हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 112 –“लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)” – लेखक – श्री रण विजय राव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… श्री रण विजय राव जी के व्यंग्य संकलन  “लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन ” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 112 ☆

☆ “लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)” – लेखक – श्री रण विजय राव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन (व्यंग्य संकलन)

व्यंग्यकार  … श्री रण विजय राव

प्रकाशक .. भावना प्रकाशन , दिल्ली

मूल्य ३२५ रु , पृष्ठ १२८

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

हमारे परिवेश तथा हमारे क्रिया कलापों का, हमारे सोच विचार और लेखन पर प्रभाव पड़ता ही है. रण विजय राव लोकसभा सचिवालय में सम्पादक हैं.  स्पष्ट समझा जा सकता है कि वे रोजमर्रा के अपने कामकाज में लोकतंत्र के असंपादित नग्न स्वरूप से रूबरू हो रहे हैं. वे जन संचार में पोस्ट ग्रेजुएट विद्वान हैं. उनकी वैचारिक उर्वरा चेतना में रचनात्मक अभिव्यक्ति  की  अपार क्षमता नैसर्गिक है. २९ धारदार सम सामयिक चुटीले व्यंग्य लेखों पर स्वनाम धन्य सुस्थापित प्रतिष्ठित व्यंग्यकार सर्वश्री हरीश नवल, प्रेमजनमेजय, फारूख अफरीदी जी की भूमिका, प्रस्तावना, आवरण टीप के साथ ही समकालीन चर्चित १९ व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी पुस्तक में समाहित हैं. ये सारी समीक्षात्मक टिप्पणियां स्वयमेव ही रण विजय राव के व्यंग्य कर्म की विशद व्याख्यायें हैं. जो एक सर्वथा नये पाठक को भी पुस्तक और लेखक से सरलता से मिलवा देती हैं. यद्यपि रण विजय जी हिन्दी पाठको के लिये कतई नये नहीं हैं, क्योंकि वे सोशल मीडीया में सक्रिय हैं, यू ट्यूबर भी हैं, और यत्र तत्र प्रकाशित होते ही रहते हैं.

कोई २० बरस पहले मेरा व्यंग्य संग्रह रामभरोसे प्रकाशित हुआ था, जिसमें मैंने आम भारतीय को राम भरोसे प्रतिपादित किया था. प्रत्येक व्यंग्यकार किंबहुना उन्हीं मनोभावों से दोचार होता है, रण विजय जी रामखिलावन नाम का लोकव्यापीकरण भारत के एक आम नागरिक के रूप में करने में  सफल हुये हैं. दुखद है कि तमाम सरकारो की ढ़ेरों योजनाओ के बाद भी परसाई के भोलाराम का जीव के समय से आज तक इस आम आदमी के आधारभूत हालात बदल नही रहे हैं. इस आम आदमी की बदलती समस्याओ को ढ़ूंढ़ कर अपने समय को रेखांकित करते व्यंग्यकार बस लिखे  जा रहे हैं.

बड़े पते की बातें पढ़ने में आईं है इस पुस्तक में मसलन ” जिंदगी के सारे मंहगे सबक सस्ते लोगों से ही सीखे हैं विशेषकर तब जब रामखिलावन नशे में होकर भी नशे में नहीं था. “

“हम सब यथा स्थितिवादी हो गये हैं, हम मानने लगे हैं कि कुछ भी बदल नहीं सकता “

“अंगूर की बेटी का महत्व तो तब पता चला जब कोरोना काल में मयखाने बंद होने से देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने लगी ” रण विजय राव का रामखिलावन आनलाइन फ्राड से भी रूबरू होता है, वह सिर पर सपने लादे खाली हाथ गांव लौट पड़ता है. कोरोना काल के घटना क्रम पर बारीक नजर से संवेदनशील, बोधगम्य, सरल भाषाई विन्यास के साथ लेखन किया है, रण विजय जी ने. चैनलो की बिग ब्रेकिंग, एक्सक्लूजिव, सबसे पहले मेरे चैनल पर तीखा तंज किया गया है, रामखेलावन को  लोकतंत्र की मर्यादाओ का जो खयाल आता है, काश वह उलजलूल बहस में देश को उलझाते टी आर पी बढ़ाते चैनलो को होता तो बेहतर होता. प्रत्येक व्यंग्य महज कटाक्ष ही नही करता अंतिम पैरे में वह एक सकारात्मक स्वरूप में पूरा होता है. वे विकास के कथित एनकाउंटर पर लिखते हैं, विकास मरते नहीं. . . भाषा से खिलंदड़ी करते हुये वे कोरोना जनित शब्दों प्लाज्मा डोनेशन, कम्युनिटी स्प्रेड जैसी उपमाओ का अच्छा प्रयोग करते हैं. प्रश्नोत्तर शैली में सीधी बात रामखेलावन से किंचित नया कम प्रयुक्त अभिव्यक्ति शैली है. व्हाट्सअप के मायाजाल में आज समाज बुरी तरह उलझ गया है, असंपादित सूचनाओ, फेक न्यूज, अविश्वसनीयता चरम पर है, व्हाट्सअप से दुरुपयोग से समाज को बचाने का उपाय ढ़ूढ़ने की जरूरत हैं. वर्तमान हालात पर यह पैरा पढ़िये ” जनता को लोकतंत्र के खतरे का डर दिखाया जाता है, इससे जनता न डरे तो दंगा करा दिया जाता है, एक कौम को दूसरी कौम से डराया जाता है, सरकार विपक्ष के घोटालो से डराती है, डरे नहीं कि गए. ” समझते बहुत हैं पर रण विजय राव ने लिखा, अच्छी तरह संप्रेषित भी किया. आप पढ़िये मनन कीजीये.

