हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

©  संजय भारद्वाज

(18.7.18, रात्रि 9.06)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ तरसती आंखें ☆ श्री मनोहर सिंह राठौड़

श्री मनोहर सिंह राठौड़

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध हिंदी एवं राजस्थानी भाषा के साहित्यकार श्री मनोहर सिंह राठौड़ जी का स्वागत है।  साहित्य सेवा के अतिरिक्त आप चित्रकला, स्वास्थ्य सलाह को समर्पित। आप कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी कहानी तरसती आँखें। हम भविष्य में भी आपके उत्कृष्ट साहित्य को ई-अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे।)

जीवन परिचय 

जन्म – 14 नवम्बर, 1948

गाँव – तिलाणेस, जिला नागौर (राज.)

शिक्षा – एम.ए. (हिन्दी)  स्वयंपाठी प्रथम श्रेणी, तकनीकी प्रशिक्षण (नेशनल ट्रेड सर्टिफिकेट), एस.एल..ई.टी. स्टेल पास।

साहित्य सृजन –

  • हिन्दी व राजस्थानी भाषा की सभी विधाओं में 45 पुस्तकें प्रकाशित।
  • 30 अन्य संकलनों, संग्रहों में रचनाएं सम्मिलित।
  • 12 पुस्तकों में भूमिकाएं लिखी। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएं लिखी।
  • लगभग 350 रचनाएं हिन्दी व राजस्थानी की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

प्रसारण –  55 रचनाएं आकाशवाणी से प्रसारित। दूरदर्शन से प्रसारित 10 वार्त्ताओं, परिचर्चाओं में भागीदारी।

अन्य योगदान –

  • लगभग 65-70 साहित्यिक उत्सवों, सेमीनार में पत्र वाचन, विशिष्ट  अतिथि, अध्यक्षता अथवा संयोजन ।
  • पिछले 25 वर्षों से होम्योपैथी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा तथा योग शिक्षा द्वारा अच्छे स्वास्थ्य के लिए लोगों को प्रेरित।
  • अनेक शिक्षण संस्थाओं में राजस्थानी भाषा-संस्कृति अपनाने व जीवन में सुधार के लिए मोटिवेशन लेक्चर।
  • क्षत्रिय सभा झुंझुनूं का सक्रिय सदस्य रहते हुए 2 वर्ष तक गांवों में युवा वर्ग की चेतना के लिए प्रोत्साहन लेक्चर दिये।
  • सन् 1967 से 2008 तक केन्द्रीय सरकार की राष्ट्रीय संस्था – केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिकी अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (सीरी) पिलानी (जि. झुझुंनूं) में सेवा के पश्चात डिप्टी डायरेक्टर (तकनीकी) के पद से सेवानिवृत्त।
  • हिन्दी-राजस्थानी साहित्य सृजन के लिए विभिन्न परिचय कोशों में परिचय सम्मिलित।
  • Who’s who of Indian writers – साहित्य अकादमी, नई दिल्ली।
  • Reference Asia – who’s who -नई दिल्ली।
  • एशिया – पैसिफिक Who’s who (vol-vi) नई दिल्ली।
  • राजस्थान शताब्दी ग्रंथ लेखक परिचय कोश, जोधपुर
  • हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश, बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
  • राजस्थान साहित्यकार परिचय कोश, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर

पुरस्कार/सम्मान –  30 संस्थाओं द्वारा क्षेत्रीय, राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर) साहित्यिक योगदान के लिए, पुरस्कृत व सम्मानित।

संप्रति – पेन्टिंग, स्वास्थ्य सलाह व लेखन को समर्पित।

 ☆ कथा-कहानी ☆ तरसती आंखें ☆ श्री मनोहर सिंह राठौड़ ☆ 

गांव में यह लंबी गाड़ी तड़के ही आई थी। वैसे गाड़ियां और भी आती रहती हैं। इतनी बड़ी गाड़ी वह भी हमारे गांव के व्यक्ति की है इस अहसास से सभी का सीना चौड़ा हो रहा था। यह इतनी गहमागहमी अब सूरज के निकलने के बाद बढी है।

वैसे गांव आज जल्दी जाग गया है। जागा क्या इस घटना ने जगा दिया। सबसे पहले बिहारी की दादी उठती हैं। आठ बजे उठने वाले भी जाग गए थे। यह गाड़ी चार बजे आ लगी थी चौपाल की एक मात्र दुकान के बंद किवाड़ों के पास, यह सेठ हर गोविन्द की गाड़ी थी। चौपाल में 2-3 जगह जहां दिन में बैठकें जमती है वहां ताशपत्ती खेली जाती है। मोबाइल में नई-नई फोटुवें एक-दूसरे को दिखाई जाती हैं। यह क्रम चलता रहता है। नये पुराने किस्सों की बखिया यहीं उधेड़ी जाती है। उनमें नोन-मिर्च लगता है, जीरे का बघार लगता है फिर वह ताजा तरीन आंखों देखी जैसी, कसौटी पर कसी कथा, घर-घर की बैठकों, चूल्हे-चैकों तक पहुंच जाती है। सूरज का रथ सरकाने को दिनभर यहां कई खबरें, किस्से चलते हैं। कई बार एक खबर दिन ढलने तक लोगों के दिलों पर राज करती है। कई राज इस चौपाल की बैठकबाजों के दिलों में दफन हैं, जो कभी कभार झगड़े की नौबत आने के समय, बात टालने को उगले जाते हैं। जरा-सा उस किस्से का नाम लेते-लेते कोई समझदार या नेता टाइप व्यक्ति अपना राज खुलने के डर से उस बात को काटते हुए, उस राज उगलने वाले को आगा-पीछा समझा देता है। फिर वह आग उगलने को उद्यत व्यक्ति अपने और गांव के भले की खातिर मौन साध लेता है। यही उसकी सेहत के लिए ठीक होता है। वर्ना गुंडों का क्या भरोसा, यह मेरी मां कहा करती है। आज की यह खबर अभी घुटुरन चलत वाली स्थिति में है। गांव का भला सोचने वाले नेता, समाज सेवक जो बैठक बाज हैं, वे अभी आये नहीं हैं। ये लोग रात देर तक इन बैठकों में गांव के लोगों का भला सोचते, योजनाएं बनाते हुए इस माहौल को गुलजार रखते आए हैं। इनकी भलमनसाहत के परिणाम से, कई केस हुए, कई लोगों की जमीनें बिकी। कई लोग मुकदमों से छूटे। पुजारी बाबा हमेशा कहा करते हैं, समरथ को नहीं दोष गुसांई। यहां यह कहावत सटीक बैठती है।

