हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 292 ☆ व्यंग्य ☆ एक अक्लमन्द बाप ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक बेहतरीन व्यंग्य – ‘एक अक्लमन्द बाप‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 292 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक अक्लमन्द बाप

छन्नूलाल अपने युवा बेटे महेश को हमेशा ऐसे पुलक कर देखते थे जैसे कोई सूदखोर अपनी रकम को बढ़ते देखता है। वे लड़के को मुग्ध भाव से निहारते रहते थे। लड़का नौकरी पर लग गया है। कोई तगड़ा लड़की वाला मिल जाए तो दस बीस लाख पक्के। पुत्र को जन्म देने का पुरस्कार मिले।

मुश्किल यही थी कि लड़का उनकी बात नहीं सुनता था। वे अपनी तरफ से हमेशा उसे नसीहत देते रहते थे— ‘बेटा, चार पैसे ऊपर के कमाओ। सच्चाई, ईमानदारी से इस महंगाई के जमाने में काम नहीं चलता। लक्ष्मी अपने आप नहीं आती। उसे थोड़ा फुसलाना पड़ता है।’

कभी नसीहत देते, ‘बेटा, यार-दोस्तों पर ज्यादा खर्च मत किया करो। आज के जमाने में पैसे से बढ़कर कोई सच्चा यार नहीं है। बाकी सब यार मतलब के होते हैं।’

महेश उनकी बात सुनकर झल्ला पड़ता है। कहता है, ‘आप ये ऊटपटांग बातें अपने पास रखो। हमें जो ठीक लगेगा, करेंगे।’

छन्नूलाल खून का घूंट पीकर रह जाते हैं। आज के ज़माने की औलाद को समझाना बहुत मुश्किल है। अकल की बात भी कांटे जैसी लगती है।

लड़की वाले आने लगे हैं। उनके आते ही छन्नूलाल ऐसे अकड़ कर बैठ जाते हैं जैसे किसी मुल्क के सुल्तान हों। मुंह टेढ़ा करके खिड़की की तरफ देखते हुए बातें करते हैं, जैसे किसी प्रेत से वार्तालाप कर रहे हों। सीधे पूछते हैं, ‘कितना खर्चा करेंगे आप?’ वह दस पन्द्रह लाख बताता है तो छन्नूलाल खिड़की की तरफ देखते हुए व्यंग्य से हंसना शुरू कर देते हैं और आधे मिनट तक हिनहिनाते रहते हैं। सामने बैठा आदमी छोटा होता जाता है।

हंसी रूकती है तो छन्नूलाल खिड़की को संबोधित करके कहते हैं, ‘दस पंद्रह लाख में तो कोई चपरासी मिलेगा। यहां तो चालीस पचास लाख वाले रोज चक्कर लगा रहे हैं।’

कुछ मोटी पार्टियां सचमुच चक्कर लगा रही हैं। छन्नूलाल को विश्वास है कि अच्छे फायदे में सौदा पट जाएगा। डर यही है कि कहीं लड़का नखरे न दिखाने लगे।

बुरे लक्षण प्रकट होने लगे। एक दिन महेश आकर कह गया, ‘बाबूजी, सुना है आप मेरी शादी तय कर रहे हैं। मुझे अभी शादी नहीं करनी है। जब करना होगी, बता दूंगा।’

छन्नूलाल खौंखिया कर बोले, ‘तो क्या बुढ़ापे में करोगे?’

महेश बोला, ‘कभी भी करूं। जब करना होगी, आपको बता देंगे।’

छन्नूलाल ने अपने तरकश से पुराने पारंपरिक तीर निकाले। बोले, ‘मां-बाप होने के नाते हमारा धरम बनता है कि तुम्हारी शादी कर दें, इसलिए देख रहे हैं, नहीं तो हमें क्या। फिर बहू आ जाएगी तो तुम्हारी अम्मां को थोड़ा आराम मिल जाएगा। नाती पोते हों तो घर में अच्छा लगेगा।’

महेश ने उनके दांव को काट दिया। कहा, ‘घर में इतना काम नहीं है जिसके लिए अम्मां को परेशानी होती हो। इतनी जल्दी काहे की पड़ी है?’

छन्नूलाल का दिल बैठ गया। लगा, लक्ष्मी दरवाजे पर दस्तक देते देते ‘टाटा’ कहने लगी है। भुन कर बोले, ‘बड़े हो गये हो न, इसलिए बाप की बात बेवकूफ़ी लगती है। जो जी में आये, करो।’

फिर भी उन्होंने आस नहीं छोड़ी। पत्नी को ड्यूटी पर लगा दिया कि रोज़ बेटे को सीधे या संकेतों से बहू की ज़रूरत की याद दिलाती रहे।

लेकिन एक दिन छन्नूलाल पर वज्रपात हो गया। महेश एक दिन माला-वाला पहने एक लड़की को साथ लेकर आ गया। लड़की की मांग में दगदगाता सिन्दूर। मां-बाप के पांव छूकर बोला, ‘बाबूजी, हमें आशीर्वाद दीजिए। हमने शादी कर ली है।’

छन्नूलाल की ज़ुबान को लकवा लग गया। यह कौन से जन्मों के पापों की सज़ा मिली? बीस लाख हवा में तैरकर विलीन होते दिखे। तमतमाये चेहरे से चिल्लाये, ‘कपूत, तेरी हिम्मत कैसे हुई इस लड़की के साथ घर में घुसने की? निकल बाहर।’

उनकी पत्नी ने उन्हें रोका, लेकिन वे उन्माद की हालत में थे। बेटे ने भारी चोट दी थी। बर्दाश्त से बाहर। पत्नी से डपट कर बोले, ‘तुम्हें उनकी तरफदारी करनी है तो तुम भी घर से निकल जाओ।’

पत्नी चुप हो गयी। महेश अपनी पत्नी को साथ लेकर घर से बाहर निकल गया।

छन्नूलाल दिन रात घर में फनफनाते घूमते थे। भूख, नींद सब गायब। पत्नी की लायी थाली को उठाकर फेंक देते। कहते, ‘ऐसी औलाद से तो  बेऔलाद अच्छे होते।’

पत्नी भी दुखी बैठी रहती।

आठ दस दिन बाद पत्नी ने बगावत कर दी। बोली, ‘अब बुढ़ापे में ज्यादा नखरे मत करो। लड़के ने शादी ही की है, कोई हत्या नहीं की है। या तो उन्हें बुलाकर लाओ, नहीं तो मैं उनके पास चली जाती हूं। तुम यहां अकेले पड़े रहना।’

छन्नूलाल चिल्लाये, ‘हां निकलो बाहर। इसी वक्त निकलो।’

पत्नी भी अपनी ओटली- पोटली लेकर चली गयी। छन्नूलाल के लिए घर भूतों का डेरा हो गया। दिन भर खटिया पर मरे से पड़े रहते। रात को करवटें बदल बदल कर चिल्लाते, ‘हे राम, उठा लो।’

पड़ोसियों की नींद हराम होती। भुनभुनाते, ‘यह ससुरा जान खाये लेता है। रात भर सियार की तरह हुआता है।’

ऐसे ही तीन चार रात वे ‘उठा लो’ ‘उठा लो’ चिल्लाते रहे। एक रात कुछ आहट से नींद खुली जो देखा अंगरखा-धोती धारी, सफेद लंबे केश और दाढ़ी वाला एक आदमी उनकी खाट की बगल में खड़ा रस्सी खोल रहा है। छन्नूलाल उठ कर बैठ गये। बोले, ‘कौन हो भैया? चोर वोर हो क्या? हम गरीब आदमी हैं। हमारे घर में कुछ नहीं मिलेगा।’

 

 

वह आदमी अपना काम करते हुए कुछ गुस्से से बोला, ‘हम यमदूत हैं। तुम्हें लेने आये हैं।’

छन्नूलाल का पसीना माथे से बह कर ठुड्ढी तक आया। बोले, ‘क्या हमारी उमर पूरी हो गयी भैया?’

यमदूत बोला, ‘उमर तो पूरी नहीं हुई थी, लेकिन तुमने चिल्ला चिल्ला कर यमराज का चैन हराम कर दिया। तुम्हारे लिए स्पेशल आर्डर निकला है।’

छन्नूलाल बोले, ‘मैं क्या चिल्लाता था भाई?’

यमदूत गुस्से में बोला, ‘रोज ‘उठा लो’ ‘उठा लो’ नहीं चिल्लाते थे? हमारा काम बढ़ा कर रख दिया। वैसइ क्या काम कम था?’

छन्नूलाल घबराये। बोले, ‘अरे भाई, मैं ‘उठा लो’ अपने लिए थोड़इ कहता था। मैंने ‘हमें उठा लो’ कब कहा?’

यमदूत हाथ रोक कर बोला, ‘तो किसके लिए कहते थे?’

