हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 119 ☆ कविता – लोक साहित्य ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा रचित एक विचारणीय  कविता ‘लोक साहित्य । इस विचारणीय कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 119 ☆

? कविता – लोक साहित्य ?

लोकसहित्य

किताबों में बंधे सफे नहीं

पीढ़ियों की

अनुभव जन्य विरासत है.

 

कपड़ों की क्रीज में फंसे

शिष्ट समाज के संभ्रांत सज्जनो

दे सकते  हो

गालियां तुम किसी को !

उस सहजता से

जिस आत्मीयता से

भरपेट भोजन करवाते हुये

गालियां दे लेती हैं

लोक जीवन में

मोहल्ले की महिलाएं भी

बारातियों को

 

तुम्हें लिपिबद्ध करना है ,

तो तुम लिखते रहो

शोध कर्ताओ

इन लयबद्ध

समवेत स्वरों को

ये अलिखित

लोक गीत

जीवन के,

कापीराइट से

मुक्त हैं

ये 

उन्मुक्त भाव हैं

अंतर्मन के

जो पीढ़ी दर पीढ़ी

परिष्कृत होते हैं

नयी इबारत में

समय और परिवेश 

को स्वयं में समेट कर

मुखरित होते हैं

समवेत स्वरों में

 

खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा,

गीत, संगीत

कला-कौशल, भाषा

कुल देवी, देवता

सब अलग-अलग

घर घर, परिवार

कुटुंब में, गांव गांव में

 

यह विविधता ही

लोक संस्कृति है

कितना सुसम्पन्न

कितना सकारात्मक

है लोक का जन

वे दूकान बन्द नहीं करते

बढ़ाते  हैं हर रात

जहाँ घर से जाता व्यक्ति

कहता है आता हूं

 

प्रवृत्तियों का प्रतीक  है

एक एक मुहावरा

और कहावत

लोक साहित्य

अनुभूतिमयी

अभिव्यंजना है

सर्व साधारण की

जीवन शैली की ।

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 81 ☆ मैं हिंदी हूँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण कविता “मैं हिंदी हूँ

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 81 ☆

☆ मैं हिंदी हूँ ☆ 

मैं भारत की प्यारी हिंदी।

जन-जन की उजियारी हिंदी।।

 

मैं तुलसी की सृष्टि बनी।

मैं सूरदास की दृष्टि बनी।।

 

मैं हूँ मीरा की  पथगामी।

मैं हूँ कबीर की सतगामी।।

 

मैं रत्नाकर के छंद बनी।

मैं खुसरो की हूँ बन्द बनी।।

 

मैं घनानंद की प्रवाहिका।

मैं निराला की अनामिका।।

 

मैं बसंत का गीत बनी।

फिल्मों का संगीत बनी।।

 

मैं मोक्षदायिनी गंग बनी।

 मैं सप्तरंग का रंग बनी।।

 

मैं ही जीवन का सत्य अटल।

मैं ही भारत का भाग्य पटल।।

 

मैं हूँ तुलसी का रामचरित।

सुरसरिता-सी महिमामंडित।।

 

 मैं जयशंकर की कामायनी।

मैं शस्य धरा की प्राणदायिनी।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (1 -5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (1-6) ॥ ☆

लखा वहाँ अज ने आसनों पर सजे विराजे नृपति वरों को

जो मंच शोभी स्वरूप गुण से लुभा रहे थे अमरगणों को ॥ 1 ॥

 

परन्तु उसको विलोक नृपगण निराश से हो उदास मन से

लगे समझने कि इंदु अज की है, प्रीति रति की यथ मदन से ॥ 2 ॥

 

विदर्भपति के दिखाये पथ से कुमार वह पहुँचा मंच पै जो

लगा कि ज्यो कोई सिंहशावक, शिलाओं से गिरिशिखर चढ़ा हो ॥ 3 ॥

 

रँगे गलीचे से अति सुसज्जित, जड़ाऊ आसन पै बैठ के वह

हुआ सुशोभित मयूर की पीठ पै जैसे बैठे हों कार्तिकेय ॥ 4 ॥

 

यथा सघन घन के मध्य दामिनि की कौंध होती है दीप्तिवाली

तथा थी अज की समृद्ध शोभा वहाँ दमकती हुई निराली ॥ 5 ॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #104 – सीधी बात न करता क्यों बे…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा रात  का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक भावप्रवण गीतिका  “सीधी बात न करता क्यों बे….”। )

☆  तन्मय साहित्य  #104 ☆

☆ सीधी बात न करता क्यों बे….