हमारे गांव में तीन लोगों का वर्चस्व है। ये तीनों अलग-अलग हताई की बैठकों को आबाद करते है। लेकिन पूरे गांव के मुद्दों को निपटाने तीनों साथ देखे जाते है। इनमें पहला सोहन लाल सरपंच का गुर्गा है। यह सरपंच का सलाहकार, उसकी आंखें–उसकी पांखें यानी सब कुछ है। हेमजी अपनी बिरादरी का मुखिया माना जाता है और तीसरा कुलवीर मिस्त्री। मिस्त्री पहले काम में उलझा रहता था तब बैठक इसके घर के आगे लगी रहती। जब से बेटा नौकरी लगा, इसने काम छोड़ दिया। अब अपने मलाइदार खाने और देशी-अंग्रेजी का इंतजाम करने के जुगाड़ के साथ-साथ गांव के भले की सोचने में इस मंडली में आ मिला। गांव के भले का बार-बार इसलिए कह रहा हूं क्योकि ये लोग जब-तब किसी कांईयापन से लोगों को बरगलाने का मोहिनी मंतर जानते हैं। जब तक बात दूसरे के समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। उस समय इनकी सलाह को मानने के अलावा कोई चाल शेष नहीं रहती। खैर आठ बजे तीनों बैठको के ये घुटे हुए अखाड़ेबाज, छुटे हुए सांढ, बिन लगाम के घोड़े, रास्ते के रोड़े आ धमके। बात नये सिरे से खुलने लगी।

सेठ दीनानाथ की लाश उनके बेटे गांव की श्मसान भूमि में जलाने लाए थे।

पहला सवाल यही उठा कि ये क्यों लाए, शहर में अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया ? एक ने आंशका प्रकट की — कोई बड़ा रोग होगा। इसके कीटाणु यहां फैलेंगे।

इतनी दूर क्यों लाए ? सोहन लाल ने सवाल दागा, इसके जवाब में एक बुजुर्ग ने अपने अनुभव को परोसा– पहले सेठ की यहां दुकान थी। हारी-बीमारी, सगाई-विवाह, बेटी-बहू की विदाई, जच्चा-बच्चा के समय गरीब का साथी बनकर यही उधार देता था बेचारा।

दूसरे ने तीखा जवाब ठोका– ” साथी क्या बनता, एकाएक दुकान थी। पहले लोग भोले थे। जमकर ठगता रहा। इसकी उधार के पीछे गरीबों की जमीनें बिक गई।”

इस पर 2-3 लोगों ने एक साथ टोका– ” अरे चुप हो जा। पहले पूरी बात तसल्ली से सुन लो पता कुछ है नहीं,  बीच में जबान पकड़ने लगा । हां काका फिर क्या हुआ ?”

इधर दूर खड़ी इस गाड़ी के आसपास सेठ के दोनों बेटों सहित शहर से आए 4-5 लोग खड़े थे। वे अब तक इधर-उधर लोगों को अपनी स्थिति बतला रहे थे। अब इस बड़े झुंड के पास वे आ गए। हाथ जोड़े, दोषियों की मुद्रा में खड़े थे। सारी घटना उनके मुख से सुनने के बाद अफवाहों को विराम लगा।

अब सारी स्थिति स्पष्ट थी। बेटे अपने पिता का अंतिम संस्कार शहर में करना चाहते थे। सेठ ने मृत्यु पूर्व अपनी अंतिम इच्छा प्रकट की थी, मुझे मरने के बाद अपने गांव की धरती पर अग्नि को भेंट करना। बस पुत्रों मेरी यही इच्छा है।

हालांकि छोटे बेटे ने उस समय पिता को व्यावहारिक पेचीदगियां समझाई थी कि गांव छोड़े इतने वर्ष हो गए। अब हमें वहां कौन पहचानेगा ? यह सुन कर शून्य में अटकी पिता की आंखों में पीछे छूटे गांव का लहराता तालाब, पनघट, ठाकुर जी का मंदिर, पीपल बरगद का विशाल पेड़– यों पूरा गांव आंखों के आगे लहराने लगा। गांव में दिवंगत हुई पत्नी की याद ने बूढी आंखों को पनियाली बना दिया।

