हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ आस्तीन के सांप ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा   “ आस्तीन के सांप”.  )

☆ लघुकथा – आस्तीन के सांप

कालोनी में सन्नाटा पसरा हुआ था । हर कोई अपने घर में बंद  था । तभी एक घर से शोरगुल उठा और घर के लोग बदहवास बाहर निकल कर सांप -सांप चिल्लाने लगे । कालोनी के लोग केम्पस में जमा हो गये । कुछ साहसी युवकों ने सांप को भगा दिया ।

लोग पुनः अपने घरों में दुबक गये और समाचार चैनलों से चिपक गये । संवाददाता बता रहा था कि भारत में कुछ पढे लिखे जाहिलों के द्वारा शासन के नियमों का पालन न करने से कोरोना के मरीजों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है ।

समाचार देखते हुए वह सोचने लगा – “कालोनी में घुसकर साँप तो यही जानना चाहता था  कि यहां इतना सन्नाटा क्यों है? वास्तविक सांप आजकल बहुत कम दिखते हैं । अब तो चारों ओर आस्तीन के सांपों की भरमार है । डर और दहशत का माहौल इन्हीं की वजह से है । यह शासन के आदेशों की अवहेलना कर मानवता के विरुद्ध क़ानून तोड़ने का ही कार्य करते हैं ।”

यह एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है कि-  “आखिर, इन आस्तीन के सांपों का क्या करना चाहिए?”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ सबकी माई ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक अत्यंत प्रेरक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा  सबकी माई । इस सन्दर्भ में मैं मात्र इतना ही कहूंगा – निःशब्द, अतिसुन्दर लघुकथा, कथानक एवं कथाशिल्प। आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ लघुकथा – सबकी माई  ☆

हाय री मैया। बडो़ दरद उठ रहो हे। प्रभू  भगवन भली करो—चैती के स्वर में भरी वेदना से पड़ोसन माई परेशान हो रही थी, मगर अपने फ्लैट से निकल कर सामने उसके कमरे पर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। बीच-बीच में राजन की आवाज सुनाई देती – – – धीरज रख चैती–धीरज रख।।

बड़ी सी फ्लैट स्कीम के सामने एक खाली प्लाट में बने छोटे से कच्चे कमरे में चैती और राजन रहते थे। राजन रोज मजदूर था। दूर दूर तक आॅटो ढूँढ कर थक चुका था मगर संपूर्ण बंद के कारण लाचार था।बगल की दुकान से एंबुलेंस के लिए उसने फोन करवाया था।

वह चैती को समझा रहा था— बस अभी एंबुलेंस पहुँचती ही होगी। वैसे भी तेरी डिलेवरी में समय है घबरा मत – – धीरज धर चैती।

दो घंटे बीत गए। एंबुलेंस नहीं पहुँची थी। चैती की चीखें थोड़ी और व्याकुल हो रहीं थीं। आस पास फ्लैटों से लोग-बाग झाँक रहे थे।

अचानक  एंबुलेंस के रुकने की आवाज सुनाई दी मगर वह चैती के नहीं उसके ठीक सामने माई के बड़े से फ्लैट के आगे रुकी। माई ने एंबुलेंस बुलवाई थी। अब माई से और रहा नहीं गया।सोचा मैं अकेली जान। बेटी विदेश में फँसी है— किसके लिए अपनी जान की इतनी परवाह करूं। यह विचार करते ही माई उठ खड़ी हुई, घर को ताला डाल कर राजन के साथ एंबुलेंस में बैठ गई उसके साथ अस्पताल जाने के लिए और पाँच हजार रुपये की गड्डी उसके हाथ में थमा दी। चैती और राजन हैरान हो गए— पूरे मोहल्ले में झगडालू चिड़चिड़ी बुढिया के रूप में मशहूर माई का यह रूप देखकर।!

