हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #171 ☆ भावना के दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे…।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 170 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… ☆

लोचन

लोचन ने हमसे कहा,आ जाओ सरकार।

समझ लिया है आपको,हुआ है मुझे प्यार।।

मिठास

वाणी की है मधुरता, बोले वचन मिठास,

समा उसने बाँध लिया, सबको था विश्वास।।

उपवास

नौ देवी का है पर्व , करते है उपवास।

जीवन सुखमय हो रहा, दिन आया है खास।।

राधिका

कहे राधिका श्याम से, आना यमुना तीर।

समय बहुत अब हो गया, मन बाँधे  है धीर।।

पिचकारी

होली रंग में डूबे, राधा ओ गोपाल।

रंग भरते पिचकारी, ग्वाल बाल ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मतलबी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – मतलबी ??

शहर के शहर,

लिख देगा मेरे नाम;

जानता हूँ…..,

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम;

जानता हूँ….!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 कृपया आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना जारी रखें। होली के बाद नयी साधना आरम्भ होगी 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “वही अंधेरा” ☆ श्री केशव दिव्य ☆ ☆

श्री केशव दिव्य

 

☆ कविता ☆ “वही अंधेरा” ☆ श्री केशव दिव्य ☆

(काव्य संग्रह – स्नेहगंधा माटी मेरी” – से एक कविता)  

[एक]

धूल उड़ाती

चली जाती हैं

जीप और कारें वापस

 

इधर कोरवा

देखने लगता है

सपने

 

कि सरई और

सागौन की डारा से

उतरने लगी है

सोनहा किरन

 

बिखरने लगा है

अँजोर सा

सीलन भरी अंधेरी

कुरिया में उसकी

 

फिर

उड़ने लगता है वह

यकायक आकाश में

ऊंचा,ऊंचा और ऊंचा

कि अचानक

गिर पड़ता है

ऊँचाई से नीचे

धड़ाम!

 

वह जाग उठता है

हाँफने लगता है

भय से

प्यास से

गला उसका

सूखने लगता है

 

माथे पर पसीना

चुहचुहा आता है

वह बड़बड़ाता है

जाने क्या-क्या

जंगल की भाषा में?

 

वह पाता है

वही घुप्प अंधेरा

चारों ओर!

[दो]

उन

हरे-भरे सपनों को

खोजता है कोरवा

पहाड़ के नीचे

सरकार की ओर से

मिले मकान में

 

पर यहाँ

सपने हैं न रंग

हैं तो बस

वही आदिम अंधेरा

अभाव,बदहाली, बीमारी

और भूखमरी!

 

© श्री केशव दिव्य

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #157 ☆ “तुम समझो न समझो ये तुम जानो…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना  तुम समझो न समझो ये तुम जानो। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 157 ☆

☆ तुम समझो न समझो ये तुम जानो ☆ श्री संतोष नेमा ☆

मेरे  अंदर   का  अहसास  हो  तुम

मेरे  लिए  बहुत  ही खास  हो  तुम

तुम समझो न समझो ये तुम जानो

मेरी   ज़िंदगी  की  मिठास  हो  तुम

जरा दिल दुखाने में  परहेज   करो

किसी को आजमाने में गुरेज करो

दर्द  क्या  होता  है  तुम्हें  क्या पता

जरा  प्यार  बढ़ाने  में  निवेश  करो

मुझसे   मेरा  पता   पूछते   हो

दिल  चुरा  कर खता पूछते  हो

देकर दर्द मुझे वफ़ा के नाम पर

मुझसे मेरी अब  रज़ा पूछते  हो

मेरे   दिलवर  मेरी  सरकार  हो तुम

मेरे  स्वप्नों का  सुख- संसार  हो तुम

तुम्हीं हो रौनक हमारे घर आँगन की

हमारे जीवन का सच्चा प्यार हो  तुम

काँटों  के  बीच खिला गुलाब  हूँ मैं

जीवन की एक खुली किताब हूँ मैं

जिसे  पढ़ना  है वो पढ़ ले शौक से

हर मुश्किल सवाल का जवाब हूँ मैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परितोष ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – परितोष ??

आभासी कला में

वे महारथी बने रहे,

मरुस्थल में मृगतृष्णा

का दृश्य दिखाते रहे,

मैं सूखी धरती पर

तरबूज की बेल बन कर

उगता रहा, फलता रहा,

दुर्भिक्ष में भी हरा रहा,

अमित परितोष का

अविरल स्रोत बना रहा,

समय साक्षी है

मृगतृष्णा के मारों के

विदारक अंत की,

और तरबूज से मिलती

तृप्ति आकंठ की,

अपनी वृत्ति का

आकलन आप करो,

अपनी दृष्टि से अपना

निर्णय स्वयं करो..!