हिन्दी के पाठको के लिये यह जानना ही किताब की प्रकाशकीय गुणवत्ता के प्रति आश्वस्ति देता है कि लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन, भावना प्रकाशन से छपी है.  पुस्तक पठनीय सामग्री के साथ-साथ  मुद्रण के स्तर पर भी स्तरीय, त्रुटि रहित है. मैं इसे खरीद कर पढ़ने के लिये अनुशंसित करता हूं.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 111 –“ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है लेखक… प्रभात गोस्वामी के व्यंग्य संकलन  “ऐसा भी क्या सेल्फियाना ” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 111 ☆

☆ “ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)” … लेखक… श्री प्रभात गोस्वामी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक चर्चा

ऐसा भी क्या सेल्फियाना (व्यंग्य संकलन)

लेखक… प्रभात गोस्वामी

प्रकाशक.. किताब गंज प्रकाशन, गंगापुर सिटि

मूल्य २०० रु, पृष्ठ १३६

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

प्रभात गोस्वामी का तीसरा व्यंग्य संग्रह ऐसा भी क्या सेल्फियाना पढ़ने का अवसर मिला. चुटीले चालीस व्यंग्य आलेखों के साथ समकालीन चर्चित सोलह व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी किताब में समाहित हैं. ये टिप्पणियां स्वयमेव ही पुस्तक की और प्रभात जी के व्यंग्य कर्म की समीक्षायें हैं. प्रभात गोस्वामी कि जो सबसे बडी खासियत पाठक के पक्ष में मिलती है वह है उनका विषयों का चयन. वे पाठकों की रोजमर्रा की जिंदगी के आजू बाजू से मनोरंजक विषय निकाल कर दो तीन पृष्ठ के छोटे से लेख में गुदगुदाते हुये कटाक्ष करने में माहिर हैं. ऐसा भी क्या सेल्फियाना लेख के शीर्षक को ही किताब का शीर्षक बनाकर प्रकाशक ने साफ सुथरी त्रुटि रहित प्रिंटिग के साथ अच्छे गेटअप में किताब प्रकाशित की है. सेल्फी के अतिरेक को लेकर कई विचारशील लेखकों ने कहीं न कही कुछ न कुछ लिखा है. मैंने अपने एक व्यंग्य लेख में सेल्फी को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बतलाया है. प्रभात जी ने सेल्फी की आभासी दुनियां और बाजार की मंहगाई, सेल्फी लेने की आकस्मिक आपदाओ,किसी हस्ती के साथ सेल्फी लेने  का रोचक वर्णन,  अपने क्रिकेट कमेंटरी के फन से जोड़ते हुये किया हैं. किन्तु जीवन यथार्थ के धरातल पर चलता है, सोशल मीडीया पर पोस्ट की जा रही आभासी सेल्फी से नहीं, व्यंग्य में  इसका आभास तब होता है जब भोजन की जगह पत्नी व्हाट्सअप पर आभासी थाली फारवर्ड कर देती हैं. इस व्यंग्य में ही नहीं बल्कि प्रभात जी के लेखन में प्रायः बिटविन द लाइन्स अलिखित को पढ़ने, समझने के लिये पाठक को बहुत कुछ होता है.

इसी तरह एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या भी छोटा सा कथा व्यंग्य है. लेखक जेंडर इक्विलीटी के प्रति सतर्क है, वह तंज करता है कि एलेक्सा और सीरी से चुहल दिलजलों को बर्दाश्त नहीं, वे इसके मेल वर्जन की मांग करते हैं. व्यंग्य के क्लाइमेक्स में नई दुल्हन एलेक्सा को पति पत्नी और वो के त्रिकोण में वो समझ लेती है और पीहर रुखसत कर जाती है. प्रभात जी इन परिस्थितियों में लिखते हैं एलेक्सा तुम बतलाओ कि हम बतलायें क्या, और पाठक को घर घर बसते एलेक्सा के संसार में थोड़ा हंसने थोड़ा सोचने के लिये विवश कर देते हैं

रचना चोरों के लिये साहित्यिक थाना, पहले प्यार सी पहली पुस्तक, आओ हुजूर तुमको, दो कालम भी मिल न सके किसी अखबार में जैसे लेख प्रभात जी की समृद्ध भाषा, फिल्मी गानों में उनकी अभिरुचि और सरलता से अभिव्यक्ति के उनके कौशल के परिचायक हैं.

कुल जमा ऐसा भी क्या सेल्फियाना मजेदार पैसा वसूल किताब है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ स्मृतियों की गलियों से (संस्मरण) – सुश्री ऋता सिंह  श्री संजय भारद्वाज☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

आज प्रस्तुत है सुश्री ऋता सिंह जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक “स्मृतियों की गलियों से” (संस्मरण) पर आपकी चर्चा।

? पुस्तक चर्चा – स्मृतियों की गलियों से (संस्मरण) – सुश्री ऋता सिंह  ? श्री संजय भारद्वाज ?

? अनुभव विश्व से उपजा सम्यक स्मरण – श्री संजय भारद्वाज ?

सम्यक स्मरण अर्थात संस्मरण। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि संस्मरण रोचक शैली में स्मृति को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘स्मृतियों की गलियों से’, लेखिका के अनुभव-विश्व से उपजे ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

चित्रोपमता संस्मरण लेखन की शक्ति होती है। लेखक द्वारा जो लिखा गया है, उसका चित्र पाठक की आँख में बनना चाहिए। श्वान के एक पिल्लेे के संदर्भ में ‘भूले बिसरे दिन’ की प्रस्तुत पंक्तियाँ देखिए-‘अपनी पूँछ को पकड़ने की कोशिश में दिन में न जाने कितनी बार वह गोल-गोल घूमा करता था पर पूँछ कभी भी उसकी पकड़ में न आती। उसकी यह कोशिश किसी तपस्वी की तरह एक नियम से बनी हुई चलती रहती थी।’…‘ जाने कहाँ गए वे दिन’ में उकेरा गया यह चित्र देखिए-‘मैंने फूलझाड़ू के दो छोटे टुकड़ों को क्रॉस के रूप में रखा, काठी के एक छोर पर कपास का एक गोला बनाकर लगाया, फिर उस कपास के गोले को पिताजी की पुरानी स़फेद धोती के टुकड़े से ढका और पतली सुतली से उस झाड़ू के साथ बाँध दिया। इस तरह उसे सिर का आकार दिया गया। काजल से आँख, नाक, मुँह बनाया। इस तरह की कई गुड़ियाँ मैंने ईजाद कर डालीं।’

सत्यात्मकता या प्रामाणिकता संस्मरण का प्राण है। संस्मरण में कल्पना विन्यास वांछनीय नहीं होता। कल्पना की ओर बढ़ना अर्थात संस्मरण से दूर जाना। प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने संस्मरण के प्राण-तत्व को चैतन्य रखा है। ‘जब पराये ही हो जाएँ अपने’ में वर्णित घटनाक्रम का एक अंश इसकी पुष्टि करता है-‘जाते समय उस बुज़ुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडेड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।’

संस्मरण के पात्र सत्यात्मकता का लिटमस टेस्ट होते हैं। प्रस्तुत संग्रह के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से आए हैं। इसके चलते पात्र परिचित लगते हैं और पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। ‘गटरू’ जैसे चरित्र इसकी बानगी हैं।