छन्नूलाल बोले, ‘वह तो मैं अपने दफ्तर के जुनेजा साहब के लिए कहता था। रोज एक मीमो पकड़ा देते हैं। नाक में दम कर रखा है।’

यमदूत बोला, ‘हमें इस सबसे कोई मतलब नहीं है। यह सब वहीं चलकर बताना।’

छन्नूलाल हाथ जोड़कर आर्त स्वर में बोले, ‘अरे भैया, एक बार चोला छूट गया तो दुबारा उसमें घुसने को नहीं मिलेगा। लोग फौरन फूंक फांक कर बराबर कर देंगे। हमें माफ कर दो। अभी तो हमने पोते का मुंह नहीं देखा। अभी तो लड़के की शादी हुई है। ऐसे कठोर मत बनो।’

यमदूत कुछ द्रवित हुआ। बोला, ‘ठीक है, तो हम वहां जाकर बता देते हैं। अगर आर्डर कैंसिल हुआ तो ठीक, नहीं तो हम कल आकर तुम्हें ले जाएंगे। कल नहीं आये तो समझना कि आर्डर कैंसिल हो गया।’

छन्नूलाल हाथ जोड़कर बोले, ‘भैया, आप तो अपने डिपार्टमेंट में काफी सीनियर होंगे। थोड़ा हमारी सिफारिश कर देना। अब ऐसी गलती नहीं होगी। बाद में जब अपना टाइम आने पर हम आएंगे तो आपकी सेवा करेंगे।’

यमदूत ने व्यंग्य से हंसकर जवाब दिया, ‘आप वहां क्या सेवा करोगे। वहां तो हमीं आपकी सेवा करेंगे।’

छन्नूलाल के लिए रात गुज़ारना मुश्किल हो गया। राम राम करते सवेरा हुआ। सवेरा होते ही भाग कर बेटे के घर पहुंचे। पत्नी उन्हें देखकर प्रसन्न हुई। बोली, ‘आखिर अकल आ ही गयी।’

छन्नूलाल असली बात को दबा  गये। बोले, ‘हां, सोचा बेटा-बहू पर गुस्सा करने से क्या फायदा। घर में मन नहीं लगता। आज यहीं रहूंगा। कल सबको घर ले चलूंगा।’

बहू-बेटे ने उनकी खूब आवभगत की, लेकिन उन्हें चैन नहीं था। आने वाली रात उनके दिमाग पर सवार थी। दिन भर  चुपचाप खाट पर पड़े जेब में रखी माला सटकाते  रहे। शाम होते ही खाट पर पड़े रहना मुश्किल हो गया। बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगे।

रात बढ़ने के साथ उनकी हालत खराब हो रही थी। पसीना पोंछते पोंछते गमछा गीला हो गया। पत्ता भी खड़कता तो चौंक उठते। लगता बुलावा आ गया।

ऐसे ही काफी रात गुज़र गयी। तीन चार बजे सिकुड़कर खाट पर लेट गये।

आंख लग गयी। सपने में देखा, यमदूत रस्सी खोलता हुआ उनके सामने खड़ा है। कह रहा है,  ‘चलो, तुम्हारी अर्जी नामंजूर हो गयी।’

छन्नूलाल ने देखा कि वे भागे और दरवाज़े से टकराकर गिर गये। घबराहट में उनकी आंख खुल गयी। शरीर पसीने से लथपथ था।

आंखें घुमा कर देखा, खिड़की से धूप घुसपैठ कर रही थी और सामने बहू चाय की ट्रे लिये खड़ी थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

श्री तीरथ सिंह खरबंदा

(ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री तीरथ सिंह खरबंदाजी का हार्दिक स्वागत। आपने विधि विषय में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की है। व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सतत सक्रिय, विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन-प्रकाशन तथा हलफनामा, इक्कीसवीं सदी के अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार एवं हमारे समय के धनुर्धारी व्यंग्यकार, साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। वर्ष 2023 में पहला व्यंग्य संग्रह “सुना है आप बहुत उल्लू हैं” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2024 में दूसरा व्यंग्य संग्रह “झूठ टोपियाँ बदलता रहा” प्रकाशित हुआ। वर्ष 2022 में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा स्पंदन साहित्य सम्मानसंप्रति : इंदौर में विधि एवं साहित्य के क्षेत्र में सतत सक्रिय। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – मलिहाबाद की आमसभा।)

☆ व्यंग्य ☆ मलिहाबाद की आमसभा ☆ श्री तीरथ सिंह खरबंदा ☆

आज मलिहाबाद के आमबाग में पहली आमसभा होने जा रही थी। यह आमतौर पर होने वाली किसी नेता की आमसभा से अलग थी। सही अर्थों में यह एक अनूठी और सच्ची आमसभा थी। इस आमसभा की अध्यक्षता का दायित्व सहारनपुर से पधारे हाथीझूल आम के मजबूत कंधों पर डाला गया था। जिन्हें लोग प्यार से नूरजहां कहकर भी बुलाते थे। यह एक अकेला आम चार-पाँच किलो पर भी भारी था। अनूठे डील-डौल वाला उसका व्यक्तित्व अध्यक्ष पद के सर्वथा अनुकूल और प्रभावशाली था। मंचासीन, कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सिंदूरी आम मंच की शोभा बढ़ाने के साथ ही चर्चा का भी विषय बने हुए थे।

अध्यक्ष ने आमबाग की महती आमसभा को संबोधित करते हुए कहा – साथियों हम यह बात हमेशा याद रखें कि- हम सबकी, पहली और असली पहचान है कि हम सब आम हैं। हममें कोई भी खास नहीं है।

हमारी दूसरी असल पहचान है कि हम सब एक हड्डी से बने जीव हैं इन्सानों की रीढ़ से कहीं ज्यादा मजबूत हमारी एक ही हड्डी है। यदि हम गुणों की बात करें तो दुनिया में हमारा मीठापन हमारी मूल पहचान है। हम इस दुनिया में अपने गुणों के कारण ही जाने और पहचाने जाते हैं और इसी की बदौलत दुनिया में हमारा मान है।

यह हमारी पहली आमसभा है। अभी तक हमने इन्सानों की जनसभाओं के बारे में सुना था जिसे वे आमसभा कहते नहीं थकते हैं। दरअसल वे अभी तक हमारे नाम का दुरुपयोग कर लोगों को भ्रमित करते रहे हैं।

दुनिया भर में हमारी सैकड़ों जातियाँ-प्रजातियाँ पाई जाती हैं और पता नहीं कितनी ही जंगली और बीजू प्रजातियाँ भी हमारे वृहद परिवार का एक अटूट हिस्सा हैं। किन्तु हमें गर्व है कि हमारी अलग-अलग, जातियां-प्रजातियां होने के बावजूद हम सबकी राशि और गुण एक समान हैं। हम यूं ही फलों के राजा नहीं कहलाते हैं। हम हमारी मिठास और खुशबू के कारण दुनिया में जाने जाते हैं। हमारा इतिहास जितना पुराना है उससे कहीं ज्यादा वह मीठा और सरस है।

हमारे इस वृहद्द परिवार के कुछ सिद्धान्त हैं – पहला सिद्धान्त है कि हम रंगों के आधार पर आपस में कभी कोई भेदभाव नहीं करते हैं। जहां हरा रंग हमारी प्रथम पहचान है वहीं पीला, केसरिया और सिंदूरी रंग हमारे व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है। हमारे सारे रंग अपने गुणों में समाहित होकर एकरंग हो जाते हैं।

हमारा दूसरा सिद्धान्त है कि हम वर्ण भेद एवं नस्ल भेद में बिल्कुल विश्वास नहीं रखते हैं। क्षेत्रवाद शब्द हमारे शब्दकोश में नहीं है। हमारे बीच जो भी जातियाँ और प्रजातियाँ बनी हैं, वे सभी इन्सानों की बनाई हुई हैं। उन्होंने ही हमें अलग-अलग नाम दिए हैं। किन्तु याद रहे जन्म से हम सभी सिर्फ आम हैं और आम ही रहेंगे। हममें से कोई कभी भूलकर भी खास बनने का विचार नहीं करेगा।

आज की इस आमसभा में देश-दुनिया के अलग-अलग भागों से आए प्रतिनिधि बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं। आज हमारे बीच जापान से पधारे मियाजाकी जी एवं गुजरात से आए केसरिया जी की सुगंध सारे वातावरण को महका रही है। कुरनूल से बंगिनापल्ली, महाराष्ट्र से रत्नागिरि, बिहार से चौसा, कर्नाटक से रसपुरी, पश्चिम बंगाल एवं उड़ीसा के प्रतिनिधि हिमसागर, बिहार से मालदा, उत्तरप्रदेश से लंगड़ा एवं दशहरी, लखनऊ से सफेदा, के अलावा फजली, बंबई ग्रीन, नई पीढ़ी के मल्लिका, आम्रपाली, रत्ना, अर्का अरुण, अर्मा पुनीत, अर्का अनमोल, पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद की मशहूर किस्में किशन भोग, हिमसागर नवाबपसंद एवं बेगमपसंद भी इस सभा में शिरकत कर रहे हैं, अपने नाम से अंग्रेज़ियत की महक देने वाले अल्फ़ान्सो (हाफूस) रत्नागिरी महाराष्ट्र से आए एक कीमती आम हैं। दक्षिण भारत से पधारे लोकप्रिय तोतापुरी आम तोते जैसी चोंच के कारण अपनी अलग विशिष्ट पहचान रखते हैं। मंचासीन सिंदूरी जी अपने सौंदर्य के कारण अलग ही चमक रहे हैं। बादामी जी की सादगी देखते ही बनती है। इसके अलावा भी कई किस्में स्थानीय प्रतिनिधि के रूप में आज की आमसभा में शामिल हुई हैं।