गांव की बैठक में बात कुरेदने को एक नौजवान ने फिर पूछा–“काका बताओ ना पूरी बात।” यह सुनते ही दो बूढ़ों ने कहा कि सेठ जी गांव की शान थे। उनका जन्मभूमि से मोह होना उचित है। यह उनका अपना गांव है। वे गांव के हितैषी थे।

वहां खड़े लोग इन बूढों को तीखी नजरों से ताकने लगे। नजरों के तीखे तीरों से बिंधने से अब वे बेचारे सकपका गए कि ऐसा उन्हें नहीं कहना चाहिए था। कुछ ज्यादा ही कह गए। अब वे संकोच में डूबे जा रहे थे।

अब तक गांव के लोगों के दो ग्रुप बन गए। एक ओर के लोग कह रहे थे — सेठ ने यहां रहते हम गरीबों का खून चूसा। हमारी गाढ़ी कमाई को हथियाता रहा। उधार में दो के चार करता रहा। यहां मकान बनवाया, शहर में मकान-दुकान की। पैसों में खेल रहा है। हम लोग वहीं के वहीं। यहां इसका मकान बंद पड़ा है। किसी को रहने तक नहीं दिया। गांव कभी लौट कर आया नहीं, यहां से जाने के बाद। अब पता नहीं किस बीमारी से मरा है। कीटाणु फैलाने बूढी मरियल रोगी लाश को यहां ले आए।

दूसरे पक्षवालों ने बात काटी –” अरे ऐसी बात नहीं है। ये इतने पैसे वाले हैं, तो वहां इन्हें क्या दिक्कत थी ? बिजली के दाह संस्कार में देर नहीं लगती। बटन दबाया और लाश छूमंतर। इतना पैसा खर्च किया, गाड़ी लेकर यहां आए है। आखिर इसे अपना गांव समझा है तभी न। हमें अपना समझा सेठ ने इसलिए आखिरी इच्छा यह प्रकट की है।”

इतने में अक्खड़ जगेसर ने कहा–” सेठों का श्मसान यहां कहां है ?”

इसके बाद लंबा मौन पसर गया। एक बोला, सही कह रहा है–ठाकुरों, जाटों, मेघवालों के अलग-अलग श्मसान थे। उनमें कोई दूसरी जाति के व्यक्ति की लाश का अंतिम संस्कार नहीं हो सकता था। कुछ लोग एक ओर बेकार पड़ी रेतली जमीन में दाह संस्कार करते आ रहे है या अपने खेतों में करते हैं। अब सेठ लोग कहां करें ? किसी ने सेठ के बेटों को सरपंच के पास भेजा। इससे पहले ये लोग अलग-अलग जातियों के मुखियाओं के पास हाथ जोड़ते-मिन्नतें करते थक गए थे। सरपंच ने इस काम में उलझना उचित नहीं समझा। चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वह किसी वर्ग की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहता। उसने सोचा– लाश गई भाड़ में, किसी को नाराज किया और वोट कटे। आजकल विकास के नाम पर चांदी काटने का अवसर है। इस भलमनसाहत में क्या रखा है ? आखिर उसने बला टालने को एक सक्षम व्यक्ति के पास सेठ के बेटों को भेज दिया।

दोनों बेटे हाथ जोड़े वहां पहुंचे। उसने सारी स्थिति को पहचाना। दस हजार में सौदा तय हुआ। इसने कहा कुछ देर शांत रहें। मैं अपने व्यक्तियों द्वारा माहौल बनवाता हूं।

इस बार दोनों बेटे खुशी-खुशी गाड़ी के पास लौट आए। वहां बड़ी बहू को सारा हाल कह सुनाया। अब तक ये लोग आजिजी करते तंग आ चुके थे। पिता की बीमारी के चलते कल भी ठीक से नहीं खा सके थे। आज दोपहर हो आई, अब तक चाय भी नसीब नहीं हुई। दो बार पानी गटका और मुंह पर छींटे मारने से कुछ राहत मिली बस। बड़ी बहू ने तमक कर कहा, “देवरजी और मैंने पहले ही कहा था, यहीं शहर में ही कर लो– आप नहीं माने। पिताजी की आखिरी इच्छा, आखिरी इच्छा, देख लिया न उसका नतीजा। अब क्या पिताजी देखने आते ? आखिरी इच्छा को किसने सुना ? आपको अकेले में कहा था, चुप लगा जाते। बाप के आज्ञाकारी बने हो, अब भुगतो।”

बड़ा बेटा रुआंसा हो गया। वह सभी के आगे हाथ जोड़ता थक चुका था। भूख-प्यास चिंता ने निढाल कर रखा था। बनता काम वापिस कहीं बिगड़ ना जाए, इस आशंका से घबराया हुआ वह पत्नी के आगे हाथ जोड़ते हुए बोला– भागवान अब चुप कर। काम होने वाला है। थोड़ी देर शांत रह। तू बना बनाया खेल बिगाड़ेगी।

