हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 689 ⇒ मस्त नज़र की कटार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मस्त नज़र की कटार।)

?अभी अभी # 689 ⇒ मस्त नज़र की कटार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

आपने शायद तलत का यह गीत सुना हो ;

आँखों में मस्ती शराब की काली ज़ुल्फ़ों में आँहें शबाब की।

जाने आई कहाँ से टूट के मेरे दामन में पंखुड़ी गुलाब की। ।

यानी संक्षेप में, मस्त नज़र की बात हो रही है। अरे भाई, ईश्वर ने सबको दो आँखें दी हैं, आंखों का काम देखने का है, लेकिन यहां तो कोई नजरों से शिकार कर रहा है तो कोई नज़रों से ही शराब पिला रहा है। देखिए हमारे बोंगाली मोशाय हेमंत कुमार को;

ज़रा नज़रों से कह दो जी

निशाना चूक ना जाए।

मज़ा जब है,

तुम्हारी हर अदा

कातिल ही कहलाए …

क्या आपने कभी किसी की मस्त नजर देखी है। क्या आपको यकीन होता है कि अगर आपने दिन में काजल लगाया हो, तो रात हो जाएगी। देखिए कैसे कैसे लोग पड़े हैं ;

काजल वाले नैन मिला के कर डाला बेचैन

किसी मतवाली ने। ।

अरे रे रे लूट लिया रे

झाँझर वाली ने। ।

भगवान नज़र सबको देता है, लेकिन मस्त नज़र कहां सबको नसीब होती है। इधर एक हम हैं, हमारी तो बचपन से ही कमजोर नजर है। हमारी नज़रों पर कोई शायर गीत नहीं लिखेगा। नजर तो उस शायर की भी कमज़ोर है। वह भी चश्मा लगाकर ही ऐसे गीत लिखता होगा ;

तुम्हारी मस्त नज़र,

अगर इधर नहीं होती।

नशे में चूर फ़िज़ा

इस क़दर नहीं होती। ।

हमें तो यह मस्त नजर का नशा नहीं लगता। बस थोड़ी चढ़ गई तो शायर साहब को फ़िज़ा भी नशे में चूर नजर आने लगी। ।

क्या आपके पास इन साहबान का कोई इलाज है ;

मैं हूं साक़ी तू है शराबी-शराबी -२

तूने आँखों से पिलाई वो नशा है के दुहाई

हर तरफ़ दिल के चमन में फूल खिले हैं गुलाबी-गुलाबी

मैं हूँ साक़ी …

हमारे धरम पाजी की तो बस पूछिए ही मत। उनकी मस्ती को किसी की नज़र ना लगे, शराब की भी नहीं ;

छलकाएं जाम

आइये आपकी आँखों के नाम

होंठों के नाम।

फूल जैसे तन के जलवे,

ये रँग-ओ-बू के

आज जाम-ए-मय उठे,

इन होंठों को छूके

लचकाइये शाख-ए-बदन, लहराइये ज़ुल्फों की शाम

छलकाएं जाम …

लेकिन कोई चंद्रमुखी अगर आपकी आंखों की नींद और चैन भी चुराकर ले जाए, तब तो यह एक गंभीर मामला बनता है ;

नैन का चैन चुराकर ले गई

कर गई नींद हराम। चन्द्रमा सा मुख था उसका चन्द्रमुखी था नाम। ।

यानी यहां तो नाम और हुलिया भी बयान किया गया है। लेकिन जब मस्त नज़रों से घायल और लुटा हुआ आशिक ही कोई शिकायत नहीं कर रहा हो तो समझिए गई भैंस पानी में। यकीन ना हो तो देखिए ;

शरबती तेरी आँखों की

झील सी गहराई में

मैं डूब डूब जाता हूँ …..

हम तो आखिर में यही कहेंगे ;

मेरी प्यास का कोई हिसाब नहीं

तेरी मस्त नज़र का जवाब नहीं

इसी मस्त नज़र से पिलाए जा

मेरे सामने जाम रहे ना रहे

तेरा, हुस्न रहे मेरा

इश्क़ रहे

तो ये सुबहो ये शाम

रहे ना रहे।

रहे प्यार का नाम जमाने में

किसी और का नाम

रहे ना रहे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 688 ⇒ मृत्यु से साक्षात्कार ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मृत्यु से साक्षात्कार।)

?अभी अभी # 688 ⇒ मृत्यु से साक्षात्कार ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

मौत को किसने देखा है ! बिना मरे स्वर्ग तो बहुत दूर की बात है, मृत्यु से तो साक्षात्कार के लिए भी मरना पड़ता है। ऐसी किसकी गरज है कि सिर्फ साक्षात्कार के लिए मरना पड़े। मरने दो, नहीं करना हमें मृत्यु से साक्षात्कार।

अच्छा, ईश्वर से साक्षात्कार करना चाहोगे ? वाह, क्यों नहीं ! ये हुई न बात। कब करवा रहे हो। लेकिन ईश्वर कहीं मौजूद हो तो उससे साक्षात्कार करवा दें, उसका भी कोई पता नहीं। ईश्वर से साक्षात्कार के लिए कोई गुरु के पास जा रहा है, कोई जंगल, पहाड़, वन वन, बाबा बन, भटक रहा है, सब ईश्वर को ढूंढ रहे हैं। सबको ईश्वर का साक्षात्कार चाहिए। जिंदगी भर ईश्वर को ढूंढते रहे, जब ईश्वर कहीं नहीं मिला, तो ईश्वर को प्यारे हो गए। पहले मृत्यु से साक्षात्कार हुआ, ईश्वर अभी कतार में हैं।।