हमारे सभी साथी अपनी अलग-अलग मौलिक पहचान रखते हुए भी आखिर में सभी सिर्फ आम हैं। आम ही हमारा धर्म है आम ही हमारा नाम है। हममें से हरेक का अपना स्वाद और अपनी फैन फॉलोइंग है। हम सब आपस में कजिंस हैं। हम आप सभी का खटमिट्ठा, रसभरा स्वागत करते हैं।

यद्यपि हमारा स्वभाव बाल्यपन तक थोड़ा खट्टा होता है किन्तु समय के साथ हम इस खट्टेपन को भूल मिठास को अपना लेते हैं। हालांकि इन्सानों ने हमारे खट्टेपन के भी खूब चटकारे लिए। हमारे कटे पर नमक, मिर्च और विविध मसाले लगाकर फिर हमें तेल में डुबोकर वे उसके चटकारे लेते रहे। हमारा अचार बनाकर और खाकर वे अत्यंत प्रसन्न होते। अपनी जुबान के स्वाद के लिए हमारी चटनी बनाने से भी वे नहीं चूके।

हमारे नाजुक शरीर को आग पर उबालकर अथवा तपा कर वे तरह तरह के पेय एवं खाद्य पदार्थ बनाते हैं। जिसके उन्होंने झोलिया, पना, लौंजी जैसे अजीबोगरीब नामकरण किए हैं। आप सभी जानते हैं कि चतुर इंसान प्रजाति ने हमारा कितना दोहन किया है। उसने हमें बाज़ार दिया और अपने आर्थिक हित साधने के लिए आम के आम और गुठलियों के दाम तक वसूले।

मौसम आए जब हम पर भरपूर यौवन चढ़ता है तब इंसान हमें अपनी ललचाई आँखों से निहारते, हमें पाने के लिए अत्यंत लालायित रहते हैं। हमें देखते ही उनके मुंह में पानी भर आता है। वैसे खुदगर्ज इन्सानों ने हमेशा अपनी पसंद अनुसार या तो हमें चूसा है या फिर काटा है। किन्तु हम चाहे चूसे गए अथवा काटे गए, हमने अपना मूल गुण कभी नहीं छोड़ा और अपनी मिठास से कभी कोई समझौता नहीं किया। जबकि इंसान हमारे गुणों की कद्र करने के बजाए हमेशा हमारा मोल भाव करते रहे हैं।

आम बनते ही हमारी धमनियों में मीठा रस प्रवाहित होने लगता है। जो प्राणियों की रसना पर चढ़कर उन्हें परम आनंद की अनुभूति करवाता है। जब-जब आम चूसा जाता है तब-तब क्या आम और क्या खास सब उसका आनंद उठाते हैं।

लालच में डूबे इन्सानों ने हमें समय से पहले जवान करने के चक्कर में तरह तरह के केमिकल इस्तेमाल करके हमें असमय ही बूढ़ा कर दिया। ऐसे में उन्होंने अपनी प्रजाति का भी ध्यान न रखा। उनसे कीमत लेकर बदले में उन्हें मीठी किन्तु खतरनाक बीमारियाँ दे डालीं। पैसे के लालच में इंसान खुद तो विदेशों की ओर पलायन करने लगे साथ ही हमें भी विदेशों में निर्यात करना शुरू कर दिया।

बड़े बड़े राजा, महाराजा और शंहशाह तक हमें बहुत पसंद करते और हमारी प्रशंसा करते न थकते थे। ये सब इसलिए नहीं था कि हम कुछ खास थे दरअसल हमने अपना आमपन कभी नहीं छोड़ा था। वे एक दूसरे को अक्सर हमें उपहार में देते। हमने कई बार उनके संबंधों के बीच की खाइयों को पाटकर उनके संबंध मधुर बनाने में पुल का काम किया। हम हमारी भरपूर प्रशंसा से भी कभी विचलित न हुए, और अपना मूल स्वभाव कभी नहीं बदला।

समय समय हम पर कई हमले हुए, हमारी नस्लों को बदलने की साजिश भी कुछ कम न हुई। हमने कभी किसी को छोटा या बड़ा न समझा। हम सभी हमेशा वक्त की तराजू पर तोले गए। यदि इन्सानों ने हमें तोलने में भी बेईमानी की हो तो यह उनका कर्म है। उनमें और हममें एक खास अंतर है कि हम अंदर से मीठे हैं और वे सिर्फ बाहर से, जुबान के मीठे हैं। पहले कभी हमारी कीमत हमारी संख्या से लगाई जाती थी किन्तु अब वे दिन हकीकत नहीं रह गए, अब हमारी कीमत हमारे गुणों से तय होती है। किन्तु इन्सानों की कीमत अब गुणों की बजाए संख्या से तय होने लगी है।

हम बेर के आकार से लेकर मेरे जैसे विशाल आकार के भी पाए जाते हैं किन्तु अनेक किस्में होने के बावजूद हमारे बीच कोई बैर नहीं है। यह सुनकर उपस्थित सभी आम मंद-मंद मुस्कुराने लगे और गर्व से भर गए।

हम जहाँ एक ओर कुलीन वर्ग के भोजन की शोभा बने। वहीं दूसरी ओर हम गरीबों की पहुँच से भी कभी बाहर नहीं रहे। हमने कभी किसी को भी हमारी कमी महसूस नहीं होने दी।

यद्यपि हमें कुछ अँग्रेजी नाम देकर हमारी संस्कृति पर हमला भी किया गया। अपने अँग्रेजी नाम के बल पर रौब गालिब करना इन्सानों की दुनिया में चलता होगा आम की दुनिया में यह खास नहीं चल पाता है। ऊपर वाले ने हमें आम बनाया है इसलिए उसके न्याय पर भरोसा रखें और आम ही बने रहें आम से खास बनने की इन्सानों की फ़ितरत से हमेशा दूर रहें। हमारा परम सौभाग्य है कि प्रकृति ने हमें मिठास दी है। अतः हमारा फर्ज़ है कि हम दुनिया में हमेशा मिठास बाँटकर उसका शुक्रिया अदा करें।

©  श्री तीरथ सिंह खरबंदा

ई-मेल : tirath.kharbanda@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 51 ☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है…” ।)

☆ शेष कुशल # 50 ☆

☆ व्यंग्य – “मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान नहीं है… – शांतिलाल जैन 

गुलज़ार के लिखे गाने की पंक्ति में छेड़छाड़ करने का अपन का कोई इरादा नहीं है, मगर सच तो यही है साहब कि एक आदमी के तौर पर हम अपनी पहचान साबित करने के तौर-तरीके खोते जा रहे हैं. ये केप्चा तय करेगा कि आप आदमी ही हैं. कम्प्यूटर स्क्रीन पर आड़े तिरछे कटे फटे अंग्रेजी अक्षरों को जस का तस लिखकर बताना पड़ता है – ‘जी हाँ, मैं होमो सेपियन ही हूँ’. मैं अब तक सैकड़ों बार बता चुका हूँ कि मैं एक इंसान हूँ, मानव हूँ, हाड़-मांस का पुतला हूँ, थोड़ी सी बुद्धि भी रखता हूँ, अक्षर ज्ञान जितनी अंग्रेजी आती है, केप्चा पढ़कर लिख सकता हूँ. कम्प्यूटर है कि हर बार सबूत मांगता है. आपने एक बार सही केप्चा दे दिया, वेरी गुड, अब आप अगला केप्चा दिए जाने तक अपने आपको आदमी मान सकते हैं. कभी ‘आर’ को ‘टी’ पढ़ लिया तो दन्न से केप्चा इनवैलिड. शांतिबाबू तुम आदमी हो कि…., एक छोटी सी भूल और आपके वजूद का नकार.

