद जो पेंशन मिलने वाली थी, वो अब तक ‘प्रक्रिया में’ थी — मतलब कागज़ ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर जा रहा था, लेकिन चाचा वहीं के वहीं थे — हाफ पैंट में, जो अब फुल हो चुकी थी छेदों से। हर छेद एक सरकारी विभाग की आत्मकथा सुनाता था। चाचा कहा करते थे, “अब हमारे कपड़े भी मंत्रालयों की तरह हैं—सिलवटें ज़्यादा, जवाब कम।” मोहल्ले में सब उन्हें “पेंशन वाले चाचा” कहते थे, जैसे यह कोई सम्मानसूचक पद हो।

बेटा दिल्ली में था, पर माँगता हर बार यहीं से था — “पापा, ज़रा दस हज़ार भेज देना, EMI है।” चाचा मन ही मन बड़बड़ाते, “EMI का नाम सुनते ही मेरी धड़कन UPI की तरह फेल हो जाती है।” उन्हें लगता था, सरकार ने रिटायर किया, बेटा ने इस्तीफा। अब अकेली पत्नी और पेंशन की उम्मीद में जीते थे। पत्नी कहा करती थी, “तुम्हारे भरोसे नहीं, भगवान भरोसे चल रहा है घर।” चाचा बोलते, “भगवान भी शायद मेरी फाइल के साथ ही प्रक्रिया में है।”

हर सुबह चाचा दफ्तर जाते थे—जैसे जेल की बैरक में तारीख पर पेशी हो। बाबू लोग उन्हें देखकर चाय की चुस्की और मोबाइल की स्क्रॉलिंग दोनों तेज़ कर देते। चाचा मुस्कुराते हुए कहते, “पेंशन मांग रहा हूँ, जमानत नहीं।” बाबू बोलते, “अंकल जी, सिस्टम धीमा है।” चाचा जवाब देते, “सिस्टम नहीं बेटा, संवेदना स्लो है।” एक दिन बाबू ने कहा, “अब ऑनलाइन पोर्टल पर ट्रैक कीजिए।” चाचा बोले, “बेटा, हमारी उम्र ट्रैक्टर चलाने की थी, पोर्टल नहीं।” फिर भी रोज़ जाते रहे—मानो उम्मीद का एटीएम हो, कभी तो कुछ निकलेगा।

इसी चक्कर में उन्होंने एक पकोड़े वाला ठेला शुरू किया। नाम रखा—”पेंशन पकोड़ा पॉइंट”। स्लोगन लिखा—”यहाँ तली जाती है निराशा, परोसी जाती है आशा।” सरकारी बाबू भी वहीं पकोड़ा खाते थे, जिनसे चाचा पेंशन के लिए हर बार चाय पिलाकर विनती करते थे। पर जवाब वही—“अभी ऊपर फाइल है।” चाचा सोचते, “फाइल ऊपर है या ऊपरवाले के पास?” एक बार एक पत्रकार आया, बोला—“चाचा, बहुत प्रेरणादायक हो आप।” चाचा बोले—“प्रेरणा नहीं बेटा, ये पेंशन के इंतज़ार की तड़प है। तुम भी मत करना सरकारी नौकरी।”

सर्दियों में एक दिन चाचा का ठेला गायब मिला। पता चला, नगर निगम उठा ले गया। कारण—”अवैध अतिक्रमण”। चाचा ने कहा, “सरकारी सिस्टम तो मेरी जिंदगी पर कब का अतिक्रमण कर चुका है, अब ठेला भी चला गया।” मोहल्ले वालों ने कहा—“FIR कराओ।” चाचा बोले, “अरे बेटा, FIR तो मैंने खुद की किस्मत पर दर्ज करवा रखी है।” कुछ दिन भूखे-प्यासे रहने के बाद एक NGO ने चाचा के लिए राशन दिया। उसमें लिखा था—“सहयोग पेंशन से नहीं, संवेदना से।” चाचा की आँखें भर आईं। बोले—“काश, ये लाइन मेरी फाइल पर लिखी होती।”