हमने न तो मृत्यु को देखा और न ही ईश्वर को ! लेकिन कभी ईश्वर को याद करते हैं तो कभी मृत्यु से डरते हैं। ईश्वर को पाने के लिए तो हमें प्रयत्न करना पड़ता है।

बिना मनुष्य जन्म लिए, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती लेकिन मृत्यु कितनी सहज है, बिना मांगे ही मिल जाती है। हम जो चाहते हैं, वह हमें कब मिला है। हम मौत को गले नहीं लगाना चाहते। हम चाहते हैं, ईश्वर हमें गले लगाए। हम ईश्वर के ही तो बालक हैं। फिर भी इतनी दूरी, और मौत, कितनी करीब ! मानो कह रही हो, आ गले लग जा।

कौन लगाता है, मौत को हंसते हंसते गले। खुद ही हमारे गले पड़ती है। मानो कोई स्वयंवर चल रहा हो। जिसके गले में उसने वरमाला डाली, उसे मौत ने वर लिया। लो हो गया मौत से साक्षात्कार। कितना पवित्र संस्कार ! उसने आपको चुना है, आपको वरा है। लेकिन आप सुखी नहीं। मुझे अभी मृत्यु से साक्षात्कार नहीं करना। पहले एक बार ईश्वर से साक्षात्कार हो जाए, तो मैं मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लूंगा। और उधर उपनिषद कह रहा है, जिसने मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली, उसे ईश्वर का साक्षात्कार हो गया।।

जो सत्य है, उससे हम भाग रहे हैं। जहांआस्था है, वहां विश्वास है और जहां भय है वहां मृत्यु। आस्था हमें जीवित रख रही है, भय हमें मार रहा है। कोरोना के भय से हम रोज बाहर से जब घर आ रहे हैं, तो कपड़े बदल रहे हैं, नहा रहे हैं। अपने आपको सुरक्षित रख रहे हैं। लेकिन यहां गीता का ज्ञान हमारे काम नहीं आता ;

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।। २३।।

इस आत्माको शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।

जब भी हम शरीर की बात करते हैं, हमें आत्मा परमात्मा की बातों में भटकाया जाता है, उलझाया जाता है। आत्मा वस्त्र बदलती है, जैसे आप बदलते हो। फिलहाल हमें न तो मृत्यु से और न ही ईश्वर से साक्षात्कार करना। हमें मौत से नहीं, कोरोना से डर है। एक बार इससे निपट लें, फिर मृत्यु और ईश्वर दोनों से साक्षात्कार कर लेंगे। क्योंकि हम जानते हैं, मनुष्य जन्म दुबारा नहीं मिलता। देवता भी कतार में हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 351 ☆ आलेख – “महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर: जन सामान्य तक विज्ञान के संवाहक…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 351 ☆

?  आलेख – महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर: जन सामान्य तक विज्ञान के संवाहक…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

20 मई 2025 को 87 वर्ष की आयु में पुणे में महान वैज्ञानिक पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर का निधन हो गया। साहित्य जगत, उनकी विज्ञान कथाओं के लिए उन्हें सदा याद करेगा। उन्होंने हिंदी, मराठी और अंग्रेजी में 40 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनमें विज्ञान कथाएँ, आत्मकथा और शोधग्रंथ शामिल हैं। उनकी किताबों “वामन की वापसी” और “धूमकेतु” जैसी कृतियों ने युवाओं को विज्ञान के प्रति आकर्षित किया। दूरदर्शन पर प्रसारित “ब्रह्मांड” श्रृंखला के माध्यम से उन्होंने आम लोगों को खगोल विज्ञान के रहस्यों से परिचित कराया। 2014 में उनकी मराठी आत्मकथा “चार नगरातले माझे विश्व” को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला।

डॉ. जयंत विष्णु नारळीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में हुआ था। उनके पिता, विष्णु वासुदेव नारळीकर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में गणित के प्रोफेसर थे, जबकि माता सुमति नारळीकर संस्कृत की विदुषी थीं। इस शैक्षिक पारिवारिक वातावरण ने बचपन से ही जयंत में वैज्ञानिक चेतना का बीजारोपण किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी के सेंट्रल हिंदू बॉयज स्कूल में हुई। उन्होंने BHU से स्नातक किया। 1959 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से गणित में डिग्री प्राप्त की और 1963 में खगोल भौतिकी में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

डॉ. नारळीकर ने ब्रह्मांड की उत्पत्ति के “स्थिर अवस्था सिद्धांत” (Steady State Theory) को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो बिग बैंग सिद्धांत के विकल्प के रूप में प्रस्तुत हुआ। उन्होंने ब्रिटिश खगोलशास्त्री फ्रेड हॉयल के साथ मिलकर “हॉयल-नारळीकर सिद्धांत” प्रतिपादित किया, जो आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत और माक सिद्धांत का समन्वय था। यह सिद्धांत ब्रह्मांड के निरंतर विस्तार और नई पदार्थ निर्माण की प्रक्रिया पर आधारित था। अपने इस कार्य के लिए उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली, हालाँकि बाद में बिग बैंग सिद्धांत प्रमुखता पा गया, लेकिन नारळीकर ने वैज्ञानिक बहस को नई दिशा दी।

