हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (71-75) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (71-75) ॥ ☆

बिना स्नान आबद्ध गज को ज्यों कष्ट महान

तद्धत मम मन की व्यथा को समझें भगवान ॥ 71॥

 

जिस विधि उससे मुक्ति हो वही करें प्रिय तात

सूर्यवंश के कष्ट में सिद्धि आपके हाथ ॥ 72॥

 

राजा के ये वचन सुन हुये ध्यान में लीन

क्षण भर ऋषि यों शांत ज्यों दिखे झील में मीन ॥ 73॥

 

शुद्ध हृदय मुनि ने लखा, कर के जब प्रणिधान

जो देखा सब कह दिया नृप से सहित निदान ॥74॥

 

कभी इंद्र के पास से आते पृथ्वी लोक

देख कल्पतरू छाँव में खड़ी सुरभि पथ रोक ॥ 75॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #94 – मानसून की पहली बूंदे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता   ‘मानसून की पहली बूंदे….….। )

☆  तन्मय साहित्य  # 94 ☆

 ☆ मानसून की पहली बूंदे…. ☆

मानसून की पहली बूंदे

धरती पर आई

महकी सोंधी खुशबू

खुशियाँ जन मन में छाई।

 

बड़े दिनों के बाद

सुखद शीतल झोंके आए

पशु पक्षी वनचर विभोर

मन ही मन हरसाये,

बजी बांसुरी ग्वाले की

बछड़े ने हाँक लगाई।

 

ताल तलैया पनघट

सरिताओं के पेट भरे

पावस की बौछारें

प्रेमी जनों के ताप हरे,

गाँव गली पगडंडी में

बूंदों ने धूम मचाई।

 

उम्मीदों के बीज

चले बोने किसान खेतों में

पुलकित है नव युगल

प्रीत की बातें संकेतों में,

कुक उठी कोकिला

गूँजने लगे गीत अमराई।

मानसून की पहली बूंदें

धरती पर आई

महकी सुध खुशबू

जन-जन में छाई।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆ मौत से रूबरू ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘मौत से रूबरू । ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆

☆ मौत से रूबरू

वैसे तो मुझे यहां से जाना ना था,

मुझे अभी तो और जीना था,

कुछ मुझे अपनों के काम आना था,

कुछ अभी दुनियादारी को निभाना था,

एक दिन अचानक मौत रूबरू हो गयी,

मैं घबरा गया मुझे उसके साथ जाना ना था,

मौत ने कहा तुझे इस तरह घबराना ना था,

मुझे तुझे अभी साथ ले जाना ना था,

सुनकर जान में जान आ गयी,

मौत बोली तुझे एक सच बतलाना था,

बोली एक बात कहूं तुझसे,

यहाँ ना कोई तेरा अपना था ना ही कोई अपना है,

मैं मौत से घबरा कर बोला,

मैं अपनों के बीच रहता हूँ यहां हर कोई मेरा अपना है,

 

मैंने मौत से कहा तुझे कुछ गलतफहमी है,

सब मुझे जी-जान से चाहते हैं हर एक यहां मिलकर रहता है,

मौत बोली बहुत गुमान है तुझे अपनों पर,

तेरे साथ तेरा कोई नहीं जायेगा जिन पर तू गुमान करता है,

मैंने भी मौत से कह दिया,

तुझ पर भरोसा नहीं, तुझ संग कभी इक पल भी नहीं गुजारा है,

भले अपने कितने पराये हो जाये,

मुझे इन पर भरोसा है इनके साथ सारा जीवन बिताया है ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (66-70) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (66-70) ॥ ☆

अब मेरे उपरांत क्या होगा श्राद्ध – विधान

यह विचार कर पितृगण चिन्तित व्यथित महान ॥66॥

 

मेरा पय का अर्ध्य भी कर दुख से स्वीकार

दिखते हैं चिंतित, किसे दूँगा यह अधिकार ॥ 67॥

 

संतति क्रम के लोप से में भी हूं परितप्त

धूप – छॉव के जाल सम आश – निराश त्रस्त॥68॥

 

दान तपस्या पुण्य है पारलोक सुख स्रोत्र

लोक और परलोक में संतति सुख का स्रोत्र ॥ 69॥

 

आश्रम पालित वृक्ष सम मुझे देख स्वयमेव

ऐसा संतति हीन जो, क्या न दुखी गुरूदेव ॥ 70॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “रंग भरा तोहफ़ा। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 83 ☆

☆ रंग भरा तोहफ़ा ☆

वो सीली सी महक…

वो यादों की चहक…

मजबूर कर रही थी मुझे

कुछ बंद कमरे खोलने के लिए…

कुछ भी तो नहीं था बस में मेरे,

और चल पड़ी मैं

दिल के मकाँ के अन्दर बने

इन ख़ाली-ख़ाली से कमरों में…

 

धूल से ऐसी मटमैली लग रही थीं दीवारें

और कमरे के कैनवास के रंग इतने मलिन थे,

कि मुड़कर मैं वापस आने ही वाली थी…

पर…पर…नज़र आ गयी वो रंगीन डायरी,

जिसका रंग अभी भी बरक़रार था…

 

मैंने दीवारों को साफ़ किया,

कैनवास को पोंछा,

और फिर अपने थरथराते हाथों में लिए हुए

वो हसीं सी डायरी,

उसका लम्हा-लम्हा अपने हथेलियों पर रख

उसे निहारने लगी!

