हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 54 ☆ बुंदेली ग़ज़ल – काय रिसा रए… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित बुंदेली ग़ज़ल    ‘काय रिसा रए। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 54 ☆ 

☆ बुंदेली ग़ज़ल – काय रिसा रए ☆ 

काय रिसा रए कछु तो बोलो

दिल की बंद किवरिया खोलो

 

कबहुँ न लौटे गोली-बोली

कओ बाद में पैले तोलो

 

ढाई आखर की चादर खों

अँखियन के पानी सें धो लो

 

मिहनत धागा, कोसिस मोती

हार सफलता का मिल पो लो

 

तनकउ बोझा रए न दिल पे

मुस्काबे के पैले रो लो

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (51-55) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (51-55) ॥ ☆

मुनिकन्यायें सींच तरू उन्हें गई झट त्याग

जिससे निर्भय हो विहंग पान करें जल भाग ॥ 51॥

 

रोमन्थन करते हनिण प्रांगण में मिल साथ

जहाँ दिन ढले अन्न को रहे समेट निषाद ॥ 52॥

 

आहूति गंधी पवन से धूम जहाँ गतिवान

अग्नि शिखा शुचि अतिथि ने आश्रम को पहचान ॥ 53॥

 

अश्वों को तब थामनें दे सारथि को हाथ

राजा रथ से उतर गये रानी को ले साथ ॥ 54॥

 

सपत्नीक उस न्यायी से, जो रक्षक विख्यात

सभी जितेन्द्रिय मुनियों ने की स्वागत कर बात ॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 41 ☆ शिक्षा ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  शिक्षा के क्षेत्र पर लिखी गई विशेष कविता  “शिक्षा  “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 41 ☆ शिक्षा  

पैसा जिसके पास है दे सकता जो दान

उसको यूनिवर्सिटी की हर डिगरी आसान

शिक्षा, सर्विस, मान के भी हैं वे हकदार

बहुत प्रदूषित हो गया शिक्षा का संसार

 

बिना शुल्क यद्यपि सुलभ शिक्षा का अधिकार

तदपि प्रवेश की प्राप्ति का बहुत कठिन आधार

यदि प्रवेश  भी मिल सका तो मुश्किल है खर्च

कोई गरीब कैसे करे जीवन बेडा पार ?

 

पुस्तक, कापी, ड्रेस और फीस के विविध प्रकार

निर्धन पालक को कठिन लेना राशि उधार

शिक्षा कम शालाओ का टीम टाम पर जोर

दुखी पालकों पर बढ रहा है आर्थिक भार

 

ऊँची अभिलाषाओं का मन में भरा गुबार

इससे कोचिंग क्लास का बढा हुआ व्यापार

लेते उॅंची फीस सब एडमीशन के साथ

किंतु सफल परिणाम हो, कोई न जिम्मेदार

 

शासन और समाज को शायद नहीं यह ध्यान

शुभ शिक्षा बिन असंभव श्रेष्ठ राष्ट्र निर्माण

यदि शिक्षक और पाठ्यक्रम का स्तर प्रतिकूल

तो शिक्षा कर सकती नहीं पूर्ण सुखद अनुमान

 

सदाचार अब है नहीं जीवन का आधार

इससे अनुचित हो रहे सब दैनिक व्यवहार

शिक्षा शिक्षा न रही बन गई है दूकान

लेनदेन से हो रहे वहाॅ सभी व्यापार

आवश्यक है हो सभी शिक्षा में सुधार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भेड़िया ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – भेड़िया ?

भेड़िया उठा ले गया

झाड़ी की ओट में,

बर्बरता से उसका

अंग-प्रत्यंग भक्षण किया,

कुछ दिन बाद

देह का सड़ा-गला

अवशेष बरामद हुआ,

भेड़ियों का ग्राफ

निरंतर बढ़ता गया,

फिर यकायक

दुर्लभ होते प्राणियों में

भेड़िये का नाम पाकर

मेरा माथा ठनक गया,

अध्ययन से यह

तथ्य स्पष्ट हुआ,

चौपाये भेड़िये

जिस गति से घट रहे हैं,

दोपाये भेड़िये

उससे कई गुना अधिक

गति से बढ़ रहे हैं…!