और फिर एक सुबह, चाचा की लाश पकोड़े के ठेले के पीछे मिली। हाथ में वही फाइल थी, जिस पर “Pending” की मोहर थी। कोई आंसू बहा रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मोहल्ले की बहू बोली—“सरकार से तो नहीं मिली पेंशन, पर YouTube से मिल जाए कुछ।” रिपोर्टर बोला—“हम इसे ‘भ्रष्ट व्यवस्था की बलि’ कहकर चलाएंगे।” चाचा की पत्नी रोती हुई बोली—“अब पेंशन आएगी?” बाबू बोला—“मृत्यु प्रमाणपत्र लगाइए, प्रक्रिया शुरू करेंगे।” और फिर वही—फाइल ऊपर भेजी गई।

कुछ महीने बाद चाचा की फोटो अखबार में छपी—”पूर्व कर्मचारी, पेंशन की प्रतीक्षा में निधन”। नीचे टिप्पणी थी—”सरकारी दायित्वों का पालन किया गया।” मोहल्ले के बच्चों ने दीवार पर लिखा—”यहाँ पेंशन नहीं, पकोड़े बिकते हैं।” एक बूढ़ा आदमी बोला—“देशभक्ति कुर्सियों में है, पर चप्पलों में धूल है।” चाचा की आत्मा शायद मुस्करा रही थी—“अब कोई पूछेगा नहीं—फाइल कहाँ है?” और पीछे से हवा ने कहा—“फाइल वहीं है… प्रक्रिया में।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “भाग कर शादी।)

?अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कभी आपने भागकर शादी की है ? आदमी मुसीबत से बच सकता है, परिस्थितियों से लड़ सकता है, लेकिन शादी से नहीं बच सकता। देखिए, ये मोहतरमा क्या फरमाती हैं ;

कोई कह दे, कह दे, कह दे ज़माने से जा के,

कि हम घबरा के

मोहब्ब्त कर बैठे

हाय मोहब्ब्त कर बैठे …

यानी इसी तरह, कोई इश्क का मारा, जमाने से घबराकर, भागकर शादी भी कर सकता है। लेकिन क्या इसके लिए भागना जरूरी है। अगर आप कड़के नहीं हो, तो गाड़ी घोड़े से भी जा सकते हो।

हो सकता है, लड़की पैसे वाली हो, और आपके कहने पर, फिल्मी अंदाज़ में, अंधेरी रात में, घर वालों की आंख में धूल झोंककर नकदी और जेवर सहित आपके साथ भाग निकले।

लेकिन हम जानते हैं, आप ऐसे इंसान नहीं हो।

हमारे साथ तो कुछ उल्टा ही हुआ। हमें शादी नहीं करनी थी, और परिवार वाले हमारी जबरदस्ती शादी कर रहे थे, और वह भी उनकी पसंद की हुई लड़की से। हमारे पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। यानी हमने भागकर शादी नहीं की, शादी के नाम से ही हम भाग खड़े हुए।।

शिवाजी महाराज के गुरु हुए हैं, समर्थ रामदास, जी हां वही दासबोध वाले। सुना है, शादी का शब्द सुनते ही वे सावधान हो गए थे, यानी भाग खड़े हुए थे। आज भी विवाह के शुभ प्रसंग पर कुर्यात सदा मंगलम् के साथ सावधान शब्द भी जोड़ा जाता है।

अगर भाग नहीं सकते, तो कम से कम सावधान, अर्थात् जाग तो सकते हो। आगे आपकी मर्जी।

कहीं कहीं जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आते हैं कि जल्दबाजी में शादी करनी पड़ती है, कहीं दादा जी अंतिम सांसें गिन रहे होते हैं तो कहीं किसी श्रवणकुमार को कसम दिलवा दी जाती है, अगर तूने आठ रोज में इस लड़की से शादी नहीं की, तो तू मेरा मरा मुंह देखेगा। और वह बेचारा कसम का मारा, अपना सर कढ़ाई में दे मारता है और उधर किसी की पांचों उंगलियां घी में हो जाती है। जो लोग सिर्फ मजबूरी को जानते हैं, महात्मा गांधी को नहीं, वे जीवन भर ऐसे इंसान को सुनाया करते हैं, लड़कियां कहां भागी जा रही थी, जो तुमने उस लड़की से शादी कर ली, जिसे तुम पसंद ही नहीं करते थे।।

