हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 16 ☆ समय न उगता खेत में  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना समय न उगता खेत में  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 16 ☆ 

☆ समय न उगता खेत में  ☆ 

 

समय न उगता खेत में

समय न बिके बजार

कद्र न जिनको समय की

वही हुए लाचार

 

नाथ समय के नमन लें

दें मुझको वरदान

असमय करूँ न काम मैं

बनूँ नहीं अनजान

खाली हाथ न फिरे जो

याचक आए द्वार

 

सीमित घड़ियाँ करी हैं

हर प्राणी के नाम

उसने जो सकता बना

सबके बिगड़े काम

सौ सुनार पर रहा है

भारी एक लुहार

 

श्वास खेत में बोइए

कर्म फसल बिन देर

ईश्वर के दरबार में

हो न कभी अंधेर

सौदा करिए नगद पर

रखिए नहीं उधार

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

११-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 15 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 15/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 15 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

कर्ज़ होता तो

उतार  भी देते

कमबख्त इश्क़ था

बस चढ़ा ही रहा…!

 

 If it was a loan

Would’ve paid it off

But this wretched love

Just kept piling up…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफ़र में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस गुमराह हो गये…

 

Was walking quietly

In the journey of life

Just a glance at you 

Misguided me forever…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

हुस्न के कसीदे तो 

पढ़ती रहेंगी महफिलें

अगर झुर्रियाँ भी लगें 

हसीं तो समझो इश्क़ है…

 

Citations for the beauty 

Congregations will keep writing…

If wrinkles still find you smitten

Then it’s undying love for sure…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

कोई रूठे अगर तुमसे तो

उसे फौरन मना लो क्योंकि

जिद्द की जंग में अक्सर

जुदाई  जीत जाती  है…

 

If someone is upset with you

Conciliate with him immediately

Coz in the war of stubborness

Often separation only wins…! 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ गीत – सावन ☆ डॉ नीलम खरे

डॉ नीलम खरे

(ई-अभिव्यक्ति में डॉ नीलम खरे जी का हार्दिक स्वागत है। पूर्व सहायक प्राध्यापक। हिन्दी साहित्य की गद्य एवं पद्य विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर। तीन पुस्तकें प्रकाशित। विभिन्न राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक पत्र पत्रिकाओं में चार हजार से अधिक रचनाएँ प्रकाशित। दूरदर्शन/राष्ट्रीय/स्थानीय टी वी चेनल्स/आकाशवाणी से रचनाओं का नियमित प्रकाशन। कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों/अलंकारणों से पुरस्कृत/अलंकृत। कई सामाजिक/सांस्कृतिक/साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक गीत – “सावन”.)

☆ गीत  – सावन  ☆

बरखा, बादल, बिजली, पानी, पावस के आयाम ।

शीतल-मंद समीर, फुहारें, सब सावन के नाम ।।

कभी रूठ जाते हैं बादल,

कभी झड़ी लग जाती

सावन में तो बरखा रानी,

नित नव ढंग दिखाती

पर्व-तीज, त्यौहार अनेकों, सब ही हैं अभिराम।

शीतल-मंद समीर, फुहारें, सब सावन के नाम ।।

मोर नाचता है कानन में,

भीतर भी इक मोर

मिलन-विरह के मारे सब ही,

भीतर पलता चोर

गरज रहे घन, चपल दामिनी, कौन करे आराम ।

शीतल-मंद समीर, फुहारें, सब सावन के नाम ।।

बचपन के लम्हों में खोई,

राह देखती बाबुल की,

हर नारी को पीहर भाता,

यादें आतीं पल-पल की

 

रक्षाबंधन पर्व सुहाना, लगता तीरथधाम ।

शीतल-मंद समीर, फुहारें, सब सावन के नाम ।।

© डॉ.नीलम खरे

संपर्क  – व्दारा- प्रो.शरद नारायण खरे, आज़ाद वार्ड- चौक, मंडला,मप्र-  481661 मोबाइल-9425484382

ईमेल  – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ इक कदम और बढ़ाएँ ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है उनकी एक सार्थक एवं प्रेरक कविता  – इक कदम और बढ़ाएँ )

? इक कदम और बढ़ाएँ ?

चल उठ इक कदम और बढ़ाएँ,

नए सवेरे फिर से ढूंढ़ लाएँ,

बीत गयी जो वो बात पुरानी,

अब नये आयाम संजोएँ,

रह गयी जो योजनाएँ अधूरी,

उनको फिर नये सिरे से पिरोएँ,

अफ़सोस है जो वक़्त हो गया ज़ाँया,

मिली सीख से क्यों ना दर्द की सी लाएँ,

वक़्त जो अपनों के साथ है गुज़ारा,

क्यूँ ना उसको अनमोल धरोहर बनाएँ,

साथ रहकर भी बाहर जाने की इच्छा,

इस तृष्णा की वास्तविकता ज़रा टटोली जाए,

जो महत्वत्ता पता चली है जीवन की,

उसको जीवन भर का आधार क्यूँ ना बनाएँ,

जीवन में किस की है असल जरुरत,

उसका आंकलन फिर से किया जाएँ,

वक़्त होकर भी वक़्त को कोसना,

असली उद्देश्य को फिर से जाँचा  जाएँ,

मन तो है चंचल तितली की तरह,

स्थिर मन से नए दृष्टिकोण समझे जाएँ,

वक़्त है नए सिरे से प्रारम्भ करने का,

अबकी बार त्रुटिरहित संसार संजोया जाएँ,

कर लो खुद से इक वादा आज,

कि नयी भोर को उमंगो से भरा जाएँ,

चल उठ इक कदम और बढ़ाएँ,

नए सवेरे फिर से ढूंढ़ लाएँ.