(एक मित्र से चर्चा के दौरान उसके दिए शब्द “क्यों बे” शब्द पर लिखी एक गीतिका)

 

क्या लिखता रहता है क्यों बे

रातों में जगता है क्यों बे।

 

लच्छेदार शब्द शस्त्रों से

लोगों को तू ठगता क्यों बे।

 

सच जब तेरे सम्मुख आए

मूँह छिपाकर भगता क्यों बे।

 

बातें दर्शन और धर्म की

यूँ फोकट में बकता क्यों बे।

 

बिना पिये पटरी से उतरे

सीधी बात न करता क्यों बे।

 

नौटंकी अभिनय बाजों से

रिश्ता उनसे रखता क्यों बे।

 

लिखता है जैसा जो भी तू

वैसा ना तू दिखता क्यों बे।

 

बाहर बाहर मौज खोजता

भीतर में नहीं रहता क्यों बे।

 

मन की मदिरा बहुत नशीली

बाहर निकल, बहकता क्यों बे।

 

कहे मदारी, सुने जमूरा

हाँ में हाँ तू कहता क्यों बे।

 

ह्रस्व दीर्घ की पंचायत में

छंदों में नहीं रमता क्यों बे।

 

बीच बजार खड़ी है कविता

दाम सही ना मिलता क्यों बे।

 

मिल-जुल हँसी-खुशी से जी ले

अपनों से ही जलता क्यों बे।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – माँ ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆  

अगर शब्द दुनियां में “माँ ” का ना होता।

सफर जिंदगी का शुरू कैसे होता।।

एक  माँ ही तो है जिसमें, कायनात समायी है।

कोख से जिसकी शुरू होता जीवन,

होती उसी की गोद में अंतिम विदाई है।।

शुरू होती दुनियां माँ के ही दर्द से।

माँ ने ही हमारी हमसे पहचान कराई है।।

अंगुली पकड़कर सिखाया है चलना।

माँ की परछाई में दुनियां समायी है।।

ना भूख से कड़के माँ, ना प्यास से तरसे।

संतान के लिए ही वो हर पल तडफे।।

ममता के आंचल में दर्द भर लेती।

दुनियां से सामना करना सिखाई है।।

प्यार में सच्चाई की होती है मूरत।

दुनियां में माँ से बड़ी नही कोई मूरत।।

माँ की दुआओं का ही है असर हम पर।

 जो मुसीबतों को भी सह लेते हम हँस कर।

माँ की नज़र से ही दुनियां है देखी।

माँ की दुआओं ने दुनियां है बदली।।

लबों पै जिसके कभी बद्दुआ ना होती।

बस एक माँ है जो कभी खफ़ा ना होती।।

मां की गोदी में जन्नत हमारी।

सारे जहां में माँ लगती है प्यारी।।

ईश्वर से भी बड़ा दर्ज़ा होता है माँ का।

जिसने जगत में हमको पहचान दिलाई।।

हर रिश्ते में मिलावट देखी है हमने।

कच्चे रंगों की सजावट देखी है हमने।।

लेकिन माँ के चेहरे की थकावट ना देखी।

 ममता में उसकी कभी मिलावट ना देखी।।

कभी भूलकर ना ” माँ “का अपमान   करना।

हमेशा अपनी माँ का सम्मान ही करना।।

हो जाये अगर लाचार कभी अपनी माँ तो।

 कभी रूह से उसको जुदा तुम ना करना।।

एक माँ ही होती है,

जो बच्चे के गुनाहों को धो देती है।।

होती गर  गुस्से में माँ जब हमारी।

तो बस भावुकता से वो रो देती है।।

ऐ बन्दे दुआ मांग ले अपने रब से।

कि फिर से वही गोद मिल जाये।।

फिर से उसी माँ के कदमों में मुझको।

अपना सारा जहाँ मिल जाये।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (71 – 76)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (71-76) ॥ ☆

 

प्रतापी रवि के ज्यों उदय के पहले ही, अरूण प्रकट हो सब अॅधेरा मिटाता है

वैसे ही तब समान वीर के होते हुये पिता रघु लड़ें युद्ध, शोभा नहिं पाता है । 71

 

बदल करवटें झनझना श्रृंखलायें शयन त्याग जो हाथी तुम्हारे

लिये बाल रवि की किरण दंत शेरक पै, लगते है गैरिक-शिखर हैं उखाड़े। 72 ।

 

बँधे शामियानों में घोड़े वनायुज कमल नयन जग लेह्य सेंधव शिला के

जो सम्मुख हैं उनके,मलिन कर रहें है स्व निश्वास की वाष्प से सिरहिला वो। 73।

 

मुरझा चले पुष्प के हार कोमल औं फीकी हुई दीप की दीप्ति आभा

पिंजरे में बैठा हुआ छीर भी यह जगाता तुम्हें कह हमारी ही भाषा ॥ 74॥

 

ज्यों गंगा – तट राजहंसो का कृजन जमाता है सुप्रतीक ईशान गज को

वैसे ही वैतालिकों ने मधुर गीत गाके जगाया तो सुकुमार अज को ॥ 75॥

 

कमल नेत्र अज ने तो तब त्याग शैय्या, निपट प्रात विधियों से पूजन भजनकर

निपुण सेवकों से करा वेश सज्जा, गये नृपों सम जहाँ होना स्वयंवर ॥ 76॥

 

पंचम सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 93 ☆ ज़िंदगी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “ज़िंदगी। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 93 ☆

☆ ज़िंदगी ☆

ज़िंदगी बन गयी है

कुछ ऐसे दरख़्त सी

जिसकी जड़ें खोज रही हैं

कोई ऐसी मुलायम मिट्टी

जिसको पकड़ कर वो खड़ी हो सकें,

और चूस सकें पानी और वो धातु

जिससे दरख़्त पनपता रहे

और ख़ुशी में झूमे-गाये…

 

पर नहीं मिलती मुलायम मिट्टी कहीं,

सारी ज़मीन हो गयी है रेत के जैसी-

फिसल रहा है दरख़्त,

फिसल रही है ज़िंदगी,

फिसल रहे हैं हम! 

