(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 330 ☆
व्यंग्य – गए थे कुंभ नहाने, मिल गई मोनालिसा… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
धन्य हैं वे श्रद्धालु जो कुंभ में गंगा दर्शन की जगह मोनालिसा की चितवन लीला की रील सत्संग में व्यस्त हैं. स्त्री की आंखों की गहरी झील में डूबना मानवीय फितरत है. मेनका मिल जाएं तो ऋषि मुनियों के तप भी भंग हो जाते हैं. हिंदी लोकोक्तियाँ और कहावतें बरसों के अध्ययन और जीवन दर्शन, मनोविज्ञान पर आधारित हैं. “आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ एक प्रचलित लोकोक्ति है. इसका अर्थ है कि किसी विशेष उद्देश्य से हटकर किसी अन्य कार्य में व्यस्त हो जाना. बड़े लक्ष्य तय करने के बाद छोटे-मोटे इतर कामों में भटक जाना”.
कुम्भ में इंदौर की जो मोनालिसा रुद्राक्ष और 108 मोतियों वाली जप मालाएं बेचती हैं उनकी मुस्कान से अधिक उनकी भूरी आंखों की चर्चा है. वे शालीन इंडियन ब्लैक ब्यूटी आइकन बन गई हैं. यह सब सोशल मीडिया का कमाल है. एक विदेशी युवती सौ रुपए लेकर कुंभ यात्रियों के साथ सेल्फी खिंचवा रही है. दिल्ली में वड़ा पाव बेचने वाली सोशल मीडिया से ऐसी वायरल हुई कि रियल्टी शो में पहुंच गई. मुंबई के फुटपाथ पर लता मंगेशकर की आवाज में गाने वाली सोशल मीडिया की कृपा से रातों रात स्टार बन गई. जाने कितने उदाहरण हैं सोशल मीडियाई ताकत के कुछ भले, कुछ बुरे. बेरोजगारी का हल सोशल इन्फ्लूएंसर बन कर यू ट्यूब और रील से कमाई है.
तो कुंभ में मिली मोनालिसा की भूरी चितवन इन दिनों मीडिया में है. यद्यपि इतालवी चित्रकार लियोनार्दो दा विंची की विश्व प्रसिद्ध पेंटिंग मोनालिसा स्मित मुस्कान के लिए सुप्रसिद्ध है. यह पेंटिंग 16वीं शताब्दी में बनाई गई थी. यह पेंटिंग फ़्लोरेंस के एक व्यापारी फ़्रांसेस्को देल जियोकॉन्डो की पत्नी लीज़ा घेरार्दिनी को मॉडल बनाकर की गई थी. यह सुप्रसिद्व पेंटिंग आजकल पेरिस के लूवर म्यूज़ियम में रखी हुई है. इस पेंटिंग को बनाने में लिओनार्दो दा विंची को 14 वर्ष लग गए थे. पेंटिंग में 30 से ज़्यादा ऑयल पेंट कलर लेयर्स है. इस पेंटिंग की स्मित मुस्कान ही इसकी विशेषता है. यूं भी कहा गया है कि अगर किसी परिस्थिति के लिए आपके पास सही शब्द न मिलें तो सिर्फ मुस्कुरा दीजिये, शब्द उलझा सकते है किन्तु मुस्कुराहट हमेशा काम कर जाती है.
तो अपना कहना है कि मुस्कराते रहिए. माला फ़ेरत युग गया, माया मिली न राम, कुंभ स्नान से अमरत्व मिले न मिले, पाप धुले न धुलें, किसे पता है. पर राम नामी माला खरीदिए, मोनालिसा के संग सेल्फी सत्संग कीजिए, इसमें त्वरित प्रसन्नता सुनिश्चित है. हमारे धार्मिक मेले, तीज त्यौहार और तीर्थ समाज के व्यवसायिक ताने बाने को लेकर भी तय किए गए हैं. आप भी कुंभ में डुबकी लगाएं.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 38 – निःशुल्क वस्तुओं का जाल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
आजकल भारत में एक नई संस्कृति प्रचलित हो गई है – ‘फ्रीबी कल्चर।’ जैसे ही चुनावों का मौसम आता है, नेता लोग निःशुल्क वस्तुओं का जाल बुनने लगते हैं। अब ये निःशुल्क वस्तुएँ क्या हैं? एकबारगी तो यह सुनकर आपको लगेगा कि ये किसी जादूगर की जादुई छड़ी का कमाल है, लेकिन असल में यह तो केवल राजनैतिक चालाकी है।
राजनीतिक पार्टी के नेता जब मंच पर चढ़ते हैं, तो उनका पहला वादा होता है: “आपको मुफ़्त में ये मिलेगा, वो मिलेगा।” जैसे कि कोई जादूगर हॉटकेक बांट रहा हो। सोचिए, अगर मुहावरे में कहें, तो “फ्री में बुरा नहीं है।” पर सवाल यह है कि ये निःशुल्क वस्तुएँ हमें कितनी आसानी से मिलेंगी?
