हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३५॥ ☆

 

पत्रश्यामा दिनकरहयस्पर्धिनो यत्र वाहाः

शैलोदग्रास त्वम इव करिणो वृष्टिमन्तः प्रभेदात

योधाग्रण्यः प्रतिदशमुखं संयुगे तस्थिवांसः

प्रत्यादिष्टाभरणरुचयश चन्द्रहासव्रणाङ्कैः॥१.३५॥

 

वहां सूर्य के अश्व सम नील हय हैं

जहां शैल सम उच्च गय मद प्रदर्शी

सुनिर्भीक रणवीर भट अग्रगामी

असिव्रण अलंकृत रुचिर रूपदर्शी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – समय  ☆

समय को ढककर

अपने दुशाले से

खेलता हूँ छुपाछुपी,

खुद ही छिपाता हूँ

खुद ही ढूँढ़ता हूँ,

हौले से दुशाला हटाता हूँ,

समय को न पाकर

चौंक जाता हूँ,

फिर देखता हूँ

समय उतरा बैठा है

हर आँख में..,

अब आँख

खुली रखो या बंद,

क्या अंतर पड़ता है,

समय सर्वव्यापी हो चुका!

©  संजय भारद्वाज

प्रात:8:50 बजे, 21.6.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 69 ☆ संतोष के दोहे☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 69 ☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

अलबेली सी लग रही, दुनिया की अब चाल

स्वारथ में लिपटे सभी, यह जन-जन का हाल

 

छलिया मोरे मन बसे, कहलाते चित चोर

मुझको मोहन दीखते, जित देखूं उत ओर

 

अक्सर फँसती  पूंछ ही, गज निकले आसान

काज न समझें लघु कभी, होते सभी महान

 

पूस माह जाड़ा बढ़े, कपकपाये शरीर

बड़े-बूढ़े संभल रहें, दुर्बल  है तासीर

 

आया समय अवसान का, याद करें भगवान

जीवन के नव दौर में, कभी न आया ध्यान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मेरा गाँव… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता मेरा गाँव…।)

☆ कविता  ☆ मेरा गाँव… ☆

क्यों मन जिद करता है…

जाने को तुमसे दूर..

बुलाता है मुझे, अब, भी…

वो, गाँव का सूरज……

पगडंडियों पर लेटी वो धूप..

 

आँचल सम्हालती.. मुस्काती चन्दा….

जिससे मैं मिलने को आतुर…

क्यों मन जिद करता है..

जाने को तुमसे दूर…

 

क्यों मन कभी गाँव के आसमां में उड़ता,

कभी धरती को नापता, दौड़ दौड़,

क्यों भरता है कुलांचे, ये मन,

झील की  लहरों को,

ताकता, एकटक,

 

कभी भगवत शरण में,

रमने की इच्छा,

कभी बुलाती, मुझे

गाँव के मंदिर की राम धुन,

 

मुझे शहर नहीं भाता,

गाँव ही बुलाता, हरदम,

इसलिए मन ज़िद करता,

जाने को तुमसे दूर..

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३४॥ ☆

 

प्रद्योतस्य प्रियदुहितरं वत्सराजो ऽत्र जह्रे

हैमं तालद्रुमवनम अभूद अत्र तस्यैव राज्ञः

अत्रोद्भ्रान्तः किल नलगिरिः स्तम्भम उत्पाट्य दर्पाद

इत्य आगन्तून रमयति जनो यत्र बन्धून अभिज्ञः॥१.३४॥

 

प्रद्योत की प्रिय सुता का , हरण

था यहां पर हुआ वत्स नरराज द्वारा

यहां ताल तरु का लगा बाग था

स्वर्ग निर्मित उसी भूप का , ख्यातिवाला

मदमस्त गजराज नलगिरि कभी

यहां भटका , यहां एक खम्भा उखाड़ा

आगत जनों को जहां विज्ञजन

यों सुनाते कथा , ले विगत का सहारा

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 59 ☆ भारत गणतंत्र है प्यारा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “भारत गणतंत्र है प्यारा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 59 ☆

☆ भारत गणतंत्र है प्यारा ☆ 

भारत का गणतंत्र है प्यारा

आओ सभी मनाएँ हम

संविधान पावन है लाया

वंदेमातरम गाएँ हम।।

 

इसकी माटी सोना चंदन

हर कोना है वंदित नन्दन

हम सब करते हैं अभिनंदन

 

शक्ति अदम्य , शौर्य, साहस का

आओ दीप जलाएँ हम।।

 