भारत में अनुसंधान और संस्थान का निर्माण उनके ही निर्देशन में हुआ।

1972 में अमेरिका से भारत लौटकर उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में सैद्धांतिक खगोल भौतिकी समूह का नेतृत्व किया। 1988 में उन्होंने पुणे में इंटर-यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (IUCAA) की स्थापना की, जो आज विश्वस्तरीय शोध केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित है। 2003 में सेवानिवृत्त होने के बाद भी वे IUCAA से एमेरिटस प्रोफेसर के रूप में जुड़े रहे।

डॉ. नारळीकर को विज्ञान के क्षेत्र में कई पुरस्कार और सम्मान मिले।

उनके योगदान को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित किया गया। 1965 में उन्हें पद्म भूषण सम्मान दिया गया। महज 26 वर्ष की आयु में यह सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे युवा वैज्ञानिकों में से वे एक हैं। कलिंग पुरस्कार (1996) यूनेस्को द्वारा विज्ञान संचार के लिए उन्हें प्रदान किया गया। वर्ष 2004 में भारत का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया।

महाराष्ट्र भूषण जो महाराष्ट्र का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है उनको वर्ष 2011 में दिया गया था।

डॉ. नारळीकर न केवल एक खगोलशास्त्री थे, बल्कि विज्ञान के संवाहक, शिक्षक और लेखक भी थे। उन्होंने भारत को वैश्विक विज्ञान मानचित्र पर स्थापित किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 687 ⇒ कश्मीर टी हाउस ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कश्मीर टी हाउस।)

?अभी अभी # 687 ⇒ ☕कश्मीर टी हाउस 🍵 श्री प्रदीप शर्मा  ?

हम तो नहा धो भी लिए, और अचानक पता चला, आज तो चाय दिवस है। वह भी कोई छोटा मोटा चाय दिवस नहीं, अंतरराष्ट्रीय चाय दिवस। तो इस अवसर पर तो आज G 7 में भी Tea सेवन ही हो रहा होगा और उसकी अध्यक्षता और कोई नहीं हमारे बहुचर्चित चाय पुरुष नरेंद्र भाई मोदी ही कर रहे होंगे। वाघ बकरी चाय के लिए भी आज का यह दिन कितना शुभ होगा। एक चाय वाला, चाय दिवस पर चाय की टेबल पर अपने हाथों से चाय पिलाकर वाघ और बकरी के बीच शांति वार्ता के जरिए सुलह करवाकर ही मानेगा।

चाय दिवस पर यह कश्मीर टी हाउस का शीर्षक मैने यूं ही नहीं दे दिया।

मेरे शहर में कभी जहां प्रकाश टाकीज था, वहीं उसके पास एक होटल भी थी, जिसका नाम कश्मीर टी हाउस था। वह कप और प्याली में चाय नहीं देता था, छोटे कांच के ग्लास में चाय भरकर देता था। पहले ग्लास में थोड़ा दूध डालकर रखता था और उसके बाद उस ग्लास में केतली से खौलती चाय भरता था। कश्मीर की चाय तो खैर हमने कभी पी नहीं, लेकिन लोगों को कश्मीर टी हाउस की चाय बहुत पसंद थी।।

इंदौर वैसे तो आज भी चाय का गढ़ है, एक समय वह भी था, जब इस शहर में २४ घंटे गर्म चाय पोहे होटलों में उपलब्ध होते थे। वह समय तब का था, जब शहर के सभी दो दर्जन सिनेमाघर अपने शबाब पर रहते थे। सुबह से ही सिने और पोस्टर प्रेमी सिनेमाघरों के आसपास मधु मक्खी जैसे मंडराया करते थे तो कुछ एडवांस बुकिंग की लाइन में खड़े होकर हाउस फुल फिल्म के टिकट पहले से ही खरीदकर ब्लैक में टिकट बेच अपना पेट पालते थे। कुछ लोग केवल पोस्टर देखकर ही तसल्ली कर लिया करते थे।

फिल्मों के अलावा होटल और चाय पोहे की सबसे अधिक खपत मिल मजदूरों की होती थी। कितनी टेक्सटाइल मिल्स थी इंदौर में। अगर उंगलियों पर गिनें तो, हुकुमचंद, राजकुमार, भंडारी, मालवा, स्वदेशी और कल्याण। मजदूरों का शहर था इंदौर और यहां सभी कॉटन किंग रहते थे। महाराजा तुकोजीराव के नाम से एम टी क्लॉथ मार्केट आज भी कपड़ा व्यवसाय की जान है।।

वहीं आसपास कांच महल और शीश महल, बड़ा और छोटा सराफा, बोहरा बाजार, मारोठिया बाजार, सांटा बाजार, बर्तन बाजार, खजूरी बाजार और नया और जूना राजवाड़ा। जी हां, जूना तो अभी भी पूरे मध्यप्रदेश का गौरव है, लेकिन नए को भूल जाइए।

अब आप सोच लीजिए, तब रात दिन कितनी रौनक रहती होती होगी, खाने पीने की और चाय नाश्ते की। रेलवे स्टेशन हो, सरवटे बस स्टैंड हो, अथवा सियागंज क्रॉसिंग, सब जगह होटलें ही होटलें, चाय, चाय और चाय।।

राजवाड़े के सामने शिमला और राज होटल थी, जिनमें शटर ही नहीं थे। पास में ही एक और कोहिनूर होटल थी। सुबह मिल के सायरन बजते ही सड़कों पर साइकिल सवार नज़र आ जाते थे। जो थोड़ा जल्दी निकलते थे, रास्ते