अतीत के प्रति मनुष्य के मन में विशेष आकर्षण सदा रहता है। बकौल निदा फाज़ली, ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ इस खोए हुए सोना अर्थात अतीत की स्मृति के आधार पर होने वाले लेखन में आत्मीय संबंध और वैयक्तिकता की भूमिकाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ‘गुलमोहर का पेड़’ नामक संस्मरण से यह उदाहरण देखिए-‘अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते-देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध-सा स्थापित हो गया था। विभिन्न छटाओं का उसका रूप मुझे बहुत भाता रहा।’ इसका उत्कर्ष भी द्रष्टव्य है-‘गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा, मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी, मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था।… अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा-सा था। ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे, सूखे रिश्तों की तरह।’

लेखिका, शिक्षिका हैं। स्थान का वर्णन करते हुए तत्संबंधी ऐतिहासिक व अन्य जानकारियाँ पाठक तक पहुँचाना उनका मूल स्वभाव है। इस मूल का एक उदाहरण देखिए- ‘लोथल, दो हजार सात सौ साल पुराना एक बंदरगाह था। यहाँ छोटे जहाजों के द्वारा आकर व्यापार किया जाता था। यह ऐतिहासिक स्थल है जो पुरातत्व विभाग के उत्खनन द्वारा खोजा गया है।’

कथात्मकथा बनी रहे तो ही संस्मरण रोचक हो पाता है। पढ़ते समय पाठक के मन में ‘वॉट नेक्स्ट’ याने ‘आगे क्या हुआ’ का भाव प्रबलता से बना रहना चाहिए। प्रस्तुत संग्रह के अनेक संस्मरणों में कथात्मकता प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है।

भारतीय संस्कृति कहती है, ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।’ किसी घटना के अनेक साक्षी हो सकते हैं। घटना के अवलोकन, अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रत्येक का तरीका अलग होता है। इन संस्मरणों की एक विशेषता यह है कि लेखिका इनके माध्यम से घटना को ज्यों का त्यों सामने रख देती हैं। स्वयं अभिव्यक्त तो होती हैं पर सामान्यत: किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर थोपती नहीं। ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं। पाठक अपनी दृष्टि से घटना को ग्रहण करने और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र है।

इन संस्मरणों के माध्यम से विविध विषय एवं आयाम प्रकट हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि पाठक इन संस्मरणों को अपने जीवन के निकट अनुभव करेगा। यह अनुभव ही लेखिका की सफलता की कसौटी भी होगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘सफर अहसासों का’ – सुश्री लीना खेरिया ☆ समीक्षा – श्री शंभु शिखर ☆

श्री शंभु शिखर

(आज  प्रस्तुत है सुश्री लीना खेरिया जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘सफर अहसासों का ‘पर सर्वाधिक लोकप्रिय हास्य कवि श्री शंभु शिखर जी  की पुस्तक चर्चा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘सफर अहसासों का ‘’ – सुश्री लीना खेरिया ☆ समीक्षा – श्री शंभु शिखर ☆

पुस्तक का नाम – सफर अहसासों का

रचयिता – लीना खेरिया

प्रकाशक – स्टोरीमिरर इंफोटेक प्रा. लि

पृष्ठ संख्या ‏ – ‎ 154 पेज

मूल्य- ₹ 225 ( पेपरबैक)

मूल्य- ₹ 99 (किंडल एडिशन)

अमेज़न लिंक 👉 सफर अहसासों का

☆ अनुभूतियों का नया संसार रचती कविताएँ.. – श्री शंभु शिखर 

चार वर्षों के अंतराल के बाद लीना खेरिया का दूसरा काव्य संग्रह सफर अहसासों का मार्च 2022 में सतहे आम पर आया है। इस अंतराल में उनकी अनूभूतियों की व्यापकता, चिंतन की गहराई और विषयों की विविधता का विस्तार स्पष्ट दिखाई देता है। प्रकृति के साथ अंतरंगता, अध्यात्म के प्रति रूझान, रिश्तों और संबंधों का खट्टा-मीठा स्वाद, सामाजिक विडंबनाओं के प्रति चिंता की झलक कुछ ज्यादा स्पष्ट आकार बनाता दिखता है। इनमें अहसासों का चार वर्षों का सफरनामा साफ परिलक्षित होता है। संग्रह में 100 काव्य रचनाएँ हैं जिनमें कविताओं के अलावा कुछ ग़ज़लें भी शामिल हैं।

संग्रह की एक कविता अंधाधुंध धुआं ड्रग्स के नशे में अपने और राष्ट्र के भविष्य को बर्बादी की ओर ले जाती युवा पीढ़ी पर केंद्रित है। निःसंदेह यह वर्तमान समय में गहन वैश्विक चिंता का विषय है। हमारे देश में भी नशे के सौदागरों का जाल महानगरों से लेकर कस्बों तक बिछा हुआ है। हजारों-हजार करोड़ के ड्रग्स समुद्री और सड़क मार्ग से ले जाये जा रहे हैं। कुछ पकड़े जाते हैं, कुछ पकड़ में नहीं आते हैं। युवा वर्ग को नशे का गुलाम बनाने की साजिश रची जा रही है। इस विषय पर फिल्में तक बन चुकी हैं लेकिन साहित्यिक विधाओं में इसका उतना समावेश नहीं हो पाया है जितना संवेदनाओं को झकझोरने के लिए होना चाहिए था। कवयित्री चकाचौंध भरी गलियों में सिर्फ धुँआ-धुआँ और अंधाधुंध धुआँ देखती है और खुद से पूछती है कि हमसे कहाँ पर चूक हुई, क्या गलत हुआ कि नये पौधों की नींव और जड़ें अंदर से पूरी खोखली होती गईं। कवयित्री कहती है-

सफेद जहर की हमारी युवा पीढ़ी 

न जाने क्यों इतनी आदी हो गई

सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे

और नाक के नीचे ये बर्बादी हो गई…

चक्रवात शीर्षक कविता में कवयित्री जीवन की जटिलताओं को महसूस करती हुई मन के अथाह सागर में उठते चक्रवात देखती है, खुद को भंवर में डूबता हुआ पाती है लेकिन नाउम्मीद नहीं होती। कहती है-

ये उम्मीद का लालटेन

है तो कुछ धुंधला सा ही

पर तसल्ली है कि 

कम से कम

अब तक रौशन तो है.

