हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 237 – नव आविष्कृत सॉनेट… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  – नव आविष्कृत सॉनेट…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 237 ☆

☆ नव आविष्कृत सॉनेट… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

(मीटर- क ख ग घ्  क ख ग घ्  च छ ज च छ)

☆ 

कब कहाँ कैसे किया क्यों कह कहेगा कौन?

अनजान अब अज्ञानता से चाहता है मुक्ति।

आत्म फिर परमात्म से हो चाहता संयुक्ति।।

प्रश्न पूछे निरंतर उत्तर मिला बस मौन।।

नर्मदा में जो सलिल वह ही समेटे दौन।

यहाँ भी पुजती, वहाँ भी पुज रही है शक्ति।

काम का प्राबल्य क्यों गायब अकामा भक्ति।।

दादियों को छेड़ते पोते, भटकता यौन।।

लक्ष्य चुनकर पंथ पर पग रख बढ़ो पग-पग

गिर उठो सँभलो, नहीं तुम कोशिशें छोड़ो

नापता जो नापने दो बनाए नव माप।

कहो हर अटकाव से, भटकाव से मत ठग

हौसलों को दे चुनौती जो उसे तोड़ो

आप अपने आप जाता आप ही में व्याप।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२९.५.२०२५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – फेरा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – फेरा ? ?

अथाह अँधेरा,

एकाएक प्रदीप्त उजाला,

मानो हज़ारों

लट्टू चस गए हों,

नवजात का आना,

रोना-मचलना,

थपकियों से बहलना,

शनै:-शनै:

भाषा समझना,

तुतलाना,

बातें मनवाना,

हठी होते जाना,

उच्चारण में

आती प्रवीणता,

शब्द समझकर

उन्हें जीने की लीनता,

चरैवेति-चरैवेति…,

यात्रा का

चरम आना,

आदमी का हठी

होते जाना,

येन-केन प्रकारेण

अपनी बातें मनवाना,

शब्दों पर पकड़

खोते जाना,

प्रवीण रहा जो कभी,

अब उसका तुतलाना,

रोना-मचलना,

किसी तरह

न बहलना,

वर्तमान भूलना

पर बचपन उगलना,

एकाएक वैसा ही

प्रदीप्त उजाला,

मानो हज़ारों

लट्टू चस गए हों

फिर अथाह अँधेरा..,

जीवन को फेरा

यों ही नहीं

कहा गया मित्रो!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 10:10 बजे, शनिवार, 26.5.18

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी।आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – कविता ☆ सबेरा… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ सबेरा… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

धुआँ धुआँ

धुँधलाती शाम

टूट रही है

कतरा कतरा

 

रात होने में

कुछ ही घड़ियां बाकी हैं

वक्त के चेहरे पर

कालिख पोतने

तैयार बैठा है

अंधेरा

 

जुगनुओं को

कम न आँको

उन्हें आवाज़ दो

चकमक पत्थर वालों को भी

 

ढिबरी कंदील दीये मशाल

बिजली के लट्टू

जो भी मिले

जलाना शुरु कर दो

 

रोशनी के औजार तेज करो

सान पर चढ़ाओ

उन्हें

 

वे ही लेकर आयेंगे

सबेरा

तुम देखना।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 162 ☆ गीत – ।। बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

 

☆ “श्री हंस” साहित्य # 162 ☆

☆ गीत – ।। बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

बुला   रहा   है   सबेरा   कि   सब   साथ-साथ   चलो।

अब नहीं करना है तेरा मेरा कि सब साथ- साथ चलो।।

****

जला सको तो एक दीप जलाओ हम सब के लिए।

हंसा सको तो सबको हंसाओ हम सब के लिए।।

आतंक से लड़ने के लिए भी सब साथ- साथ चलो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

***

मिल कर हम चलेंगे तो ही मंजिल की प्रीत पाएंगे।

साथ – साथ ही लड़ेंगे तो ही हम जीत पाएंगे।।

मिलकर रहे हर एक चेहरा सब साथ- साथ बढ़ो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

****

जोश एकता सहयोग समय की आज बनी मांग है।

आज हर किसीको भूलना होगा मतभेद का स्वांग है।।

लड़ रही फौज सीमा परआप भी साथ-साथ चलो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

****

जान लो देखने को सबेरा जागना बहुत जरूरी है।

जीत लिए कभी नहीं हिम्मत हारना बहुत जरूरी है।।

संकट का समय तो एक ही मंत्र कि साथ-साथ बढ़ो।

बुला रहा है सबेरा कि सब साथ-साथ चलो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा #227 ☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – कविता – भ्रष्टाचार निवारण… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित – “कविता  – भ्रष्टाचार निवारण। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे.।) 