में ही चाय के एक कप की ताजगी लेकर मिल में प्रवेश करते थे। रात की मिल की आखरी पाली और सिनेमा का आखरी शो खत्म होने के बाद ही, केवल कुछ घंटों के लिए ही इंदौर शहर सो पाता था।

वह यह चाय की ही शक्ति थी, जो इंदौर को 24 घंटे तरो ताजा रखती थी।

चाय के अपने अपने अड्डे थे, अपना अपना स्वाद था। जनता चाय, समाजवादी चाय, क्रांतिवादी चाय और नमकीन चाय। चार आने की कट चाय अलका टाकीज के सामने। सब आज सपना नजर आता है। जहां कभी जेल रोड पर प्रशांत होटल थी, आज वह पूरा एरिया नॉवेल्टी मार्केट बन चुका है।।

चाय के शौकीन आज भी हैं। एक इंदौरी को किसी भी समय उठाकर चाय की दावत दी जा सकती है। आज ना सही, लेकिन कभी भी किसी भी समय, आप हमारे घर चाय के लिए सादर आमंत्रित हैं। जो नटे, उसका पुण्य घटे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनिर्णय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – अनिर्णय ? ?

यहाँ से रास्ता दायें, बायें और सामने, तीन दिशाओं में बँटता था। राह से अनभिज्ञ दोनों पथिकों के लिए कठिन था कि कौनसी डगर चुनें। कुछ समय किंकर्तव्यविमूढ़-से ठिठके रहे दोनों।

फिर एक मुड़ गया बायें और चल पड़ा। बहुत दूर तक चलने के बाद उसे समझ में आया कि यह भूलभुलैया है। रास्ता कहीं नहीं जाता। घूम फिरकर एक ही बिंदु पर लौट आता है। बायें आने का, गलत दिशा चुनने का दुख हुआ उसे। वह फिर चल पड़ा तिराहे की ओर, जहाँ से यात्रा आरंभ की थी।

इस बार तिराहे से उसने दाहिने हाथ जानेवाला रास्ता चुना। आगे उसका क्या हुआ, यह तो पता नहीं पर दूसरा पथिक अब तक तिराहे पर खड़ा है वैसा ही किंकर्तव्यविमूढ़, राह कौनसी जाऊँ का संभ्रम लिए।

लेखक ने लिखा, ‘गलत निर्णय, मनुष्य की ऊर्जा और समय का बड़े पैमाने पर नाश करता है। तब भी गलत निर्णय को सुधारा जा सकता है पर अनिर्णय मनुष्य के जीवन का ही नाश कर डालता है। मन का संभ्रम, तन को जकड़ लेता है। तन-मन का साझा पक्षाघात असाध्य होता है।’

?

© संजय भारद्वाज  

(प्रातः 5:50 बजे, 20 मई 2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्री महावीर साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र दी जवेगी।आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ जन्मदिवस विशेष – व्यंग्य लेखन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले व्यंग्यकार थे शरद जोशी ☆ श्री यशवंत गोरे ☆

श्री यशवंत गोरे

(सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार एवं लेखक श्री यशवंत गोरे जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। 37 वर्ष तक भारतीय स्टेट बैंक में सेवा देने के बाद अधिकारी पद से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन  शैक्षणिक समय से लेखन में रूचि सबसे पहला लेख योजना आयोग की पत्रिका ‘योजना’ हिंदी में 1979 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद विभिन्न समाचार पत्रों में नईदुनिया, दैनिक भास्कर, जनसत्ता , फ्री प्रेस जर्नल, नवीन सोच अदि समाचार पत्रों में समसामयिक विषयों एवं समस्याओं पर टिप्पणियां प्रकाशित हुई है। सेवानिवृति पश्चात् व्यंग्य लेखन। देश के विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं यथा सुबह-सवेरे , नईदुनिया , जनसंदेश टाइम्स , जनसत्ता , जनवाणी , अमृत-दर्शन , इंदौर समाचार एवं न्यूयार्क से प्रकाशित साप्ताहिक ” हम हिंदुस्तानी। आज प्रस्तुत है स्व शरद जोशी जी के जन्मदिवस पर आपका विशेष आलेख “व्यंग्य लेखन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले व्यंग्यकार थे शरद जोशी “।)

? जन्मदिवस विशेष – व्यंग्य लेखन में अपनी अलग पहचान बनाने वाले व्यंग्यकार थे शरद जोशी ? श्री यशवंत गोरे ?

(21 मई को जन्मदिन पर विशेष ) 

हिन्दी साहित्य जगत में अपने व्यंग्य लेखों के कारण प्रसिद्ध साहित्यकार, कवि ‘ शरद जोशी का आज – दिनांक 21 मई को जन्मदिन है , आपका जन्म मध्य प्रदेश के ही उज्जैन जिले में सन 1931 में हुआ था जोशी जी का परिवार एक कर्मठ एवं कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार था। बचपन में शरद जी को ‘ बच्चू ‘ नाम से पुकारा जाता था। शरद जोशी जी का परिवार मूल रूप से गुजरात का रहने वाला था जो मालवा क्षेत्र के उज्जैन में में आकर बस गया था। आपके पिताजी श्रीनिवास जोशी, माताजी शांति जोशी जो बहुत ही धार्मिक संस्कारों वाली महिला थी। शरद जी के पिता मध्य प्रदेश राज्य परिवहन निगम में एक छोटी सी नौकरी डिपो मैनेजर के पद पर कार्यरत थे। निगम की तबादला नीति के कारण उनका तबादला प्रदेश के विभिन्न शहरों में होता रहता था। इस कारण शरद जी का बचपन – महु, उज्जैन, नीमच, देवास, गुना जैसे शहरों में बीता। शरद जी का अपनी मां से बहुत लगाव था उनका तपेदिक से अल्पायु में ही निधन हो गया, तपेदिक उस समय एक असाध्य रोग था। माताजी के निधन से शरद जी बहुत निराश और उदास रहने लगे। इस संकट की घड़ी में उनके कुछ मित्रों ने उन्हें संभाला।

