हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 15 – कबीर पूछ रहे …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “कबीर पूछ रहे …..। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ कबीर पूछ रहे ….☆

 

वे लिये हथौड़ा

और छैनी

हम सम्हालते

रहे नसेंनी

 

प्रश्नों से बाहर

क्या आयेंगे

जीवन के सच

को तब पायेंगे

 

ठोंक तीन उँगलियाँ

हथेली पर

भैया जी मींड़

रहे खैनी

 

सपनों सा स्वाद

लिये तरकारी

पकती है रोज-

सुबह, सरकारी

 

गालें अब क्या

कबीर पूछ रहे

साखी फिर सबद

या रमैनी

 

खिड़की पर बैठ

गई फुलवारी

भीतर भड़ास

लिये है क्यारी

 

खिलना, मुरझाना

तो आदत है

फूलों     की

अपनी पुश्तैनी

 

© राघवेन्द्र तिवारी

20-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 19 ☆ दोहा सलिला  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है  दोहा सलिला )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 19 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ 

नियति रखे क्या; क्या पता, बनें नहीं अवरोध

जो दे देने दें उसे, रहिए आप अबोध

 

माँगे तो आते नहीं , होकर बाध्य विचार

मन को रखिए मुक्त तो, आते पा आधार

 

सोशल माध्यम में रहें, नहीं हमेशा व्यस्त

आते नहीं विचार यदि, आप रहें संत्रस्त

 

एक भूमिका ख़त्म कर, साफ़ कीजिए स्लेट

तभी दूसरी लिख सकें,समय न करता वेट

 

रूचि है लोगों में मगर, प्रोत्साहन दें नित्य

आप करें खुद तो नहीं, मिटे कला के कृत्य

 

विश्व संस्कृति के लगें, मेले हो आनंद

जीवन को हम कला से, समझें गाकर छंद

 

भ्रमर करे गुंजार मिल, करें रश्मि में स्नान

मन में खिलते सुमन शत, सलिल प्रवाहित भान

 

हैं विराट हम अनुभूति से, हुए ईश में लीन

अचल रहें सुन सकेंगे, प्रभु की चुप रह बीन

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२०-४-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 7 ☆ ये जीवन है आसान नही ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  की एक ग़ज़ल  ये जीवन है आसान नही। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 7 ☆

☆ ये जीवन है आसान नही ☆

 

ये जीवन है आसान नही जीने को झगड़ना पड़ता है

चलने को गलीचो पे पहले तलवो को रगड़ना पड़ता है

 

मन के भावो औ चाहो को दुनिया ने किसी के कब समझा

कुछ खोकर भी कुछ पाने को दर दर पै भटकना पड़ता है

 

सर्दी की चुभन गर्मी की जलन बरसात का बेढ़ब गीलापन

आघात यहां हर मौसम का हर एक को सहना पड़ता है

 

सपनो में सजाई गई दुनियां इस दुनिया में मिलती कम को

अरमान लिये बेमन से भी संसार में चलना पड़ता है

 

देखा है बहारो में भी यहां कई फूल कली मुरझा जाते

जीने के लिये औरो से तो क्या खुद से भी तो लड़ना पड़ता है

 

तर हो के पसीने से बेहद अवसर को पकड़ पाने के लिये

छूकर के भी न पाने की कसक से कई को तड़पना पड़ता है

 

वे हैं विदग्ध किस्मत वाले जो मन माफिक पा जाते हैं

वरना ऐसे भी कम हैं नहीं जिन्हें बन के बिगड़ना पड़ता है

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 45 ☆ गणेश पठवनि ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगणी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्राकृतिक पृष्टभूमि में रचित एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  गणेश पठवनि। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 45 ☆

गणेश पठवनि 

 

आज पठवनि गणेश तुम्हारी।

मम हृदय लगे हर क्षण भारी।।

 

जै भी पूजा जैसे भी कीन्हा ।

तुम हर भूल को उदर में लीन्हा।।

 

हौ कछु जानत नाही कोई विधि।

बस तुम्हारी भक्ति करी लिधी।।

 

तुमको अति प्रिय लागत दूर्वादल।

मूषक संग मोदक, फूल कमल।।

 