माई की पूरी कालोनी में किसी से पटती नहीं थी दूधवाले सब्जी वाले भी उससे डरते। लेकिन आज जब कोरोना के डर से सगे रिश्तेदार भी अपने अपने फ्लैटों घरोंदों में दुबके बैठे हैं वहाँ माई का यह साहस अभिभूत कर गया।

चार दिन बाद जब  माई के साथ चैती गोद में नन्हें से बच्चे को लेकर लौटी तो निवासियों के साथ साथ सभी फ्लैटों के दरो दीवार देहरी तक माई के सम्मान और स्नेह से भर उठे–दूर से ही सही सबकी तालियों से परेशान चिड़चिड़ी माई ने सबको अपनी पुरजोर आवाज में दपट दिया और जोर से दरवाजा लगा लिया लेकिन तालियाँ बजती ही रहीं – – – बजती ही रहीं।।

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 42 – लघुकथा – रावण जैसा कोरोना☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक बालमन के मनोविज्ञान को  उकेरती एक बेहद सुन्दर लघुकथा  “रावण जैसा कोरोना।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो  बालमन के माध्यम से संकेतों में काफी कुछ सकारात्मक सन्देश देती है। इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 42 ☆

☆ लघुकथा  – रावण जैसा कोरोना

रिया छोटी सी चार साल की बिटिया। उसे दादी से कहानी सुनना बहुत अच्छा लगता था। जब से लॉक डाउन हुआ था, दादी जी के पास बैठकर रोज रामायण का पाठ सुनती थी ।

दादी ने सोचा, समय अच्छा है पूरा रामायण पढ़ लेती हूं।लॉक डाउन में भगवान का भजन भी हो जाएगा और घर के सभी सदस्य भी घर पर ही हैं।

बाकी सभी सदस्य तो टेलीविजन, मोबाइल, पेपर पर लगे रहते थे, मम्मी भोजन बनाने में लगी रहती थी, परंतु रिया अपनी दादी के पास बैठकर रामायण की कहानी सुनती। कितना पढ़ी है? उसमें क्या कहानी है? दादी भी उसे बड़े चाव से रोज कहानी सुनाती थी।

बालमन में दिनभर कोरोना की बातें भी आ जा रही थी। चर्चा का विषय भी कोरोना ही बना हुआ था। इसी बीच  आज दादी जी की रामायण का पाठ ‘रावण के वर्णन’ के पास आया। दादी ने रिया को रावण के बारे में बताई। रावण के दस सिर और  बीस हाथ थे। बहुत बलशाली राक्षस था। वह सभी तरफ देख सकता था।उसका बहुत बड़ा परिवार था। यदि भगवान राम ना होते तो रावण का वध कोई नहीं कर सकता था, और राक्षस बढ़ते ही जाते।

बड़े ध्यान से रिया दादी की बात सुन रही थी, और दौड़कर पापा के पास पहुंची, और बोली :- “ पापा क्या यह कोरोना भी रावण की तरह ही है? यह बहुत बलशाली है! हमारे भारत में कोई  राम नहीं जो कोरोना रावण को मार सके? ”

पापा धीरे से मुस्कुरा कर बोले:-” हैं ना बेटा और वह कोरोना रावण रूपी राक्षस को मार ही रहे है। वह अपना काम कर रहे हैं। बहुत जल्दी यह कोरोना रुपी रावण खत्म हो जाएगा।”खुश होकर रिया दीपक जलाने का इंतजार करने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – श्रद्धांजलि ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन कराती है ।” )

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

? धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  श्रद्धांजलि  ? 

(जब लेखक किसी चरित्र का निर्माण करता है तो वास्तव में वह उस चरित्र को जीता है। उन चरित्रों को अपने आस पास से उठाकर कथानक के चरित्रों  की आवश्यकतानुसार उस सांचे में ढालता है।  रचना की कल्पना मस्तिष्क में आने से लेकर आजीवन वह चरित्र उसके साथ जीता है। श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने इस चरित्र को पल पल जिया है। रचना इस बात का प्रमाण है। उन्हें इस कालजयी रचना के लिए हार्दिक बधाई। )  

जिस बरगद के पेड़ के नीचे से पगली माई की अर्थी उठी थी, उसी जगह उसकी समाधि कुछ संभ्रांत लोगों ने मिलकर बनवा दी थी।

पगली माई का शव,  उसकी इच्छा के अनुसार एनाटॉमी विभाग में छात्रों के शोध कार्य के लिए रख दिया गया था।

उसके नेत्र से दो अंधों की आंखों को रोशनी का उपहार मिला था, जिसका श्रेय पगली की सकारात्मक सोच को जाता है।