शरद जी की प्रारंभिक शिक्षा उज्जैन में हुई बाद में आपने इंदौर के होलकर महाविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। शरद जी को स्कूली जीवन से ही लिखने का शौक लग गया था। उनके लेख पत्र -पत्रिकाओं में छपना शुरू हो गए थे ,इससे उन्हें कुछ आमदनी भी होने लगी थी। अपनी उच्च शिक्षा का खर्च उन्होंने अपने लेखों से प्राप्त पैसों से ही पूरा किया।

वर्ष 1955 में दौरान शरद जी ने आकाशवाणी इंदौर में पांडुलिपि लेखक के रूप में काम शुरू किया। इसके बाद मध्य प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में ‘ जनसम्पर्क अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे , लेकिन एक ही स्थान पर – एक ही जैसा काम करना उनके स्वभाव में नहीं था सो उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी , और स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने लगे।

सामान्य शारीरिक कद काठी वाले शरद जी को उनकी विशिष्ट दार्शनिकता, बौद्धिकता, व्यंगात्मक सोच , उन्हें एक अलग विलक्षण , अद्भुत व्यक्तित्व प्रदान करती है , जो एक साधारण होते हुए भी असाधारण व्यक्तित्व थे, वे अपने मित्रों के मित्र, साहित्यकारों में साहित्यकार बन जाते थे।

एक कट्टर ब्राह्मण- धार्मिक परिवार के होने के बावजूद उन्होंने एक मुस्लिम लड़की ‘ इरफाना ‘ से प्रेम विवाह किया था, ये विवाह उनके प्रगतिशील विचारवान व्यक्तित्व की एक बड़ी पहचान है, उनकी पत्नी ने भी उनका हमेशा साथ दिया, अपने वैवाहिक जीवन में वो संतुष्ट और खुश रही। इस दम्पति की दो बेटियां है । नेहा शरद एक भारतीय टेलीविजन अभिनेत्री और कवयित्री हैं। उन्होंने टीवी शो में काम किया है, जिनमें तारा, वक्त की रफ्तार, ममता  गुमराह, ये दुनिया गजब की और फरमान शामिल हैं।

सन 1951 से अगले कई दशकों तक शरद जी की रचनाएं देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही, इंदौर के सुप्रसिद्ध समाचार पत्र ‘ नई दुनिया ‘ में सन 1951 से ‘ परिक्रमा ‘ नाम के स्तंभ में नियमित रूप से लिखना शुरू किया जबकि उस समय उनकी आयु थी 20 वर्ष थी। धीरे-धीरे उनकी पहचान पुरे देश में एक व्यंग्य लेखक के रूप में कायम हो गयी। 

आपकी कुछ व्यंग्य रचनाओं के प्रमुख संग्रह है – “परिक्रमा”, “जीप पर सवार इल्लियाँ”, “मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ”, “यथा संभव”, “हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे”, “जादू की सरकार”, “राग भोपाली”।  आपने ‘एक था गधा उर्फ अलादाद’ तथा ‘अंधो का हाथी’ व्यंग्य नाटक भी लिखे है। आपने फिल्मों के लिये भी लेखन कार्य किया है ये फिल्में है क्षितिज, छोटी सी बात, सांच को आंच नहीं, गोधूलि, दिल है के मानता नहीं, उत्सव आदि। 

टेलीविजन धारावाहिक- ये जो है जिन्दगी, विक्रम और बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, देवी जी, प्याले में तूफान, ये दुनिया गजब की, ये सब उनकी लेखनी का ही कमाल है।

उनके स्वर्गवास के बाद उनकी लिखी रचनाओं पर आधारित टेलीविजन धारावाहिक ‘ लापतागंज ‘ बहुत लोकप्रिय रहा है।

शरद जोशी जी ने भोपाल के समाचार पत्र ” दैनिक मध्य देश ‘ , मासिक पत्रिका ‘ नवल लेखन ‘ तथा मुम्बई के दैनिक ‘ हिन्दी एक्सप्रेस ‘ के संपादक का काम भी संभाला। अन्तिम कॉलम ‘प्रतिदिन’ नवभारत टाइम्स में लगातार 7 वर्षों तक छपा।आपको भारत सरकार द्वारा सन 1990 में ‘ पद्मश्री ‘ से अलंकृत किया गया है। वे सरकारी पुरस्कारों से बचते रहे। शरद जी पीएचडी. के घोर विरोधी रहे पर आज शरद के साहित्य पर कई पीएच.डी. हो गए है। निराला सृजन पीठ की निदेशक डा. साधना बलवटे जी ने शरद जी पर ही पीएचडी की है। शरद जोशी जी लगभग 25 वर्षों तक देश के बड़े कवि सम्मेलनों के स्टार कवि रहे है। जब उन्हें स्टेज पर बुलाया जाता था तब तक रात के दो बज चुके होते थे फिर भी उनको सुनने के लिए हजारों की संख्या में उपस्थित रहते थे।