एक बार मैंने अपने मित्र से पूछा, “तूने चुनावों में ये निःशुल्क वस्तुएँ ली हैं?” वह हंसते हुए बोला, “लेता क्यों नहीं, बही खाता है।” जैसे कि मुफ्त में लड्डू खाने के लिए किसी ने उसे आमंत्रित किया हो। उसकी बात सुनकर मुझे लगा, हम सभी मुफ्तखोर बन गए हैं।
फिर मैंने सोचा, आखिर ये नेता किस प्रकार का जादू कर रहे हैं? क्या ये सब्जियों की दुकान से खरीदकर ला रहे हैं या फिर फलों की टोकरी से निकालकर हमें थमा रहे हैं? नहीं, ये सब तो हमारे कर के पैसे से ही आता है। तो जब हम मुफ्त में कुछ लेते हैं, तो क्या हम अपने ही पैसों को वापस ले रहे हैं? यह एक प्रकार का आत्मा का हंसी मजाक है, जहां हम अपने ही जाल में फंसे हुए हैं।
और जब हम फ्रीबी की बात करते हैं, तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ये फ्रीबी कोई बिस्किट का पैकेट नहीं है, यह तो एक ऐसे लोन का जाल है, जिसका भुगतान हमें भविष्य में करना है। यह एक नारा है – “हम आपको देंगे, लेकिन इसके लिए आप हमें अपनी आवाज़ दें।” इसलिए, जब भी कोई निःशुल्क वस्तु मिलती है, हमें उस पर दो बार सोचना चाहिए।
आधुनिकता के इस दौर में, मुफ्त में चीजें लेना जैसे एक नया धर्म बन गया है। लोग अपनी गरिमा को भूलकर उन मुफ्त वस्तुओं की कतार में लग जाते हैं। और नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। वे यह सोचते हैं कि “अगर हम मुफ्त में कुछ देते हैं, तो हमें वोट मिलेंगे।” तो क्या हम अपनी आत्मा को बिकने के लिए तैयार कर रहे हैं? यह तो जैसे अपने घर की दीवारों को बेचने जैसा है।
इस फ्रीबी संस्कृति के चलते, हमने अपनी मेहनत की कीमत कम कर दी है। अब लोग काम करने के बजाय मुफ्त में चीजें पाने की तलाश में रहते हैं। और नेता? वे खुश हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम मुफ्त में चीजें लेकर खुश हैं। यह एक चक्रव्यूह है, जिसमें हम सभी फंसे हुए हैं।
मैंने तो सुना है कि कुछ जगहों पर लोग मुफ्त में शराब और सिगरेट भी पाने के लिए वोट देते हैं। तो क्या हम अपनी सेहत की भीख मांग रहे हैं? यह एक ऐसी स्थिति है, जहां हम अपने स्वास्थ्य का सौदा कर रहे हैं। हमें यह समझना चाहिए कि “फ्रीबी” का मतलब सिर्फ मुफ्त में चीजें लेना नहीं है, बल्कि यह हमारे भविष्य को दांव पर लगाना है।
और तो और, जब ये नेता अपने वादों को पूरा नहीं कर पाते, तो हमें याद दिलाते हैं कि “देखो, हमने तो फ्रीबी दी थी।” तो क्या यह हम पर निर्भर नहीं है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों? हमें अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी कि मुफ्त में मिले सामान का मतलब यह नहीं कि हमने अपनी आवाज़ बेच दी है।
अब सवाल यह उठता है कि क्या हमें फ्रीबी की संस्कृति को खत्म करना चाहिए? या फिर हमें अपनी सोच में बदलाव लाना होगा? हम केवल इसलिए मुफ्त में चीजें नहीं ले सकते क्योंकि यह हमें आसान लगती है। हमें अपने वोट की कीमत समझनी होगी और उसे केवल मुफ्त वस्तुओं के बदले नहीं बेचना चाहिए।
समाप्ति में, मैं यह कहूंगा कि फ्रीबी लेना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि यह एक सतत चक्र है। हमें अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी और अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना होगा। तब ही हम इस निःशुल्क वस्तुओं के जाल से बाहर निकल पाएंगे। और जब हम इस जाल से बाहर निकलेंगे, तब हम वास्तविकता का सामना कर पाएंगे। इसलिए, फ्रीबी को छोड़कर, अपने मेहनत के पैसे पर भरोसा करना ही बेहतर है।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – “इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 202 ☆
☆ व्यंग्य – इंटरनेट मीडिया पर जो छप जाए, वही है आज का ‘हरि’ ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग इंटरनेट मीडिया का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस इंटरनेट मीडिया में भी फेसबुक सबसे ज्यादा प्रचलित, लोकप्रिय और मोबाइल के कारण तो जेब-जेब तक पहुंचने वाला माध्यम हो गया है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।
उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्र-पत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर इंटरनेट मीडिया पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।
‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है। मगर उसकी चर्चा इंटरनेट मीडिया पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पोस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।
ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज पांच से सात घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकाना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है। कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वे छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकाना उन्हें नहीं आता है। वे इंटरनेट मीडिया से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है। जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।
तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर
लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा इंटरनेट मीडिया पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।
चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में इंटरनेट मीडिया पर बने रहते हैं।
ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।
पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है, जितनी रचना छप जाती है। उसे इंटरनेट मीडिया पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।
छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं, जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।
कहने का तात्पर्य यह है कि इंटरनेट मीडिया के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह इंटरनेट मीडिया पर अपना ‘फेस’ चमकते रहते हैं।
इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘परमलाल की पाप-मुक्ति‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 274 ☆
☆ व्यंग्य ☆ परमलाल की पाप-मुक्ति ☆
परमलाल की ज़िन्दगी घोर गरीबी में गुज़री। छोटे-मोटे अपराध करके ज़िन्दगी को ढकेलना नियति बना रहा। पढ़ने-लिखने का कोई वातावरण नहीं रहा। नतीजतन कल की समस्या हमेशा सामने खड़ी रही।
बड़ा होने पर बड़े अपराधियों का संग मिला। आसानी से बड़ी कमाई करने का वही ज़रिया दिखा। चोरी, सेंधमारी, सड़क पर छीन-झपट करने लगा। किस्मत अच्छी थी कि कभी पकड़ा नहीं गया।
हिम्मत बढ़ी तो एक दिन दो साथियों के साथ एक एटीएम मशीन तोड़ने में लग गया। तभी किसी ने पुलिस को सूचित कर दिया और तीनों धर लिये गये। तीन महीने बाद तीनों ज़मानत पर छूटे, लेकिन तब से पुलिस की नज़र उनकी गतिविधियों पर रहती है। हर हफ्ते थाने में हाज़िरी देनी पड़ती है। ज़िन्दगी मुश्किल हो गयी है।
इसी बीच महाकुंभ का हल्ला मचा। टीवी पर कुंभ में इकट्ठे जनसमूह की तस्वीरें दिन रात चलने लगीं। परमलाल के घर में छोटा टीवी था। उसी में वे रंग बिरंगे चित्र चलते रहते। परमलाल आंखें फाड़े उन दृश्यों को देखता रहता।
फिर एक दिन एक धर्माचार्य आये। उन्होंने बताया कि कुंभ में गंगा-स्नान से अनेकों जन्म के पाप धुल जाते हैं। परमलाल चमत्कृत हुआ। तुरन्त तैयारी करके प्रयागराज पहुंच गया। रात को एक चाय वाले की खुशामद करके उसकी दूकान में सोया। सवेरे स्नान किया। प्रमाण के तौर पर वहां उपस्थित लोगों की मदद से रील भी बना ली। और भी प्रमाण संभाल कर रख लिये। फिर खुश खुश घर लौटा।
कुंभ से लौटकर सीधा अपने वकील के पास पहुंचा। बोला, ‘वकील साहब, मैं कुंभ स्नान कर आया। ये सारे सबूत हैं। अब मेरे सारे पाप धुल गये। अब आप अदालत में अर्जी लगा दें कि मेरा केस खारिज करके मुझे बरी कर दिया जाए। अब आगे कोई पाप नहीं करूंगा।’
तब से वह वकील साहब के चक्कर काट रहा है और वकील साहब उससे पीछा छुड़ाते फिर रहे हैं।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 37 – नेताओं का संकल्प और जनता का विकल्प ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गांव का नाम था आशावादीपुर, जहां हर चार साल में उम्मीदें हवा में तैरतीं, और ज़मीन पर गिरते ही चकनाचूर हो जातीं। इस बार का चुनावी माहौल बड़ा ही गरमागरम था। प्रत्याशी धर्मपाल वर्मा, जो हर बार अपने वादों से गांववालों को चकाचौंध कर देते थे, इस बार फिर तैयार थे। उनके प्रमुख वादे—”हर घर में इंटरनेट, हर हाथ में टैबलेट, और हर गली में डामर की सड़क।”
सभा में, धर्मपाल वर्मा की आवाज़ गूंज रही थी, “भाइयों और बहनों, मैंने जो कहा, वो करके दिखाया। पिछली बार मैंने वादा किया था कि हर खेत तक पानी पहुंचेगा। पानी पहुंचा ना?”
