श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “यहां सभी भिखारी हैं)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 6

☆ व्यंग्य ☆ “बात बतंगड़ – डॉक्टर और पड़ोसन के मुर्गे” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

जितने लोग उतनी परेशानियाँ। कोई अकेलेपन से, एकांत से परेशान है तो कोई भीड़भाड़ और शोर से। इंदौर के एक कैंसर स्पेशलिस्ट डॉक्टर अपनी पड़ोसन के मुर्गों की बाँग से परेशान हैं। उन्होंने पड़ोसन पर पब्लिक न्यूसेंस का केस दर्ज करा दिया है। डॉक्टर साहब का कहना है कि सुबह-सुबह जब उनकी नींद लगती है तब पड़ोसन द्वारा पाले गए मुर्गे जोर-जोर से कुकड़ूँ कूं चिल्लाकर याने बाँग देकर उनकी नींद खराब कर देते हैं। डॉक्टर साहब का कथन सही है लेकिन क्या हम शेरों को दहाड़ने, हाथियों को चिंघाड़ने, कुत्तों को भौंकने, चिड़ियों को चहचहाने और मुर्गों को कुकड़ूँ कूं चिल्लाने के उनके नैसर्गिक अधिकार से वंचित कर सकते हैं ? बोलने के अधिकार की आड़ में नेता क्या-क्या, कैसा-कैसा बोल रहे हैं और लोगों को सुनना पड़ रहा है पर मुर्गों की कुकड़ूँ कूं से तकलीफ हो रही है ! बेचारे मुर्गों ने तो अपने परिजनों के काटे जाने की कभी कोई शिकायत नहीं की। उन्होंने कभी नहीं कहा कि जब मारने की मंशा से हमें बड़ा करते हो तो हमारे रहने के ठिकानों को “कुक्कुट पालन केंद्र” क्यों कहते हो उन्हें “मारण केंद्र” कहो।

मुझे लगता है कि अपने समय के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक न्यूटन ने अपने अति बुद्धिमान होने की जिस समस्या के चलते अपनी बड़ी और छोटी बिल्ली के लिए दरवाजे में दो छेद करवाने की योजना बनाई थी कुछ वैसी ही अति बुद्धि की समस्या से किसी नगर के ये डॉक्टर भी पीड़ित हैं जो मुर्गों की कुकड़ूँ कूं से परेशान होकर लंबी कानूनी लड़ाई में फंस गए हैं। अरे इतनी बड़ी समस्या का छोटा सा इलाज था- वे अपने कानों में रुई लगाकर सोना शुरू कर देते। पड़ोसन के मुर्गों को दाना चुगाते, उन्हें प्यार करते तो पड़ोसन से भी उन्हें कुछ अच्छा रिटर्न मिलता। क्या किया जा सकता है शरीर विज्ञान वाले मन का विज्ञान क्या जानें वरना पड़ोसन से सम्बंध बढ़ाने मुर्गे कितने अच्छे माध्यम थे। खैर अब तो रिपोर्ट दर्ज हो चुकी है। हो सकता है कि पुलिस डॉक्टर से सेट हो जाये लेकिन अगर कहीं पशु-पक्षी प्रेमी तक यह खबर पहुंच गई कि डॉक्टर को मुर्गों की बाँग नापसंद है तो फिर क्या होगा भगवान ही जाने। यों पशु-पक्षी संरक्षण कानून के चलते आवारा कुत्तों, सुअरों, बंदरों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उनके हमलों से लोग परेशान हैं पर कुछ कर नहीं सकते। कुत्तों आदि की संख्या नियंत्रित करने देश में करोड़ों रुपयों से इनकी नसबंदी की योजना चलाई जा रही है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि जिस कुत्ते की रजिस्टर में नसबंदी हो चुकी है वह प्रतिवर्ष अनेक पिल्लों का बाप बन रहा है।

 भाइयो/बहनों, मुर्गों को तो सीमित ज्ञान है उन्हें क्या पता कि सोने में, निद्रा में कितना आराम, निश्चिंतता और सुख है, मीठे-मीठे सपनों का संसार है पर जागना कितना कष्टदायक होता है। सारे दुख, चिंता, परेशानी, संघर्ष जागने पर ही सामने आते हैं। इसीलिये लोगों को सोना पसंद है। मुर्गों को समझना चाहिए कि जिन्हें भगवान राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर सहित समय समय पर धरती पर आए ज्ञानी संत-महात्मा और गुरु नहीं जगा पाए उन्हें भला मुर्गा क्या जगायेगा। मुर्गों की भलाई इसी में है कि वे सुबह बाँग देना बंद कर दें अथवा उसका समय आगे बढ़ा दें। जब सब सोकर उठ जाएं तब बाँग दें। यद्यपि डॉक्टर साहब नींद खराब करने का पूरा दोष मुर्गों पर मढ़ रहे हैं तथापि मेरा पुलिस प्रशासन से आग्रह है कि वह मामले की गहराई से जांच करे। हो सकता है कि डॉक्टर की नींद किसी अन्य कारण से उड़ी रहती हो और दोषी मुर्गे ठहराए जा रहे हों। कहावत है –

 “प्रेम न जाने जात-कुजात

 नींद न जाने टूटी खाट

 भूख न जाने बासो भात

 प्यास न जाने घोबी घाट”

 अतः मैं तो समझता हूँ कि डॉक्टर साहब को पड़ोसन और मुर्गों को दोष देने के बजाय अपनी कच्ची नींद का कारण खोज कर उसका इलाज कराना चाहिए।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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