फिर वह सक्षम व्यक्ति उधर आया। इशारे से पास बुला इन्हें समझाया– बात कुछ जमती लग रही है। लोग गांव के लिए कुछ करने का कह रहे हैं। इनकी चूं-चपड़ मेट दो। स्कूल में एक कमरा सेठ जी के नाम से बनवा दें। सेठ जी होते तो वे भी बनवा देते। अब उनके नाम से बनेगा। आपके परिवार की इज्जत बढ़ेगी। हमेशा नाम अमर रहेगा।” इस विचार की तह तक जाने को दोनों भाईयों ने आंखों-आंखों में एक-दूसरे से पूछा और हामी भर ली, आखिर मरता क्या न करता वाली बात। जगेसर (वह सक्षम व्यक्ति) और सेठ के बेटों के मुख मुस्कान से खिल उठे। जगेसर कदम बढ़ाते हुए एक बार फिर भीड़ में गुम हो गया। इधर सेठ का परिवार गाड़ी के पास आया जहां ड्राईवर सुबह से अकेला खड़ा था। बहू के पास गांव की 3-4 स्त्रियां आ खड़ी हुई। इन औरतों के जेहन में सहानुभूतिपूर्वक साथ देने की भावना कम थी, असल बात की टोह लेने की जिज्ञासा ज्यादा हावी थी। खैर ! कारण कुछ भी हो इससे बड़ी बहू को अकेलेपन का दंश नहीं झेलना पड़ा।

ऐसे काम में आए हुए को अपने घर में कोई रोकने को तैयार नहीं था। अपशकुन माना जाता है। ठाकुरों और जाटों के श्मसान के बीच खाली पड़ी भूमि में यह संस्कार करवाना तय होने लगा। इसमें दोनों जातियों के लोग दबी जुबान मनाही करने लगे। जगेसर ने सेठ के परिवार द्वारा स्कूल में कमरा बनवाने का सिगूफा छोड़ा। असल में एक कमरे की सख्त जरूरत भी थी। इसके चलते बात तय होने वाली थी। इतने में एक शातिर नवयुवक खबर लाया कि जगेसर इस काम के दस हजार अलग से ले रहा है।

यकायक सारी बात वहीं बिगड़ गई। लोगों में यह दूसरी चर्चा जोर मारने लगी कि हमें पहले ही शक था जगेसर मुफ्त में किसी के घाव पर ….. तक नहीं करता, कि यह इतना धर्मात्मा बना हुआ कैसे दौड़ रहा है ? दाल में काला हमें पहले ही लग रहा था।

अब राजपूतों-जाटों के लोगों ने उस खाली पड़ी भूमि पर अंतिम संस्कार के लिए साफ मना कर दिया। कोलाहल बढ़ा।

सेठ के बेटों ने भांप लिया कि मामला फिर गड़बड़ा गया है। वे बेचारे भयभीत हो ताकने लगे। इतने में एक हितैषी ने पास आ सारी बात स्पष्ट कर दी।

भीड़ में यह बात उभर कर उछली, जो वहां खड़े हुए सभी को सुनाई दी– सेठ का परिवार यह चालाकी क्यों दिखा रहा है ? पैसे देने थे तो इस जगेसर को क्यों, सांढ घर में देते। हमें अपना नहीं समझते फिर यहां आए क्यों ?”

उस दिन एक-दो घरों में लड़की देखने मेहमान आने वाले थे, उन लोगों का काम नहीं होने की संभावना से उन्होंने अपना आक्रोश यों प्रकट किया–” ये शहरी और व्यापारी कौम बड़ी तेज होती है। ये किसी के नहीं होते। बेकार में गांव में अपशकुन कर दिया। घरों में चूल्हे नहीं जले। सभी लोग भूखे बैठे हैं। शुभकार्य भी आज के दिन टालने पडेंगे।”

दोपहर दो बजते-बजते यह स्पष्ट हो गया कि सेठ का दाह संस्कार गांव में नहीं हो सकता। भूखे-प्यासे पपड़ाये होठ लिये सभी लोग गाड़ी में फिर से सवार हुए। गांव के बूढे़-बच्चे और बहस में सक्रिय युवा, वहां चौपाल में खड़े थे। गांव में किसी आयोजन जैसा माहौल था। जगेसर और उसके साथियों के मुंह उतरे हुए थे कि रकम आते-आते खिसक कर गाड़ी में जा बैठी। बाकी लोग खुश थे कि कोई हादसा होते-होते टल गया।

जन्मभूमि में अंतिम संस्कार की आश लिए सेठ चल बसा था। उसकी लाश गाड़ी के हिचकोलों से अब ज्यादा हिलती दिखाई दे रही थी। उसे अब किसी ने नहीं पकड़ रखा था। बहू और छोटा बेटा हिकारत से पीछे छूटते गांव को देखने लगे। बड़ा बेटा अपराध बोध से ग्रसित अपनी बेबसी पर गर्दन झुकाए नीचे की ओर ताक रहा था। बड़ी बहू ने कटाक्ष करते हुए कहा, “कर दी न अंतिम इच्छा पूरी।”

गांव की चौपाल में बहस जोरों से चल पड़ी। अब कई लोगों में उत्साह चमकने लगा, वे मंद-मंद मुस्कराने लगे कि जगेसर को रुपये नहीं ठगने दिए। आज पूरे दिन चौपाल और घरों के चूल्हे-चौकों तक यह खबर हावी रहेगी।

गाड़ी दौड़ती गांव से दूर निकल चुकी थी। समय रहते आगे क्या करना है, यह दोनों बेटे सोचने लगे। ड्राईवर ने पूछा–” पहले घर चलना है या दूसरी जगह ?” इस सवाल से सभी का ध्यान टूटा। अपनी थकावट, उलझन, असमंजस की स्थिति से परेशान वे लोग बौखला उठे और तमक कर बोले — “तू चलता चल। अभी शहर ले चल। फोन से तय करते हैं, क्या करना हैं।” सभी गांव की दिशा में देखते, हारे हुए जुआरी की तरह बेबस थे। अकड़ी हुई सेठ की लाश की आँखे और ज्यादा खुली हुई मानो गांव की ओर बेबसी में तरसती हुई ताक रहीं थी।

© श्री मनोहर सिंह राठौड़ 

संपर्क – 421-ए, हनुवंत, मार्ग-3, बी.जे.एस. कॉलोनी, जोधपुर-342006 (राज.)