मैं बस रजकण तुम्हारे पाँवन की।

नैनन में लगी लड़ी  आँसुवन की।।

 

अकुलाये मन का हर कोना।

सदन रिक्त करी जाये क्यों दीना।।

 

कृपा दृष्टि रखो बुद्धि के नाथा।

अब जायिके आओ फिरी दाता।।

 

© सुजाता काळे

1/9/20

पंचगणी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 60 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 60 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

तितली

रंग बिरंगी तितलियां,

विश्व सुंदरी रूप।

कहीं छिटकती चांदनी,

कहीं छिटकती धूप।।

 

जंगल

जल का माध्यम हरे वन,

जल से वन संपन्न ।

जल जंगल से हीन हो,

मृत्यु देखें आसन्न।।

 

श्राप

कोरोना की मार ही,

आज बना है श्राप।

सबके सिर पर नाचता,

बना सभी का बाप।।

 

बारूद

बातों के बारूद पर,

चलें घिनौनी चाल।

जीवन है संघर्ष का,

करे बुरा जो हाल।।

 

धूप

शरमाता है देखकर,

दर्पण उजला रूप।

तेरी शोभा बढ़ रही,

पड़े मखमली धूप।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]
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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 51 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 51☆

☆ संतोष के दोहे  ☆

 

तितली

तितली की फितरत अलग,निखरें रंग हज़ार

जब भी थामा प्यार से,करे रंग बौछार

 

जंगल

अपराधी निशिदिन बढ़ें,उन पर नहीं लगाम

लगता जंगल राज सा,सरकारी अब काम

 

बारूद

हथियारों की होड़ में,बारूदों के ढेर

दुनिया में सब कह रहे,मैं दुनिया का शेर

 

श्राप

अजब परीक्षण चीन का,आज बना है श्राप

कोरोना सिर चढ़ गया,देकर सबको थाप

 

धूप

पूस माह में धूप की,सबको होती चाह

तन कांपे मन डोलता,मुँह से निकले आह

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पी-17 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पी-17

‘चुपचाप रहो’

दो शब्दों का मेल,

कहने वाले,

सुनने वाले के भीतर

मचा देता है

विचारों का

दोतरफा कोलाहल!

 

©  संजय भारद्वाज 

8:36 बजे, 2.9.2018

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 39 ☆ नवगीत – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक नवगीत  “भीगिए, गाइए आज गाना.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 39 ☆

☆ नवगीत – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ 

 

फिर हुआ

आज मौसम सुहाना

आ गया बारिशों का जमाना

भीगिए

गाइए आज गाना

 

गा रही हैं फुहारें

छतों पर

दर्द लिख दीजिए

सब खतों पर

 

बचपने में चले जाइएगा

बूँदों से है

रिश्ता पुराना

 

युग-यगों से

प्रतीक्षा रही है

मीत!अब आस

पूरी हुई है

 

प्रेयसी आ गई

आज मिलने

बात मन की

उसे अब बताना

 

जागिए

अब निकलिए घरों से

उड़ चलें आज

मन के परों से

 

छेड़ दी रागिनी

पंछियों ने

देखिए

पंख का फड़फड़ाना

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 61 – हम जड़ें हैं ….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक और कालजयी रचना हम जड़ें हैं…..…..…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 61 ☆

☆ हम जड़ें हैं….. ☆  

हम जड़ें हैं

फूल फल यदि चाहते हो

सींचते रहना पड़ेगा,

याद रखना,

हम प्रकृति से हैं जुड़े

हमसे तुम्हें जुड़ना पड़ेगा,

ये मुखोटे

ये कृत्रिम से मास्क

सांसें शुद्ध कब तक ले सकोगे

एक दिन  थक-हार

कर फिर से यहीं पर

लौटना वापस पड़ेगा।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ ऊहापोह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ ऊहापोह  ☆

 

वचन दिया था उसने

कभी नहीं लिखेगा

स्याह रात के किस्से..,

कलम उठाई तो जाना

केवल स्याह रातें ही

आई थीं उसके हिस्से!

 

#आपका समय प्रकाशवान हो।

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 11:19 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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