केप्चा में अंग्रेजी के कटे-फटे हर्फों के बाद अब गणित की भी इंट्री हो गई है. अपन की नानी तो इन्हीं दो विषयों में हमेशा मरती रही. काऊ का ऐसे और लीव एप्लीकेशन रटकर अंग्रेजी में तो जैसे तैसे पास हो लिए मगर गणित में हर साल सप्लिमेंटी आती रही. अब फिर वही दौर लौट आया है. ‘सेवेंटी थ्री माइनस ट्वेंटी थ्री इज इक्वल टू ?’ सही सही बताना पड़ता है वरना वही इनवैलिड शांतिबाबू.  भयभीत कि इस नामुराद का क्या भरोसा, किसी दिन पूछ बैठे – गुलाम वंश के आखिरी शासक का नाम क्या था ? शाहजहाँ की तीसरी बेगम कौन थी? उलान बटोर किस देश की राजधानी है? केप्चा क्रेक करने से यूपीएससी क्रेक करना ज्यादा आसन है.

चलिए मान लिया कि आप आदमी हैं मगर आपको शांतिबाबू कैसे मान लें? ओटीपी दीजिए. सारी कायनात आपको शांतिबाबू मान रही है मगर आप ही का खरीदा हुआ कम्पयूटर आपको शांतिबाबू नहीं मान रहा, आप ओटीपी नहीं दे पा रहे. बेईज्जती की इंतेहा तो तब है साहब जब  ओला का ड्राईवर आपको बिना ओटीपी के अपने ऑटो में घुसने तक नहीं देता. तांगा याद आता है, न कभी घोड़े ने ओटीपी माँगा न उसके मालिक हाफ़िज़ मियाँ ने.

फिर ‘ओटीपी’ के बारे में तो और क्या ही कहें साहब, नामुराद जनरेट बाद में होता है एक्सपायर पहले. अकसर जब मैं फोन वाईब्रेंट मोड़ में रखकर बॉस की डांट खा रहा होता हूँ तभी बेटर-हॉफ़ को ओटीपी की जरूरत आन पड़ती है. मुआ हर तीस सेकंड्स में एक्सपायर हो जा रहा है. फोन बार-बार वाईब्रेट कर रहा है. बॉस मेरे चेहरे पर उड़ती हवाईयों को समझ पा रहा है और मेरे मज़े लेने के लिए जानबूझ कर मुझे लेट कर रहा है. बॉस की भी एक वाईफ़ है जो घर में उसकी बॉस है. वो भी इन स्थितियों से गुजरता है. कल ही जब वो अपने ऑफिस वाले बॉस की डांट खा रहा था तभी उसकी वाईफ़ भी कार्ड से शॉपिंग कर रही थी. रीसेंड करने पर भी ओटीपी आ ही नहीं रहा था. सूखता गला, पीला पड़ता चेहरा, थर-थर कांपते बॉस, नेटवर्क डिले में अटका हुआ ओटीपी. छह अंको का छोटा सा समुच्चय शरीर से बेहिसाब पसीना बहने का सबब बन सकता है. शायद इन्हीं क्षणों में आदमी को खतरे से आगाह करने के लिए स्मार्ट वॉच में ईसीजी और ब्लड प्रेशर बताने की सुविधा दी गई है.

डायरिया हो जाए तो आदमी कुछ देर प्रेशर रोक सकता है, ओटीपी रोक पाना इम्पॉसिबल है. दुनिया का कोई काम इतना अर्जेंट नहीं है साहब जितना ओटीपी देना. पेट में गुड़गुड़ हो रही है, पतले लगे हैं, सुबह से आप चौथी बार टॉयलेट में हैं, ओटीपी तब भी चला आ रहा है जिसे दिए बगैर आपका असिटेंट सर्वर ऑन कर नहीं कर पा रहा. अजीब सा मंज़र है साहब. मौके की नज़ाकत समझकर मोबाइल आप टॉयलेट में ले गए हैं, वहीं से ओटीपी बता भी रहे हैं. असिटेंट नाक पर रुमाल रखकर अपवित्र ओटीपी लगा रहा है, मगर सर्वर को अपने यूजर्स पर रहम नहीं आ रहा. 

बहरहाल, आप ही शांतिबाबू हैं ये आपकी आवाज़, आपके मैनरिज्म और अगले की स्मृति पर निर्भर नहीं करता, आपको एम्ऍफ़ए (मल्टी फेक्टर अथान्टिकेशन) के मराहिलों से गुजरना पड़ता है. पासवर्ड, केप्चा, ओटीपी, फिंगरप्रिंट, फेस स्कैन. आपको एनक्रिप्ट किया जा चुका है और आपको पता भी नहीं चला. तुर्रा ये कि, ये सब आपको सुरक्षित रखने के नाम पर किया जा रहा है. वो दौर चला गया जब बाहर से “मैं हूँ, मुन्नी का पापा” कहना पर्याप्त हुआ करे था. अब अंगूठे की छाप लगानी पड़ती है. तकनालॉजी ने ‘भाई साहब, आपको कहीं देखा है’ जैसे मुहावरे चलन से बाहर कर दिए हैं. मेरी आवाज़ ही अब मेरी पहचान नहीं है.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 54 – हाय रे तिलचट्टा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हाय रे तिलचट्टा)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 54 – हाय रे तिलचट्टा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कभी-कभी जिंदगी कुछ ऐसी घटनाएँ हमारे सिर पर पटक देती है, जैसे कोई छुट्टी की सुबह, बिना अलार्म के उठा दे। घटना छोटी होती है, पर प्रतिक्रिया में पूरी पंचायत बैठ जाती है — जैसे पकोड़े में मिर्च ज्यादा पड़ गई हो। ये कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जहां एक निरीह से तिलचट्टे ने पूरे दफ्तर को वह नचाया जैसे चुनावी मौसम में वादा। चाय की प्याली से उठती भाप जितनी गरम नहीं थी, उतनी गरमी उस तिलचट्टे की फड़फड़ाहट ने फैलाई।

सुबह का समय था, टिफ़िन में पराठे थे, मन में प्रमोशन की आशा थी, और एक साथी की आँखों में किसी की शादी का ख्वाब था — तभी वह आया। नहीं नहीं, कोई अफसर नहीं… एक तिलचट्टा। जैसे ही वो उड़ा और एक महिला कर्मचारी की बाँह पर उतरा, तो लगा जैसे कोई डॉन ने हेलीकॉप्टर से एंट्री मारी हो। “आईईईईईईई…” एक चीख फूटी, ऐसी कि लग रहा था प्रेमचंद की कहानियों का दुख किसी टी-सीरीज़ की बैकग्राउंड स्कोर में बदल गया हो। कॉफी गिरी, बिस्कुट बिखरे, और एक कर्मचारी तो झोंपड़ी समझकर टेबल के नीचे छिप गया।

तिलचट्टा भी शायद चुनावी नेता था। एक बार में एक जगह नहीं रुकता। कूदता रहा — एक कुर्सी से दूसरी कुर्सी, एक मन से दूसरे मन में डर बोता रहा। पूरा ऑफिस रणभूमि बन चुका था। कोई झाड़ू ढूँढ रहा था, कोई वाइपर, और एक सज्जन तो चप्पल उतारकर  — “मारो सालो को…!” मगर साहस नाम की चीज़, वही थी जो पेंडिंग फाइल की तरह सबके दिलों में थी — दबा, बुझा और बेसुध।

उसी समय, प्रकट हुए मैनेजर साहब। बाल खिचड़ी, चाल धीमी, और चेहरा ऐसा शांत कि जैसे सब्जी में नमक कम हो फिर भी कहें — “ठीक है।” उन्होंने तिलचट्टे को देखा, जैसे डॉक्टर मरीज की एक्स-रे रिपोर्ट पढ़ता है। फिर बड़े आराम से पेपर कप से उसे फुसला कर उठाया और खिड़की से बाहर उछाल दिया। कमरे में शांति फैल गई — जैसे अचानक फिल्म में बैकग्राउंड म्यूज़िक बंद हो गया हो। लोगों ने राहत की साँस ली, कुछ ने ताली भी बजाई। लेकिन…

…शांति ज्यादा देर टिकती कहाँ है, ख़ासकर उस जगह जहां व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट हों। एक दम आवाज़ उठी — “क्यों फेंका बाहर?” फिर दूसरा स्वर — “बिचारा जीवित था…!” एक और आवाज़ — “उसे पार्क में छोड़ सकते थे, पौधों के बीच, उसकी बस्ती में।” अचानक, जिसे नायक समझा गया था, वो खलनायक बन गया। तिलचट्टे के प्रति सहानुभूति बहने लगी, और मैनेजर पर आरोपों की बौछार। ये वही लोग थे जो पाँच मिनट पहले कुर्सी पर खड़े होकर चिल्ला रहे थे — “मार दो! बचाओ! मेरी चाय गिर गई!”