इस प्रकार अपने जीवन के अंतिम क्षणों में लिए गये संकल्प को पगली माई ने साकार कर समाज के सामने एक अनूठी पहल की थी, जिसकी सर्वत्र सराहना हो रही थी।

उसकी प्रेरणा उस मेडिकल कालेज के हर छात्र की प्रेरणा श्रोत बन उभरी थी।

अब उस समाधि स्थल पर पहुचने वाला हर इंसान उसकी समाधि पर श्रद्धा के पुष्प बिखेरता है।

लोगों के दिल में अनायास यह विश्वास घर कर गया था कि पगली माई सबकी मनोकामना पूर्ण करती है सबका मंगल करती है।

अब कभी कभी उस समाधि से उठने वाली ध्वनि तरंगें रात्रि की नीरवता भंग करती है, उसकी समाधि पर कभी कभी ये आवाज उभरती है —-

करम किये जा फल की इच्छा
मत कर ओ इंसान।

अब पगली माई को महा प्रयाण किये एक वर्ष गुजर गया।  अस्पताल परिसर में आज उनकी प्रथम पुण्य तिथि मनाई जा रही है। हजारों की भीड़ श्रद्धा सुमन  अर्पित कर रही हैं।  उन्ही लोगों के बीच बैठे बादशाह खान, राबिया तथा गोविन्द का सिर सिजदा करने के अंदाज में झुका हुआ है, इस प्रकार पगली माई यादें ही लोगों के जहन में शेष रह गई थी।

यद्यपि पगली माई दुर्गा माई, काली माई का स्थान भले न ले पाई हो, लेकिन उस लड़ी की एक कड़ी का फूल बन मेरी स्मृति के किसी कोने से झांकती मुस्कुराती नजर आती है।।

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 24 ☆ लघुकथा – अपने घर का सुख ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “अपने घर  का सुख”।  यह लघुकथा हमें  एक सकारात्मक सन्देश देती है। जीवन  में सब को सब कुछ नहीं मिलता। जिन्हें अपने घर का सुख मिलता है उन्हें अपने नीरस जीवन का दुःख है तो कहीं  समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो  किसी भी तरह अपने घर  पहुँचने के लिए बेताब है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस बेहद खूबसूरत सकारात्मक रचना रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 24 ☆

☆ लघुकथा – अपने घर  का सुख

मम्मां  क्या है ये ? थोडी देर तो बाहर जाने दो ना, प्लीज.

नहीं बेटा!  मैं तुझे घर के बाहर जाने नहीं दे सकती, तुझे मालूम है ना देश के हालात, कोरोना के कारण कितना बडा संकट छाया है पूरे विश्व पर. सबको अपने घर पर ही रहना है, घर पर रहकर ही इसे बढने से थोडा रोका जा सकता है.

सब जानता हूँ पर तुझे भी पता है ना माँ कि मैं घर में नहीं रुक सकता.  करूँ क्या सारा दिन घर में बैठकर ?

हॉस्टल में क्या करता था सारा दिन ?

उसके चेहरे पर मुस्कुराहट दिखी —  अरे हॉस्टल में तो फुल धमाल, मस्ती, घूमना-फिरना, पार्टी – और पढाई? क्लासेस??

वह सकपका गया हाँ – आँ  अरे! वो तो होती ही है पर हॉस्टल में कोई बोर हो सकता है भला? उफ! ऐसा तो कभी नहीं जैसे मैं इस समय घर में पक रहा हूँ. आज दस दिन हो गए, अभी तो पंद्रह दिन और काटने हैं. लग रहा है  जैसे कैद होकर रह गया हूँ घर में – उसने मायूस चेहरा बनाते हुए कहा.

सरिता समझ रही थी कि आज के ये बच्चे जिन्हें बाहर घूमना – फिरना, ज़ोमैटो, स्विगी से खाना मंगा – मंगाकर खाना खाने की आदत पड गयी है इन्हें घर मैं बैठकर दाल-चावल, रोटी खाना अब कहाँ भायेगा ?  एक – दो दिन की छुट्टियों में घर का खाना और और मम्मी- पापा से दुलार करना बहुत अच्छा लगता है लेकिन अब तो  —– सरिता ने लंबी साँस भरी.