इसे क्या कहेंगे, पसंद किसी और की, और नसीब अपना। वैसे बात निकली है तो बता दूं, पूरे सम्मान और संजीदगी के साथ अगर विचार किया जाए तो सदाबहार गायक, अभिनेता, हास्य सम्राट कहे जाने वाले चार चार पत्नियों के पति किशोर कुमार जी भी यही कहते पाए गए हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम शादी मत करना ..

हम भी जाते जाते युवा पीढ़ी को यह संदेश देकर जाना चाहते हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम भाग कर शादी मर करना …

प्रेम से शादी करें। सबकी मर्जी से करें, अथवा मनमर्जी से। नहीं तो हमारी तरह आप भी कहते रहेंगे। शादी अरेंज्ड थी अथवा लव मैरेज? और हम सर झुकाकर जवाब देते हैं, जी लव मैरेज नहीं, अरेंज्ड ही थी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 3 – हास्य-व्यंग्य – “सर पर माथा पच्ची” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  सर पर माथा पच्ची)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 3

☆ व्यंग्य ☆ “सर पर माथा पच्ची” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

वर्माजी बहुत देर से मेरे सामने “सिर झुकाए” बैठे थे। वे बीच – बीच में अपना “सिर खुजाते हुए” भाई साहब बोलते और फिर चुप हो जाते। उनके “भाई साहब, भाई साहब” कहने और फिर लंबी चुप्पी साध लेने की अदा से मेरा सिर चढ़ गया।

मैंने उन्हें “सिर से पैर तक देखते हुए” कहा, भाई जी किस बात ने आपको “सिर नीचा करने” पर मजबूर कर दिया, हमेशा “सिर ऊंचा करके, उठाकर चलना चाहिए। बड़ी से बड़ी बात भी सिर पर आ पड़े तब भी न तो सिर गरम होना चाहिए न ही सिर फटना चाहिए। देश के विपक्षी नेताओं से कुछ सीखो जिनके सिर का बोझ देश के मुखिया बने हुए हैं विपक्षियों के सिर से पैर तक आग लगी है लेकिन वे जानते हैं कि सिर पर पैर रख कर भागने, सिर पीटने, सिर धुनने, सिर फिरने, सिर भारी होने अथवा सिर पकड़ कर बैठने से समस्या हल नहीं होगी। समस्या के समाधान के लिए हमेशा सिर ठंडा रखना पड़ता है चाहे धीरज से रखो, चाहे गम खाकर या अमिताभ बच्चन के बताए ठंडे ठंडे कूल कूल तेल को लगाकर। अगर यह नहीं कर सकते तो उस चम्पी वाले को ढूंढो जो सड़कों पर गाता फिरता है, सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाए, आज प्यारे पास हमारे काहे घबराये, कहे घबराये.. “

वर्मा जी मेरी बात सिर हिला हिला कर सुन रहे थे। मैंने कहा, वर्मा जी “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना”। उन्होंने सिर के कुछ बालों को नोंचते हुए मासूमियत से पूछा- “क्या मतलब भाई साहब ?” वर्मा जी की बात सुनकर मेरा मन अपना सिर पत्थर से फोड़ने का हुआ लेकिन ईश्वर की कृपा से आसपास पत्थर नहीं था। मैने कहा “भाई जी तात्पर्य यह की प्रत्येक सिर में भिन्न विचार होते हैं। विपक्षियों के सिरों में भी पक्ष को हटाने भिन्न भिन्न विचार हैं। वे अपने अपने ढंग से पक्ष को जनता के सिर से उतारने की कोशिश में लगे हैं। किसी ने भारत जोड़ो यात्रा करके देश भर में मोहब्बत की दुकानें खोल डाली हैं तो कोई विपक्षी एकता के लिए प्रदेश प्रदेश भटक रहा है। कोई अपने बयान रूपी बाणों से पक्ष को घायल करने उतारू है। अब जब सब के सिर फिर गए हैं तो सब सिर जोड़कर बैठने उतावले हो रहे हैं।”