हमने सुना था कि लोकतंत्र में हर किसी को बोलने का अधिकार है। पर ये किसने कहा था कि हर बात में विरोध का ठेका भी लेना है? ऑफिस की ‘लीडरशिप कमेटी’ एक्टिव हो गई — जिसमें तीन ‘टी पार्टी’ सदस्य, दो ‘दूसरे की टाँग खींचो’ विशेषज्ञ और एक ‘कभी काम ना करने की शपथ’ ले चुका कर्मचारी शामिल थे। मीटिंग हुई — “तिलचट्टा भी तो भगवान की रचना है!” और वही लोग जिन्होंने “चप्पल से मारो इस कीड़े को!” कहा था, अब “जीवन का सम्मान करना चाहिए!” के पोस्टर बना रहे थे।

बात मैनेजर के ‘रवैये’ पर आई। “बहुत रूखे हैं,” “संवेदनशील नहीं,” “हमारे ऑफिस का माहौल बहुत टॉक्सिक हो गया है।” एक ‘सेंसिटिव बॉस’ चाहिए — ऐसा जो पहले तिलचट्टे से पूछे कि “तुम्हें कोई समस्या है?” फिर उसे कॉफी ऑफर करे, उसकी काउंसलिंग कराए, और फिर उसे हंसते-हंसते बाहर भेजे। मैनेजर साहब को मेमो मिला, “आपने पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता नहीं दिखाई।” अगली मीटिंग में तय हुआ — अगली बार तिलचट्टा आए, तो एक ‘इन्क्लूसिव स्पेस’ बनाया जाएगा — जिसमें वो “कम्फर्टेबल” महसूस करे।

दफ्तर में एक दीवार पर पोस्टर लगाया गया — “हर जीवन है अनमोल। फिर चाहे वह तिलचट्टे का ही क्यों न हो” और नीचे छोटा सा कैप्शन: “आचार से नहीं विचार से काम लें” पोस्टर के नीचे वही लोग सेल्फी ले रहे थे जो दो दिन पहले तिलचट्टे के खात्मे पर ‘थैंक यू मैनेजर सर’ वाला स्टेटस डाले थे। और मैनेजर? वही पुराने डेस्क पर बैठे, ग्रीन टी पीते, किसी इनकम टैक्स फाइल को घूरते रहे — जैसे उसमें भी कोई कॉकरोच छुपा हो।

असल में तिलचट्टा कभी समस्या नहीं था। समस्या तो इंसानी दिमाग है — जो डरते वक्त चिल्लाता है, और सुरक्षित होने पर इल्ज़ाम लगाता है। आदमी को राहत चाहिए, लेकिन उसका तरीका नहीं पसंद। सब चाहते हैं कोई आगे बढ़े, लेकिन जैसे ही कोई बढ़ता है, सबकी उँगली उसी की पीठ पर होती है — “तू क्यों बढ़ा?” और नेतृत्व का बोझ वही समझ सकता है, जिसने कभी सच्चे मन से झाड़ू पकड़ी हो।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 7 – हास्य-व्यंग्य – “विदेशी तोता और देशी मेम” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  विदेशी तोता और देशी मेम)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 7

☆ व्यंग्य ☆ “विदेशी तोता और देशी मेम” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

कहते हैं कानून अंधा होता है। जैसे न्याय की देवी की आंखों में पट्टी बंधी रहती है उसी तरह प्रेम में पड़े व्यक्ति की आँखों पर भी प्रेम की पट्टी चढ़ जाती है। उसे कुछ दिखाई नहीं देता, अच्छा-बुरा समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है। इसलिये तो कहा गया है कि “दिल लगा गधी से तो परी किस काम की”। इस मामले में एक फिल्मी गाना बिल्कुल सही मालुम होता है- “दिल तो है दिल, दिल का एतबार क्या कीजे। हो गया है किसी से प्यार क्या कीजे।”

अब देखिए न कितने उदाहरण सामने हैं-एक से एक खूबसूरत पढ़ी लिखी मैडमें अपने पतियों से ज्यादा प्यार अपने कुत्तों-बिल्लियों से करती हैं। उन्हें अपनी छाती से चिपकाए घूमती हैं। प्रेम का एक ऐसा ही मामला हाल ही में सामने आया है। किसी शहर के बड़े हार्ट सर्जन की डॉ पत्नी का तोता लापता हो गया है। तोते के गम में पत्नी ने खाना-पीना छोड़ दिया है। अब चूंकि “दिल का हाल सुने दिल वाला”, दिल के डॉक्टर ने तोता प्रेम में डूबी अपनी पत्नी के दिल की नाजुक स्थिति भांप ली। उन्होंने अखबार के फ्रंट पेज पर तोता गुमने का विज्ञापन छपवाया, पोस्टर-पैम्फलेट बंटवाये, तोता ढूंढ कर लाने वाले के लिये एक लाख रुपये इनाम की घोषणा कर डाली। बताया गया कि डॉक्टर ने अपनी पत्नी के लिये ग्रे कलर के दो अफ्रीकन तोते 80 हजार रुपये में खरीदे थे जिनमें से कोको नाम के तोते को जब डॉक्टर की पत्नी सेव खिला रही थी तब वो उसके प्रेम को ठुकरा कर उसे विरह की अग्नि में जलता छोड़कर उड़ गया। डॉक्टर की पत्नी रो-रो कर बेहाल है “तुम न जाने किस जहाँ में खो गए, हम भारी दुनिया में तन्हा हो गए।” क्षेत्र में बात का बतंगड़ बन रहा है। डॉक्टर साहब परेशान हैं कि यदि तोता न मिला तो वे प्यार में तारे तोड़ कर लाने वालों से भरे इस संसार में अपनी इज्जत कैसे बचाएंगे ? इस समय पूरे शहरवासी एक लाख रुपये इनाम के चक्कर में तोता ढूंढने में लगे हैं। तोता मिले न मिले लेकिन यह तोता अनेक प्रश्न छोड़ गया है।

देश में कुछ दुधारू व अन्य चंद पशु-पक्षियों के अतिरिक्त सभी की खरीद-फरोख्त और उन्हें बंदी बना कर रखने, उनसे काम लेने पर सख्त रोक है। देश में पक्षी बाजार तो अब देखने ही नहीं मिलते। यदि कोई पक्षी बेचता हुआ दिख जाता है तो सरकारी विभाग के पहले जागरूक नागरिक ही उसे घेर कर पक्षियों को आजाद कर देते हैं। इसी कानून के चलते नागपंचमी उत्सव समाप्ति पर है। पशु-पक्षी कलाकारों से विहीन होकर सर्कस लगभग बंद हो चुके हैं। हाँ, इस कानून से नगरों, गांवों में आवारा कुत्तों-सुअरों की संख्या जरूर बढ़ती जा रही है। खैर, सवाल उठता है कि डॉक्टर अस्सी हजार रुपये के अफ्रीकन तोते कहाँ से ले आए ? क्या उन्होंने इन्हें खरीदने और पालने की अनुमति ली थी ? जरा सोचिए जो डॉक्टर अस्सी हजार के तोते ले सकता है और एक तोते को खोजने के लिये एक लाख रुपये का इनाम दे सकता है उसके पास कितना माल होगा ? इस तोता मालिक हार्ट सर्जन ने न सिर्फ अपनी वरन तमाम स्वास्थ्य के सौदागर डॉक्टरों की आर्थिक हैसियत देश के सामने उजागर कर दी है। शायद तोता पालक डॉक्टर और डाक्टरनी यह नहीं जानते कि तोता, कबूतर या तीतर जैसा विश्वसनीय नहीं होता और फिर उनका तोता तो विदेशी नस्ल का था। आम धारणा और विश्वास है कि विदेशी नस्ल भले ही अच्छी दिखे पर विश्वसनीय नहीं होती। पशुओं की बात तो छोड़ें, देश में तो जब-तब विदेशी नस्ल के लोगों तक पर विश्वसनीयता और समर्पण संबंधी प्रश्न उठते रहते हैं यहां तक कि विदेशी से देशी नस्ल के क्रॉस पर भी देशवासियों को भरोसा नहीं है। अब जब समाचार पत्रों के माध्यम से डॉक्टर का तोता और उसकी आर्थिक स्थिति सार्वजनिक हो चुकी है तब अवश्य ही इस पर पशु-पक्षी सुरक्षा-संरक्षण विभाग और इनकम टैक्स विभाग का ध्यान भी आकर्षित हुआ होगा। यह बात अलग है कि ये सरकारी विभाग सकारण अथवा अकारण मौन रहें। हमारे देश में कुछ भी असंभव नहीं।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 291 ☆ व्यंग्य – गांधी बाबा का रास्ता ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘गांधी बाबा का रास्ता‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 291 ☆

☆ व्यंग्य ☆ गांधी बाबा का रास्ता ☆ डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆

गांधी मैदान में गहमागहमी है। छात्रों का झुंड चार  पांच दिन से धरने पर बैठा है, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही है। छात्र हंगामा नहीं करते, बस बैठे बैठे नारे लगाते रहते हैं या रामधुन गाते हैं। हाथों में अपनी मांगों के प्लेकार्ड लिये हैं।

छात्रों की शिकायतें अनेक हैं। बार-बार नौकरी की परीक्षा के पेपर लीक होते हैं, पद खाली होने पर भी अनेक वर्षों तक वे विज्ञापित नहीं होते। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का बोलबाला है। ज़्यादा हंगामा करने पर शासन की लाठी चलने लगती है। हाथ-पांव टूटने और जेल जाने की नौबत आ जाती है। इसीलिए छात्र शान् जोतिपूर्वक धरना दे रहे हैं।

तीस  चालीस पुलिसवाले उन पर नज़र रखें शेड में बैठे हैं। वे परेशान हैं। कब तक इन पर नज़र रखें? किसी तरह समस्या का निपटारा हो और धरना टूटे। शेड के नीचे बैठे बैठे झपकियां लेते हैं। छात्रों पर गुस्सा आता है। पता नहीं कब तक यहां फंसे रहेंगे।

दो तीन परेशान पुलिसवाले छात्रों के पास आकर खड़े हो गये हैं। एक कहता है, ‘यह कौन सा तरीका है? कुछ उपद्रव करो तो सुनवाई हो। वो एक शायर ने लिखा है, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। ऐसे बैठे रहने से क्या फायदा?’