सरिता लगातार कोशिश कर रही थी कि घर में सकारात्मक माहौल बना रहे, इसके लिए वह बेटे और पति को कभी कुछ अच्छी और नई–नई चीजें बनाकर खिलाती.  कभी छत तो कभी लॉन में तीनों बैठकर चाय–कॉफी पीते थे, लेकिन जिन्हें घर में टिकने की आदत ही ना हो उनके लिए दिन काटने मुश्किल हो रहे थे. पति ने एक – दो बार कहा भी – यार, कैसे रह लेती हो तुम सारा दिन घर में ? तुम भी बोर हो जाती होगी, है ना ?  उसने शून्य निगाहों से पति की ओर देखा, बोली कुछ नहीं, सोचा छोडो इस समय, उसने अपने विचारों को झटक दिया.

बेटे का मन बहलाने के लिए उसने टी.वी. चला दिया. सभी न्यूज चैनल यही दिखा रहे थे कि प्रधानमंत्री की  इक्कीस दिन के लॉकडाउन की घोषणा के कारण देश भर में दूसरे राज्यों से आए मजदूर अपने – अपने घर जाने के लिए परेशान होने लगे.घर जाने के सारे साधन  ट्रेन,  बस आदि बंद  हो गए थे लेकिन गरीब मजदूर किसी भी तरह अपने घर पहुँचना चाहते थे. सामान की गठरी सिर पर रखे और एक हाथ से बच्चे को थामे वे चले जा रहे थे. घबराकर वे भूखे – प्यासे  अपना परिवार लेकर पैदल ही निकल पडे. वे जानते थे कि अपने घर पहुँचकर किसी तरह भी रह लेंगे लेकिन दूसरे राज्य में बिना नौकरी, खाली हाथ, बीबी-बच्चों को क्या खिलाएंगे ? सरकार प्रयास कर रही है लेकिन वे जल्दी से जल्दी अपनों के बीच  पहुँचना चाहते थे.

बेटा बडी गंभीरता से मजदूरों के पलायन की खबरें सुन रहा था.  कैसे छोटे- छोटे बच्चे अपने माता पिता  का हाथ पकडे और कुछ गोदी में, रात दिन चलकर अपने घर की आस में चले जा रहे थे. गरीब मजदूरों की अपने घर जाने की व्याकुलता ने उसे बेचैन कर दिया था.  सरिता ने देखा बेटे की आँखों में आँसू भरे थे, वह माँ के पास आया और उसके गले में दोनों हाथ डालकर बडे प्यार से बोला – मम्मां मैं कितना लकी हूँ ना कि ऐसे समय में कितने आराम से आप सबके साथ अपने घर में बैठा हूँ, अगर मैं भी घर नहीं आ पाता तो? सरिता ने बडे प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरा, वह यही तो समझाना चाहती थी.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं # 42 – बुनियादी हक़ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक व्यावहारिक लघुकथा  “बुनियादी हक़। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं  # 42☆

☆ लघुकथा-  बुनियादी हक़ ☆

 

“अरे सावित्री ! क्यों मार रही है रोहन को. मोबाइल ही तो फेका है. सुधरवा लेना.”

“मांजी , मारू नहीं तो क्या करूँ. आजकल बहुत शैतानी करने लगा है,” कहते हुए सावित्री ने दूसरा चांटा रखना चाहा.

“रुक ! मेरे दोहते को मारना चाहती है, “ कहते हुए नानी ने हाथ पकड़ लिया.

“गोद लिए रोहन को मारते शर्म नहीं आती. पहले बच्चे पैदा करना, फिर मारना,” नानी यह कह पाती उस पहले ही रोहन की माँ देवकी बोल उठी , “माँ ! यह मेरी जेठानी-सावित्री का बेटा है. वह अपने बेटे को मारे या कुछ कहे , आप कौन होती है बीच में बोलने वाली. चलो यहाँ से.”

सुनते ही नानी और सावित्री अवाक् रह गई और देवकी मुंह में पल्लू दबा कर उलटे पैर भाग गई.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ शेखी ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक एवं शिक्षाप्रद लघुकथा   “ शेखी ”.  )

☆ लघुकथा – शेखी 

रिंकू ने मोटरसाइकिल निकाली और बाहर जाने लगा , तभी उसकी माँ ने उसे टोका – “पूरे शहर में लॉक डाउन है और तुम कहां जा रहे हो? घर पर नहीं रह सकते क्या? घूमना जरूरी है क्या?”