सागर इसके पाँव पखारे

अडिग हिमालय मुकुट सँवारे

झरने , नदियाँ कल- कल प्यारे

 

गाँव, खेत, खलियान धरोहर

हरियाली लहराएँ हम।।

 

नई उमंगें, लक्ष्य अटल है

नूतन रस्ते सुंदर कल है

श्रम से शक्ति दिलाती बल है

 

सभी स्वस्थ हों, सभी सुखी हों

ऐसा देश बनाएँ हम।।

 

जय जवान हो, जय किसान हो

बच्चा – बच्चा ही महान हो

आन – वान हो सदा शान हो

 

रूढ़ि मिटे विज्ञान विजय हो

ऐसी नीति चलाएँ हम।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य #91 ☆ मास्क☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  की एक अतिसुन्दर कविता  ‘मास्क’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 91 ☆

☆ कविता – मास्क ☆

बचपन में मेरे खिलौनों में शामिल थी

एक रूसी गुड़िया

जिसके भीतर से निकल आती थी

एक के अंदर एक समाई हुई हमशकल

एक और गुड़िया।

बस थोड़ी सी छोटी आकार में !

सातवीं सबसे छोटी गुड़िया भी

बिलकुल वैसी ही

जैसे बौनी हो गई हो

पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया

सब के सब एक से मुखौटौ में !

 

बचपन में माँ को और अब पत्नी को

जब भी देखता हूँ

प्याज छीलते हुये

या काटते हुये

पत्ता गोभी परत दर परत ,

मुखौटों सी हमशकल

बरबस ही मुझे याद आ जाती है

अपनी उस रूसी गुड़िया की !

बचपन जीवन भर याद रहता है !

 

मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है एक गिरगिटान

हर बार एक अलग पौधे पर ,

कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर

बिलकुल उस रंग के चेहरे में

जहाँ वह होता है

मानो लगा रखा हो उसने

अपने ही चेहरे का मुखौटा

हर बार एक अलग रँग का !

 

मेरा बेटा लगा लेता है

कभी कभी रबर का कोई मास्क

और डराता है हमें ,

या हँसाता है कभी जोकर का

मुखौटा लगा कर !

 

मैँ जब कभी शीशे के सामने खड़े होकर

खुद को देखता हूँ

तो सोचता हूँ

अपने ही बारे में

बिना कोई आकार बदले

बिना मास्क लगाये या रंग बदले ही

मैं नजर आता हूँ खुद को

अवसर के अनुरूप हर बार नए चेहरे मे ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.३३॥ ☆

 

हारांस तारांस तरलगुटिकान कोटिशः शङ्कशुक्तीः

शष्पश्यामान मरकतमणीन उन्मयूखप्ररोहान

दृष्ट्वा यस्यां विपणिरचितान विद्रुमाणां च भङ्गान

संलक्ष्यन्ते सलिलनिधयस तोयमात्रावशेषाः॥१.३३॥

जहां विपणि में हार अगणित अनेकों

सुखद शंख , सीपी , हरित मणि विनिर्मित

प्रभा पूर्ण मूंगों , तरल मोतियों से

भरेलख , जलधि भास होते प्रवंचित

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 80 – समय धागे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना समय धागे)

☆  तन्मय साहित्य  #  80 ☆ समय धागे ☆ 

उम्मीदों के सुनहरे

शुभ पंख होते हैं

दुर्दिनों में राहतों के

बीज बोते हैं

टूटते मन शिथिल तन में

शक्ति का संचार कर

‘समय धागे’

बिखरते ‘मनके’ संजोते हैं।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पैसा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – पैसा ☆

पैसा कमाता है आदमी,

पैसे के पहियों पर

दौड़ने लगता है आदमी,

आदमी और पैसा कमाता है,

पैसे को लग जाते हैं पंख

उड़ने लगता है आदमी,

आदमी बहुत पैसा कमाता है,

आदमी ढेर पैसा कमाता है,

निगाहों में चढ़ने लगता है आदमी!

अब पैसा खाता है आदमी,

अब पैसा पीता है आदमी,

पर  पैसे की सवारी अब

नहीं कर नहीं पाता थुलथुला आदमी !

ज्यों-ज्यों ज़बान पर चढ़ता है पैसा

त्यों-त्यों निगाहों से उतरता है आदमी !

इससे उस तक,

आदि से इति तक,

न कहानी बदलती है,

न नादानी बदलती है,

पैसा, आदमी की

नादानी पर हँसता है,

कवि, पैसे और आदमी की

कहानी पर हँसता है!

 

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 9:06 बजे, 2.11.20)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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