 

उन लम्हों के बुलबुलों में

कुछ ग़म था, तो कुछ ख़ुशी;

पर मेरी छुअन से

ग़म के बुलबुले फूटने लगे

और ख़ुशी के बुलबुले और रंगीन होने लगे!

 

यह रंग भरा तोहफ़ा

मैंने अपनी रूह की तिजोरी में

क़ैद कर लिया

और ख़ुद को गले से लगाकर कहा

“मुझे तुमसे प्यार है!”

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कलम ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – कलम ?

जब कोई रास्ता नहीं सूझता,

कलम उठा लेता हूँ,

अनगिनत रास्ते और

अनंत पगडंडियाँ खोलनेवाले

मोड़ पर खुद को पाता हूँ,

दिशा पाने के लिए

फिर कलम चलाता हूँ,

और रचना बनकर

पाठकों तक पहुँच जाता हूँ..!

©  संजय भारद्वाज

रात्रि 10:01 बजे, 3 जून 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 2 ☆ हेमन्त बावनकर

 

लोकतन्त्र का उत्सव

मतदान

लोकतन्त्र का पर्व !

शायद इसीलिए

कुछ लोग मना लेते हैं

सपरिवार महापर्व ।

 

दलदल

सजग मतदाताओं ने

घंटों पंक्तिबद्ध होकर

किया मताधिकार

मनाया – लोकतन्त्र का पर्व!

  

किसी ने अपने विवेक से

किसी ने अविवेक से।  

किसी ने धर्म से प्रेरित होकर

किसी ने जाति से प्रेरित होकर।

 

अंत में जो जीता

उसने बदल लिया

अपना ही दल।

 

किंकर्तव्यमूढ़ मतदाता !

देख रहा है

लोकतन्त्र का भविष्य?

समझ नहीं पा रहा है कि

वह किसी दल में है

या

किसी दलदल में?

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

15 जून 2021 प्रातः7.57

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (61-65) ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (61-65) ॥ ☆

तंत्र मंत्रो से दूर के रिपु भी हैं सब शान्त

जैसे मेरे बाण से लक्ष्य बेध एकान्त ॥ 61॥

 

प्रभु के नियमित यज्ञ से होता है पर्जन्य

प्रजा सुखी है राज्य में उत्पादित बहु अन्न ॥ 62॥

 

सब शतायू , जो प्रजा में, निर्भय और सानन्द

ज्ञान मनन चिन्तन तप, तब कारण भगवन्त ॥ 63॥

 

आप सदृश चिन्तन परम गुरू जिसके आधार

सुखी राज्य जन संपदा कुशल सकल व्यापार ॥ 64॥

 

किन्तु आपकी यह वधू अब तक पुत्र विहीन

अतः सद्दीपा रत्नदा दिखती धरा मलीन ॥ 65॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#50 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #50 –  दोहे  ✍

शब्द वहां बेमायने, जहां तीव्र अहसास ।

कितनी भी दूरी रहे, प्रिय लगता है पास।।

 

अनदेखी आत्मा बड़ी, छोटा बहुत शरीर।

 मिलन बिंदु के मध्य में, खींची एक प्राचीर।।

 

बस तन ही माध्यम बना, करें प्रेम अहसास।

 आत्मा को तो मानिए, मरुथल का मधुमास।।

 

सीढ़ी से तुम उतरती, सधे हुए लय ताल।

 एड़ी की आभा रचे, नए इंद्र के जाल।।

 

चाह चाहती चांदनी, मनचाहे मकरंद ।

इन यादों का क्या करूं, रचती शोध प्रबंध।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 49 – जैसे दोहे रहीम के… ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “जैसे दोहे रहीम के…  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 49 ☆।। अभिनव गीत ।।

☆ जैसे दोहे रहीम के …  ☆

ये पत्ते नीम के

कड़वे लगते

जैसे नुस्खे

हकीम के

 

दुबले पतले

हिलते

लगे, हाथ हैं

मलते

 

भूखे

प्यासे

जैसे बेटे

यतीम के

 

डालडाल

लहराते

टहनी में

गहराते

 

झूमते

मचलते

नशे में

अफीम के

 

हरे भरे

रहते हैं

खरी खरी

कहते हैं

 

जैसे कि

तकाजे

हवा के

मुनीम के

 

झोंके

छतनार कहीं

झुकते

साभार वहीं

 

शाख पर

सजे

जैसे दोहे

रहीम के

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

12-06-2021

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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