यह कविता घोर निराशाओं के बीच भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की सीख देती है। लीना खेरिया के काव्य संसार की यह खूबी है कि जीवन के अंधेरे पक्ष को उजागर करने में संकोच नहीं करती लेकिन रौशनी की किरनों के आसपास होने का भरोसा भी दिलाती है। अगर रात है तो उसके आसपास सवेरा भी मौजूद है जिसका क्षितिज पर उभरना उतना ही तय है जितना रात का आना। यह भारतीय दर्शन का शाश्वत सूत्र है जो मनुष्य को कभी निराश नहीं होने देता। धैर्य को बनाए रखता है।

सुश्री लीना खेरिया 

(मॉं की ममता पिता का  त्याग  और ना जाने कितनी ही भावनाओं के खूबसूरत शाख बोयें हैं मैनें इस सफ़र के रास्तें पर जिनको छू कर गुजरती बयार आपके भी मन को अवश्य ही महका जायेगी…)

कवयित्री की चेतना साकार से निराकार की ओर निरंतर यात्रा करती है। चंपई बनारसी साड़ी शीर्षक कविता में कवयित्री दांपत्य जीवन की मधुरिमा में ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करती है। वह प्रियतम से उपहार में मिली उसकी पसंदीदा बनारसी साड़ी पहनकर दर्पण में स्वयं को निहारती है तो उसकी छुअन से उसे महसूस होता है जैसे अस्सी घाट की निचली सीढ़ी पर पैर लटका कर बैठी हुई गंगा मैय्या की उजली कोमल लहरों का पावन शीतल स्पर्श कर रही हो। अपने कानों में अपने प्रियतम की आवाज़ की गूंज को बाबा विश्वनाथ के मंदिर की असंख्य घंटियों की ध्वनि और उनकी प्रतिध्वनि की खनखनाती स्वर लहरी में रस घोलती सी महसूस करती है जो समूचे वातावरण को और उसके मन तथा अंतर्मन को भी झंकृत कर रही हो। कहते हैं कि प्रेम की भावना जब मन में तरंगित होती है तो इंसान को अध्यात्म की गहराइयों की ओर ले जाती है। इसीलिए कवयित्री को बनारसी साड़ी सिर्फ एक मोहक परिधान नहीं दिखता बल्कि उसके अंदर काशी-विश्वनाथ का पूरा धाम दिखाई देता है। 

प्रेम और अध्यात्म के अंतर्संबंधों की भाव यात्रा के पड़ाव लीना खेरिया की अधिकांश श्रृंगार रस की कविताओं में दृश्यमान हैं। ताबीज शीर्षक कविता में वह अपने प्रियतम को संबोधित करती हुई कहती हैं कि उन्होंने उसे अपनी सपनीली आंखों में बसे काजल की काली डोरी में पिरोकर किसी पाकीज़ा ताबीज़ की तरह गले में धारण कर रखा है जो हर मुसीबत, हर बला से उसकी रक्षा करता है और यह बेहद बेशकीमती ताबीज़ किसी पीर, फकीर या मौलवी से नहीं ख़ुद खुदा से हासिल हुआ है। 

नारी मन की पीड़ा की जबर्दस्त अभिव्यक्ति कब आएंगे मेरे राम शीर्षक कविता में हुई है। कवयित्री को नारी समाज के प्रतिनिधि के रूप में अपने अंदर एक अहिल्या दिखाई देती है जो किसी और की भूल और अनाचार के कारण श्रापित होकर सदियों से पाषाण बनी पड़ी हुई है। जिसकी सारी वेदनाएं, संवेदनाएं जड़वत हो गई हैं और जिसे अपनी मुक्ति के लिए किसी राम के आगमन का इंतजार है। वह अपने आप से पूछती है कि क्या एक दिन उसके राम आएंगे जिनके स्पर्श मात्र से वह फिर से अहिल्या की तरह जी उठेगी। दरअसल पुरुष प्रधान पारंपरिक समाज में नारी रीति रिवाजों और मर्यादाओं के बंधन से इस तरह जकड़ दी जाती है कि अहिल्या की तरह पाषाण की मूरत बनी रहती है। उसे अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत करने के लिए, अपने व्यक्तित्व को पूरी तरह उभारने के लिए किसी मर्यादा पुरुषोत्तम राम के स्पर्श का इंतजार रहता है। यह कविता दुनिया भर में चल रहे नारी मुक्ति आंदोलनों की ओर इशारा करती है। इसी कड़ी में एक कविता है-उद्धार करो जिसमें वह राम से विनती करती है कि आओ और अपने दिव्य स्पर्श से मेरा उद्धार कर दो। लिंग भेद पर केंद्रित संग्रह की एक कविता है नारी जीवन। कवयित्री पूछती है-

अगर बेटा अपना खून है तो

होती बेटी आखिर पराई क्यूं

जब साथ में दोनों पले बढ़े तो

होती बेटी की आखिर विदाई क्यूं

दिल के रिश्तों में दूरी कोई मायने नहीं रखती। जो दिल के करीब होता है वह दूर रहकर भी हमेशा अपने आसपास ही प्रतीत होता है। तुम जाकर भी नहीं जाते शीर्षक कविता में वह हर जगह अपने प्रियतम की झलक महसूस करती है। वह कहती है-

और घर में घुसते ही

दाहिनी ओर लगे

शो केस की दराज में

मुंह छुपाए…न जाने कबसे

छुपी बैठी है तुम्हारी खुशबू

जो दराज़ खोलते ही

अक्सर ले लेती है मुझे

अपनी गिरफ्त में

और कर देती है मुझे

बिल्कुल…बदहवास…

घर के बाहर और घर के अंदर हर जगह प्रियतम की यादें उसका पीछा करती हुई प्रतीत होती हैं और अंत में वह प्यार से कहती है-

अरे बाबा…

मेरा पीछा करना छोड़ दो

अब जाओ ना

जाओ ना…

इसी तरह संग्रह की सभी कविताएं भावों और संवेदनाओं का अपना संसार रचती प्रतीत होती हैं। सीधे मन की गहराइयों में उतरकर ह्रदय को उद्वेलित करती हैं। इनके बीच से होकर गुजरना अनूभूतियों के महासमुद्र में गोते लगाने सा प्रतीत होता है। उनकी कविताओं का शिल्प, विषय और उसके अनुरूप प्रतीकों का चयन स्वाभाविक प्रवाह में मगर सावधानी का संकेत देता है। उनमें रस भी है और प्रवाह भी। हिंदी कविताओं की भीड़ में लीना खेरिया एक अलग रस, अलग रंग और अलग तेवर के साथ खड़ी दिखाई देती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है। 

चित्र साभार – Shambhu Shikhar- Comedian, Hasya Kavi, Poet, Actor, Official Website

समीक्षक – श्री शंभु शिखर

संपर्क – A-428, छतरपुर एन्क्लेव, फेज-I, नई दिल्ली – 110074

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है सुश्री भावना शर्मा जी  की पुस्तक  अनहद नाद” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘अनहद नाद’ – सुश्री भावना शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक- अनहद नाद