छात्र जवाब देता है, ‘हम गांधी के शान्तिपूर्ण विरोध और अहिंसा के रास्ते पर चल रहे हैं।’

पुलिसवाला कहता है, ‘गांधी जी यही सब ऊटपटांग बातें सिखा गये हैं। ऐसे बैठे रहने से कोई नहीं सुनने वाला। खुद भगवान राम कह गये हैं कि बिना भय पैदा किये प्रीत नहीं होती। कुछ हल्ला- गुल्ला करो तो बड़ों के कान तक बात पहुंचे।’

छात्र कहता है, ‘हम सब समझते हैं। तुम चाहते हो कि हम उपद्रव करें और तुम्हें लाठी भांज कर हमें खदेड़ने का मौका मिले। हम तुम्हारे जाल में नहीं फंसने वाले।’

पुलिसवाले मुंह बनाये वहां से विदा हो गये।

दो-तीन दिन और ऐसे ही निकल गये। पुलिसवालों का धैर्य चुकने लगा। अचानक एक रात एक समूह कहीं से प्रकट हुआ और पुलिस की तरफ पत्थरबाज़ी शुरू हो गयी। पुलिस तत्काल हरकत में आयी और वॉकी-टॉकी पर फटाफट संदेशों का आदान-प्रदान होने लगा। पत्थर फेंकने वालों का समूह रहस्यमय ढंग से ग़यब हो गया।

ऊपर से आदेश मिलते ही पुलिस वाले लाठियां लेकर छात्रों की तरफ दौड़े और जल्दी ही  वहां अफरातफरी मच गयी। छात्रों को दूर तक खदेड़ दिया गया और मैदान खाली हो गया।

छात्रों से बात करने वाले पुलिसवाले अब आपस में वार्तालाप कर रहे थे— ‘हमने समझाया था, लेकिन समझ में नहीं आया। अब गांधी बाबा के रास्ते पर चलना है तो गांधी बाबा की तरह भोगो।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 696 ⇒ व्यंग्य – पंचनामा ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “पंचनामा।)

?अभी अभी # 696 ⇒ व्यंग्य – पंचनामा ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

 न जाने क्यों, पंच से मुंशी प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर याद आ जाती है। परमेश्वर तो एक होता है, लेकिन जब पाँच सयाने एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर ही तो कहलाते हैं। पंच विक्रमादित्य की तरह पंचायत में न्याय तो करते ही हैं, दोषी को दंड भी सुनाते हैं। न्याय का हथौड़ा जब प्रहार करता है, तब वह भी एक तरह का punch ही तो होता है।

पुलिस बरामद सामग्री का पंचनामा बनाती है। कुछ गवाहों के सामने वस्तुओं को सील कर दिया जाता है और एक दस्तावेज तैयार किया जाता है, जिस पर सभी के हस्ताक्षर होते हैं। बैंकों में लॉकर भी सील किए जाते हैं और अदालत बजावरी भी चस्पा करती है। एक महान मुक्केबाज मोहम्मद अली भी हुए थे, जिनका पंच, विरोधी मुक्केबाज को दिन में तारे दिखला देता था।।

कार्टून और व्यंग्य सृजन की ऐसी विधा है, जिसमें punch का प्रयोग किया जाता है। Punch तत्कालीन व्यवस्था एवं विसंगति पर एक ऐसा करारा तमाचा है कि जिसका न तो बचाव संभव है और न ही प्रतिकार। तानाशाहों को इस प्रहार की आदत नहीं होती इसलिए अक्सर अभिव्यक्ति की आज़ादी के इन पंचों पर उनकी सदा वक्र दृष्टि ही रहती चली आई है। कई बार इन पंचों का ही पंचनामा बना दिया जाता है और उन्हें सेंसर यानी प्रतिबंधित कर दिया जाता है।

कलम तलवार से अधिक खतरनाक होती है। इसका जितनी बार सर कलम करो, यह उतनी ही पैनी होती चली जाती है। कार्टून और व्यंग्य में अगर पंच ना हो वह किसी बिना तड़के वाली फीकी दाल से कम नहीं।

इंग्लैंड से प्रकाशित कार्टून मैग्जीन punch अपने १५१ वर्ष पूर्ण कर सन् १९९२ में आख़िरी सांसें लेने को मजबूर हो गई। वे लोग भाग्यशाली रहे जिन्होंने अंग्रेजी में प्रकाशित पत्रिका Shankar’s Weekly का आनंद लिया। हिंदी में भी शंकर्स वीकली का कुछ समय के लिए प्रकाशन हुआ, लेकिन इसका भी बेड लक खराब ही निकला।

टाइम्स ऑफ इंडिया में आर.के.लक्ष्मण लगातार कई वर्षों तक व्यवस्था की परवाह किए बगैर अपने तीखे, करारे और तिलमिलाते कार्टून परोसते रहे। व्यवस्था को जनता से उतना खतरा नहीं होता जितना प्रिंट मीडिया से होता है। एक आपातकाल ने ऐसा सबक सिखाया, सब लाइन पर आ गए। आज न आर.के.लक्ष्मण का कॉमन मैन है और न ही धर्मयुग के कार्टून कोने में ढब्बू जी। बस व्यंग्य और कार्टून के नाम पर लालू, पप्पू और ममता से ही काम चला लो। साफ सुथरे, शालीन व्यंग्य और कार्टून जो आप घर में बच्चों के साथ भी देख सकें।।

एक चेन्नई के पत्रकार, कार्टूनिस्ट चो रामास्वामी हुए थे और एक मुंबई के शिवाजी बाल ठाकरे, जो राजनीति के घिघौने चरित्र पर प्रहार ही नहीं करते थे, उसका डटकर सामना भी करते थे और आज हालत देखिए, उनके ही ऊधो पर लोग कार्टून बना रहे हैं।

व्यंग्य और कार्टून की खेती के लिए भूमि का उर्वरा होना भी जरूरी है। श्रीलाल शुक्ल कांग्रेस के जमाने में शिवपालगंज ढूंढ पाए, तो राग दरबारी का सृजन संभव हुआ, आर.के.लक्ष्मण के समय में नेहरू और इंदिरा जैसे चरित्र थे, जिनके चेहरे को देख, कम से कम कूची तो चलाई ही जा सकती थी। आज सभी साफ सुथरे, कमल से कोमल, निष्पाप, निष्कलंक चेहरों पर क्या कार्टून बनाए जाएं और क्या सत्तासीन पर व्यंग्य लिखा जाए। बड़ा धर्मसंकट है। डर है, कहीं कार्टून और व्यंग्य जैसी विधा का पंचनामा ही ना बनाना पड़ जाए …!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 53 – क्लिक करो, आह भरो ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना क्लिक करो, आह भरो)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 53 – क्लिक करो, आह भरो ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गाँव के चौराहे पर डिजिटल इंडिया का रंगीन होर्डिंग लगा था – “हर हाथ में मोबाइल, हर जेब में इंटरनेट।” बगल में खड़ा रामलाल, जो अब तक मोबाइल को टार्च और गाना सुनने की मशीन समझता था, ठिठक गया। उसे लगा जैसे कोई अलौकिक बात कह दी गई हो। उसके मन में सवाल उमड़ पड़ा – “ये इंटरनेट का कीड़ा कहाँ से पकड़ते हैं, मास्टरजी?” मास्टरजी मुस्कराए और बोले, “अब सबकुछ ऑनलाइन है, रामलाल। खेत, खलिहान, राशन, विवाह, मृत्यु प्रमाण पत्र… सब मोबाइल में समा गया है।” रामलाल ने अपने पुराने कीपैड वाले मोबाइल को देखा और बोला, “हमारे मोबाइल में तो बस सिग्नल ही नहीं आता, इंटरनेट कहाँ से आएगा?” चौराहे की चाय की दुकान पर बैठे लोग हँस पड़े।