☆ काव्य धारा # 227

☆ शिक्षाप्रद बाल गीत – भ्रष्टाचार निवारण…  ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

मन ही करता है जीवन की हर गति का संचालन

सिर्फ संयमी मन कर सकता नीति नियम का पालन।

यदि मैला है मन तो झूठी सदाचार की बातें

नहीं लालची मन से संभव भ्रष्टाचार निवारण ॥ । ॥

*

उजले कपड़े बड़ी डिगरियाँ और ऊँचा सिंहासन

मन को सही आँक सकने के नहीं सही कोई साधन ।

सबकी समझ सोच होती है अलग-अलग इस जग में

अपवित्र मन ही होता है हर बुराई का कारण ॥ 2 ॥

*

सही दृष्टि से हो न सका स‌दशिक्षा का निर्धारण

 इसीलिये उदण्ड हुआ मन तोड़ रहा अनुशासन ।

संयमहीन व्यक्ति का मन आतंकवाद की जड़ है

जिससे तंग सभी देशों का जग में आज प्रशासन ॥ ३ ॥

*

नीति-नियम कानून कड़े हों , हो निष्पक्ष प्रशासन

इतने भर से संभव कम भ्रष्टाचार-निवारण।

सोच-विचार-आचरण सबके पावन हितकारी

इसके लिये चाहिये मन को पावन शिक्षा-साधन ॥ 4 ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

vivek1959@yahoo.co.in

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रेम ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – प्रेम ? ?

 मैंने उस पर लिखी

कई प्रेम कविताएँ,

उसने नहीं पढ़ी

उस पर लिखी

एक भी प्रेम-कविता,

अपने शब्दों को

निशब्द व्यक्त करती रही,

वह मुझसे बस

प्रेम करती रही..!

?

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 8:35 बजे, 23.5.2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी।आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #51 – नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में

? रचना संसार # 51 – नवगीत – बह रही तृष्णा हृदय में…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

विषधरों को पालते हैं,

जो डुबोते प्रेम -बेड़े।

आह भरती है गरीबी,

और पैसा तन उधेड़े।।

क्षीण होती आस है अब

गाज छाती पर  गिरी है।

प्रेम निष्ठा खो गयी सब,

जेब स्वारथ से घिरी है।।

बह रही तृष्णा हृदय में,

काल के खाकर थपेड़े।

 *

जब चुनावी दौर आता,

सैकड़ो उत्पात होते।

चाल चलते हैं शकुनि- सी,

नित नये है घात होते।।

लालचों के शाल मिलते,

जीत के फिर साथ पेड़े।

 *

कागजी अखबार निशदिन,

खोलते दिन -रात पोलें।

फिर धजी का साँप बनता,

मूक बहरे बोल बोलें।।

किस तरह सागर तरेंगे,

जर्जरित नावों के बेड़े।

 *

चोंच लंबी मौत की है,

रोग करता  देख हमला।

पैंतरा बदला सभी ने,

हो रहा है नित्य घपला।।

आपदा की ये सदी है,

सुत पिता को हैं खदेड़े।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #278 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 278 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घाट घाट पर ढूंढ़ती, राधा अपने श्याम।

पीड़ा अब बढ़ने लगी, कहां छुपे  घनश्याम।

*

कलम आज ये कह रही, समझी तेरी पीर।

जान गए हम आपको, नहीं बहाओ नीर।।

*

कलम ही तो लिख सकती, अपनी पीड़ा यार।

छंद गीत का भाव ही, करता रस संचार।।

*

मधुरिम मधुरिम भाव है, मधुरिम मधुरिम सार ।

परख लिया तुमने मुझे, नमन यही व्यवहार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #260 ☆ संतोष के दोहे – नीति ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – नीति आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 260 ☆

संतोष के दोहे – नीति ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राष्ट्र धर्म सबसे बड़ा, रखें हमेशा याद ।