कवियित्री- भावना शर्मा

प्रकाशक- साहित्यागार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302006 मोबाइल नंबर 94689 43311

पृष्ठ संख्या- 130 

मूल्य- ₹250

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ काव्य में गूंजता अनहद नाद – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

भावों का रेचन ही साहित्य की उत्पत्ति का मूल है। साहित्य अपने भावों को व्यक्त करने के लिए मनोगत प्रवाह को ढूंढ लेता है। यदि मनोगत भाव कथा, कहानी, व्यंग्य, हास्य, कविता, मुक्तक, दोहे, सोरठे के अनुरूप होता है उसी में साहित्य सर्जन की लालसा उत्पन्न हो जाती है। तदुनुरूप रचनाकार की लेखनी चल पड़ती है।

इस मायने में भाव का रेचन यदि काव्यानुरूप हो तो काव्य पंक्तियां रचती चली जाती है। इस रूप में भावना शर्मा की प्रस्तुत पुस्तक अनहद नाद की चर्चा अपेक्षित है। पेशे से शिक्षिका भावना शर्मा एक बेहतरीन शिक्षिका होने के साथ-साथ भाव की अभिव्यक्ति को सशक्त ढंग से व्यक्त करने वाली कवियित्री भी है।

कवि हृदय बहुत कोमल कांत और धीरगंभीर होता है। उन्हें भावना, संवेदनहीन शब्द और करारा व्यंग्य अंदर तक सालता रहता है। यही विद्रूपताएं, विसंगतिया और सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, असंगति उन्हें अंदर तक प्रभावित करती है। तभी अनहद नाद जैसी काव्य पुस्तक सृजित हो पाती है।

प्रस्तुत पुस्तक में 105 कविताओं में कवियित्री ने अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। आपने प्रकृति, जीव-जंतु, मानव, गीत-संगीत, घर-परिवार, मित्र-साथी, दोस्त, लड़का-लड़की, सपने, धुन, भाव-विभाव, चाहत, आशा-निराशा, मौसम, सपने, पशु-पक्षी यानी हर पहलू पर अपनी कलम चलाई है।

ना भूल जाने की कैफियत हूं

ना याद आने का जलजला।

कभी बरसों से पड़ी धूल हूं 

कभी रोज का सिलसिला ।।

कवियित्री कहती है-

कभी बात को कभी सवालात को

कभी मुस्कुराहट में छुपे हालात को

समझ जाना मायने रखता है।

भावों की जितनी सरलता, सहजता इन की कविता में है उतनी ही सरलता और सहजता उनकी भाषा में भी है।

उन अधबूनी चाहतों को

मैं यूं आजमाना चाहती हूं।

तेरी अंगुलियों को सहेज कर हाथों में 

मैं मुस्कुराना चाहती हूं।।

जैसी सौंदर्य से परिपूर्ण और काव्य से भरपूर इस पुस्तक के काव्य सौंदर्य की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। 130 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹200 वाजिब है । साफ-सफाई, साज-सज्जा व त्रुटि रहित मुद्रण ने पुस्तक की उपयोगिता में वृद्धि की है।

काव्य साहित्य में कवियित्री अपनी पहचान बनाने में सक्षम होगी। यही आशा है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘रामकथा एवं तुलसी साहित्य’ – श्री देवदत्त शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है श्री देवदत्त शर्मा जी  की पुस्तक  “रामकथा एवं तुलसी साहित्य” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘रामकथा एवं तुलसी साहित्य’ – श्री देवदत्त शर्मा ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक- रामकथा एवं तुलसी साहित्य

आलोचक- देवदत्त शर्मा

प्रकाशक- साहित्यागार, धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर-302006 मोबाइल नंबर 94689 43311

पृष्ठ संख्या- 176 

मूल्य- ₹300

समीक्षक- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ तुलसी साहित्य की बेहतरीन समालोचना की पुस्तक – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

आलोचना के लिए खुलापन चाहिए। यदि आप पूर्वाग्रह से ग्रसित हो तो आलोचना महत्वहीन हो जाती है। यदि आप पक्षपाती हो तो वह स्तुतिगान से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं रह जाती है। इसलिए आलोचक को पूर्वाग्रह रहित, निष्पक्ष और तटस्थ रहना जरूरी है।

इसी के साथ-साथ आलोचक को अध्ययन की दृष्टि से गंभीर व पठन की दृष्टि से धैर्यवान होना चाहिए। तभी वह गहन अध्ययन कर अपने निष्कर्ष के द्वारा बेहतरीन आलोचना प्रस्तुत कर सकता है।

इन दोनों ही दृष्टि से रामकथा एवं तुलसी साहित्य के रचनाकार यानी आलोचक की पृष्ठभूमि का अवलोकन करें तब हमें ज्ञात होता है कि आलोचक रचनाकार देवदत्त शर्मा के पिता श्री मिश्रीलाल शर्मा त्रिभंगी छंद के विशेषज्ञ रचनाकार थे। वे नित्य प्रति रामचरितमानस का पारायण करते थे। इस कारण उनके पुत्र को पौराणिक साहित्य और उसकी बारीकियों को जानने का, समझने का, परखने का, चिंतन-मनन करने का, लंबा व अनुभव सिद्धि कार्यानुभव रहा है। जिसकी छाप उनके अंतर्मन पर गहरी पड़ी है। वे स्वयं पौराणिक साहित्य के अध्ययेता, चिंतक व रचनाकार रहे हैं। इस कारण आप को इस साहित्य के चिंतन-मनन का लंबा अनुभव प्राप्त हुआ है।

देवदत्त शर्मा की लेखनी हमेशा इन्हीं विषयों पर अधिकार पूर्वक चलती रही है। आपने इस प्रसंग पर अनेकों आलेख, तार्किक रचनाएं एवं शोध आलेख लिखे हैं। इस अलौकिक अनुभव के कारण आप रामकथा एवं तुलसी साहित्य नामक आलोचक ग्रंथ का परिणयन कर पाए हैं।

प्रस्तुत आलोच्य ग्रंथ से तैतीस अध्यायों में विभक्त है। इसके अंतर्गत आलोचक ने रामकथा के प्रथम रचनाकार से लेकर रामराज्य की स्थापना से गोस्वामी तुलसीदास जी की विनोदप्रियता तक हर पहलू को छुआ है। रामकथा के हर पात्र, उसका स्वभाव, उसकी भावना, उसका त्याग, उसका बलिदान के साथ-साथ उसकी कर्तव्य परायणता का बारीकी से आलोचनात्मक मूल्यांकन किया है।