मेरी लंबी बात सुनकर वर्मा जी ने चुप्पी तोड़ी बोले “भाई साहब आपने इतनी सारी बातें कर दीं पर वह नहीं बताया जो मैं जानना चाहता हूं।” मैंने कहा, “वर्मा जी अब पानी सिर के ऊपर हो गया है आप बहुत देर से मेरे सामने बैठे भाई साहब, भाई साहब का राग अलाप कर न सिर्फ मेरा सिर खा रहे हैं बल्कि मेरे सिर को पचाने की जुर्रत भी कर रहे हैं या तो मुद्दे की बात पर आकर अपना और मेरा दोनों का सिर ठंडा करो या मेरा पीछा छोड़ो।” वे बोले “भाई साहब एक प्रश्न मुझे सुबह से परेशान करे है कि जब दुनिया में इतनी व्हेरायटी के तेल हैं तो छछूंदर अपने सिर में चमेली का तेल ही क्यों पसंद करती हैं ?” इसी समय मेरी श्रीमती जी ने चाय के प्यालों के साथ कमरे में प्रवेश किया और मेरी ओर बढ़ीं। मैंने कहा “पहले मुझे नहीं छछूंदर को दो।” पत्नी ने आश्चर्य से प्रश्न किया “छछूंदर कौन ?” मैंने कहा “मेरा मतलब वर्मा जी को दो।” पत्नी जोर से हंसने लगी। वर्मा जी नाराज होकर खड़े हो गए पर मुझे मालूम था कि वे नाराजगी में भी चाय पिये बिना नहीं जायेंगे। मैंने कहा “भाई जी सिर पर चढ़  गए क्रोध को थूक दो।” मेरी जुबान याने टंग देश के युवा नेता की तरह फिसल गई थी ओर वह वर्मा जी की जगह छछूंदर कह गई।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 285 ☆ एक सामाजिक प्राणी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – ‘एक सामाजिक प्राणी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 285 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक सामाजिक प्राणी

चमन भाई पूरे सामाजिक प्राणी हैं। समाज पर उन्हें भारी भरोसा है। असामाजिक , आत्मसीमित लोगों से उन्हें  चिढ़ होती है। रामनाम की जगह वे बात बात में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जपते रहते हैं।

समाज की उपयोगिता पर चमन भाई घंटों भाषण दे सकते हैं। वे चीटियों का उदाहरण देते हैं जो मिलजुल कर पहाड़ उठा लेती हैं। वे भेड़िया-बालक जैसे आदम-समाज से बाहर पले प्राणियों की बात करते हैं जो आदमी होकर भी पशु बन गये ।आज के समाज में बढ़ती हिंसा और क्रूरता पर उनकी टिप्पणी है कि यह आदमी के समाज से कटते जाने और अपने में सिमटते जाने के कारण ही है।

चमन भाई इस हद तक सामाजिक हैं कि अपनी ज़्यादातर ज़रूरतों के लिए समाज पर ही निर्भर रहते हैं। उन्होंने न टेलीफोन का झंझट पाला, न फ्रिज का, न स्कूटर का। जब सब चीज़ें मुहल्ले में सहज उपलब्ध हैं तो फिर फ़िज़ूलखर्ची क्यों की जाए? तीन-चार साल पहले उन्होंने एक मोपेड खरीदी थी। वह रखे रखे जंग खा गयी क्योंकि चमन भाई उसे कभी चलाते ही नहीं थे। जब दूसरों की गाड़ियां दौड़ रही हों तो अपनी गाड़ी को दौड़ाने का क्या मतलब? दूसरों के स्कूटर की पिछली सीट खाली जाए तो वह भी एक तरह से फिज़ूलखर्ची हुई।