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – वंदन है, अभिनंदन है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावप्रवण कविता  वंदन है, अभिनंदन है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वंदन है, अभिनंदन है

 

हे भारत मां के लाल तुम्हारा,

वंदन है अभिनंदन है।

तुम महावीर भारत के हो ,

माथे पे रोली चंदन है।

है नाम आपका ‌पदुमदेव,

उज्जवल  चरित तुम्हारा है।

अपनी शौर्य वीरता से,

तुमने दुश्मन को मारा है।

उन्नीस सौ पैंसठ के रण में,

जब नांच रहा था महाकाल ।

तब महाकाल  बनकर रण में,

शत्रुदल को संहारा है।

अपनी तोपों के गोलों से,

दुश्मन का हौसला तोड़ा था।

दुश्मन पीछे को भाग चला,

तुमने उसका रूख मोड़ा था।

अपने ही रणकौशल से,

रण में तांडव दिखलाया था।

समरजीत बन बीच समर

भारत का तिरंगा लहराया था।

पर दुर्भाग्य साथ में था,

बारूद तुम्हारा खत्म हुआ।

जो साथी रण में घायल थे,

आगे बढ़ उनकी मदद किया ।

प्राणों का संकट था उनके,

उनको संकट से उबारा था।

लाद पीठ पर अस्पताल के,

प्रांगण में तुमने उतारा था ।

इस उत्तम सेवा के बदले,

स्वर्ण पदक ईनाम मिला।

जो उद्देश्य तुम्हारा था,

उसको इक नया मुकाम मिला।

तुम मंगल पाण्डेय के वंशज थे,

वीरता तुम्हारी रग में थी।,

आत्माहुति का इतिहास रहा,

यश कीर्ति सारे जग में थी।

सन उन्नीस सौ इकहत्तर में ,

बैरी फिर सरहद चढ़ आया।

पदुम देव फिर जाग उठा,

दुश्मन को औकात बताया।

एक बार फिर विजय श्री ने,

उनके शौर्य का वरण किया।

दुश्मन का शीष झुका कर के,

उसके अभिमान का हरण किया।

छब्बीस अगस्त सन् सत्तरह में,

सो गया वीर बलिदानी।

कीर्ति अमर हुई उनकी,

लिखी इक नई कहानी।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

विशेष – प्रस्तुत आलेख  के तथ्यात्मक आधार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों पंचागों के तथ्य आधारित है भाषा शैली शब्द प्रवाह तथा विचार लेखक के अपने है, तथ्यो तथा शब्दों की त्रुटि संभव है, लेखक किसी भी प्रकार का दावा प्रतिदावा स्वीकार नहीं करता। पाठक स्वविवेक से इस विषय के समर्थन अथवा विरोध के लिए स्वतंत्र हैं, जो उनकी अपनी मान्यताओं तथा समझ पर निर्भर है।

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ह्रास ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ ह्रास

 

एक ने कहा,

मेरे भीतर

कुछ कम हो रहा है,

अनेक ने कहा,

उनके  भीतर

कुछ कम हो रहा है,

इसने कहा,

उसके भीतर

कुछ कम हो रहा है,

उसने कहा,

उसके भीतर

कुछ कम हो रहा है,

सबने कहा,

सबके भीतर

कुछ कम हो रहा है,

हरेक को भीतर कुछ कम होने का भास है,

मनुज! संभवत: यही मनुष्यता का ह्रास है..!

 

©  संजय भारद्वाज

14 जुलाई 2020, प्रात: 11:13 बजे

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 3 ☆ तुम ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( हम गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के  हृदय से आभारी हैं जिन्होंने  ई- अभिव्यक्ति के लिए साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य धारा के लिए हमारे आग्रह को स्वीकारा।  अब हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं  आपकी हृदयस्पर्शी रचना  तुम ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 3 ☆

☆ तुम ☆

 

तुम्हारे संग जिये जो दिन भुलाये जा नहीं सकते

मगर मुश्किल तो ये है फिर से पाये जा नहीं सकते

 

कदम हर एक चलके साथ तुमने जो निभाया था

दुखी मन से किसी को वे बताये जा नहीं सकते

 

चले हम राह में जब धूप थी तपती दोपहरी थी

सहे लू के थपेडे जो गिनाये जा नही सकते

 

लगाये ध्यान पढते पुस्तके राते बिताई कई

दुखद किस्से परिश्रम के सुनाये जा नहीं सकते

 

तुम्हारे नेह के व्यवहार फिर फिर याद आते हैं

दुखाकुल मन से जो सबको बताये जा नही सकते

 

बसी हैं कई प्रंसगो की सजल यादें नयन मन में

चटक है चित्र ऐसे जो मिटाये जा नही सकते

 

मसोसे मन को सब यादें मै चुपचाप झेल लेता हूं

बिताई जिदंगी के दिन भुलाये जा नहीं सकते

 

अचानक छोड हम सबको तुम्हें जाने की क्या सूझी

जहॉ से जाने वाले फिर बुलाये जा नही सकते

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ कहानियाँ मरती नहीं! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ कहानियाँ मरती नहीं!