तुलसीदास जी की सबसे निंदक चौपाई- ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी। की सबसे सुंदर व समकालीन परिस्थितियों में बहुत ही बेहतरीन समोलोचना प्रस्तुत की गई है। यदि आप रामचरितमानस, उसके समस्त पात्, उनकी स्थिति, भाव भंगिमा और मनोदशा को समझना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपके बहुत काम की है।

आलोचक की श्रमसाध्य मेहनत, सूझबूझ, धैर्य और गंभीर अध्ययन को यह पुस्तक भारतीय ढंग से प्रस्तुत करती है। 176 पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹300 वाजिब है। साजसज्जा व आवरण पृष्ठ आकर्षक व त्रुटिरहित है। आशा है इस पुस्तक का साहित्यजगत में खुले दिल से स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 110 –“चटपटे शरारे” … संपादन… फारूक अफरीदी, कविता मुखर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है फारूक अफरीदी, कविता मुखर द्वारा पुस्तक “चटपटे शरारे” की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆

☆ “चटपटे शरारे” … संपादन… फारूक अफरीदी, कविता मुखर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

चटपटे शरारे

राही रेंकिंग २०२० में चयनित व्यंग्यकारों का व्यंग्य संकलन

संपादन… फारूक अफरीदी, कविता मुखर

संयोजक… प्रभात कुमार गोविल, डॉ. संजीव कुमार  

प्रकाशक… इंडिया नेटबुक्स प्रा लिमि नोएडा

मूल्य ४००रु, पृष्ठ २०४

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव

शतक एक ऐसी संख्या है जो एक मान्य मुकाम की उद्घोषणा के रूप में स्थापित हो चुकी है. क्रिकेट में शतकीय पारी, उम्र में १०० बरस की जिंदगी, परीक्षाओ में १०० अंको के पूर्णांक वगैरह वगैरह… वर्ष २०१५ से राही सहयोग संस्थान नामक संस्था ने स्वैच्छिक रूप से  कुल पचपन सदस्यों का एक समूह बनाया. इन सदस्यों में कुछ शिक्षक, विद्यार्थी, शोधार्थी, संपादक, समीक्षक, सामान्य रूचि शील पाठकों के रूप में कुछ साहित्यानुरागी गृहणियाँ थी । पुस्तकालय कर्मी, प्रकाशक और प्रतिष्ठित पुस्तक विक्रेता तक शामिल थे  और शेष इंटरनेट सर्फर्स थे । प्रबुद्ध साहित्यिक प्रबोध कुमार गोविल जी की इस पहल का उद्देश्य था कि हिन्दी पाठकों को हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी जगत के १०० सक्रिय श्रेष्ठ रचनाकारों से एक रेंकिंग के जरिये परिचित करवाना. २०१५ से प्रारंभ यह इरादा अब तक लगातार मूर्त रूप ले रहा है, और अब इसकी गूंज वैश्विक हो चली है.

वर्ष २०१७ की इस रैंकिंग के तीसरे वर्ष में लगातार चुने गए साहित्यकारों के विस्तृत साक्षात्कारों पर आधारित एक किताब “ हरे कक्ष में दिनभर ” प्रबोध कुमार गोविल के संपादन में प्रकाशित हुई.इंडिया नेटबुक्स प्रा लिमि नोएडा के संस्थापक श्री संजीव कुमार एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार भी हैं, उनके सहयोग से  वर्ष २०२० की राही रैंकिंग सूची में चयनित व्यंग्यकारो, कवियों, लघुकथाकारो, कहानीकारो आदि के विधावार रचना संकलन प्रकाशित किये गये. वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक अफरीदी एवं सुश्री कविता मुखर के संपादन में चटपटे शरारे शीर्षक से राही रेंकिंग २०२० में चयनित व्यंग्यकारों का व्यंग्य संकलन प्रकाशित हुआ है.

यह संकलन अपने आप में इस दृष्टि से अनूठा है कि इसमें सर्वश्री अरविंद तिवारी, डा गिरिराजशरण अग्रवाल, गिरीश पंकज, गोपाल चतुर्वेदी, गोविंद शर्मा, डा ज्ञान चतुर्वेदी, हरीश नवल, डा हेतु भारद्वाज, ईश मधु तलवार, लालित्य ललित, प्रभात गोस्वामी , डा नरेंद्र कोहली, प्रेम जनमेजय, रामदेव धुरंधर, डा सूर्यबाला, तेजेन्द्र शर्मा तथा विभूति नारायन राय जैसे स्वनाम धन्य सुस्थापित व्यंग्यकारो के चुटीले व्यंग्य ही नही, उन व्यंग्य लेखों पर समकालीन व्यंग्यकारो की समीक्षात्मक विस्तृत टिप्पणियां भी पुस्तक में संग्रहित हैं. इस तरह शोधार्थियों हेतु एक प्रारंभिक कार्य पहले ही कर सुलभ कर दिया गया है. विभिन्न संकलित व्यंग्य रचनाओ पर की गई टिप्पणीयों में सर्वश्री पिलकेंद्र अरोड़ा, डा उषारानी राव, डा चित्तरंजन कर, सुरेश अवस्थी, भारती पाठक, डा मंगत बादल, बुलाकी शर्मा, अजय अनुरागी, रास बिहारी गौड़, राजेंद्र मोहन शर्मा, राजेश कुमार, सवाई सिंह शेखावत, अर्चना चतुर्वेदी, सुभाष चंदर, बसंती पंवार, अनूप घई, ब्रजेश कानूनगो, हेतु भारद्वाज, डा आभा सिंह, बी एल आच्छा, सुनीता शानू, और विजी श्रीवास्तव जैसे सक्रिय पाठक व लेखक महत्वपूर्ण हैं. एक नियत समय सीमा में चयनित व्यग्यकारों से रचनायें प्राप्त कर उन पर देश भर में फैले रचनाकारों से विशद टिप्पणियां बुलवाकर उन्हें संपादित कर किताब का स्वरूप देना श्रमसाध्य साहित्यिक कार्य है, जिसे संपादक द्वय ने पूरी जिम्मेदारी से कर दिखाया है. श्री फारूक अफरीदी जी का विस्तृत संपादकीय स्वयं में व्यंग्य की वर्तमान स्तिथियों का पूरा लेखा जोखा है. कविता जी ने अपने संपादकीय में संकलित रचनाओ पर गंभीर टिप्पणियां की हैं. कुल मिलाकर चटपटे शरारे वर्ष २०२० के व्यंग्य परिदृश्य का शोध दस्तावेज निरूपित किया जा सकता है.