मोबाईल – 9829202755, 7792093639  ई-मेल –  [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 81 – लघुकथा – गंगवा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  भावप्रवण एवं विचारणीय लघुकथा  “गंगवा । इस  भावप्रवण एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 81 ☆

?लघुकथा  – गंगवा ?

गंगाराम का नाम जाने कब गंगवा बन गया। उसे नहीं मालूम?

गंगवा के ना कोई सुधि लेने वाला था और ना ही आगे पीछे कोई रिश्तेदार।

गांव में दिनकर बाबू और गंगवा लगभग सम उम्र। दिनकर जी के यहां सालों से काम करते-करते गंगवा जाने कब उनके अपने परिवार का सदस्य बन गया था।

गंगवा को बचपन से ही कम सुनाई और बात नहीं कर पाने की वजह से कोई उसे ठीक से बात भी नहीं करता था और न ही कोई उसकी बातें सुनता था।

बिना सुने, बिना बोले ही गंगवा सबके मन के भाव को पहचान लेता था परंतु किसी ने उसकी अच्छाइयों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया।

दिनकर बाबू के यहां काम करते-करते दोनों साथ-साथ बड़े होकर बुजुर्ग भी हो गए।

दिनकर बाबू का बेटा-बहू बाहर विदेश में रहते थे। दिनकर को कोरोना के कारण अस्पताल में रखा गया। अब कोरोना की लड़ाई जीत कर वे घर आ गए थे।

आज सुबह से ही गांव में टीकाकरण के लिए शहर से टीम आई थीं।

दिनकर बाबू क्योंकि सरकारी नौकरी से रिटायर्ड थे और सभी बातों को समझते थे। अपनी पत्नी के साथ टीका के लिए अस्पताल जाना था वे गंगवा को अपने साथ ले गए।

अस्पताल लाइन में लगे दोनों पति-पत्नी को गांव वाले अच्छी तरह से पहचानते थे और आदर सत्कार भी करते थे। दोनों ने अपना नाम आगे कर पर्ची बढ़ाया, लगभग सभी लोग लाइन से खड़े थे परंतु मेडिकल टीम ने गंगवा को पीछे करते-करते लगभग बाहर ही कर दिया।

दिनकर जी और उनकी पत्नी एक दूसरे को देखते रह गए उसके नही बोलने और नहीं सुनने की गलतफहमी हो गई थी।

तभी दिनकर बाबू ने कहां आज मुझे गांव में टीकाकरण का सबसे पहला मौका आप लोगों ने दिया है। मेरा अपना तो कोई पूछने आज तक नहीं आया और जब मुझे कोई अपना कहने वाला नहीं था गंगवा ने उस समय ‘कोरोना योद्धा’ बनकर मेरा साथ दिया।

मुझसे पहले मेरे गंगवा को टीका लगना है। यह मेरा अपना है… कह कर दिनकर बाबू की आंखों से आंसू बहने लगे।

आज मैं सभी को बताता हूं.. मेरा जो कुछ भी है मेरे मरने के बाद में सारी संपत्ति और मेरी सारी जिम्मेदारी मैं आज गंगवा को सौंप रहा हूं।

गंगवा भाव विभोर हो सब बातों को समझ रहा था।

आज वह अपने आप को रोक नहीं सका दोनों बाँहें फैलाकर दौड़ कर दिनकर जी को गले लगा लिया।

अस्पताल के कर्मचारियों ने तालियों से स्वागत किया। गंगवा आज दोनों हाथ उठा कर ऊपर ईश्वर को शायद शुक्रिया अदाकर रहा था। इस सब बातों को सुनने के लिए वह कब से तरस रहा था।

वह अब अकेला नहीं उसका अपना परिवार है। और सबसे पहले टीका ‘गंगवा बाबू’ को लगा।

दिनकर जी की बातों को बिना सुने भी गंगवा की आंखों से अश्रुं धारा बहने लगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ युक्ति ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “युक्ति”)

☆ लघुकथा – युक्ति ☆

प्रमोद के आगे चलने वाली कार के चालक ने अपनी कार को सड़क पर एक तरफ करके रोक दिया था, परन्तु फिर भी उसकी कार का इतना हिस्सा सड़क पर ही था कि प्रमोद बड़ी मुश्किल से अपनी बाइक को बचा पाया।

पीछे बैठे उसके दोस्त ने एकदम गुस्से से प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “…अभी इसकी ऐसी की तैसी करता हूँ और गाड़ी हटवाता हूँ सड़क पर से…।”

दोस्त गया और कार वाले से बहस करने लगा, “भाई साहब, क्या आपने बीच सड़क में कार खड़ी कर दी है, अभी हमारी टक्कर हो जाती और चोट लग जाती…। गाड़ी एक तरफ नहीं कर सकते क्या, इतनी जगह पड़ी है..?”

कार वाला भी शायद लड़ने की मनोदशा में था, गुस्से से बोला, “तुम देख कर नहीं चल सकते क्या? नहीं करता एक तरफ क्या कर लोगे?”

