श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य “समग्र आहत समाज की परिकल्पना साकार करने की दिशा में…” ।)
☆ शेष कुशल # 50 ☆
☆ व्यंग्य – “समग्र आहत समाज की परिकल्पना साकार करने की दिशा में…” – शांतिलाल जैन ☆
साथियो, आईए हम एक आहत समाज का निर्माण करें. एक ऐसा समाज जहाँ सब एक दूसरे से आहत हैं. यादव कुर्मी से, कुर्मी कोईरी से, कोईरी ब्राह्मण से, ब्राह्मण राजपूतों से, राजपूत बनियों से, एक्स-बनिए वाय-बनियों से, वाय-बनिए ज़ेड-बनियों से…हर कोई हर किसी से आहत घूम रहा है. कितनी अद्भुत है एक समग्र आहत समाज की परिकल्पना. दुनिया के नक़्शे पर एक सौ चालीस करोड़ आहत नागरिकों का यूनिक देश. वी द पीपुल ऑफ़ इंडिया समग्र आहत समाज निर्माण की दिशा में चल तो पड़े हैं मगर यह एक महती और विशाल परियोजना है. अगर आपने इसमें अभी तक अपनी आहुति नहीं दी है तो तैयार हो जाईए. भागीदारी आपको भी करनी है. कैसे ? चलिए, हम आपको बताते हैं.
सबसे पहले तो आप ऐसे करें कि आहत होना सीख लीजिए. यह बेहद आसान है. आपके पास एक एंड्रायड फोन हो, कुछ जीबी डाटा हो, एक वाट्सअप अकाउंट हो, ढ़ेर सारा फुरसती समय हो. न हो तो बस विवेक न हो. विवेक होना मेजर डिसक्वालिफिकेशन मानी जाती है. अगर संयोग से आपके पास विवेक है तो आहत होने का आव्हान किए जाने पर इसे इस्तेमाल न करें.
घबराएँ बिलकुल नहीं. आपका आहत होना जरूरी तो है, सचमुच में आहत होना बिलकुल जरूरी नहीं है. आप हरबार सचमुच आहत हो भी नहीं सकते क्योंकि आपने तो वो बयान अभी तक देखा, पढ़ा या सुना भी नहीं है जिससे आहत होकर आपने तोड़फोड़ के क्षेत्र में उतरने का फैसला किया है. किसी ने वाट्सअप पर किसी को कुछ भेजा है जो ब्रम्हांड का चक्कर लगाकर आप तक पहुँचा है और आप आहत हो लिए. आपने तो वो किताब पढ़ी भी नहीं जिसके प्रकाशन की खबर मात्र से आप आहत हो लिए. बल्कि, बचपन से ही किताब पढ़ने में आपकी रूचि कभी रही नहीं, आप तो अफवाहभर से आहत हो लिए. किसी ने ट्विटर पर किसी को कुछ कहा है और आप आहत हो लिए. उन्होंने तमिल में कुछ कहा और आप हिंदी में आहत हो लिए. कभी आप गाने के बोल से आहत हो लिए, कभी नायिका के अंतर्वस्त्रों के रंग से. अगला मन ही मन कुछ बुदबुदाया और आप आहत हो लिए. जिसके लिए कहा गया है वो आहत नहीं हुआ, उसके बिहाफ़ पर आप आहत हो लिए. ग्यारहवीं सदी के किसी नायक के लिए किसी ने कुछ कहा, आप ईक्कीसवीं सदी में उनके लिए आहत हो लिए. कभी कभी तो किसी ने किसी से कुछ नहीं कहा तो भी आप आहत हो लिए. आप इसी से आहत हो सकते हैं कि अमुक जी ने कुछ क्यों नहीं कहा. आहत होने के लिए आपको फैक्ट चेक करने की जरूरत भी नहीं. आपको तो बस भियाजी के पठ्ठे बने रहना है – वे आपको बताएँगें कि आज आपको इनसे आहत होना है, इनफ.
चलिए आहत हो लिए हैं तो आप वो सब कर पाएँगे जिसकी आज़ादी आपको संविधान से नहीं मिली है, आपने भीड़ बनाकर अपने अख्तियार में कर ली है. मसलन, ज़ेब में चार फूटी कौड़ी न हो मगर इसका या उसका सिर काट लाने पर करोड़ों के ईनाम की घोषणा कर पाने की आज़ादी. प्रदर्शनियों, नाटकों, कवि सम्मेलनों-मुशायरों को तहस नहस कर डालने की आज़ादी. सरेआम गाली-गलौज, मारपीट करने की आज़ादी. आहतकर्ता का मुँह काला करने की आज़ादी.