5 सितम्बर 1991 को शरद जोशी जी उनकी साँस और कलम दोनों थम गई।

आदरणीय शरद जी को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने अपनी विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि वे “अपने समय के कबीर थे। शरद जोशी को मैं एक अत्यन्त संवेदनशील रचनाकार मानता हूँ, अपने समय की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों को उन्होंने अत्यन्त पैनी निगाह से देखा और उसे अत्यंत सटीक शब्दों में व्यक्त किया। उनकी रचनाओं को मैं अपने समय की विसंगतियों पर की गई निर्भीक टिप्पणियाँ मानता हूँ, वे अत्यन्त साहसी तथा द्वन्द -रहित रचनाकार थे, उनके सामने जीवन के उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट थे। अपने इस गुण के कारण वे सबके प्रिय लेखक बन गए थे। उनकी व्यंग्य रचनाएँ टूटते हुए जीवन मूल्यों के प्रति उनकी चिन्ता तथा छीना-झपटी और आडम्बर युक्त संस्कृति के प्रति उनके आक्रोश को अभिव्यक्ति करती है। जब तक रचनाकार अपने जीवन में ईमानदार नहीं होना, तब तक उसकी व्यंग्य रचनाओं में वह तीखापन नहीं आ सकता, जैसा की शरद जोशी की रचनाओं में था। छोटे-छोटे विषयों को भी अपनी स्याही का स्पर्श देकर बड़ा कर देने की गजब की चमत्कारिक शक्ति उनके पास थी। मैं समझता हूँ जोशी जी में जो वह लेखकीय संवेदना थी, सामाजिक प्रतिबद्धता थी तथा व्यवहार और विचारों का जो सामंजस्य था, वह हमारे देश के रचनाकारों के लिए एक अनुकरणीय बात है।”

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© श्री यशवंत गोरे

व्यंग्यकार एवं लेखक

संपर्क – 37 ,निखिल बंगलो , कुंजन नगर , फेस -2, नर्मदापुरम (होशंगाबाद) रोड़, भोपाल

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 686 ⇒ गाय और कुत्ता… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गाय और कुत्ता।)

?अभी अभी # 686 ⇒ गाय और कुत्ता ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहली रोटी गाय की और दूसरी कुत्ते की ! यह हमारी संस्कृति है कि घर पर आया कोई प्राणी कभी भूखा न जाए। पक्षियों को दाना पानी तो ठीक, चींटियों के भी भोजन की व्यवस्था ईश्वर हमारे द्वारा करवाता है। कर्ता तो वह बनता है, कर्म हमसे करवाता है।

अपने आपको पढ़ा लिखा समझदार समझने वाला आदमी कब से गाँव से शहर की ओर कूच कर चुका है। उसकी आगामी पीढ़ी उससे दो कदम आगे महानगर और विदेशों की ओर कदम बढ़ा चुकी है। गऊ माता को पीछे छोड़ वह कुत्ते को अपने ड्रॉइंग रूम तक लाने में सफल हो गया है। इंसान किसी भी नस्ल का हो, लेकिन उसका कुत्ता अच्छी नस्ल का होना चाहिए। ।

गाय को हमने माँ का दर्ज़ा तो दे दिया, पर गाय हमें नहीं पाल सकती, हमें ही गाय को पालना पड़ता है। माँ के दूध के पश्चात गाय का दूध ही अधिक पौष्टिक होता है, अतः गाय को भी माँ मानने में औचित्य नज़र आता है।

गाय की पूँछ पकड़ संसार रूपी वैतरणी पार की जा सकती है, गोलोक अथवा वैकुण्ठ में प्रवेश किया जा सकता है। जहाँ गाय है, वहाँ गोकुल है, गोप गोपियाँ, गोपाल है। दुःख है, आज गऊ माता या तो गौशाला में है, या फिर शहर बदर है। गाय की रोटी पर कुत्ते का वारिसाना हक़ है। ।

एक गाय आपको वैकुण्ठ में प्रवेश करवा सकती है, लेकिन एक कुत्ता आपका नमक खाकर केवल स्वामिभक्त ही बना रह सकता है। पूरे महाभारत में जिस कुत्ते का कहीं कोई पता नहीं, वह धर्मराज युधिष्ठिर के साथ सशरीर स्वर्ग सिधार गया। यह धर्मराज की महिमा है, उस कुत्ते की नहीं। ।

धार्मिक कथा-कहानियों में हमें विश्वास तो है, लेकिन हम इतने समझदार हो गए हैं कि सार सार को प्रसाद की तरह ग्रहण कर लेते हैं और थोथे को अफवाह की तरह उड़ा देते हैं। गाय को माँ मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं, लेकिन गाय को पालने की अपेक्षा हम गौशाला में चंदा देना अधिक उपयुक्त समझते हैं।

पालने की दृष्टि से हमें गाय की अपेक्षा कुत्ता अधिक रुचिकर लगता है। हम इतने लालची भी नहीं कि दूध और गोबर के लालच में माँ समान गाय को पालें। हम तो इतने निःस्वार्थी हैं कि उस कुत्ते को भी पाल लेते हैं जो दूध तो छोड़िए, गोबर तक नहीं देता। फिर भी कुत्ते को हम अपनी जान से भी ज़्यादा चाहते हैं। क्या भरोसा कभी ऐसा सुयोग भी आ जाए, कि धर्मराज की तरह कोई खुशनसीब कुत्ता हमारे साथ साथ स्वर्ग का भागी बन जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 132 – देश-परदेश – Neighbours Envy ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 132 ☆ देश-परदेश – Neighbours Envy ☆ श्री राकेश कुमार ☆