पीछे से एक बूढ़े किसान ने खांसते हुए कहा, “हां, पानी पहुंचा था, लेकिन ट्यूबवेल के पाइप में, वो भी चुनाव के आखिरी दिन तक।”
सभा में तालियां और ठहाके गूंज उठे। धर्मपाल जी मुस्कुराए, “सिर्फ आलोचना से काम नहीं चलेगा। इस बार मैं गारंटी देता हूं कि आपकी गली चमचमाती सड़कों से भरी होगी।”
गांव के एक युवा, शंभू, जो हमेशा धर्मपाल जी के भाषणों में चाय बेचता था, इस बार एक सवाल लेकर खड़ा हो गया, “साहब, आपके भाषण में जो सड़कें हैं, वो हमारे गांव में क्यों नहीं दिखतीं? क्या वो भाषण में ही बनती हैं?”
धर्मपाल जी ने अपने रुमाल से पसीना पोछा और जवाब दिया, “सड़कें बन रही हैं, बेटा। देखना, अगली बार जब मैं आऊंगा, तो मेरी गाड़ी से धूल नहीं उड़ेगी।”
चुनाव नज़दीक था, और वादों की बारिश हो रही थी। “हर गरीब को पक्का मकान देंगे, हर बच्चे को शिक्षा मुफ्त। बिजली चौबीस घंटे और पानी सातों दिन!”
गांववाले मन ही मन बोले, “अगर ये सब होगा, तो फिर ‘आशावादीपुर’ को ‘सपनों का शहर’ बना दिया जाएगा।”
धर्मपाल जी जीत गए। गांववालों ने मिठाई खाई, और फिर भूले नहीं, बल्कि सपनों को धूल खाते देखा। चुनाव के अगले दिन ही बिजली की लाइन काट दी गई। “सरकारी काम में थोड़ी देरी होती है,” अधिकारी ने कहा। सड़कें बनीं, लेकिन बारिश में बह गईं। पक्के मकान आए, लेकिन दीवारों पर दरारें थीं। हर हाथ में टैबलेट की जगह, हर हाथ में बिल थमा दिया गया।
धर्मपाल जी पांच साल बाद फिर लौटे। इस बार उनके वादे और बड़े थे। “इस बार हर घर में हवाई जहाज और हर खेत में ड्रोन से सिंचाई!”
गांववालों ने ठहाका लगाया, “साहब, सड़कें तो पहले बनवा दीजिए, ड्रोन बाद में चलाएंगे।”
सभा खत्म हुई, धर्मपाल जी गाड़ी में बैठे, और गाड़ी के ड्राइवर ने धीरे से कहा, “साहब, गाड़ी का टायर इस सड़क पर फिर फंस गया।” धर्मपाल जी चुपचाप आसमान की ओर देखने लगे।
गांववाले अब जानते थे कि वादे सिर्फ वादे हैं। लेकिन एक नई पीढ़ी तैयार हो रही थी, जो सवाल पूछने लगी थी। धर्मपाल जी इस बदलाव से घबरा गए। और गांव ने तय किया, “अब चुनाव में कोई वादा नहीं, सिर्फ काम पर वोट मिलेगा।”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – “एक धांसू व्यंग्य की रचना… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 329 ☆
व्यंग्य – एक धांसू व्यंग्य की रचना… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
क्या बात है आज बड़े प्रसन्न लग रहे हैं. घर पहुंचते ही पत्नी ने उलाहना देते स्वर में उनसे पूछा.मनोभाव छिपाते हुये वे बोले, कुछ तो नही. मैं तो सदा खुश ही रहता हूं. खुश रहने से पाजीटिवीटी आती है. व्यंग्यकार जी ने व्हाट्सअप ज्ञान बघारते हुये जबाब दिया. पर मन ही मन उन्होंने स्वीकार किया कि सच है इन पत्नियों की आंखो में एक्स रे मशीन फिट होती है. ये हाव भाव से ही दिल का हाल ताड़ लेती हैं. इतना ही नही पत्नी की पीठ भी आपकी ओर हो तो भी वे समझ लेती हैं कि आप क्या देख सुन और कर रहे होंगे. बिना बातें सुने केवल मोबाईल के काल लाग देखकर ही उन्हें आधे से ज्यादा बातें समझ आ जाती हैं. पत्नी के सिक्स्थ सेंस को व्यंग्यकार जी ने मन ही मन नमन किया और अपनी स्टडी टेबल पर जा बैठे. बगीचे के ओर की खिड़की खोली और आसमान निहारते हुये एक धांसू फोड़ू व्यंग्य रचना लिखने का ताना बाना बुनने लगे.
दरअसल व्यंग्यकार जी को देश के श्रेष्ठ १०१ रचनाकारों वाली किताब के लिये व्यंग्य लिखने का मौका मिल रहा था. वे इस प्रोजेक्ट में अपनी सहभागिता को लेकर मन ही मन खुशी से फूले नही समा रहे थे. उन्होंने तय किया था कि इस किताब के लिये वे एक चिर प्रासंगिक व्यंग्य की रचना करेंगे. कुछ शाश्वत लिखने के प्रति वे आश्वस्त थे. उन्होंने अपनी कलम चूम ली. जब चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी अपनी तीन कहानियों से हिन्दी साहित्य में अमरत्व प्राप्त कर चुके हैं, फिर वे तो आये दिन लिख ही नही रहे छप भी रहे हैं.पर अखबारो में छपने और जिल्द बंद किताब में छपने का अंतर वे खूब समझते हैं इसलिये व्यंग्यकार जी अपने ज्ञान और व्यंग्य कौशल से कुछ जोरदार धारदार ऐसा लिखने का प्लान बना रहे थे जो हरिशंकर परसाई जी के लेखो की तरह हर पाठक की पसंद बन सके. जिसे शरद जी के प्रतिदिन की तरह शारदेय कृपा मिल सके.