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 4 – सजल – जग में एक सभी का ईश्वर… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ ” मनोज साहित्य“ में आज प्रस्तुत है सजल “जग में एक सभी का ईश्वर…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 4 – सजल – जग में एक सभी का ईश्वर … ☆ 

सजल

समांत-अम

पदांत-है

मात्राभार- १६

 

वे कहते हैं बड़ा धरम है।

आती अब तो बड़ी शरम है।।

 

जग में रोती है मानवता,

अब तो उस पर करो रहम है।

 

जीने का अधिकार सभी को,

जीवों पर अब रहो नरम है।

 

अंध भक्ति में डूबा मानव,

कब उबरेंगे अभी भरम है।

 

बने लोग आतंकी अब तो

गला काटती लाल कलम है।

 

जग में एक सभी का ईश्वर,

इसमें उनको बड़ा वहम है।

 

प्रेम शाँति बंधुत्व भाव में,

जीवन जीना बड़ा अहम है।

 

चलें मिसाइल हैं जनता पर,

मरता मानव बुरा करम है।

 

कट्टरता से नाता तोड़ें,

सभी उठाएँ नया कदम है।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल ” मनोज “

20 मई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्यार कभी मरता नहीं है! ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – प्यार कभी मरता नहीं है! ?

वह सस्ता-सा

पुराना होटल,

जहाँ लेकर

उसका हाथ

अपने हाथ में,

पूछा था उसने-

क्या अपने नाम के आगे

मेरा नाम लगाना चाहोगी?

जवाब में उसने अपनी

बोलती निगाहें झुका दी थीं…

 

बाहर निकल कर,

होटल की पिछली दीवार के

एक पत्थर से एक पत्थर पर

उकेर दिया था उसने

‘प्यार कभी मरता नहीं है…’

 

फिर ढहा दिया गया वह होटल,

ढहते हर पत्थर और ईंट के साथ

दरकी, किरचीं और ढही थी

उसकी मोहब्बत भी…

 

बाद में बनने लगा वहाँ

एक आलीशान होटल या मॉल,

ठीक से पता नहीं उसे,

क्योंकि उधर जाने का

उसका मन फिर कभी हुआ ही नहीं…

 

बनने तो लगा

पर जाने किसकी आह लगी,

प्रॉपर्टी की कोई चिकचिक

या कानून की कोई झिकझिक,

किसी दुखी आँख का नीर

या किसी टूटे मन की पीर,

अब तक नहीं बन सका वह होटल,

आज भी पुराना मलबा पड़ा है,

तिमंज़िला भी पूरा होने की

उम्मीद में खड़ा है…

 

आज बरसों बाद

यूँ ही गुज़रा उधर से तो

जाने कैसे खिंचते चले गये उसके पैर

पिछवाड़े पड़े उस मलबे की ओर…

 

सारा मलबा झाड़-झंखाड़,

घास-फूस से ढका पड़ा है था

पर कमाल है,

मलबे की एक ओर

‘प्यार कभी मरता नहीं है’,

उकेरा हुआ पत्थर अब भी खड़ा था..!

 

©  संजय भारद्वाज

(संध्या 5:14 बजे, 18 अक्टूबर 2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 5 (66-70)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (66-70) ॥ ☆

 

जागो सुधी, रात गई प्रातः आया, है धाता ने जगभार तुम दो पै डाला

एक तो पिता आके जो सजग नित हैं, और आप धुर संग में जिसने सम्हाला॥66।

 

निशि नीदं में आपसे हो उपेक्षित, खण्डित सी जिस चंद्र सँग तब थी मुख श्री

वह भरि उसे तज प्रतीची में डूबा उठा नाथ अपनी गहो आनन श्री ॥ 67॥

 

नयनों औं कमलों के सॅग सॅग उन्मलिन में समता सुन्दरता की आभा बिखराइये

नेत्रों की पुतलियों को भ्रमरों सा कमलों में संचालित करते अब झटसे उठ जाइये ।

 

तब मुख सौरभ का भूखा प्रातः समीर वृक्षों के पुष्पों की सौरभ चुराता है

सूरज की किरणों को देख खिले कमलों संग खेल खेलता है प्रीति उत्सव मनाता है

 

वृक्षों के नवल ताम्र पव्तो पर ओस बिन्दु, निर्मल मणिमुक्ता सी शोभा बरसाते है

आपके ललास लाल अधरों पर रदन-पंक्ति शोभित मनमोहिनी मुस्कान से सुहाते है॥ 70 ॥

 

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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