“दोस्त बदल सकते है लेकिन पड़ोसी नहीं” जैसे भी हैं, निभाना ही पड़ेगा। पड़ोसी धर्म जैसे सुविचार अब इतिहास बन चुका है। नैतिकता जैसे शब्द तो अब डिक्शनरी से हटाए जाने की चर्चा चल रही है।

पड़ोसी से विवाद का पहला चरण होता है, स्वतन्त्र घरों के सीमांकन को लेकर। प्रत्येक व्यक्ति समझता है, कि उसके पड़ोसी ने उसकी कुछ जमीन पर अनधिकृत कब्जा कर रखा हैं। कॉमन दीवार झगड़े की जड़ का काम करती है। दोनों को कॉमन दीवार से ज़मीन तो बचती ही है, साथ ही साथ खर्च भी सांझा हो जाता है। झगड़ा करने का कोई तो कारण होना ही चाहिए।

जो व्यक्ति पहले से रह रहा होता है, वो नए पड़ोसी पर आरंभ से ही हावी होने की तैयारी करने लगता है। सरकारी पानी को लेकर बूस्टर का उपयोग करना दूसरा बड़ा कारण है, विवाद के लिए।

बिजली की तार का यदि सांझा खंभा है, तो फिर क्या कहने, एक दूसरे के बिल में तांका झांकी शुरू हो जाती है। दोनों एक दूसरे को बिजली का बिल अधिक आने के लिए दोषी मानते है। ये नहीं पता दोनो परिवार ए सी का उपयोग चौबीस घंटे करते रहते हैं।

सामने की तरफ का खुला एरिया जिसमें गार्डन या गमले रखे जाते हैं, हवा चलने पर पत्ते   आदि उड़ने पर भी कोहराम मचता ही है।

सूर्य देवता का प्रकाश प्रतिदिन समय और थोड़ी सी दिशा में भी परिवर्तन के लिए पड़ोसी की दीवार, खिड़की आदि को बलि का बकरा बना दिया जाना एक आम बात हैं।

आप भी अपनी पुरानी रंजिशों/विवादों को याद करें, और मुस्कराए। हम तो आज अपने पड़ोसी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी में हैं। कल फिर पड़ोस पर भी चर्चा करेंगे।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 685 ⇒ राहगीर ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राहगीर ।)

?अभी अभी # 685 ⇒राहगीर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो रास्ते पर चले, उसे राही कहते हैं।

राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है, दुख तो अपना साथी है ;

राही तू मत रूक जाना, तूफां से मत घबराना। कभी तो मिलेगी, तेरी मंजिल, कहीं दूर गगन की छांव में ;

अक्सर राहगीर पैदल ही चलता है। उसकी यह यात्रा मुसाफिर भी बन जाती है, जब वह किसी वाहन का उपयोग यात्रा के लिए कर लेता है। साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक का पैसेंजर बन बैठता है वह। पदयात्रा की गिनती तो आजकल तप और रोमांच का प्रतीक बन गई है। भक्त गण नवरात्रि में, वारकरी संप्रदाय के लोग विट्ठल के अभंग गाते हुए पद यात्रा करते हैं तो श्रावण मास में कावड़िए भी शिवजी के अभिषेक का जल लिए कावड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। राजस्थान में यह भक्त समुदाय रामदेवरा और नाथद्वारा के श्रीनाथ जी की ओर उमड़ता हुआ देखा जा सकता है। लोकतंत्र में कभी पदयात्रा का उपयोग सत्याग्रह की तरह राजनीतिक हथियार की तरह भी प्रयुक्त होता था। अब जमांना ट्रैक्टर और ट्रॉली रैलियों का आ गया है। लोकतंत्र अब इतना पैदल भी नहीं रहा।

एक समय था, जब आज के इंदौर जैसा महानगर पूरी आसानी से पैदल नापा जा सकता था। लोग तीन चार किलोमीटर तक के लिए किसी वाहन का प्रयोग नहीं करते थे। जल्दी और दूरी के स्थान के लिए एकमात्र साइकिल ही विकल्प था। और वहां की खुद की नहीं, किसी किराए की साइकिल का ही उपयोग किया जाता था। काम हुआ और साइकिल सरेंडर। रात भर के कौन रुपया आठ आने एक्स्ट्रा दे। ।

शहर में इतनी होटलें, इतने बाजार और इतनी पान की दुकानें थीं, कि पैदल सड़क का रास्ता नापते ही नापते कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। ठंड के मौसम का इंदौर का रविवार तो खुली सड़क और खुले आसमान के हवाले ही कर दिया जाता था।

घर से निपट सुलझकर बिना नहाए ही पहले पास के किसी केश कर्तनालय के आइने में अपना चेहरा देख, कंघे से बाल ओंछकर तसल्ली कर लेते, मैं वही हूं। मास्टरजी, किती वेळ ?