दोस्त को एकदम से कुछ न सूझा। वह आवेश में कुछ बोलने ही वाला था कि प्रमोद ने दोस्त के कंधे को दबा कर उसे चुप रहने का संकेत देते हुए कार वाले को कहा, “बात वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं भाई साहब. दरअसल यह चलती सड़क है, कहीं ऐसा न हो कि कोई दूसरा कार या ट्रक वाला आपकी गाड़ी को ठोक कर चला जाए और आपका खामखाह का नुकसान हो जाए। हम तो बस इसलिए…।”

सुन कर कार वाले ने अपनी कार एक तरफ लगा दी।

 

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#4 – दो भाई ☆ श्री आशीष कुमार☆

दो भाई थे। परस्पर बडे़ ही स्नेह तथा सद्भावपूर्वक रहते थे। बड़े भाई कोई वस्तु लाते तो भाई तथा उसके परिवार के लिए भी अवश्य ही लाते, छोटा भाई भी सदा उनको आदर तथा सम्मान की दृष्टि से देखता।

पर एक दिन किसी बात पर दोनों में कहा सुनी हो गई। बात बढ़ गई और छोटे भाई ने बडे़ भाई के प्रति अपशब्द कह दिए। बस फिर क्या था ? दोनों के बीच दरार पड़ ही तो गई। उस दिन से ही दोनों अलग-अलग रहने लगे और कोई किसी से नहीं बोला। कई वर्ष बीत गये। मार्ग में आमने सामने भी पड़ जाते तो कतराकर दृष्टि बचा जाते, छोटे भाई की कन्या का विवाह आया। उसने सोचा बडे़ अंत में बडे़ ही हैं, जाकर मना लाना चाहिए।

वह बडे़ भाई के पास गया और पैरों में पड़कर पिछली बातों के लिए क्षमा माँगने लगा। बोला अब चलिए और विवाह कार्य संभालिए।

पर बड़ा भाई न पसीजा, चलने से साफ मना कर दिया। छोटे भाई को दुःख हुआ। अब वह इसी चिंता में रहने लगा कि कैसे भाई को मनाकर लगा जाए इधर विवाह के भी बहित ही थोडे दिन रह गये थे। संबंधी आने लगे थे।

किसी ने कहा-उसका बडा भाई एक संत के पास नित्य जाता है और उनका कहना भी मानता है। छोटा भाई उन संत के पास पहुँचा और पिछली सारी बात बताते हुए अपनी त्रुटि के लिए क्षमा याचना की तथा गहरा पश्चात्ताप व्यक्त किया और प्रार्थना की कि ”आप किसी भी प्रकार मेरे भाई को मेरे यही आने के लिए तैयार कर दे।”

दूसरे दिन जब बडा़ भाई सत्संग में गया तो संत ने पूछा क्यों तुम्हारे छोटे भाई के यहाँ कन्या का विवाह है ? तुम क्या-क्या काम संभाल रहे हो ?

बड़ा भाई बोला- “मैं विवाह में सम्मिलित नही हो रहा। कुछ वर्ष पूर्व मेरे छोटे भाई ने मुझे ऐसे कड़वे वचन कहे थे, जो आज भी मेरे हृदय में काँटे की तरह खटक रहे हैं।” संत जी ने कहा जब सत्संग समाप्त हो जाए तो जरा मुझसे मिलते जाना।” सत्संग समाप्त होने पर वह संत के पास पहुँचा, उन्होंने पूछा- मैंने गत रविवार को जो प्रवचन दिया था उसमें क्या बतलाया था ?

बडा भाई मौन ? कहा कुछ याद नहीं पडता़ कौन सा विषय था ?

संत ने कहा- अच्छी तरह याद करके बताओ।

पर प्रयत्न करने पर उसे वह विषय याद न आया।

संत बोले ‘देखो! मेरी बताई हुई अच्छी बात तो तुम्हें आठ दिन भी याद न रहीं और छोटे भाई के कडवे बोल जो एक वर्ष पहले कहे गये थे, वे तुम्हें अभी तक हृदय में चुभ रहे है। जब तुम अच्छी बातों को याद ही नहीं रख सकते, तब उन्हें जीवन में कैसे उतारोगे और जब जीवन नहीं सुधारा तब सत्सग में आने का लाभ ही क्या रहा? अतः कल से यहाँ मत आया करो।”

अब बडे़ भाई की आँखें खुली। अब उसने आत्म-चिंतन किया और देखा कि मैं वास्तव में ही गलत मार्ग पर हूँ। छोटों की बुराई भूल ही जाना चाहिए। इसी में बडप्पन है।

उसने संत के चरणों में सिर नवाते हुए कहा मैं समझ गया गुरुदेव! अभी छोटे भाई के पास जाता हूँ, आज मैंने अपना गंतव्य पा लिया।”

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 61 ☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श पर एक  हृदयस्पर्शी लघुकथा। मानव जीवन अमूल्य है और हमारी विचारधारा कैसे उसे अमूल्य से कष्टप्रद बनाती है यह पठनीय है ।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक  विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 61 ☆

☆ लघुकथा – बेडियाँ ☆

मैं ऐसी नहीं थी, बहुत स्मार्ट हुआ करती थी अपनी उम्र में – वह हँसकर बोली। यह हमारी पहली मुलाकात थी और वह थोडी देर में ही अपने बारे में सब कुछ बता देना चाहती थी। वह खटाखट इंगलिश बोल रही थी और जता रही थी कि हिंदी थोडी कम आती है। हमारे परिवार में किसी के कहीं भी आने जाने पर कोई रोक – टोक नहीं थी, खुले माहौल में पले थे। शादी ऐसे घर में हुई जहाँ पति को मेरा घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था। बहुत मुश्किल लगा उस समय, अकेले में रोती थी लेकिन क्या करती, समेट लिया अपनेआप को घर के भीतर। मेरी दुनिया घर की चहारदीवार के भीतर पति और बच्चों तक सीमित रह गई।