व्यंग्यकार जी की पहली समस्या थी कि व्यंग्य किस विषय पर लिखा जाये, जो एवर ग्रीन हो लांग लास्टिंग हो सीधे सीधे कहें तो आज रात एक धांसू व्यंग्य की रचना कर डालना उनका टारगेट था ? व्यंग्यकार जी अच्छी तरह जानते थे कि शाश्वत मूल्यो वाली रचना वही हो सकती है, जिसमें व्यंग्यकार जन पीड़ा के साथ खड़ा हो. ए सी कमरे में रिवाल्विंग चेयर पर बैठ आम आदमी की तकलीफों को महसूसना सरल काम नही होता. काफी पीते हुये सिगरेट के कश से मूड बनाकर व्यंग्यकार जी शाश्वत टापिक ढ़ूंढ़ने लगे. सोचा कि अखबारी खबरों की मदद ली जाये, पर तुरंत ही उन्हें ध्यान आया कि व्यंग्य गुरू ने कल ही एक चर्चा में कहा था कि खबरो पर लिखे व्यंग्य अखबार की ही तरह जल्दी ही रद्दी में तब्दील हो जाते हैं. मूड नही बन पा रहा था सो उन्होनें स्मार्ट टीवी का रिमोट दबा दिया, शायद किसी वेब सिरीज से कोई प्लाट मिल जाये, पर हर सिरीज में मारधाड़ और अश्लीलता ही मिली. उन्होने सोचा वे इतना फूहड़ नही लिख सकते.
अनायास उनका ध्यान व्यंग्य के साथ जुड़े दूसरे शब्द ” हास्य ” की ओर गया. हाँ, मुझे हास्य पर ही कुछ लिखना चाहिये उन्होंने मन बनाया. हंसी ही तो है जो आज सबके जीवन से विलुप्त हो रही है. वे भीतर ही भीतर बुदबुदाये हंसी तो हृदय की भाषा है दूध पीता बच्चा भी माँ के चेहरे पर हास्य के भाव पढ़ लेता है. वे व्यंग्य तो लिख लेते हैं पर क्या वे हास्य भी उसी दक्षता से लिख पायेंगे, उन्होने स्वयं से सवाल किया. उन्होंने कामेडी शो से कुछ गुदगुदाता टाइटिल उठाने का मन बना लिया. फेमस कामेडी शो का चैनल दबाया, पर वहां तो भांडगिरी चल रही थी. पुरुष स्त्री बने हुये थे, जिनकी मटरगश्ती पर जबरदस्ती हंसने के लिये भारी पेमेंट पर सेलीब्रिटी को चैनल ने सोफा नशीन किया हुआ था. बात व्यंग्यकार जी की ग्रेविटी के स्तर की नही थी. और आज उन्होने तय किया था कि वे एंवई कुछ भी बिलो स्टैंडर्ड नही लिखेंगे. लिहाजा अपने लेखन में वे कोई काम्प्रोमाइस नही कर सकते थे, मामला जम नही रहा था.
तभी पत्नी ने फ्रूट प्लेट के साथ स्टडी रूम में प्रवेश किया, मुस्कराते हुये बोली किस उधेड़बुन में हो. उन्होनें अपनी उलझन बता ही दी कि वे कुछ झकास व्यंग्य लिखना चाहते हैं. पत्नी ने भी पूरी संजीदगी से साथ दिया बोली देखिये, व्यंग्य वही हिट होता है, जिसमें भरपूर पंच लाईनें हों. फिर अपनी बात एक्सप्लेन करते हुये बोली, पंच लाईने तो समझते ही हैं आप. साहित्यिक ढ़ंग से कहें तो जैसे कबीर के दोहे या सीधे सीधे रोजमर्रा की बातों में कहूं तो वे ताने यानी व्यंग्यबाण जिनसे सासें अपनी बहुओ को बेधकर बेवजह बुरा बनती हैं. उन्हें गुस्सा आ गया वे स्थापित व्यंग्यकार हैं और पत्नी उन्हें व्यंग्य में पंच लाईनो का महत्व बता रही है, वे तुनककर अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिये बोले अरे तुम तो रचना के विन्यास की बात कर रही हो इधर मैं सब्जेक्ट सर्च कर रहा हूं.
पत्नी ने चुटकियो में प्राब्लम साल्व करते हुये कहा तो ऐसा कहिये न. सुनिये व्यंग्य वही फिट होता है जो कमजोर के पक्ष में लिखा जाये. फिर उसने समझाते हुये बात बढ़ाई, वो अपन खाटू श्याम के दर्शन के लिये गये थे न. वे ही खाटू श्याम जो हमेशा हारते का सहारा होते हैं , व्यंग्यकार को भी हमेशा ताकतवर से टक्कर लेते हुये कमजोर के पक्ष में लिखना चाहिये.पत्नी की बात में दम था. एक बार फिर व्यंयकार जी पत्नियों के सामान्य ज्ञान के कायल हो गये. यूं ही नही हर पत्नी चाहे जब ठोंककर कह देती है, “मैं तो पहले ही जानती थी “. पर उन्होनें रौब जमाते हुये कहा, यार तुम भटक रही हो, मेरी समस्या व्यंग्य की नही टापिक को लेकर है. एक बार यूनिवर्सल टापिक डिसाइड हो जाये फिर तो मैं खटाखट कंटेट लिख डालूंगा.तुम तो देखती ही हो मैं कितने फटाफट धाकड़ सा व्यंग्य लिख लेता हूं. इधर घटना घटी नही कि मेरा व्यंग्य तैयार हो जाता है और अगली सुबह ही अखबारो में छपा मिलता है. फिर उन्हें व्यंग्य लेखन और प्रकाशन कि इस सुपर फास्ट गति से तेज एनकाउंटर की याद हो आई, जिसमें अपराधी के पकड़ आने पर उनका व्यंग्य संपादक के मेल बाक्स में पहुंच पाता इससे पहले ही एनकाउंटर हो गया और व्यंग्य की भ्रूण हत्या हो गई.