अब आप इस आज़ादी को एन्जॉय कर सकते हैं. तो ऐसा करें कि जिनसे आहत हुए हैं उनके घर में, ड्राइंग रूम में, स्टूडियो में, प्रदर्शनी में, दफ्तर में या स्टेज पर चढ़कर फर्नीचर तहस नहस कर डालें, लाईटें फोड़ दें, माईक उखाड़ दें, तलवारें और बंदूकें लहराएँ, गर्व करने लायक नारे लगाएँ. शालीनता, शिष्टाचार, शांति, सहिष्णुता और मर्यादा सब कुछ तहस-नहस कर डालिए. आखिर आप आहत जो हुए हैं. आप भरोसे के उस सोशल फेब्रिक को ही तोड़ डालिए जिस पर समाज टिका हुआ है. अगर तब भी अपने आप को पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे तो टारगेट की टांग तोड़ दें, सिर खोल दें. सॉफ्ट हिंसा का सहारा लें यह सेकंड डिग्री का ट्रीटमेंट है. अगर अभी भी अपने आप को हंड्रेड परसेंट अभिव्यक्त न कर पाएँ हों तो ‘मॉब लिंचिंग – दी थर्ड डिग्री ट्रीटमेंट’ तो अंतिम उपाय है ही. आप शूरवीर हैं क्योंकि आप उस समूह का हिस्सा हैं जिसने एक निर्दोष निहत्थे अकिंचन जन को मार डाला है. आप उदारवादियों की तरह कायर नहीं हैं. फ़ख्र कीजिए कि आप बुद्धिजीवी भी नहीं हैं. होते तो देशद्रोही कहाते. तोड़फोड़ में गर्व की अनुभूति अंतर्निहित है. आपको नाज़ होना चाहिए कि आप तोड़फोड़ करने के फुल-टाईम कॅरियर में हैं और हर तोड़फोड़ के साथ आपका कॅरियर नई ऊँचाईयों को छू रहा है. आपके पास कमानेवाली नौकरी नहीं है, पेशे में सफलता नहीं है, स्वाभिमानवाला रोज़गार नहीं है, मिलने की संभावना भी नहीं है मगर जातिगत स्वाभिमान पर काँच फोड़ डालने का स्थाई और स्थिर जॉब तो है. जॉब जो आपमें सेंस ऑफ़ फुलफिलमेंट भरता है और अभिव्यक्तिवाली स्वतंत्रता का एहसास कराता है. और हाँ, पुलिस प्रशासन की ओर से निश्चिंत रहें, उसके लिए भियाजी हैं ना. उनके हाथों में नफरत के अलग अलग साइज़-शेप के मारक पत्थर हैं जो वे यथा समय समाज के शांत स्थिर जल में फेंकते रहते हैं. उसे उसके आहत होने का अहसास कराने के मिशन में जुटे रहते हैं. वे समग्र आहत समाज की परिकल्पना को साकार करने में जुटे हैं और आप उनके पठ्ठे हैं.
आहत सेना में आप वर्चुअल वॉरियर भी बन सकते हैं. इसके लिए आपको हथियारों से लैस होकर सड़कों पर उतरने की जरूरत नहीं. आपको सोशल मिडिया की आभासी दुनिया में ट्वेंटी-फोर बाय सेवन सक्रिय रहना है, आहत किए जा सकनेवाले मेसेज रिसीव करना है और फॉरवर्ड कर देना है. आपका काम कम मेहनत में ज्यादा असर पैदा करनेवाला है. आपकी एक पोस्ट पूरे समाज को आहत फील करवा पाने का दम रखती है. आप उनमें जोशभर सकते हैं. ललकार सकते हैं. चैलेंज कर सकते हैं. इस या उस रंग का साफा बांधकर तलवार लेकर जुलूस निकाल सकते हैं. तलवार भारी हुई तो बाजुओं में क्रेम्प आ सकते हैं. सावधानी रखें, फोटो खिंचाने जितनी देर ही उठाएँ. नकली तलवार भी उठा सकते हैं. अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता अब सिर्फ आहत नागरिकों के लिए ही बची है.
तो क्या सोचा है आपने ? समग्र आहत समाज के निर्माण में योगदान देने आ रहे हैं ना! प्रतीक्षा रहेगी.
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© शांतिलाल जैन
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