उसने शेखी बघारते हुए मां से कहा – “मां, तुम नाहक ही परेशान हो रही हो, हमें कुछ नहीं होगा। हम सब दोस्त रोज ही तो घूम रहे हैं,  पुलिस को चकमा देकर।”

“पर बेटा—” मां कुछ और कहती उसके पहले ही रिंकू ने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और तेजी से चला गया। कुछ देर बाद वह कराहता हुआ वापस आया, घबराकर मां ने पूछा तो उसने बताया कि पुलिस वालों ने पीठ पर डंडा मार दिया है।“

“मैंने तो तुम्हें पहले ही मना किया था लेकिन तुम किसी की बात मानते ही कहाँ हो।”

तीन दिन बाद — रिंकू को सर्दी खांसी के साथ ही तेज बुखार भी हो गया। मां ने दो -तीन दिन घरेलू इलाज किया लेकिन तबियत बिगड़ने के कारण उसे अस्पताल में भर्ती कराया। जांच में रिंकू को कोरोना पॉजिटिव पाया गया । अब वह जिँदगी और मौत के बीच जूझ रहा है।

अपनी शेखी बघारने की आदत की वजह से अपने साथ ही अपने परिवार एवं अन्य लोगों को भी मुसीबत में डाल दिया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 19 ☆ लघुकथा – देवी विसर्जन ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक अतिसुन्दर और शिक्षाप्रद लघुकथा देवी विसर्जन।  यह वास्तव में विचारणीय है कि कुछ लोगों के विचार नवरात्रि के नौ दिनों तक सात्विक रहते हैं और अचानक दसवें दिन ही क्यों परिवर्तित हो जाते हैं ?  इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 19 ☆

☆ लघुकथा  – देवी विसर्जन ☆

नदी दूषित न हो शासन ने इसकी पूरी कोशिश और सतर्कता बरती. एक कुंड बनाया. जिसमें बड़ी और छोटी सभी प्रतिमाएं विसर्जित की जा सकतीं थीं और प्रतिमाएं विसर्जित भी हुई. पर कुछ और प्रतिमाओं को विसर्जित होना था. माता की मूर्ति विसर्जन के लिये बड़ी धूमधाम से ले जायी गई और नदी में विसर्जित करने आगे बढ़े, मना करने पर समिति के सदस्यगण  मूर्ति कुंड में  विसर्जित नहीं करने के पक्ष में थे. यही बात आगे विवाद बनी.

शासन की चाक-चौबंद व्यवस्था अति उत्तम रही आपस में तू-तू में में शुरू हुई और फिर शासन और समिति के सदस्यों मैं बहुत जमकर लाठी और पत्थरों का उपयोग हुआ.

बस फिर क्या मूर्ति के पास पुजारी बस बैठा रहा, बाकि सबको जाना पड़ा और फिर देवी का विसर्जन शासन के नुमाइंदों को करना पड़ा.

यह भी बड़े भाग्य की बात कि देवी भी अनुशासन में रहकर ही खुश हुई होगी. अति किसी भी तरह की बुरी होती है. कुछ भले मानस, तो कुछ विघ्नसंतोषियों ने यह विवाद खड़ा कर दिया.

मन कर्म वचन से सभी ने श्रद्धा भक्ति की और मन पवित्र कर इन्द़ियों को वश में करने के गुण सीखे और शान्ति भी रही. किन्तु,  हमारे विचार नौ दिनो तक  शुध्द शाकाहारी रहते हुये दसवें दिन से ही आततायी क्यों हो गये?

शासन ने अपनी महत्ता बताई और विसर्जन करते समय गर्व से बोले- “देश की रक्षा कौन करेगा? …हम करेंगे… हम करेंगे!”

क्या यह मानवीय व्यवहार सही था ….?