© संजय भारद्वाज 

प्रात: 4:34 बजे, 18.4.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 149 ☆ बाल कविता – शक्ति खुद की जानो जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 149 ☆

☆ बाल कविता – शक्ति खुद की जानो जी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

मुश्किल में जो ना घबराए

     उसे कहें हिम्मतवाला।

धैर्य रखे जो मुसीबतों में

      होता विजयी मतवाला।।

 

इन्द्रियों पर करे नियंत्रण

      उसे कहें संयमवाला।

अलख जगाए अन्नकोश की

      कभी न पीए वह हाला।।

 

करता शाकाहार सदा ही

       प्रेम पगा भोजन खाए।

खूब चबाकर शांत चित्त से

      सदा ईश के गुण गाए।।

 

सिद्धान्तों पर जीने वाले

    यश वैभव को पाते हैं।

मीठी वाणी हो विवेक यदि

     वे महान कहलाते हैं।।

 

मन, मस्तिष्क से अच्छा सोचो

     अच्छा ही अच्छा करना।

जीवन को सार्थक ही करके

        मन में मैल नहीं भरना।।

 

इसको कहते प्राणकोश हम

      जो भी सबल बना लेते।

चले सफलता साथ उन्हीं के

       जो चाहें सो पा लेते।।

 

मन भागेगा इधर – उधर को

      उसको वश में तुम रखना।

द्वेष ,कपट , ईर्ष्या से बचना

       लोभ लालची मत बनना।।

 

जो भी रखते मन को वश में

    उनका देव साथ हैं देते।

मनोकोश को प्रबल बनाकर

     जीवन सुंदर कर लेते।।

 

सभी देवता अपने अंदर

     उनको खुद पहचानो जी।

दूर न जाओ इन्हें देखने

       शक्ति अपनी जानो जी।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #171 – नवगीत – दूर जड़ों से हो कर… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण नवगीत – “दूर जड़ों से हो कर……”)

☆  तन्मय साहित्य  #171 ☆

☆ नवगीत – दूर जड़ों से हो कर… 

घर छूटा, परिजन छूटे

रोटी के खातिर

एक बार निकले

नहीं हुआ लौटना फिर।

 

वैसे जो हैं वहाँ

उन्हें भी भूख सताती

उदरपूर्ति उनकी भी

तो पूरी हो जाती,

 

घी चुपड़ी के लिए नहीं

वे हुए अधीर….।

 

दूर जड़ों से होकर

लगा सूखने स्नेहन

सिमट गए खुद में

है लुप्त हृदय संवेदन,

 

चमक-दमक में भटके

बन कर के फकीर….।

 

गाँवों सा साहज्य,

सरलता यहाँ कहाँ

बहती रहती है विषाक्त

संक्रमित हवा,

 

गुजरा सर्प, पीटने को

अब बची लकीर….।

 

भीड़ भरे मेले में

एक अकेला पाएँ

गड़ी जहाँ है गर्भनाल

कैसे जुड़ पाएँ,

 

बहुत दूर है गाँव

सुनाएँ किसको पीर…।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “बची रहेंगी निशानियां” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

  ☆ कविता ☆ “बची रहेंगी निशानियां ? ” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

राजधानी में हूँ 

भरा पड़ा है

नेताओं के चेहरों से

सब जैसे

एक दूसरे से ज्यादा

लोकप्रिय दिखने की होड़ में !

पहले कुछ घाट,  कुछ समाधियां आईं

समर्थकों ने संभाली इनकी स्मृतियां जैसे !

कितनी कोशिश रहती है इंसान की

अपनी निशानियां छोड़ने की !

बड़े बड़े राजे महाराजा भी

यही करते आये !

सब मिट्टी में मिलता रहा !

पिरामिड के अंदर भी

कुछ न मिला

और ताजमहल के भीतर भी खालीपन !

काल पात्र तक !

कोई निशानी न बची किसी की !

फिर हम

किस अंधी दौड़ में शामिल हैं ?

क्या पाने के लिए ?

जैसे पानी में कंकर फेंकते हैं

वैसे ही मैं पूछता हूँ खुद से

कोई जवाब नहीं

बस पानी की तरंगों

जैसी हलचल है !!!

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 57 ☆ स्वतंत्र कविता – भोर का आगमन… ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण स्वतंत्र कविता “भोर का आगमन”।

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 57 ✒️

?  भोर का आगमन… ✒️  डॉ. सलमा जमाल ?

(स्वतंत्र कविता)

चांदनी रात,

उस पर तुम्हारा साथ ।

कह गई पवन ,

अनकही सी बात ।।

 

अधर है टेसू से,

चंचल चितवन ।

रात है भीगी सी

भीगा हुआ है मन की ।।

 

देह की महक,

बहकती हुई सांसें ।

थरथराती,

बाहों में बाहें ।।

 

विहग चहचहाये,

सिहर उठे हम ।

जगाये नेह से,

भोर का आगमन ।।

© डा. सलमा जमाल

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “शिवालय” ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

☆ कविता ☆ “शिवालय”  ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

ओ दूर है शिवालय, शिवका मुझे सहारा

शिव के बिना यहा तो, कोई मुझे न प्यारा

जा ना सके वहा तो, दिल में उसे बिठाकर

हर साँस को बनालो, शिव नाम एक नारा

ये जान धूल मिट्टी, आकार तू बनाया

हर एक आदमी को, तूने किया सितारा

कैलाश घर तुम्हारा, दिल मे किया बसेरा

जाने कहा कहा पर, संसार है तुम्हारा

कश्ती तुफान में थी, मैंने तुम्हे पुकारा

आँखे खुली खुली थी, था सामने किनारा

भगवान दान माँगे, मैने नही सुना था

सजदा किया हमेशा, सौदा किया न यारा

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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