(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता “संतोष के दोहे – प्रथम पूज्य गणराज”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – राजभाषा मास विशेष – भाषा
नवजात का रुदन
जगत की पहली भाषा,
अबोध की खिलखिलाहट
जगत का पहला महाकाव्य,
शिशु का अंगुली पकड़ना
जगत का पहला अनहद नाद,
संतान का माँ को पुकारना
जगत का पहला मधुर निनाद,
प्रसूत होती स्त्री केवल
एक शिशु को नहीं जनती,
अभिव्यक्ति की संभावनाओं के
महाकोश को जन्म देती है,
संभवतः यही कारण है,
भाषा स्त्रीलिंग होती है!
अपनी भाषा में अभिव्यक्त होना अपने अस्तित्व को चैतन्य रखना है।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे ।
आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है पञ्चदशोऽध्यायः अध्याय।
स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए पन्द्रहवां अध्याय। आनन्द उठाइए।
– डॉ राकेश चक्र
पुरुषोत्तम योग
श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पुरुषोत्तम योग के बारे में ज्ञान दिया।
श्रीभगवान ने कहा-
है शाश्वत अश्वत्थ तरु, जड़ें दिखें नभ ओर।
शाखाएँ नीचें दिखें, पतवन करें विभोर।। 1
जो जाने इस वृक्ष को, समझे वेद-पुराण।
जग चौबीसी तत्व में,बँटा हुआ प्रिय जान।। 1
शाखाएँ चहुँओर हैं, प्रकृति गुणों से पोष।
विषय टहनियाँ इन्द्रियाँ,जड़ें सकर्मी कोष।। 2
आदि, अंत आधार को, नहीं जानते लोग।
वैसे ही अश्वत्थ है, वेद सिखाए योग।। 3
मूल दृढ़ी इस वृक्ष की, काटे शस्त्र विरक्ति।
जाए ईश्वर शरण में,पाकर मेरी भक्ति।। 4
मोह, प्रतिष्ठा मान से, जो है मानव मुक्त।।
हानि-लाभ में सम रहे, ईश भजन से युक्त।। 5
परमधाम मम श्रेष्ठ है, स्वयं प्रकाशित होय।
भक्ति पंथ जिसको मिला,जनम-मरण कब होय।। 6
मेरे शाश्वत अंश हैं, सकल जगत के जीव।
मन-इन्द्रिय से लड़ रहे, माया यही अतीव।। 7
जो देहात्मन बुद्धि को, ले जाता सँग जीव।
जैसे वायु सुगंध की, उड़ती चले अतीव।। 8
आत्म-चेतना विमल है, करलें प्रभु का ध्यान।
जो जैसी करनी करें, भोगें जन्म जहान।। 9
ज्ञानचक्षु सब देखते, मन ज्ञानी की बात।
अज्ञानी माया ग्रसित, भाग रहा दिन-रात।। 10
भक्ति अटल हो ह्रदय से, हो आत्म में लीन।
ज्ञान चक्षु सब देखते, तन हो स्वच्छ नवीन।। 11
सूर्य-तेज सब हर रहा, सकल जगत अँधियार।
मैं ही सृष्टा सभी का, शशि-पावक सब सार।। 12
मेरे सारे लोक हैं, देता सबको शक्ति।
शशि बनकर मैं रस भरूँ, फूल-फलों अनुरक्ति।। 13
पाचन-पावक जीव में, भरूँ प्राण में श्वास।
अन्न पचाता मैं स्वयं, छोड़ रहा प्रश्वास।। 14
चार प्रकारी अन्न है, कहें एक को पेय।
एक दबाते दाँत से, जो चाटें अवलेह्य।। 14
एक चोष्य है चूसते, मुख में लेकर स्वाद।
वैश्वानर मैं अग्नि हूँ, सबका मैं हूँ आदि।। 14
सब जीवों के ह्रदय में, देता स्मृति- ज्ञान।
विस्मृति भी देते हमीं, हम ही वेद महान।।15
दो प्रकार के जीव
दो प्रकार के जीव हैं,अच्युत-च्युत हैं नाम।
क्षर कहते हैं च्युत को, ये है जगत सकाम।। 16
क्षर अध्यात्मी जगत में, अक्षर ये हो जाय।
जनम-मरण से छूटता, सुख अमृत ही पाय।। 16
क्षर-अक्षर से है अलग, ईश्वर कृपानिधान।
तीन लोक में वास कर, पालक परम् महान।। 17
क्षर-अक्षर के हूँ परे, मैं हूँ सबसे श्रेष्ठ।
वेद कहें परमा पुरुष, तीन लोक कुलश्रेष्ठ।। 18
जो जन संशय त्यागकर, करते मुझसे प्रीत।
करता हूँ कल्याण मैं, चलें भक्ति की रीत।। 19
गुप्त अंश यह वेद का, अर्जुन था ये सार।
जो जानें इस ज्ञान को, होयँ जगत से पार।। 20
इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” पुरुषोत्तम योग ” पन्द्रहवां अध्याय समाप्त।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार”महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता “जब से मेडल गले में पहनाया…”। )