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 41 – लघुकथा – गणगौर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “गणगौर।  अभी हाल ही में गणगौर पूजा संपन्न हुई है और ऐसे अवसर पर  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो हमें सिखाता है कि कितना भी कठिन समय हो धैर्य रखना चाहिए। ईश्वर उचित समय  पर उचित अवसर अवश्य देता है । इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 41☆

☆ लघुकथा  – गणगौर

नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर माता की पूजा होती है। कहते हैं  कि सौभाग्य की देवी को, जितना अधिक सौभाग्य की वस्तुएं चढ़ाकर बांट दिया जाता है। उतना ही अधिक पतिदेव की सुख समृद्धि बढ़ती है।

गांव में एक ऐसा घर जहां पर सासु मां का बोलबाला था। अपने इकलौते बेटे की शादी के बाद, बहू को अपने तरीके से रख रही थी। ना किसी से मिलने देना, ना किसी से बातचीत, एक बिटिया होने के बाद मायके वालों से भी लगभग संबंध तोड़ दिया गया था। परंतु बहू अनामिका बहुत ही धैर्यवान और समझदार थी। कहा करती थी कि समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।

परंतु सासू मां उसे तंग करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती। उनका कहना था कि “जब तक पोता जनकर नहीं देगी तब तक तुझे कोई नया कपड़ा और श्रृंगार का सामन नहीं दूंगी।” बहु पढ़ी लिखी थी, समझाती थी परंतु सासू मां समझने को तैयार नहीं थी। गांव में सासू माँ की एक अलग महफिल जमती थी। जिसमें सब उसी प्रकार की महिलाएं थी। बहू ने अपनी सासू मां और पति से कहा कि उसकी  ओढ़नी की चुनरी फट चुकी है।” मुझे इस बार गणगौर तीज में नई चुनरी दे दीजिएगा। पर सासु माँ ने कहा “तुम तो चिथड़े पहनोगी। मुझे तो समाज में बांटकर नाम कमाना है और अखबार में तस्वीर आएगी। तुझे देने से क्या फायदा होगा। ”

एक दिन बहु कुएं से पानी लेकर आ रही थी कि रास्ते में गांव के चाचा जी की तबीयत अचानक खराब हो गई। चक्कर खाकर गिर गए। बहू ने तुरंत उठा, उनको पानी पिला, होश में लाकर घर भिजवा दिया। उनके यहां सभी बहुत खुश हो गये क्योंकि अनामिका ने आज उनके पति की जान बचाई। गणगौर के दिन वह बहुत सारा सुहाग का सामान और जोड़े में लाल चुनरी लेकर आई और अनामिका को देकर बोली “मेरे सुहाग की रक्षा करने वाली, मेरी गणगौर तीज की देवी तो तुम हो।”

सासू मां कभी अपने रखी हुई चुनरी और कभी अपनी बहू का मुंह ताक रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य ☆ धारावाहिक उपन्यासिका ☆ पगली माई – दमयंती – भाग 18 ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं  श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित  एक धारावाहिक उपन्यासिका  “पगली  माई – दमयंती ”।   

इस सन्दर्भ में  प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी  के ही शब्दों में  -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है।  किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी।  हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के  माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी  हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के  सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेमचंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)

इस उपन्यासिका के पश्चात हम आपके लिए ला रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय जी भावपूर्ण कथा -श्रृंखला – “पथराई  आँखों के सपने”

☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती –  भाग 18 – महाप्रयाण ☆

(अब  तक आपने पढ़ा  —- कब पगली ससुराल आई, सुहाग रात को उस पर  क्या बीती? कैसे निगोड़ी नशे की तलब ने दुर्भाग्य बन  घर में दरिद्रता का तांडव रचा? इतना ही नहीं नशे ने उसके पति को मौत के मुख में ढ़केल दिया।  दुर्भाग्य ने उससे जीवन का आखिरी सहारा पुत्र भी छीन लिया।  पगली वह सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाई। मां बाप का प्यार में दिया नाम सार्थकता में बदल गया था। वह सच में ही पगला गई थी। उसका व्यक्तित्व कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गया था। लेकिन उन परिस्थितियों में भी उसका हृदय मातृत्व से रिक्त नहीं था।  आकस्मिक घटी घटना ने उसके हृदय में ऐसी भावनात्मक चोट पहुचाई कि उसका हृदय कराह उठा।  ऐसे में उसके जीवन में एक नये कथा पात्र का अभ्युदय हुआ, जिसने उसे अपनेपन का एहसास तो दिलाया ही बहुत हद तक  गौतम की कमी भी पूरी कर दी। लेकिन उसका  दिल अपने ही देश के नौजवानों का बहता खून नहीं देख सका था और अपने कर्मों से मां भारती का प्रतिबिंब बन उभरी थी। अब आगे पढ़ें इस कथा की अगली कड़ी——)