मास्टरजी के मुंह में पहले से ही पान विराजमान। कितनी देर है मास्टर जी।

पान के छींटों के साथ जवाब आता, बस इनके बाद आपका ही समझो। आधा घंटा मान लो कम से कम। ।

घर केश कर्तनालय में एक अदद रेडियो होता था, और ग्राहकों के लिए एक सुषमा, सरिता मुक्ता युक्त, मनोरंजक पुस्तकालय के साथ ही मनोरंजन के किस्से भी होते थे। वे कभी कभी तो इतने रुचिकर होते थे, कि पु. ल.देशपांडे की याद दिला देते। केश कर्तनालय में कौन श्रोता और कौन वक्ता, कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता। इतने से माहौल में देश की सरकार हिल जाती, लेकिन तभी अचानक एक कुर्सी खाली हो जाती। कपड़े झटकते हुए, बालों को जिम्मेदारियों का बोझ झाड़ते हुए, वे कुर्सी की सत्ता और किसी को सौंप जाते और देश का लोकतंत्र बहाल हो जाता।

यह तो पैदल यात्रा की शुरुआत होती थी। जेलरोड पर प्रशांत के पोहे और सिख मोहल्ले में दामू अण्णा की कचौरी बड़ी बेसब्री से इंतजार में गर्म होती रहती थी। दो लोग हों तो बड़ा चाय का प्याला अन्यथा छोटा कप। ।

वहां से काफी हाउस कहां दूर ? दस कदम ही तो चलना है। कभी बुद्धिजीवियों का स्वर्ग था कॉफी हाउस, बुद्धू बक्से ने सब कबाड़ा कर दिया। आजकल तो कॉफी हाउस में भी एक टेबल से दूसरे टेबल पर व्हाट्सएप मैसेज ही भेजे जा रहे हैं। आदमी या तो खा रहा है, या फिर मोबाइल देख रहा है।

काफ़ी हाउस में घड़ी तब ही देखी जाती थी, जब बारह बजने का अंदेशा होता था। अरे सब्जी भी तो लेना है। थैला तो टिका दिया, अब टांगो सब्जी की थैली कंधे पर और चलो सब्जी मार्केट। जब तक घर पहुंचेंगे, और नहा धोकर फ्रेश होंगे, पेट में चूहे कूद रहे होंगे। पूरा दिन कैसे कट गया, सरे राह चलते चलते। थोड़ी सी आंख लग जाए तो शाम को परिवार के साथ अलका टाकीज में फिल्म देखी जाए, यहीं पास में ही तो है और मैनेजर भी अपने वाला ही है। ।

साहब तो दिन भर भटक लिए, एक राहगीर की तरह, अब तो बीवी और बच्चों की फरमाइश की शाम। रीगल में ही फिल्म देखेंगे और बाद में वोल्गा में छोटे भटूरे खाएंगे। बहुमत से स्वीकृति। संतुष्टि और थकान में जब रात्रिकालीन सभा समाप्त होती थी, तो राहगीर सोमवार को पुनः तरो ताज़ा होकर अपनी राह पर निकल पड़ता था।

लेकिन आज सड़कें खाली नहीं, फुटपाथ पर अतिक्रमण। पैदल आजकल उतना ही मजबूरी में चलता है, जितना गाड़ी पार्क करके चलना पड़ता है। किसी भी फंक्शन अथवा विवाह समारोह में जाना हो, तो गाड़ी कई किलोमीटर आगे पीछे पार्क करनी पड़ती है। पहले परिवार को गार्डन में छोड़ो, फिर पार्किंग के लिए सुरक्षित जगह ढूंढो। इतने में एक सज्जन गाड़ी निकालने में जब इनसे मदद मांगते हैं, तो इन्हें भी थोड़ी सी जगह की उम्मीद बन जाती है। भगवान सबका भला करे।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ || खोइछा || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव 

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।

☆ आलेख ☆ || खोइछा || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆

आखिर क्या है खोइछा ?

शादीशुदा बेटी को मायके से ससुराल जाने के समय मां या भाभी द्वारा एक पोटली में धान, चावल, जीरा, सिक्का, फूल, और हल्दी भरकर दी जाती है। इस सामग्री को ही खोइछा कहा जाता है। खोइछा को लेकर यह मान्यता है कि यह बेटी के  जीवन में सुख समृद्धि लेकर आता है

जब बेटी मायके छोड़कर जाती है तब उसके साथ होता है वह खोइछा ससुराल के आंगन में प्रवेश करने के बाद वह खोइछा बेटी अपनी ननद को दे देती है अब उस खोइछा पे ननद का अधिकार होता है

माँ के आंगन से ससुराल के आंगन तक पहुँचने के बाद खोइछा का अधिकार बेटी के ससुराल वाले का हो जाता है शायद इस बात पे किसी ने  ध्यान नही दिया है –

खैर मैं लिखतीं हूँ –

उन चावल के दानों में छुपा हुआ आता है पिता के संस्कार, उन हल्दी के गांठ में बंध के आता है माँ का वात्सल्य प्रेम, उन सिक्के पे दर्ज हुआ होता है भाई-बहन के नाज नखरे और उन दूभ में होता है एक संदेश कि बेटी तेरा आंगन बदल तो गया लेकिन दूभ की पवित्रता हमेशा बनाएं रखना और ससुराल के आंगन में सुख-समृद्धि के साथ फैल जाना बिलकुल अन्नपूर्णा के रूप में ।

अब आप ही बताईएगा –

जब माता -पिता ने इतने प्रेम से खोइछा दिया है बेटी को तो एक नव- बहू  भी अपने ससुराल में प्रेम से प्रवेश क्यों न करें

आखिर यह वात्सल्य प्रेम ही तो है खोइछा जो पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्री को समर्पित एवं समर्पण भाव की मौन शिक्षा पढ़ाती आ रही हैं बिलकुल माँ के वात्सल्य प्रेम के जैसा।

© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर, उत्तरप्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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