मिलेगा संतोष तभी, देश रहे आबाद ।।

*

राष्ट्र द्रोह अपना रहे, यहां विरोधी लोग ।

उन्हें तिरस्कृत कीजिए, कभी न दें सहयोग ।।

*

जीवन भर देता नहीं, यहां न कोई साथ ।

अंत समय में छूटता, सब अपनों का हाथ ।।

*

करे वर्तिका दीप से, बार बार मनुहार ।

अंधेरों को चीरकर, करने दे उजियार ।।

*

विष रखते मन में सदा, मुखड़े पर मुस्कान ।

द्वेष पाल कर हृदय में, बने नेक इंसान ।।

*

जीवन में जब हो समय, अपने ही विपरीत ।

रख कर संयम हृदय में, रखें राम से प्रीति ।।

*

दंभ कभी मत कीजिए, जिसका निश्चित अस्त ।

देखो रावण कंस भी, हुए इसी से पस्त ।।

*

मित्र रखें मत मूढ़ सा, यही घटाते ज्ञान ।

ज्ञानी हो दुश्मन अगर, रखे आपका मान ।।

*

भीड़ साथ लेकर चलें, उसे सुने सरकार ।

आम आदमी की यहां, कौन सुने दरकार ।।

*

नीति वचन संतोष के, मानें जो भी लोग ।

हो हित वर्धन स्वयं ही, बने सुखद संयोग ।।

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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English Literature – Poetry ☆ वे लोग / Those people – श्री लक्ष्मी शंकर बाजपेयी … ☆ भावानुवाद – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

 We present an English Version of Mr. Laxmi Shankar Bajpai’s Classical Poetry  वे लोग with title “Those people.” Mr. Laxmi Shankar Bajpai (Ex-Dy Director General – All India Radio) is a renowned Poet, Gazalkar and Communicator. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi for this beautiful translation.)

श्री लक्ष्मी शंकर बाजपेयी

? ~ वे लोग… ??

वे लोग

डिबिया में भर कर पिसी हुई चीनी

तलाशते थे चीटियों के ठिकाने

 

छतों पर बिखेरते थे

बाजरे के दाने

कि आकर चुग सकें चिड़ियां

 

भोजन प्रारंभ करने से पहले

वे लोग, निकालते थे गाय और दूसरे प्राणियों का हिस्सा

 

सूर्यास्त के बाद, वे लोग

नहीं तोड़ने देते थे,

पेड़ से एक पत्ती तक

कि खलल न पड़ जाए

सोए हुए पेड़ों की नींद में

 

जब चिड़ियों के झुंड के झुंड

आ जुटते थे उनकी फसलों पर

तो वे उन्हें भगाने की बजाय

कहते थे.. राम की चिड़ियां..

राम के खेत..

खाओ री चिड़ियो भर भर पेट

 

वे अपनी तरफ से शुरू कर देते थे बात..

अजनबी से पूछ लेते थे उसका परिचय

ज़रूरतमंद की करते थे दिल खोलकर मदद

बस्ती में कोई पूछे किसी का मकान

तो पहुंचा कर आते थे उस मकान तक..

कोई भूला भटका अनजान

मुसाफिर आ जाए रात बिरात

तो करते थे भोजन और विश्राम की व्यवस्था

 

संभव है अभी भी दूरदराज

किसी गांव या क़स्बे में

मौजूद हों उनकी प्रजाति के कुछ लोग

 

काश ऐसे लोगों का

बन सकता एक संग्रहालय

कि आने वाली पीढ़ियों के लोग

जान पाते

कि जीने का एक अंदाज़

ऐसा भी था..

 

© लक्ष्मी शंकर बाजपेयी

मोबाईल  – 9899844933

 

? ~ Those people… ??

Those were the people who used

to carry powdered sugar in a tiny casket…

And, search painstakingly

For the anthills to feed the ants…

 

They used to scatter the

millet grains on the roofs

For the birds to come and feed…

 

They would keep water cauldrons outside their houses

For the desperate animals to quench their thirst…

 

Before partaking their meals

They would keep a part of it

For the cows and other animals to feed on…

 

After sunset, they would never allow plucking of

even a leaf from the trees…

Ensuring that the sleeping trees

are not disturbed…

 

When the flocks of birds

Would gather on their crops

Then, instead of driving them away

They would welcome them

Saying, God’s birds, God’s fields…

Have your stomach’s fill…

 

They used to start talking first

on their own, even with strangers

Asking their whereabouts and well-being…

 

They would help needy

people wholeheartedly,

If someone inquired about someone’s address

They would accompany him to that house…

 

If chanced upon any stray

unknown traveller

They would make arrangement for his food and  overnight stay…

 

It may still be  possible,

That, somewhere in some remote village or town,

Some people of this breed are still left…

 

How I wish

A museum could be built

of such people

For the coming generations to

know that

Such people existed, and

This was their style of living…

~Pravin Raghuvanshi

 Translated by – Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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