वे बोले, मुझे ऐसा सब्जेक्ट चाहिये, जो हिट हो और सबके लिये सदा के लिये फिट हो. अच्छा तो मतलब आप बच्चा होने से पहले ही उसका नाम तय करने को कह रहे हैं, पत्नी ने कहा. कुछ सोचते हुये वह बोली, चलिये कोई बात नही, चुनावों पर लिख डालिये इतने सारे चुनाव होते रहते हैं देश विदेश में जब भी चुनाव होंगें, आपका व्यंग्य सामयिक हो जायेगा. नहीं, नहीं, चुनावों पर बहुत लिखा जा चुका है. उन्होने तर्क दिया. हम्मम, कुछ सोचते हुये पत्नी बोली हिंदू मुस्लिम पर लिखिये, साल दो साल में दंगे फसाद होते ही रहते हैं, आपका व्यंग्य चकाचक बना रहेगा. अरे भाई मैं सरकारी अफसर हूं, और उससे भी पहले एक भारतीय मैं कोई सांप्रदायिक बात नही लिखना चाहता, व्यंग्यकार जी का जबाब तर्कसंगत था. पत्नी ने सुझाया, अच्छा तो भ्रष्टाचार पर लिखिये, जब तक लेन देन रहेगा, कमीशन रहेगा, घोटाले रहेंगें, आपका व्यंग्य रहेगा. उन्होने बात काटते हुये कहा नहीं. कहने तो लोग यह भी कहते थे कि “जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू”. लालू को मैनेजमेंट पर व्याख्यान के लिये हावर्ड बुलाया जाता था, पर देखा न तुमने कि लालू किस तरह जेल में है, मैं ऐसे मैटर पर जोरदार, असरदार, लगातार बार बार पढ़ा जाने वाला व्यंग्य भला कैसे लिख सकता हूं, अब डिजिटल पेमेंट का जमाना है, अब जल्दी ही कमीशन और परसेंटेज गुजरे जमाने की बातें हो जायेंगे. पत्नी को व्यंग्यकार जी का यह आशावाद यथार्थ से बहुत परे लग रहा था, पर फिर भी उसने बहस करना उचित नही समझा और अपने हर सजेशन के रिजेक्शन से ऊबते हुये टरकाने के लिये सुझाया कि आप कोरोना पर लिख डालिये. व्यंग्यकार जी ने भी चिढ़ते हुये प्रत्युतर दिया, हाँ इधर कोरोना की वैक्सीन बनी और उधर मेरा व्यंग्य गया पानी में. मैने कहा न कि मैं कुछ धांसू व्यंग्य लिखना चाहता हूं जो फार एवर रहे. मेरा मतलब है जैसे तुम्हारे चढ़ाव के कंगन, पत्नी के खनकते कंगनो को देखते हुये व्यंग्यकार जी उसकी काम की भाषा में बोले. पत्नी ने भी तुरंत बाउंड्री पर कैच लपका, बोली ये आपने अच्छी बात कही.सुनिये सोना बहुत मंहगा हो रहा है, एक सैट ले लीजीये, बेटे के चढ़ाव में काम आयेगा इसी बहाने बचत हो जायेगी. आपका व्यंग्य रहे न रहे पर मेरा कंगन पुश्तैनी है, यह शाश्वत है, यह हमेशा रहेगा. व्यंग्यकार जी को भी समझ आया कि सोना शाश्वत है, और वे एक धांसू व्यंग्य की रचना का सपना देखने सोने चले गये.
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 36 – “अंतिम सम्मान: समय से परे ज्ञान की कहानी” ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
बुढ़ापा क्या है? एक ऐसा संतत्व जो बिना पूजा, बिना माला, और बिना शांति के थमा दिया जाता है। और इसके साथ मिलता है एक गिफ्ट पैक—उम्मीदों का, तानों का और एक अजीब सा सम्मान जो तंग करता है। ऐसे ही हमारे नायक, 82 साल के जगन्नाथ शर्मा, कानपुर वाले, इस अनचाहे संतत्व के शिकार बन गए।
जगन्नाथ जी का जीवन एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बीतता था—उनका राजसिंहासन। उनका साम्राज्य? एक दो कमरे का फ्लैट, जहां तीन पीढ़ियां एक साथ रहती थीं, लेकिन किसी को उनसे मतलब नहीं था। “दादा जी तो घर का फर्नीचर हैं,” ये सबने मान लिया था।
“बुजुर्गों को सबसे अच्छा तोहफा क्या दे सकते हो? अपनी गैर-मौजूदगी,” उनका पोता, केशव, अक्सर कहा करता था। वो यह कहता हुआ अपने फोन पर ऐसे व्यस्त रहता जैसे प्रधानमंत्री कार्यालय से सीधा आदेश आ रहा हो। “बुजुर्ग तो पूजनीय होते हैं, लेकिन नेटफ्लिक्स भी तो ज़रूरी है,” केशव ने अपना तर्क पूरा किया।
जगन्नाथ जी की कहानी अनोखी नहीं थी। ये एक ऐसा राष्ट्रीय खजाना है जिसे हम सब छुपा कर रखते हैं। जहाँ वेद कहते हैं कि बुजुर्ग भगवान के समान होते हैं, वहीँ आधुनिक परिवार उनकी पूजा योग की तरह करते हैं—कभी-कभार और इंस्टाग्राम पर दिखाने के लिए। उनके बेटे प्रकाश शर्मा, जो ‘पारिवारिक मूल्यों’ पर बड़े-बड़े भाषण देते थे, ने अपने पिता को बचा हुआ खाना और बेपरवाही के साथ जीवन जीने की परंपरा दी थी। “पापा, आदर दिल से होता है, कामों से नहीं। और मेरा दिल साफ है,” प्रकाश ने कहा।
भारतीय संस्कृति संयुक्त परिवारों पर गर्व करती है। ये गर्व अक्सर शादी में भाषणों के रूप में दिखता है, जबकि दादा-दादी को बच्चों के साथ छोड़ दिया जाता है जो उन्हें चलती-फिरती मूर्ति समझते हैं। “दादा जी ताजमहल की तरह हैं,” केशव की छोटी बहन रिया ने कहा। “खूबसूरत, लेकिन दूर से देखने में ही अच्छे लगते हैं।”
एक दिन परिवार ने “वृद्ध दिवस” मनाने की योजना बनाई। योजना क्या थी? जगन्नाथ जी की सलाह को अनसुना करना, उन्हें मसालेदार खाना खिलाना जो उनके पेट के लिए ज़हर था, और सोशल मीडिया पर दिल छू लेने वाले कैप्शन डालना। “हैशटैग ग्रैटीट्यूड,” रिया ने लिखा, जगन्नाथ जी की एक फोटो के साथ जिसमें वो एक प्लेट छोले को देखते हुए उलझन में थे।
प्रकाश ने “त्याग” पर भाषण दिया, लेकिन उस त्याग का ज़िक्र नहीं किया जब उन्होंने जगन्नाथ जी की पुश्तैनी ज़मीन बेच दी थी। “परिवार ही सब कुछ है,” प्रकाश ने जोड़ा, वकील का मैसेज इग्नोर करते हुए जो उनके पिता की पेंशन के केस के बारे में था।