बच्चे बडे हो गए। बेटी की शादी कर दी और बेटा विदेश चला गया। अपनी जिम्मेदारी  पूरी कर चैन की साँस ली ही थी कि पति  एक दुर्घटना में चल बसे। जिनके इर्द- गिर्द मेरी दुनिया सिमट गई थी, वे सहारे ही अब नहीं रहे। अब  बच्चे समझाते हैं मम्मी घर से बाहर निकलो, लोगों से मिलो, बात करो, अकेली घर में बंद मत रहो। फीकी सी हँसी के साथ बोली – अब कैसे समझाऊँ इन्हें कि चालीस साल की इन बेडियों को इतनी जल्दी कैसे काटा जा सकता है ?

मैं चुपचाप उसकी बातें सुन रही थी, मेरी आँखों के सामने एक बिंब उभर रहा था चार पैरवाले पशु का, जिसके दो पैर रस्सी से बाँध दिए गए थे।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – कुंडलिनी ☆

अजगर की कुंडली कसती जा रही थी। शिकार छटपटा रहा था। कुंडली और कसी, छटपटाहट और घटी। मंद होती छटपटाहट द्योतक थी कि उसने नियति के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। भीड़ तमाशबीन बनी खड़ी थी। केवल खड़ी ही नहीं थी बल्कि उसके निगले जाने के क्लाइमेक्स को कैद करने के लिए मोबाइल के वीडियो कैमरा शूटिंग में जुटे थे।

क्लाइमेक्स की दम साधे प्रतीक्षा थी। एकाएक भीड़ में से एक सच्चा आदमी चिल्लाया, ‘मुक्त होने की शक्ति तुम्हारे भीतर है। जगाओ अपनी कुंडलिनी। काटो, चुभोओ, लड़ो, लड़ने से पहले मत मरो। …तुम ज़िंदा रह सकते हो।…तुम अजगर को हरा सकते हो।…हरा सकते हो तुम अजगर को।..लड़ो, लड़ो, लड़ो!’

अंतिम साँसें गिनते शिकार के शरीर छोड़ते प्राण, शरीर में लौटने लगे। वह काटने, चुभोने, मारने लगा अजगर को। संघर्ष बढ़ने लगा, चरम पर पहुँचा। वेदना भी चरम पर पहुँची। अवसरवादी वेदना ने शीघ्र ही पाला बदल लिया। बिलबिलाते अजगर की कुंडली ढीली पड़ने लगी।

कुछ समय बाद शिकार आज़ाद था। उसने विजयी भाव से अजगर की ओर देखा। भागते अजगर ने कहा, ‘आज एक बात जानी। कितना ही कस और जकड़ ले, कितनी ही मारक हो कुंडली, अंततः कुंडलिनी से हारना ही पड़ता है।’

©  संजय भारद्वाज

(21.1.2016, प्रात: 9:11बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 80 – लघुकथा – हल्दी कुमकुम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक अत्यंत  सार्थक, भावुक एवं समसामयिक विषय पर रचित लघुकथा  “हल्दी कुमकुम। इस सामायिक एवं सार्थक रचना के लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 80 ☆

??हल्दी कुमकुम ??

आज पड़ोसी चाची के यहां “हल्दी कुमकुम” का  कार्यक्रम है, वर्षा ने जल्दी जल्दी तैयार होते अपने पतिदेव को बताया।

उन्होंने कहा.. तुम जानती हो मम्मी फिर तुम्हें खरी खोटी सुनाएंगी, क्योंकि मम्मी का वहां आना-जाना बहुत होता है। पर चाची ने मुझे भी बुलाया है वर्षा ने हंसकर कहा..।

बाहर पढ़ते-पढ़ते और एक साथ नौकरी करते हुए वर्षा और पवन दोनों ने समाज और घर परिवार की परवाह न करते हुए विवाह कर लिया था।

मम्मी-पापा ने बेटे का आना जाना तो घर पर रखा परंतु वह बहु को अंदर घुसने भी नहीं देते थे।

बहू को अपनी बहू नहीं स्वीकार कर पा रहे थे। हारकर दोनों शहर में ही ऑफिस के पास मकान लेकर रहने लगे थे।

वर्षा समझाती… कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा। मम्मी पापा का गुस्सा होना जायज है क्योंकि मैं आपकी बिरादरी की नहीं हूं!!! पवन कहता आजकल जात-पात कौन देखता है? जिसके साथ जिंदगी संवरती है और जिससे तालमेल होता है उसी के साथ विवाह करना चाहिए।

जल्दी-जल्दी वर्षा तैयार होकर चाची के घर पहुंच गई। सासू मां पहले से ही आ गयी थीं। वर्षा ने सभी को प्रणाम करके एक ओर  बैठना ही उचित समझा।

हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम शुरू हुआ। सभी महिलाओं को तिलक लगा। नाश्ता और खाने का सामान दिया गया। सभी की हंसी ठिठोली आरंभ हो गई और सासू मां की वर्षा को लेकर  छीटाकशी भी सभी देख रहे थे।

बातों ही बातों में वर्षा की सासू मां को सभी महिलाओं ने कहा… “तुम कब कर रही हो हल्दी कुमकुम का कार्यक्रम। पिछली बार भी तुमने नहीं किया था। इस बार तो कर लो। अब तो बहु भी आ गई है। सभी ने एक दूसरे को देखा??”