यह जानकारी देना प्रासंगिक होगा कि वर्ष २०२१ के चयनित व्यंग्यकारों के व्यंग्य संकलन पर मेरे तथा श्री अरुण अर्नव खरे के संपादन में कार्य चल रहा है. जल्दी  ही यह संकलन भी प्रकाशित होगा, इससे पहले मैं  पाठकों को चटपटे शरारे खरीद कर पढ़ने की सलाह दूंगा.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रदीप गुप्ता जी  की पुस्तक  “गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ ‘गलती से मिस्टेक (हास्य-व्यंग्य कविताएं)’ – प्रदीप गुप्ता ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक: गलती से मिस्टेक

रचनाकार: प्रदीप गुप्ता 

प्रकाशक: निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, 37 शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज आगरा-20 उत्तर प्रदेश  मो 94580 09531

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

आज के जमाने में जब जिंदगी रफ्तार से दौड़ रही है किसी के पास हंसने-हंसाने व गुदगुदाने का समय नहीं है। आज की व्यस्तम जिंदगी में हास्य व्यंग्य की रचनाएं भी कम लिखी जा रही है। ऐसे समय में ‘गलती से मिस्टेक’ हास्य व्यंग्य की कविताओं का संग्रह का प्रकाशित होना ठीक वैसा ही है जैसे तपती दोपहर में वर्षा की ठंडी फुहार या हवा का चलना। जिससे हमें बहुत ही राहत मिलती है।

गलती से मिस्टेक के रचनाकार प्रदीप गुप्ता की यह तीसरी पुस्तक है। जिसका विमोचन अंतरराष्ट्रीय पत्र लेखन मुहिम के सम्मान समारोह में पिछले दिनों सवाई माधोपुर में हुआ था। 

आकर्षित शीर्षक वाली इस पुस्तक- गलती से मिस्टेक, में रचनाकार ने समाज में व्याप्त अव्यवस्था, विसंगतियों, विडंबनाओं, पाखंड, राजनीति आदि पर अपनी कविता के माध्यम से तीखा प्रहार करने की कोशिश की है। रचनाओं में अतिरंजना, विविधता, बिम्ब, व्यंग्य, हास्य आदि के द्वारा कटाक्ष को उभारने की सफल कोशिश की है।

कभी-कभी हम जो बातें सीधे ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते हैं उसे हास्य और व्यंग्य द्वारा मारक ढंग से व्यक्त कर देते हैं। इसी को मद्देनजर रखते हुए रचनाकार ने व्यक्ति, जीव, जानवर, भाव, विभाव, परिस्थिति,  स्थितियों, बंद, व्यवस्था, सामाजिक रीतिरिवाज, कार्य-व्यवहार, रीति’नीति आदि पर धारदार व्यंग्य व हास्य कविताएं प्रस्तुत की हैं।

मुझको लगता है कि अब तो बेचारी 

पढ़ाई भी खुद ही शरमा जाएगी।

क्योंकि नेतागिरी भी अब

कॉलेज में पढ़ाई जाएगी।।

गुंडागर्दी, झूठ, बेईमानी और 

गिरगिट की तरह रंग बदलने की कला 

भी वही सिखाई जाएगी ।।

जैसे व्यंग्य व हास्य कविताएं इस संकलन में आकर्षक साज-सज्जा से युक्त सफेद कागज पर त्रुटिरहित मुद्रण के साथ प्रकाशित की गई हैं। कवि की अपनी कविताओं पर अच्छी पकड़ है। वे हास्य-व्यंग्य की रचनाओं को बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं।एक सौ पांच पृष्ठ की पुस्तक का मूल्य ₹150 वाजिब है। इस पुस्तक का हास्य-व्यंग्य की दुनिया में भरपूर स्वागत किया जाएगा। ऐसा विश्वास है।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं।आज प्रस्तुत है प्रभा पारीक जी के कथा संग्रह  “शॉप-वरदान” की पुस्तक समीक्षा।)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ कथा संग्रह – ‘शॉप-वरदान’ – प्रभा पारीक ☆ समीक्षा – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

पुस्तक:  शॉप-वरदान

लेखिका:  प्रभा पारीक

प्रकाशक: साहित्यागार,धामणी मार्केट की गली, चौड़ा रास्ता, जयपुर- 302013

मोबाइल नंबर : 94689 43311

पृष्ठ : 346

मूल्य : ₹550

समीक्षक : ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

☆ शॉप-वरदान की अनूठी कहानियाँ – ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

किसी साहित्य संस्कृति की समृद्धि उसके रचे हुए साहित्य के समानुपाती होती है। जिस रूप में उसका साहित्य और संस्कृति समृद्ध होती है उसी रूप में उसका लोक साहित्य और समाज सुसंस्कृत और समृद्ध होता है। लौकिक साहित्य में लोक की समृद्धि संस्कार, रीतिरिवाज और समाज के दर्शन होते हैं।

इस मायने में भारतीय संस्कृति में पुराण, संस्कृति, लोक साहित्य, अलौकिक साहित्य आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। समृद्ध काव्य परंपरा, महाकाल, ग्रंथकाव्य, पुराण,  वेद, वेदांग उपाँग और अलौकिक-लौकिक महाकाव्य में हमारी समृद्ध परंपरा को सहेज कर रखा है। इसी के द्वारा हम गुण-अवगुण, मूल्य-अमूल्य, आचरण-व्यवहार, देव-दानव आदि को समझकर तदनुसार कार्य-व्यवहार, भेद-अभेद, शॉपवरदान आदि का निर्धारण कर पाते हैं।

अमृत परंपरा का अध्ययन, चिंतन-मनन व श्रम साध्य कार्य करके उसमें से शॉप और वरदान की कथाओं का परिशीलन करना बहुत बड़ी बात है। यह एक श्रमसाध्य कार्य है। जिसके लिए गहन चिंतन-मनन, विचार-मंथन, तर्क-वितर्क और आलोचना-समालोचना की बहुत ज्यादा जरूरत होती है।

तर्क, विचार और सुसंगतता की कसौटी पर खरे उतरने के बाद उसका लेखन करना बहुत बड़ी चुनौती होता है। इसके लिए गहन अध्ययन व चिंतन की आवश्यकता होती है। इस कसौटी पर प्रभा पारीक का दीर्धकालीन अध्ययन, शोध, चिंतन एवं मनन उनके लेखन में बहुत ही सार्थक रूप से परिणित हुआ है।

वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, रामायण, भगवत आदि में वर्णित अधिकांश शॉप उनके वरदान के परिणीति का ही प्रतिफल है। हर शॉप उनके वरदान को पुष्ट करता है। इसी द्विकार्य पद्धति को प्रदर्शित करती पुस्तक में शॉप और वरदान की अनेकों कहानियां हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति के अनेक पुष्ट परंपराओं और रीति-रिवाजों को हमारे समुख लाती है। इसी पुस्तक के द्वारा इन्हीं कथाओं के रूप में हमारे सम्मुख सहज, सरल, प्रवहमय भाषा में हमारे सम्मुख रखने का कार्य लेखिका ने किया है।

वेद, पुराण, श्रीमद् भागवत आदि का ऐसा कोई प्रसंग, कथा, कहानी, शॉप, वरदान नहीं जिसका अनुशीलन लेखिका ने न किया हो। प्रस्तुत पुस्तक इसी दृष्टि से बहुत उपयोगी है। साजसज्जा उत्तम हैं। त्रुटिरहित छपाई, आकर्षक कवर ने पुस्तक की उपयोगिता में चार चांद लगा दिए हैं। 346 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹550 वर्तमान युग के हिसाब से वाजिब है।

पुस्तक की उपयोगिता सर्वविदित हैं। साहित्य के क्षेत्र में इसका सदैव स्वागत किया जाएगा।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

30-03-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 113 – “महानायक मोदी” … श्री कृष्ण मोहन झा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  श्री कृष्ण मोहन झा जी  की पुस्तक “महानायक मोदी” की समीक्षा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “महानायक मोदी” … श्री कृष्ण मोहन झा ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 

किताब… महानायक मोदी

लेखक… कृष्ण मोहन झा

प्रकाशक… सरोजनी पब्लिकेशन, नई दिल्ली ११००८४

मूल्य… ५०० रु,

पृष्ठ… १६० सजिल्द

युवा पत्रकार श्री कृष्ण मोहन झा इलेक्ट्रानिक व वैचारिक पत्रकारिता का जाना पहचाना नाम है. देश के अनेक बड़े राजनेताओ से उनके व्यक्तिगत संबंध हैं. उन्होने भारतीय राजनीति में पार्टियों, राज्य व केंद्र के सत्ता परिवर्तन बहुत निकट से देखे और समझे हैं. उनकी लेखनी की लोकप्रियता बताती है कि वे आम जनता की आकांक्षा और उनके मनोभाव पढ़ना वे खूब जानते हैं. श्री झा को उनकी सकारात्मक पत्रकारिता के प्रारम्भ से ही मैं जानता हूं. विगत दिनों मुझे उनकी पुस्तक महानायक मोदी के अध्ययन का सुअवसर मिला. लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में जन प्रतिनिधि के नेतृत्व में असाधारण शक्ति संचित होती है. अतः राजनीति में नेतृत्व का महत्व निर्विवाद है. जननायको के किचित भी गलत फैसले समूचे राष्ट्र को गलत राह पर ढ़केल सकते हैं. विगत दशको में भारतीय राजनीति का पराभव देखने मिला. चुने गये नेता व्यक्तिगत स्वार्थों में इस स्तर तक लिप्त हो गये कि आये दिन घपलों घोटालों की खबरें आने लगीं. नेतृत्व के आचरण में इस अधोपतन के चलते सक्षम बुद्धिजीवी युवा पीढ़ी विदेशों की ओर रुख करने लगी, अधिकांश आम नागरिक देश से पहले खुद का भला तलाशने लगे. इस दुष्कर समय में गुजरात की राजनीति से श्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण किया. उन्होने स्व से पहले समाज का मार्ग ही नही दिखलाया बल्कि हर पीढ़ी से सीधा संवाद स्थापित करने का प्रयास करते हुये राष्ट्र प्रथम की विस्मृत भावना को नागरिकों में पुर्जीवित किया. स्वयं अपने आचरण से उन्होने  एक अनुकरणीय नेतृत्व  की छवि स्थापित करने में सफलता पाई. वो महात्मा गांधी थे जिनके एक आव्हान पर लोग आंदोलन में कूद पड़ते थे, लाल बहादुर शास्त्री थे जिनके आव्हान पर लोगों ने एक वक्त का खाना छोड़ दिया था.

दशकों के बाद देश को एक अनुकरणीय नेता मोदी जी के रूप में मिला है. वे विश्व पटल पर भारत की सशक्त उज्जवल छवि निर्माण में जुटे हुये हैं, उन्होने भगवत गीता, योग, दर्शन को भारत के वैश्विक गुरू के रूप में स्थापित करने हेतु सही तरीके से दुनिया के सम्मुख रखने में सफलता अर्जित की है. जन संवाद के लिये नवीनतम टेक्नालाजी संसाधनो का उपयोग कर उन्होने युवाओ में अपनी गहरी पैठ बनाने में सफलता अर्जित की है.  देश और दुनिया में वैश्विक महानायक के रूप में उनका व्यक्तित्व स्थापित हो चला है. ऐसे महानायक की सफलताओ की जितनी विवेचना की जावे कम है, क्योंकि उनके प्रत्येक कदम के पारिस्थितिक विवेचन से पीढ़ीयों का मार्गदर्शन होना तय है. मोदी जी को  कोरोना, अफगानिस्तान समस्या,  यूक्रेन रूस युद्ध, भारत की गुटनिरपेक्ष नीती के प्रति प्रतिबद्धता बनाये रखने वैश्विक चुनौतियों से जूझने में सफलता मिली है. तो दूसरी ओर उन्होंने पाकिस्तान पोषित आतंक, काश्मीर समस्या, राममंदिर निर्माण जैसी समस्यायें अपने राजनैतिक चातुर्य व सहजता से निपटाई हैं.

देश की आजादी के अमृत काल का सकारात्मक सदुपयोग लोगों में राष्ट्रीयता जगाने के अनेकानेक आयोजनो से वे कर रहे हैं. समय समय पर लिखे गये अपने ३४ विवेचनात्मक लेखों के माध्यम से श्री झा ने मोदी जी के महानायक बनने के सफर की विशद, पठनीय, तथा तार्किक रूप से आम पाठक के समझ में आने वाली व्याख्या इस किताब में की है. निश्चित ही यह पुस्तक संदर्भ ग्रंथ के रूप में शोधार्थियों द्वारा बारम्बार पढ़ी जावेगी. मैं श्री कृष्नमोहन झा को उनकी पैनी दृष्टि, सूक्ष्म विवेचनात्मक शैली, और महानायक मोदी पर सामयिक कलम चलाने के लिये बधाई देता हूं व आपसे इस किताब को खरीदकर पढ़ने की अनुशंसा करता हूं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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