पड़ोसी भी आए। “बुजुर्ग अनमोल होते हैं,” गुप्ता जी ने कहा, जो खुद अपने पिता को वृद्धाश्रम भेजने की गूगल सर्च कर रहे थे। “उनकी बुद्धि तो अनमोल है,” गुप्ता आंटी ने जोड़ा, जो जगन्नाथ जी को पार्क की बेंच से हटाने की शिकायत कर चुकी थीं।
दिन के अंत में, उन्होंने एक तोहफा दिया—ब्लूटूथ हियरिंग ऐड। “तकनीक सब कुछ आसान कर देती है,” केशव ने कहा, जब उनके दादा उसे चालू करने की कोशिश में लगे हुए थे।
सब्र का बांध तब टूटा जब उन्होंने एक केक लाया—जो लाठी के आकार का था। “दादा जी, काटिए!” रिया ने खुशी-खुशी कहा। “क्या शानदार लमहा है,” गुप्ता आंटी ने कहा, केक के साथ सेल्फी लेते हुए, जिसमें उन्होंने जगन्नाथ जी को क्रॉप कर दिया।
जगन्नाथ जी उठ खड़े हुए, ये अपने आप में एक चमत्कार था। “बस बहुत हुआ!” वे चिड़चिड़े हो उठे। “आप लोग मेरा सम्मान वैसे ही करते हैं जैसे ट्रैफिक सिग्नल का—सिर्फ तब, जब पुलिस वाला देख रहा हो!”
परिवार स्तब्ध था। दादा जी ने शायद पहली बार अपने मन की बात कही थी। “आप लोग कहते हैं मैं समझदार हूं, लेकिन रिमोट तक देने में विश्वास नहीं रखते।”
जगन्नाथ जी की ये बातें पड़ोस के व्हाट्सएप ग्रुप पर वायरल हो गईं। उनका नाम पड़ गया—”विप्लवी दादा”। “सच्चे इंसान हैं,” गुप्ता जी ने लिखा, और फिर ग्रुप म्यूट कर दिया। प्रकाश ने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर जोड़ लिया, “महापुरुष का बेटा।”
जगन्नाथ जी को आखिरकार शांति अकेलेपन में मिली। “बुढ़ापा एक तोहफा है,” उन्होंने कहा। “लेकिन इस परिवार में, ये बस री-गिफ्टिंग जैसा है।”
और इस तरह, जगन्नाथ शर्मा की कहानी हमें याद दिलाती है कि आदर, चाय की तरह है—गर्म और बिना बनावट के होना चाहिए। लेकिन भारत में बुढ़ापा? वो हमेशा एक आशीर्वाद और एक मजाक के बीच झूलता रहेगा।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 327 ☆
व्यंग्य – मेड, इन इंडिया… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
मेड के बिना घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो जाती हैं.
मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.
विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना पीरियड ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.
मेरे एक मित्र तो बहू बेटे को अमेरिका से अपने पास बुलाना ज्यादा पसंद करते हैं, स्वयं वहां जाने की अपेक्षा, क्योंकि यहां जैसे मेड वाले आराम वहां कहां ? बर्तन, कपड़े धोने सुखाने की मशीन हैं जरूर पर मशीन में कपड़े बर्तन डालने निकालने तो पड़ते ही हैं। पराठे रोटी बने बनाए भले मिल जाएं पैकेट बंद पर सारा खाना खुद बनाना होता है। यहां के ठाठ अलग हैं कि चाय भी पलंग पर नसीब हो जाती है मेड के भरोसे । इसीलिए मेड के नखरे उठाने में मैडम जी समझौते कर लेती हैं।
सेल्फ सर्विस वाले अमरीका में होटलों में हमारे यहां की तरह कुनकुने पानी के फिंगर बाउल में नींबू डालकर हाथ धोना नसीब नहीं, वहां तो कैचप, साल्ट और स्पून तक खुद उठा कर लेना पड़ता है और वेस्ट बिन में खुद ही प्लेट डिस्पोज करनी पड़ती है । मेड की लक्जरी भारत की गरीबी और आबादी के चलते ही नसीब है । मेड इन इंडिया, कपड़े धोने सुखाने प्रेस करने, खाना बनाने से लेकर बर्तन धोने, घर की साफ सफाई, झाड़ू पोंछा फटका का उद्योग है, जिसके चलते रहने से ही साहब साहब हैं और मैडम मैडम । इसलिए मेड, इन इंडिया खूब फले फूले, मोस्ट अनार्गजाइज्ड किंतु वेल मैनेज्ड सेक्टर है मेड, इन इंडिया।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘दो हैसियतों का किस्सा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 272 ☆
☆ व्यंग्य ☆ दो हैसियतों का किस्सा ☆
बब्बन भाई पुराने नेता हैं। राजनीति के सभी तरह के खेलों में माहिर। लेकिन इस बार वे विवाद में पड़ कर सुर्खियों में आ गये। बात यह हुई कि अपनी जाति के एक सम्मेलन में जोशीला भाषण दे आये कि हमें अपनी जाति की रक्षा करना चाहिए, अपनी जाति के अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए, हमारी जाति का गौरवशाली इतिहास है, हमारी जाति की जानबूझकर उपेक्षा की जा रही है।
अखबारों ने उनके भाषण को उछाल दिया और उनकी लानत-मलामत शुरू कर दी कि बब्बन भाई जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता ने अपनी जाति की वकालत क्यों की। विरोधियों को मौका मिल गया। उन्होंने वक्तव्य दे दिया कि बब्बन भाई जातिवादी, संकीर्ण विचारों वाले हैं और कहा कि वे अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करें।
इसी हल्ले-गुल्ले की पृष्ठभूमि में मैं बब्बन भाई के दर्शनार्थ गया। बब्बन भाई उस वक्त कुछ खिन्न मुद्रा में तख्त पर मसनद के सहारे अधलेटे थे। सामने मेज़ पर पानदान था और उसकी बगल में दो टोपियां तहायी रखी थीं— एक सफेद और दूसरी पीली।
मैंने उनके बारे में उठे विवाद का ज़िक्र किया तो बब्बन भाई कुछ दुखी भाव से बोले, ‘दरअसल बंधुवर, इस प्रकार के विवाद नासमझी से पैदा होते हैं। अखबार वाले यह नहीं समझते कि आदमी की दो हैसियत होती हैं, एक उसकी निजी हैसियत और दूसरी सामाजिक या सार्वजनिक हैसियत। अब मैं सार्वजनिक जीवन में आ गया तो इसका मतलब यह तो नहीं है कि मेरी निजी हैसियत खत्म हो गयी। यही नासमझी सारे विवाद की जड़ में है।’
मैंने कहा, ‘लेकिन बब्बन भाई, क्या निजी हैसियत और सामाजिक हैसियत अलग-अलग हो सकती है?’