पुराकथाओं में-

अपवादस्वरूप

आया करता था

एक राक्षस…,

बच्चों की भागदौड़

भगदड़ में बदल जाती

सिर पर पैर रखने की

कवायद सच हो जाती,

कई निष्पाप

पैरों तले कुचले जाते

सपनों के साथ

सच भी दफन हो जाते,

न घर-न बार

न घरौंदा, न संसार

आतंकित आँखें

विवश-सी देखतीं

नियति के आगे

चुपचाप सिर झुका देती,

कालांतर में-

एक प्रजाति का अपवाद

दूसरी की परंपरा बना,

अब रोज आते हैं मनुष्य,

ऊँचे वृक्षों पर बसे घरौंदे

छपाक से आ गिरते हैं

धरती पर…,

चहचहाट, आकांक्षाएँ, अधखुले पंख

लोटने लगते हैं धरती पर,

आसमान नापने के हौसले

तेज रफ्तार टायरों की

बलि चढ़ जाते हैं,

सपनों के साथ

सच भी दफन हो जाते हैं,

डालियों को

छाँट दिया जाता है

या वृक्ष को समूल उखाड़ दिया जाता है,

न घर-न बार

न घरौंदा, न संसार

आतंकित आँखें

विवश-सी देखती हैं

नियति के आगे

चुपचाप सिर झुका देती हैं,

मनुष्यों की पुराकथा

पंछियों की

अधुनतन गाथा है।

 

©  संजय भारद्वाज

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ समकालीन गीत – घाव बहुत गहरे हैं !! ☆ प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

(प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे जी का  ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  म.प्र.साहित्य अकादमी के अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी  पुरस्कार से पुरस्कृत प्रो शरद नारायण खरे जी का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है। आप वर्तमान में शासकीय महिला महाविद्यालय, मंडला (म.प्र.) में प्राध्यापक/प्रभारी प्राचार्य हैं। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे जी की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

आज प्रस्तुत है आपका एक समकालीन गीत – घाव बहुत गहरे हैं !!

☆ समकालीन गीत – घाव बहुत गहरे हैं !! ☆

रोदन करती आज दिशाएं, मौसम पर पहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो, घाव बहुत गहरे हैं !!

बढ़ता जाता दर्द नित्य ही,
संतापों का मेला
कहने को है भीड़, हक़ीक़त,
में हर एक अकेला

रौनक तो अब शेष रही ना,बादल भी ठहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे वो, घाव बहुत गहरे हैं !!

मायूसी है,बढ़ी हताशा,
शुष्क हुआ हर मुखड़ा
जिसका भी खींचा नक़ाब,
वह क्रोधित होकर उखड़ा

ग़म,पीड़ा औ’ व्यथा-वेदना के ध्वज नित फहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!

व्यवस्थाओं ने हमको लूटा,
कौन सुने फरियादें
रोज़ाना हो रही खोखली,
ईमां की बुनियादें

कौन सुनेगा,किसे सुनाएं, यहां सभी बहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे है वो घाव बहुत गहरे हैं !!

बदल रहीं नित परिभाषाएं,
सबका नव चिंतन है
हर इक की है पृथक मान्यता,
पोषित हुआ पतन है

सूनापन है मातम दिखता, उड़े-उड़े चेहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे 

विभागाध्यक्ष इतिहास, शासकीय महिला महाविद्यालय, मंडला(म.प्र.)-481661
(मो.-9425484382)
[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 55 ☆ सावन ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  समसामयिक गीत  “सावन । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 55 – साहित्य निकुंज ☆

☆ सावन ☆

 

सावन में मनवा बहक बहक जाए।

पिया की याद मोहे बहुत ही सताए ।

हरे भरे मौसम में मनवा गीत गाए।

पिया की याद मोहे बहुत  ही सताये।

 

कंगना भी बोले,  झुमका भी डोले।

पायल भी बोले, बिछुआ भी बोले।

हिया मोरा तुझसे मिलने को तरसे।

मन मोरा पिया बस डोले ही डोले।

 

पिया की याद मोहे बहुत ही सताये।

 

रिमझिम -रिमझिम वो  बूंदे बौछारे ।

मनवा में छाई उमंग की फुहारें ।

बावरा मन मोरा मिलने को तरसे।

प्रीत का रंग छाया मन के ही द्वारें।

 

पिया की याद मोहे बहुत ही सताये।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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