©  संजय भारद्वाज

(प्रातः 3.45 बजे, 26.4.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (46-50) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (46-50) ॥ ☆

 

चलते पथ शुचि वेश में होते थे यों भास

जैसे चित्रा – चन्द्र हों, शुचि निरभ्र आकाश ॥ 46॥

 

दिखलाते पथ में मिले प्रिय को रम्य स्थान

सारा पथ यों कट गया, रहा न नृप को ध्यान ॥ 47॥

 

कीर्तिमान भूपाल तब थके हुये बेहाल

पहुंचे रानी सहित, मुनि – आश्रम सायंकाल ॥ 48॥

 

समिधा कुश फल आदि ले लौटे वन से लोग

देखा ताप सवृंद का अग्नि प्रज्वलन योग ॥ 49॥

 

उरज द्वार को रोककर मुनि पत्नी के पास

बाल मृगों को पुत्रवत चरते कोमल घास ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – यक्षप्रश्न ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – यक्षप्रश्न ?

( पर्यावरण विमर्श-7)

प्रश्न है,

प्रकृति के केंद्र में

मनुष्य है या नहीं,

उससे भी बड़ा

प्रश्न है,

मनुष्य के केंद्र में

प्रकृति है या नहीं !

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 93 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 93 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

अभी अभी तो हैं  खुले,

जीवन के हर द्वार।

जिएंगे हम खुशी से,

मानेंगे ना हार।।

 

मिठास सा जीवन रहे,

थोड़ा सा मनुहार।

हर रिश्ते में भाव का,

प्यार भरा श्रृंगार।।

 

कांटा चुभते चुभ गया,

घाव बहुत गंभीर।

दर्द बहुत मन में हुआ,

होती जब है पीर।।

 

नींद कहां ही आ रही,

जागें सारी रात।

आंखों से ही बह रहा,

आंसू का जलजात।।

 

तनहाई करती रही,

बस उनकी फरियाद।

कोरोना में खो दिया,

करते उनको याद।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 83 ☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 83 ☆

☆ मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे? ☆

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

गीत प्यार के गाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार छुप-छुप कर रोते

नैतिक मूल्य गरिमा खोते

मर्यादा सिखलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संस्कार की धानी दूषित

लोभियों ने की कलूषित

दर्द शहर का दिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चारों तरफ मचा है कृन्दन

छिन्न-भिन्न और खिन्न है मन

मन को अब समझाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

मानवता के दुश्मन जो भी

बहुरूपिये लालची-लोभी

इनके करम बताऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

संकट में जो लूट मचाते

अवसर समझ न इसे गंवाते

इनको सबक सिखाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

बेच रहे नकली इंजेक्शन

इनका बहुत बड़ा कनेक्शन

दान से पाप धुलाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

चले गए बे-मौत जहाँ से

लौट के आता कौन वहाँ से

आत्मा शांत कराऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

रोष प्रशासन में जब होगा

“संतोष”तभी मन में होगा

इन्हें सजा दिलवाऊँ कैसे

मन की व्यथा सुनाऊँ कैसे

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ एक और एक भी नहीं ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

एक और एक भी नहीं ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

(मरुस्थल काव्य संग्रह की कविता। इस कविता का अंग्रेजी भावानुवाद जर्मनी की ई पत्रिका (Raven Cage (Poetry and Prose Ezine)#57) में प्रकाशित )

 नहीं, कई रास्ते नहीं हैं.

हाँ,बहुत सारे रास्ते हैं.

मै स्वयं को खोजती हूँ अमर्याद में,

निश्चितता खोजती हूँ आभास में,

अमृत खोजती हूँ अर्थ और संदर्भ से,

उद्देश्यों से उद्देश्य तक की यह यात्रा,

सारे रास्ते जाते हैं उस एक तक.

द्वार खोलते हैं मेरी बगिया के,

यही रास्ता है स्वयं से आत्मा तक का.

वहाँ मै भी हूँ और नहीं भी हूँ,

सिर्फ आत्मा की एक संधिछाया !

 

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (41-45) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (41-45) ॥ ☆

 

पंक्ति बद्ध बिखरी हुई तोरण सी अभिराम

सार के  कल नाद सुन आनन उठा कलाम ॥ 41॥

 

अश्व खुरों की धूल से भरें अलक औं बाल

लखत पवन प्रवाह से काम सिद्धि तत्काल ॥ 42॥

 

वीचि विताहित जलज सी सर में व्याप्त सुवास

अपनी श्वासं सदृश मधुर पीकर शीतल वात ॥ 43॥

 

यूप चिन्ह लख ग्राम में सकल मनोरथ जान

अर्ध्य सहज स्वीकार कर सबको आशिष मान ॥ 44॥

 

ले नवनीत उपस्थित वयोवृद्ध गोपाल

से परिचय पा मार्ग का पूँछ ताँछ कर हाल ॥ 45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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