लैंडलाइन फोन के ज़माने में मुहल्ले के किसी भी घर में पहुंचकर चमन भाई टेलीफोन अपनी तरफ खींचकर डायल घुमाना शुरू कर देते। वार्ता कभी-कभी इतनी देर तक चलती कि गृहस्वामी का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता। चमन भाई को इशारा किया जाता, ‘चमन भाई, टेलीफोन के रेट बढ़ गये हैं।’ जवाब में चमन भाई बढ़ती महंगाई पर आधे घंटे का भाषण दे मारते। सरकार को कोसते, कर्मचारियों-अधिकारियों को गाली देते और जनता पर पड़ने वाले बोझ की बात करते-करते दुखी हो जाते। लेकिन दुबारा ज़रूरत पड़ने पर फिर नि:संकोच उस घर में टेलीफोन करने हाज़िर हो जाते।

मुहल्ले में कई लोगों ने चमन भाई के आतंक से टेलीफोन ड्राइंग रूम से हटाकर भीतर छिपा दिया था। वे फोन करने पहुंचते तो सुनने को मिलता, ‘फोन खराब है, चमन भाई। माफ कीजिएगा।’ चमन भाई ‘अच्छा’ कह कर वापस आ जाते। गुस्सा नहीं होते। गुस्सा होने से सामाजिक संबंध टूटते हैं। गुस्सा सामाजिकता के लिए घातक होता है। आगे के लिए रास्ता बन्द होता है। इसलिए वे हमेशा परमहंस बने, गलती करने वालों को माफ करते रहते।

चमन भाई पिछले पंद्रह बीस साल से दूसरों के स्कूटर पर बैठकर दफ्तर जा रहे हैं। मुहल्ले में उनके दफ्तर के दो साथी रहते हैं। दोनों ने दुर्भाग्य से स्कूटर खरीद रखा है। चमन भाई बारी-बारी से उनको उपकृत करते रहते हैं। वे ठीक दस बजे उनमें से एक के घर पहुंच कर बाहर खड़े हो जाते हैं और स्कूटर स्टार्ट होने पर चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाते हैं। दो-चार बार उनके साथी चिढ़कर दस से पहले निकल गये, लेकिन चमन भाई ने बुरा नहीं माना। अगले दिन फिर वे दस बजे शान्त भाव से उसी ठिये पर पहुंच गये। उनके साथी भी आखिर कब तक भागते? इस तरह के मामूली झटके लगने के बाद फिर सब यथावत चलने लगता। चमन भाई धैर्य नहीं खोते। धीरज का फल मीठा होता है।

बाज़ार जाने के लिए चमन भाई दूसरा नुस्खा आज़माते हैं। चौराहे पर थैला लेकर खड़े हो जाते हैं और किसी भी भले दिखने वाले स्कूटर वाले को रोक लेते हैं। स्कूटर रुकते ही पीछे की सीट पर बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘थोड़ा बाजार तक छोड़ दीजिएगा।’ अगर वह कहता है कि उसे बीच में ही कहीं रुकना है तो वे  जवाब देते हैं, ‘हां हां, वहीं छोड़ दीजिएगा। वहां से चला जाऊंगा।’ उस स्थान से चमन भाई किसी दूसरे स्कूटर वाले को ढूंढ़ते हैं। नहीं मिलता तो गाते-गुनगुनाते पैदल बाकी रास्ता तय कर लेते हैं, लेकिन विचलित नहीं होते। रिक्शे-  विक्शे पर पैसा बर्बाद नहीं करते। जब पूरा समाज स्कूटरों पर दौड़ रहा हो तो एक व्यक्ति को अपनी चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? एक आदमी तो कहीं भी अंट सकता है।