दंगे में घायल हुए पगली को काफी अर्सा गुजर गया था।  पगली अपने चोट से उबर चुकी थी  शरीर से काफी रक्त बहनें से वह बहुत कमजोर हो गई थी।  उसकी बुढ़ापे युक्त जर्जर काया अब उसे अधिक मेहनत करने की इजाजत नहीं दे रही थी।

इन परिस्थितियों में पगली बरगद की घनी छांव में पड़ी पडी़ हांथो में तुलसी की माला जपते किसी सिद्ध योगिनी सी दिखती।  एक दिन सवेरे की भोर में पेड़ की छांव तले आत्मचिंतन में डूबी हुई थी कि सहसा किसी अलमस्त फकीर द्वारा प्रभात फेरी के समय गाया जाने वाला गीत उसके कानों से टकराया था।  वह अपनी ही मस्ती की धुन मे गाये जा रहा था।

“रामनाम रस भीनी चदरिया, झीनी रे झीनी।
ध्रुव प्रह्लाद सुदामा ने ओढ़ी,
जस की तस धरि दीनी चदरिया।
झीनी रे झीनी।।

उस अलमस्तता के आलम मे फकीर द्वारा गाये भजन ने पगली को कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया।  आज उसे बचपन में भैरव बाबा के कहे शब्द याद आ रहे थे, और वह आत्मचिंतन में डूबी उन शब्दो के निहितार्थ तलाश रही थी। जीवन के निस्सारता का ज्ञान उसे हो गया था।  भैरव बाबा की आवाज में गीता के सूत्र वाक्य उसके मानसपटल पर तैर उठे थे।

तुम क्यों चिंता करते हो, तुम्हारा क्या खो गया?
जो लिया यही से लिया, जो दिया यहीं पर दिया।

तुम्हारा अपना क्या था? जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है अच्छा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा।  फिर जीवन में चिंता कैसी?

गीता के ज्ञान की समझ पगली के हृदय में उतरती चली गई और उसका सांसारिक जीवन से मोह भंग हो गया था और बैराग्य के भाव प्रबल हो उठे थे।

उन क्षणों में उसने जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्धारित कर लिया था, अब उसे पास आती अपनी मौत की पदचाप सुनाई देने लगी थी।

उसने मृत्यु के पश्चात अपना शरीर मानवता की सेवा में शोध कार्य हेतु दान करने का संकल्प ले लिया था। इस प्रकार एक रात वह सोइ तो फिर कभी नहीं उठी।

यद्यपि पगली काल के करालगाल से बच तो नहीं सकी, लेकिन मरते मरते भी अपने सत्कर्मों के बलबूते महाकाल के कठोर कपाल पर एक सशक्त हस्ताक्षर तो कर ही गई, जो काल के भी मृत्यु पर्यंत तक अमिट बन शिलालेख की भांति चमकता रहेगा, तथा लोगों को सत्कर्म के लिए प्रेरित करता रहेगा।

मृत्यु के पश्चात पगलीमाई के चेहरे पर असीम शांति के भाव थे कहीं कोई विकृति तनाव भय  आदि नहीं था।
ऐसा लगा जैसे कोई शान्ति का मसीहा चिर निद्रा में विलीन हो गया हो।

उस चबूतरे से जब अर्थी उठी और एनाटॉमी विभाग की तरफ चली तो पीछे चलने वाले जनसमुदाय की संख्या लाखों में थी, लेकिन हर शख्स की आंखों में आँसू थे, हर आंख नम थी, और वहीं बगल के मंदिर प्रांगण में गूंजने वाली कबीर वाणी लोगों को जीवन  जीने का अर्थ समझा रही थी।

कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।

ऐसी करनी कर चलो, हम हँसे जग रोये।।

इस प्रकार अपार जनसैलाब बढता ही जा रहा था लेकिन आज जनमानस में घृणा नफरत के लिए कोई जगह नहीं बची थी बल्कि उसकी जगह करूणा प्रेम का सागर ठाटें मार रहा था।

क्रमशः  –—  अगले अंक में पढ़ें  – पगली माई – दमयंती  – (अंतिम  भाग ) भाग – 19  – श्रद्धांजलि  

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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