रामलाल ने निर्णय लिया – अब उसका बेटा डिजिटल बनेगा। उसे शहर भेजा कि कुछ सीखे, कुछ कमाए। बेटे ने एक साल में कंप्यूटर सीखा, ऑनलाइन फॉर्म भरना सीखा, ‘माउस’ को हाथी का बच्चा समझना छोड़ दिया। गाँव लौटा तो साथ में था एक लैपटॉप, जो खुद ही चार्ज माँगता रहता था। गाँव में न बिजली, न नेट। जैसे ही खेत में बैठकर उसने किसान योजना का ऑनलाइन फॉर्म भरा, वेबसाइट ने लिखा – “सर्वर डाउन है। कृपया पुनः प्रयास करें।” रामलाल बोला, “बेटा, ये सर्वर कौन सी फसल है जो हर बार सूखा मारता है?” बेटे ने सिर पकड़ लिया। गाँव में पहली बार डिजिटल शब्द को लोग अपशब्द की तरह लेने लगे।

गाँव में एक दिन सरकारी जीप आई, डेक से बजता था – “डिजिटल साक्षरता अभियान में भाग लें।” सबको लगा कि अब सचमुच जादू होगा। सचिव जी बोले, “अब जमीन के काग़ज़ भी मोबाइल में होंगे।” रामलाल बोला, “जब जमीन में पानी नहीं, तो मोबाइल में काग़ज़ रखके क्या हल जोतूंगा?” अधिकारी बोला, “अब ऑनलाइन आवेदन करना होगा।” एक बुजुर्ग बोले, “बेटा, पहले ये बता दो कि आवेदन की बोरी कहाँ मिलती है?” अधिकारी मुस्करा कर बोला, “बोरी नहीं, वेबसाइट होती है।” भीड़ में खुसर-पुसर शुरू हुई – “लगता है अब खेती भी बिना हल के होगी, सब मोबाइल से।” डिजिटल इंडिया गाँव में आ गया था, पर गाँव डिजिटल नहीं हो पाया।

रामलाल के मोबाइल पर एक दिन संदेश आया – “आपके खाते में ₹6000 की सब्सिडी जमा हुई है।” खुशी के मारे बैंक भागा। बैंक ने कहा – “आपका खाता आधार से लिंक नहीं है।” रामलाल ने पूछा – “आधार कौन सी गाय है जो बैंक में दूध नहीं देती?” उसे आधार कार्ड बनवाने भेजा गया, पर केंद्र की मशीनें ‘नेटवर्क इश्यू’ में थी। तीन दिन की भागदौड़ के बाद भी आधार नहीं बना। बैंक मैनेजर बोला, “सरकार पैसा भेज रही है, लेकिन आप पकड़ नहीं पा रहे।” रामलाल बोला, “भैया, मैं किसान हूँ, पैसा नहीं पकड़ता, मिट्टी पकड़ता हूँ।” पूरे गाँव में चर्चा थी – सरकार हमें उड़ाना चाहती है लेकिन पंख नहीं दे रही।

रामलाल को समझ आया – डिजिटल इंडिया केवल विज्ञापन में चमकता है। बेटे से कहा – “बेटा, गाँव छोड़ो, शहर चलो। वहाँ बिजली, इंटरनेट और शायद इंसान भी होंगे।” शहर में आने पर लगा कि लोग मोबाइल में जी रहे हैं। हर दूसरा व्यक्ति ‘मोबाइल झाँककर्मी’ बन चुका है। बेटा बोला – “पिताजी, यहाँ दिल नहीं धड़कते, मोबाइल वाइब्रेट होते हैं।” रामलाल ने कहा – “बेटा, ये शहर तो बिना आत्मा का शरीर है। गाँव की गरीबी बेहतर थी। कम से कम आँखें तो पहचानती थीं।”

एक दिन रामलाल बीमार पड़ गया। अस्पताल गया, डॉक्टर बोला – “ऑनलाइन अपॉइंटमेंट लो।” रामलाल ने कहा – “बीमारी मेरे शरीर में है, मोबाइल में नहीं।” डॉक्टर मुस्कराया, “ये है नया भारत।” जब अपॉइंटमेंट नहीं मिला, तो एक कंपाउंडर बोला – “साहब, अगर ‘कनेक्शन’ है तो इलाज हो जाएगा।” रामलाल ने पूछा – “कौन सा कनेक्शन? बिजली का, पानी का या नेताजी का?” डॉक्टर बोला – “जो भी चले, इलाज भी वहीं चलेगा।” अस्पताल की दवाई ऑनलाइन थी, लेकिन दर्द ऑफलाइन था।

रामलाल की हालत बिगड़ती गई। बेटे ने कहा – “पिताजी, गाँव चलिए। शायद वहाँ सुकून मिलेगा।” गाँव में सब बदला हुआ था। चौराहे पर अब बुजुर्ग नहीं बैठते थे, सब मोबाइल में व्यस्त थे। रामलाल की आँखें खोजती रहीं पुराने चेहरों को, लेकिन सब स्क्रीन में समा गए थे। रामलाल बोला – “बेटा, मुझे वो दुनिया लौटा दे, जहाँ लोग एक-दूसरे को नाम से बुलाते थे, यूजरनेम से नहीं।” पर गाँव अब ऐप बन चुका था, रिश्ते ‘लॉगिन’ हो गए थे।

आख़िरी साँस लेते हुए रामलाल ने कहा – “बेटा, मुझे माफ करना, मैंने तुझसे डिजिटल होने को कहा था, इंसान बने रहना भूल गया।” बेटे की आँखों में आँसू थे, पर उसके हाथ में मोबाइल था। पिता की चिता जल रही थी, और बेटा इंस्टाग्राम पर ‘आरआईपी डैज’ लिखकर स्टोरी डाल रहा था। हज़ारों लाइक्स आए, लेकिन कोई कंधा देने नहीं आया। डिजिटल इंडिया में रामलाल अंततः एक पोस्ट बनकर रह गया – जिसे स्क्रॉल करते समय कोई आह भी न करता था।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : drskm786@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ खबरों से बेखबर मीडिया ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆

श्रीमती समीक्षा तैलंग

 

☆ खबरों से बेखबर मीडिया ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग  ☆

काकी कहिन – खबरों से बेखबर मीडिया

आज सुबह टहलते हुए पुराने साथी पत्रकार टकरा गए। अब टकराहट की आवाज तो होनी ही थी। जैसे अभी पाक पर हमले की आवाज पूरी दुनिया में गूँजी। रिटायर हो गए तो पंचायत सूझने लगी अगले को।

कहने लगे कि “आजकल मीडिया में खबरों के अलावा सब आने लगा है”।

हमने कहा “जे बात तो सही है। खबरची बचे नहीं तो खबरें लाएगा कौन?”

बोले “हमारे समय में देखो कैसे ढूँढ-ढूँढकर खबरें लाते थे। समझो कि तीनों तल एक कर देते थे”।

“हमने कहा कि वही आदत तुम्हें खा गई”।

“ कैसे?”

“तुम क्या हमें इतने मासूम समझते हो?”

“नहीं”।

“बाकी हमें हकीकत सारी पता है”।

“कैसी हकीकत? आजकल जिसे देखो वो हकीकत की खोज में है। सामने जो है उसे झूठ ही मानता है”।

“तुम्हें याद है! तुमने एक फोटू खेंची थी। हम मना करते रहे कि किसी की निजी जिंदगी में दखल मत दो मगर तुम नहीं माने। हमें पता है कि तुम्हारी दुकान क्यों तोड़ी गई!”

“फोटो का दुकान से क्या लेना-देना?”

“या तो तुम हमें मूरख समझते हो या सच्चाई छुपा रहे हो। ट्रम्प की सच्चाई नहीं छुपी तो तुम कौन से तोपची हो?”

“मैंने तो ढेरों फ़ोटो ली। तुम किसकी बात कर रही हो?”

“अच्छा तो सारी फ़ोटो लेने के बाद दुकान टूटी? ऐसा है कि अतिक्रमण वाला क्षेत्र वही माना जाता है जब उसके ब्लैक होल को लक्ष्मी से भरा न जाए। और तुमने तो उनकी बिटिया की उसके दोस्त के साथ वाली फोटो ली थी। उस फोटो की कभी खबर बनी?”

“नहीं”।

“कभी विचार नहीं किया कि खबर क्यों नहीं बनी? ऐसे ब्लैक होल हर जगह हैं। वहाँ तुम्हारे ऊपरवालों ने ब्लैक मेल करके होल भरवा लिए। और यहाँ तुम अपनी हेकड़ी में रहे कि कौन हाथ लगाएगा! उसके बाद तुम कहीं नहीं टिक पाए”।

“तुम्हें सब पता है! कहाँ से पकड़ लेती हो सब!”