चमन भाई ने कॉरपोरेशन का नल नहीं लगवाया। जिस दिन उनके पड़ोसी के घर नल लगा उसके दूसरे दिन उन्होंने एक लंबी सटक खरीद ली। नल खाली दिखते ही सटक लगाकर ज़रूरत के हिसाब से पानी भर लेते। देर तक नल खाली न मिले तो पड़ोसी का बर्तन हटाकर सटक लगा देते। टिप्पणी भी कर देते, ‘दो-चार बाल्टी पानी के लिए कितना इन्तजार करें?’ पड़ोसी की शराफत की बदौलत चमन भाई का काम चलता रहता है।

पहले उन्होंने टीवी भी नहीं खरीदा था। पड़ोसी की बुद्धि भ्रष्ट हुई तो उसने खरीद लिया। चमन भाई महीनों सपरिवार हर शाम उसके घर की शोभा बढ़ाते रहे। रामायण और महाभारत की सारी कड़ियां उसी के घर देखीं। टीवी बन्द होता तो कहते, ‘चालू करो भाई।’ चमन परिवार देर तक जमा रहता तो पड़ोसी कहता, ‘चमन भाई, अब तो नींद आ रही है।’ चमन भाई टीवी पर निगाहें जमाये हुए कहते, ‘ हां हां, आप सोइए। आराम से सोइए। हम बैठे हैं। जाते टाइम आपको बता देंगे।’

बीच में पड़ोसी के मेहमान आ जाते, तब भी चमन परिवार अपनी जगह बैठा टीवी देखता रहता। कभी मेहमान के कारण टीवी बन्द करना पड़ता तो चमन परिवार उनके जाने का इन्तज़ार करता जमा रहता। मेहमान के लिए जो चाय-पानी आता उसमें हिस्सा भी बंटा लेते। हार कर पड़ोसी ने शाम को घर में ताला ठोकना शुरू कर दिया। शाम को निकल जाते और अपने एक रिश्तेदार के यहां टीवी देख लेते। यह नुस्खा काम कर गया और चमन भाई ने मायूस होकर टीवी खरीद लिया। लेकिन पड़ोसी की इस असामाजिकता पर वे हफ्तों घूम घूम कर दुख प्रकट करते रहे। गुस्सा उन्हें फिर भी नहीं आया।

उनका पड़ोसी एफ एम रेडियो सुनने का शौकीन है। चमन भाई मुफ्त में उसका आनन्द लेते रहते हैं। जब कुछ अच्छे गाने शुरू होते हैं तो खिड़की से झांक कर कहते हैं, ‘आचारिया जी, जरा तेज कर दीजिए। लाउड। बहुत बढ़िया भजन है। मजा आ गया।’

चमन भाई पड़ोस से मुक्त भाव से चाय, दूध, शक्कर, आटा मांग लेते हैं। पड़ोसियों के फ्रिज में आइसक्रीम जमा लेते हैं। पड़ोसी उतने सामाजिक नहीं हैं, इसलिए वे चमन भाई से चीज़ें नहीं मांगते।

मुहल्ले में पांच छः कारें हैं। ज़रूरत पड़ने पर चमन भाई वहां भी दस्तक दे देते हैं। मिल गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। चमन भाई पर कोई असर नहीं होता। वे यह मानते हैं कि ‘उनसे पहले वे मरे जिन मुख निकसत नाहिं।’ इस दोहे की पहली पंक्ति उनके खिलाफ जाती है, इसलिए वे बस दूसरी पंक्ति ही दुहराते हैं।

मुहल्ले में सुविधाएं बढ़ने के साथ चमन भाई के लिए समाज की उपयोगिता के नये आयाम खुलते हैं। कई झटके लगने के बाद भी समाज और आदमी पर उनकी आस्था में निरन्तर वृद्धि ही होती है। उनका विश्वास है कि समाज में भले लोग भी हैं और बुरे भी। इसलिए जो मिल जाए उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और जो न मिले उसे त्याज्य समझ कर छोड़ देना चाहिए। जीवन में सुख का इससे बेहतर नुस्खा कोई नहीं है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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