सासू मां को भी शायद इसी दिन का इंतजार था बस बोल पडी… “ठीक है तो कल ही रख लेते हैं। सभी आ जाना जितनी भी यहां महिलाएं आई हैं। सभी को निमंत्रण हैं। सभी को आना है।”

वे कनखियों से बहू की तरफ देख रही थी। बहू ने भी हाँ में सिर हिलाया।

पवन समय से पहले आ गया गाड़ी लेकर ताकि वर्षा को कहीं कोई बात न लग जाए। वह सड़क से ही गाड़ी का हार्न बजा रहा था।

वर्षा “अभी आई कह..” कर जाने लगी। सभी को प्रणाम कर सासू माँ के ज्यों ही चरण स्पर्श करने के लिए झुकी उन्होंने बाहों में भर कर कहा…  “बहु, कल तुम्हारी पहली हल्दी कुमकुम होगी। दुल्हन के रूप में सज धजकर मेरी देहली पर आना साथ में उस नालायक को भी ले आना।”

वर्षा की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली। खुशी से रोते हुए हंस रही थी या हंसते हुए रो पडी, पर आँसू थे खुशी के ही। फूली ना समाई वर्षा।

अपने घर आने के इंतजार में वह झटपट पवन की गाड़ी में जा बैठीं। आज इतनी खुशी से चहकते हुए वर्षा को पहली बार पवन ने देखा तो देखता रह गया। क्योंकि वह माँ और वर्षा की कुछ बातों से अनजान जो था।

मुझे कल घर आना है कह कर आंसुओं की धार लिए पवन से लिपट गई वर्षा!!!!!!!

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं।  आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।” )

 ☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार#3 – पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है ☆ श्री आशीष कुमार☆

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये गए धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है, चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 60 ☆ ऐतिहासिक लघुकथा – वीरांगना ऊदा देवी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक भूली बिसरी ऐतिहासिक लघुकथा  ‘वीरांगना ऊदा देवी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को एक अविमस्मरणीय ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 60 ☆

☆ ऐतिहासिक लघुकथा – वीरांगना ऊदा देवी ☆

16 नवंबर 1857 की बात है अंग्रेजों को पता  चला कि  लगभग दो हजार विद्रोही भारतीय सैनिक  लखनऊ के सिकंदरबाग में ठहरे हुए हैं। अंग्रेज  चिनहट की हार से बौखलाए हुए थे और भारतीयों से बदला लेने की फिराक में थे। अंग्रेज अधिकारी कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में  सैनिकों ने  सिकंदरबाग़ को घेर लिया। देश के लिए मर मिटनेवाले  भारतीय सैनिक आने वाले संकट से अनजान  थे। अवध के छ्ठे बादशाह वाजिद अली शाह ने महल में रानियों की सुरक्षा के लिए  स्त्रियों की एक सेना बनाई थी। ऊदा देवी  इस सेना की सदस्य थीं. अपने साहस और बुद्धिबल  से जल्दी ही नवाब की बेगम  हज़रत महल की महिला सेना की प्रमुख बना दी गईं। साहसी ऊदा जुझारू स्वभाव की थीं, डरना तो उसने जाना ही नहीं था और निर्णय लेने में तो वह एक पल भी ना गंवाती थीं।

सिकंदरबाग में  अंग्रेज सैनिक भारतीय सैनिकों के लिए काल बनकर आ रहे थे. वीरांगना ऊदा देवी हमले के वक्त वहीं थीं। देश के लिए जान न्यौछावर करनेवाले  इन वीर जवानों को वे अपनी आँखों के सामने मरते नहीं देख सकती थीं। उसने पुरुषों के कपडे पहने.  हाथ में बंदूक ली और  गोला-बारूद लेकर वह पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं।  पेड़ पर से लगातार गोलियों से हमलाकर उसने अंग्रेज़ सैनिकों को सिकंदरबाग़ में  प्रवेश नहीं करने दिया। दरवाजे पर ही रोके रखा।

ऊदा देवी ने अकेले ही ब्रिटिश सेना के दो बड़े अधिकारियों और 36 अंग्रेज़ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया था। यह देखकर अंग्रेजी अधिकारी बौखला गए वे  समझ ही नहीं सके कि कौन और कहाँ से उनके सैनिकों को मार रहा है। तभी एक अंग्रेज सैनिक की निगाह पीपल के पेड़ पर गई। उसने देखा कि पेड़ की डाली पर छिपा बैठा  कोई लगातार गोलियां बरसा रहा है। बस फिर क्या था। अंग्रेज़ सैनिकों ने निशाना साधकर उस पर गोलियों की बौछार कर दी।  एक गोली ऊदा देवी को लगी और वह  पेड़ से नीचे गिर पड़ीं। अँग्रेज़ अधिकारियों को बाद में पता चला कि  सैनिक के  वेश में वह भारतीय सैनिक कोई और नहीं बल्कि वीरांगना ऊदा देवी थी। अंग्रेज़ अधिकारी ने ऊदा देवी के शौर्य  और पराक्रम  के सम्मान  में अपना हैट उतारकर उन्हें सलामी दी थी।।

 

 

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© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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