बब्बन भाई आश्चर्य से बोले, ‘क्यों नहीं हो सकती भाई? मैं एक जाति, धर्म में पैदा हुआ। मैंने जाति, धर्म को चुना तो है नहीं। तो जन्म के कारण मेरी धार्मिक, जातिगत हैसियत तो अपने आप बन गयी न? और जब हैसियत बन गयी तो धर्म से, जाति से अलग कैसे रहूंगा भला?’
मैंने कहा, ‘लेकिन आपकी पार्टी तो धर्मनिरपेक्ष और जातिवाद के खिलाफ होने की घोषणा करती है।’
बब्बन भाई मसनद पर मुट्ठी पटक कर बोले, ‘मैं भी वही मानता हूं, एकदम सौ प्रतिशत ।लेकिन सार्वजनिक हैसियत में। सार्वजनिक हैसियत में तो मैं पार्टी के सिद्धान्तों से टस से मस नहीं होता। आपने अभी पंद्रह दिन पहले राजनगर में दिये गये मेरे भाषण की रिपोर्ट नहीं पढ़ी?’
मैंने कहा, ‘बब्बन भाई, यह तो भारी घालमेल है। एक ही शरीर में दो आत्माएं कैसे रहती हैं?’
बब्बन भाई जैसे आहत हो गये, बोले, ‘भैया, कूवत हो तो दो क्या पच्चीस आत्माएं रह सकती हैं। अब आप न समझ सको तो मेरा क्या दोष?’
फिर बोले, ‘वैसे आप जैसे कनफ्यूज़्ड लोगों को समझाने के लिए मैंने रास्ता निकाल लिया है।’
वे उन दो टोपियों की तरफ इशारा करके बोले, ‘ये टोपियां देख रहे हैं न? इनमें से सफेद टोपी मेरी सार्वजनिक हैसियत की टोपी है और पीली टोपी निजी हैसियत की। जब मेरा दृष्टिकोण व्यापक, मानवीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय होता है तब मैं सफेद टोपी लगाता हूं। तब धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक-सामाजिक समानता और राष्ट्रीय हितों पर ऐसा भाषण देता हूं कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
‘जब जाति और धर्म की भावना ठाठें मारने लगती है, समानता राष्ट्रीयता की बातें मूर्खता लगने लगती हैं, दूसरे धर्म और दूसरी जातियां अपने खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं, तब पीली टोपी लगा लेता हूं। तब जाति और धर्म पर प्राण न्यौछावर करने की बात करता हूं। उस दिन मैं अपनी जाति की सभा में पीली टोपी लगाये था, लेकिन अखबार वालों ने जबरदस्ती बदनाम कर दिया।’
मैंने कहा, ‘ये तो जैकिल और हाइड वाली कहानी हो गयी।’
बब्बन भाई बोले, ‘ जैकिल और हाइड वाली कहानी कहां हुई,भाई?जैकिल तो दवा पीकर हाइड बनता था। हमारे दोनों रूप तो हमारे जन्म और हमारे सेवा-भाव से पैदा हुए हैं। फिर हाइड तो जैकिल की दुष्ट आत्मा थी। मेरे तो दोनों ही रूप शुभ हैं— एक राष्ट्र के लिए तो दूसरा धर्म और जाति के लिए।’
मैंने कहा, ‘कई बार जाति और धर्म का हित राष्ट्र के खिलाफ चला जाता है।’
वे बोले, ‘बकवास है। यह सब तुम जैसे लोगों के दिमाग का फितूर है। जब समूह का भला होगा तो राष्ट्र का भी भला होगा।’
मैंने कहा, ‘लेकिन विभिन्न समूहों में आपस में विरोध हो तो?’
बब्बन भाई बोले, ‘तो जो समूह ताकतवर हो उसका भला होना चाहिए। इसी में राष्ट्र का हित है। सरकार को भी ऐसे ही समूह का साथ देना चाहिए।’
मैंने कहा, ‘छोटी जातियों के बारे में आपका विचार क्या है?’
बब्बन भाई बोले, ‘सार्वजनिक हैसियत से बोलूं या निजी हैसियत से?’