“छोड़ो वो सब! अब देखो बेहिसाब बारिश हो रही है। सोचा कि टीवी पर इसकी खबर देख लें। पहले नेशनल चैनल लगाए तो वो पाक-पाक चिल्ला रहे थे। आंचलिक लगाए तो वो भी पाक-पाक चिल्लाकर बागी हुए जा रहे थे। इस पाक की लड़ाई में हमारे देश की प्राचीन संस्कृतमय पाककला पर भी कुछ लोगों की नापाक दृष्टि पहुँच गई। ये देखने के बाद आश्चर्य की सीमा भी खत्म हो गई थी कि अभी तक हमारा मीडिया पानी में डूबा कैसे नहीं? पता चला कि अभी तक वो पाक में ही डूबा है”।

“सही है। भूकंप आने पर यही मीडिया काँपने लगता है। कोई मर रहा हो तब ये वहीं जाकर उस मरते आदमी से बाइट लेकर आता है। उनके घरवालों के लिए जैसे ये स्नेक बाइट हो!”

“आजकल नेशनल पर फलाने शहर की गली नंबर एक का छुरा भोंकने वाला केस दिखाया जाता है। और हवाई जहाज के टर्बुलेंस से जहाज के घायल होने की खबर खबरों के टर्ब्युलेंस में फंस जाती है। खबर पढ़ने के लिए अगली सुबह का इंतजार करना पड़ता है। कब अखबार आए और पढ़ने मिले”।

“अखबार में सही खबर मिल जाती है? वहाँ भी विचारधारा हावी रहती है। कोई अखबार किसी पार्टी की तो कोई किसी पार्टी की जयकारा करता है”।

“देखो! जयकारा एक तरह का जयघोष होता है। विचारधारा हावी होती रहे मगर आमजन की खबरें तो मिल ही जाती हैं। देश के इतने बड़े वैज्ञानिक हमारे बीच से चल बसे। इधर मीडिया कुंभकर्ण की नींद सो रहा है। एक स्ट्रिप नहीं चलायी। इतना बड़ा नक्सली मारा गया। कोई खबर नहीं चली। गधा मजदूरी इसी को कहते होंगे! अब सारी मुख्य खबरें सोशल मीडिया से मिलती हैं।”

“कैसे चलायेंगे! आजकल मीडिया का अर्थ केवल राजनीतिक खबरें बचा है। उसमें भी आधी झूठी निकल आती हैं। बाकी रही-सही कसर फर्जी डीबेट पूरी कर देती है। इससे अच्छी चर्चा हमारे घर के ओटलों पर हो जाया करती थी। देश-दुनिया की खबरों के साथ पास-पड़ौस की भी मालूमात होती थी। अब तो हाल ये है कि चौबीस घंटे चलने वाली न्यूज के बीच भी हम बेखबर हैं। सतत न्यूज़ का दबाव असली न्यूज़ को ही दबा देता है”।

“हमारी पड़ौसन आजकल इन एंकरों की तरह चिल्लाने लगी है। पता चला पूरा टाइम न्यूज़ चैनल देखने से उसके दिमाग पर असर हो गया है। इंजक्शन लग रहे हैं। एक वो जमाना था साढ़े आठ वाला। आजकल के लोग देख लें तो शांति के कारण उनके कानों से ज्वालामुखी फटने लगेगा। उन्हें शोर की आदत जो पड़ी है। इस शोर में सच दब जाता है। कौन बताए इन मीडिया वालों को कि खबरों का एक्सीडेंट करके उन्हें पेश करने से एक्स-रे साफ नहीं आता।

(स्वदेश – साप्ताहिक सप्तक – 25 मई 2025)

© श्रीमती समीक्षा तैलंग 

पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 6 – हास्य-व्यंग्य – “बात बतंगड़ – डॉक्टर और पड़ोसन के मुर्गे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “यहां सभी भिखारी हैं)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 6

☆ व्यंग्य ☆ “बात बतंगड़ – डॉक्टर और पड़ोसन के मुर्गे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

जितने लोग उतनी परेशानियाँ। कोई अकेलेपन से, एकांत से परेशान है तो कोई भीड़भाड़ और शोर से। इंदौर के एक कैंसर स्पेशलिस्ट डॉक्टर अपनी पड़ोसन के मुर्गों की बाँग से परेशान हैं। उन्होंने पड़ोसन पर पब्लिक न्यूसेंस का केस दर्ज करा दिया है। डॉक्टर साहब का कहना है कि सुबह-सुबह जब उनकी नींद लगती है तब पड़ोसन द्वारा पाले गए मुर्गे जोर-जोर से कुकड़ूँ कूं चिल्लाकर याने बाँग देकर उनकी नींद खराब कर देते हैं। डॉक्टर साहब का कथन सही है लेकिन क्या हम शेरों को दहाड़ने, हाथियों को चिंघाड़ने, कुत्तों को भौंकने, चिड़ियों को चहचहाने और मुर्गों को कुकड़ूँ कूं चिल्लाने के उनके नैसर्गिक अधिकार से वंचित कर सकते हैं ? बोलने के अधिकार की आड़ में नेता क्या-क्या, कैसा-कैसा बोल रहे हैं और लोगों को सुनना पड़ रहा है पर मुर्गों की कुकड़ूँ कूं से तकलीफ हो रही है ! बेचारे मुर्गों ने तो अपने परिजनों के काटे जाने की कभी कोई शिकायत नहीं की। उन्होंने कभी नहीं कहा कि जब मारने की मंशा से हमें बड़ा करते हो तो हमारे रहने के ठिकानों को “कुक्कुट पालन केंद्र” क्यों कहते हो उन्हें “मारण केंद्र” कहो।

मुझे लगता है कि अपने समय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने अपने अति बुद्धिमान होने की जिस समस्या के चलते अपनी बड़ी और छोटी बिल्ली के लिए दरवाजे में दो छेद करवाने की योजना बनाई थी कुछ वैसी ही अति बुद्धि की समस्या से किसी नगर के ये डॉक्टर भी पीड़ित हैं जो मुर्गों की कुकड़ूँ कूं से परेशान होकर लंबी कानूनी लड़ाई में फंस गए हैं। अरे इतनी बड़ी समस्या का छोटा सा इलाज था- वे अपने कानों में रुई लगाकर सोना शुरू कर देते। पड़ोसन के मुर्गों को दाना चुगाते, उन्हें प्यार करते तो पड़ोसन से भी उन्हें कुछ अच्छा रिटर्न मिलता। क्या किया जा सकता है शरीर विज्ञान वाले मन का विज्ञान क्या जानें वरना पड़ोसन से सम्बंध बढ़ाने मुर्गे कितने अच्छे माध्यम थे। खैर अब तो रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है। हो सकता है कि पुलिस डॉक्टर से सेट हो जाये लेकिन अगर कहीं पशु-पक्षी प्रेमी तक यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर को मुर्गों की बाँग नापसंद है तो फिर क्या होगा भगवान ही जाने। यों पशु-पक्षी संरक्षण कानून के चलते आवारा कुत्तों, सुअरों, बंदरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उनके हमलों से लोग परेशान हैं पर कुछ कर नहीं सकते। कुत्तों आदि की संख्या नियंत्रित करने देश में करोड़ों रुपयों से इनकी नसबंदी की योजना चलाई जा रही है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि जिस कुत्ते की रजिस्टर में नसबंदी हो चुकी है वह प्रतिवर्ष अनेक पिल्लों का बाप बन रहा है।

 भाइयो/बहनों, मुर्गों को तो सीमित ज्ञान है उन्हें क्या पता कि सोने में, निद्रा में कितना आराम, निश्चिंतता और सुख है, मीठे-मीठे सपनों का संसार है पर जागना कितना कष्टदायक होता है। सारे दुख, चिंता, परेशानी, संघर्ष जागने पर ही सामने आते हैं। इसीलिये लोगों को सोना पसंद है। मुर्गों को समझना चाहिए कि जिन्हें भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर सहित समय समय पर धरती पर आए ज्ञानी संत-महात्मा और गुरु नहीं जगा पाए उन्हें भला मुर्गा क्या जगायेगा। मुर्गों की भलाई इसी में है कि वे सुबह बाँग देना बंद कर दें अथवा उसका समय आगे बढ़ा दें। जब सब सोकर उठ जाएं तब बाँग दें। यद्यपि डॉक्टर साहब नींद खराब करने का पूरा दोष मुर्गों पर मढ़ रहे हैं तथापि मेरा पुलिस प्रशासन से आग्रह है कि वह मामले की गहराई से जांच करे। हो सकता है कि डॉक्टर की नींद किसी अन्य कारण से उड़ी रहती हो और दोषी मुर्गे ठहराए जा रहे हों। कहावत है –

 “प्रेम न जाने जात-कुजात

 नींद न जाने टूटी खाट

 भूख न जाने बासो भात

 प्यास न जाने घोबी घाट”

 अतः मैं तो समझता हूँ कि डॉक्टर साहब को पड़ोसन और मुर्गों को दोष देने के बजाय अपनी कच्ची नींद का कारण खोज कर उसका इलाज कराना चाहिए।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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