मैंने कहा, ‘पहले सार्वजनिक हैसियत में बोलिए।’
उन्होंने झट से सफेद टोपी पहन ली और गंभीर मुद्रा बनाकर एक सुर में शुरू हो गये — ‘नीची जातियों का उत्थान हमारा कर्तव्य है। नीची जातियों ने सदियों अपमान और तकलीफ की जिन्दगी गुजारी है। हमारा कर्तव्य है कि उन्हें सुविधाएं देकर राष्ट्र की मुख्यधारा में लायें और अपने पूर्वजों की गलतियों का प्रायश्चित करें। हमें गांधी बाबा के दिखाये रास्ते पर चलना है और इस काम में कोई विरोध हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।’
मैंने कहा, ‘अब निजी हैसियत से हो जाए।’
उन्होंने फौरन सफेद टोपी उतार कर पीली टोपी पहन ली। टोपी पहनने के साथ उनकी भवें तन गयीं और स्वर ऊंचा हो गया। गरज कर बोले, ‘ये छोटी जातियां जो हैं, हमारे सिर पर बैठ गयी हैं। ये हमारी सरकार की गलत नीतियों का परिणाम है। आदमी की श्रेष्ठता जन्म से भगवान निश्चित कर देता है। जो श्रेष्ठ है वही श्रेष्ठ रहना चाहिए, उसमें सरकारी हस्तक्षेप महापाप है। पांचों उंगलियां बराबर नहीं होतीं, इसी तरह आदमियों में भी अन्तर अनिवार्य है। सभी उच्च जातियों को चाहिए कि एक होकर अपनी श्रेष्ठता और पवित्रता की रक्षा करें और सरकार पर दबाव डालें कि जो व्यवस्था सनातन काल से चली आयी है उसमें बेमतलब हेरफेर करने की कोशिश न करे।’
वे एकदम से चुप हो गये जैसे चाबी खतम हो गयी हो।
मैंने कहा, ‘कमाल है, बब्बन भाई। आपसे तो गिरगिट भी मात खा गया। धन्य हैं आप।’
बब्बन भाई कुछ लज्जित होकर बोले, ‘मजाक छोड़िए। कम से कम आपको यकीन तो हुआ कि आदमी की निजी और सामाजिक हैसियत अलग-अलग हो सकती है।’
आठ दिन बाद सुना कि एक सभा में भाषण देते बब्बन भाई पर विरोधियों ने हमला बोल दिया। उनकी खासी धुनाई हो गयी। देखने गया तो वे जगह जगह पट्टियां बांधे लेटे थे। चेहरा सूजा था।
मैंने पूछा, ‘किस हैसियत से पिटे, बब्बन भाई?’
बब्बन भाई कराह कर बोले, ‘यह भी कोई पूछने की बात है? सार्वजनिक हैसियत में पिटा। मंच पर राजनीतिक भाषण दे रहा था। सफेद टोपी पहने था।’
मैंने कहा, ‘निजी हैसियत में पिटना कौन सा होता है?’
बब्बन भाई आंखें मींचे हुए बोले, ‘जब जमीन-जायदाद, चोरी-चकारी, बलात्कार के मामले में पिटाई हो तो वह निजी हैसियत में पिटना होता है।’
मैंने कहा, ‘रुकिए, बब्बन भाई, अभी आपकी तकलीफ दूर करता हूं।’
मैंने उन्हें पीली टोपी पहना दी, कहा, ‘मैंने आपकी हैसियत बदल दी है। अब आपकी तकलीफ कम हो जाएगी।’
बब्बन भाई ने नाराज़ होकर टोपी उतार फेंकी। बोले, ‘तकलीफ की भी कोई हैसियत होती है क्या? टोपी बदलने से क्या तकलीफ चली जाएगी? मसखरी करने के लिए यही वक्त मिला था तुम्हें?’
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 35 – पंचायत की पगड़ी और पिज्जा का मोल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गाँव हरिपुर में पंचायत का बड़ा आयोजन था। ऐसा कहा जा रहा था कि इस बार ‘विकास’ नामक अमूल्य वस्तु का वितरण होगा। विकास वही जादुई चीज थी, जिसे नेता जी चुनावों के दौरान दिखाते थे लेकिन बाद में वो कहीं गुम हो जाती थी। पंचायत भवन पर बैनर लगा था – “हरिपुर: आधुनिकता की ओर पहला कदम।”
सभा शुरू हुई। नेता जी आए, हाथ जोड़कर मुस्कुराए और बोले, “गाँववालों, इस बार हमने विकास का पूरा खाका तैयार किया है।” फिर वे चुप हो गए, मानो खाका दिखाना भूल गए हों। तभी पीछे से चौधरी रामलाल खड़े हुए और बोले, “नेता जी, खाका तो दिखाइए!”
नेता जी झेंप गए। बोले, “खाका अभी प्रक्रिया में है। लेकिन विकास के लिए हमने दो योजनाएँ बनाई हैं। पहली योजना है ‘हर घर पिज्जा योजना’।”
गाँववालों की आँखें चमक उठीं। पिज्जा का नाम सुनते ही बच्चा-बूढ़ा सब खुश हो गए। किसी ने पूछा, “पिज्जा का क्या मतलब है?”
नेता जी ने समझाया, “पिज्जा का मतलब है बदलाव। बदलाव का स्वाद, जिसे हर घर तक पहुँचाया जाएगा।”
सभा में तालियाँ गूँज उठीं।
दूसरी योजना थी – ‘गड्ढों में गगनचुंबी सपने।’ नेता जी ने कहा, “हम सड़कों पर गड्ढे नहीं भरेंगे। गड्ढे हमारे इतिहास की धरोहर हैं। लेकिन हर गड्ढे के बगल में एक ‘स्वप्न-झूला’ लगाएँगे।”
गाँववालों को समझ नहीं आया कि यह स्वप्न-झूला क्या है। नेता जी ने बताया, “जब आप झूले पर बैठेंगे, तो आपको ऐसा लगेगा कि आप किसी मेट्रो सिटी की सड़क पर चल रहे हैं। यह झूला सस्ती दरों पर किराए पर मिलेगा।”
सभा में हलचल मच गई। लोग आपस में कानाफूसी करने लगे। लेकिन कोई खुलकर विरोध नहीं कर पाया, क्योंकि विरोध करने वाले को नेता जी के चमचों से तुरंत ‘अविकसित’ घोषित कर दिया जाता था।
सभा के अंत में विकास का प्रतीक – ‘पिज्जा बॉक्स’ – हर सरपंच को सौंपा गया। यह पिज्जा बॉक्स असल में खाली था। नेता जी ने मुस्कुराकर कहा, “यह खाली बॉक्स हमारे सपनों का प्रतीक है। आप इसे अपने घर सजाकर रखिए, ताकि हर दिन आपको विकास की याद आए।”
सभा खत्म हुई। पंचायत भवन के बाहर चाय-पकौड़े की दुकान पर लोग चर्चा कर रहे थे।
“ये विकास का पिज्जा तो बड़ा स्वादिष्ट है। न खाने को कुछ और न शिकायत करने का मौका!” रामलाल बोले।
चायवाले ने हँसकर कहा, “गाँव का विकास अब पिज्जा के बक्सों में सिमट गया है। और वो झूले, वो तो बस हवा में सपने देखने का एक और बहाना है।”
नेता जी अपनी गाड़ी में बैठे, हाथ हिलाते हुए बोले, “गाँववालों, अगले चुनाव में मिलते हैं। तब तक झूलते रहिए और पिज्जा का मज़ा लेते रहिए।”
और इस तरह हरिपुर का आधुनिकता की ओर पहला कदम हवा में लटका रह गया।